आश्रमके सब से भव्य ध्यानधारण कक्ष में सितार की मधुर स्वरलहरियां गूंज रही थीं. अगरबत्ती की सुगंध धुएं के साथ पूरे कक्ष में फैलने लगी थी. मंच को आज मधुर सुगंधियुक्त ताजे श्वेत पुष्पों से सजाया जा रहा था.

स्वामी अमृतानंदजी के बड़े से आश्रम में यह प्रतिदिन का नियम था. स्वामीजी जब भी आश्रम में होते थे, अपने भक्तों तथा अनुयायियों को उसी कक्ष में दर्शन देते थे. उन के दुखसुख सुनते और अपनी दिव्यशक्ति से उन का निराकरण करने का आश्वासन भी देते थे. सहस्रों भक्तों में से कुछ की समस्याओं का समाधान तो स्वत: ही हो जाता था. उन्हीं को प्रचारितप्रसारित कर के स्वामीजी और उन के आश्रम ने न केवल ख्याति अर्जित की थी, प्रचुर मात्रा में धनसंपत्ति भी कमाई थी. उन के इंटरव्यू कई चैनलों पर प्रसारित किए जाते, जिन में नीचे आश्रम का पता होता था. दान की अपील भी लगातार की जाती थी.

आश्रम के अधिकतर कार्यकर्ता अवैतनिक ही थे. वे गुरु शक्ति में भावविभोर हो कर अपना घरबार छोड़ कर आ गए थे. उन के भरणपोषण का प्रबंध आश्रम की ओर से होता था और क्यों न हो, अधिकतर कार्यकर्ता स्नातक व स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त थे. न जाने कौन सा आकर्षण था, जो उन्हें आश्रम की ओर खींच लाता था. केवल खानेकपड़े पर अमृतानंदजी को ऐसे अद्भुत कार्यकर्त्ता और कहां मिलते. वैसे कार्यकर्ताओं को सुखों की कमी नहीं थी. भक्त आमतौर पर मोटी रकम कैश ले आते थे कि आश्रम में जमा करा दें. भक्तों को विश्वास था कि उन्हें जो भी मिल रहा है स्वामीजी की कृपा पर मिल रहा है.

आश्रम का अधिकतर प्रबंध स्वामी अद्भुतानंद देखते थे. उन का असली नाम क्या था, यह तो वे स्वयं भी संभवत: भूल चुके थे पर कहा जाता है कि अद्भुत रूप से मेधावी होने के कारण ही स्वामीजी ने उन्हें अद्भुतानंद की उपाधि प्रदान की थी. उन के बारे में प्रसिद्ध, यही था कि इंडियन इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी संस्थान से इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त कर वे ऊंची नौकरी कर रहे थे. कालेज के अंतिम वर्ष में ही नौकरी के लिए उन का चयन हो गया था. इस का पुख्ता सुबूत किसी के पास नहीं था पर जब नेताओं की डिगरी और बीवी को कोई नहीं पूछता तो कौन स्वामी अद्भुतानंद की डिगरी के बारे में पता करता.

वे कब और कैसे स्वामीजी के प्रभाव में आए, यह भी कोई नहीं जानता था पर वे शीघ्र ही स्वामी के विश्वासपात्र बन गए थे. आजकल वे स्वामीजी के कार्यकलापों तथा आश्रम की गतिविधियों दोनों को नियंत्रित करते हैं. उन की प्रबंधन क्षमता का सभी लोहा मानते और आश्रम में उन्हीं की तूती बोलती. पर आज वह अनमने से एक ओर बैठे थे. कैबिन के कार्यकलाओं के लिए तो वे ही पर्याप्त थे पर वे उन का मन बारबार भटक जाता था.

तभी मानो वे नींद से जागे थे. स्वामीजी के कक्ष में पधारने का समय हो चुका था. उन्हेें साजसज्जा के साथ ध्यानधारणा कक्ष में लाने का भार अद्भुतानंद के कंधों पर था. अत: वे  स्वामीजी के कक्ष की ओर चल पड़े.

‘‘अद्भुत, हमारे प्रस्ताव के विषय में क्या सोचा है?’’ स्वामीजी उन्हें देखते ही बोले.

‘‘सोचने का समय नहीं मिला, गुरुदेव,’’ उन का उत्तर था.

‘‘क्यों, अपने गुरु में श्रद्धा नहीं रही थी? मैं जो करता हूं, अपने शिष्यों के हित के लिए ही करता हूं. फिर तुम तो मेरे सर्वाधिक प्रियशिष्य हो,’’ स्वामीजी अनमने स्वर में बोल कर उठ खड़े हुए? आश्रम में उठ रहे विद्रोह को तुरंत दबाने में ही विश्वास करते थे.

‘‘आज ध्यानाभ्यास के पश्चात मुझे आप का उत्तर चाहिए,’’ वह ध्यानधारणा कक्ष की ओर प्रस्थान करते हुए बोले थे.

स्वामीजी ट्रांसवाल, दक्षिणी अफ्रीका में अपने लिए एक आश्रम की नींव रख आए थे. अब वे अद्भुतानंदजी पर दबाव डाल रहे थे कि वे वहां जा कर आश्रम का प्रबंधन अपने हाथों में ले लें. अद्भुतानंद को गुरुजी से ऐसी आशा नहीं थी. वे वस्तुस्थिति से पूर्णतया परिचित थे. वे बिना कहे ही समझ गए थे कि स्वामीजी अब उन्हें अपने बड़े होते बेटे को यह कांटा समझने लगे थे.

उन का पुत्र आरोहण किसी गुमनाम कालेज की पढ़ाई समाप्त कर लौट आया था. अब स्वामीजी उसे राजपाट सौंप कर राजकुमार की पदवी से विभूषित करना चाहते थे, जो अद्भुतानंद के आश्रम में रहते संभव नहीं था.

ध्यानधारणा कक्ष में पहुंचते ही अद्भुतानंद की विषाशृंखला टूटी. प्रतिदिन की भांति स्वामीजी अपने मंत्र पर विराजमान थे. उन के लिए विशेष रूप से लिखी गई प्रार्थना गाई जाने लगी थी, जिस में उन्हें ईश्वर की पदवी दी गई थी.

‘‘स्वामी अमृतानंद की बहती अमृत धारा, ईश्वर से भी पहले लेते हम सब नाम तुम्हारा.’’

प्रार्थना के प्रश्वात प्राणायाम तथा ध्यान का कार्यक्रम था. ध्यान के पश्चात स्वामीजी अपने भक्तों से सीधा संपर्क साधते थे और अपने विचारों से अवगत कराते थे. स्वामीजी अत्यंत मधुर वाणी में अपने भक्तों को आदेश देते थे कि गुरुदक्षिणा के रूप में अपने जैसा ही एक और भक्त जाएं पर भूल कर भी किसी पर अपने विचारों को थोपे नहीं. जो विरोध करे उस पर तो कभी नहीं. स्वामीजी की ओजपूर्ण वाणी ने अद्भुत समां बांध दिया था.

कुछ देर पश्चात स्वामीजी ने भक्तजनों को आंखें मूंदने का आदेश दिया क्योंकि 9 बजने वाले थे और प्रात: तथा रात्रि के 9 बजे स्वामीजी अपने भक्तों के कल्याण के लिए शक्तिपात करते थे. उन के भक्त संसार में कहीं भी हों, स्वामीजी से कभी दूर नहीं होते. वे उन्हें प्रात: तथा रात्रि के 9 बजे ध्यान लगा कर अपने ऊपर केंद्रित करने का आदेश देते थे, जिस से कि वे अपने गुरु की दिव्य शक्तियों से लाभान्वित हो सकें. स्वाइप, औनलाइन, व्हाट्सऐप सब से स्वामीजी सभी शिष्यों से जुड़े रहते थे. उन्हें बहुतों के नाम याद थे. यही तो उन का विशेष गुण था.

‘शक्तिपात’ के पश्चात भक्तगण गुरुजी की अमृतवाणी के पान की प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि एक विचित्र घटना घटी. प्रथम पंक्ति में बैठी एक प्रौढ़ महिला तेजी से उठी और स्वामीजी के मंत्र के समीप पहुंच गई. कार्यकर्ताओं ने जब तक  रोकने का प्रयास किया तो उस ने कस कर स्वामीजी के चरण पकड़ लिए.

‘‘अरे, यह क्या करती हो, माता. यदि कोई समस्या हो तो दूर से कहो. हम ठहरे साधुसंन्यासी, किसी से स्पर्श नहीं कराते,’’ स्वामीजी सकपका गए.

‘‘दूर से कहने पर पता नहीं आप के कानों तक पहुंचे या नहीं इसीलिए पास आ कर ?ोली फैला कर भीख मांग रही हूं. स्वामीजी, मेरे पुत्र को छोड़ दीजिए, महिला रोंआसे स्वर में बोली.

‘‘यह आप कैसी बातें कर रही हैं, माता. हम ठहरे साधुसंन्यासी हमें किसी के पुत्रपुत्री से क्या लेनादेना.’’

‘‘स्वामीजी, मैं आरोग्य की बात कर रही हूं. वह मेरा इकलौता पुत्र है, परिवार का एकमात्र प्राणाधार. देश के प्रसिद्ध संस्थान से एमबीए कर के वह ऊंचे वेतन वाली नौकरी कर रहा था कि आप की एक प्रिय शिष्या के बहकावे में सबकुछ ठुकरा कर चला आया है. मेरे घरसंसार को उजाड़ कर आप को क्या मिलेगा, स्वामीजी’’

‘‘बह्म सत्यं जगत मिथ्य’’ स्वामीजी ने नेत्र मूंद कर उद्घोष किया.

‘‘माता, आज आप जो प्रश्न कर रही हैं वही कभी नरेंद्र की माता ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस से किया था. यदि नरेंद्र अपनी माता के बहकावे में आ जाते तो स्वामी विवेकानंद नहीं बनते. गौतम बुद्ध ने भी राजपाट, सगेसंबंधियों का त्याग कर के ही बुद्धत्व प्राप्त किया था,’’ स्वामीजी अपनी गुरु गंभीर वाणी में बोलते जा रहे थे.

‘‘माता, आप भटक गई हैं. आरोग्य साधारण मानव नहीं, असाधारण आत्मा है, जिसे मेरे जैसे गुरु के माध्यम से अमरत्व प्राप्त होने वाला है. आरोग्य जन्मजन्मांतर के संस्कारों द्वारा अपने गुरु से बंध हुआ है. माता, आप चाह कर भी उसे रोक नहीं सकतीं. अपने श्रुद्र स्वार्थों के वशीभूत हो कर उसे सीमित मत करो. उसे असीमित हो कर सारे संसार का हो जाने दो, माता,’’ स्वाजीजी ने अपनी ओर से गूढ़ अर्थ वाले ज्ञानपूर्ण तर्क दिए.

मगर मंच के एक ओर खड़े अद्भुतानंद के सामने कुछ ?ान्न से गिरकर टूट गया. मानो नाटक के किसी दृश्य का पुन: मंचन किया जा रहा हो. आज आरोग्य की मां के स्थान पर तब उन की अपनी माताजी थीं पर संवाद तथा अभिनय हूबहू वैसा ही था.

मगर तभी कुछ अप्रत्याशित घट गया. आरोग्य की मां, अद्भुतानंद की माताजी की तरह बैठी सुबकती नहीं रही. वे तो अचानक शेरनी की तरह क्रोध में बिफ्र उठीं.

‘‘अरे, कैसा गुरु और कैसा निर्वाण. बड़ा आया जन्मजन्मांतर के साथ वाला. जनता को मूर्ख बना कर युवाओं को अपने सम्मोहन के जाल में फंसा कर न जाने कितने परिवारों को विनाश के कगार पर पहुंचाने वाले ढोंगियों को मैं भली प्रकार जानती हूं.

‘‘हम गृहस्थियों जैसा ही घरपरिवार है तुम्हारा. कौन सा त्याग किया है तुम ने? बात करते हो ध्यान और साधना की.’’

स्वामीजी ने दृष्टि का संकेत भर किया कि उन के 8-10 शिष्य महिला को उठा कर कक्ष के बाहर ले गए.

‘‘मैं पुलिस में जाऊंगी, कोर्टकचहरी तक जाऊंगी, धूर्त्त, पर तुम्हें चैन से नहीं बैठने दूंगी,’’ महिला रोते हुए भी स्वामी अमृतानंद को धमका गईर्.

शिष्यों द्वारा मां को जबरन घसीटे जाते देख कर आरोग्य उन की सहायता को लपका.

‘‘बेटा, आरोग्यानंद. साधना के मार्ग में अनेक विघ्नबाधाएं आती हैं पर साधक विचलित नहीं होते,’’ स्वामीजी ने आरोग्य को पुकारा.

‘‘गुरुजी, मैं मां को घर तक छोड़ कर शीघ्र ही लौट आऊंगा,’’ कहता हुआ आरोग्य मां को सहारा देने लगा. शिष्यों ने उसे जबरन मुख्यद्वार के बाहर धकेल दिया था, साथ ही धमकी भी दे डाली थी कि

पुन: इधर का रुख किया तो लाश तक नहीं मिलेगी तुम्हारी मां की.’’

उधर ध्यानधारणा कक्ष में ऐसी निस्तब्धता छा गई मानो उपस्थित जनसमूह सांस लेना भी भूल गया हो.

‘‘आप सब चित्रलिखित से क्यों बैठे हैं? साधना में ऐसे विघ्न तो आते ही रहते हैं. जो मार्ग के कंटकों से उल?ा जाएंगे वे उस परम सत्य को कैसे प्राप्त करेंगे. भटक गई हैं माता, इसी से व्यथित है पर जिस ने अपना सर्वस्व उस परमपिता के चरणों में अर्पित कर दिया उस के लिए तो संसार के सब बंधन व्यर्थ हैं. सब माया है. मनुष्य जब उसे जान लेता है, उस के सांसारित बंधन स्वत: ही ढीले पड़ जाते हैं. फिर तो बस, भक्त होता है और होते हैं उस के भगवान,’’ स्वामीजी की स्वरलहरी हवा के पंखों पर सवार हो पुन: भक्तगणों को प्रभावित करने लगी थी. उन का भक्तिभाव उन की भावभंगिमाओं में प्रकट हो रहा था.

मगर अद्भुतानंद अब भी सकते में थे. कम से कम आरोग्य में इतना साहस तो था कि स्वामीजी की इच्छा के विरुद्ध वह अपनी मां को सहारा देने चला गया था. उन की मां तो शिष्यों से अपमानित हो कर सुबकती हुई अकेली ही आश्रम से गई थी. उन के व्यथित मन में गहरी टीस उठ रही थी.

‘‘हां, तो आप ने क्या निर्णय लिया, अद्भुतानंद,’’ अपने कक्ष में तनिक सा एकांत मिलते ही स्वामी अमृतानंद ने पूछा.

‘‘निर्णय लेने का प्रश्न ही कहां है, गुरु की इच्छा तो मेरे लिए आदेश है,’’ वे बोले थे.

‘‘फिर यह रोनी सूरत क्यों बिना रखी है? साधना का लक्ष्य तो अखंड आनंद है, वत्स,’’ स्वामीजी बोले.

‘‘कहां आप और कहां हम, गुरुवर हम तो अभी तक रागद्वेष जैसी सांसारित भावनाओं से पीडि़त हैं,’’ अद्भुतानंद मुसकराए, ‘‘आप का और मेरा 8 वर्षों का साथ है, कष्ट तो होगा ही.’’

‘‘तो आप के लिए यही साधना का मार्ग भी है. आप तुरंत जाने की तैयारी कर लीजिए. इस सप्ताहांत तक आप देश छोड़ दें तो अच्छा है. हो सके तो आरोग्य को भी साथ ले जाइए. आया नहीं है वह. पर उस का लौट जाना अन्य शिष्यों को भी घर लौटने के लिए प्रेरित करेगा,’’ स्वामीजी बोले.

‘‘जैसी आज्ञा गुरुवर,’’ अद्भुतानंद ने झुक कर प्रणाम किया.

मगर आरोग्य के घर जाने के स्थान पर वे बहुत वर्षों के बाद अपने घर की ओर मुड़ गए.

द्वार उस के पिता ने खोला. उन्हें देख कर चश्मा ठीक किया और पहचानने का यत्न किया.

‘‘अरे, निर्मल तुम. कहो, आज कैसे राह भूल पड़े,’’ वे बोले.

‘‘कौन हैं जी?’’ अंदर से उन की मां ने

प्रश्न किया.

‘‘लीला, बाहर आओ, देखो तो कौन

आया है.’’

‘‘कौन? स्वामी अद्भुतानंद. कहिए, कैसे स्वागत करें आप का? आप ठहरे संन्यासी और साधक, पता नहीं हमारा अन्नजल भी ग्रहण करेंगे या नहीं,’’ लीला देवी ने व्यंग्य किया.

‘‘मां, अंदर आने को नहीं कहोगी?’’

‘‘स्वामी नहीं, मेरा निर्मल चाहे तो अंदर आ सकता है,’’ वह बोली.

फिर तो सब शिकवेशिकायत आंसुओं के सागर में धुल गए.

‘‘मैं दक्षिण अफ्रीका जा रहा हूं. चाहता हूं आप भी साथ चलें. मैं सब प्रबंध कर लूंगा. अब और कैसे जाना है, वह भी बता दूंगा. बस, आप तैयारी कर लें. मैं अभी चलता हूं अब तो वहीं भेंट होगी,’’ कहते हुए स्वामी अद्भुतानंद अर्थात निर्मल बाबू बाहर निकल गए.

उस के बाद वे आरोग्य के घर पहुंचे और उसे समझबुझ कर साथ चलने को तैयार कर लिया.

‘‘अपनी अनुपस्थिति में परिवार को यहां छोड़ने की भूल मत करना. हमारे गुरुजी बदला लेने के लिए कुछ भी कर सकते हैं,’’ उन्होंने आरोग्य को समझाया.

‘‘पर मैं तो वहां किसी को जानता तक नहीं. परिवार को कहां रखूंगा?’’ आरोग्य ने प्रश्न किया.

‘‘उस की चिंता मत करो. ट्रांसवाल में मेरे कई प्रभावशाली मित्र हैं. तुम्हारा परिवार मेरे मातापिता के साथ जाएगा. बाद में हम दोनों प्रस्थान करेंगे,’’ अद्भुतानंद ने समझाया.

जब से अमृतानंद ने अद्भुतानंद यानी निर्मल को साउथ अफ्रीका जाने को कहा था

तभी से अद्भुतानंद ने आरोग्य को साथ मिला कर काम शुरू कर दिया था. आश्रम की कितनी ही प्रौपर्टी गिरवी रख कर मोटा पैसा ले लिया था. बैंक अकाउंट वह ही चलाता था. उस ने उस पैसे को केमन आईलैंड, मोनाको, स्विटजरलैंड आदि में ट्रांसफर कर दिया था. आरोग्य भी इस कला में पारंगत था. पहले वह एक मल्टीनैशनल फाइनैंस कंपनी में ही था.

उन के नए पास पोर्ट बन गए थे. पहले पास पोर्टों पर वास्तव में नकली नाम थे ताकि कोई उन के मातापिता को आसानी से ढूंढ़ न सके. अद्भुतानंद ने यह काम बहुत जल्दबाजी में किया था. वह जानता था कि पता चल गया तो उसे ही नहीं उस के मांबाप को पता तक नहीं चलेगा. अमृतानंद स्वामी सभी विविटयों को जलवा देते थे, यह कह कर कि उन का अंतिम काल आ गया है और उन के किसी रिश्तेदार को किसी आश्रम का इंचार्ज बना कर भेज देते थे.

निर्मल ने इस तरह आश्रम का ढांचा खोखला कर दिया था कि उस के जाने के बाद यह और खोखला हो  गया. कुछ दिन बाद खबर मिली कि स्वामी अमृतानंद ने देह त्याग दी है और उन का होनहार बेटा अब जैसेतैसे बची संपत्ति को बेच रहा है. भक्तों को क्या? वे तो किसी और स्वामी के संपर्क में आ कर आश्रम खाली कर रहे थे. आखिर धन तो मिथ्य ही है न.

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