लेखिका- शक्ति पैन्यूली

‘‘तुम चिल्लाते क्यों हो जी. कुरतापाजामा वहीं खूंटी पर तो टंगा है. लेकिन ठहरो, अभी तुम कपड़े मत बदलना...’’ संतोष ने भीतर से आते हुए कहा.

‘‘क्यों...?’’ ताराचंद ने पूछा.

संतोष मुसकरा कर बोली, ‘‘क्योंकि तुम्हारी इच्छा चाय पीने की होगी. ऐसा करो तुम दुर्गा ताई के घर हो आओ. ताऊ को कल शाम से बुखार है. वहां चाय के साथ नमकीन भी मिल जाएगी...’’ थोड़ा रुक कर वह फिर बोली, ‘‘कल हम दोनों ही वहां जा कर सुबह की चाय पी लेंगे. आज दिनभर वहां बैठेबैठे मैं तो 2 बार की चाय पी आई थी. लौटते समय 6 संतरे भी साथ ले आई थी.’’

‘‘संतरे?’’ ताराचंद ने पूछा.

संतोष फिर मुसकरा कर बोली, ‘‘हां, ताऊ का हालचाल पूछने जो भी आ रहा था, ज्यादातर संतरे ही ला रहा था. मैं ने ताई के कान में फुसफुसा कर कह दिया था कि किसीकिसी बुखार में संतरा जहर का काम करता है. बस, ताई ने सारे संतरे आसपड़ोस में बांट दिए. मेरे हाथ भी 6 संतरे लग गए.’’

‘‘मिल ही रहे थे, तो पूरे दर्जनभर ले आती,’’ ताराचंद ने कहा.

‘‘ले तो आती, मगर सोचा कि शाम को 6 ही तो खा सकेंगे. बाकी रखेरखे सड़ गए तो फेंकने ही पड़ेंगे. अब कपड़े बदल लो. शाम के लिए कटोरा भर कर आलूपालक की सब्जी सुशीला दे गई है. भूख लग आए तो बता देना. मैं रोटियां सेंक दूंगी,’’ संतोष ने कहा.

‘‘सुशीला के घर की सब्जी में तो मिर्च बहुत होगी,’’ ताराचंद बोले.

‘‘अरे, मुफ्त की तो मिर्च में भी मजा ले लेना चाहिए. तुम्हें तो मुझे शाबाशी देनी चाहिए, जो मौका मिलते ही मुफ्त का जुगाड़ कर लेती हूं,’’ संतोष ने कहा.

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