बढ़ रहा है वॉटर बर्थ डिलीवरी का चलन, जानिए इसके कारण और फायदे

जब बात बेबी बर्थ डिलीवरी की होती है, तो अधिकतर दो ऑप्शंस का नाम लिया जाता है पहला नार्मल या वजाइनल बर्थ और दूसरी सी सेक्शन डिलीवरी. लेकिन, आजकल एक और डिलीवरी ऑप्शन भी चर्चित हो रहा है, जिसे वॉटर बर्थ डिलीवरी के नाम से जाना जाता है. दूसरे देशों में यह तकनीक अधिक प्रचलित है. इसमें पानी के अंदर बेबी की डिलीवरी होती है. इस तकनीक के कई फायदे हैं लेकिन इसके कुछ नुकसान भी हो सकते हैं. आइए जानें क्या हैं इसके फायदे और क्या हो सकते हैं इसके नुकसान?

वॉटर बर्थ डिलीवरी के फायदे क्या हैं?

वॉटर बर्थ डिलीवरी का अर्थ है कि गर्भवती महिला के लेबर, डिलीवरी या दोनों का कुछ पार्ट पानी के पूल में कराना. इस डिलीवरी को अस्पताल, बर्थ सेंटर या घर में ही किया जा सकता है. डॉक्टर, नर्स आदि इसमें मदद करते हैं. इस डिलीवरी के कई फायदे हैं, जैसे:

1- आरामदायक-

वॉटर बर्थ डिलीवरी का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे फीटल कॉम्प्लीकेशन्स कम होती है. इस प्रोसेस में टेंस नर्वस और मसल्स को आराम मिलने में मदद होती है. यह एक आरामदारक प्रोसेस है.

2- नेचुरल पेन रिलीफ-

वॉटर बर्थ के दौरान गर्म पानी एक नेचुरल पेन रिलीवर का काम करता है. इससे नर्वस को आराम मिलता है और ब्लड प्रेशर लेवल भी सही रहता है.

3- लेबर का समय कम होता है-

स्टडीज यह बताती हैं कि लेबर के फर्स्ट स्टेज के दौरान गर्म पानी में रहने से लेबर का समय कम होता है.

4- कम कॉम्प्लीकेशन्स-

यह बात साबित हुई है कि जो महिलाएं वॉटर में बर्थ को चुनती हैं उन्हें स्ट्रेस कम होता है. यही नहीं, इससे शिशु के जन्म के दौरान चोट लगने का खतरा भी कम होता है.

वॉटर बर्थ डिलीवरी के नुकसान
वॉटर बर्थ डिलीवरी के दौरान कुछ समस्याएं भी हो सकती हैं जो हालांकि दुर्लभ हैं. यह नुकसान इस प्रकार हैं:

-इससे गर्भवती महिला और शिशु को इंफेक्शन हो सकता है.
-शिशु के पानी से बाहर आने से पहले गर्भनाल टूट सकती है.
-शिशु के शरीर का तापमान बहुत अधिक या कम हो सकता है.
-शिशु बर्थ वॉटर में ब्रीद कर सकता है या उसे अन्य समस्याएं हो सकती हैं.

हालांकि, वॉटर बेबी बर्थ बहुत ही सुरक्षित है. लेकिन, इसे अनुभवी एक्सपर्ट्स और डॉक्टर की प्रजेंस में किया जाता है. यही नहीं, अगर किसी को प्रेग्नेंसी में डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर की समस्या है, तो उन्हें इससे बचना चाहिए. प्रीमेच्योर डिलीवरी में भी इसकी सलाह नहीं दी जाती है.

40 साल की उम्र के बाद महिलाएं अपनी रिप्रोडक्टिव लाइफ को हैल्थी रखने के लिए क्या करें

बढ़ती उम्र के साथ विभिन्न कारणों से महिलाओं का स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है. 40 की उम्र में महिलाओं का शरीर तेजी से बदलता है. एस्ट्रोजन (oestrogen) और प्रोजेस्टेरोन (progesterone) जैसे हार्मोन (hormone) की मात्रा में उतार-चढ़ाव की वजह से महिलाओ में कई शारीरिक परिवर्तन आते हैं. इसके अलावा, उनका मेटाबोलिज्म (metabolism) भी धीमा हो जाता है. अतःइन् कारणों से उत्पन्न अपने सेक्सुअल स्वास्थ्य तथा अन्य जीवनशैली आधारित रोगों के बारे में महिलाओं को अवश्य जानना चाहिए. यह आवश्यक है की 40 की उम्र के बाद महिलाएं अपने सेक्सुअल स्वास्थ्य तथा गाइनिक हेल्थ पर ध्यान दें.

डॉ क्षितिज मुर्डिया,

सीईओ और सह-संस्थापक, इंदिरा आईवीएफ, का कहना है-

भारत में महिलाओं से मल्टीटास्क (multi-task) करने की अपेक्षा की जाती है जिस वजह से वह एक साथ कई काम करने के लिए विवश होती हैं। 40 की उम्र के बाद उनपर अपने घर और परिवार के साथ अपनी नौकरी को संतुलित करने की भी ज़िम्मेदारी रहती है। यह अक्सर मुख्य कारण होता है कि वे स्वयं के स्वास्थ्य को नज़रअंदाज़ करती हैं , जबकि यह अति आवश्यक है की महिलाएं ध्यान दे तथा रोग के लक्षणों को जल्दी पहचाने ताकि उनका जल्द से जल्द इलाज हो पाए। इस उम्र के दौरान स्वास्थ्य का ख्याल करना महत्वपूर्ण है क्योंकि हृदय रोग, मधुमेह (metabolism), उच्च रक्तचाप (high blood pressure) और स्तन कैंसर (breast cancer) होने की संभावना बढ़ सकती है। 40 साल के उम्र के बाद महिलाओं के शरीर में काफी बदलाव आते हैं; आइए हम इन् में से कुछ के बारे में जाने:

सेक्सुअल और गाइनिक हेल्थ में क्या परिवर्तन आ सकते हैं?

  1. पेरिमेनोपौज़ (Perimenopause)

मेनोपॉज़ (menopause) – मासिक धर्म यानी की पीरियड्स (periods) की पूर्ण समाप्ति को कहते है। यह 40 की उम्र में महिलाओं को प्रभावित करता है और कई तरह के लक्षणों से जुड़ा होता है। पीरियड्स की अनियमितता, सेक्स ड्राइव में बदलाव और शारीरिक गुणवताओं में बदलाव इनमें से कुछ लक्षण हैं। पुरुष हार्मोन जैसे की टेस्टोस्टेरोन के बढ़े हुए स्तर के कारण पीरियड्स अस्थायी रूप से बंद हो सकते हैं, उनमें अनियमित ओव्यूलेशन (irregular ovulation) हो सकता है जिससे उनका गर्भवती होना मुश्किल हो जाता है, और कुछ मामलों में महिलाओं के शरीर और चेहरे पर असामान्य मात्रा मे बाल उग जाते है। कई मामलों में हार्मोन का स्तर तेजी से बदलने के कारण हॉट फ्लैशेज (hot flashes) हो जाते है जिसमें चेहरे, गले और चेस्ट पर गर्मी का अनुभव हो सकता है। इस उम्र में मूड स्विंग भी आमतौर पर महसूस होता है जिससे चिंता और डिप्रेशन की संभावनाएं बढ़ सकती है।

कुछ महिलाओं में मेनोपॉज़ जल्दी आ जाता है। इसका कारन हिस्टेरेक्टॉमी (hysterectomy) द्वारा गर्भाशय (uterus) या अंडाशय (ovaries) का हटाना को सकता है अथवा कैंसर के chemotherapy (कीमोथेरेपी) इलाज़ से अंडाशय का  छतिग्रस्थ  होना होता है ।

  1. गर्भाशय फाइब्रॉएड (Uterine Fibroids)

कैंसरमुक्त ट्यूमर को फाइब्रॉएड कहलाते हैं। यह 40 से 50 वर्ष की आयु की महिलाओं में अक्सर पाया जाता है। इन महिलाओं को दर्दनाक पीरियड्स का अनुभव होता है। यह पाया गया है कि मेंटस्रूअल साइकिल (menstrual cycle) के दौरान एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन के स्तर में वृद्धि इन फाइब्रॉएड के विकास को बढ़ावा देती है। फाइब्रॉएड की संख्या, स्थान और आकार सभी इसके लक्षणों को प्रभावित करेंगे। उदाहरण के लिए, सबम्यूकोसल फाइब्रॉएड (submucosal fibroid) की वजह से गर्भधारण तथा पीरियड्स के समय अत्यधिक रक्त स्त्राव (blood loss) की संभावना बढ़ जाती है। यदि ट्यूमर बहुत छोटा है या महिला मेनोपॉज़ से गुजर रही है, तो हो सकता है कि वे लक्षणों को नोटिस न करें।

  1. स्तन स्वास्थ्य और कैंसर

महिलाओं में होने वाले विभिन्न प्रकार के कैंसरों में से स्तन कैंसर सर्वाधिक रूप में पाया गया है। स्तन कैंसर के अनेक कारणों में से सबसे प्रचलित कारण है बढ़ती उम्र। रिसर्च से पता चला है कि 69 मे से एक महिला को 40 से 50 की उम्र के बीच स्तन कैंसर होने का खतरा होता है और उम्र के बढ़ने के साथ इसकी आशंका बढ़ती जाती है।महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर के प्रति सतर्क रहना चाहिए। ब्लड और लिम्फ वेसेल्स द्वारा यह कैंसर स्तन के बाहर फैलता है तथा यह शरीर के अन्य हिस्सों मे भी फैल जाता है ।

इसके अतिरिक्त महिलाओ के स्तन में कैंसरमुक्त गांठ जैसे कि सिस्ट और फाइब्रोएडीनोमा विकसित हो सकते हैं। हार्मोन थेरेपी (hormone therapy) का उपयोग करने वाली पोस्टमेनोपॉज़ल (post-menopausal) महिलाओं में फाइब्रोएडीनोमा अधिक मात्रा में देखा गया है।

  1. सर्वाइकल कैंसर (Cervical Cancer)

गर्भाशयग्रीवा यानी की सर्विक्स (cervix) गर्भाशय का मुख है जो योनि और गर्भाशय को जोड़ता है। बढ़ती उम्र के साथ महिलाओ के सर्विक्स में कैंसर युक्त ट्यूमर उत्पन्न हो सकते है। अधिकतर महिलाओ में सर्वाइकल कैंसर ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (human papilloma virus) से होती है जो यौन संपर्क से फैलती है। सर्वाइकल कैंसर दो प्रकार के होते हैं—स्क्वैमस सेल कार्सिनोमा (squamous cell carcinoma) और एडेनोकार्सिनोमा (adenocarcinoma)। 90% मामलों में सर्वाइकल कैंसर का कारण स्क्वैमस सेल कार्सिनोमा है।

इन लक्षणों को कैसे नोटिस करें और क्या करें?

–            मेनोपॉज़ की वजह से महिलाए हॉट फ़्लैश और मूड स्विंग अनुभव कर सकती है। हालांकि यह काफी आम लक्षण माना गया है, गंभीर लक्षणों के बारे में डॉक्टर से बात करके सुझाव लेना अनिवार्य है। डॉक्टर द्वारा हार्मोनल रिप्लेसमेंट थेरेपी (hormonal replacement therapy) का उपयोग मेनोपॉज़ के उपचार के रूप में किया जा सकता है। ज्यादातर मामलों में ये लक्षण समय के साथ गायब हो जाते हैं।

–            अधिक वजन वाली महिलाएं गर्भाशय फाइब्रॉएड के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। महिलाएं सर्जरी के जरिए अपने फाइब्रॉएड को हटा सकती हैं। यह तब किया जाना चाहिए जब वे स्वाभाविक रूप से या आईवीएफ के माध्यम से गर्भवती होने की सोच रही हों।

–           अगर महिलाओं को अपने स्तनों में गांठ या त्वचा में बदलाव सहित कुछ भी असामान्य दिखाई देता है, तो उन्हें डॉक्टर के पास जाना चाहिए। मैमोग्राफी या ब्रेस्ट अल्ट्रासाउंड स्तन कैंसर का पता लगाने में मदद करेगा। अगर शुरुआती दौर में पता चल जाए तो ब्रेस्ट कैंसर का इलाज आसान हो जाता है।

–            सर्वाइकल कैंसर के शुरुआती संकेत केवल एक डॉक्टर ही पता लगा सकता हैं। पैप स्मियर जांच (Pap smear test)  एचपीवी वैक्सीन (HPV vaccine) सर्वाइकल कैनवर और एचपीवी से संबंधित अन्य संक्रमणों के विकास के जोखिम को कम कर सकता है और एचपीवी टेस्ट सर्वाइकल कैंसर का पता लगा सकता है। इससे पहले कि उन्हें कैंसर में विकसित होने का अवसर मिले, ये परीक्षण शुरुआत में ही असामान्य कोशिकाओं का पता लगा सकते हैं। सर्वाइकल कैंसर के इलाज के लिए रेडिएशन, कीमोथेरेपी, सर्जरी, टार्गेटेड थेरेपी और इम्यूनोथेरेपी जैसे कई विकल्प उपलब्ध हैं।

महिलाओं के अंडाशय में अंडों की संख्या और गुणवत्ता 35 साल की उम्र से कम होने लगती है। मेनोपॉज़ तक के वर्षों में उनकी प्रजनन क्षमता कम हो जाती है। क्रोमोसोमल डिफेक्ट के जोखिम, मेनोपॉज की शुरुआत और ओव्यूलेशन की कमी इसमें शामिल होती है। इस वजह से महिलाओं के लिए उम्र बढ़ने के साथ बच्चे पैदा करना मुश्किल हो जाता है। जो महिलाएं 40 साल की उम्र के बाद गर्भधारण करना चाहती हैं, वे अपने अंडे फ्रीज कर सकती हैं।

इसके अतिरिक्त महिलाओं को स्वस्थ आहार लेना चाहिए, धूम्रपान और शराब पीने से बचना चाहिए और नियमित व्यायाम को अपनी दिनचर्या में शामिल करना चाहिए। ये आदतें रिप्रोडक्टिव लाइफ को हैल्थी रखने में मदद करती हैं।

महिलाओं के शरीर में ऊर्जा उत्पन्न होने की क्षमता उम्र के साथ घटती जाती है। वे उम्र के साथ कम कैलोरी बर्न (calorie burn) करती हैं, जबकि हो सकता है शारीरिक गतिविधियां पहले जितनी ही रहती हो । इससे कम ऊर्जा का उत्पादन होता है और बची हुई कैलोरी फैट्स (fats) के रूप में जमा हो जाती है। इसलिए स्वस्थ आहार और नियमित व्यायाम के साथ वजन और ऊर्जा के स्तर को बनाए रखना महत्वपूर्ण है। महिलाओं को स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं से या उनसे पूरी तरह बचने के लिए नियमित स्वास्थ्य परीक्षण करवाना चाहिए। 40 वर्ष की आयु की महिलाओं को नियमित रूप से सर्वाइकल कैंसर का परीक्षण करवाना चाहिए। स्तन कैंसर का पता लगाने के लिए उन्हें हर दो साल में मैमोग्राफी भी करवानी चाहिए। हाई रिस्क वाली महिलाएं विशेष रूप से ऑस्टियोपोरोसिस (osteoporosis) की जांच के लिए मेनोपॉज़ के बाद बोन डेंसिटी (bone density) परीक्षण कराने के बारे में सोच सकती हैं।

क्या दिल में भी होता है शार्ट सर्किट

दिल में जोरो से धक धक होने लगे तो खुद को धक धक गर्ल या बॉय समझने की भूल मत कर बैठना. संभव है कि आपके दिल में करंट का ओवरफ्लो हो रहा हो. यानि शार्ट सर्किट.  क्या आप जानते हैं  कि  हमारे दिल में भी शार्ट सर्किट होता है. अगर नहीं तो हम आज आपको दिल से जुडी ऐसी  बीमारी के बारे में बताने जा रहे हैं. जिसे मेडिकल टर्म में पीएसवीटी या पैरोसाइमल सुपर वेंट्रिकुलर टेकिकार्डियो कहते हैं.

जाने क्या है पीएसवीटी

नार्मल व्यक्ति के  दिल की  धड़कन 72 -100 प्रति मिनट होती है लेकिन जब दिल में शार्ट सर्किट होता है तो  पीड़ित कि धड़कन 180 -250  प्रति मिनट  तक पहुंच जाती है. जब दिल में  करेंट ओवरफ्लो होता है तो धड़कन तिगुनी बढ़ जाती है.  यह दिल कि गड़बडी के कारण होता है. हमारे दिल में चार चेम्बर्स होते है व दिल में कई नसे होती हैं. इनमे कुछ नसे ऐसी भी होती हैं जिनके ऊपर कवरिंग नहीं होती. जब ऐसी दो नसे आपस में मिलती हैं तो शार्ट सर्किट हो जाता है.

लक्षण

धड़कन का  तेज होना.

शरीर पीला व ठंडा होन.

सांस तेज व एवं बेहोश होना.

असामान्य ब्लड प्रेशर की समस्या होना.

 इलाज

इलेक्ट्रो फिजियोलोजिकल स्टडी के जरिए  शार्टसर्किट वाले प्वाइंट को पकड़ा जाता है।जिसके लिए  पैर के रास्ते से तीन तार दिल तक पहुंचाए जाते है. इसके बाद दिल के अंदर हुए शॉर्ट सर्किट का पता लगाया जाता है। पता चलने पर फिर चौथा तार दिल तक पहुंचाया जाता है और दिल में शाट सर्किट वाले इन तारों पर करीब 350 किलोहर्ट्ज की तरंग छोड़कर इसे फ्यूज कर दिया जाता  है. लेकिन कई बार वो नसे  जो  आपस में मिलकर करंट का ओवरफ्लो करती है यदि वो दिल की दीवारों  को बिलकुल छू रही होती है तो उन्हें फ्यूज करने का रिस्क होता है। ऐसे में मरीज़ को पेसमेकर लगाने की जरूरत भी पड़ सकती है इस िस्थति का पता इलेक्ट्रो फिजियोलाजी स्टडी  करते समय ही चल पाता  है.

कारण

दिल में छेद, मानसिक तनाव व चाय, एल्कोहल व काफी का  ज्यादा सेवन.

जंक फूड का  अधिक सेवन.

खांसी, जुकाम समेत तमाम रोगों की दवाएं धड़कन खराब करती हैं.

हीमोग्लोबिन कम होना.

अनुवांशिक होना.

 बचाव

रक्त का संचार ठीक रखें इसलिए नियमित रूप से व्यायाम करें.

हाई कोलेस्ट्रॉल वाली चीजों से करें परहेज.

तनाव को रखें खुद से दूर .

लापरवाही से बचे

यह समस्या बार बार हो रही है तो इससे दिल कि मासपेशियां कमजोर हो जाती हैं व  दिल फैलने लगता है. जिससे करंट नए रास्तों के जरिए फ्लो होकर धड़कन तेज कर देता है. ऐसे में जान जाने का खतरा होता है. अधिकतर दिल से संबंधित यह समस्या महिलाओं  में ज्यादा देखी जाती है.

विशेषज्ञ – नारायणा हॉस्पिटल ,गुरुग्राम

डॉ विवेक चतुर्वेदी  ,सीनियर कंसलटेंट कार्डियोलॉजिस्ट

जानें क्या है ऑक्युलर हायपरटेंशन और इससे बचाव

आज के समय में चाहे बच्चे हो या बड़े हर कोई आँखों की समस्या से परेशान है कारण है ज्यादा देर तक मोबाइल, टीवी या कंप्यूटर का इस्तेमाल करना व हमारी डाइट में पौष्टिक खानपान की कमी होना. ऐसे में आँखों के मरीजों की समस्या लगातार बढ़ रही है.

ऑक्युलर हायपरटेंशन आंखों से जुडी एक दुर्लभ बीमारी है. जब हमारी आंख के फ्रंट एरिया में
मौजूद फ्लूएड पूरी तरह से नहीं सुख पाता है तो हमें यह परे शानी हो सकती है.

तो चलिए जानते है ऑक्युलर हाइपरटेंशन की समस्या है क्या व इससे कैसे हम अपनी आँखों को बचा सकते हैं.

समस्या को जाने

इस बीमारी को आंख का हाई ब्लड प्रेशर भी कहा जाता है.  आंख की पुतली के पीछे मौजूद एक
संरचना से जलीय पदार्थ निकलता है.  यह लिक्विड जब आंख से बाहर नहीं निकलता है तब आंख के सामने के एरिया में मौजूद फ्लूइड पूरी तरह से सूख नहीं पाता है जिस वजह से आंख के भीतर मौजूद प्रेशर जिसे इंट्राकुलर प्रेशर कहते है वह नार्मल से ज्यादा हो जाता है.  नार्मल िस्थति में यह प्रेशर 11 से 21 (mmHg) होता है .  इसके बढ़ने से ग्लूकोमा जैसी बीमारी भी हो सकती है या इसकी वजह से एक या दोनों आंखे प्रभावित हो सकती हैं। आंख में चोट लगना ,अनुवांशिक बीमारी का होना या स्टेरॉयड दवाओं , अस्थमा और अन्य गंभीर बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं का सेवन भी इस बीमारी का कारण हो सकती हैं.

लक्षण व बचाव

शुरुवात में इस बीमारी के लक्षण पता नहीं चल पाते लेकिन यह समस्या गंभीर होने पर मरीजों में आंख में दर्द और लालिमा जैसी समस्याएं दिखाई देती हैं.  वैसे तो यह समस्या किसी भी उम्र में हो सकती है. लेकिन 40 साल के बाद इसका खतरा बढ़ सकता है.  जरूरी है कि नियमित रूप से आंखों की जांच कराएं व डॉक्टर की सलाह से ही दवाइयों का प्रयोग करें.

सर्दियों में फिट रहने के लिए फॉलो करें ये टिप्स

इस मौसम में व्‍यायाम पर थोड़ा ध्‍यान देकर आप स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी मामूली समस्‍याओं से भी बच सकते हैं. लेकिन अगर आपको हृदय संबंधी समस्‍या है, तो आपको अतिरिक्‍त सुरक्षा की आवश्‍यकता होती है. ऐसे में अगर आप अच्‍छा स्‍वास्‍थ्‍य चाहते हैं, तो यह मौसम सबसे अच्‍छा है. सर्दियों में स्‍वस्‍थ रहने के टिप्‍स –

1. पानी खूब पियें 

लम्बे सैर पर जाने से पहले खूब पानी पीयें ,इससे बहुत ठंड होने पर भी शरीर के अन्दर की वायु श्वास नली तक जाने तक गर्म रहेगी. गर्म श्वास में अत्यधिक नमी बनाये रखने की क्षमता होती है. फीज़िकल एक्टिविटी के साथ भारी ब्रीथिंग होने पर शरीर से अत्यधिक मात्रा में उष्मा निकलती है जिससे कि श्वास नली ड्राई हो जाती है . ड्राई एयर पैसेज से सांस लेने और व्यायाम करने में परेशानी होती है. ड्राई एयर पैसेज की परेशानी से बचने के लिए सैर से पहले पानी पीना बहुत ही अच्छा उपाय है.

2. गरम पेय पदार्थों से बचें

गरम पेय पदार्थ या अल्कोहल लेने के बाद बाहर ना जायें. इनसे हमारी रक्त वाहीनियां शिथिल हो जाती हैं और स्किन से उष्मा निकलने लगती है.

3. शरीर को थोड़ा आराम दें 

व्यायाम से नार्मल स्थिति की तुलना में शरीर से दस गुना ज़्यादा उष्मा निकलती है. मेहनत करने से वातावरण में उष्मा फैलती है जिससे कि रक्त वाहीनियों की पेशियां फैलती हैं और हृदय पर दबाव भी पड़ता है इसलिए सर्दियों में अधिक व्यायाम करने से बचना चाहिए.

4. सर्दियों में वाटर स्पोर्टस से बचें

सर्दियों के मौसम में ठंडे स्वीमिंग पूल में स्वीमिंग करने से बचें. पानी उष्मा का अच्छा संचालक है. इससे अत्यधिक उष्मा निकलती है और हमारे शरीर को इस उष्मा को दोबारा उत्पन्न करने में थोड़ा समय लग जाता है.

5. ठंडी हवाओं से बचें

ठंडी हवाओं में टहलने से एन्जीना होने का खतरा बढ़ जाता है. अगर आप तेज़ हवा में टहल रहे हैं तो धीरे टहलें. धीरे टहलने से भी आपकी सेहत को उतना ही लाभ मिलेगा जितना कि तेज़ टहलने से मिलता है. टहलने के बाद कुछ देर रूक कर घर के अन्दर जायें जिससे कि शरीर से पसीना निकल जाये.

6. सावधानियां हैं जरूरी   

1-व्‍यायाम के लिए जाने से पहले, एक कप गर्म चाय या गर्म दूध पीयें

2-व्‍यायाम के लिए ऐसे वस्‍त्रों का प्रयोग करें, जो ढीले-ढाले हों और उनसे शरीर

में हवा भी ना लगे.

3-व्‍यायाम करने के कम सेक म 30 मिनट बाद ही स्‍नान करें.

4-व्‍यायाम के तुरंत बाद कपड़े ना बदलें, ना ही खुले स्‍थान पर जायें.

6 TIPS: ऐसे करें नए बेबी का स्वागत

विवाह प्रत्येक इंसान के जीवन का एक अहम पड़ाव होता है….विवाह के बाद जब दाम्पत्य जीवन में एक नए मेहमान के आगमन की सुगबुगाहट होती है तो पति पत्नी दोनों ही खुशियों से सराबोर हो उठते हैं. पहले जहां परिवारों में 4-5 बच्चे होते थे वहीं आज 1 या 2 ही बच्चे होते हैं. ऐसे में अपने आने वाले बच्चे को लेकर माता पिता का पजेसिव होना स्वाभाविक है. आजकल प्रति माह बच्चे का जन्म दिन मनाया जाना तो आम बात है पर इसके अतिरिक्त आप कुछ अन्य उपायों से भी अपने बच्चे के आगमन को यादगार बना सकते हैं.

1. यादों की डायरी बनाएं

प्रग्नेंट होने के दिन से ही आप एक डायरी बनाएं जिसमें इस अवस्था के अनुभवों को शेयर कीजिये. प्रतिदिन के अपने अनुभवों के साथ साथ आप इसमें अपने शरीर में होने वाले बदलावों, खान पान की आदतों में परिवर्तन, और गर्भ में होने वाले अनुभवों के बारे में विस्तार से लिखें. इसी डायरी में बेबी के जन्म के बाद के घटनाक्रम को अंकित करें मसलन उसके करवट लेने, चलने, खड़े होने, पलटने, बैठने, खड़े होने,चलने और दांत निकलने जैसी तमाम यादों को फोटो और उनकी तिथि लिखने के साथ साथ फोटोज भी लगाएं.

2. बेबी नर्सरी प्लान करें

आने वाले बच्चे के लिए घर में अपने पार्टनर के साथ मिलकर क्यूट सी एक नर्सरी बनाएं. इसमें आप रंग बिरंगे खिलौने फ्लोरल मोटिफ के साथ साथ छोटे छोटे टेडीबियर और आवाज वाले खिलौनों को स्थान दें. बच्चे के लिए नर्सरी प्रिंट की चादर, तकिया बैग और गद्दियां भी लाएं.

3. खुशी को शेयर करें

परिवार में नए सदस्य का आगमन सोचकर ही मन खुशी से भर उठता है यदि आप इस खुशनुमा अवसर पर अकेले हैं तो अपनी खुशी को दोस्तों और नाते रिश्तेदारों के साथ जमकर शेयर कीजिये. केवल फोन पर शेयर करने के स्थान पर आप  इस खुशी को शेयर करने के लिए आप स्वयम अपना ऑनलाइन ई कार्ड डिजाइन करके व्हाट्सअप पर शेयर करें. आप चाहें तो इस अवसर पर अपने घनिष्ठ मित्रों के साथ एक छोटी सी पार्टी भी प्लान कर सकतीं हैं.

4. बेबी बंप से करें बातें

अपने आने वाले बेबी से बातें करने के लिए बेबी बंप को सहलाएं, बेबी के मूवमेंट को महसूस करें, और हर स्टेज की फोटो लेकर इस अवस्था को अविस्मरणीय बनाएं. पहले के जमाने मे जहां बेबी बंप को लेकर महिलाओं में झिझक होती थी वही आज बेबी बंप महिलाओं के लिए गर्व की बात है जिसे लेकर पति पत्नी दोनों ही बहुत उत्साहित होते हैं. आजकल तो प्री बेबी शावर शूट का चलन है जिससे इस अवधि को यादगार बनाया जा सकता है.

5. ये तैयारी भी करें

बेबी के फुटप्रिंट लेने के लिए एक सफेद सूती कपड़ा और कोई हल्का सा रंग लाकर रखें ताकि आप अपने नन्हे पैरों का प्रिंट ले सकें. आजकल फुटप्रिंट लेने के लिए ऑनलाइन किट मिलती है जिससे आप बड़ी आसानी से बेबी के फुटप्रिंट ले सकतीं हैं. इसके अतिरिक्त आप आटे या प्लास्टर ऑफ पेरिस से भी फुटप्रिंट ले सकतीं हैं. इन्हें यादगार बनाने के लिए आप इसे आगे चलकर फ्रेम करवा लें.

6. नाम सोचकर रखें

बच्चे के आगमन से पूर्व उसका नाम अवश्य सोच लें क्योंकि नाम के अभाव में बच्चे को देखने आने वाले आगन्तुक किसी भी नाम से उसे पुकारना प्रारम्भ कर देते हैं जिससे कई बार उसका नामकरण ही वह उल्टा सीधा नाम ही हो जाता है. यदि आप पहले ही कोई नाम सोचकर रखते हैं तो सभी उसे उसी नाम से पुकारते हैं.

युवाओं में सॉलिड ऑर्गन अंग कैंसर के मामलों में वृद्धि है चिंताजनक

दुनिया भर में मृत्यु के प्रमुख कारणों में कैंसर से मृत्यु का आंकड़ा सबसे अधिक माना जाता है. ट्रेडिशनली इस रोग से बड़ी उम्र के लोग अधिक प्रभावित होते है, लेकिन, हाल में ही किये गए अध्ययनों से पता चला है कि कैंसर युवाओं में भी तेजी से फ़ैल रहा है, जिससे चिकित्सा के पेशेवरों और सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठनों में चिंता बढ़ रही है. यूवाओं में खासकर 15 से 19 साल के यूथ में सबसे कॉमन कैंसर ब्रेन ट्यूमर, थाइरोइड कैंसर, मेलिग्नेट बोन ट्यूमर आदि का होना है.

इस बारें में न्यूबर्ग सुप्राटेक रेफरेंस लेबोरेटरी के सीनियर कंसलटेंट डॉक्टर भावना मेहता कहती है कि युवाओं में कैंसर वृद्धि होने की वजह बदलती जीवन शैली, अस्वास्थ्यकर आहार, शारीरिक गतिविधियों में कमी, पर्याप्त नींद न होना, पर्यावरण में विषाक्त पदार्थों से प्रदूषण, कीटनाशक, तंबाकू चबाने की आदत, धूम्रपान, शराब आदि है. इनमे सबसे अधिक योगदान शारीरिक गतिविधियों की कमी और अस्वास्थ्यकर आहार का होना है. ये समस्या हर दशक के बाद कम उम्र के लोगों में वृध्ही देखी जा रही है, जो चिंता का विषय है. दरअसल कैंसर का पता बहुत देर से चलना भी एक बड़ी समस्या है, जिससे इलाज में देर हो जाती है, हालंकि यह देखा गया है कि कम उम्र के युवाओं में जल्दी कैंसर का पता लगने पर इलाज संभव होता है, लेकिन यूथ को पहले विश्वास करना मुश्किल होता है कि उन्हें कैंसर है. तक़रीबन 70 हज़ार टीनएजर्स हर साल कैंसर डाग्नोस किये जाते है, जिनमे से 80 प्रतिशत यूथ सालों तक इलाज के बाद सरवाईव कर पाते है और ये एक अच्छी बात है. देर से जानकारी होने की मुख्य वजह निम्न है,

– कैंसर के बारे में जागरूकता की कमी,

-यूथ होने की वजह से नियमित जांच का न होना,

-कैंसर का पता चलने पर किसी से इस बात का न कह पाने की हिचकिचाहट

-आर्थिक समस्याएँ आदि है.

बेहतर स्क्रीनिंग और डायग्नोस्टिक टूल के कारण ऐसे कैंसर जिनके बारे में पहले पता ही नहीं चल पाता था, अब उनका शुरुआती चरणों में निदान किया जा रहा है, लेकिन इन सब के बावजूद, युवा आबादी के लिए कैंसर का ख़तरा बड़े पैमाने पर बना हुआ है. जिन युवाओं के कैंसर का निदान हुआ है उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे, शिक्षा और करियर में बाधा पड़ना, सामाजिक और भावनात्मक कठिनाइयों का होना और परिवार के लिए आर्थिक तनाव में वृद्धि. इसके अलावा कैंसर के कई उपचारों का प्रजनन क्षमता पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है, इसलिए कैंसर से पीड़ित युवाओं को प्रजनन संबंधी अतिरिक्त चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. इन निम्न समस्याओं के होने पर डॉक्टर की सलाह तुरंत लें,

– अचानक वजन का घटना,

– थकान का अनुभव करना,

– बार-बार बुखार आना,

– लगतार दर्द का अनुभव करना,

– त्वचा में परिवर्तन दिखाई पड़ना, मसलन तिल में बदलाव का दिखना, पीलिया का संकेत दिखाई देना आदि है.

इसके आगे डॉ. भावना कहती है कि कैंसर किसी भी अन्य बीमारी की तरह है और किसी को भी हो सकती है, लोगों को परिवार और समाज में भी इसके बारे में खुलकर चर्चा करनी चाहिए. कैंसर जैसी बीमारी के बारे में बात करने से होने वाली झिझक समाप्त होना बेहद जरूरी है. यह बात हर किसी को पता होनी चाहिए कि कैंसर का डाग्नोस जितना शुरुआती चरण में होता है, उपचार की प्रक्रिया और उसका असर बेहतर होता है. और कुछ कैंसर पूरी तरह निदान योग्य हैं.

युवा आबादी देश का भविष्य है और उन्हें बचाना सभी की जिम्मेदारी है. सही जीवन शैली अर्थात जल्दी उठना और जल्दी सोना, स्वस्थ और संतुलित आहार लेना, किसी भी रूप में दैनिक शारीरिक गतिविधियों जैसे टहलना, स्ट्रेचिंग व्यायाम, योग और सबसे बड़ी बात, ऐसा वातावरण बनाना जहां कोई भी बिना किसी हिचकिचाहट के कैंसर के बारे में बात कर सके और प्रारंभिक निदान और उपचार के लिए स्वास्थ्य पेशेवरों और शोधकर्ताओं द्वारा किए गए प्रयास का लाभ उठा सके.

ब्रैस्ट फीडिंग: मां और बच्चे के लिए क्यों है सही

मांबनने का एहसास हर महिला के लिए सब से खास होता है. एक औरत से मां बनने के इस 9 महीने के सफर में महिलाएं कई मानसिक और शारीरिक बदलावों से गुजरती हैं. शिशु के जन्म लेने के बाद कई महिलाएं स्तनपान करवाने से डरती हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि स्तनपान कराने से शरीर का आकार खराब हो जाता है, जबकि यह सिर्फ भ्रम है.

स्तनपान मां और बच्चा दोनों के लिए फायदेमंद होता है. स्तनपान से मां को शारीरिक और मानसिक तनाव से मुक्ति मिलती है.

आइए, जानते हैं डाक्टर सुषमा, स्त्रीरोग विशेषज्ञा से बच्चा और मां के लिए ब्रैस्ट फीडिंग क्यों और कैसे जरूरी है:

शिशु के लिए जरूरी है मां का दूध

ब्रैस्ट फीडिंग के फायदे मां और बच्चा दोनों के लिए लाभदायक है. बच्चे के लिए मां का दूध बहुत जरूरी है. ऐसा कहा जाता है कि ब्रैस्ट फीडिंग यानी स्तनपान बच्चों के लिए सुरक्षित, स्वास्थ्यप्रद भोजन है, जोकि पोषक तत्त्वों से भरपूर होता है और यह बच्चे को इन्फैक्शनल और कई बीमारियों से बचा सकता है. डाक्टर सुषमा बताती हैं कि मां का दूध बच्चे को जन्म के

1 घंटे के भीतर दिया जाना चाहिए और उस के बाद बच्चे को शुरुआती 6 महीनों तक विशेष रूप से इसे जारी रखा जाना चाहिए.

जिन शिशु का समय से पहले जन्म हो जाता है यानी प्रीमैच्योर बेबीज उन के लिए भी यह बहुत फायदेमंद होता है. शिशु के जन्म के बाद मां के स्तनों से एक गाढ़े पीले रंग का पदार्थ निकलता है जिसे कोलोस्ट्रम कहते हैं. यह बच्चे को जरूरी पोषक देने के साथसाथ रोगों से लड़ने की क्षमता भी बढ़ाता है. यह बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास में सहायक होता है. इस में रोगप्रतिरोधक क्षमता भी होती है.

आइए जानते हैं मां का दूध शिशु के लिए क्यों लाभकारी है:

-बच्चे के लिए मां का दूध ऐंटीबौडीज का काम करता है. जन्म लेने के बाद 6 महीने तक बच्चे को पानी या अन्य पदार्थ नहीं देने चाहिए. 6 महीने तक बच्चे के लिए मां का दूध ही जरूरी होता है. यह बच्चे में निमोनिया, डायरिया जैसी तमाम बीमारियों के होने के खतरे को काफी हद तक कम कर देता है.

– शिशु जन्म के तुरंत बाद से ले कर कुछ दिनों तक मां के स्तनों से निकलने वाला पतला गाढ़ा

दूध कोलेस्ट्रम कहलाता है. यह पीले रंग का चिपचिपा दूध होता है. इस दूध को अकसर लोग अंधविश्वास के चलते गंदा और खराब दूध कह कर नवजात को नहीं देते, जबकि डाक्टर सुषमा का कहना है कि कोलोस्ट्रम बच्चे के लिए सब से ज्यादा फायदेमंद होता है और इस में संक्रमण से बचाने वाले तत्त्व होते हैं. यह विटामिन 1 से भी भरपूर होता है एवं इस में 10% से अधिक प्रौटीन होता है.

– मां का दूध सुपाच्य होता है जिसे शिशु आसानी से पचा लेता है.

– मां का दूध बच्चों के दिमाग के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है. इस से बच्चों की बौद्धिक क्षमता भी बढ़ती है.

– बच्चे को बोतल से दूध पिलाने से उसे पूरी तरह स्वच्छ दूध नहीं मिल पाता. ब्रैस्टफीड करने से मां को भी दूध को उबालने, बोतल को धोने, स्टरलाइज करने जैसे काम नहीं करने पड़़ते. ब्रैस्ट फीडिंग से बच्चे को संपूर्ण पोषण मिलता है.

ब्रैस्ट फीडिंग मां के लिए भी है लाभदायक

ब्रैस्ट फीडिंग सिर्फ बच्चे के लिए जरूरी नहीं बल्कि मां के लिए भी फायदेमंद है. डाक्टर सुषमा बताती हैं कि ब्रैस्ट फीडिंग से जुड़े महिलाओं के दिमाग में कई तरह कि मिथ हैं, जिस वजह से वह ब्रैस्ट फीडिंग से डरती है. अधिकतर महिलाओं का मानना है कि ब्रैस्ट फीडिंग से ब्रैस्ट लटक जाती हैं, ब्रैस्ट फीडिंग से शरीर का आकार बदल जाता है, ब्रैस्टफीड कराते समय बहुत दर्द होता, बीमारी में फीड नहीं करवाना चाहिए आदि.

ये सभी बातें मांओं में ब्रैस्ट फीडिंग के खिलाफ भ्रम पैदा कर देती हैं, जबकि असलियत कुछ और ही है. दरअसल, प्र्रैगनैंसी के दौरान और बढ़ती उम्र के वजह से ब्रैस्ट लटकती है न कि ब्रैस्ट फीडिंग के कारण. ब्रैस्ट फीडिंग से शरीर के आकार में कोई बदलाव नहीं होता. जिन महिलाओं का मानना है कि ब्रैस्ट फीडिंग के समय ब्रैस्ट में बहुत ज्यादा दर्द होता है तो ऐसा नहीं है. यदि मां बच्चे को फीड सही ढंग से करवा रही है तो दर्द नहीं होगा. अगर मां बीमार है तो बच्चे को उस से पहले ही पता चल जाता है कि वह बीमार है.

मां का दूध बच्चे के लिए ऐंटीबौडी होता है जो उसे बीमारी से बचाता है. बच्चा बीमार हो जाता है तो इस दूध से उस की बीमारी ठीक हो जाती है. मां को बुखार या जुकाम हो जाए तो भी वह बच्चे को फीड करवा सकती है. मां तब बच्चे को फीड नहीं करवा सकती जब उसे एचआईवी, टीवी जैसी गंभीर बीमार हो.

मां को होने वाले फायदे

– ब्रैस्ट फीडिंग से मां को गर्भावस्था के बाद होने

वाली शिकायतों से मुक्ति मिल जाती है. इस से तनाव कम होता है और डिलिवरी के बाद होने वाले रक्तस्राव पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

– ब्रैस्ट फीडिंग कराने से हारमोन का संतुलन बना रहता है.

– इस से माताओं को स्तन या गर्भाशय के कैंसर का खतरा काफी हद तक कम हो जाता है.

– ब्रैस्ट फीडिंग से महिलाएं जल्दी प्रैगनेंट नहीं होतीं. यह एक तरह से प्राकृतिक गर्भनिरोधक उपाय है.

-महिलाओं में खून की कमी से होने वाले रोग ऐनीमिया का खतरा कम होता है.

– मां और शिशु के बीच भावनात्मक रिश्ता मजबूत होता है. बच्चा अपनी मां को जल्दी पहचानने लगता है.

– यह प्राकृतिक ढंग से वजन को कम करने और मोटापे से बचाने में मदद करता है.

– स्तनपान कराने वाली मांओं को स्तन या गर्भाशय के कैंसर का खतरा कम होता है.

ब्रैस्ट पंप का इस्तेमाल

हर मां अपने बच्चे को सही पोषण देना चाहती है. मां का दूध बच्चे के लिए शुरुआती समय में बहुत जरूरी होता है. लेकिन कई बार मांएं अपने बच्चे को ब्रैस्ट फीड करवाने में असहज महसूस करती हैं. कई महिलाएं कामकाजी होती हैं जिस वजह से वे बच्चे को सही ढंग से फीड नहीं करवा पातीं. ऐसे में ब्रैस्ट पंप उन मांओं के लिए किसी उपहार से कम नहीं.

ब्रैस्ट पंप की सहायता से मां अपने दूध को एक बोतल में निकाल सकती है. इस दूध को रैफीजरेटर में भी रखा जा सकता है और जरूरत पड़ने पर बच्चे को मां का दूध आसानी से दिया जा सकता है.

खानेपीने का रखें खास ध्यान

सिर्फ प्रैगनैंसी के दौरान ही नहीं बल्कि डिलिवरी के बाद भी मां और बच्चा दोनों की सेहत का ध्यान रखना बेहद जरूरी होता है. मां अकसर बच्चे का ध्यान रखने में इतनी व्यस्त हो जाती है कि अपनी सेहत को नजरअंदाज करने लगती है. बच्चे को जन्म देना और इसे ब्रैस्ड फीडिंग कराना दोनों ही काम एक मां के शरीर के लिए स्ट्रैस से भरे हो सकते हैं. इसलिए ऐसे समय में मां को अपनी सेहत का भी खास ध्यान रखना चाहिए.

आइए, जानते हैं ब्रैस्ट फीडिंग कराने वाली मांओं को अपनी डाइट में क्याक्या शामिल करना चाहिए:

विटामिन ए: विटामिन ए ऐंटीऔक्सिडैंट है. यह इम्यूनिटी को मजबूत करता है और इन्फैक्शंस से लड़ने में मदद करता है. यह आंखों के लिए भी फायदेमंद है. विटामिन ए के लिए संतरा, शकरकंद, पालक, केले आदि का सेवन कर सकती हैं.

आयरन: अगर बच्चे को दूध पिलाने वाली मां के शरीर में आयरन की कमी होगी तो उसे हमेशा थकान महसूस होगी, शरीर में एनर्जी की कमी रहेगी, बाल ज्यादा गिरेंगे, नजर कमजोर हो जाएगी. कई बार महिलाओं को पता ही नहीं होता है कि वे ऐनीमिया से पीडि़त हैं और उन के शरीर में आयरन की कमी हो गई है. कई बार प्रैगनैंसी के दौरान भी ऐनीमिया हो जाता है. आयरन की कमी को पूरा करने के लिए आप हरी सब्जियां, अंडा, अंकुरित दाल आदि का सेवन जरूर करें.

विटामिन डी: यह आप की हड्डियों के विकास और संपूर्ण सेहत के लिए महत्त्वपूर्ण है. यह शरीर की कैल्सियम के अवशोषण में मदद करता है. धूप विटामि डी के उत्पादन में शरीर की मदद करती है, मगर अधिकांश महिलाओं को इतनी देर सूरज की किरणें नहीं मिल पातीं, जिस से कि पर्याप्त मात्रा में विटामिन डी बन सके. विटामिन डी के लिए आप संतरा, दलिया, मछली, मशरूम, दाल का सेवन करें.

कैल्सियम: कैल्सियम के लिए आप जैसे दूध और अन्य डेयरी फूड, मछली, हरी पत्तेदार सब्जियां, बादाम या फिर कैल्सियम फोर्टिफाइड भोजन जैसेकि जूस, सोया और चावल के पेय और ब्रैड का सेवन कर सकती हैं.

हैप्पी प्रैगनैंसी के सिंपल सीक्रेट्स

मांबनने का एहसास दुनिया का सब से खूबसूरत एहसास होता है लेकिन 9 महीने की गर्भावस्था का यह समय काफी कठिन और नाजुक भी होता है. जरा सी लापरवाही से प्रैगनैंसी में कौंप्लिकेशंस आ सकते हैं. बच्चे के स्वास्थ्य पर असर पड़ सकता है. पहली और तीसरी तिमाही काफी नाजुक होती है. इसलिए इस समय मां को अपना भरपूर ख्याल रखना चाहिए. अपनी डाइट, लाइफस्टाइल, ऐक्सरसाइज के साथसाथ मैंटल हैल्थ को ले कर भी पूरी सतर्कता बरतनी चाहिए ताकि वह स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सके.

हैल्दी प्रैगनैंसी के लिए इन बातों का खयाल जरूर रखें:

1- सही और पौष्टिक खानपान

गर्भावस्था के पूरे 9 महीने खानपान में कोई भी लापरवाही न बरतें. आप जो भी खाएंगी वह आप के शिशु को भी लगेगा. प्रैगनैंसी के दौरान ही नहीं बल्कि कंसीव करने से पहले और डिलीवरी के बाद भी महिलाओं को अपनी डाइट का ध्यान रखना चाहिए. प्रेगनेंसी में पौष्टिक आहार लेने से उस के मस्तिष्क का सही विकास होने में मदद मिलती है और जन्म के समय शिशु का वजन भी ठीक रहता है.

संतुलित आहार से शिशु में जन्मजात विकार से भी बचाव होता है. अकसर प्रैगनैंसी के पहले महीने में कुछ महिलाओं को उलटी, मितली, भूख न लगना, थकान जैसी परेशानियां होती हैं जिस से उन्हें खाने में परेशानी आती है. मगर इस समय भी अपनी डाइट में फाइबर से भरपूर सब्जियां, फल, नट्स, दूध आदि जरूर लें.

प्रैगनैंसी के 9 महीनों में शरीर शिशु के पोषण और विकास के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहा होता है. इस समय में शरीर को पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन की जरूरत होती है जिसे उबले अंडे, मछली, कम वसा वाला मांस, बींस जैसे राजमा, लोबिया, मूंग और साबूत मूंग, मेवे, सोया और दाल आदि से पूरा किया जा सकता है. अंडा काफी पौष्टिक होता है. उस में प्रोटीन, बायोटिन, कोलैस्ट्रौल, विटामिन डी, ऐंटीऔक्सीडैंट आदि भरपूर मात्रा में होते हैं इसलिए ये भी प्रैगनैंट महिलाओं के लिए काफी फायदेमंद होते हैं.

प्रैगनैंसी के दौरान महिलाओं को अपने आहार में हरी पत्तेदार सब्जियां जैसे पालक, पत्तागोभी और ब्रोकली को शामिल करना चाहिए. इन के अलावा फलियां जैसे बींस और सहजन भी खाना चाहिए. इन में फाइबर, प्रोटीन, आयरन और कैल्सियम की अधिक मात्रा होती है जिन की जरूरत प्रैगनैंट महिलाओं को होती है.

2- सही और संयुक्त खानपान

ज्यादा फाइबर वाली चीजों का सेवन करें. प्रैगनैंसी के दौरान कब्ज की शिकायत बढ़ जाती है, इसलिए पाचनक्रिया का ठीक होना बहुत जरूरी है. कोशिश करें कि अपने फूड्स में ज्यादा से ज्यादा फाइबर लें. इस से कब्ज होने का खतरा नहीं रहता है.

सूखा मेवा भी प्रैगनैंसी में काफी सही आहार है. आप बादाम, अखरोट और काजू अपने आहार में शामिल कर सकती हैं. इन में कई तरह के विटामिन, कैलोरी, फाइबर और ओमेगा-3 फैटी ऐसिड होता है जिस की जरूरत मां और गर्भस्थ शिशु दोनों को होती है.

आप जो भी खाती हैं उस में एकतिहाई से थोड़ा ज्यादा हिस्सा कार्बोहाइड्रेट्स का होना चाहिए. सफेद के बजाय संपूर्ण अनाज वाली वैरायटी चुनें ताकि आप को पर्याप्त फाइबर मिल सके. प्रतिदिन दूध और डेयरी उत्पादों का सेवन करें जैसे दूध, दही, चीज, छाछ व पनीर लें. अगर आप को दूध नहीं पचता है तो कैल्सियम युक्त अन्य विकल्प जैसे छोले, राजमा, ओट्स, बादाम, सोया दूध, सोया पनीर आदि का चयन कर सकती हैं.

3- ध्यान रखें

सप्ताह में 2 दिन मछली लें. मछली में प्रोटीन, विटामिन डी, खनिज, ओमेगा-3 फैटी ऐसिड आदि होते हैं जो आप के शिशु के तंत्रिकातंत्र के विकास के लिए जरूरी होते हैं. यदि आप को मछली पसंद नहीं है या आप शाकाहारी हैं तो ओमेगा-3 फैटी ऐसिड अन्य खाद्यपदार्थों से पा सकती हैं जैसे मेवे, बीज, सोया उत्पाद और हरी पत्तेदार सब्जियों से.

आप को गर्भावस्था में 2 लोगों के लिए खाने की जरूरत नहीं है. भारत में अधिकांश डाक्टर दूसरी और तीसरी तिमाही में 300 अतिरिक्त कैलोरी के सेवन की सलाह देते हैं. फिर भी यह ध्यान रखें कि गर्भ में नन्हा शिशु पल रहा है और उस के लिए आप को खाना है न कि किसी बड़े व्यक्ति के लिए. प्रैगनैंसी के दौरान बहुत अधिक चाय, कौफी पीने से बचें. कौफी में मौजूद कैफीन सेहत को नुकसान पहुंचा सकती है. बेहतर है कि आप नीबू वाली चाय, हर्बल टी या कैफीन रहित ड्रिंक्स का सेवन करें.

बीचबीच में हैल्दी स्नैक्स का सेवन करें. इस के लिए आप रोस्टेड बादाम, काजू, मखाने, चने आदि खाएं. प्रैगनैंसी के दौरान कुछ चीजों के सेवन से बचना चाहिए जैसे कच्चा या अधपका मांस, कच्चा अंडा, पपीता आदि. आप उबला अंडा खा सकती हैं पर ध्यान रखें कि पीले वाला भाग अच्छी तरह से पक गया हो.

4- आयरन

शरीर में हीमोग्लोबिन बनाने के लिए आयरन की जरूरत होती है. हीमोग्लोबिन लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाने वाला प्रोटीन है जो शरीर के विभिन्न अंगों तथा ऊतकों में औक्सीजन पहुंचाने का काम करता है. डाक्टर द्वारा बताए गए सप्लिमैंट्स के अलावा पर्याप्त मात्रा में आयरन से भरपूर भोजन खाएं ताकि आप का आयरन का स्तर ऊंचा रहे. अपने भोजन में आयरन से भरपूर फूड्स जैसे अनार, चुकंदर आदि को शामिल करें. फौलिक ऐसिड का सेवन भी प्रैगनैंसी के दिनों में बहुत जरूरी होता है.

सीडीसी (सैंटर्स फौर डिजीज कंट्रोल ऐंड प्रिवैंशन) के अनुसार गर्भावस्था की योजना बना रही महिलाओं को कम से कम 1 महीना पहले और गर्भावस्था के दौरान प्रतिदिन 400 मिलीग्राम फौलिक ऐसिड का सेवन करना चाहिए. फौलिक ऐसिड विटामिन बी का एक रूप है जो शिशु की मस्तिष्क व रीढ़ से जुड़े जन्मदोष से बचाव कर सकता है. इसे आप हरी पत्तेदार सब्जियों, दालों, फोर्टिफाइड अनाज के सेवन से पा सकती हैं. प्रैगनैंसी के पहले 3 महीनों में आप को फौलिक ऐसिड सप्लिमैंट्स लेने की जरूरत होगी क्योंकि यह भू्रण को हैल्दी रखने में मदद कर सकता है.

5- खुद को हाइड्रेटेड रखें

खुद को हाइड्रेटेड रखने की कोशिश करें. अपने साथ हमेशा एक बोतल पानी रखें और बीचबीच में पानी पीती रहें. साथ ही नारियल पानी, स्मूदी, फलों से तैयार जूस और शेक्स भी पी सकती हैं ताकि शरीर में पानी की कमी न हो. डाइट में उन फलों को शामिल करें जिन में पानी की मात्रा अधिक होती है. खीरा, खरबूज, लौकी, तरबूज आदि खाएं. दिनभर में कम से कम 3 से 4 लिटर पानी और 1 से 2 गिलास जूस पीएं. ऐसा करने से शरीर में मौजूद विषैले पदार्थ शरीर से  बाहर निकल जाते हैं. पानी आप के यूरिनरी ट्रैक के संक्रमण को रोकने में मदद करता है जिस का खतरा गर्भवती महिलाओं में अधिक होता है. शरीर में पर्याप्त पानी होने से गर्भावस्था के दौरान निर्जलीकरण और सूजन से भी बचाव होता है.

6- शारीरिक रूप से ऐक्टिव रहें

प्रतिदिन रात डिनर करने के बाद 15 से 30 मिनट टहलें. इस से शरीर में ब्लडसर्कुलेशन सही बना रहेगा. इस से डिलिवरी के समय अधिक समस्या नहीं होगी. सप्ताह में कम से कम 5 दिन 30 मिनट के लिए ब्रिक्स वाक करें. इस से शरीर को गर्भावस्था और प्रसव के दौरान होने वाले सभी परिवर्तनों से निबटने में मदद मिल सकती है. आप फिजिकली और इमोशनली फिट महसूस करेंगी. ब्रीदिंग ऐक्सरसाइज से भी फायदा होगा. लेकिन भारी वजन उठाने वाली और कठिन व्यायाम करने से बचें. रोजाना अपनी क्षमतानुसार कुछ हलके ऐक्सरसाइज करें. नियमित रूप से हलके व्यायाम करने के बहुत फायदे हैं. आप के जरीए शिशु को भी इन का लाभ मिलेगा.

7- तनाव से दूरी

किसी बात को ले कर चिंतित या तनाव में न रहें. इस से मानसिक और शारीरिक सेहत को नुकसान पहुंच सकता है. स्ट्रैस के कारण कंसीव करने में भी दिक्कत आ सकती है. यहां तक कि प्रीमैच्योर लेबर भी हो सकता है. यही वजह है कि प्रैगनैंट महिलाओं को खुश रहने की सलाह दी जाती है.

8- आराम

शरीर को पर्याप्त आराम दें. गर्भावस्था के शुरुआती महीनों में महिलाएं थकान महसूस करती हैं. ऐसा उन के शरीर में स्रावित हो रहे गर्भावस्था हारमोन के उच्च स्तर की वजह से होता है. बाद में यह थकान रात में बारबार पेशाब के लिए उठने या फिर बढ़े पेट की वजह से आराम से न सो पाने का कारण बन सकती है.

करवट ले कर सोने की आदत डालें. तीसरी तिमाही में करवट ले कर सोने से शिशु तक रक्त का प्रवाह बेहतर रहता है. करवट ले कर सोने से मृत शिशु के जन्म का खतरा पीठ के बल सोने की तुलना में कम होता है.

जब तक शिशु सुरक्षित तरीके से जन्म नहीं ले लेता तब तक अपने डाक्टर के संपर्क में बनी रहें. जब भी आप को शरीर में किसी तरह की परेशानी या बेचैनी अथवा कोई और समस्या नजर आए तो तुरंत डाक्टर से संपर्क करें. डाक्टर आप के घर के करीब का हो तो ज्यादा अच्छा है क्योंकि जरूरत पड़ने पर आप तुरंत उन के पास पहुंच जाएंगी.

बेबी स्किन केयर स्मार्ट टिप्स

साक्षी उस दिन स्कूल से रोती हुई घर लौटी. मां ने वजह पूछी तो 8 साल की साक्षी रोते हुए बोली, ‘‘मां मैं क्या भालू की बेटी हूं? तुम मु?ो चिडि़याघर से लाई थीं?’’

‘‘नहीं मेरी प्यारी गुडि़या… तुम मेरी बेटी हो… किस ने कहा कि तुम भालू की बेटी हो?’’ मां ने बच्ची के आंसू पोछते हुए पूछा.

‘‘सब बोलते हैं. आज तो हिंदी की टीचर ने भी बोला कि मैं भालू जैसी दिखती हूं,’’ साक्षी सुबकते हुए बोली.

‘‘क्यों? ऐसा क्यों बोली वे?’’

‘‘मेरे हाथपैर पर इतने बाल जो हैं. सब को मैं भालू लगती हूं,’’ साक्षी मां के सामने अपने दोनों हाथ फैलाते हुए बोली.

मां साक्षी की बात सुन कर परेशान हो गई. दरअसल, साक्षी के पूरे शरीर और चेहरे पर घने रोएं हैं. इस के कारण उस का रंग भी दबा हुआ है. अब इतनी कम उम्र में उसे पार्लर ले जा कर वैक्सिंग भी नहीं करवा सकते हैं. साक्षी पढ़ने में अच्छी है. डांस और ऐक्टिंग भी बढि़या करती है, मगर स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उसे मौका नहीं मिलता है. अगर टीचर्स डांस बगैरा में ले भी लें तो अच्छा डांस करने के बाद भी उस को पीछे की लाइन में रखा जाता है. वजह है उस का रोयों से भरा चेहरा और हाथपैर. जिन्हें मेकअप में भी छिपाया नहीं जा सकता.

1- शरीर मजबूत और साफ होता है

दरअसल, साक्षी के पैदा होने के बाद उस के शरीर की जो मालिश होनी चाहिए थी वह कभी हुई नहीं. अकसर नवजातों के शरीर पर जन्म से ही कुछ रोएं होते हैं जो लगातार मालिश से साल 6 महीने में साफ हो जाते हैं. अकसर देखा होगा कि गांवदेहात की महिलाएं अपने नवजातों को अपने पैरों पर लिटा कर सरसों के तेल, हलदी और बेसन के उबटन से उन की मालिश करती हैं.

शहरी मांएं कई तरह के बेबी औयल से अपने उन की मालिश करती हैं जिस से बच्चों का शरीर मजबूत और साफ होता है. मालिश से उन के शरीर में रक्तसंचार भी बढि़या होता है और ऊर्जा प्राप्त होती है. मगर साक्षी के जन्म के बाद उस की मां को पैरालिसिस का अटैक पड़ा और वे करीब 2 साल बिस्तर पर रहीं. उन का आधा शरीर लकवाग्रस्त हो गया. लंबे इलाज और थेरैपी के बाद अब वे चलनेफिरने के काबिल हुई हैं.

जन्म के बाद से करीब 4 साल तक साक्षी अपनी नानी के पास रही. नानी काफी बुजुर्ग थीं. लिहाजा साक्षी की उस तरह अच्छी देखभाल नहीं हो पाई जो आमतौर पर नवजातों की होती है. उस के शरीर की कभी ठीक से मालिश भी नहीं हुई. यही वजह है कि उस के शरीर पर जन्म के समय जो बाल थे वे उम्र बढ़ने के साथ ज्यादा घने और कड़े हो गए और अब उसे भद्दा बनाते हैं.

2- बच्चों का सही विकास

शिशुओं के शरीर की मालिश कई वजहों से बहुत जरूरी होती है. मालिश से न केवल अनचाहे बालों से शरीर मुक्त होता है बल्कि इस से हड्डियों को मजबूती मिलती है और पूरे शरीर में बढि़या रक्तसंचार होने से बच्चे का ठीक तरीके से विकास होता है.

शिशुओं की त्वचा फूल जैसी कोमल होती है और इसीलिए उन की त्वचा को खास देखभाल की जरूरत होती है. यहां पर यह सम?ाना भी जरूरी है कि शिशुओं की त्वचा की देखभाल का मतलब सिर्फ उन के चेहरे की त्वचा की देखभाल करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह पूरे शरीर की त्वचा की देखभाल करने से जुड़ा है.

बच्चे में मालिश की आवश्यकता को देखते हुए बाजार में तरहतरह के बेबी केयर प्रोडक्ट्स मौजूद हैं. मालिश के लिए इन प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल आज शहरी मांएं ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों की मांएं भी खूब करने लगी हैं.

3- प्रोडक्ट्स खरीदने से पहले

मगर अपने बच्चे की नाजुक त्वचा के लिए प्रोडक्ट खरीदने से पहले जानकारी प्राप्त करना और सावधानी बरतनी बहुत जरूरी है.

इन प्रोडक्ट्स में अनेक प्रकार के रसायन, खुशबू वाली चीजें, कपड़ों को रंगने में इस्तेमाल होने वाले पदार्थ, डिटर्जैंट या कोई अन्य शिशु उत्पाद, नवजात की सेहत के साथसाथ उस की त्वचा

में दाग, चकत्ते, दरदरापन, जलन और खुशकी पैदा कर सकते हैं, इसलिए यह जानना बहुत जरूरी है कि बेबी स्किन केयर प्रोडक्ट्स का चुनाव करते समय किन बातों का ध्यान रखा जाए.

आमतौर पर शिशु के शरीर की देखभाल के लिए जिन चीजों का सब से ज्यादा जरूरत होती है वे हैं- बेबी क्रीम, शैंपू, बेबी सोप, हेयर औयल, मसाज औयल, पाउडर और शिशु को पहनाए जाने वाले कपड़े.

शिशुओं की स्किन बहुत नाजुक होती है. अगर उन की स्किन केयर में जरा भी लापरवाही हुई तो स्किन पर रैशज और दानें निकल आते हैं. इन की जलन से शिशु असहज महसूस करते हैं और रातदिन रोते हैं. ऐसे में अगर आप पहली बार पेरैंट्स बने हैं तो आप को अपने बच्चे की स्किन का खास खयाल रखना सीखना जरूरी है.

4- मां के लिए जानना जरूरी

जन्म के बाद शुरुआती समय में बच्चे की स्किन और बालों में लगातार बदलाव आता है. न्यू बौर्न बेबीज के शरीर से कई दिनों तक सफेद रंग की पपड़ी निकलती है जोकि एक नौर्मल प्रक्रिया है. इसे वेरनिक्स कहा जाता है. हलके हाथों से बच्चे के शरीर की तेल मालिश से यह पपड़ी पूरी तरह हट जाती है, साथ ही अनावश्यक बाल भी निकल जाते हैं.

पर कुछ लोग इसे जल्दी हटाने के लिए बच्चे को अत्यधिक रगड़ कर नहलाने या स्क्रब करने की कोशिश करते हैं जो सही तरीका नहीं है. शिशुओं की स्किन केयर के लिए हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह जानना एक नई मां के लिए बहुत जरूरी है.

5- त्वचा को पोषण दें

शिशु की त्वचा को पोषण की जरूरत होती है. इस के लिए दिन में 2 समय उस की मालिश कर सकती हैं. मालिश के लिए कोई भी असली तेल जैसे नारियल का तेल, बादाम तेल, औलिव औयल आदि ले सकती हैं. ध्यान रहे कि बेबी औयल के नाम से बिकने वाले उन तेलों से दूर रहें जिन में तेज खुशबू, तेज रंग और कैमिकल्स होते हैं.

6- माइल्ड साबुन करें इस्तेमाल

शिशु की त्वचा पर कैमिकल वाले प्रोडक्ट्स इस्तेमाल करने से सूखेपन या रैशेज की समस्या हो जाती है इसलिए बाल और स्किन के लिए हमेशा माइल्ड शैंपू और साबुन का इस्तेमाल करना चाहिए.

7- ज्यादा पाउडर न लगाएं

शिशु की त्वचा पर पाउडर का कम से कम इस्तेमाल करना चाहिए. नहलाने के बाद त्वचा को अच्छी तरह से सूती मुलायम कपड़े से सुखाएं और उस के बाद ही पाउडर लगाएं. ध्यान रहे पाउडर अच्छी कंपनी का और ऐसा लें जिस में ज्यादा खुशबू न हो. जरूरत न होने पर पाउडर का इस्तेमाल न करें.

8- धुले कपड़े पहनाएं

बच्चे को कपड़े हमेशा धुले हुए ही पहनाएं. गंदे कपड़ों से त्वचा पर रैशेज, रूखापन, खुजली या अन्य कोई समस्या हो सकती है.

9- नाखूनों को रखें साफ

शिशुओं के नाखून तेजी से बढ़ते हैं और अगर इन्हें न काटा जाए तो उन के चेहरे पर चोट लग सकती है.

10- कौटन नैपी पहनाएं

डायपर के इस्तेमाल से बच्चे को रैशेज की समस्या होती है और गीला होने के कारण बच्चे को खुजली, रैशेज और रैडनैस की समस्या हो सकती है. ऐसे में बच्चे को कम डायपर पहनाएं और बेहतर होगा कि कौटन का नैपी ही पहनाएं.

11- अंधविश्वासी टोटकों से बचें

बच्चों की त्वचा बहुत कोमल होती है. उन पर व्यर्थ में काजल, सिंदूर, हलदी, चंदन आदि न लगाएं. इन उत्पादों में न जाने किसकिस तरह के कैमिकल्स मिले हो सकते हैं.

12- सनबर्न से बचाएं

कभी अपने बच्चे को तेज धूप में डाइरैक्ट न रखें. शिशुओं के लिए सुबह की धूप सब से अच्छी होती है. अगर शिशु की स्किन पर रैश आ या लाल चकत्ते हो रहे हैं तो उसे तुरंत डाक्टर को दिखाएं. यह ऐलर्जी भी हो सकती है.

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