थप्पड़ है स्त्री के वजूद का अपमान

मेरठ के कंकरखेड़ा क्षेत्र में इस 26 दिसम्बर को बीटेक की एक छात्रा को सहपाठी लड़के द्वारा थप्पड़ मारने का मामला सामने आया. दरअसल छात्रा ने साथ में पढ़ने वाले इस छात्र की दोस्ती का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. जिस के बाद उस छात्र ने कक्षा में अन्य छात्रों के सामने ही बीटेक की सीनियर छात्रा को कई थप्पड़ जड़े. वह इतने पर ही शांत नहीं हुआ बल्कि गुस्से में कुर्सी उठाकर लड़की को मारने की कोशिश की. लड़की ने भाग कर अपनी जान बचाई. बाद में लड़की ने यह घटना घर पर परिजनों को बताई और थाने में रिपोर्ट लिखवाने पहुंची. छात्रा ने आरोप लगाया कि आरोपी कई दिन से उस पर दोस्ती करने का दबाव बना रहा था. दोस्ती स्वीकार न किए जाने पर वह हिंसा पर उतर आया.

इस बार के बिग बॉस में  ईशा मालवीय और अभिषेक कुमार ऐसे कंटेस्टेंट हैं जो अपने पास्ट रिलेशन को ले कर चर्चा में रहते हैं. अभिषेक ईशा के एक्स बॉयफ्रेंड हैं. एक साल पहले उन का रिश्ता ख़त्म हो चुका है. उन का रिश्ता टूटने की वजह भी कहीं न कहीं अभिषेक का थप्पड़ और उस की तरफ अग्रेसिव व्यवहार ही था. ईशा ने अंकिता और खानजादी से बात करते वक्त बताया था कि उस ने एक बार अभिषेक को अपने दोस्तों से मिलवाया. ईशा के ज्यादा दोस्त होने की वजह से अभिषेक को गुस्सा आ गया था और उस ने ईशा को सबके सामने थप्पड़ मार दिया था. थप्पड़ की वजह से ईशा के आंख के नीचे  निशान पड़ गए थे. इसी के बाद उन का रिश्ता टूटता चला गया.

कुछ समय पहले डायरेक्टर अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘थप्पड़’ कुछ ऐसे ही विषय को ले कर आई थी. इस में बात शुरू होती है सिर्फ एक थप्पड़ से लेकिन ये पूरी फिल्म महज थप्पड़ के बारे में नहीं थी बल्कि उस के इर्द-गिर्द तैयार हुए पूरे ताने बाने और हर उस सवाल को कुरेद के निकालने की कोशिश करती दिखी जिसने इस ‘सिर्फ एक थप्पड़’ को पुरुषों के हक का दर्जा दे दिया.

इस में अमृता की भूमिका में तापसी पन्नू अपने पति विक्रम के साथ एक परफेक्ट शादीशुदा जिंदगी बिताती दिखती है. अमृता सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक बस अपने पति और परिवार के इर्द गिर्द घिरी जिंदगी में बिजी है और इस ‘परफेक्ट’ सी जिंदगी में बहुत खुश है. लेकिन इसी बीच एक दिन उन के घर हुई पार्टी में विक्रम अमृता को एक जोरदार थप्पड़ मार देता है और सब कुछ बदल जाता है. किसी ने सोचा न था कि एक थप्पड़ रिश्ते की नींव हिला देगी. लेकिन अमृता ‘सिर्फ एक थप्पड़’ के लिए तैयार नहीं थी. एक औरत की जंग शुरू होती है एक ऐसे पति के साथ जिसका कहना है कि मियां बीवी में ये सब तो हो जाता है. उस के आसपास के लोगों के लिए ये बात पचा पाना बहुत मुश्किल था कि सिर्फ एक थप्पड़ की वजह से कोई स्त्री अपने ‘सुखी संसार’ को छोड़ने का फैसला कैसे ले सकती है जबकि पुरुष को तो समाज ने स्त्री को मारने पीटने का हक़ दिया ही हुआ है.

सवाल स्त्री के मान का

सच यही है कि एक थप्पड़ स्त्री के मान सम्मान और अस्तित्व पर सवाल खड़ा करता है. एक थप्पड़ यह दर्शाता है कि आज भी पुरुषों ने औरत को अपनी प्रॉपर्टी समझ रखी है. जबरन उस पर अपना हक़ जमाना चाहते हैं. अगर स्त्री ने हक़ नहीं दिया तो थप्पड़ की गूँज में उसे अहसास दिलाना चाहते हैं कि उस की औकात क्या है. समाज में उसका दर्जा क्या है.

 महिलाओं के खिलाफ हिंसा

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक महिलाओं से हिंसा पूरी दुनिया का भयंकर मर्ज़ है.  दुनिया की 70 फीसदी महिलाओं ने अपने करीबी साथियों के हाथों हिंसक बर्ताव झेला है. फिर चाहे वो शारीरिक हो या यौन हिंसा. दुनियाभर में हर रोज़ 137 महिलाएं अपने क़रीबी साथी या परिवार के सदस्य के हाथों मारी जाती हैं.

हमारे समाज में अक्सर लड़कियां और लड़के दोनों ही पुराने रिवाजों से बंधे हुए होते हैं. लड़कियों को ये सिखाया जाता है कि घर के काम करना, पति की सेवा करना और उस की हर बात मानना उन का कर्तव्य है. उन्हें सिखाया जाता है कि पुरुष महिलाओं का मौखिक , शारीरिक या यौन शोषण करने के लिए स्वतंत्र हैं. इस का उन्हें कोई नतीजा भी नहीं भुगतना होगा.

बचपन से लड़कियों का 40 फीसदी समय ऐसे कामों में जाता है जिसके पैसे भी नहीं मिलते. इस का ये नतीजा होता है कि उन्हें खेलने, आराम करने या पढ़ने का समय लड़कों के मुक़ाबले कम ही मिल पाता है.

 प्यू रिसर्च सेंटर की स्टडी

हाल ही में अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर ने एक दिलचस्प स्टडी की थी. इस में भारत में महिलाओं के बारे में पुरुषों की सोच का अध्ययन किया गया. स्टडी में पाया गया कि ज्यादातर भारतीय इस बात से काफी हद तक सहमत है कि पत्नी को हमेशा पति का कहना मानना चाहिए.

ज्यादातर भारतीय इस बात से पूरी तरह या काफी हद तक सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा ही अपने पति का कहना मानना चाहिए. एक अमेरिकी थिंक टैंक के एक हालिया अध्ययन में यह कहा गया है. प्यू रिसर्च सेंटर की यह नई रिपोर्ट हाल ही में जारी की गई. रिपोर्ट 29,999 भारतीय वयस्कों के बीच 2019 के अंत से लेकर 2020 की शुरुआत तक किए गए अध्ययन पर आधारित है.

इस के अनुसार करीब 80 प्रतिशत इस विचार से सहमत हैं कि जब कुछ ही नौकरियां है तब पुरुषों को महिलाओं की तुलना में नौकरी करने का अधिक अधिकार है. रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 10 में नौ भारतीय (87 प्रतिशत) पूरी तरह या काफी हद तक इस बात से सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा ही अपने पति का कहना मानना चाहिए. यही नहीं  इस रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर भारतीय महिलाओं ने इस विचार से सहमति जताई कि हर परिस्थिति में पत्नी को पति का कहना मानना चाहिए.

 महिलाओं पर केंद्रित होती हैं ज्यादातर गालियां

नारी शक्ति की बात तो होती है लेकिन अभी भी महिलाएं दोयम दर्जे पर हैं. पढ़ी लिखी महिलाएं भी प्रताड़ित हो रही हैं. अगर आपको किसी को अपमानित करना है तो आप उसके घर की महिला को गाली दे देते हैं. उसका चरम अपमान हो जाता है. और वो मर्दों के अहंकार को भी संतुष्ठ करता है. किसी पुरुष से बदला लेना होगा तो बोलेंगे स्त्री को उठा लेंगे, महिला अपमानित करने का माध्यम बन जाती है. गांव में तो बहुत होता था पहले अमूमन ये देखा गया था कि ये गालियां समाज के निचले पायदान पर रहने वाले लोग ही देते थे लेकिन अब आम पढ़े लिखे लोग भी देने लगे हैं.

जब भी कोई बहस झगड़े में तब्दील होने लगती है तो गालियों की बौछार भी शुरू हो जाती है. ये बहस या झगड़ा दो मर्दों के बीच भी हो रहा हो तब भी गालियां महिलाओं पर आधारित होती हैं. कुल मिला कर गालियों के केन्द्र में महिलाएं होती हैं. दरअसल समय के साथ स्त्री पुरुषों की संपत्ति होती चली गई और उस संपत्ति को गाली दी जाने लगी. ये गाली दे कर मर्द अपने अहंकार की तुष्टि करते हैं और दूसरे को नीचा दिखाते हैं. महिलाएं परिवार की इज़्ज़त के प्रतीक के तौर पर देखी जाती हैं. इज़्ज़त को बचाना है तो उसे देहड़ी के अंदर रखिए. महिलाएं समाज में कमज़ोर मानी जाती हैं. आप किसी को नीचा दिखाना चाहते हैं, तंग करना चाहते हैं तो उन के घर की महिलाओं- मां, बहन या बेटी को गालियां देना शुरू कर दीजिए.

गाली सिर्फ़ गाली देना ही नहीं है वो मानसिकता का प्रतीक भी है जो विभत्स गाली देते हैं और उसे व्यावहारिकता में लाते हैं इसलिए निर्भया जैसे मामले दिखाई देते हैं.

 धर्म है इस सोच का जिम्मेदार

जितने भी धर्म हैं, हिंदू, इस्लाम, कैथोलिक ईसाई, जैन, बौद्ध, सूफी, यहूदी, सिक्ख आदि सभी के संस्थापक पुरुष हैं स्त्री नहीं. न ही स्त्री किसी धर्म की संचालिका है. न वह पूजा-पाठ, कथा, हवन करानेवाली पंडित है, न मौलवी है, न पादरी है. वह केवल पुरुष की आज्ञा का पालन करने के लिए इस संसार में जन्मी है. धर्म का मूल आधार ही पुरुष सत्ता है. स्त्री का दोयम दर्जा सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, हर धर्मग्रंथ में वह चाहे कुरान हो, बाइबल हो या कोई और धर्मग्रंथ हो स्त्रियों को हमेशा पुरुष से कमतर माना गया. सिमोन द बोउवार ने कहा था- ‘जिस धर्म का अन्वेषण पुरुष ने किया वह आधिपत्य की उसकी इच्छा का ही अनुचिंतन है.’

धर्म की आड़ में कहानियों के माध्यम से स्त्री जीवन को दासी और अनुगामिनी के रोल मॉडल दिखा कर उसी सांचे में ढालने का प्रयास किया जाता है. सीता, सावित्री, माधवी, शकुंतला, दमयंती, द्रौपदी, राधा, उर्मिला जैसी कई नायिकाओं के ‘रोल मॉडल’ को सामने रखकर सदियों से स्त्री का अनावश्यक शोषण चलता आ रहा है. पुरुष सत्ता स्वीकृत भूमिका से अलग किसी स्थिति में स्त्री को देखना पसंद नहीं करती. इसलिए धार्मिक आचार संहिता बनाकर वह स्त्री की स्वतंत्रता और यौन शुचिता पर नियंत्रण रखती है.

दुनिया का कोई देश या जाति हो उसका धर्म से संबंध रहा है. सभी धर्मों में स्त्री की छवि एक ऐसी कैदी की तरह रही है जिसे पुरुष के इशारे पर जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है. वह पितृसत्तात्मक समाज की बेड़ियों से जकड़ी होती है.

धर्मों में स्त्री सामान्यतः उपयोग और उपभोग की वस्तु है. उसकी ऐसी छवि गढ़ी गई है जिससे स्त्री ने भी स्वयं को एक वस्तु मान लिया है. धर्म ने स्त्री को हमेशा पुरुष की दासी के रूप में चित्रित किया. रामचरितमानस में सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है और महाभारत में द्रौपदी को चीरहरण जैसे सामाजिक कलंक से गुजरना पड़ता है.

स्त्री अधिकार की बात हमारे धर्मग्रंथों में कभी की ही नहीं गई. वह पुरुष के शाप से शिला बन जाती है, पुरुष के ही स्पर्श से फिर से स्त्री बन जाती है. पुरुष गर्भवती पत्नी को वनवास दे देता है, पुरुष अपनी इच्छा से उसे वस्तु की तरह दांव पर लगा देता है. सभी धर्मग्रंथों में उसे नरक की खान, ताड़न की अधिकारी और क्या-क्या नहीं कहा गया.

हिंदू धर्म की कोई भी किताब आप उठा कर देख लें उस में स्त्रियों के लिए कर्तव्य की लंबी सूची होगी लेकिन अधिकारों की नहीं. गीता प्रेस की एक किताब ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा’ है. इसे पढ़ कर देखा जा सकता है कि स्त्रियों को हम किस काल में धकेले रखना चाहते हैं.

महिला को चोट पहुंचाने के पुरुष अनेक बहाने दे सकता है जैसे कि वह अपना आपा खो बैठा या फिर वह महिला इसी लायक है .परंतु वास्तविकता यह है कि वह हिंसा का रास्ता केवल इसलिए अपनाता है क्योंकि वह केवल इसी के माध्यम से वह सब प्राप्त कर सकता है जिन्हें वह एक मर्द होने के कारण अपना हक समझता है.

आज की बहुत सी महिलाएं शिक्षित होकर भी पुरानी धार्मिक रूढ़ियों की अनुगामिनी बनी रहती हैं. देश की स्त्रियां अंधविश्वासों की तरफ फिर लौट रही हैं, महंतों-बाबाओं की तरफ दौड़ रही हैं और प्रवचनों में भीड़ की शोभा बढ़ा रही हैं. उन्हें देखकर लगता है कि वे शायद इक्कीसवीं शताब्दी में नहीं बल्कि बारहवीं या तेरहवीं शताब्दी में हैं.

इन स्थितियों से महिलाएं तभी उबर सकती हैं जब वे पुरुष सत्ता और धर्मगुरुओं के षड्यंत्र को जान सकें और अपनी शक्ति की पहचान कर सकें. अपने मान की रक्षा के लिए खुद खड़ी हों न कि दूसरों की राह देखें.

 

धार्मिक ढकोसले परेशान करते हैं, सांत्वना या साहस नहीं देते

जब मेरे पापा की मृत्यु हुई, पडोसी, रिश्तेदार, पंडितों का ज्ञान रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, खूब पूजा पाठ, दान दक्षिणा की बात की जा रही थी, पापा टीचर थे, कई दिनों की बीमारी को झेल रहे थे, एम्स में उनका इलाज चलता रहा था, वहीँ लम्बे समय से एडमिट थे, मुज़फ्फरनगर से दिल्ली आने जाने में मम्मी और हम तीन भाई बहन काफी चक्कर लगा रहे थे, अब उनके जाने के बाद मम्मी के सामने और भी जरुरी चीजें थीं पर जैसा कि हमारे समाज में होता है कि जो धर्म ग्रंथों में लिख दिया गया है, वही सच है, आम इंसान अपना आगे का जीवन कैसे जियेगा, इसकी चिंता धर्म के नियम बनाने वालों को कम रही है, खैर, मम्मी भी चूँकि टीचर थीं, तो उन्होंने अच्छी तरह से सोचा समझा और साफ़ कहा कि मैं किसी भी धार्मिक रीति में वो गाढ़ी  कमाई का पैसा खर्च नहीं करुँगी जो हमने अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए रखा है, वो बचा हुआ पैसा मैं इन ढकोसलों में नहीं उड़ाऊँगी,  सबका मुँह बन गया कि पढ़ लिख कर ऐसे ही दिमाग खराब हो जाता है, अब अपने मन की करेंगीं! अति आवश्यक कार्य पूरे कर लिए गए, पर मम्मी के साथ सबका व्यवहार ऐसा था कि पता नहीं मम्मी ने कितना  बुरा काम कर दिया है जो वे रिश्तेदारों, पड़ोसियों, पंडितों की बात मानने के लिए तैयार नहीं हुईं, काफी लम्बे समय तक वे लोगों की नाराजगियाँ झेलती रहीं. पद्रह दिन बाद जब उन्होंने स्कूल जाना शुरू किया तो पड़ोस की कुछ महिलाएं उनके स्कूल निकलने के समय गेट पर आ गयीं और कहने  लगीं, ”कम से कम एक महीना  तो शोक मना लेतीं, आप तो बड़ी जल्दी तैयार होकर चल दीं. ”

मम्मी ने कहा, ”मुझे अपनी छुट्टियां आगे के लिए भी बचा कर रखनी हैं, पता नहीं, कब जरुरत पड़ जाए.‘’

एक महिला ने कहा, ”आपने सफ़ेद कपडे भी नहीं पहने !आप तो कोई भी नियम नहीं मानती हैं.‘’

मम्मी ने कहा, ”बच्चों ने कहा है कि मम्मी अब तक जैसे आप रहतीं थीं, वैसे ही रहना,  नहीं तो हमारा दिल उदास होगा !”

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महिलाओं का कहना था, ”बच्चे कहाँ जानते हैं धर्म कर्म की बातें, आपको खुद ही सोचना चाहिए कि इतनी जल्दी आप तैयार होकर निकल लीं, हमें तो देख कर ही अजीब लग रहा है !”

मम्मी फिर चुपचाप स्कूल चली गयीं, हम वहीँ खड़े थे, बड़ों की बातों में बीच में नहीं बोले थे पर यह दृश्य याद रह गया. यह बात मन में बैठ गयी कि धर्म के नाम पर इंसान को काफी मजबूर किया जाता है, जब एक परिवार किसी अपने के जाने के बाद दुःख में डूबा हो, ये ढकोसले उसकी हिम्मत तोड़ रहे होते हैं. यह कहने वाले चुनिंदा लोग ही होते हैं कि धर्म की जंजीरों से खुद को आज़ाद कर जैसे जीना हो, जी लो.

एक परिचित शुक्ला दंपत्ति हैं, मुंबई में तीस सालों से रहते  है, उनके सारे रिश्तेदार दिल्ली में रहते हैं, दिल्ली में किसी के घर भी कोई दुःख सुख हो, इनका जाना जरुरी होता है, चाहे इस परिवार का कोई भी जरुरी काम यहाँ मुंबई में हो, चाहे यहाँ घर में कोई बीमार हो, दिल्ली में अगर किसी रिश्तेदार के यहाँ कुछ भी हो, इन्हे सब छोड़ कर जाना होता है, ये मीरा शुक्ला अपनी परेशानी शेयर करते हुए बताती हैं, ”किसी की भी डेथ हो, उसकी तेरहवीं तक रुकना पड़ता है, सारे धर्म कर्म के समय यहाँ से जाकर हाजिर रहना पड़ता है, कभी बच्चों के एक्जाम्स  भी चलते हैं तो बीच में भागना पड़ता है नहीं तो सब ऐसे ऐसे ताने देते हैं कि पूछिए मत, कहते हैं, मुंबई जाकर सब भुला दिया, धर्म के नाम पर बहाने नहीं करने हैं, जो धार्मिक रस्में हैं, सब अटेंड करनी हैं, बार बार भागना पड़ता है, हर साल कितने रुपए तो इन ढकोसलों में भाग भाग कर जाने में ही खर्च हो जाते हैं, ऊपर से यहाँ बच्चे अकेले कितने परेशान होते हैं, इससे किसी को मतलब ही नहीं !”

शामली निवासी प्रीती जब विवाह करके ससुराल आयी, धर्म के नाम पर पंडितों पर खूब लुटाने वाले सास ससुर को देख कर हैरान थी, वह बताती है, ”कहाँ तो सास ससुर इतने कंजूस कि पूछिए  मत, पर अगर घर आने वाले पंडित ने किसी भी नाम से एक लिस्ट पकड़ा दी, तो वह जरूर पूरी की  जाती. हमने जब नयी कार ली, पंडित जी को बुलाया गया और उसे हमसे मोटी दक्षिणा दिलवाई गयी, मना करने का सवाल ही नहीं पैदा होता था, वरना खराब बहू का तमगा मिलने में देर न लगती. ससुराल के पंडितों ने हमारा खूब खर्च करवाया है,  कभी कुछ बोल भी नहीं पाए. बस, अपनी मेहनत की कमाई धर्मांध, अंधविश्वासी सास ससुर के कहने पर लुटाते रहे.हम पति पत्नी दिल्ली में काम करते हैं, हमें कई बार कई मौकों पर पंडित के बताये हुए मुहूर्त से काम करना पड़ता है, जो काफी असुविधाजनक होता है पर कुछ नहीं कर सकते.‘’

ऐसा भी नहीं है कि छोटे शहरों के परिवारों में ही ऐसा होता है, बड़े बड़े शहरों के परिवारों में भी धार्मिक ढकोसलों में इतना पैसा, एनर्जी , समय खराब किया जाता है कि इंसान चाहे तो इसके बजाय कुछ और सार्थक कर ले. धर्म के नाम पर होने वाले काम इंसान को हौसला नहीं देते, बल्कि उसे मानसिक रूप से कमजोर करते हैं.

कई बार लोग धर्म के हर नियम को मानने से यह समझते हैं कि अब उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचेगा क्योकि वे तो धार्मिक प्रवृत्ति के हैं पर भला ऐसा कभी हुआ है कि अंधविश्वासी होना सुखी रहने की गारंटी हो सकता है ? एक और परिचिता हैं शबाना खान, इन्हे शक हुआ कि इनके पति का किसी से अफेयर है, झट से एक मौलवी  को अकेले में घर बुलाया, झाड़ फूंक कराई, सर्वज्ञानी मौलवी ने भी कह दिया कि किसी का साया है, इन्होने उसके कहने पर पता नहीं कितने पैसे उसे दे दिए कि वही कुछ पढ़ पढ़ कर उसके पति को सही रास्ते पर लाये,  यह कोई अनपढ़ महिला नहीं हैं, टीचर रही हैं, बच्चों को आज भी ट्यूशंस पढ़ाती हैं. अब कोई इनसे पूछे कि मौलवी की हर बात को सही मानने की पीछे क्या तर्क है, यही न कि वे धर्म, मजहब की बड़ी बड़ी बातें करते हैं, बस, और क्या! धर्म के नाम पर हम सब ऐसे क्यों हो जाते हैं कि कोई तर्क नहीं करते, सच से भागते हैं, कोई सवाल करता है तो उसे नास्तिक कहकर उसका अपमान कर देते हैं.

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हमारी सोसाइटी में दो फ्रेंड्स पार्क में एक साथ सैर करती हैं, एक महिला क्रिस्चियन है, नीलम, दूसरी दलित हैं,  सीमा,  जब इन्हे पता चला कि सीमा  के पति बहुत बीमार रहते हैं तो इन्होने उन्हें कहना शुरू किया, ”मैं आजकल आपके लिए चर्च में प्रेयर्स कर रही हूँ, सीमा  काफी प्रभावित हुई,  पति को जो थोड़ा आराम मिला था,  उसका कारण चर्च में की गयी प्रेयर्स का नतीजा लगा  तो धीरे धीरे नीलम  के कहने पर  पूरे परिवार ने ईसाई धर्म ही स्वीकार कर लिया,  आर्थिक रूप से भी मदद मिली तो सीमा का परिवार तो नीलम के साथ भक्ति में रंग गया,  हर संडे चर्च जाना नियम बन गया, इलाज पर ध्यान कम दिया जाने लगा जिसके कारण सीमा के पति की तबियत खूब बिगड़ी,  इतनी कि संभलने में घर का हिसाब ही बिगड़ गया, नीलम के पास भागी,  उसने कन्नी काट ली,  दोस्ती में दरार आयी सो अलग !  पति की गंभीर बीमारी को  भूल धर्म के बड़े बड़े उपदेश में डूब कर सीमा ने आर्थिक, मानसिक कष्ट इतना सहा कि खुद भी बीमार पड़ गयी,  डॉक्टर्स से अलग डांट पड़ी,  लोगों ने अलग ताने मारे, मजाक उड़ाया, कि न यहाँ के रहे, न वहां के!

बनारस की मोनिका अपना अनुभव कुछ यूँ बताती हैं, “मैं एक बार बहुत बीमार पड़ी, मैं बेड से उठ ही नहीं पा रही थी, तेज बुखार था, पति टूर पर थे,  पर ऐसी हालत में भी मुझे ही खाना बनाने के लिए आदेश देकर मेरी सासू माँ गुरुद्वारे चली गयीं क्यूंकि उन्हें वहां रोटी बनानी थी,  अपनी सेवा देनी थी जो उनका सालों से चलता आया एक नियम था,  मुझे इस बात में कोई भी आपत्ति नहीं थी पर मेरी इतनी खराब तबीयत में भी वह मेरा ध्यान न रख कर एक दिन भी अपना यह नियम नहीं छोड़ पायीं,  यह बात हमेशा मेरे दिल में चुभी. आँखों के सामने परिवार के ही किसी सदस्य  की हालत इतनी खराब हो,  उसमे भी उनका उस दिन गुरुद्वारे जाकर पुण्य कमाना थोड़ा खल गया.”

होना यह चाहिए कि इंसान के काम आना धर्म हो, इंसानियत सबसे अहम हो. ढकोसलों से दूर रहें, टी वी पर अंधविश्वास फैलाते प्रोग्राम देखना बंद करें,  पत्रिकाएं पढ़ें, किताबें पढ़ें, आज तक पढ़ने के शौक ने किसी का कोई नुकसान नहीं किया है,  पढ़ें,  दिमाग को इन ढकोसलों से आज़ाद करें, ये सिर्फ इंसान को बाँध कर रखते हैं, इनसे जीवन में कोई फ़ायदा नहीं होता.

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रूढ़ियों की रूकावट अब नहीं

मुंबई की ओर दौड़ती राजधानी ट्रेन में बैठीं आशा, रीता, शैल और सुनील बातचीत करतेकरते अंधविश्वास और रूढ़ियों पर चर्चा करने लगे.

‘‘दुख और शर्म की बात है कि शिक्षित और उच्चपदों पर आसीन लोग भी धर्म और रीतियों के नाम पर लकीर के फकीर बन उन्हें निभाते चले जाते हैं. विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते और कभी साहस करने की कोशिश की भी जाए तो लोग उन के खिलाफ खड़े हो जाते हैं,’’ आशा बोली. ‘‘ठीक कह रही हैं आप. उत्तर प्रदेश के शहरों में तो पुराने रीतिरिवाजों का बोलबाला है. जीतेजी तो परंपराएं मानी ही जाती हैं मृत्यु के बाद भी पंडितों को पूछना पड़ता है. जो पंडित कहता जाए वही करना पड़ता है. मेरे ससुरजी पूरे डेढ़ वर्ष से बिस्तर पर थे, हमारी आर्थिक स्थिति के साथसाथ मानसिक स्थिति भी संकट में थी. हम पूरे तनमन से उन की सेवा कर रहे थे. पर सबकुछ करने के बाद भी परिणाम उन का देहावसान ही रहा. जब इलाज करने की बात थी और पैसों की बात थी तो पंडित गायब थे, पर मौत के बाद आ धमके,’’ रीता ने समर्थन किया.

‘‘ससुरजी के अंतिम संस्कार आदि के बाद, शैयादान परंपरा के वक्त मोटेतगड़े पंडित को बाजार से कपड़े, गद्दा, रजाई, बैड, छतरी, कैश, खाद्यसामग्री देते वक्त मन कसैला हो उठा कि यह सामान क्यों दिया जा रहा है… पंडितजी तो सोने की लक्ष्मीनारायण की मूर्ति की मांग करने लगे. मेरे पति ने जब इस मांग पर असमर्थता जताई, तो पंडितजी का जवाब था कि उतना कैश दे दें. वे स्वयं खरीद लेंगे.

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‘‘इस बात पर मैं सामने आ गई और इस के लिए साफ इनकार कर दिया. तब पंडितजी ने ऐलान किया कि आत्मा को शांति नहीं मिलेगी अधूरी पूजा से.

‘‘हमारे पिताजी को आप के द्वारा दी गई शांति की जरूरत नहीं है. अब आप जाइए, जो होना था वह हो गया, बस. घर के लोग मेरे खिलाफ खड़े हो गए पर मैं अड़ी रही. हां, मेरे पति मेरे साथ थे,’’ रीता ने बताया.

‘‘रिश्तेदार, पड़ोसी उन्होंने क्या प्रतिक्रिया दी?’’ आशा ने पूछा.

‘‘उस वक्त तो चेहरों पर तनाव व व्यंग्यपूर्ण भंगिमा थी पर बाद में उन्होंने मेरा साथ दिया. उन्हें मालूम है कि यह धंधा है पर विरोध करने की हिम्मत नहीं. ये सब इन पंडितों का बिछाया जाल है. पैसा ऐंठने के लिए हथकंडे अपनाते रहते हैं.’’

सामने की बर्थ पर बैठे सुनील कुमार ने आगे बात बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैं स्वयं शहरी शिक्षित इंसान पंडितों के जाल में उलझा रहा. उन के बताए टोटके जैसे शनिवार को तेल का दान, पीपल के पेड़ के नीचे तेल का दिया जलाना, शुक्रवार को व्रत रखना, नंगे पांव 5 मंगलवार मंदिर जाना जैसे मूर्खतापूर्ण कार्य करता रहा. ये सब मैं अपनी बेटी के विवाह के लिए कर रहा था. बेटी की कुंडली यानी जन्मपत्री में उसे घोर मंगली बताया गया था. पूरे 3 साल तक धक्के खा कर समझ में आया कि हम मूर्ख बन रहे हैं. असल में हमारी बिरादरी में बिना पत्री मिलाए विवाह संभव ही नहीं हो रहा था. जहां अच्छा घरवर होता वहां कुंडली आड़े आ जाती. परेशान हो मैं ने ठान लिया कि अब पत्री मिलाए बिना विवाह होगा मेरी बेटी का.

‘‘उन्हीं दिनों मेरा कलीग जोकि मलयाली था मेरे घर आया. मैं ने उस से मन की बात की तो उस ने मेरी बेटी को अपने परिवार की सदस्या बनाने की इच्छा जाहिर कर दी. उस का बेटा कनाडा में था. बस झट मंगनी पट ब्याह वाली बात कर डाली हम ने. और हां, एक खास बात यह रही कि उस अवधि में देव सोए थे. हमारे रिश्तेदारों ने वह समय अशुभ बताया पर हम ने शान से विवाह कर दिया. आज बेटी कैरियर और परिवार दोनों क्षेत्रों में सफल है.

‘‘मैं तो यही कहूंगा कि आज के व्यस्त समय में अपनी सहूलत देख कर पुरानी रीतियों को त्याग, आगे कदम बढ़ाना ही सही सोच और बुद्धिमत्ता होगी.’’

‘‘ठीक कह रहे हैं आप. आजकल अखबार व टीवी चैनल इन बातों का प्रचार कर रहे हैं. इसलिए कदम उठाने में विरोध तो सहना ही पड़ता है पर मन का निश्चय और दृढ़ता मार्ग निकाल ही लेती है,’’ शैल अपना अनुभव बताते हुए बोलीं, ‘‘मेरी ससुराल उत्तर प्रदेश के गांव में पुरानी मान्यताओं से भरी हुई थी. मेरी सासूमां, माहवारी के दिनों में रसोईघर में प्रवेश निषेध कर देती थीं. मेरे मायके में यह पोंगापंथी बिलकुल नहीं थी. मैं भूखीप्यासी सासूमां या किसी अन्य सदस्य की राह देखती, अगली बार जब ससुराल गई, तो मैं ने इस कुरीति को नकार दिया. रसोईघर में जा कर खाना, पानी सब अपनेआप ले लिया.’’

‘‘फिर तो बहुत होहल्ला हुआ होगा? तुम ने कैसे संभाली वह स्थिति?’’ आशा ने पूछा.

‘‘हां बहुत होहल्ला हुआ. यहां तक कि पुरुषवर्ग को भी इस में शामिल कर लिया, पर मैं ने वैज्ञानिक तरीके से सब स्पष्ट कर डाला. हमारे शरीर की यह प्राकृतिक क्रिया है. माहवारी एक नारी की पूर्णता है.

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‘‘यही नहीं एक और भ्रामक परंपरा फैली थी उस परिवार में. उस का नाम था ‘सूतक’. कहीं भी चाहे विदेश में ही हो किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर पूरे 13 दिनों तक सूतक माना जाता था. कारण था कि वह अपने रक्त से संबंध रखता है, खानदान से संबंधित है. उस रक्त संबंध को निभाने के लिए रसोईघर में हलदी, मिर्च, मसालों को त्याग दिया जाता था. ग्रहण लगने से घंटों पूर्व लगे सूतक, ग्रहण समाप्ति के बाद ही स्नान करने के बाद ही खत्म माने जाते थे. अखबार, टीवी सूतक का समय शान से बताते हैं मानो इन दिनों अपना प्रकाशन भी बंद कर देंगे.

‘‘इन दोनों समय पर मेरा ससुराल में होना क्रांतिकारी कदम बन गया. मेरे चचेरे देवर की मृत्यु अमेरिका में हुई तो रसोई में काली उरद की दाल और बिना घी की रोटी के अलावा कुछ और बनना निषेध हो गया. एक दिन मेरे बच्चे भूखे थे, तो मैं ने सब्जी आदि बनाई. इस पर तहलका मचा पर जीत मेरी ही हुई. मेरी दलील थी कि पिछले

8 वर्षों से जिस व्यक्ति से आप मिले तक नहीं, उस के जाने पर ऐसी क्रिया कहां तक उचित है और खानेपीने का इस से क्या संबंध है?’’

‘‘विज्ञान चंद्रमा तक पहुंच गया, नित नए वैज्ञानिक सत्य व तथ्य सामने आ रहे हैं. पर हमारे नेताअभिनेता पंडों के कहने पर पुराने रीतिरिवाजों को बनाए रखने में साथ दे रहे हैं,’’ रीता बोली, ‘‘ऐसी कई कुरीतियां हैं जो आज भी वर्चस्व बनाए हुए हैं. मंगल, शनि, वीरवार को बाल न धोना, शेव न करना, नाखून न काटना आदि.’’

‘‘मुझे एक और अनुभव याद आया है, सुनील ने कहना शुरू किया, ‘‘अपने फूफाजी की मृत्यु के समाचार पर मैं बूआजी की ससुराल गया. उस गांव में परंपरा थी कि हर रिश्तेदार को शमशान तक शवयात्रा में नंगे पांव जाना पड़ता था. यह जान कर हमारे होश उड़ गए. गरमी का मौसम और भरी दोपहरी में…? कई लोगों के चेहरे पर तनाव दिख रहा था. तब मैं ने आव देखा न ताव साफ कह दिया कि मैं तो चप्पलें पहन कर चलूंगा.’’

‘‘तब तो बहुत विरोध हुआ होगा आप का. नास्तिक, कलयुगी कह कर बहुत कुछ कहा होगा,’’ शैल ने सुनील की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘अरे नहीं, यही तो कमाल की बात हुई. मेरी देखादेखी कई लोगों ने अपनी चप्पलें पहन लीं. मैं खुश था कि एक कुरीति पर विराम लगा. गांव में नया कदम उठ चुका था.’’

‘‘सही बात यह है कि पुरानी रीतियों, पुराने विचारों जो कि कूपमंडूक बनाए रखते हैं उन पर रोक लगा दी जाए. हर बात पर पंडे, पुजारी, धर्मपुराणों को बीच में न ला कर अपनी शिक्षा, बुद्धि व तर्कशक्ति के आधार पर कदम बढ़ाए जाएं.’’

आशा, रीता, शैल ने मुसकरा कर स्वीकृति में सिर हिला दिए.

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