खंभे की पच्चीकारी को जहां तक हाथ पहुंचता, छू कर देखते, एकदूसरे को बताते, फिर कहीं बातों मैं दूर बैठा उन्हें देख रहा था. जान गया कि वे दोनों अंधे हैं. एक तीव्र इच्छा यह जानने को जागी कि नेत्रहीन होते हुए भी इस दर्शनीय स्थल पर वे क्यों आए थे. सोच में डूबा मैं उन्हें देख रहा था.

घड़ी भर भी न बीता होगा कि बच्चों की चहक पर ध्यान चला गया. तीनों बच्चे उन दोनों के पास दौड़ कर आए थे. इसलिए थोड़ा हांफ रहे थे.

‘‘मां, चल कर देखो न, वहां पूरे मंदिर का छोटा सा एक मौडल रखा है. बिलकुल मेरी गुडि़या के घर जैसा है.’’

‘‘हांहां, बहुत अच्छा है,’’ मां ने हामी भरी.

‘‘अच्छा है? पर आप ने देखा कहां? चल कर देखो न,’’ बच्चे मचल रहे थे.

वे दोनों अपने तीनों बच्चों को समेटे मंदिर के छोटे पर अत्यंत सुघड़ मौडल को देखने चल दिए.

पास बैठ कर दोनों ने मौडल को हर कोने से छू कर देखा. मैं ने देखा, उन दोनों के हाथों में उलझी थीं उन के बच्चों की उंगलियां.

देखने के इस क्रम में आंखों की जरूरत कहां थी. मन था, मन का विश्वास था, एकदूसरे को समझनेसमझाने की चाहत थी, उल्लास था, उत्साह था. कौन कहता है कि आंखें भी चाहिए. बिना आंखों के भी दुनिया का कितना सौंदर्य देखा जा सकता है. आंखों वाले मांबाप क्या अपने बच्चों को सामीप्य का इतना सुख दे पाते होंगे? इस तरह के विचार मेरे मन में आए जा रहे थे.

हंसतेबतियाते वे पांचों फिर मंदिर में इधरउधर टहलते रहे. 3 जोड़ी आंखों से पांचों निहारते रहे, फिर वहीं बैठ

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