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जाड़े की कुनकुनी धूप में बैठी मैं कई दिनों से अपने अधूरे पड़े स्वैटर को पूरा करने में जुटी थी. तभी अचानक मेरी बचपन की सहेली राधा ने आ कर मुझे चौंका दिया.

‘‘क्यों राधा तुम्हें अब फुरसत मिली है अपनी सहेली से मिलने की? तुम ने बेटे की शादी क्या की मुझे तो पूरी तरह भुला दिया... कितनी सेवा करवाओगी और कितनी बातें करोगी अपनी बहू से... कभीकभी हम जैसों को भी याद कर लिया करो.’’

‘‘कहां की सेवा और कैसी बातें? मेरी बहू को तो अपने पति से ही बातें करने की फुरसत नहीं है... मुझ से क्या बातें करेगी और क्या मेरी सेवा करेगी? मैं तो 6 महीनों से घर छोड़ कर एक वृद्धाश्रम में रह रही हूं.’’

यह सुन कर मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे पैरों तले से जमीन खींच ली हो. मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई. क्या बोलती उस राधा से जिस ने अपना सारा जीवन, अपनी सारी खुशियां अपने बेटे के लिए होम कर दी थीं. आज उसी बेटे ने उस के सारे सपनों की धज्जियां उड़ा कर रख दीं...

अपने बेटे मधुकर के लिए राधा ने क्या नहीं किया. अपनी सारी इच्छाओं को तिलांजलि दे, अपने भविष्य की चिंता किए बिना अपनी सारी जमापूंजी निछावर कर उसे मसूरी के प्रसिद्ध स्कूल में पढ़ाया. उस के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे दिल्ली भेजा. इस सब के लिए उसे घोर आर्थिक संकट का सामना भी करना पड़ा. फिर भी वह हमेशा बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना कर खुशीखुशी सब सहती रही. जब भी मिलती अपने बेटे की प्रगति का समाचार देना नहीं भूलती. वह अपने बेटे को खरा सोना कहती.

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