गायत्री को अभी तक होश नहीं आया था. वैसे रविकांत गायत्री के लिए कभी परेशान ही नहीं हुए थे. उस की ओर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. बस, घर सुचारु रूप से चलता आ रहा था. घर से भी ज्यादा उन के अपने कार्यक्रम तयशुदा समय से होते आ रहे थे. सुबह वे सैर को निकल जाते थे, शाम को टैनिस जरूर खेलते, रात को टीवी देखते हुए डिनर लेते और फिर कोई पत्रिका पढ़तेपढ़ते सो जाते. उन की अपनी दुनिया थी, जिसे उन्होंने अपने इर्दगिर्द बुन कर अपनेआप को एक कठघरे में कैद कर लिया था. उन का शरीर कसा हुआ और स्वस्थ था.

रविकांत ने कभी सोचने की कोशिश ही नहीं की कि गायत्री की दिनचर्चा क्या है.? दिनचर्या तो बहुत दूर की बात, उन्हें तो उस का पुराना चेहरा ही याद था, जो उन्होंने विवाह के समय और उस के बाद के कुछ अरसे तक देखा था. सामने अस्पताल के पलंग पर बेहोश पड़ी गायत्री उन्हें एक अनजान औरत लग रही थी.

रविकांत को लगा कि अगर वे कहीं बाहर मिलते तो शायद गायत्री को पहचान ही न पाते. क्या गायत्री भी उन्हें पहचान नहीं पाती? अधिक सोचना नहीं पड़ा. गायत्री तो उन के पद्चाप, कहीं से आने पर उन के तन की महक और आवाज आदि से ही उन्हें पहचान लेती थी. कितनी ही बार उन्हें अपनी ही रखी हुई चीज न मिलती और वे झल्लाते रहते. पर गायत्री चुटकी बजाते ही उस चीज को उन के सामने पेश कर देती.

पिछले कई दिनों से रविकांत, बस, सोचविचार में ही डूबे हुए थे. बेटे ने उन से कहा था, ‘‘पिताजी, आप घर जा कर आराम कीजिए, मां जब भी होश में आएंगी, आप को फोन कर दूंगा.’’

बहू ने भी बहुतेरा कहा, पर वे माने नहीं. रविकांत का चिंतित, थकाहारा और निराश चेहरा शायद पहले किसी ने भी नहीं देखा था. हमेशा उन में गर्व और आत्मविश्वास भरा रहता. यह भाव उन की बातों में भी झलकता था. वे अपने दोस्तों की हंसी उड़ाते थे कि बीवी के गुलाम हैं. पत्नी की मदद करने को वे चापलूसी समझते.

रविकांत सोच रहे थे कि गायत्री से हंस कर बातचीत किए कितना समय बीत चुका है. बेचारी मशीन की तरह काम करती रहती थी. उन्हें कभी ऐसा क्यों नहीं महसूस हुआ कि उसे भी बदलाव चाहिए?

एक शाम जब वे क्लब से खेल कर लौटे, तो देखा कि घर के बाहर एंबुलैंस खड़ी है और स्ट्रैचर पर लेटी हुई गायत्री को उस में चढ़ाया जा रहा है. उस समय भी तो अपने खास गर्वीले अंदाज में ही उन्होंने पूछा था, ‘एंबुलैंस आने लायक क्या हो गया?’

फिर बेटेबहू का उतरा चेहरा और पोते की छलछलाती आंखों ने उन्हें एहसास दिलाया कि बात गंभीर है. बहू ने हौले से बताया, ‘मांजी बैठेबैठे अचानक बेहोश हो गईं. डाक्टर ने नर्सिंगहोम में भरती कराने को कहा है.’

तब भी उन्हें चिंता के बजाय गुस्सा ही आया, ‘जरूर व्रतउपवास से ऐसा हुआ होगा या बाहर से समोसे वगैरह खाए होंगे.’

यह सुन कर बेटा पहली बार उन से नाराज हुआ, ‘पिताजी, कुछ तो खयाल कीजिए, मां की हालत चिंताजनक है, अगर उन्हें कुछ हो गया तो…?’

13 वर्षीय पोता मनु अपने पिता को सांत्वना देते हुए बोल रहा था, ‘नहीं पिताजी, दादी को कुछ नहीं होगा,’ फिर वह अपने दादा की ओर मुड़ कर बोला, ‘आप को यह भी नहीं पता कि दादी बाजार का कुछ खाती नहीं.’

उस समय उन्होंने पोते के चेहरे पर खुद के लिए अवज्ञा व अनादर की झलक सी देखी. उस के बाद कुछ भी बोलने का रविकांत का साहस न हुआ. उन का भय बढ़ता जा रहा था. डाक्टर जांच कर रहे थे. एकदम ठीकठीक कुछ भी कहने की स्थिति में वे भी नहीं थे कि गायत्री की बेहोशी कब टूटेगी. इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं था.

कुछ बरस पहले गायत्री के घुटनों में सूजन आने लगी थी. वह गठिया रोग से परेशान रहने लगी थी. दोपहर 3 बजे उसे चाय की तलब होती. वह सोचती कि कोई चाय पिला दे तो फिर उठ कर कुछ और काम कर ले. बहू दफ्तर से शाम तक ही आती. एक दिन असहनीय दर्द में गायत्री ने रविकांत से कहा, ‘मुझे अच्छी सी चाय बना कर पिलाइए न, अपने ही हाथ की पीपी कर थक गई हूं.’

रविकांत झल्लाते हुए बोले, ‘और भेजो बहू को दफ्तर. वह अगर घर संभालती तो तुम्हें भी आराम होता.’

हालांकि रविकांत अच्छी तरह जानते थे कि अब महिलाओं को केवल घर से बांध कर रखने का जमाना नहीं रहा, पर अपनी गलत बात को भी सही साबित करने से ही तो उन के अहं की पुष्टि होती थी.

कुछ माह पूर्व रात को सब साथ बैठ कर खाना खा रहे थे. रविकांत हमेशा की तरह अपना खाना जल्दीजल्दी खत्म कर हाथ धो कर वहीं दूसरी कुरसी पर बैठ गए और टीवी देखने लगे. अचानक मनु ने पूछा, ‘दादाजी, क्या आप दादीजी में कुछ फर्क देख रहे हैं?’

रविकांत ने टीवी पर से आंखें हटाए बिना पूछा, ‘कैसा फर्क?’

‘पहले दादीजी को देखिए न, तब तो पता चलेगा.’

बेचारी गायत्री अपने में ही सिमटी जा रही थी. रविकांत ने एक उड़ती नजर उस पर डाली और बोले, ‘नहीं, मुझे तो कोई फर्क नहीं लग रहा है.’

‘आप ठीक से देख ही कहां रहे हैं, फर्क कैसे महसूस होगा?’ मनु निराशा से बोला. इस बीच बहूबेटा मुसकराते रहे.

‘पिताजी, बोलिए न, दादाजी को बता दूं?’ मनु ने लाड़ से पूछा.

फिर वह गंभीर स्वर में बोला, ‘दादाजी, दादी को दोपहर की चाय कौन बना कर पिलाता है, बता सकते हैं?’

दादाजी कुछ बोलें, उस से पहले ही छाती तानते हुए वह बोला, ‘और कौन, सिवा मास्टर मनु के…’

‘तू चाय बना कर पिलाता है?’ रविकांत अविश्वास से हंसते हुए बोले.

‘क्यों, मैं क्या अब छोटा बच्चा हूं? दादीजी से पूछिए, उन की पसंद की कितनी बढि़या चाय बनाता हूं.’

उस समय रविकांत को लगा था कि पोते ने उन्हें मात दे दी. उन के बेटे ने उन से कभी खुल कर बात नहीं की थी. उन का स्वाभिमान, भले ही वह झूठा हो, उन्हें बाध्य कर रहा था कि मनु के बारे में वही खयाल बनाएं जो अन्य पुरुषों के बारे में थे. उन्हें लगा, मनु भी बस अपनी बीवी की मदद करते हुए ही जिंदगी बिता देगा. ऐसे लोगों के प्रति उन की राय कभी भी अच्छी नहीं रही.

अस्पताल में बैठेबैठे न जाने क्यों उन्हें ऐसा लग रहा था कि अब चाय बनाना सीख ही लें. गायत्री को होश आते ही अपने हाथ की बनी चाय पिलाएं तो उसे कितना अच्छा लगेगा. अपनी सोच में आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन से वे खुद भी आश्चर्य से भर गए.

एक दिन रविकांत मनु से बोले, ‘‘आज जब भी तू चाय बनाए तो मुझे बताना कि कितना पानी, कितनी चीनी और दूध वगैरह कब डालना है. सब बताएगा न?’’

‘‘ठीक है, जब बनाऊंगा, आप खुद ही देख लीजिएगा. आजकल तो केवल आप के लिए बनती है. वैसे दादी की और मेरी चाय में दूध और चीनी कुछ ज्यादा होती है.’’

‘‘तुम नहीं पियोगे?’’

‘‘जब से दादी अस्पताल गई हैं, मैं ने चाय पीनी छोड़ दी है,’’ कहतेकहते मनु की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘आज से हम दोनों साथसाथ चाय पिएंगे. आज मैं बनाना सीख लूंगा तो कल से खुद बनाऊंगा.’’

मनु सुबकसुबक कर रोने लगा, ‘‘नहीं दादाजी, जब तक दादीजी ठीक नहीं हो जाएंगी, मैं चाय नहीं पिऊंगा.’’

रविकांत को पहली बार लगा कि गायत्री की घर में कोई हैसियत है, बल्कि हलकी सी ईर्ष्या भी हुई कि उस ने बहू व पोते पर जादू सा कर दिया है. मनु को गले लगाते हुए वे बोले, ‘‘तुम अपनी दादी को बहुत चाहते हो न?’’

‘‘क्यों नहीं चाहूंगा, मेरे कितने दोस्तों की दादियां दिनभर ‘चिड़चिड़’ करती रहती हैं. घर में सब को डांटती रहती हैं, पर मेरी दादी तो सभी को केवल प्यार करती हैं और मुझे अच्छीअच्छी कहानियां सुनाती हैं. मालूम है, मुझे उन्होंने ही कैरम व शतरंज खेलना सिखाया. मां भी हमेशा दादी की तारीफ करती हैं. बिना दादीजी के तो हम लोग उन के प्यार को तरस जाएंगे.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा मत बोल. तेरी दादी को जल्दी ही होश आ जाएगा. फिर हम तीनों साथसाथ चाय पिएंगे,’’ पहली बार रविकांत को अपनी आवाज में कंपन महसूस हुआ.

उस दिन उन्होंने चाय बनानी सीख ही ली. मनु को खुश करने को उन्हें अचानक एक तरकीब सूझी, ‘‘क्यों न ऐसा करें, हम रोज दोपहर की चाय बना कर अस्पताल ले जाएं, किसी दिन तो तुम्हारी दादी होश में आएंगी, फिर तीनों साथसाथ चाय पिएंगे.’’

मनु उन की बात से बहुत उत्साहित तो नहीं हुआ, पर न जाने क्यों दिल उन की बात मानने को तैयार हो रहा था.

अगले दिन दोपहर को अस्पताल से फोन आया, बहू बोल रही थी, ‘‘पिताजी, मांजी होश में आ गई हैं, आप मनु को ले कर तुरंत आ जाइए.’’

रविकांत बच्चों की तरह उत्साह से भर उठे. जल्दीजल्दी चाय बना कर थर्मस में भर कर साथ ले गए. वहां गायत्री पलंग पर लेटी जरूर थी, पर डाक्टरों, नर्सों और दूसरे कर्मचारियों के खड़े रहने से दिख नहीं पा रही थी. मनु किसी तरह पलंग के पास पहुंच कर दादी की नजर पड़ने का इंतजार करने लगा.

रविकांत के मन में बस एक ही बात थी कि थर्मस में से अपने हाथ की बनी चाय पिला कर गायत्री को चकित कर दें, उन्होंने यह भी नहीं देखा कि वह वास्तव में होश में आ गई है या नहीं और डाक्टर क्या कह रहे हैं? बस, कप में चाय भर कर गायत्री के पास खड़े हो गए. गायत्री मनु को देख रही थी और मनु उस के हाथ को सहला रहा था.

डाक्टर ने रविकांत को देखा, ‘‘यह आप कप में क्या लाए हैं?’’

‘‘जी, इन्हें पिलाने के लिए चाय लाया हूं,’’ रविकांत की इच्छा हो रही थी कि कहें, ‘अपने हाथ की बनी,’ पर संकोच आड़े आ रहा था.

‘‘नहीं, अब आप को इन का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. मैं पूरा डाइट चार्ट बना कर देता हूं. उसी हिसाब और समय से इन्हें वही चीजें दें, जो मैं लिख कर दूं. चीनी, चावल, आलू, घी, वसा सब एकदम बंद. शक्कर वाली चाय तो इन के पास भी मत लाइए.’’

रविकांत चाय का प्याला हाथ में लिए बुत की तरह खड़े रहे. मनु नर्स द्वारा लाया गया सूप छोटे से चम्मच से बड़े जतन से दादी के मुंह में डाल रहा था.

ये भी पढ़ें- वजूद: क्या छिपा रही थी शहला

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...