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अनुज आज फिर से यही गजल सुन रहा है:

‘सिर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,

इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’

मैं जानता हूं, अभी वह आएगा और मुझ से इस का अर्थ पूछेगा.

‘‘भैया, इस का मतलब क्या हुआ, जरा समझाओ न. पहली पंक्ति का अर्थ तो समझ में आता है. वह यह कि अगर हम विश्वास से पत्थर के आगे भी सिर झुका देंगे तो वह देवता हो जाएगा. यह दूसरी पंक्ति का मतलब क्या हुआ? ‘इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’ कौन बेवफा हो जाएगा? क्या देवता बेवफा हो जाएगा? भैया दूसरी पंक्ति का पहली से कुछ मेल नहीं बनता न.’’

अनुज को क्या बताऊंगा मैं, सदा की तरह आज भी मैं यही कहूंगा, ‘‘देखो बेटा, कवि और शायर जब कुछ लिखने बैठते हैं, उस पल वे किस मनोस्थिति में होते हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर करता है. उस पल उस की नजर में देवता कौन था, पत्थर कौन था और बेवफा कौन है, वही बता सकता है.’’

वास्तव में मैं भी समझ नहीं पा रहा हूं इस का अर्थ क्या हुआ. सच पूछा जाए तो जीवन में हम कभी किसी पर सही या गलत का ठप्पा नहीं लगा सकते. आपराधिक प्रवृत्ति के इंसान को एक तरफ कर दें तो कई बार वह भी अपने अपराधी होने का एक जायज कारण बता कर हमें निरुत्तर कर देता है. जब एक अपराधी स्वयं को सही होने का एहसास दे जाता है तो सामान्य इंसान और उस पर कवि और शायर क्या समझा जाए, क्या जानें. समाज को कानून ने एक नियम में बांध रखा है वरना हर मनुष्य क्या से क्या हो जाए, इस का अंत कहां है.

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‘‘बड़े भैया, नाश्ता?’’ गायत्री ने मुझे पुकारा.

कपड़े बदल कर मैं बाहर आ गया. गायत्री बिजली की गति से सारे काम कर स्वयं तैयार होने जा चुकी थी. मेज पर नाश्ता सजा था. आज मटर वाला नमकीन दलिया सामने था, जो मुझे पहलेपहल तो पसंद नहीं आया था, लेकिन अब अच्छा लगने लगा था.

‘‘अनुज… आ जाओ मुन्ना. वरना देर हो जाएगी. जल्दी करो और यह गजल भी बंद कर दो.’’

यह गजल भी चुभने लगी है मेरे दिमाग में. मैं भी अकसर सोचने लगता हूं, आखिर क्या मतलब हुआ इस का.

मेरी पत्नी बैंक में नौकरी करती है. हमारे बच्चे बाहर होस्टल में पढ़ते हैं. मेरे एक सहकर्मी का तबादला हो गया था और उन की बहन को 6 महीने के लिए हमारे पास रहना पड़ रहा है. यह गायत्री वही है, जो है तो हमारी मेहमान लेकिन पिछले 6 महीनों से हमारी अन्नपूर्णा बन कर हमारी सभी आदतें बिगाड़ चुकी है.

पत्नी के जाने के बाद अकसर मुझे अपने वृद्ध पिता और छोटे भाई का नाश्ता बनाना पड़ता था, जो पिछले 6 महीनों से मैं नहीं बना रहा. अनुज की सगाई लगभग हो चुकी है. उसी कंपनी में है लड़की, जिस में अनुज है. अनुज की शाम अकसर उसी के साथ बीतती है.

पिताजी का नाश्ता भी उन तक पिछले 6 महीने से यह गायत्री ही पहुंचा रही है. जैसेजैसे गायत्री का समय समाप्त हो रहा है मुझे अपनी अस्तव्यस्त गृहस्थी का आभास और भी शिद्दत से होने लगा है. गायत्री के बाद क्या होगा, मैं अकसर सोचता रहता हूं.

‘‘गायत्री, चलो बच्चे, जल्दी करो. तुम्हारी बस छूट जाएगी,’’ मैं गाड़ी में रोज गायत्री को बस स्टैंड पर छोड़ देता हूं जहां से वह पी.जी.ई. की बस पकड़ लेती है.

गायत्री होम साइंस में एम.ए. कर रही है. आजकल मरीजों की खुराक पर अध्ययन चल रहा है. शाम को भी वह हम से पहले आ जाती है और रात को खाना मेज पर सजा मिलता है.

‘‘गायत्री के बाद क्या होगा?’’

‘‘वही जो पहले होता था. पहले भी तो हम जी ही रहे थे न?’’ अधेड़ होती पत्नी भी बेबसी दर्शाने लगी थी.

‘‘जीना तो पड़ेगा. अनुज की पत्नी भी तो नौकरी वाली है. समझ लो चाय का कप सदा खुद ही बना कर पीना पड़ेगा.’’

पता नहीं क्यों अब तकलीफ सी होने लगी है. सहसा थकावट होने लगी है. अब रुक कर सांस लेने को जी चाहने लगा है. भागभाग कर थक सा गया हूं मैं भी. मेरा कालेज 4 बजे छूट जाता है, जिस के बाद रात तक घर की देखभाल होती है और मैं होता हूं. बिस्तर पर पड़े पिता होते हैं और पिछले 6 महीने से यह मासूम सी गायत्री होती है, जिस ने एक और ही सुख से मेरा साक्षात्कार करा दिया है.

पहली बार जब इसे देखा था, तब बड़ी सामान्य सी लगी थी गायत्री. सीधीसादी, सांवली सी, सलवारकमीज, दुपट्टे में लिपटी घरेलू लड़की, जिस पर उचटती सी नजर डाल कर अनुज चला गया था. चलो, अच्छा ही है, घर में जवान भाई है. दोस्त की अमानत से दूर ही रहे तो अच्छा है. अनुज शरीफ, सच्चरित्र है, फिर भी दूरी रहे तो बुरा भी क्या है. फिर पता चला अपनी एक सहकर्मी से उस की दोस्ती रिश्ते में बदलने वाली है तो मैं और भी निश्चिंत हो गया.

रात सब खाने पर इकट्ठा हुए तो मेज पर सजा स्वादिष्ठ खाना परोसते समय गायत्री ने बताया, ‘‘भाभी, 15 तारीख को मैं चली जाऊंगी.’’

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‘‘क्या?’’ हाथ ही रुक गए मेरे. क्या सचमुच?

अनुज से मेरी नजरें मिलीं. बचपन से जानता हूं भाई को. उसे क्या चाहिए, क्या

नहीं, उस की नजरें ही देख कर भांप जाता हूं. अगर मेरा उम्र भर का तजरबा गलत नहीं तो वह भी गलत नहीं, जो अभीअभी उस की नजरों में मैं ने पढ़ा. ज्यादा बात नहीं करते थे दोनों और इस एक पल में जो पढ़ा वह ऐसा था मानो अनुज का कुछ बहुत प्रिय छिन जाने वाला हो. प्लेट का छोर पकड़तेपकड़ते छूट

गया था उस के हाथों से और सारा खाना प्लेट से निकल कर मेज पर बिखर गया था.

‘‘अरे, क्या हो गया? गरम तो नहीं लगा? क्षमा कीजिएगा, प्लेट छूट गई मेरे हाथ से,’’ क्षमा मांग रही थी गायत्री, जिस पर अनुज चुप था. प्लेट किस के हाथ से छूटी, मैं ने यह भी देखा और क्षमा कौन मांग रहा है यह भी.

‘‘क्या बात है, अनुज?’’

‘‘कुछ भी नहीं भैया, बस, ऐसे ही.’’

‘‘आज शैली नहीं मिली क्या? परेशान हो, क्या बात है?’’

मैं ने पुन: पूछा. शैली उस की मंगेतर का नाम है. उस के नाम पर भी न वह शरमाया और न ही हंसा.

गायत्री ने नई प्लेट सजा दी.

‘‘धन्यवाद,’’ चुपचाप प्लेट थाम ली अनुज ने.

गायत्री वैसी ही थी जैसी सदा थी.

पिताजी का खाना परोस कर उन के कमरे में चली गई. मेरी पत्नी ने भी बड़ी गौर से सब देखा. अनुज यों खा रहा था जैसे कोई जबरदस्ती खिला रहा हो. ऐसा क्या है, जो हमारी समझ में आ भी रहा है और नहीं भी. जरा सा मैं ने भी कुरेदा.

‘‘मैं सोच रहा था शैली के साथ ‘रिंग सैरेमनी’ हो जाती तो अच्छा ही है. अभी गायत्री भी है. उसे भी अच्छा लगेगा. घर की सदस्या ही है न यह भी. तुम शैली से बात करना. उस का भाई कब तक आ रहा है अमेरिका से? सगाई को लटकाना अच्छा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी…’’ बस, इतना ही कह कर अनुज ने बात समाप्त कर दी.

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