‘झूठा कहीं का’ फिल्म रिव्यू: सतही दर्जे की फिल्म

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताःदीपक मुकुट व अनुज शर्मा

निर्देशकःसमीप कंग

कलाकारः ऋषि कपूर, जिम्मी शेरगिल, लिलेट दुबे,सनी सिंह,ओंकार कपूर, मनोज जोशी निमिशा मेहता, पूजिता, राजेश शर्मा व अन्य.

अवधिः दो घंटे 13 मिनट

एक बहुत पुरानी कहावत है कि ‘एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं. ’’इस कहावत को लेकर समीप कंग ने अपनी हास्य फिल्म ‘‘झूठा कहीं का’’ की कहानी का ताना बना बुना है, मगर फिल्म अति सतही दर्जे की बनकर उभरी है. मजेदार बात यह है कि अभी लगभग एक माह पहले ही इसी तरह की कहानी पर दर्शक अमित अग्रवाल की फिल्म ‘‘फंसते फंसाते’’ देख चुके हैं.

कहानीः

फिल्म की कहानी के केंद्र में मौरीशस में रह रहे दो दोस्त वरूण (ओंकार कपूर) व करण सिंह (सनी सिंह) हैं. वरूण के पिता व अवकाशप्राप्त पुलिस वाले योगराज सिंह (रिषि कपूर) पंजाब, भारत में अपने साले कोका सिंह (राजेश शर्मा) व उनकी पत्नी के साथ रहते हैं. मौरीशस में अपना भविष्य बनाने की फिराक में जुटे वरूण को एक लड़की रिया मेहता (निमिषा मेहता) से प्यार हो जाता है, जो कि अपने व्हील चेअर पर रहने वाले पिता (मनोज जोशी) व मां रूचि मेहता (लिलेट दुबे) को छोड़कर जाना नहीं चाहती. रिया को पाने के लिए वरूण खुद को अनाथ बताकर उसके साथ उसके घर में ही रहने लगता है और कह देता है कि उसे घर जमाई बनने से परहेज नहीं है. जबकि करण को रूचा (रूचा वैद्य) से प्यार है. करण का बड़ा भाई टौमी पांडे (जिम्मी शेरगिल) जेल में है, मगर करण, रूचा से कहता है कि उसके भाई अमरिका में रहते हैं, लेकिन वरूण के सिर पर उस वक्त मुसीबत आ जाती है,जब योगराज अपने साले कोका व उसकी पत्नी के साथ मौरीशस आकर रिया के बंगले में ही रहने पहुंच जाते है. वरूण,करण को रिया का पति बताता है. अब वरूण व करण दोनो दोस्त झूठ की दलदल में फंसते जाते हैं.

लेखन व निर्देशनः

अति कमजोर पटकथा के चलते फिल्म दर्शकों को बांधकर रखने में बुरी तरह से विफल रहती है. हास्य के नाम पर कुछ फूहड़ और औरतों के मान सम्मान को ठेस पहुंचाने वाले संवाद परोसे गए हैं. इंटरवल से पहले ओंकार कपूर व सनी सिंह के बीच के कुछ दृश्य इन्ही कलाकारों की एक पुरानी फिल्म से उठाए गए लगते हैं. धीमी गति से चलने वाली फिल्म की लंबाई कुछ ज्यादा है. इसे एडिटिंग टेबल पर कसने की जरुरत थी. ‘‘कैरी औन जट्टा’’और ‘‘भज्जी इन प्रौब्लम’’ जैसी सफल पंजाबी फिल्मों के निर्देशक समीप कंग अपनी पहली हिंदी फिल्म में अपनी निर्देशकीय प्रतिभा का जलवा नही दिखा पाए. मौरीशस में फिल्मायी गयी इस फिल्म में मौरीशस की खूबसूरती के दर्शन नहीं हो सकते, क्योकि फिल्मकार ने पूरी फिल्म को एक कमरे के अंदर ही कैद कर रखा है.

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अभिनयः

साले बहनोई के किरदार में राजेश शर्मा और रिषि कपूर की जुगलबंदी अच्छी है. ओंकार कपूर व सनी सिंह उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते. निमिषा मेहता सिर्फ खूबसूरत लगी हैं. रूचा वैद्य के हिस्से करने के लिए कुछ रहा ही नहीं. मनोज जोशी व लिलेट दुबे जैसे कलाकारों की प्रतिभा को जाया किया गया है. जिम्मी शेरगिल बेहतरीन अभिनेता हैं, मगर फिल्मकार की कमजोरी के चलते वह अपने आपको दोहराते हुए ही नजर आए हैं.

लेखकः श्रेया श्रीवास्तव व वैभव सुमन

कैमरामैनः आकाशदीप पांडे

संगीतकारः यो यो हनी सिंह,अमजद नदीम-अमीर,संजीव-अजय

Edited by Rosy

नोबलमेन फिल्म रिव्यू: बोर्डिंग स्कूलों की बंद दुनिया का भयावह कड़वा सच का सटीक चित्रण

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः विक्रम मेहरा व सिद्धार्थ आनंद कुमार

निर्देशकः वंदना कटारिया

लेखकः सुनील ड्रेगो, वंदना कटारिया व सोनिया बहल

कैमरामैनः रामानुज दत्ता

कलाकारः अली हजी, कुणाल कपूर, मुस्कान जाफरी, इवान रौड्क्सि, हार्दिक ठक्कर, मोहम्मद अली मीर, शान ग्रोवर, सोनी राजदान, एम के रैना व अन्य.

अवधिः एक घंटा 51 मिनट

फिल्मकार वंदना कटारिया ने विलियम शेक्सपिअर के नाटक ‘‘द  मर्चेट आफ वेनिस’’ की अपनी व्याख्या के साथ इस फिल्म का निर्माण किया है. यह नाटक अपमानित व उत्पीड़ित होने के बाद बदला लेने की बात करता है.इसे ही फिल्मकार ने अपनी फिल्म का विषय बनाते हुए बोर्डिंग स्कूल में होने वाली बुलिंग बदमाशियों के साथ समलैंगिकता का मुद्दा भी उठाया है.शेक्सपिअर के इस दुःखद नाटक की ही तरह फिल्म भी बेहद डार्क, क्रूर व संवेदनाओं की परीक्षा लेती है.पर वरिष्ठ छात्रों की बदमाशी किस तरह किशोर व मासूम छात्र की मासूमियत छीनकर उसे शैतान बनने पर मजबूर करती है.

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कहानीः

मसूरी के पौश बोर्डिंग स्कूल मांउट नोबल हाई में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाला मासूम शाय (अली हाजी) अपने मोटे भाले भाले मासूम क्यूट दोस्त गणेश (हार्दिक ठक्कर)और पिया (मुस्कान जाफरी) के साथ खुश है.पर शाय अपने किशोरवय से जूझ रहा है. पिया की मां भी इसी स्कूल में शिक्षक हैं. शौय का सीनियर और करोड़पति बौलीवुड स्टार का बेटा बादल (शान ग्रोवर) हर चीज पर अपना हक जताता है. बादल,पिया को चाहता है और उस पर सिर्फ अपना हक मानता है. जब शाय को ड्रामा थिएटर शिक्षक मुरली (कुणाल कपूर) शेक्सपियर के नाटक ‘द मर्चेट औफ वेनिस’ के मुख्य पात्र के लिए चुनता है, तो उसकी जिंदगी में हादसों का सिलसिला शुरू हो जाता है. क्योंकि इस नाटक की हीरोईन के किरदार में पिया है.बादल को यह बर्दाश्त नही होता.वह पहले ड्रामा शिक्षक मुरली पर दबाव डालकर शाय की जगह खुद को नाटक का हिस्सा बनाने के लिए कहता है. वह अपने पिता से कई तरह की मदद का आश्वासन भी देता है. मगर मुरली मना कर देते हैं.

तब बादल अपने रास्ते से शाय को हटाने और नाटक में मुख्य किरदार में खुद को शामिल करवाने के लिए बादल अर्जुन की मदद लेता है. अर्जुन (मोहम्मद अली मीर) बोर्डिग स्कूल के सबसे ताकतवर गैंग का मुखिया है. अर्जुन फुटबौल चैंपियन होने के साथ साथ प्रीफेक्ट भी है. अर्जुन अपने तरीके से शाय को प्रताड़ित कर नाटक छोड़ने के लिए कहता है. मगर शाय अपने पसंदीदा अभिनय और नाटक के पसंदीदा पात्र से खुद को अलग करने को तैयार नही होता. उसके बाद बादल व अर्जुन अपने पूरे गैंग के साथ मिलकर शाय को हर तरह से प्रताड़ित करते हैं. शाय का साथ देने की कीमत उसके दोस्तों पिया और गणेश को भी चुकानी पड़ती है.

नाटक के शिक्षक शाय का साथ देने का प्रयास करते हैं.पर हालात ऐसे बन जाते है कि अपमान से त्रस्त शाय,मुरली को भी अपना दुश्मन मान बैठता है.अर्जुन के गैंग का मुकाबला करने के साथ शाय अपनी होमो सेक्सुआलिटी समलैंगिकता को लेकर भी जूझता है. जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है, बदमाश गैंग की बदमाशी बढ़ती जाती है. एक वक्त ऐसा आता है,जब वह अपनी सारी हदें पार कर जाते हैं.बदला लेने के लिए परेशान होने लगता है.अंततः निर्दोषता के साथ ही एक जिंदगी खत्म होती है.

लेखन व निर्देशनः

लेखक ने बोर्डिंग स्कूल में ज्यूनियर छात्रों के साथ सीनियर छात्रों की छोटी छोटी बुलिंग बदमाशी कितना भयानक रूप लेती है, इसका सटीक चित्रण है.लेखक व निर्देशक अपनी इस फिल्म के माध्यम से बोंर्डिंग स्कूल के स्याह पक्ष के साथ कड़वी सच्चाई पेश करने में सफल हैं. फिल्म हमें नामचीन बोर्डिंग स्कूलों की उस दुनिया में ले जाती है, जिससे हम अनभिज्ञ है.यह दुनिया है गुमराह करने वाली धारणाएं, छात्रों का लगातार मौखिक व शारीरिक उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न, हिंसात्मक प्रवृत्ति, बौलीवुड स्टार के बेटे का अपना ओहदा आदि.

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इंटरवल से पहले फिल्म की गति काफी धीमी हैं.पर इंटरवल के बाद कई घटनाक्रम तेजी से घटित होते हैं. फिल्म का क्लायमेक्स व अंत बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है. फिल्म का अंत ऐसा है कि बुराई पर अच्छाई जीत हासिल करने के बाद बुराई बन जाती है.

फिल्म में किशोरवय का मासूम शाय एक घायल चिड़िया को स्कूल के अध्यापक आदि से छिपाकर अपने साथ रखकर उसकी सेवा करता है. जिसे बाद में अर्जुन मार डालता है. यानी कि शाय को इतना कोमल हृदय वाला बालक बताया है. नाटक के शिक्षक मुरली उसका पक्ष लेते रहते हैं.पर फिल्म के अंत में शाय जो कदम उठाता है, वह कई भयानक सवाल उठाता है. पर फिल्मकार ने अंत में ‘लड़कों को पुरूष बनने के लिए कानून के बल पर अनुशासित होने की जरुरत है.’का सशक्त संदेश दिया है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाह तो शाय का किरदार निभाने वाले अभिनेता अली हजी बाल कलाकार के तौर पर ‘फना’ और ‘पार्टनर’में अभिनय कर चुके हैं.पर इस फिल्म में किशोर वय के शाय के किरदार की जटिलताओं को गहराई से जीते हुए परदे पर पेशकर उत्कृष्ट अभिनेता होने का परिचय दिया है. नकारात्मक पात्र अर्जुन को मोहम्मद अली मीर ने शिद्दत से जिया है.नाटक के शिक्षक मुरली के किरदार में कुणाल कपूर ने शानदार अभिनय किया है. पिया के किरदार में मुस्कान जाफरी अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं.बाकी कलाकार भी ठीक-ठाक हैं.

जो माता पिता अपने बच्चों को उत्कृष्ट शिक्षा दिलाने के लिए बोर्डिंग स्कूल में भेजकर अपनी इतिश्री समझ लेना चाहते हैं, उन्हें यह फिल्म जरुर देखनी चाहिए.

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गेम ओवर फिल्म रिव्यूः भ्रम के शिकार लेखक व निर्देशक’’

रेटिंगः दो स्टार

कलाकारः तापसी पन्नू,विनोदिनी वैद्यनाथन,अनीस कुरूविला व अन्य.

निर्माताः एस शशीकांत चक्रवर्ती और राम चंद्रन

निर्देशकः अश्विन सरवनन

लेखकः अश्विन सरवनन,काव राम कुमार,वेंकट कचारिया व श्रुति मदान

कैमरामैनः ए.वसंत

संगीतकारः रौन एथन योहन

अवधिः एक घंटा 42 मिनट

एक लड़की के किसी हादसे का शिकार हो जाने के बाद उसका परिवार व समाज उसके साथ सहानुभूति या हमदर्दी व्यक्त करने की बजाय उसी पर दोषारोपण करते हुए उसकी गलतियां गिनाने से बाज नही आते हैं. आए दिन लोग लड़की को ताना देते रहते हैं. दक्षिण के फिल्मकार अश्विन सरवनन इस मूल मुद्दे के साथ ही अंधेरे के डर से निजात पाने की बात करने वाली एक मनोवैज्ञानिक रोमांचक फिल्म ‘गेम ओवर’ लेकर आए हैं. तमिल व तेलगू  भाषा में बनायी गयी इस फिल्म को तमिल व तेलगू के साथ ही हिंदी में डब करके प्रदर्शित किया गया है.मगर वह फिल्म की विषयवस्तु के साथ न्याय करने में असफल रहे हैं.

कहानीः

फिल्म शुरू होती है गुड़गांव के सेक्टर 101 में रहने वाली एक कामकाजी लड़की के कत्ल के साथ.कातिल लड़की की हत्या करने के बाद उसके सिर को फुटबाल की तरह उछालने के बाद उसके धड़ को आग के हवाले कर देता है. इस डरावने दृश्य के बाद कहानी एक साल बाद गुड़गॉंव में ही रह रही पेश से वीडियो गेम डेवलपर सपना (तापसी पन्नू)से,जो कि अपनी घर की नौकरानी कलाअम्मा (विनोदिनी वैद्यनाथन)के साथ एक बड़े और आलीशान बंगले में रहती है. अनवर नामक एक चैकीदार भी है.उसके माता पिता दक्षिण भारत में कहीं रहते हैं. सपना खुद भी वीडियो गेम की दीवानी है.मगर वह नए वर्ष के जश्न की रात और अंधेरे के डर जैसी ऐसी मानसिक बीमारी से गुजर रही है,जहां अतीत में उसके साथ हुए हादसे की तारीख नजदीक के साथ ही उसका दम घुटने लगता है. उसे जबरदस्त डर को लेकर अटैक आते हैं. जिसके लिए वह एक मनोवैज्ञानिक डाक्टर (अनीस कुरूविला)  से इलाज भी करवा रही है. पता चलता है कि एक साल पहले नए साल के जश्न मनाने वाली रात सपना के साथ जो हादसा घटा था, उस रात वह अपने हाथ की कलाई पर टैटू करवा कर लौट रही थी.

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टैटू बनवाए एक साल पूरा होने वाला है. तो वहीं यह साल खत्म होकर नए साल की शुरूआत भी होने वाली है. उसके कुछ दिन पहले से उसके टैटू में तेज दर्द होने लगता है. तो वह टैटू आर्टिस्ट वर्षा(राम्श सुब्रमणियम) के पास जाती है, जिसने उसके हाथ पर टैटू बनाया था. तब सपना को पता चलता है कि उसका टैटू आम टैटू नहीं, बल्कि ‘मेमोरियल टैटू’है, जिसकी स्याही में किसी मृत इंसान की चिता की राख मिलाई जाती है. यह टैटू जीवित व्यक्ति अपने मरे हुए करीबी को अपने शरीर में अपने पास हमेशा को रखने के लिए बनवाता है. कुछ दिन बाद सपना डाक्टर के पास इस टैटू को निकलवाने जाती है, पर दर्द सहन नहीं होता, तो वापस आ जाती है.

इस बीच परिवार और समाज के तानों से तंग आकर सपना खुदखुशी करने की दो बार कोशिश भी करती है. दूसरी बार वह अपने दोनों पैर तुड़वा बैठती है और व्हील चेअर पर आ जाती है.

दो दिन बाद उसे फिर जाना है. मगर रात में एक महिला उससे मिलने आती है और वह बताती है कि टैटू आर्टिस्ट की गलती से उसके हाथ का टैटू उनकी 27 साल की मृत लड़की की राख से बनी स्याही से गोद दिया गया था.वह महिला बताती है कि उनकी बेटी तीन बार कैंसर पर विजय पा चुकी थी.वह बहुत लड़ाकू थी और वह सपना से कहती है कि उसे भी लड़ना होगा.उसके बाद सपना अपने हाथ से टैटू को निकलवाने का इरादा बदल देती है.सपना रात में निर्णय लेती है कि सुबह वह और कला अम्मा,सपना के माता पिता के पास जाएंगे.

मगर रात ग्यारह बजे से बारह बजे के बीच सपना का भयावह अतीत एक बार फिर उसे निगल जाने को तैयार है. इंटरवल के बाद सपना देखती महसूस करती है कि एक मनोवैज्ञानिक हत्यारा अपना चेहरा ढंक कर एक हाथ में लंबी तलवार,दूसरे हाथ में कैमरिकार्डर लेकर उसे मारने आया है. उसके बाद क्या होता है,यह जानने के लिए फिल्म देखकर समझें,तो ही बेहतर है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म का पहला दृश्य यह वादा करता है कि यह एक सायकोलौजिकल थ्रिलर मनोवैज्ञानिक रोमांचक फिल्म होगी.मगर कहानी जैसे ही आगे बढ़ती है,सब कुछ झूठ का पुलिंदा ही सामने आता है. इंटरवल के बाद तो लेखक व फिल्मकार स्वयं इस कदर कन्फ्यूज्ड हो गए हैं कि उनकी समझ में नहीं आया कि वह दर्शकों को क्या दिखाना चाहते हैं. मनोरोगी उद्देश्यहीन, तर्कहीन, अभद्र, आवेगी और क्रूर कृत्य देखकर दर्शक आश्चर्य चकित होता रहता है. यानी कि लेखक के तौर पर असफल रहे हैं. लेखन में दोहराव बहुत है.

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फिल्मकार ने क्लायमेक्स में यातना और डरावने दृश्यों के साथ ‘वीडियो गेम’के तीन पड़ाव (वीडियो गेम में गेम खत्म होने से पहले तीन मौके मिलते हैं.) को मिश्रित करने का प्रयास करते हुए पूरी कथा को अति जटिल व अविश्सनीय बना डाली.फिल्म में कुछ भी वास्तविक रहस्य या आश्चर्य जनक बात सामने नहीं आती. फिल्म में रोमांचक पलों का घोर अभाव है. निर्देशक कई जगह भटक गए हैं. आखिर मनोवैज्ञानिक हत्यारा यानी कि बुरा इंसान कौन हैं और क्यों हैं? वह ऐसा कुकर्म क्यों करता है? सपना की घरेलू व्यवस्थाएं जिस तरह की दिखायी गयी हैं, उसकी वजह क्या है? यह डरावनी फिल्म है? क्या हत्यारा प्रेत बाधा से ग्रसित है? क्या अलौकिक शक्तियों का मसला है? इस पर फिल्म कुछ नहीं कहती. लेखक व निर्देशक खुद भी भ्रम में है और दर्शक भ्रमित होता है.

पाश्र्व संगीतः

फिल्म के पाश्र्व संगीतकार रौन एथन योहन जरुर बधाई के पात्र हैं.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो सपना के जटिल किरदार में तापसी पन्नू ने अपने अभिनय से जान डाल दी है. तापसी अपने अभिनय से जिस पीड़ा को व्यक्त करती हैं, उसी के चलते दर्शक फिल्म देखते समय बंधा रहता है. बेबसी, खौफ और डिपरेशन के भावो को अभिनय से उकेरने में वह सफल रही हैं. विनोदिनी विद्यानाथन भी अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही हैं.

Edited by Rosy

‘दे दे प्यार दे’ फिल्म रिव्यू: रोमांस के नाम पर बेशर्मी और डबल मीनिंग डायलौग

फिल्म- दे दे प्यार दे

निर्देशक- अकीव अली

कलाकार- अजय देवगन, तब्बू, रकूल प्रीत सिंह, आलोकनाथ, जावेद जाफरी, जिम्मी शेरगिल, भाविन भानुशाली, हुयेन दलाल, अंजीला व अन्य.

रेटिंग- डेढ़ स्टार

बतौर निर्देशक अकीव अली अपनी पहली फिल्म ‘दे दे प्यार दे’ में हास्य के नाम पर जमकर बेशर्मी और फूहड़ता परोसी है. पूरी फिल्म नारी को अपमानित करने का ही काम करती है.यूं भी इस फिल्म के निर्माता व कहानीकार लव रंजन पर उनके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म ‘‘प्यार का पंचनामा’’से ही नारी विरोधी होने का आरोप लगता रहा है. इस फिल्म में एक कदम आगे बढ़ते हुए एक पुरूष के लिए दो नारियों को ही बेशर्मी के साथ एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया है. फिल्म ‘‘दे दे प्यार दे’’में एक नारी को उसके रूप, उसके कद, उसकी उम्र, उसके रिश्ते के विकल्प आदि को लेकर शर्मिंदा करने का ही काम करती है.

कहानीः

फिल्म की कहानी लंदन से शुरू होती है. जहां पचास साल के आशीश(अजय देवगन)एक महल नुमा घर में अकेले रह रहे हैं. उन्होने अपनी पत्नी मंजू राव( तब्बू ),बेटे विनोद(भाविन भानुशाली) व बेटी इशिता ( इनायत),माता व पिता वीरेंद्र मेहरा (आलोकनाथ)को भारत में ही छोड़ दिया है. मंजू व अशीश के बीच तलाक नहीं हुआ है,मगर 18 साल से आशीश भारत नहीं गया.

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एक दिन वह अपने दोस्त की शादी से पहले उसकी बैचलर पार्टी अपने घर में रखता है, जिसमें आशीश से बीस साल छोटी आएशा खुराना(रकुल प्रीत सिंह )पहुंच जाती है. रात में शराब पीकर आएशा, आशीश के घर में ही रह जाती है. जब सुबह आएशा सोकर उठती है, तो दर्शकों को पता चल जाता है कि रात में क्या हुआ होगा.उसके बाद इनकी मुलाकातें बढ़ती हैं. अशीश, आएशा को बताता है कि उसके बड़े बच्चे हैं और उसने अपनी पत्नी को छोड़ दिया है, वह सभी भारत में रहते हैं. पर दोनों बिना शादी किए एक साथ पति पत्नी की तरह रहने लगते हैं.

एक दिन आशीश अपने पूरे परिवार से मिलाने के लिए आएशा को लेकर भारत के हिल स्टेशन के रिसोर्टनुमा अपने घर पर पहुंचता है. जहां सबसे पहले मुलाकात आशीश की बेटी इशिता से होती है, वह गुस्से में आशीश को वापस जाने के लिए कहती है, क्योंकि इशिता की शादी की बात करने के लिए श्रेया का प्रेमी अपने पिता अतुल के साथ वहॉं आ रहा है. इशिता ने कह रखा है कि बचपन में ही उसके पिता मर गए थे. हालात को देखते हुए तय होता है कि अतुल से आशीश की मुलाकात इशिता के मामा के रूप में कराई जाएगी. हालात के मद्दे नजर आशीश सत्य बताने की बजाए आएशा को अपनी सेक्रेटरी बता देता है. इशिता शादी से पहले लिव इन रिलेशनशिप में रहना चाहती है, जिसके लिए अतुल तैयार नही होते. खैर मामला तय होता है कि सगाई के बाद दोनो लिव इन रिलेशनशिप में रहेंगे.

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कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. आशीश अपनी बेटी इशिता को आशीश व आएशा के रिश्ते का सच पता चल जाता है.वह गुस्से में सबके सामने कह देती है कि आशीश उसके पिता हैं. अतुल शादी तोड़कर अपने बेटे के साथ वापस चले जाते हैं. आशीश व आएशा के बीच भी मनमुटाव हो जाता है और आएशा वापस लंदन चली जाती है. पर बेटी को दुःखी देखकर आशीश उसकी शादी कराने के लिए अतुल के पास जाता है. पर सगाई वाले दिन मंजू लंदन से आएशा को लेकर पहुंच जाती है.

इंटरवल तक तो फिल्म महज अजय देवगन द्वारा आएशा के शरीर की मालिश करने, उसके लिए खरीददारी करने, उसके साथ घूमने या रात में बिस्तर पर रहने तक ही सीमित है. पर द्विअर्थी संवाद व बेशर्मी वाला रोमास जरुर नजर आता है. इंटरवल के बाद ‘लिव इन रिलेशनशिप’, तलाक, पति पत्नी के रिश्ते, पारिवारिक रिश्तों, बेटी व पिता के रिश्ते, पति पत्नी के बीच उम्र के अंतर सहित कई मुद्दों को चूं चूं का मुरब्बा की तरह पेशकर फिल्मकार ने फिल्म को बर्बाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. पूरी फिल्म अस्वाभाविक व अविश्वसनीय घटनाक्रमों से भरी हुई है. आएशा कैसे अनजान इंसान आशीश के घर पहुंचती है, पता ही नही चलता.

हम इक्कीसवी सदी में पहुंच गए हैं. पुरूष व नारी समानता के साथ साथ नारी स्वतंत्रता की बातें हो रही है. नारी उत्थान व नारी सशक्ती करण के नाम पर काफी कुछ हो रहा है. नारी खुद को स्वतंत्र मानते हुए हर क्षेत्र में बढ़-चढ़कर काम कर रही हैं. इसके बावजूद फिल्मकार लव रंजन और अकीव अली की सोच यही कहती है कि नारी चाहे जितनी स्वतंत्र व सशक्त हो जाए, पर उसका अस्तित्व उसके साथ एक पुरूष के होने या न होने पर निर्भर है.

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फिल्मकार की मानसिकता को फिल्म के एक लंबे दृश्य से समझा जा सका है. इस दृश्य में अजय देवगन, तब्बू और रकूल प्रीत एक साथ एक पुरानी कार में बैठकर जा रहे हैं. इस दृश्य में रकूल प्रीत व तब्बू दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कार को नारी शरीर का प्रतीक मानकर पुरानी गाड़ी व नई गाड़ी की तुलना करते हुए जिस तरह के शब्दों व भाषा का प्रयोग करती हैं, वह कम से कम वर्तमान यानी कि 2019 में जायज नहीं ठहराया जा सकता. फिल्म में अभिनेता जिम्मी शेरगिल का किरदार जबरन ठूंसा हुआ है.जबकि इसका कहानी से कोई संबंध नहीं है.

पटकथा बहुत ही ज्यादा कन्फूयज करने के साथ ही विरोधाभासी संवादो व सोच से भरी हुईहै.लेखक व निर्देशक दोनों ही फिल्म में आधुनिक व सदियों पुराने नैतिक मूल्यों के बीच संतुलन बनाने में बुरी तरह से विफल रहे हैं. फिल्म का क्लायमेक्स भी अजीब सा है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है, अजय देगवन किसी भी दृश्य में प्रभावित नहीं करते. पूरी फिल्म रकूल प्रीत सिंह महज अत्याधुनिक व अतिग्लैमरस नजर आती हैं. तब्बू के अभिनय की तारीफ करनी पड़ेगी. वही इस फिल्म की हीरो हैं. कहानी का हिस्सा न होते हुए भी छोटी सी भूमिका में जिम्मी शेरगिल अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं.

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