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इंटर्नशिप के लिए आई छाया इस केस में डा. हितेश को असिस्ट कर रही है. बेहद जटिल केस था. रात के 8 बज गए थे. स्टाफ बस जा चुकी थी. अत: अस्पताल के कौर्नर वाले औटोस्टैंड पर खड़ी हो कर इंतजार करने के अलावा छाया के पास कोई चारा नहीं था.

तभी एक कार उस के नजदीक आ कर रुकी, ‘‘यदि आप बुरा न मानें तो मुझे आप को लिफ्ट देने में खुशी होगी.’’

‘‘लेकिन...’’

‘‘कोई बात नहीं. सच में अजनबी पर इतनी जल्दी भरोसा नहीं करना चाहिए. वैसे मैं आप को बता दूं कि आज औटो वालों की स्ट्राइक है... और कोई सवारी मिलना मुश्किल है.’’

‘‘जी, मैं मैनेज कर लूंगी...’’

‘‘देखिए आप को यहां अकेले खड़ा देख कर मेरे मन में मदद का जज्बा जागा और आप से पूछ बैठा... वरना...’’

उस की स्पष्टवादिता और अपनी मजबूरी समझ कर अब छाया मना न कर सकी. इस तरह छाया निशीथ से पहली बार मिली थी और फिर धीरेधीरे यह सिलसिला लंबा होता गया.

निशीथ छाया के अस्पताल से 4 किलोमीटर दूर जौब के साथसाथ रिसर्च सैंटर में भी काम करता था. अपनी थीसिस के सिलसिले में अकसर उस के अस्पताल आता तो छाया से उस का आमनासामना हो ही जाता. हर बार लोगों की भीड़ में मिले थे दोनों. इसी तरह

साल गुजर गया. अब छाया को लगने लगा था जैसे वह निशीथ के कदमों की आहट

हजारों की भीड़ में भी पहचानने लगी है... न जाने क्यों निशीथ के साथ घंटों बिताने की अजीब सी इच्छा उस के मन में जागने लगी थी. जब निशीथ की आंखें उस के चेहरे पर गड़ जातीं तो छाया की धड़कनें बढ़ जातीं...

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