हमारी आंखों से देखो: गायत्री ने कैसे सब का दिल जीत लिया

Serial Story: हमारी आंखों से देखो (भाग-3)

‘‘अगर यही सच हो जो आप ने  अभीअभी समझाया तो यही सच है. शैली पत्थर है और मैं उस पर अपना प्यार लुटाना नहीं चाहता. मैं उस के लिए नहीं बना, भैया.

मैं यह नहीं कहता वह मुझे पसंद नहीं. वह बहुत सुंदर है, स्मार्ट है. सब है उस में लेकिन मुझ जैसा इंसान उस के लिए उचित नहीं होगा. मैं वैसा नहीं हूं जैसा उसे चाहिए. उस के लिए 2 और 2 सदा 4 ही होंगे और मैं 2 और 2 कभीकभी 5 और कभीकभी 22 भी करना चाहूंगा. शैली में कोई कमी नहीं है. मैं ही उस के योग्य नहीं हूं. मैं शैली से शादी नहीं कर सकता,’’ अनुज ने अपने मन की बात कह दी.

‘‘पिछले कितने समय से आप साथसाथ हैं?’’ हैरान रह गई थी गायत्री.

‘‘साथ नहीं हैं हम, सिर्फ एक जगह काम करते हैं. अब मुझे समझ में आ रहा है, वह लड़की शैली नहीं हो सकती जिस पर मैं आंख मूंद कर भरोसा कर सकूं. इंसान को जीवन में कोई तो पड़ाव चाहिए. शैली तो मात्र एक अंतहीन यात्रा होगी और मैं भागतेभागते अभी से थकने लगा हूं. मैं रुक कर सांस लेना चाहता हूं, भैया,’’ अपना मन खोल दिया था अनुज ने गायत्री के सामने. पूरापूरा न सही, आधाअधूरा ही सही.

‘‘शैली जानती है यह सब?’’ गायत्री ने पूछा.

‘‘वह पत्थर है. मैं ने अभी बताया न. उसे मेरी पीड़ा पर दर्द नहीं होता, उसे मेरी खुशी पर चैन नहीं आता. हमारा रिश्ता सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि मेरी तनख्वाह 50 हजार है. उस के 50 हजार और मेरे 50 हजार मिल कर लाख बनेंगे और उस के बाद वह लाख कहांकहां खर्च होगा वह इतना ही सोचती है. मैं 2 पल चैन से काटना चाहूंगा, यह सुन उसे बुरा लगता है. मेरे लिए घर का सुखचैन लाखोंकरोड़ों से भी कीमती है और उस के लिए यह कोरी भावुकता. जैसे तुम सोचती हो हमारे बारे में, मेरेपिता के बारे में, भैयाभाभी के बारे में, वह तो कभी नहीं सोचेगी. वह इतनी अपनी कभी लगी ही नहीं जितनी तुम.’’

ये भी पढ़ें- स्वीकृति: डिंपल की सोई ममता कैसे जाग उठी

मानो सब कुछ थम सा गया. कमरे में, चलती हवा भी और हमारी सांस भी.

‘‘मैं… मैं कहां चली आई आप औैर शैली के बीच,’’ हड़बड़ा गई थी गायत्री. घबरा कर मेरी ओर देखा. जैसे कुछ अनहोनी होने जा रही हो. क्या कहता मैं? जो हो रहा था वह हो ही जाए, अचेतन में मैं भी तो यही चाहता था न. वास्तव में घबरा गई गायत्री, साधारण सी बातचीत किस मोड़ पर चली आई थी, उस का घबरा जाना स्वाभाविक ही था न. सुरक्षा के लिए उस ने मेरी ओर देखा और जब कुछ भी समझ नहीं आया तो चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चली गई. नाश्ता वहीं मेज पर पड़ा था. अनुज शायद उस के पीछे जाना चाहता था, मैं ने ही रोक लिया.

‘‘जाने दो. सोचने दो उसे. इतना बड़ा झटका दे दिया अब जरा संभलने का समय

तो दो.’’

‘‘वह भूखी ही चली गई. आप ही चले जाइए,’’ अनुज ने कहा.

‘‘यह तो होना ही था. कुछ समय अकेला रहने दो. देखते हैं क्या होगा.’’

‘‘भैया, उस ने कुछ भी नहीं खाया. उसे भूख लगी होगी. आप चलिए मेरे साथ,’’ अनुज के चेहरे पर विचित्र भाव थे. क्या यही उस का गायत्री के प्रति ममत्व और अनुराग है? सब की भूख की चिंता रहती है गायत्री को तो क्या अनुज उसे भूखा ही छोड़ देगा? भला कैसे छोड़ देगा? उस की प्लेट उठा मैं गायत्री के कमरे में चला आया जहां वह सन्न सी बैठी थी. अपराधी सा मेरे पीछे खड़ा था अनुज.

‘‘गायत्री, बेटा, नाश्ता क्यों छोड़ आईं? गायत्री, मेरा बच्चा, नाराज है मुझ से?’’ अपने परिवार की अति कीमती धरोहर मेरे मित्र ने मेरे घर इसी विश्वास पर छोड़ी थी कि उस का मानसम्मान हमारी जान से भी ज्यादा प्रिय होगा हमें.

मैं ने कंधे पर हाथ रखा तो मेरी बांहों में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगी. थपथपाता रहा मैं तनिक संभली तो स्वयं से अलग कर उस के आंसू पोंछे, ‘‘अगर तुम्हें हमारा घर, हमारे घर के लोग पसंद नहीं तो तुम न कर दो. अनुज तुम्हें पसंद नहीं तो किस की मजाल, जो कोई तुम्हारी तरफ नजर भी उठा पाए.’’

चुप रही गायत्री, सुबकती रही. कुछ भी नहीं कहा. अनुज ने नाश्ता सामने रख दिया, ‘‘भूखी मत रहो, गायत्री.’’

अनुज की भीगी आंखों में अपार स्नेह और निष्ठा पा कर मुझे ऐसा लगा, अनुज की भावनाओं के सामने संसार का हर भाव फीका है, झूठा है.

‘‘गायत्री, गायत्री तुम बहुत अच्छी हो और मेरा मन कहता है मुझे तुम से बेहतर इंसान नहीं मिल सकता,’’ अनुज ने कहा.

‘‘शैली के साथ धोखा करेंगे आप?’’

‘‘हम दोनों में कोई नाता, कोई भी संबंध नहीं है, गायत्री. न स्नेह का, न अपनेपन का. पिछले 6 महीनों से मैं उस में वही सब तो ढूंढ़ रहा हूं जो नहीं मिला. गलती मुझ से होती है और उसी गलती के लिए तुम माफी मांगती हो. मेरी आंखों में पानी आ जाए तो तुम अपने बनाए नाश्ते में ही मिर्च तीखी होने को वजह मान कर दुखी होती हो. तुम्हें देखता हूं तो लगता है तुम्हारे बाद सारी इच्छाएं शांत हो गईं और कुछ चाहिए ही नहीं.

ये भी पढ़ें- मां का बटुआ: कुछ बातें बाद में ही समझ आती हैं

‘‘शैली वह नहीं जिसे देख कर जरा सा भी सुख, जरा सा भी चैन आए. धोखा तो तब होता अगर वह भी मुझे पसंद करती. लगाव होता उसे मुझ से. हमारा नाता कभी भावनाओं का रहा ही नहीं. कोई भी एहसास नहीं हमारे मन में एकदूसरे के लिए. वह आज के युग की ‘प्रोफैशनल’ लड़की है, जिस के पास वह सब है ही नहीं, जो मुझे चाहिए. तुम मेरी गलती पर भी माफी मांगती हो और वह अपनी बड़ी से बड़ी भूल भी मेरे माथे मढ़ मेरे ही कंधे पर पैर रख कर अगली सीढ़ी चढ़ जाएगी. मैं आंखें मूंद कर उस पर भरोसा नहीं कर सकता.’’

‘‘शैली तो बहुत सुंदर है?’’ मासूम सा प्रश्न था गायत्री का.

‘‘सच है, वह बहुत सुंदर है लेकिन तुम्हारी सुंदरता के सामने कहीं नहीं टिकती. तुम्हारी सुंदरता तो हमारे घर के चप्पेचप्पे में नजर आती है. पिताजी से पूछना. वह भी बता देंगे, तुम कितनी सुंदर हो. भैया से पूछा. भैया, आप बताइए न गायत्री को, वह कितनी सुंदर है,’’ अनुज बोलता गया.

बच्चा समझता था मैं अनुज को. सोचता था पूरी उम्र उसे मेरी उंगली पकड़ कर चलना पड़ेगा. डर रहा था, मैं कैसे गायत्री के प्रति पनप गए उस के प्रेम को कोई दिशा, कोई सहारा दे पाऊंगा. नहीं जानता था इतनी सरलता से वह मन का हाल गायत्री के आगे खोल देगा.

‘‘हमारी आंखों से अपनेआप को देखो, गायत्री,’’ पुन: भीग उठी थी अनुज की आंखें. हाथ बढ़ा कर उस ने गायत्री का गाल थपथपा दिया. रो पड़ी थी गायत्री भी. पता नहीं क्या भाव था, मैं दोनों को गले लगा कर रो पड़ा. ऐसा लगा मन मांगी मुराद पूरी हो गई. ये आंसू भी कितने विचित्र हैं न, जबतब आंखें भिगोने को तैयार रहते हैं. स्नेह से गायत्री का माथा चूम लिया मैं ने. सच ही कहा अनुज ने, ‘‘हमारी आंखों से देखो, गायत्री, अपनेआप को हमारी आंखों से देखो.’’

ये भी पढें- Serial Story: हमारे यहां ऐसा नहीं होता

Serial Story: हमारी आंखों से देखो (भाग-1)

अनुज आज फिर से यही गजल सुन रहा है:

‘सिर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,

इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’

मैं जानता हूं, अभी वह आएगा और मुझ से इस का अर्थ पूछेगा.

‘‘भैया, इस का मतलब क्या हुआ, जरा समझाओ न. पहली पंक्ति का अर्थ तो समझ में आता है. वह यह कि अगर हम विश्वास से पत्थर के आगे भी सिर झुका देंगे तो वह देवता हो जाएगा. यह दूसरी पंक्ति का मतलब क्या हुआ? ‘इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’ कौन बेवफा हो जाएगा? क्या देवता बेवफा हो जाएगा? भैया दूसरी पंक्ति का पहली से कुछ मेल नहीं बनता न.’’

अनुज को क्या बताऊंगा मैं, सदा की तरह आज भी मैं यही कहूंगा, ‘‘देखो बेटा, कवि और शायर जब कुछ लिखने बैठते हैं, उस पल वे किस मनोस्थिति में होते हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर करता है. उस पल उस की नजर में देवता कौन था, पत्थर कौन था और बेवफा कौन है, वही बता सकता है.’’

वास्तव में मैं भी समझ नहीं पा रहा हूं इस का अर्थ क्या हुआ. सच पूछा जाए तो जीवन में हम कभी किसी पर सही या गलत का ठप्पा नहीं लगा सकते. आपराधिक प्रवृत्ति के इंसान को एक तरफ कर दें तो कई बार वह भी अपने अपराधी होने का एक जायज कारण बता कर हमें निरुत्तर कर देता है. जब एक अपराधी स्वयं को सही होने का एहसास दे जाता है तो सामान्य इंसान और उस पर कवि और शायर क्या समझा जाए, क्या जानें. समाज को कानून ने एक नियम में बांध रखा है वरना हर मनुष्य क्या से क्या हो जाए, इस का अंत कहां है.

ये भी पढ़ें- का से कहूं- पति विलास का कौनसा सच जान गई थी मोहना?

‘‘बड़े भैया, नाश्ता?’’ गायत्री ने मुझे पुकारा.

कपड़े बदल कर मैं बाहर आ गया. गायत्री बिजली की गति से सारे काम कर स्वयं तैयार होने जा चुकी थी. मेज पर नाश्ता सजा था. आज मटर वाला नमकीन दलिया सामने था, जो मुझे पहलेपहल तो पसंद नहीं आया था, लेकिन अब अच्छा लगने लगा था.

‘‘अनुज… आ जाओ मुन्ना. वरना देर हो जाएगी. जल्दी करो और यह गजल भी बंद कर दो.’’

यह गजल भी चुभने लगी है मेरे दिमाग में. मैं भी अकसर सोचने लगता हूं, आखिर क्या मतलब हुआ इस का.

मेरी पत्नी बैंक में नौकरी करती है. हमारे बच्चे बाहर होस्टल में पढ़ते हैं. मेरे एक सहकर्मी का तबादला हो गया था और उन की बहन को 6 महीने के लिए हमारे पास रहना पड़ रहा है. यह गायत्री वही है, जो है तो हमारी मेहमान लेकिन पिछले 6 महीनों से हमारी अन्नपूर्णा बन कर हमारी सभी आदतें बिगाड़ चुकी है.

पत्नी के जाने के बाद अकसर मुझे अपने वृद्ध पिता और छोटे भाई का नाश्ता बनाना पड़ता था, जो पिछले 6 महीनों से मैं नहीं बना रहा. अनुज की सगाई लगभग हो चुकी है. उसी कंपनी में है लड़की, जिस में अनुज है. अनुज की शाम अकसर उसी के साथ बीतती है.

पिताजी का नाश्ता भी उन तक पिछले 6 महीने से यह गायत्री ही पहुंचा रही है. जैसेजैसे गायत्री का समय समाप्त हो रहा है मुझे अपनी अस्तव्यस्त गृहस्थी का आभास और भी शिद्दत से होने लगा है. गायत्री के बाद क्या होगा, मैं अकसर सोचता रहता हूं.

‘‘गायत्री, चलो बच्चे, जल्दी करो. तुम्हारी बस छूट जाएगी,’’ मैं गाड़ी में रोज गायत्री को बस स्टैंड पर छोड़ देता हूं जहां से वह पी.जी.ई. की बस पकड़ लेती है.

गायत्री होम साइंस में एम.ए. कर रही है. आजकल मरीजों की खुराक पर अध्ययन चल रहा है. शाम को भी वह हम से पहले आ जाती है और रात को खाना मेज पर सजा मिलता है.

‘‘गायत्री के बाद क्या होगा?’’

‘‘वही जो पहले होता था. पहले भी तो हम जी ही रहे थे न?’’ अधेड़ होती पत्नी भी बेबसी दर्शाने लगी थी.

‘‘जीना तो पड़ेगा. अनुज की पत्नी भी तो नौकरी वाली है. समझ लो चाय का कप सदा खुद ही बना कर पीना पड़ेगा.’’

पता नहीं क्यों अब तकलीफ सी होने लगी है. सहसा थकावट होने लगी है. अब रुक कर सांस लेने को जी चाहने लगा है. भागभाग कर थक सा गया हूं मैं भी. मेरा कालेज 4 बजे छूट जाता है, जिस के बाद रात तक घर की देखभाल होती है और मैं होता हूं. बिस्तर पर पड़े पिता होते हैं और पिछले 6 महीने से यह मासूम सी गायत्री होती है, जिस ने एक और ही सुख से मेरा साक्षात्कार करा दिया है.

पहली बार जब इसे देखा था, तब बड़ी सामान्य सी लगी थी गायत्री. सीधीसादी, सांवली सी, सलवारकमीज, दुपट्टे में लिपटी घरेलू लड़की, जिस पर उचटती सी नजर डाल कर अनुज चला गया था. चलो, अच्छा ही है, घर में जवान भाई है. दोस्त की अमानत से दूर ही रहे तो अच्छा है. अनुज शरीफ, सच्चरित्र है, फिर भी दूरी रहे तो बुरा भी क्या है. फिर पता चला अपनी एक सहकर्मी से उस की दोस्ती रिश्ते में बदलने वाली है तो मैं और भी निश्चिंत हो गया.

रात सब खाने पर इकट्ठा हुए तो मेज पर सजा स्वादिष्ठ खाना परोसते समय गायत्री ने बताया, ‘‘भाभी, 15 तारीख को मैं चली जाऊंगी.’’

ये भी पढ़ें- हुस्न और इश्क: शिखा से आखिर सब क्यों जलते थे

‘‘क्या?’’ हाथ ही रुक गए मेरे. क्या सचमुच?

अनुज से मेरी नजरें मिलीं. बचपन से जानता हूं भाई को. उसे क्या चाहिए, क्या

नहीं, उस की नजरें ही देख कर भांप जाता हूं. अगर मेरा उम्र भर का तजरबा गलत नहीं तो वह भी गलत नहीं, जो अभीअभी उस की नजरों में मैं ने पढ़ा. ज्यादा बात नहीं करते थे दोनों और इस एक पल में जो पढ़ा वह ऐसा था मानो अनुज का कुछ बहुत प्रिय छिन जाने वाला हो. प्लेट का छोर पकड़तेपकड़ते छूट

गया था उस के हाथों से और सारा खाना प्लेट से निकल कर मेज पर बिखर गया था.

‘‘अरे, क्या हो गया? गरम तो नहीं लगा? क्षमा कीजिएगा, प्लेट छूट गई मेरे हाथ से,’’ क्षमा मांग रही थी गायत्री, जिस पर अनुज चुप था. प्लेट किस के हाथ से छूटी, मैं ने यह भी देखा और क्षमा कौन मांग रहा है यह भी.

‘‘क्या बात है, अनुज?’’

‘‘कुछ भी नहीं भैया, बस, ऐसे ही.’’

‘‘आज शैली नहीं मिली क्या? परेशान हो, क्या बात है?’’

मैं ने पुन: पूछा. शैली उस की मंगेतर का नाम है. उस के नाम पर भी न वह शरमाया और न ही हंसा.

गायत्री ने नई प्लेट सजा दी.

‘‘धन्यवाद,’’ चुपचाप प्लेट थाम ली अनुज ने.

गायत्री वैसी ही थी जैसी सदा थी.

पिताजी का खाना परोस कर उन के कमरे में चली गई. मेरी पत्नी ने भी बड़ी गौर से सब देखा. अनुज यों खा रहा था जैसे कोई जबरदस्ती खिला रहा हो. ऐसा क्या है, जो हमारी समझ में आ भी रहा है और नहीं भी. जरा सा मैं ने भी कुरेदा.

‘‘मैं सोच रहा था शैली के साथ ‘रिंग सैरेमनी’ हो जाती तो अच्छा ही है. अभी गायत्री भी है. उसे भी अच्छा लगेगा. घर की सदस्या ही है न यह भी. तुम शैली से बात करना. उस का भाई कब तक आ रहा है अमेरिका से? सगाई को लटकाना अच्छा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी…’’ बस, इतना ही कह कर अनुज ने बात समाप्त कर दी.

आगे पढ़ें- गायत्री रसोई में ही थी….

ये भी पढ़ें- वो कौन है: रात में किस महिला से मिलने होटल में जाता था अमन

Serial Story: हमारी आंखों से देखो (भाग-2)

खाने के बाद अपनी प्लेट रसोई में छोड़ने चला गया अनुज और मेरी नजरें उस का पीछा करती रहीं.

गायत्री रसोई में ही थी. वैसे तो अपना काम स्वयं करने की हमारे घर में सब को आदत है लेकिन जब से गायत्री आई थी अनुज रसोई में कम ही जाता था.

‘‘लाइए, फल मैं काट लेता हूं. दीजिए… कृपया,’’ पहली बार हमारे बीच बैठ कर अनुज ने फल काटे, बड़े आदरभाव से गायत्री को, हम सब को खिलाता रहा.

‘‘अब तो आप जा रही हैं न. भाभी, आप कुछ दिन छुट्टी ले लीजिए. कुछ दिन के लिए बच्चों के पास चलते हैं. गायत्रीजी से भी बच्चे मिल लेंगे,’’ अनुज बोला.

‘‘लेकिन मेरा तो अभी बहुत काम है.

मैं छुट्टी कैसे लूंगी. आप लोग चले जाइए,

मैं पिताजी के पास रहूंगी,’’ गायत्री ने असमर्थता जताई.

‘‘शैली को भी साथ ले लें? उस से भी पूछ लो,’’ मैं पुन: पूछने लगा.

ये भी पढ़ें- रिश्ता: शारदा के मन में रीता के लिए क्यों खत्म हो गया प्यार

शैली के नाम पर चुप रहा अनुज. क्या हो गया है इसे? कहीं शैली से कोई अनबन तो नहीं हो गई? गायत्री अस्पताल का कोई किस्सा मुझे सुनाने लगी और अनुज एकटक गायत्री को ही निहारता रहा. सीधीसादी साधारण सी दिखने वाली यह बच्ची हमारे घर में रह कर कब हम सब के जीवन का हिस्सा बन गई,

हमें पता ही नहीं चला था. किसी बात पर मेरी पत्नी और गायत्री जोरजोर से हंस पड़ीं और अनुज मंदमंद मुसकराने लगा. लंबे बालों की चोटी को पीछे धकेलते गायत्री के हाथ क्षण भर को चेहरे पर आए और पसीने की चंद बूंदों को पोंछ कर अन्य कामों में व्यस्त हो गए. सुबह की तैयारी में वह हर रात मेरी पत्नी का हाथ बंटाती थी.

कुछ फर्क है मेरे भाई की नजरों में. नजरनजर का अंतर मैं समझ पाऊं, इतनी तो नजर रखनी पड़ेगी न मुझे.

‘‘यह गायत्री चली जाएगी तब क्या होगा, यही सोचसोच कर मेरा तो दम घुटने लगा है.’’

‘‘भैया, क्या गायत्री सदा यहीं नहीं रह सकती?’’ सुबह नाश्ता करते हुए अनुज ने मेरी भी सांस वहीं रोक दी. क्या कह रहा है मेरा समझदार, पढ़ालिखा भाई? मैं ने गौर से देखा, नम आंखों में वह सब कुछ था, जो बिना कुछ कहे ही सब कह जाए. धीरेधीरे चम्मच चला रहा था अनुज प्लेट में.

‘‘आप को याद है न, भैया जब मां थी तब हमारा घर कैसा हराभरा लगता था. जब थक कर घर आते थे तब मां कैसे नाश्ता कराती थी. प्यार से खाना खिलाती थी. मां के बाद सब उजड़ सा गया. भाभी नौकरी करती थीं, जिस वजह से घर बस, होटल बन कर रह गया,’’ अनुज बोलता रहा.

मैं अनुज को अपलक निहारता रहा.

‘‘क्या पिछले 6 महीनों से ऐसा नहीं लगता जैसे मां लौट आई है. घर घर बन गया है, जहां कोई थकेहारे इंसान को पानी का घूंट तो पिलाता है. भैया, यह गायत्री तो हमारे जीवन का हिस्सा बन गई है. क्या आप इसे रोक नहीं सकते?’’

‘‘किस अधिकार से रोकें, मुन्ना? वह पराई बच्ची है,’’ मैं ने कहा.

‘‘पराई है तो पराई लगती क्यों नहीं? ऐसा क्यों लगता है जैसे जन्मजन्म से हमारे साथ है? भैया, ऐसा क्यों लगता है? अगर गायत्री चली गई तो मेरे प्राण पखेरू भी साथ ही…’’

मानो छनाक से कुछ टूट गया मेरे सामने. अनुज क्या कहना चाह रहा है, मैं समझ तो रहा हूं लेकिन उस का अर्थ क्या है? शैली के साथ सगाई लगभग तय है, मात्र अमेरिका से उस के भाई का इंतजार है. हर शाम अनुज शैली के साथ होता है और प्राण पखेरू गायत्री में होने का भी दावा.

‘‘तुम क्या कह रहे हो, जानते हो न?’’ मैं ने कहा. सफेद कपड़ों में लिपटी गायत्री मेज तक चली आई थी. उस पल तनिक रुकना पड़ा मुझे. तब नई नजर से मैं ने भी गायत्री को देखा.

‘‘भैया, उपमा कैसा बना है?’’ हमारी अवस्था से अनभिज्ञ गायत्री बड़ी सरलता से पूछने लगी. पूछना उस का रोज का क्रम था.

‘‘मैं चली जाऊंगी तो बासी डबलरोटी और अटरमशटरम मत खाते रहना. इतनी सारी विधियां मैं ने आप को खिला भी दी हैं और सिखा भी दी हैं. भैया, आप की उम्र 40+ है न, इसलिए अब अपना खयाल रखना शुरू कर दीजिए,’’ प्लेट में अपना नाश्ता लेतेलेते उस ने रुक कर देखा.

‘‘अनुजजी, क्या हुआ? हरीमिर्च ज्यादा तेज लगी क्या? आप की आंखों में तो पानी है,’’ झट से रसोई में गई गायत्री और गाजर का मुरब्बा ले आई, ‘‘जरा इसे खा कर देखिए. भैया, आप भी खाइए. कल और परसों मैं यही तो बना रही थी. आप पूछ रहे थे न,

इतनी गाजरों का क्या करोगी,’’ गायत्री बोली.

गायत्री मस्त भाव से नाश्ता कर रही थी. वास्तव में लग रहा था, यह सीधीसादी प्यारी सी बच्ची संसार की सब से सुंदर लड़की है, जिस में मेरे भाई के प्राण अटक से गए हैं.

ये भी पढ़ें- मृगमरीचिका एक अंतहीन लालसा: मीनू ने कैसे चुकाई कीमत

आजकल की तेजतर्रार पीढ़ी की ही है यह गायत्री. फिर भी हमें इतना चैन, इतना संतोष देती रही है कि क्या कहूं. अनुज को गायत्री में क्या नजर आया, समझा चुका है मुझे. मां के समय जो सुख था वही उसे अब भी नजर आया. एक इंसान चाहे आसमान को छू ले, जमीन का मोह, नकारा तो नहीं जा सकता न? थकाहारा इंसान जब घर आता है तो एक ठंडी छाया की इच्छा हर पुरुष को रहती है, वह चाहे मां की हो या पत्नी की, बहन की हो या बेटी की.

‘‘भैया, आज आप की क्लास नहीं है क्या?’’ गायत्री ने पूछा.

पता नहीं कहां खो गया था मैं. कंधे पर बैग लटकाए गायत्री सामने ही खड़ी थी. उठ गया मैं. उचटती नजर अनुज पर डाली, जो अब भी धीरेधीरे नाश्ता कर रहा था.

‘‘अनुजजी, आप को नाश्ता पसंद नहीं आया. आई एम सौरी. हरीमिर्च ज्यादा तीखी निकल गई न?’’ गायत्री ने पूछा.

उत्तर में मुसकरा पड़ा अनुज. इनकार में सिर हिला कर किसी तरह बात को टाल दिया. रास्ते में धीरे से पूछा गायत्री ने, ‘‘भैया, अनुजजी कुछ उदास से हैं न कल शाम से? आप शैली से मिल कर बात करना. कोई झगड़ा हो गया होगा.’’

हां में गरदन हिला दी मैं ने. स्नेह से गायत्री का सिर थपक दिया. क्या बताऊं उसे? कैसे कहूं कल शाम से वही नहीं, हमारा सारा परिवार ही उदास है.

शाम को घर आने पर सभी चुप थे. बस, गायत्री ही किसी मरीज के बारे में बातें कर रही थी. वहां अस्पताल में जो भी नया लगता उसे वह हम से बांटती थी. अनुज अपने कमरे में था और वही गजल एक बार फिर गूंजने लगी.

‘सिर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,

इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’

‘‘इस का मतलब क्या हुआ, गायत्री?’’ मैं उदासी से बाहर आना चाहता था, इसलिए बात को टाल देने के लिए पूछ लिया.

‘‘किस का मतलब, भैया? इस गजल का…’’ कुछ पल रुक गई गायत्री. फिर धाराप्रवाह कहने लगी, ‘‘इस का मतलब यह है कि अगर सामने वाला इंसान पत्थर है तो उस पर अपना प्यार मत लुटाओ. जो इंसान तुम्हारे प्यार के लायक ही नहीं उसे अगर जरूरत से ज्यादा प्यार करोगे तो वह तुम्हारे प्यार का नाजायज लाभ उठाएगा. पत्थर अपनेआप को देवता समझने लगेगा, अगर तुम उस के आगे सिर झुकाओगे.’’

हक्काबक्का रह गया मैं गायत्री के शब्दों पर. यह बच्ची इतना सब जानती है. तभी देखा, अनुज भी पास खड़ा था, होंठों पर एक हलकी सी मुसकान ले कर.

‘‘यही मतलब होगा, जो मुझे समझ में आया,’’ हम दोनों को हैरान देख वह तनिक झेंप सी गई. बारीबारी से हमारा चेहरा देखा. कंधे उचका कर रसोई में चली गई. लौटी तो गरमगरम चाय और नाश्ता हाथ में था.

‘‘अनुजजी, आप फिर से उदास हैं. शैली से कोई…’’ गायत्री ने पूछा.

‘‘गायत्री, क्या आप यह सत्य स्वीकार करती हैं जिसे अभीअभी समझा रही थीं?’’ अनुज ने प्रश्न किया.

‘‘कौन सा सत्य? अच्छा यह जो गजल में समझ आया मुझे?’’

ये भी पढ़ें- सोने का हिरण: क्या रजनी को आगाह कर पाई मोनिका

‘‘हां, जो आप को समझ में आया और जो हमें भी समझाया आप ने.’’

‘‘कवि और शायर क्या कहना चाहते हैं, यह तो वही जानते हैं न, क्योंकि लिखते समय उन की मनोस्थिति क्या थी, हम नहीं जानते. वास्तव में गजल का मतलब वही है, जो आप की समझ में आए.’’

आगे पढ़ें- मानो सब कुछ थम सा गया….

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें