मोबाइलपर मैसेज

की घंटी बजी. अनजान नंबर था, प्रोफाइल पिक्चर के नाम पर एक तकिए पर रखा एक गुलाब का फूल. मैसेज में लिखा

था, ‘‘नमस्ते.’’

सोचा कि एक और स्पैम मैसेज, कौंटैक्ट का नाम देखने की कोशिश की, लिखा था ‘रोज’ यानी गुलाब थोड़ी देर रहने दिया.

एक बार फिर से मैसेज टोन बजी. उसी नंबर से था, ‘‘जी नमस्ते.’’

मैं ने कुछ सोचा, फिर जवाब लिख दिया, ‘‘नमस्ते, क्या मैं आप को जानता हूं?’’

मैसेज चला गया, पहुंच गया, पढ़ लिया गया. जवाब तुरंत नहीं आया. लगभग 10 मिनट की प्रतीक्षा के बाद  मैसेज टोन फिर से बजी, ‘‘आप मु झे नहीं जानते, मैं ने आप का नंबर आप के मैट्रिमोनियल प्रोफाइल से लिया है.’’

‘‘मैं सोच में पड़ गया. मैट्रिमोनियल प्रोफाइल. एक वैबसाइट पर अपनी डिटेल मैं ने कुछ महीने पहले डाली थी. फिर उस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई थी और मैं लगभग भूल सा गया था.

कामकाज के चक्कर में शादीवादी तो कहीं पीछे ही छूट गई थी. अकेला बंदा दिनरात काम में डूबा हुआ और वह भूली सी मैट्रिमोनियल प्रोफाइल. खैर. थोड़ी देर बाद जवाब लिख दिया, ‘‘अच्छा, तो बताइए?’’

अगला जवाब फिर से थोड़ी प्रतीक्षा के बाद आया, ‘‘आप की शादी तो नहीं हुई न अभी?’’

इस बार मैं ने तत्काल जवाब दिया, ‘‘नहीं.’’

कुछ देर बाद फिर से मैसेज टोन बजी, ‘‘मैं आप से शादी के लिए ही बात करना चाहती हूं.’’

इस सीधे प्रस्ताव को हजम करने के लिए मैं ने उस दिन कोई मैसेज नहीं किया. उधर से भी फिर कोई मैसेज नहीं आया.

अगले दिन रात को मैसेज टोन फिर से बजी, ‘‘क्या आप शादी के लिए बात करने के लिए मु झ से मिलना चाहेंगे?’’

मैं ने जवाब दिया, ‘‘देखिए, मैं आप को जानता नहीं हूं, आप का नाम तक नहीं जानता, आप चाहें तो मु झे अपना बायोडाटा भेज सकती हैं.’’

जवाब में कुछ देर के बाद एक स्माइली और एक गुलाब का फूल.

ये कैसा ‘बायोडाटा’ था. थोड़ी देर बाद मैं सो गया, हलकी सी मुसकान के साथ.

अगले दिन रात को फिर से, ‘‘जी देखिए, बायोडाटा तो मैं नहीं भेज सकती

लेकिन आप से मिल कर बात करना चाहती हूं.’’

यह कुछ नया सा था कि न नाम, न बायोडाटा सीधा मिलना. अत: आज मैं ने कोई जवाब नहीं दिया, ज्यादा कुतूहल ठीक नहीं. 1-2 दिन व्यस्त रहा, उस अनजान नंबर से कोई मैसेज भी नहीं आया.

फिर एक दिन रात को मेरी उत्सुकता मेरे संयम पर भारी पड़ गई. मैं ने भी एक स्माइली भेज दी.

मैसेज डिलिवर नहीं हुआ. मैं ने कुछ देर इंतजार किया, फिर फोन बंद कर के सो गया.

अगली सुबह फोन औन करते ही 2-3  मैसेज, ‘‘तो मिलने की उम्मीद है, इस संडे को लखनऊ आइए न.’’

फिर एक स्माइली और गुलाब. मु झे गुलाब कभी पसंद नहीं आया, आखिर यही फूल प्यार का प्रतीक क्यों है. खैर, अब यह लखनऊ कहां से आ गया, मैं दिल्ली में और वह लखनऊ.

ऐसे कोई शादी की बात करता है. मैं ने आज सीधे फोन लगा दिया. उधर से किसी ने नहीं उठाया. मैसेज आया, ‘‘देखिए मैं फोन पर बात नहीं कर सकती, प्लीज, मैसेज से ही बात कीजिए, संडे को लखनऊ आ रहे हैं न…’’

मैं ने मैसेज कर दिया, ‘‘संडे को मैं बिजी हूं,’’ और फिर फोन डाटा औफ कर दिया कि आज कोई मैसेज देखूंगा ही नहीं.

रात को डाटा औन किया, कोई नया मैसेज नहीं था. आखिर चल क्या रहा है. इन्हीं उल झनों के बीच फिर से सो गया, बिना मुसकान के.

हफ्ता बीत गया. संडे भी आया और खाली चला गया. मैं भी थोड़ा कम ही बिजी रहा. क्या होता अगर मैं लखनऊ चला ही गया होता.

फिर से रात आई. 3-4 दिन से कोई मैसेज नहीं आया था. क्या बात खत्म हो गई, हो भी गई तो क्या. मैं कहां किसी को जानता हूं… वह भी शादी की बात.

मैसेज की घंटी बजी. मैं ने जल्दी से फोन देखा. किसी और गु्रप में मैसेज आया था. मैसेज खोले बिना मैं ने फोन बंद कर दिया और सो गया.

अगली सुबह. गुलाब वाले प्रोफाइल से कुछ मैसेज आए हुए थे, ‘‘देखिए अगले संडे को पक्का लखनऊ आइएगा. होटल क्लार्क के रैस्टोरैंट में सुबह के नाश्ते पर आप से मिलूंगी. प्लीज, प्लीज.

‘‘प्लीज मिल लीजिए, अगर इस संडे

को आप नहीं आए तो शायद फिर कभी मौका

न मिले.’’

उफ, अब एक डैडलाइन भी मिल गई, जोकि इसी संडे को पूरी करनी थी. मैं ने भी जीवन में तमाम तरह के पंगे किए थे, सोचा एक यह भी सही. देखें क्या होता है. अत: मैं ने जवाब में एक स्माइली, एक थम्सअप और एक गुलाब भी भेज दिया. शायद मैं भी पंगे के मूड में आ गया था.

पता नहीं क्यों मन में एक कहावत बारबार घूमफिर कर याद आ रही, जो कुछ ऐसा है कि चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर कटना तो खरबूजे को ही है. पता नहीं मैं खुद को खरबूजा सम झ रहा था या चाकू.

मैं ने शनिवार रात को जाने वाली लखनऊ मेल का टिकट ले लिया और एक स्क्रीनशौट भी गुलाब के प्रोफाइल वाले नंबर पर भेज दिया. उधर से जवाब में थम्सअप, गुलाब और हार्ट वाले मैसेज आ गए थे.

मैं ने शनिचर को ट्रेन पर सवार होने का इरादा बना लिया था. मु झ पर शायद अभी से शनिचर सवार हो गया था.

बदस्तूर शनिवार आया और मैं लखनऊ मेल में सवार हो कर लखनऊ पहुंच गया. लखनऊ के प्लेटफौर्म पर उतरते ही 2 छोटीछोटी बच्चियों ने गुलाब के फूल से मेरा स्वागत किया.

‘‘वैलकम.’’

मैं चौंक गया. पूछा, ‘‘ये गुलाब किस ने दिए?’’

‘‘वह दीदी, वहां लाल स्कार्फ में बैठी हैं,’’ जवाब मिला.

मैं ने प्लेटफौर्म पर दाईं तरफ देखा, थोड़ी दूरी पर एक लाल स्कार्फ जैसी  झलक किसी कुरसी पर बैठी दिखी. मैं उधर ही बढ़ गया. प्लेटफौर्म पर छिटपुट भीड़ थी. बढ़तेबढ़ते एक कुरसी तक पहुंचा, सचमुच एक युवती लाल स्कार्फ में बैठी थी. गुलाब मेरे हाथ में अब भी था. मैं ने जा कर धीरे से हैलो कहा. उस ने अजीब दृष्टि से मु झे देखा.

मैं ने कहा, ‘‘वेलकम के लिए थैंक्स.’’

उस ने घबरा कर कहा, ‘‘आप कौन हैं.’’

गुलाब वाला हाथ थोड़ा आगे कर के मैं ने कहा, ‘‘वह उन बच्चियों ने बताया कि आप ने गुलाब भेजे हैं,’’ कह मैं ने प्लेटफौर्म पर इधरउधर देखा. कोई बच्ची नजर नहीं आई. मेरे कान लाल हो गए जितना कि हो सकते थे,

उस लड़की की घबराहट देखते हुए मैं ने गुलाब वाला हाथ पीछे किया और वहां से चल निकला, लगभग भाग ही निकला क्योंकि आसपास के यात्री मु झे घूरने लगे थे और शायद किसी भी क्षण मेरा सामना लखनवी तहजीब की एक अलग विधा से हो सकता था. खैर. उल झन बढ़ती ही जा रही थी कि होटल क्लार्क जाऊं या न जाऊं. फिर औटोरिकशा लिया और पहुंच ही गया.

रिसैप्शन पर पहुंचते ही रिसैप्शनिस्ट ने पुकारा, ‘‘हैलो,’’ शायद मेरे प्रोफाइल फोटो से सब को मेरी पहचान करा दी गई थी.

‘‘जी, आप मु झे कैसे जानती हैं.’’

‘‘वैलकम टू अवर होटल, आप के लिए रूम नं. 304 बुक है, मैडम ने कमरा बुक कराया है.’’

‘‘304, कौन सी मैडम?’’

‘‘जी वे 305 में ठहरी हैं. आप अपनी ऐंट्री कर के रूम में जा सकते हैं.’’

‘‘रिसैप्शनिस्ट ने मु झे अपनी बेशकीमती मुसकराहट के साथ आश्वस्त किया. मैडम को बिलकुल ही नहीं जानने की हिमाकत मैं ने और जाहिर नहीं की, चुपचाप ऐंट्री की, चाबी ली और रूम नं. 304 के गेट पर आ गया.

रूम नं. 305 भी बगल में ही था. अगलबगल 2 कमरे, आखिर चल क्या रहा है.

ब्रेकफास्ट में क्या और कब मिलने वाला है.

मेरे सब्र की इंतहा हो चुकी थी. जाते ही मैं ने सीधे 305 में जाने की सोची. फिर सोचा, अपने कमरे में जा कर फ्रैश हो जाना अच्छा रहेगा. कमरा बंद कर के अपना छोटा बैग खोल ही रहा था कि कमरे की डोरबैल बजी.

धड़कते दिल से मैं ने दरवाजा खोला, अटैंडैंट था. मु झे टौवेल, सोप, ब्रश आदि की वैलकम किट दे गया. मैं ने भी फ्रैश हो कर नहानाधोना शुरू कर दिया. शायद डोरबैल फिर से बजे इस उम्मीद में मैं ने बाथरूम का दरवाजा खुला ही रखा.

जब पूरा साबुन लगा कर शौवर ले रहा था तब ऐसा लगा की डोरबैल बजी है. मैं ने जल्दी से नहाना खत्म किया. गीले बदन ही टौवेल लपेटा और लगभग भागते हुए दरवाजा खोलने आया. दरवाजे पर कोई भी नहीं था, थोड़ा कौरिडोर में  झांका. खाली था. दरवाजे पर एक भीनी सी परफ्यूम की खुशबू तैर रही थी, जोकि मेरे साबुन की खुशबू के बावजूद मु झ तक पहुंच रही थी. गहरी सांस ले कर मैं वापस कमरे में आ गया.

कपडे़ बदले, गीला टौवेल डालने बालकनी में गया, हलकी धूप थी, टौवेल डाल कर बगल की बालकनी में देखा, रूम नं. 305 की बालकनी थी. मैं ने  झांकने की कोशिश की. कांच के दरवाजों के पार मोटा परदा लगा था. बालकनी में कुछ रंगबिरंगे कपड़े सूख रहे थे, न चाहते हुए भी मैं ने कपड़ों को देख कर रूम नं. 305 की अल्पवासिनी के बारे में कल्पनाएं की.  कुछ ही पलों में मैं इस कल्पना और अनुमान के खेल को खत्म करना चाहता था.

मैं ने कमरे में वापस आ कर बाल संवारे, सुबह स्टेशन पर मिले गुलाब के फूलों में से एक फूल उठा लिया और दरवाजा खोल कर 305 की डोरबैल बजा दी. बैल की आवाज मु झे भी सुनाई दी, लेकिन दरवाजा खोलने कोई नहीं आया. फिर बैल बजाई. कोई उत्तर नहीं. मैं ने दरवाजे का हैंडल घुमाते हुए हलका सा धक्का दिया, दरवाजा खुला हुआ था. मैं धीरे से अंदर दाखिल हो गया.

धीमी सी रौशनी, बिस्तर पर सफेद चादर और कमरे में फैली हुई वही परफ्यूम

की खुशबू जो कुछ ही देर पहले मैं ने अपने कमरे के दरवाजे पर महसूस की थी.

कमरा खाली था. सफेद तकिए पर एक गुलाब रखा हुआ था. मैं आगे बढ़ा बाथरूम से पानी गिरने की आवाज आ रही थी. मैं उधर ही बढ़ गया. बाथरूम का दरवाजा थोड़ा सा खुला था. सुरीली आवाज में गुनगुनाने की आवाज भी आ रही थी. बाथरूम के दरवाजे पर दस्तक दूं सोच थोड़ा सा बढ़ा ही था कि मोबाइल पर मैसेज आने की आवाज आई, ‘‘प्लीज, ब्रेकफास्ट पर मिलिए.’’

मेरे कदम रुक गए. वापस बिस्तर तक आया. अपने हाथ का गुलाब तकिए पर रखे गुलाब की बगल में रख दिया. अब वहां 2 गुलाब थे.

लौट कर 304 में आया और फिर धीमे कदमों से नीचे ब्रेकफास्ट लौबी की ओर चल पड़ा. बात तो ब्रेकफास्ट पर मिलने की ही हुई थी.

ब्रेकफास्ट लौबी लगभग खाली थी. मैं ने एक ऐसी टेबल चुनी जिस से कि उतरती हुई सीढि़यों और लिफ्ट दोनों पर नजर रखी जा सके. थोड़ी ही देर में वेटर आ गया. यानी मेरे लिए नाश्ते का और्डर पहले ही किया हुआ था.

नाश्ते के साथ चाय या कौफी बस इतना पूछने आया था वेटर. खाली इंतजार करने से बेहतर समझ मैं ने ब्रेकफास्ट मंगवा ही लिया. नजर तो खैर सीढि़यों की तरफ ही थी.

कुछ ही देर में वहां से एक जोड़ी कदम उतरते हुए दिखाई दिए. एक युवती नपेतुले कदमों से ब्रेकफास्ट लौबी में आई. मैं ने स्वागत में नजरें उठाईं, लेकिन वह तो मोबाइल में देख रही थी. मेरे प्रत्याशा के प्रतिकूल वह मेरी टेबल के बजाय साथ की दूसरी टेबल पर जा बैठी जहां एक पारिवारिक समूह पहले से खानेपीने और गपशप में लगा था.

मेरा इंतजार जारी रहा. कुछ और संभावित युवतियां आईं और गईं, लेकिन कोई अकेली नहीं थी. एक को तो लिफ्ट से कुछ पुलिस वाले ले कर गए, उस के चेहरे पर मास्क लगा था. एक और थी जो एक युवक के साथ थी और उस का चेहरा भी परदे में था. मैं ने यथासंभव धीरेधीरे नाश्ता खत्म किया, मेरी टेबल की तरफ कोई भी नहीं आई.

नाश्ते के बाद मैं ने बिल देना चाहा तो पता चला कि बिल दिया जा चुका है. मैं ने उस नंबर पर फोन लगाया, जो हमेशा की तरह नहीं उठाया गया. मैं ने मैसेज डाल दिया, ‘‘कहां हो तुम?’’ मैसेज चला गया, लेकिन डिलिवर नहीं हुआ.

मैं ने होटल का एक चक्कर लगाया, पूल साइड से भी हो कर आया, फिर रिसैप्शन पर जा कर पूछा 305 वाली मैडम, जिन्होंने मेरा कमरा बुक कराया था वे कौन हैं, कहां हैं?’’

रिसैप्शन वाली ने अपनी बेशकीमती मुसकान के साथ मु झे बताया कि गैस्ट की डिटेल शेयर करना होटल की पौलिसी के खिलाफ है.

उस ने एक और बम फोड़ा, 305 वाली मैडम एक अर्जेंट काम की वजह से चैकआउट कर गई हैं.

इस से आगे सुनने की मु झे जरूरत नहीं थी. फिर भी मैं ने पूछा, ‘‘क्या मेरे लिए कोई संदेश है?’’

जवाब मिला कि आप का कमरा आज के लिए बुक है, आप चाहें तो आज रातभर यहां रुक सकते हैं, मैडम तो चली गईं.

मैं अपने कमरे में वापस आ गया. एक

बार फिर से फोन लगाया, पर कोई फायदा नहीं. 305 में गया, कमरा खुला था और अब खाली था. कमरे में हलकाहलका वही परफ्यूम तैर रहा था जो सुबह मु झे 304 के दरवाजे पर मिला था.

फोन उठाया, दिल्ली के लिए वापसी की ट्रेन चैक की, डेढ़ घंटे बाद की एक ट्रेन में

करंट टिकट मिल रहा था. बुक कर लिया. लखनऊ में अब और बेगानी मेहमाननवाजी कराने का मन नहीं था. पता नहीं क्यों, इस टिकट का एक स्क्रीनशौट भी उस गुलाब के प्रोफाइल वाले नंबर पर भेज दिया. अब मैं और क्या उम्मीद कर रहा था.

स्टेशन पर आया, ट्रेन में चढ़ गया. सीट पर बैठ गया. मैसेज की घंटी बजी, उसी का था, ‘‘हैलो, मु झे बहुत अफसोस है. इतने करीब आ कर भी आप से मिल नहीं सकी. मेरे बीते हुए अतीत का कोई बंद हो चुका पन्ना अचानक मेरे सामने आ गया और मु झे वहां से निकलना पड़ा.  भविष्य अनजान है, लेकिन आप से मिल पाने की उम्मीद अब बहुत कम ही है. शुभ यात्रा. भविष्य के लिए आप को मेरी शुभकामनाएं.’’

बहुत गुस्सा आया कि क्या यह कहीं से मु झ पर नजर रख रही है. ट्रेन के गेट तक आया. आगेपीछे पूरे प्लेटफौर्म पर एक नजर डाली. कोई संदिग्ध युवती नहीं दिखी. सिगनल हो गया था. ट्रेन सरकने लगी थी. वापस सीट पर आया. गुस्से में दिल्ली की कुछ चुनिंदा गालियां टाइप कर दीं. भेजने ही वाला था कि उस की प्रोफाइल पिक्चर पर मेरी नजर गई. उस की प्रोफाइल पिक्चर अब बदल गई थी.

प्रोफाइल पिक्चर को बड़ा कर के देखा. एक तकिए पर 2 गुलाब रखे थे. एक जो वहां पहले से रखा था और दूसरा वह जिसे मैं वहां रख कर आया था.

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