इंसान स्वभाव से ही बदलाव की कामना रखता है. जीवन में जब एकरसता या मोनोटनी आ जाती है तो इस की निरंतरता जीवन में ऊब पैदा कर देती है. हर इंसान इस ऊब से उबरने की कोशिश करता है. इस के लिए वह नएनए उपाय ढूंढ़ता रहता है. मोनोटनी चाहे खानेपीने के प्रति हो या रहनसहन के प्रति. इंसान हमेशा बदलाव की तमन्ना रखता है.

यही मोनोटनी जब सेक्स प्रक्रिया में भी आ जाती है तो इंसान वहां भी ऊब से बाहर आने का विकल्प ढूंढ़ता है. यही कारण है कि पतिपत्नी के बीच भी कुछ समय के बाद दूरियां आने लग जाती हैं. दूरियों का कारण चाहे कोई भी हो मगर इस का मूल आधार संभवतया मोनोटनी ही हुआ करता है. यही दूरियां बढ़तीबढ़ती अंतत: तलाक पर आ कर रुकती है. यह सच है कि आए दिन तलाक की संख्या अविश्वसनीय रूप से बढ़ रही हैं. इस का मुख्य कारण है मोनोटनी.

आइए इसी विषय पर विस्तार से बात करते हैं कि आखिर बैडरूम में यह ऊब क्यों आ जाती है और इस ऊब से बचने का विकल्प क्या है.

ताकि ऊब से बचे रहें

अमेरिका के मशहूर लेखक लुईस ए. वर्ड्सवर्थ की लोकप्रिय बुक ‘ए टेस्ट बुक औन सैक्सोलौजी में यह लिखा है, ‘‘बैडरूम की ऊब और मोनोटनी से बचने के लिए कपल को नित्य नए रूप में सैक्स प्रक्रिया निभानी चाहिए. नएनए पोजेस की तरफ आकर्षित होना चाहिए. कभीकभी स्थान बदल कर हिल स्टेशन में जा कर कुछ दिन बिताने भी इस का एक विकल्प है.’’

लुईस आगे लिखती है, ‘‘कुछ दिनों बाद इन में भी एकरूपता या एकरसता आगे लग जाती है. तब दंपती फिर से कोई नया विकल्प तलाशने निकल पड़ते हैं सैक्स प्रक्रिया और उस की मोनोटनी से उबने और उस से बचने के लिए जो विकल्प है. उन में एक नया नाम प्रचलित हो रहा है और वह है सैक्स फैंटेसी जो पश्चिमी देशों के युवाओं में काफी प्रचलित हो रही है. इसे सही मानने वाले लोग काफी हैं तो इसे गलत ठहराने वाल भी हैं.’’

इसी विषय को ले कर मुंबई के मशहूर सैक्स काउंसलर डा. रुस्तम बताते हैं, ‘‘आप ने बहुत ही सही विषय चुना है जो लोगों में जागृति पैदा करेगा. देखिए मेरे पास आजकल ऐसे पेशैंट्स की संख्या बढ़ती जा रही है. आजकल का जैनरेशन इंस्टैंट जैनरेशन है. उसे फास्ट फूड की ही तरह फास्ट प्लेजर भी चाहिए. इस में धीरज नहीं है. जबकि ‘सैक्स इज गेम औफ पेशंस.’ ’’

डा. ईरानी ने आगे बताया कि सैक्स प्रक्रिया में शरीर की ही हिस्सेदारी नहीं रहती है मन भी उतना ही इनवौल्व रहता है. इसलिए सैक्स प्रक्रिया के पहले फोरप्ले यानी छेड़छाड़, आलिंगन, किसिंग, हगिंग आदि अति आवश्यक है, जिसे आज की युवा पीढ़ी इगनोर करती देखी गई है. गलती उन की भी नहीं है. उन पर काम का बोझ इतना ज्यादा रहता है कि मानसिक थकान बहुत जल्दी हो जाती है.

इस वजह से फोरप्ले में जितना इनवौल्व होना चाहिए वह उतना नहीं हो पाती है. फलस्वरूप उसे सैक्स प्रक्रिया में परमआनंद या और्गेज्म की प्राप्ति नहीं हो पाती है. यहीं से सैक्स प्रक्रिया के प्रति उस की अरुचि शुरू हो जाती है. जो धीरेधीरे ऊब में बदल जाती है. यह ऊब दूरियां बनाने लगती है और दूरियां धीरेधीरे तलाक के पड़ाव तक जा पहुंची है.

शरीर और मन दोनों प्रभावी

डा. ईरानी के ही पेशैंट गौरव ग्रोवर और उन की पत्नी नेहा ग्रोवर बताते हैं, ‘‘जी हां हम लोग भी अपनी सैक्स लाइफ से ऊब चुके हैं. इसीलिए यहां आए हैं. अब कोई चार्म नहीं रह गया है सैक्स में.

‘‘हमारी शादी को अभी सिर्फ 2 ही साल हुए हैं, मगर सैक्स प्रक्रिया में हमारी रुचि न जाने क्यों नो चार्म के पौइंट पर आ गई है. अन्य सभी कामों की तरह सैक्स भी हमें रोजमर्रा की तरह ही बोरिंग लगने लगा है.’’

गौरव ने आगे बताया, ‘‘हम ने अपनी इस सैक्स लाइफ में थ्रिल लाने के लिए तरहतरह के उपाय किए. वीडियो देख कर वार्म होना शुरू किया. कई दवाओं का भी उपयोग किया. वीकैंड में किसी होटल में जा कर भी रहने लगे. इस से कुछ दिनों के लिए हमारी मोनोटनी तो अवश्य खत्म हो गई. हमें इस बदलाव से आनंद तो आने लगा, मगर चंद दिनों के बाद ही  इस में भी हमें बोरियल सी होने लगी. फाइनली हम लोग डाक्टर ईरानी केपास आए हैं.’’

डाक्टर साहब ने हमें कुछ बड़े अच्छे टिप्स दिए हैं. इन से हमें काफी फायदा हो रहा है,’’ नेहा ने ?ोंपते हुए कहा.

वे टिप्स क्या हैं? पूछने पर ‘सैक्स फैंटेसी,’ इतना कह कर नेहा चुप हो गईं. तब गौरव ने आगे बताया, ‘‘फैंटेसी का मतलब कल्पना की दुनिया. डाक्टर ईरानी ने हमें सलाह दी कि बैडरूम में जाते ही हम दोनों को कल्पना की दुनिया में चले जाना होगा. मतलब बैडरूम में जाते ही मैं पत्नी को कैटरीना कैफ सम?ाने लगता हूं और ये मुझे अपना पसंदीदा अक्षय कुमार और फिर दोनों हंसने लगे.

यह एक गंभीर विषय है और इस का एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है. इस के मनोवैज्ञानिक  विश्लेषण के लिए पुणे यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान के अवकाशप्राप्त प्रोफैसर कल्पेश देसाई से मुलाकात की. वे कहते हैं, ‘‘जी हां इस का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है जो काफी महत्त्वपूर्ण है. इंसान के मस्तिष्क में प्रत्यक्ष और परोक्ष 2 ग्रंथियां होती हैं. ये दोनों ग्रंथियां 24 घंटे ऐक्टिव रहती हैं. हम नींद में भी रहते हैं तो परोक्ष मस्तिष्क अपनी उड़ान भरता रहता है और मन की अधूरी या अपूर्ण इच्छाओं को दिवास्वपन के रूप में पूरी करता रहता है. इन्हीं लुकीछिपी इच्छाओं में एक है सैक्स फैंटेसी.’’

प्रोफैसर देसाई आगे बताते हैं, ‘‘इस प्रक्रिया में संलग्न कपल किसी की भी कल्पना मन ही मन में कर लेते हैं. चाहे उन का कश हो या कालेज, महल्ले या फिर पड़ोस का कोई लड़का अथवा लड़की. जो पसंद हो. उसे अपनी कल्पना में ढाल लेते हैं, मगर यह भले ही उन का सैक्स लाइफ में एक नया थ्रिल ला देता हो, मगर साइकोलौजिकली यह गलत है. जिस इंसान की आप किसी और रूप में कल्पना कर रहे हों उस के व्यक्तित्व को उस की पर्सनैलिटी को आप किल कर रहे हैं. उस के आत्मसम्मान को चोट पहुंचा रहे हैं. जानेअनजाने उस का अपमान कर रहे है. सैक्सोलौजिस्ट्स भले ही इसे दवा मानें मगर साइकोलौजिस्ट्स कभी इस की सलाह नहीं देते हैं.’’

प्रोफैसर कल्पेश देसाई की बातों ने दुविधा में डाल दिया तो इस के समाधान हेतु मुंबई के उपनगर मलाड की गाइनोकोलौजिस्ट डाक्टर अंजलि मालवानकर से मुलाकात की. वे कहती है, सैक्स प्रक्रिया एक ऐसी पूर्व प्रक्रिया है जिस से शरीर के साथसाथ मन का भी इनवौलमैंट होता है. इस संपूर्ण प्रक्रिया में लगभग 200 कैलोरी बर्न होती है. सरल शब्दों में कहें तो इस पूरी प्रक्रिया में मस्तिष्क और प्रजनन अंगों के बीच एक

रिश्ता कायम हो जाता है. मस्तिष्क के आदेश पर कई हारमोन होते हैं. मुख्यतया ऐस्ट्रोजन, प्रोजेस्टेरौन और टेस्टोस्टेरौन. ये लूब्रिकैंट्म तभी पैदा होते हैं जब हम स्वस्थ फोरप्ले की प्रक्रिया से गुजरते हैं. मतलब मैडिकल दृष्टिकोण से भी सैक्स प्रक्रिया के लिए फोरप्ले बहुत जरूरी है और अगर फोरप्ले के लिए सैक्स फैंटेसी का सहारा लेना पड़े तो इस में कुछ कोई गलत

नहीं है.’’

खुल कर बात करें

डा. अंजलि आगे कहती हैं, ‘‘हमारे यहां 90% महिलाएं सैक्स के बारे में जानने के लिए उत्सुक तो होती हैं, मगर उस पर बातें करने में शरमाती हैं पर यही महिलाएं गूगल में सैक्स के बारे में सब से ज्यादा सर्च करती हैं. तरहतरह के सवालों के जवाब ढूंढ़ती रहती हैं. एक सर्वे के अनुसार 80% लड़कियां सैक्स और और्गेज्म के विषय में सर्च करती हैं, जबकि 55% पुरुष ही इन विषयों पर सर्च करते हैं.

‘‘जहां तक सैक्स फैंटेसी की बात है इस के बारे में जानने की उत्सुक्ता पुरुषों में ज्यादा होती है. महिलाओं में न के बराबर होती है. जबकि उन्हें खुल कर इस विषय पर चर्चा करनी चाहिए और डाक्टरों की सलाह लेनी चाहिए क्योंकि गलत इलाज या गलत दवाएं नुकसान भी कर सकती हैं.’’

सैक्स फैंटेसी के भावनात्मक पहलू पर गौर करें तो यह सच है कि आशाओं और आकांक्षाओं का कोई अंत नहीं होता है. यह एक ऐसी चाह है जिस के पीछे इंसान हमेशा भागता ही रहता है और अंतत: इस की मृगतृष्णा में भटकता रह जाता है. इसलिए इस मृगतृष्णा के पीछे भागने के बदले हमें इस का कोई विकल्प ढूंढ़ना बेहतर होगा. हमें प्राकृतिक पारंपरिक और सही विकल्प यानी फोरप्ले की शरण में जाना होगा. जहां तक सैक्स फैंटेसी की बात है तो यदि यह सैक्स प्रक्रिया में आई ऊब को मिटाता है तो इस का सहारा लेने में कोई बुराई नहीं.

मगर याद रहे यह विकल्पों की आखिरी कड़ी होनी चाहिए. अंतिम पूर्णविराम होना चाहिए क्योंकि सुखद सैक्स लाइफ के लिए इच्छाओं की चाहें हम कतार लगाएं या आकांक्षाओं का अंबार पर इस सुख की तिजोरी तो संतुष्टि की चाबी से ही खुलती है.

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