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अच्छी कदकाठी और तीखे नैननक्श वाली सारिका उन के इतना नजदीक आ  खड़ी हुई तो वे घबरा गए. स्वभाव से अंतर्मुखी और अपनेआप में सिमटे हुए से डाक्टर साहब, ‘‘नहीं… नहीं… बिलकुल भी नहीं, मैं अभी जल्दी में हूं,’’ आदि कह कर उसे जाने का विचलित सा संदेश देते रहे.

मगर सारिका ने कहा, ‘‘मैं अकेला रहना बिलकुल पसंद नहीं करती. मगर क्या बताऊं हमेशा अब अकेले रहना होगा. क्या हुआ जो अगर हम आपस में कभी थोड़ी बात कर लिया करें?’’

‘‘कर लेंगे पर आज मुझे देर हो रही है,’’ मुकुंदजी अब भी टका सा जवाब दे कर हटने के प्रयास में थे.

‘‘आप को देर नहीं होगी, आप बस तैयार हो कर मेरे घर आ जाइए… अपना टिफिन मुझे दे दीजिए… इस में मैं ‘न’ नहीं सुनूंगी.’’

डाक्टर साहब ने आखिर हार मानी और मुसकरा कर बोल पड़े, ‘‘बड़ी जिद्दी हो.’’

‘‘लाइए पहले टिफिन दीजिए,’’ और इस तरह सारिका को दीवारों से बेहतर सुनने वाला मिल गया था.

‘‘आज बाजार में दुकानदार ने मुझे ढंग लिया, आज स्कूल में टीचर को खूब खरीखरी सुना आई. मेरा पति तो इधर पटक कर मुझे भूल ही गया, आप ही बताएं क्या मैं अकेले उम्र बिताने को ब्याही गई?’’

डाक्टर साहब अपने बेटे को शाम को पढ़ा रहे होते या फिर उस की पढ़ाई के वक्त पास बैठते, सारिका इन दिनों अपने बच्चे को उस की पढ़ाई के लिए मुकुंदजी के घर ले आती. दोनों बच्चे पढ़ते और वे दोनों थोड़ी दूरी पर बैठे होते. मुकुंदजी तो कई तरह की किताबें और अखबार पढ़ते और सारिका ताबड़तोड़ अपने दिल की बात मुकुंदजी को बताती. उम्र का फासला सारिका में जरा भी झिझक पैदा नहीं कर पाता.

मुकुंदजी अब सारिका की बातों के आदी हो रहे थे. उन की झिझक कुछ कम हो रही थी. अब संग वे थोड़ा हंसते, थोड़ा मजाक भी कर लेते जैसेकि नहीं, उम्र बिताने की अब फिक्र कहां. अब तो सिलसिला चल ही पड़ा है.

सारिका भौचक उन की ओर ताकती, फिर कहती, ‘‘मैं चलती हूं. आप के बेटे को पढ़ने में दिक्कत हो रही होगी, मेरी बातों की वजह से.’’

डाक्टर साहब कहते, ‘‘चलो दूसरे कमरे में बैठें.’’

सारिका अवाक होती. पहले तो मुकुंदजी भगाने की फिराक में रहते, अब क्या? मुकुंदजी वाकई उसे ले कर अपने बैडरूम में आते. उसे बिस्तर पर बैठने का इशारा कर के खुद बगल में रखे चेयर पर बैठ जाते.

सारिका को फिर से इतिहास के खंडहरों से ले कर भविष्य के टाइम मशीन में सवार यों ही बोलतेबतियाते छोड़ देते.

सात 17 बोलते वह जब कभी मुकुंदजी से कोईर् जवाब मांगती तो वे भौचक से उस की ओर ताकते.

कई दिनों से मुकुंदजी को ले कर सारिका के दिल में एक  कचोट पैदा हो रही थी. एक दिन वह इस तरह विफर पड़ी कि डाक्टर साहब अवाक उसे देखते रह गए.

‘‘फिर क्या फर्क रह गया आप में और सुदेश में? मैं तो अपने घर में बैठी अकेली इसी तरह बकबक कर सकती हूं. सुदेश जब भी घर आते पैसा पकड़ाने और देह की भूख मिटाने के सिवा मुझ से कोई वास्ता न रखते और आजकल तो वह रस्म भी जाने कैसे खत्म हो गई. मैं हूं या नहीं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता ठीक इसी तरह जैसे आप…’’

डाक्टर साहब शर्म से सिहर उठे. अवाक हो पहले तो सारिका को देखते रहे, फिर शर्म से गड़ने लगे.

अनर्गल बोलती सी सारिका अचानक ठिठक गई. महीना भर ही तो  हुआ है डाक्टर साहब से घुलतेमिलते, जाने क्याक्या वह बोल जाती है. उसे बहुत बुरा लग रहा था, वह चुप हो गई. डाक्टर साहब ऐसे ही शरमीले, इन बातों से वे शर्म से गड़ कर अखबार में ही धंस गए. उन दोनों की चुप्पी अब न जाने क्याक्या बोल उठी. डाक्टर साहब भी सुन रहे थे और सारिका भी. सारिका धीरे से उठी, नींद से बोझिल अपने बेटे को स्कूल बैग के साथ लिया और घर चली गई. 2 दिन वह नहीं आई. डाक्टर साहब ने भी कोई खबर नहीं ली.

चौथे दिन सारिका शाम 7 बजे उन के घर आई. कुछ ज्यादा ही अस्तव्यस्त, आंखें रोरो कर सूजी हुईं.

सारिका आते ही बोली, ‘‘कोई खोजखबर नहीं… मैं मुसीबत में पड़ूं तो क्या करूं. घर वाले इतनी दूर.’’

नर्मदिल डाक्टर साहब चिंतित से बोल पड़े, ‘‘क्यों क्या हुआ?’’

‘‘सुदेश बनारस गए हुए हैं, वहीं अचानक उन की तबीयत बहुत बिगड़ी… वे अस्पताल में हैं.’’

‘‘अरे क्या हुआ अचानक?’’

‘‘शायद लिवर में तकलीफ थी और अब तो बताया गया… और सारिका ने आंखें झका लीं, फिर तुरंत आगे कहने को उतावली सी डाक्टर साहब की ओर अपनी नजरें टिका दीं.

डाक्टर साहब ने उसे प्रेरित किया, ‘‘हां कहो और क्या बताया गया?’’

‘‘सैक्सट्रांसमिटेड डिजीज.’’

सारिका के कहते ही डाक्टर साहब की नजरें झक गईं. उन्हें सारिका पर बड़ा तरस आया कि बाकई दुखी स्त्री है.

डाक्टर साहब के साथ तो नीलिमा का प्यार और भरोसा हमेशा कायम है, लेकिन यह तो पति के रहते भी आज बहुत गरीब है.

डाक्टर साहब ने उसे अंदर ले जा कर कमरे में बैठाया. पूछा, ‘‘बनारस जाओगी?’’

‘‘मैं जाना चाहती हूं, मेरी जिंदगी यों मंझधार में…’’

सारिका को आंसू पोंछते देख डाक्टर साहब खुद को रोक नहीं पाए और आगे बढ़ उस के कंधे पर हाथ रखा. कहा, ‘‘ मैं ले जाऊंगा बनारस तुम्हें. अपने बेटे निलय को उस की बूआ के घर छोड़ दूंगा. तुम अंकित को…’’

सारिका उत्साहित सी बोल पड़ी, ‘‘मायके से कोई आ कर ले जाएगा, कहा था उन्होंने, अगर मैं बनारस जाऊं तो…’’

3 दिन बाद वे बनारस के एक होटल में थे. दोनों ने अगलबगल 2 कमरे लिए थे. तय हुआ दूसरे दिन वे अस्पताल सुदेश को देखने चलेंगे.

रात वे दोनों अपनेअपने कमरे में रहे. सुबह सारिका की  नींद खुली तो उसे बड़ी घबराहट हुई. वह तैयार हो कर मुकुंदजी के कमरे के दरवाजे पर गई. आवाज दी, सन्नाटे के सिवा कुछ भी हासिल नहीं हुआ उसे. फोन लगाया उस ने मुकुंदजी को. पता चला वे अलसुबह ही बनारस के घाट चले गए हैं.

सारिका उन्हें वहां अपने आने की इत्तला दे कर जल्दी बनारस घाट पहुंची. दूर से ही एकाकी कोने में बैठे मुकुंदजी सारिका को दिख गए. उगते सूरज को एकटक देख रहे थे वे.

सारिका कुछ देर उन के सामने खड़ी रही, फिर खुद ही बोल पड़ी, ‘‘आप मुझे छोड़ कर क्यों चल आए? अनजाने शहर में मेरी फिक्र नहीं की?’’

मुकुंदजी ने शांत भाव से सारिका को देखा और बोले, ‘‘फिक्र करता हूं तभी तो अनुमति लेने आया था.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘आगे की जिंदगी में न जाने कहां तक तुम्हारी फिक्र करनी पड़े, नीलिमा से कहे बिना कैसे तुम्हारा साथ दूं? मेरा मन कचोट रहा था, आज नीलिमा से अकेले में अपने मन की ऊहापोह…’’

एक बच्चे सी जिज्ञासा लिए सारिका पूछ बैठी, ‘‘नीलिमा दीदी से अनुमति मिल गई न?’’

डाक्टर साहब सिर झकाए बैठे रहे. क्या सारिका के प्रति वे दुर्बल हो रहे हैं? क्या उन के मन में सारिका को ले कर मोह और आकर्षण पैदा हो गया है?

और सारिका? क्या वह सिर्फ अपने हालात से जूझ रही या छोटी सी दूब उस की भी अनुभूतियों और कामनाओं की जमीन पर उग आईर् है? मुकुंदजी सारी असमंजस को एकतरफ ढकेल उठ खड़े हुए, ‘‘चलो तुम्हें अस्पताल चलना है न?’’ सारिका भी बिन कुछ कहे उठ खड़ी हुई. एक संतोष था कि शायद मुकुंदजी उस की परेशानी में साथ निभाएंगे.

सुदेश लंबा, स्मार्ट, गोराचिट्टा युवक जिसे अपने पैसे, औकात और व्यक्तित्व पर बड़ा घमंड था, जो किसी की सुनना अपनी तौहीन समझता था. अपने ऊंचे कांटेक्ट के बल पर वक्त को मुट्ठी में बांध सकता है, वह सोचता.

सुदेश जिस की पहली बीवी ने दुख झेला, बिन सहे चली गई, मगर दुख ले कर. दूसरी बीवी सहने की हद से गुजर गई तड़पती हुई. अनजाने ही दोनों की आहें लग गईं थी उसे. उस की बिंदास लापरवाह जिंदगी जीने के अंदाज ने उसे इस मरणखाट पर ला पटका था.

सुदेश से मिलने के बाद नर्स उन्हें अपने चैंबर में ले गईं. बोली, ‘‘मैं ने सुदेशजी से आप का फोन नंबर ले कर आप को फोन किया था. इन के दोस्त का नंबर मेरे पास है, वही इन का सबकुछ देख रहे हैं. कुछ देर में वे आ जाएंगे, इन के बिजनैस पार्टनर भी हैं. आप लोग उन से सारी बातें कर लें. सुदेशजी का लिवर सत्तर फीसदी खराब हो चुका है. साथ ही ट्रांसमिटेड डिजीज भी बहुत बढ़ा हुआ है, इन्फैक्शन अंदर तक फैल चुका है.’’

इस पूरे हालात में सारिका बहुत कमजोर सी पा रही थी खुद को. मुकुंदजी साथ न होते तो क्या होता… रहरह उस के दिमाग में यही खयाल आते.

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