कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

खाने के बाद अपनी प्लेट रसोई में छोड़ने चला गया अनुज और मेरी नजरें उस का पीछा करती रहीं.

गायत्री रसोई में ही थी. वैसे तो अपना काम स्वयं करने की हमारे घर में सब को आदत है लेकिन जब से गायत्री आई थी अनुज रसोई में कम ही जाता था.

‘‘लाइए, फल मैं काट लेता हूं. दीजिए… कृपया,’’ पहली बार हमारे बीच बैठ कर अनुज ने फल काटे, बड़े आदरभाव से गायत्री को, हम सब को खिलाता रहा.

‘‘अब तो आप जा रही हैं न. भाभी, आप कुछ दिन छुट्टी ले लीजिए. कुछ दिन के लिए बच्चों के पास चलते हैं. गायत्रीजी से भी बच्चे मिल लेंगे,’’ अनुज बोला.

‘‘लेकिन मेरा तो अभी बहुत काम है.

मैं छुट्टी कैसे लूंगी. आप लोग चले जाइए,

मैं पिताजी के पास रहूंगी,’’ गायत्री ने असमर्थता जताई.

‘‘शैली को भी साथ ले लें? उस से भी पूछ लो,’’ मैं पुन: पूछने लगा.

ये भी पढ़ें- रिश्ता: शारदा के मन में रीता के लिए क्यों खत्म हो गया प्यार

शैली के नाम पर चुप रहा अनुज. क्या हो गया है इसे? कहीं शैली से कोई अनबन तो नहीं हो गई? गायत्री अस्पताल का कोई किस्सा मुझे सुनाने लगी और अनुज एकटक गायत्री को ही निहारता रहा. सीधीसादी साधारण सी दिखने वाली यह बच्ची हमारे घर में रह कर कब हम सब के जीवन का हिस्सा बन गई,

हमें पता ही नहीं चला था. किसी बात पर मेरी पत्नी और गायत्री जोरजोर से हंस पड़ीं और अनुज मंदमंद मुसकराने लगा. लंबे बालों की चोटी को पीछे धकेलते गायत्री के हाथ क्षण भर को चेहरे पर आए और पसीने की चंद बूंदों को पोंछ कर अन्य कामों में व्यस्त हो गए. सुबह की तैयारी में वह हर रात मेरी पत्नी का हाथ बंटाती थी.

कुछ फर्क है मेरे भाई की नजरों में. नजरनजर का अंतर मैं समझ पाऊं, इतनी तो नजर रखनी पड़ेगी न मुझे.

‘‘यह गायत्री चली जाएगी तब क्या होगा, यही सोचसोच कर मेरा तो दम घुटने लगा है.’’

‘‘भैया, क्या गायत्री सदा यहीं नहीं रह सकती?’’ सुबह नाश्ता करते हुए अनुज ने मेरी भी सांस वहीं रोक दी. क्या कह रहा है मेरा समझदार, पढ़ालिखा भाई? मैं ने गौर से देखा, नम आंखों में वह सब कुछ था, जो बिना कुछ कहे ही सब कह जाए. धीरेधीरे चम्मच चला रहा था अनुज प्लेट में.

‘‘आप को याद है न, भैया जब मां थी तब हमारा घर कैसा हराभरा लगता था. जब थक कर घर आते थे तब मां कैसे नाश्ता कराती थी. प्यार से खाना खिलाती थी. मां के बाद सब उजड़ सा गया. भाभी नौकरी करती थीं, जिस वजह से घर बस, होटल बन कर रह गया,’’ अनुज बोलता रहा.

मैं अनुज को अपलक निहारता रहा.

‘‘क्या पिछले 6 महीनों से ऐसा नहीं लगता जैसे मां लौट आई है. घर घर बन गया है, जहां कोई थकेहारे इंसान को पानी का घूंट तो पिलाता है. भैया, यह गायत्री तो हमारे जीवन का हिस्सा बन गई है. क्या आप इसे रोक नहीं सकते?’’

‘‘किस अधिकार से रोकें, मुन्ना? वह पराई बच्ची है,’’ मैं ने कहा.

‘‘पराई है तो पराई लगती क्यों नहीं? ऐसा क्यों लगता है जैसे जन्मजन्म से हमारे साथ है? भैया, ऐसा क्यों लगता है? अगर गायत्री चली गई तो मेरे प्राण पखेरू भी साथ ही…’’

मानो छनाक से कुछ टूट गया मेरे सामने. अनुज क्या कहना चाह रहा है, मैं समझ तो रहा हूं लेकिन उस का अर्थ क्या है? शैली के साथ सगाई लगभग तय है, मात्र अमेरिका से उस के भाई का इंतजार है. हर शाम अनुज शैली के साथ होता है और प्राण पखेरू गायत्री में होने का भी दावा.

‘‘तुम क्या कह रहे हो, जानते हो न?’’ मैं ने कहा. सफेद कपड़ों में लिपटी गायत्री मेज तक चली आई थी. उस पल तनिक रुकना पड़ा मुझे. तब नई नजर से मैं ने भी गायत्री को देखा.

‘‘भैया, उपमा कैसा बना है?’’ हमारी अवस्था से अनभिज्ञ गायत्री बड़ी सरलता से पूछने लगी. पूछना उस का रोज का क्रम था.

‘‘मैं चली जाऊंगी तो बासी डबलरोटी और अटरमशटरम मत खाते रहना. इतनी सारी विधियां मैं ने आप को खिला भी दी हैं और सिखा भी दी हैं. भैया, आप की उम्र 40+ है न, इसलिए अब अपना खयाल रखना शुरू कर दीजिए,’’ प्लेट में अपना नाश्ता लेतेलेते उस ने रुक कर देखा.

‘‘अनुजजी, क्या हुआ? हरीमिर्च ज्यादा तेज लगी क्या? आप की आंखों में तो पानी है,’’ झट से रसोई में गई गायत्री और गाजर का मुरब्बा ले आई, ‘‘जरा इसे खा कर देखिए. भैया, आप भी खाइए. कल और परसों मैं यही तो बना रही थी. आप पूछ रहे थे न,

इतनी गाजरों का क्या करोगी,’’ गायत्री बोली.

गायत्री मस्त भाव से नाश्ता कर रही थी. वास्तव में लग रहा था, यह सीधीसादी प्यारी सी बच्ची संसार की सब से सुंदर लड़की है, जिस में मेरे भाई के प्राण अटक से गए हैं.

ये भी पढ़ें- मृगमरीचिका एक अंतहीन लालसा: मीनू ने कैसे चुकाई कीमत

आजकल की तेजतर्रार पीढ़ी की ही है यह गायत्री. फिर भी हमें इतना चैन, इतना संतोष देती रही है कि क्या कहूं. अनुज को गायत्री में क्या नजर आया, समझा चुका है मुझे. मां के समय जो सुख था वही उसे अब भी नजर आया. एक इंसान चाहे आसमान को छू ले, जमीन का मोह, नकारा तो नहीं जा सकता न? थकाहारा इंसान जब घर आता है तो एक ठंडी छाया की इच्छा हर पुरुष को रहती है, वह चाहे मां की हो या पत्नी की, बहन की हो या बेटी की.

‘‘भैया, आज आप की क्लास नहीं है क्या?’’ गायत्री ने पूछा.

पता नहीं कहां खो गया था मैं. कंधे पर बैग लटकाए गायत्री सामने ही खड़ी थी. उठ गया मैं. उचटती नजर अनुज पर डाली, जो अब भी धीरेधीरे नाश्ता कर रहा था.

‘‘अनुजजी, आप को नाश्ता पसंद नहीं आया. आई एम सौरी. हरीमिर्च ज्यादा तीखी निकल गई न?’’ गायत्री ने पूछा.

उत्तर में मुसकरा पड़ा अनुज. इनकार में सिर हिला कर किसी तरह बात को टाल दिया. रास्ते में धीरे से पूछा गायत्री ने, ‘‘भैया, अनुजजी कुछ उदास से हैं न कल शाम से? आप शैली से मिल कर बात करना. कोई झगड़ा हो गया होगा.’’

हां में गरदन हिला दी मैं ने. स्नेह से गायत्री का सिर थपक दिया. क्या बताऊं उसे? कैसे कहूं कल शाम से वही नहीं, हमारा सारा परिवार ही उदास है.

शाम को घर आने पर सभी चुप थे. बस, गायत्री ही किसी मरीज के बारे में बातें कर रही थी. वहां अस्पताल में जो भी नया लगता उसे वह हम से बांटती थी. अनुज अपने कमरे में था और वही गजल एक बार फिर गूंजने लगी.

‘सिर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,

इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’

‘‘इस का मतलब क्या हुआ, गायत्री?’’ मैं उदासी से बाहर आना चाहता था, इसलिए बात को टाल देने के लिए पूछ लिया.

‘‘किस का मतलब, भैया? इस गजल का…’’ कुछ पल रुक गई गायत्री. फिर धाराप्रवाह कहने लगी, ‘‘इस का मतलब यह है कि अगर सामने वाला इंसान पत्थर है तो उस पर अपना प्यार मत लुटाओ. जो इंसान तुम्हारे प्यार के लायक ही नहीं उसे अगर जरूरत से ज्यादा प्यार करोगे तो वह तुम्हारे प्यार का नाजायज लाभ उठाएगा. पत्थर अपनेआप को देवता समझने लगेगा, अगर तुम उस के आगे सिर झुकाओगे.’’

हक्काबक्का रह गया मैं गायत्री के शब्दों पर. यह बच्ची इतना सब जानती है. तभी देखा, अनुज भी पास खड़ा था, होंठों पर एक हलकी सी मुसकान ले कर.

‘‘यही मतलब होगा, जो मुझे समझ में आया,’’ हम दोनों को हैरान देख वह तनिक झेंप सी गई. बारीबारी से हमारा चेहरा देखा. कंधे उचका कर रसोई में चली गई. लौटी तो गरमगरम चाय और नाश्ता हाथ में था.

‘‘अनुजजी, आप फिर से उदास हैं. शैली से कोई…’’ गायत्री ने पूछा.

‘‘गायत्री, क्या आप यह सत्य स्वीकार करती हैं जिसे अभीअभी समझा रही थीं?’’ अनुज ने प्रश्न किया.

‘‘कौन सा सत्य? अच्छा यह जो गजल में समझ आया मुझे?’’

ये भी पढ़ें- सोने का हिरण: क्या रजनी को आगाह कर पाई मोनिका

‘‘हां, जो आप को समझ में आया और जो हमें भी समझाया आप ने.’’

‘‘कवि और शायर क्या कहना चाहते हैं, यह तो वही जानते हैं न, क्योंकि लिखते समय उन की मनोस्थिति क्या थी, हम नहीं जानते. वास्तव में गजल का मतलब वही है, जो आप की समझ में आए.’’

आगे पढ़ें- मानो सब कुछ थम सा गया….

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...