बौलीवुड में अपनी पहचान बनाने के लिए 14 वर्षों से संघर्ष करते आए अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने ‘निल बटे सन्नाटा’, ‘अनारकली औफ आरा’, ‘न्यूटन’ और ‘फुकरे’ सीरीज जैसी फिल्मों में दमदार अभिनय की बदौलत बौलीवुड में अपनी अलग पहचान बना ली है. गत वर्ष राजकुमार राव व पंकज त्रिपाठी के अभिनय वाली फिल्म ‘न्यूटन’ को भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के रूप में औस्कर के लिए भी भेजा गया था. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए भी चुना गया है. पंकज त्रिपाठी की अभिनय प्रतिभा जिस तरह से निखर कर लोगों के सामने आ रही है, उसी के परिणामस्वरूप उन्हें रजनीकांत, नाना पाटेकर व हुमा कुरैशी के साथ तमिल फिल्म ‘काला’ करने का अवसर मिला, जिस में उन्होंने पुलिस औफिसर का ग्रे किरदार निभाया है.
इस फिल्म का निर्माण धनुष ने किया है. उन की अंतर्राष्ट्रीय फिल्म ‘मैंगो ड्रीम’ नेटफ्लिक्स पर आने वाली है. लंबे संघर्ष के बाद अब आप की गाड़ी ट्रैक पर कैसे आई, इस पर वे कहते हैं, ‘‘हां, ऐसा आप कह सकते हैं. यों तो मैं पिछले 14 वर्षों से बौलीवुड में ईमानदारी से काम करता आया हूं, लेकिन गत वर्ष प्रदर्शित मेरी फिल्मों ‘निल बटे सन्नाटा’, ‘अनारकली औफ आरा’ और ‘न्यूटन’ की वजह से बौलीवुड से जुड़े हर इंसान को मेरा क्राफ्ट व मेरी प्रतिभा समझ में आई. लंबे समय बाद लोगों को मेरा अभिनय पसंद आया है. ‘अनारकली औफ आरा’ में एक और्क्रेस्ट्रा का मालिक नाचता भी है तो ‘फुकरे रिटर्न्स’ में भी यह आदमी मनोरंजन करता है. ‘न्यूटन’ का बीएसफ औफिसर भी पसंद आया. तीनों ही किरदारों में लगता है कि ये किरदार पंकज त्रिपाठी के लिए लिखे गए हैं.
‘‘मुझे लगता है कि मेरी जो क्राफ्ट है, वह आम जनता के साथ फिल्मों से जुड़े लोगों तक भी पहुंची है. जब मैं सड़क से गुजरता हूं तो लोग पहचानते हैं. अभी जब मैं आप का इंतजार कर रहा था तो 3-4 लोग आ कर मेरे साथ सैल्फी ले कर गए. उन में से 2-3 लोग तो वे थे जो यह बोल कर गए कि हम आप के काम से इंस्पायर होते हैं. हर किरदार को देखने के बाद ऐसा लगता है कि हां, यार, अभिनय ऐसा ही होना चाहिए, लोगों को मेरी अभिनय प्रतिभा का एहसास पूरे 12 वर्षों बाद हुआ है.’’ सफलता से मिली स्टारडम को ले कर उन का मानना है, ‘‘मैं खद को स्टार नहीं समझता और स्टार बनने की इच्छा भी नहीं है. मैं तो अपनी पहचान एक अदाकार के रूप में ही चाहता हूं. व्यस्तता बढ़ गई है. अब आलम यह है कि पिछले 4 महीनों के अंदर मैं ने
30 फिल्मों के औफर ठुकराए. अब मुझे अपनी पसंदीदी फिल्में चुनने का अवसर मिल रहा है. पर यह भी सच है कि कुछ अच्छी फिल्में शूटिंग की तारीखों की समस्या के चलते छोड़नी पड़ीं.’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘अब विज्ञापन फिल्मों के भी औफर आ रहे हैं. अब फिल्मकार मेरी तलाश करने लगे हैं. 2018 ऐसा पहला साल है जब मैं दिसंबर तक किसी नई फिल्म की शूटिंग के लिए तारीख नहीं दे सकता. मेरी प्रतिभा को आंक कर ही मुझे रजनीकांत के साथ तमिल फिल्म ‘काला’ में अभिनय करने का मौका मिला.’’
फिल्म ‘काला’ में अपने किरदार व काम करने की वजह को ले कर पंकज बताते हैं, ‘‘इस में मेरा पंकज पाटिल नामक ग्रे शेड्स वाले पुलिस का किरदार है. फिल्म में रजनीकांत के साथ मेरे काफी सीन हैं. फिल्म अच्छी बनी है. मैं ने इस फिल्म को सिर्फ रजनीकांत के साथ कुछ समय बिताने के लिए किया है. रजनीकांत का जो औरा है, उन को ले कर जो चर्चाएं होती हैं, उस से मैं भी प्रभावित हूं. आखिर वे क्या हैं? मैं उन्हें नजदीक से जानना चाहता था. वैसे रजनीकांत के साथ 5 मिनट की कई छोटी मुलाकातें हुई हैं पर मेरे दिमाग में था कि हम कुछ दिन साथ रह कर काम करेंगे, तो उन्हें बेहतर ढंग से जान सकेंगे, इसलिए मुझे रजनीकांत से मिलना था. ‘‘मैं उन से बहुत ज्यादा प्रभावित था. वे सिनेमा के परदे पर बहुत अलग नजर आते हैं, जबकि निजी जीवन में वे जिस तरह से हैं, उसी तरह से नजर आते हैं. उन में कभी कोई बनावटीपन नजर नहीं आया. मुझे हमेशा लगता है कि अभिनेता ही क्यों, किसी भी इंसान, फिर चाहे वह जिस पेशे में हो, को अपने मूल स्वरूप को नहीं भूलना चाहिए.’’
वे आगे कहते हैं, ‘‘एक बार किसी पत्रकार ने मुझ से पूछा कि आप तो जमीनी आदमी हो? तो मैं ने उन से कहा कि जमीनी आदमी होना गलत है क्या? दुनिया में हर इंसान जमीन पर खड़ा है, जिस ने जमीन को छोड़ दिया, उस के लिए खड़ा रहना मुश्किल है. बिना आधार के इंसान कैसे रहेगा.’’ फिल्म ‘न्यूटन’ के औस्कर में रिजैक्ट होने को ले कर पंकज बताते हैं, ‘‘औस्कर बहुत बड़ा गेम है. कई वजहों से ‘न्यूटन’ पिछड़ गई. भारत ने अपनी इस फिल्म को भेजने का निर्णय भी देर से लिया. दूसरी बात, वह फिल्म भी अच्छी थी जिस को औस्कर मिला है. हम ने उस फिल्म को वहां देखा था. ‘शेप औफ वाटर’ भी हम ने देखी थी. विदेशी भाषा के तहत जिसे पुरस्कृत किया गया निसंदेह वह बेहतरीन फिल्म थी.’’
पकंज के मुताबिक, ‘‘मुझे लगता है कि यह सब मार्केटिंग का खेल है. विदेशी भाषा के तहत जिसे पुरस्कृत किया गया वह सोनी पिक्चर्स की फिल्म थी. सोनी पिक्चर्स बहुत बड़ी कंपनी है. अमेरिका में उस का अपना आधार है. दूसरी बात यह है कि तकनीकी स्तर पर हम लोग थोड़ा पीछे हैं. हमारी फिल्म इंडस्ट्री भी ग्रो कर रही है. ‘न्यूटन’ आज से 10 साल पहले नहीं बन सकती थी. वैसे इतने शुष्क व नीरस विषय पर फिल्म बनाने के लिए हिम्मत चाहिए, कथ्य के स्तर पर मुझे हमेशा ऐसा लगता है. पुरस्कार मिलना कोई मापदंड नहीं है. औस्कर एक देश का अवार्ड है. जैसे उन का पैप्सीकोला पूरे देश में बिकता है, वैसे ही औस्कर भी उन का एक अवार्ड है. आप ने हमारे देश में आ कर हमारी लस्सी, सत्तू और नीबूपानी को दबा दिया है. तो क्या हमारा लस्सी, नीबूपानी, कोकाकोला के मुकाबले खराब है? नहीं, हकीकत में कोकाकोला ने बाजारवाद के दौर में नीबूपानी को पछाड़ दिया है. लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि फिल्ममेकिंग कोल्डडिं्रक नहीं है, फिर भी अवार्ड न मिलना कोई समस्या नहीं है. हमारे देश की जनता ने ‘न्यूटन’ देखी, पसंद की. हमारे लिए यही उपलब्धि है. ‘न्यूटन’ से किसी को नुकसान नहीं हुआ. अच्छी कमाई हुई है.’’
‘काला’ के अलावा आने वाली अन्य फिल्मों को ले कर वे बताते हैं, ‘‘ ‘काला’ के अलावा हिंदी में ‘अंगरेजी में कहते हैं’ व ‘ड्राइव’ सहित 6-7 फिल्में आने वाली हैं. फिल्म ‘अंगरेजी में कहते हैं’ में मेरा रोल छोटा मगर जबरदस्त किरदार है. फिल्म भी जबरदस्त है. जिन लोगों ने भी इस फिल्म को देखा है, वे तारीफ कर रहे हैं. जयपुर फिल्म फैस्टिवल में इसे पुरस्कृत किया गया था. कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में यह पुरस्कृत हो चुकी है. इस में अंशुमन झा और संजय मिश्रा भी हैं. एक अंगरेजी भाषा की फिल्म ‘मैंगो ड्रीम्स’ की है, जो कि नेटफ्लिक्स पर आएगी. इस के लिए पिछले दिनों मुझे केपटाउन में पुरस्कृत किया गया था. इस के अलावा श्रद्धा कपूर और राजकुमार राव के साथ हौरर थ्रिलर फिल्म ‘स्त्री’ कर रहा हूं. एक वैब सीरीज ‘मिर्जापुर’ की है, इसे एक्सेल इंटरटेनमैंट ने बनाया है. यह जुलाई में प्रसारित होगी. यह उत्तर प्रदेश पर आधारित अपराध कथा है. पर काफी रोचक है. इस की शूटिंग पूरी हो गई है. अभी पोस्ट प्रोडक्शन का काम चल रहा है.’’
वैब सीरीज के बढ़ते बाजार व उस के भविष्य पर पंकज सोचते हैं, ‘‘वैब सीरीज को अभी 2 साल का समय देना पड़ेगा, तभी इस के भविष्य को ले कर कुछ स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है. फिलहाल वैब सीरीज बन बहुत अच्छी रही हैं. धीरेधीरे प्रसारित भी हो रही हैं. लगभग हर बड़ा प्रोडक्शन हाउस वैब सीरीज बना रहा है. ‘‘मैं स्वयं इस साल तकरीबन 4 वैब सीरीज करने वाला हूं. 2 वर्षों में जब ये सारी वैब सीरीज प्रसारित होंगी, तब भविष्य पता चलेगा. मैं आप को बता दूं कि मैं ने एक सीरियल ‘पाउडर’ किया था, जोकि 2010 में सोनी टीवी पर प्रसारित हुआ था. उस वक्त इसे दर्शक नहीं मिले थे. 15 दिनों पहले नेटफ्लिक्स ने उसे खरीद कर प्रसारित करना शुरू किया. अब सोशल मीडिया पर ‘पाउडर’ को ले कर मुझे कई तरह के संदेश मिल रहे हैं. लोग ‘पाउडर’ में मेरे काम की तारीफ भी कर रहे हैं. फायदा यह हुआ कि डिजिटल प्लेटफौर्म की वजह से ‘पाउडर’ खोया नहीं.’’
वे आगे बताते हैं, ‘‘वैब सीरीज एक ऐसा डिजिटल प्लेटफौर्म है जिसे आप सब्सक्राइब कर घर बैठ कर देख सकते हैं. मोबाइल, टीवी या कंप्यूटर पर देख सकते हैं. जब आप के पास वक्त हो, तब देख सकते हैं. इस तरह कंटैंट आप की जेब में पहुंच गया है. सिनेमा देखने के लिए आप को तय समय पर टिकट खरीद कर सिनेमाघर के अंदर जाना पड़ता है. इंटरनैट की दुनिया बढ़ रही है, गति बढ़ रही है. इस से लगता है कि आने वाला वक्त डिजिटल मीडिया का है. इस से सिनेमा की गुणवत्ता भी अच्छी होगी. इस के अलावा वैब सीरीज पर कोई सैंसरशिप नहीं है. कुछ कहानियों में बेवजह सैंसर अड़ंगा लगाता है. कलात्मक प्रतिबंध लग जाते हैं. यदि कहानी में अपराधी किस्म के किरदार हैं तो वे अच्छी भाषा में बात नहीं करेंगे, गालीगलौज ही तो करेंगे.’’ वैब सीरीज में सैक्स के ओवर एक्सपोजर पर वे कहते हैं, ‘‘कुछ लोग सनसनी फैलाने के लिए ऐसा कर रहे हैं पर यह सफल नहीं है. पिछले वर्ष प्रदर्शित सभी एडल्ट सैक्स कौमेडी की फिल्में असफल हुईं. देखिए, इंटरनैट की वजह से लोगों के हाथ में पोर्नोग्राफी पहुंच गई है. ऐसे में वे फिल्म या वैब सीरीज सैक्स के लिए नहीं देखना चाहते. अब लोगों को कंटैंट चाहिए, अच्छी परफौर्मेंस चाहिए.’’
निजी जिंदगी में आए बदलाव को ले कर पंकज बताते हैं, ‘‘सच कहूं तो बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है. एक बड़ी गाड़ी ले ली है, क्योंकि घर में कुत्ता आ गया है, तो गाड़ी की जरूरत थी. आर्थिक रूप से थोड़ा सुरक्षित हूं. अब मुझे कोई फिल्म महज पैसे के लिए करने की जरूरत नहीं रही. अब मैं अपनी कला पर ज्यादा ध्यान दे पा रहा हूं. हां, एक बदलाव यह हुआ कि पहले मैं बिजली का बिल भरने, टिकट खरीदने, इनकम टैक्स व जीएसटी भरने, निर्माता को शूटिंग के लिए तारीख देने जैसे हर काम किया करता था, वह सब अब मुझ से नहीं हो पा रहा है. इस के लिए मैं ने प्रोफैशनल लोगों को रख लिया है. इंसान के तौर पर मुझ में कोई बदलाव नहीं हुआ.’’ वे बताते हैं, ‘‘आर्थिक मजबूती आने के बाद कलाकार मकान व गाड़ी की ईएमआई भरने व हर माह घरखर्च की चिंता से मुक्त हो जाता है. इस से वह अपने अभिनय पर ज्यादा ध्यान दे पाता है. हालांकि, अभाव व तकलीफों में कला ज्यादा बेहद रची जाती है. दुनिया में जहांजहां अच्छा लिटरेचर कायम हुआ है, वह तभी हुआ, जब देश संकट में था. जब आदमी अभावग्रस्त होता है तो वह कुछ बेहतर रचनात्मक काम करने का संघर्ष करता है. उस वक्त वह ज्यादा जागरूक रहता है. उस के अंदर कुछ करने की बेचैनी होती है. अमूमन पैसा या आर्थिक मजबूती आने पर हम थोड़ा आलसी हो जाते हैं. पर मैं जागरूक हूं कि यह जो दौर मेरे जीवन में आया है, यदि मैं इस का सही उपयोग करने के बजाय आलस्य दिखा कर, बड़े होटलों में बैठ कर महंगी शराब पीने लगा, तो गलत हो जाएगा. मेरा मानना है कि कलाकार का कला के प्रति फोकस विचलित नहीं होना चाहिए. कलाकार के लिए धन सिर्फ भौतिक सुखसुविधा दे सकता है, संतुष्टि तो अभिनय में ही मिलेगी.’’