एहसासकब सम झते हैं कि उम्र ढलने को है. उम्र काया की कोमलता तो ढाल सकती है पर एहसास को ढलने नहीं देती. आईना देख एक बिखरी लट को कान के पीछे अटकाते हुए लतिका आज भी शरमा सी जाती है. आज भी हर बात, हर सपना, हर उम्मीद वैसे की वैसे कायम है. उम्र ढलने

को है पर जज्बातों को कहां एहसास होता है इस का. वही गीत आज भी गुनगुनाते हैं लब, वही सपने आज भी नम कर जाते हैं पलकों को.

अपनी ही धुन में जीतेजीते न जाने कब ढल गए इतने बरस.

25 साल होने को आए पर लतिका आज भी उस एक नजर को तरसती है, आज भी हर सुबह एक नई किरण ले कर आती है, आज भी हवा का एक  झोंका उस के नजदीक होने का एहसास दिलाता है, जो नजदीक हो कर भी नजदीक नहीं है कहीं.

‘‘लतिका, लतिका... कहां हो?’’

लतिका को सपनों की दुनिया से हककीत में ले आने वाली यह आवाज थी उस के पति के बौस की बीवी की.

‘‘मैं यहां हूं, आई... बहुत दिनों में आईं आप, आप तो इधर आती ही नहीं,’’ लतिका आशा जीजी को देख हैरान हो बोली.

‘‘लतिका, चलो मेरे साथ, जल्दी चलो,’’ आशा जीजी लतिका का हाथ पकड़ खींचते

हुए बोली.

‘‘पर कहां जाना है जीजी, कुछ बताओ

तो? हवा के घोड़े पर सवार हो कर आई हो, बैठो तो... मैं शरबत लाती हूं, फिर बातें करते हैं,’’ लतिका बोली.

‘‘नहीं, बैठो मत चलो मेरे साथ, जल्दी है, गाड़ी में बैठो,’’ जीजी बोली.

‘‘पर क्या हुआ है? कहां जाना है? जीजी तुम तो मु झे डरा रही हो?’’ लतिका  झुं झलाते

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