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लेखिका- पारुल हर्ष बंसल

मधुमास के बाद लंबी प्रतीक्षा और सावनराजा के धरती पर कदम रखते ही हर जर्रा सोंधी सी सुगंध में सराबोर हो रहा है… मानो सब को सुंदर बूंदों की चुनरिया बना कर ओढ़ा दी हो. लेकिन अंबर के सीने से खुशी की फुलझड़ियां छूट रही हैं… जैसे वह अपने हृदय में उमड़ते अपार खुशी के सागर को आज ही धरती से जा आलिंगन करना चाहता है. बरखा रानी हवाई घोड़े पर सवार हैं, रुकने का नाम ही नहीं ले रही हैं. ऐसे बरस रही हैं, जैसे अब के बाद फिर कभी उसे धरती का सीना तरबतर करने और समस्त धरा को अपने स्नेह का कोमल स्पर्श करने आना ही नहीं है. हर पत्ता, हर डाली, हर फूल खुद को वैजयंती माल समझ इतरा रहा हो और इस धरती के रैंप पर मानो कैटवाक कर रहा हो….

घर की दुछत्ती यह सारा मंजर आंखें फाड़फाड़ कर देख रही है मानो ईर्ष्या से दरार पड़ गई हो, और उस का रुदन मालिनी के दिल को भी छलनी कर रहा है, जैसे एक बहन दूसरे के दुख में पसीज रही हो.

ऐसी बारिश जबजब पड़ी, उस ने मालिनी को हर बार उन बीती यादों की सुरंग में पीछे ले जा कर धकेल दिया.

उन यादों के खूबसूरत झूलों के झोटे तनमन में स्पंदन पैदा कर देते हैं.

वह खूबसूरत सा दिखने वाला, नीलीनीली आंखों वाला, लंबा स्मार्ट (कामदेव की ट्रू कौपी) वो 12वीं क्लास वाला लड़का आंखों के आगे घूम ही जाता.

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मालिनी ने जब 9वीं कक्षा में स्कूल बदला तो वहां सिर्फ एक वही था, उन सभी अजनबियों के बीच… जिस ने उस की झिझक को समझा कि किस प्रकार एक लड़की को नए वातावरण में एडजस्ट होने में वक्त तो लगता ही है. पर साथ ही साथ किसी अच्छे साथी के साथ की भी आवश्यकता होती है. उस ने हिंदी मीडियम से अंगरेजी मीडियम में प्रवेश जो लिया था, इसी कारण सारी लड़कियां मालिनी को बैकवर्ड और लो क्लास समझ भाव ही नहीं देती थीं.
वह जबजब इंटरवल या असेंबली में वरुण को दिख जाती, वही उस की खोजखबर लेता रहता.

“और बताओ… ‘छोटी’,
कोई परेशानी तो नहीं…?”
उस ने कभी मालिनी का नाम जानने की कोशिश ही नहीं की.

एक तो वह जूनियर थी और ऊपर से कद में भी छोटी और सुंदर.

वो उसे प्यार से छोटी ही पुकारता और उस के अंदर हमेशा “मैं हूं ना” कह कर उसे आतेजाते शुक्ल पक्ष के चतुर्थी के चांद सी, छोटी सी मुसकराहट से सराबोर कर जाता. मालिनी का हृदय इस मुसकराहट से तीव्र गति से स्पंदित होने लगता… लेकिन ना जाने क्यों…?

उस को वरुण का हर समय हिफाजत भरी नजरों से देखना… कुछकुछ महसूस कराने लगा था. किंतु क्या…?

वह यह समझ ही नहीं पा रही थी. क्या यही प्रेम की पराकाष्ठा थी? या किसी बहुत करीबी के द्वारा मिलने वाला स्नेह और दुलार था…?

किंतु इस सुखद अनुभूति में लिप्त मालिनी भी अब नि:संकोच हो कर मन लगा कर पढ़ने लगी. उसे जब भी कोई समस्या होती, उसी नीली आंखों वाले लड़के से साझा करती. हालांकि इतनी कम उम्र में लड़केलड़कियों में अट्रैक्शन तो आपस में रहता ही है, चाहे वह किसी भी रूप में हो…

सिर्फ दोस्त या सिर्फ प्रेमी या एक भाई जैसा संबोधन…

शायद भाई कहना गलत होगा, क्योंकि इस रिश्ते का सहारा ज्यादातर लड़केलड़कियां स्वयं को मर्यादित रखने के चक्कर में लेते हैं.

मालिनी अति रूढ़िवादी परिवार में जनमी घर की दूसरे नंबर की बेटी थी. उस के 2 भाई और 2 बहनें थीं. वह देखने में अति सुंदर गोरी और पतली. सहज ही किसी का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की काबिलीयत रखती थी.

एक दिन मालिनी स्कूल से लौटते वक्त बस स्टाप पर चुपचाप खड़ी थी. बस के आने में अभी टाइम था. खंभे से सट कर वह खड़ी हो गई, तभी वरुण वहां से साइकिल पर अपने घर जा रहा था कि उस की नजर मालिनी पर पड़ी और पास आ कर बोला, “छोटी, अभी बस नहीं आई…”

“नहीं…”

“चलो, मैं तुम्हारे साथ वेट करता हूं… बस के आने का..”

वह चुप ही रही. उस के मुंह से एक शब्द न फूटा.

सर्दियों की शाम में 4 बजे बाद ही ठंडक बढ़ने लगती है. आज बस शायद कुछ लेट थी. वह बारबार अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देखता, तो कभी बस के इंतजार में आंखें फैला देता.

पर, इतनी देर वह चुपचाप वहीं खड़ी रही जैसे उस के मुंह में दही जम रहा हो… टस से मस नहीं हुई…
दूर से आती बस को देख वह खुश हुआ. बोला, “चलो आ गई तुम्हारी बस. मैं भी निकलता हूं, ट्यूशन के लिए लेट हो रहा हूं.”

स्टाप पर आ कर बसरुक जाती है और सभी लड़कियां चढ़ जाती हैं, किंतु मालिनी वहीं की वहीं…

यह देख वरुण आश्चर्यचकित हो अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगता है. बस आगे बढ़ जाती है.

वरुण थोड़ी देर सोचने के बाद… फौरन अपना स्वेटर उतार कर मालिनी को दे देता है. वह कहता है, “यह लो छोटी… इसे कमर पर बांध लो…”

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“और…”

“पर, आप… यह क्यों…”

“ज्यादा चूंचपड़ मत करो…
मैं समझ सकता हूं तुम्हारी परेशानी…”

“पर, आप कैसे…?”

“मेरे घर में 2 बड़ी बहनें हैं. जब वे इस दौर से गुजरी, तभी मेरी मां ने उन दोनों को इस बारे में शिक्षित करने के साथसाथ मुझे भी इस बारे में पूरी तरह निर्देशित किया… जैसे गुलाब के साथ कांटों को भी हिदायत दी जाती है कि कभी उन्हें चुभना नहीं…

“क्योंकि मेरी मां का मानना था कि तुम्हारी बहनों को ऐसे समय में कोई लड़का छेड़ने के बजाय मदद करे,
तो क्यों न इस की शुरुआत अपने घर से ही करूं…

“तो मुझे तुम्हारी स्थिति देख कर समझ आ गया था. चलो, अब जल्दी करो…
और घर पहुंचो. तुम्हारी मां तुम्हारा इंतजार कर रही होंगी.”

मालिनी उस वक्त धन्यवाद के दो शब्द भी ना बोल पाई. उन्हें गले में अटका कर ही वहां से तेज कदमों से घर की ओर रवाना हुई.

फिर उसे अगले स्टाप पर घर जाने वाली दूसरी बस मिल गई.

उस के घर में दाखिल होते ही उस का हुलिया देख मां ऊपर वाले का लाखलाख धन्यवाद देने लगती है कि जिस बंदे ने आज मेरी बच्ची की यों मदद की है, उस की झोली खुशियों से भर दे. जरूर ही उस की मां देवी का रूप होगी.

आगे पढ़ें- अगले दिन मालिनी उस नीली आंखों वाले…

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