बदन संवारें कपड़े नहीं

टीवी एक्ट्रेस शिखा सिंह आज के समय में टीवी का जानामाना नाम बन चुकीं हैं. वैसे भले ही इन्होंने अब तक किसी भी शो में लीड किरदार न निभाया हो फिर भी टीवी जगत में वह काफी लोकप्रिय है खास कर ज़ी टीवी के शो कुमकुम भाग्य में आलिया के किरदार से इन्हे पहचान मिली है.

हाल ही में उन्होंने कहा कि उन्हें हर चीज महंगी ही अच्छी लगती है. खास कर अपने कपड़ों के लिए वह सब से ज़्यादा पैसे खर्च करती हैं. सामान्यतः  शिखा के एक ड्रेस की कीमत 80 हजार से 1 लाख तक होती है क्योंकि वह अपने ड्रेस विदेश से मंगवाती है और इस तरह के महंगे ड्रेस पहनना ही उन को पसंद आता है. उसकी कीमत कुछ भी क्यों न हो.

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बौलीवुड एक्ट्रेस करीना की बात करें तो सब को पता है कि वह पार्टियों में लाखों की ड्रेस पहन कर पहुंचती हैं. लेकिन क्या आपने सुना है कि वह जिम में भी 45 हजार तक की टीशर्ट पहन कर जा चुकी हैं.

महंगे कपड़ों से सुर्खियां बटोरने की चाह

करीब 2 साल पूर्व ‘द मैन विद द गोल्डन शर्ट’ के नाम से मशहूर महाराष्ट्र के मशहूर व्यवसायी और राजनेता पंकज पारेख का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल हो गया. उन्होंने सबसे महंगी सोने की शर्ट रखने के लिए गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकार्ड बनाने का दावा किया जिसकी मौजूदा कीमत 1.3 करोड़ रूपये से ज्यादा आंकी गयी है.

नासिक से करीब 70 किलोमीटर दूर येओला के 47 साल के पंकज पारेख ने 2014 में अपने 45 वें जन्मदिन पर यह विशेष शर्ट बनवायी थी और इस के दो साल बाद 98,35,099 रूपये की चार किलोग्राम सोने की शर्ट ने सब से महंगी शर्ट होने का रिकौर्ड बनाया. पंकज पारेख ने यह शर्ट एक अगस्त 2014 को खरीदी थी. शुद्ध सोने से बनी इस शर्ट के भीतरी हिस्से में कपड़े की बेहद महीन परत है. पारेख को जिस शर्ट के लिए गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड मिला है उस का वजन 4.10 किलोग्राम है. इसे तैयार करने के लिए 20 कारीगरों ने दो महीनों में 3200 घंटों तक काम किया. इस शर्ट को तैयार करने के लिए 18-22 कैरेट सोने का इस्तेमाल हुआ.

पारेख जब भी अपने सोने के परिधान के साथ येयोला की सड़कों पर निकते हैं उन के साथ एक लाइसेंसी रिवाल्वर होता है. पारेख स्वीकार करते हैं कि येयोला के पुरुष व महिलाएं उन्हें घूरते हैं इसलिए वह प्राइवेट बॉडीगार्ड ले कर चलते हैं.

पारेख का परिवार उनके इस शौक को गैरजरूरी जुनून करार देता है. उन के रिश्तेदार भी उन्हें झक्की करार देते हैं.

अजब गजब फैशन पर लाखों का खर्च

हाल ही में प्रियंका का एक लुक खासा चर्चा में रहा। मेट गाला में प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण काफी अतरंगी बन कर पहुंचीं।

प्रियंका ने क्रिश्चियन डिओर की सिल्वर रंग की पंखनुमा ड्रेस पहनी थी. मेकअप थोड़ा अलग किस्म का था. अपनी भंवों को प्रियंका ने सफ़ेद कर रखा था. बाल भी ऐसे लग रहे थे जैसे अभीअभी उन्हें इलेक्ट्रिक शॉक लगा हो. प्रियंका अपनी इस ड्रेस और मेकअप के लिए काफ़ी ट्रोल भी हुई. इंटरनेट पर उन के मीम चले. वहीं दूसरी तरफ़ दीपिका ने ज़ैक पोसेन का गुलाबी गाउन पहना था.

मेट गाला को फैशन का वर्ल्डकप फाइनल समझ लीजिए. मेट गाला हर साल मई के पहले मंडे को होता है. न्यूयॉर्क में एक जगह है, मेट्रोपोलिटन म्यूजियम ऑफ़ आर्ट नाम की. मेट नाम इसी से निकला है. अंग्रेज़ी में गाला का मतलब हुआ पर्व. दोनों शब्दों को जोड़ कर बनता है मेट गाला. इस इवेंट का मकसद फंडरेजिंग है. यह आर्ट म्यूजियम अपने फैशन कलेक्शन के लिए पैसे जोड़ता है. हर साल यह एक थीम तय करता है. सब इसी थीम के मुताबिक कपड़े पहन कर आते हैं. इस साल की थीम थी ,‘कैंप: नोट्स ऑन फैशन.’ मेट गाला की शुरुआत साल 1946 में हुई थी. इस को एक तरह से ‘फैशन पार्टी ऑफ़ द इयर’ समझा जाता है.

दुनियाभर के तुर्रमखान जिन्हें फैशन में दिलचस्पी होती है वे मेट गाला में हिस्सा लेते हैं. ज्यादातर म्यूजिक इंडस्ट्री के सितारे, फिल्मों के जानेमाने चेहरे, फैशन की दुनिया के बड़े नाम या किसी भी वजह से फेमस लोग इस इवेंट में शामिल होते हैं. हर साल मेहमानों की लिस्ट बदलती है.

मेट गाला में जो मेहमान आते हैं उन्हें एक टेबल ख़रीदनी पड़ती है. इस को एंट्री टिकट समझ लीजिए. इस की कीमत एक करोड़ से ऊपर है. यहां आने के लिए आप को डिज़ाइनर गाउन, गहने वगैरह भी खरीदने ही पड़ते हैं. हालांकि टिकट एंट्री वाला रूल सेलिब्रिटीज़ पर लागू नहीं होता. उन्हें तो उल्टा यहां आने के पैसे दिए जाते हैं. यहाँ सब बड़ेबड़े डिज़ाइनर्स के रंगबिरंगे फॅशनेबल और महंगे से महंगए कपड़े पहन कर अपना जलवा दिखाते हैं.

कान्स फिल्म फेस्टिवल 2019 के लिए दीपिका की पहनी हुई हर ड्रेस, ज्वैलरी और फुटवेयर की कीमत लाखों में रही. दीपिका पादुकोण ने अपने दूसरे दिन के रेड कार्पेट वॉक के लिए लाइम ग्रीन कलर ट्यूल गाउन पहना था. उन का यह गाउन गियमबटिस्टा वाली (Giambattista Valli ) ने डिजाइन किया था. इस लुक में उन्होंने गाउन के साथ ही सिर पर एक गुलाबी पगड़ी पहनी थी। अपने इस लुक को पूरा करने के लिए उन्होंने एक लग्जरी हेयरबैंड भी पहना हुआ था. अगर बात करें इस छोटे से हेयरबैंड की तो उस की अकेले की कीमत ही 585 पाउंड्स बताई जा रही है. इस कीमत को अगर भारतीय करेंसी में बदल कर देखा जाए तो यह हेयरबैंड लगभग 52,338 रुपए का है. इतनी कीमत में एक शानदार बाइक खरीदी जा सकती है. दीपिका के लिए यह हेयर बैंड एमिली बक्सेंडले (Emily Baxendale) ने डिजाइन की थी.

कुछ दिनों पहले महिला दिवस के अवसर पर प्रियंका सोहो हाउस पार्टी में पहुंची थी. इस दौरान वह ब्राउन कलर के बेहद ड्रेस में नजर आईं. उन्‍होंने अपने लुक को कंप्‍लीट करने के लिए बूट्स पहने थे और मैचिंग बैग कैरी किया था. उन के इस लुक की तसवीरें जम कर वायरल हुई. सोशल मीडिया पर कुछ लोगों को उन का यह लुक पसंद आया और कुछ ने  सोशल मीडिया पर उन की ड्रेस का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया. उन के इस लुक को किसी ने ‘कोकाकोला’ कहा तो किसी ने ‘चिड़िया’ बताया।

प्रियंका के इस ड्रेस की कीमत जान कर आप हैरान रह जायेंगे. प्रियंका की यह ड्रेस एट्रो (ETRO ) ब्रांड की थी जिस की कीमत $2,750 यानी तकरीबन 1,90,155 रुपये है.

एक्टर रणवीर सिंह अक्सर अतरंगी पोशाके पहनने के कारण सुर्खियों में रहते हैं. हाल ही में रणवीर ने एक ऐसी तस्वीर इंस्टाग्राम पर अपलोड कर दी है जिस की वजह से वह सोशल मीडिया पर ट्रोल होने लगे। फोटो में रणवीर फर वाली जैकेट पहने नजर आ रहे हैं जिस पर तरहतरह के स्टिकर्स लगे हुए हैं. व्हाइट पैंट, व्हाइट स्वेटर और कलरफुल सनग्लासेज लगाए रणवीर बड़े डिफरेंट लग रहे थे. सोशल मीडिया पर यूजर्स को उन का यह लुक रास नहीं आया.

लोगों ने रणवीर को कार्टून किरदार सुविलियन से कंपेयर किया . रणवीर के इस लुक का लोगों ने जम कर मजाक उड़ाया जब कि उन की पत्नी दीपिका पादुकोण को वह इस जैकेट में बहुत अच्छे लगे.

बदन पर खर्च करें रूपए कपड़ों पर नहीं

इस तरह के फैशन और परिधानों को देख कर क्या आप के दिल में यह ख्याल नहीं आता कि सजीधजी कोई दुकान तो नहीं चली आ रही है? आप कपड़े खरीदती हैं अपने शरीर को खूबसूरत दिखाने के लिए मगर जब कपड़ों की कीमत लाखों में हो तो क्या यह नहीं लगता कि हम उस दुकान या डिजाइनर का प्रचार करने वाले कैनवस पेपर बन गए हैं.

वस्तुत यदि आप बेहतर दिखना चाहती हैं तो अपने शरीर पर काम कीजिए। रुपए खर्च करने हैं तो अपने शारीरिक दोषों को दूर करने पर खर्च कीजिए। आकर्षक दिखना है तो फिटनेस कायम कर अपने शरीर को सुडौल और आकर्षक बनाइये. मगर इस तरह की बनावटी खूबसूरती का जामा पहन कर आप किसे भ्रमित कर रही हैं ?

महिलाएं खासतौर पर अपनी सैलरी और कमाई का सब से बड़ा हिस्सा अपने मेकअप के सामानो और परिधानों पर खर्च करती है. घंटों का समय लगा कर कोई ड्रेस खरीदती है. उस ड्रेस के लिए बड़ी से बड़ी कीमत अदा करती है। बारबार टेलर या डिज़ाइनर के पास जा कर उस की फिटिंग सही कराती हैं. फिर उस ड्रेस को और आकर्षक बनाने के लिए उस से मैच करते एक्सेसरीज और ज्वेलरीज खरीदती हैं. इस काम में भी घंटों का समय लगता है। तब जा कर उन की एक ड्रेस तैयार होती है.

पर क्या आप ने यह सोचा है कि यदि इतना समय और इतने रुपए आप ने अपने बदन को खूबसूरत और हैल्दी बनाने में खर्च किए होते, अपने चेहरे के नेचुरल आकर्षण को बढ़ाने में रूपए लगाए होते तो नतीजा कितना अलग निकलता। तब आप की खूबसूरती बनावटी और अस्थाई नहीं होती। आप अंदर से खूबसूरत महसूस करती। आप का रियल कॉन्फिडेंस बढ़ता।

फैशन के नाम पर कुछ भी पहन लेना आप के व्यक्तित्व की गरिमा को घटाता है. अपने बदन पर रूपए खर्च कर आप किसी भी उम्र में खूबसूरत दिख सकती हैं. आप 15 की हों , 25 की या 50 की. आज कल नएनए तकनीक उपलब्ध हैं. उन का प्रयोग करें. जिस तरह कपड़ों और मेकअप के फील्ड में लेटेस्ट तकनीक हावी हो रही हैं वैसे ही हेल्थ और कोस्मैटिक सर्जरी के फील्ड में भी हर समस्या का निदान है. आप को फिटनेस ट्रेनर के पास जाना पड़े , कॉस्मेटिक सर्जन के पास या फिर डॉक्टर्स के पास मगर अपने बदन के आकर्षण और सेहत को इग्नोर न करें. क्यों कि वक्त हाथ से निकल गया तो फैशन के जलवे भी आप को खूबसूरत नहीं दिखा पायेगा। जब कि बदन पर खर्च कर आप साधारण से साधारण कपड़ों में भी सब से बढ़ कर दिखेंगी.

Edited by Rosy

सिस्टम की गुलाम होती महिलाएं

घर का सपना हर गृहिणी का होता है पर अफसोस है कि न पिछले 6 सालों में और न उस से पहले 6 दशकों में हर घरवाली के सुखद सा घर दिया जा सके ऐसा काम सरकारें कर पाईं. दिल्ली जैसे समृद्ध राज्य में 60′ आबादी एक कमरे के मकान में रहने को मजबूर है. उस में पतिपत्नी भी रहें, वृद्ध मातापिता भी रहें और बच्चे भी अपना भविष्य बनाएं.

एक तिहाई आबादी तो दिल्ली की कच्ची बस्तियों में बने आधे कच्चे आधे पक्के मकानों में रह रही है जहां न गलियां सही हैं न सीवर है. पानी भी हर घर में आज भी नहीं पहुंचा है और टैंकर माफिया का राज आज भी चलता है.

दिल्ली जैसे बड़े शहर को आज 5 करोड़ मकानों की जरूरत है और पक्का है अगर ये बने भी तो भी जब तक बनेंगे जनसंख्या दोगुनी हो चुकी होगी.

अपना घर न होना एक गृहिणी पर एक अत्याचार है. उस का ज्यादा समय तो छोटे से घर में सामान को किसी तरह संभालना होता है. वह किसी को न बुला सकती है न किसी के जा सकती है. उस का सोशल दायरा मिसट जाता है. यह औरतें सिस्टम की गुलाम हो जाती हैं और कोसने भर से तो काम नहीं चलता कि पति को या सासससुर को कह डाला कि कैसे घर में आ गई. पति बेचारा कौन सा सुखी है?

इस दुर्गति का कारण सीधेसीधे सरकारी और सामाजिक नीतियां हैं. हमारी सरकार और समाज उन मुट्ठी भर लोगों के लिए सोच रही है जिन्होंने किसी तरह तिकड़म लगा कर पैसा कमा लिया इस में नेता भी हैं, अफसर भी, व्यापारी भी और धर्म के दुकानदार भी. इन के घर बड़े हैं. शानदार हैं और दिल्ली की ज्यादातर जगह ये ही घेरे हुए हैं.

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आप औरतों को भी घर का सुख मिल सके इस के लिए जरूरी है कि घरों को बनाने के नियम ढीले हों. यह तो मानना पड़ेगा कि लोग नौकरियों की तलाश में दिल्ली आएंगे ही और अब आ ही गए हैं तो 1-2 मंजिले मकानों की सरकारी जिद का क्या लाभ है. क्यों नहीं सरकार जमीन का पूरा उपयोग होने दे और 20-30 मंजिले मकान बनने दे.

ठीक है उस से सडक़ें ठसाठस भर जाएंगी, पानी, बिजली सीवर की समस्या खड़ी हो जाएगी पर कम से कम छत तो मिलेगी. सरकार आज भी जिद करती है कि मकान एक ऊंचाई से ज्यादा के न हों, उन का फ्लोर एरिया….नियत हो. लोग इन नियमों को तोड़ कर खिलापिला कर मकान बनाते हैं. आखिर इस का लाभ क्या है? जब लोगों को दिल्ली में काम की जगह के आसपास ही रहना है तो क्यों उन पर रोकटोक लगाई जाए?

मकानों को बनाने का खर्च भी बढ़ता जा रहा है क्योंकि लोहे, सीमेंट पर भारी टैक्स है. यह हर घरवाली पर टैक्स है. उस के मौलिक हक पर टैक्स है. उस को बेघर रखने की साजिश का टैक्स है. सीमेंट लोहा सस्ता होगा तो ढेरों मकान बनेंगे. जब मकान सस्ते होंगे तभी लोगों को छत मिलेगी. सरकार ने बहुत हाथ पैर मार लिए पिछले 7 साल में भी और उस से पहले 7 दशक में भी. मकान तो सरकार दे ही नहीं पाई उलटे जमीनों के नियम बना कर जो बनाना चाह रहे थे उन के काम में अड़ंगा डालती रही.

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हर घरवाली को मकान मिले यह सरकार का कर्तव्य है. घर के अंदर का सामान चाहे जैसा हो पर बेघर औरत सरकार पर धब्बा, समाज की ढींग हांकने की आदत ही पोल खोलता है.

हम असल में आज भी गुफाओं में रहने को अच्छा मानते हैं. यह बात दूसरी कि 2 रात गुफा में रहने वाले 8000 करोड़ के विमान में चलते हैं.

कैरियर और बच्चे में किसी एक का चुनाव करना, मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ: पंकज भदौरिया मास्टर शैफ

2010 में मास्टर शैफ सीजन 1 की विनर रहीं पंकज भदौरिया आज किसी परिचय की मुहताज नहीं हैं. ‘शैफ पंकज का जायका,’ ‘किफायती किचन,’ ‘3 कोर्स विद पंकज,’ ‘रसोई से पंकज भदौरिया के साथ’ जैसे कई टीवी शोज ने उन्हें घरघर में पहचान दिलाई है. उन की 2 कुकबुक ‘बार्बी : आई एम शैफ’ और ‘चिकन फ्रौम माई किचन’ दुनियाभर में काफी मशहूर रही हैं. 2 बच्चों की मां पंकज स्कूल टीचर से कैसे बनीं मास्टर शैफ, किस तरह उन्होंने परिवार को संभालते हुए कैरियर में ऊंची उड़ान भरी, चलिए, जानते हैं:

कुकिंग में दिलचस्पी कब से हुई?

मेरे पेरैंट्स को कुकिंग का बहुत शौक था. वे बहुत अच्छे होम कुक थे. लोगों को पार्टी में बुलाना और उन्हें अपने हाथों से तरहतरह की रैसिपीज बना कर खिलाना उन्हें अच्छा लगता था. उस वक्त मुझे भी लगता था कि अच्छा खाना बनाने से न सिर्फ अच्छा खाना खाने को मिलता है, बल्कि कइयों की तारीफ भी मिलती है. इसीलिए मेरी रुचि भी कुकिंग में बढ़ने लगी. मैं 11 साल की उम्र से खाना बनाने लगी. मुझे शुरुआत से कुकिंग में ऐक्सपैरिमैंट करने का बहुत शौक था. इंटरनैशनल फूड जैसे चाइनीज, इटैलियन, थाई बनाना मुझे ज्यादा अच्छा लगता था. शादी के बाद पति भी खाने के शौकीन निकले, इसलिए कुकिंग और ऐक्सपैरिमैंट का सिलसिला जारी रहा.

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बहुत छोटी उम्र में पेरैंट्स को खो दिया. ऐसे में आप के लिए कैरियर की डगर कितनी मुश्किल रही?

जब मैं 13 साल की थी तब मेरे पिता की मौत हो गई. 21 साल की उम्र में मैं ने अपनी मां को भी खो दिया. मेरी मां अकसर कहती थीं कि शिक्षा एक ऐसा गहना है, जिसे आप से कोई नहीं छीन सकता, इसलिए हमेशा पढ़ाई जारी रखना. चूंकि मेरी मां कम पढ़ीलिखी थीं. इसलिए पिता की मौत के बाद उन्हें अच्छी जौब नहीं मिल पाई, इसलिए भी वे मुझे हमेशा पढ़ने को कहती थीं. मैं ने अंगरेजी में एमए किया और फिर स्कूल में पढ़ाने लगी. बाद में शादी हो गई. ससुराल वालों के साथ पार्टी में आने वाले भी मेरे खाने की बहुत तारीफ करने लगे, जिस से मुझे महसूस होता था कि शायद मैं कुछ खास बनाती हूं. उसी दौरान मैं ने टीवी पर मास्टर शैफ का विज्ञापन देखा. मैं ने टीचिंग छोड़ कर इस में भाग लिया और जीतने के बाद अपने पैशन को प्रोफैशन बना लिया. अपने सपनों को साकार करने के लिए मैं ने जो हिम्मत दिखाई उस ने मेरी जिंदगी को एक नई दिशा दी.

घर संभालते हुए कैरियर में आगे जाना मुमकिन हो पाया?

जब मैं घर में रहती हूं तब बस घर में रहती हूं और जब बाहर जाती हूं, तो पूरी तरह से बाहर रहती हूं. मैं बहुत जल्दी स्विच औफ और स्विच औन कर लेती हूं. घर में मैं होम मोड पर होती हूं, बिलकुल एक सामान्य घरेलू महिला की तरह. खुद खाना बनाती हूं, सफाई करती हूं आदि. खाने को ले कर अपने बच्चों की सारी फरमाइशों को भी पूरा करती हूं. मैं अपनी प्रोफैशनल लाइफ को घर के दरवाजे के बाहर छोड़ आती हूं और जब औफिस जाती हूं, तो घर को घर में छोड़ आती हूं. जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए हर महिला को मैनेजमैंट के गुण आने चाहिए. यदि वह ऐसा नहीं कर पाती तो उसे परिवार और अपने काम के साथ पूरा न्याय करने में मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है.

अपने दोनों बच्चों के साथ कैसा रिश्ता है?

19 साल की बेटी और 15 साल का बेटा दोनों मेरे सब से अच्छे फ्रैंड हैं. मेरे पेरैंट्स ने भी मुझे ऐसे ही बड़ा किया है. मेरी मां और मेरे पिता दोनों ही मेरे अच्छे फ्रैंड रहे हैं. हम बच्चों को अच्छा इनसान बनाने में यकीन रखते हैं. हम उन्हें मैंटली और फिजिकली तौर पर फिट रखते हैं. हम चारों मिल कर एकसाथ खेलतेकूदते भी हैं. हर तरह की मूवी देखते हैं, हर मुद्दे पर बात करते हैं. आजकल की पेरैंटिंग की डिमांड भी यही है कि मां-बाप अपने बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार बना कर रखें ताकि वे अपनी किसी बात को आप के साथ शेयर करने से हिचकिचाएं नहीं.

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मां बनने के बाद कैरियर को छोड़ने वाली महिलाओं को क्या सलाह देंगी?

औरत की जिंदगी में ऐसा पड़ाव आता है, जब उसे कैरियर और बच्चे के बीच किसी एक का चुनाव करना पड़ता है. शुक्र है मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, लेकिन जिन महिलाओं को बच्चों की परवरिश के लिए ऐसा फैसला लेना पड़ा है, मेरे अनुसार वे मिड ऐज में दोबारा काम शुरू कर सकती हैं किसी भी रूप में जैसे पार्टटाइम, वर्क फ्रौम होम आदि.

Edited by Rosy

अपने ऊपर विश्वास करो सारे सपने सच होंगे: अलीशा अब्दुल्ला

चेन्नई की 29 साल की अलीशा अब्दुल्ला भारत की पहली और एकमात्र सुपर बाइक रेसर हैं. यही नहीं वह फास्टेस्ट वुमन कार रेसर भी हैं. मशहूर बाइक रेसर आर ए अब्दुल्ला की बेटी अलीशा बचपन से ही रेसिंग की ओर आकर्षित थी. 9 साल की उम्र में अलीशा गो-कार्टिंग के लिए तैयार हो गयी थी. 11  साल की होने तक उन्हों गो-कार्टिंग की बहुत सी रेस जीती. 13 साल की उम्र में उन्होंने एमआरएफ राष्ट्रीय गो-कार्टिंग चैम्पियनशिप जीत कर सब को चौंका दिया. 2004  में वह जेके टायर नेशनल रेसिंग चैम्पियनशिप में पांचवें स्थान पर पहुंचने में कामयाब रही. अब उन के पिता ने उन्हें सुपर बाइक रेसिंग में हिस्सा लेने को प्रोत्साहित किया. इसी के साथ अलीशा के सपनों को नई उड़ान मिल गई.आज वह अपनी बाइक और कार रेसिंग टीम रखने वाली भारत की सब से कम उम्र की लड़की है. इस साल वह कार और बाइक्स के नेशनल चैंपियन शिप के लिए रेसिंग करेंगी.

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आप की सफलता का राज क्या है?

मेरी सफलता का राज हार्ड वर्क है . मैं सब से यही बोलती हूं कि अपना फोकस केवल अपने मुकाम पर रखो. देर से ही सही पर सफलता जरूर मिलेगी.

आप के अंदर ऐसी कौन सी इनर स्ट्रेंथ है जो आप को यह सब करने को प्रेरित करती है?

मेरा अपने ऊपर विश्वास ही मेरी इनर स्ट्रेंथ है जो मुझे यह सब करने को प्रेरित करती है.

एक बेहतर महिला सुपर बाइक रेसर बनने के लिए क्या क्वालिटीज़ होने जरुरी हैं?

सब से पहले आप के पास अच्छा फंड्स बैकअप होना चाहिए क्यों कि इस प्रोफेशन में सब से ज्यादा पैसे लगते है. एक नार्मल रेस में कम से कम 5 -10 लाख का खर्च होता है. जाहिर है एक सामान्य वर्ग का व्यक्ति इस प्रोफेशन को आसानी से नहीं अपना सकता. इस के साथ ही फिटनेस भी जरुरी है. मैं रोज नियमित रूप से 3 घंटे वर्कआउट करती हूं.

क्या इस फील्ड में भी महिलाओं के साथ भेदभाव होते हैं?

हां जी बिलकुल होते हैं. कई लोगों का मेल ईगो जो हर्ट होता है.

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आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देना चाहेंगी?

आज में जो भी हूं अपने पिता की वजह से हूं. उन्होंने मुझे मोटर स्पोर्ट्स में 8 साल की उम्र से डाल दिया था और फिर मुझे हार्ड कोर ट्रेनिंग दे कर अलीशा अब्दुल्ला बनाया.

आप की जिंदगी का सब से खूबसूरत पल कौन सा था ?

मेरी जिंदगी का सब से खूबसूरत पल वह था जब मुझे मोटर स्पोर्ट्स की पहली महिला के तौर पर प्रेसिडेंट द्वारा अवार्ड दिया गया था.

समाज में लगातार हो रहे अपराधों के सन्दर्भ में क्या कहेंगी?

हम लोग इंसान हैं पर आजकल के समय में इंसानियत ख़त्म हो रही है. मुझे डर लगता है कि आने वाले जेनेरशन पर इस का कैसा प्रभाव पड़ेगा.

एक स्त्री के तौर पर आगे बढ़ने के क्रम में क्या आप को कभी असुरक्षा का एहसास हुआ ?

नहीं मुझे कभी असुरक्षा महसूस नहीं हुई. क्यों कि मेरे मेंटोर, मेरे पिता हमेशा मेरे साथ थे.

खाली समय में क्या करती हैं?

मुझे कुकिंग करना बहुत ज्यादा पसंद है. खाली समय में मैं कुकिंग करती हूँ.

अपने परिवार के बारे में बताइए. घर वालों का कितना सपोर्ट मिलता है

मेरे मौम डैड ने ही मेरे सपने पूरे किये हैं. उन की वजह से ही आज लोग मुझे अलीशा अब्दुल्ला के रूप में जानते हैं.

आप की नजर में फैशन क्या है?

फैशन का अर्थ है आप के जीने का तरीका.

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महिलाओं और लड़कियों को क्या सलाह देना चाहेंगी?

मैं महिलाओं को यही कहना चाहती हूँ कि अपने ऊपर विश्वास करो सारे सपने सच होंगे.

कोई सपना जो पूरा करना करना बाकी है?

मैं हिंदुस्तानी महिलाओं के लिए मिसाल बनना चाहती हूं. मेरे अकादमी अलीशा अब्दुल्ला में सिर्फ महिलाओं को कम से कम पैसों में रेसिंग ट्रेनिंग दी जाती है. उन्हें एक बड़े प्लेटफार्म पर परफौर्म करने का मौका भी दिया जाता है.

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क्या महिलाएं मजाक का साधन हैं

लेखक  -वीरेंद्र बहादुर सिंह 

पैट्रोल पंप पर पुरुष महिलाओं को बाहर ही उतार देते हैं और खुद अकेले पैट्रोल भराने जाते हैं. इस की वजह यह है कि पैट्रोल पंप पर बाहर लिखा होता है कि कृपया विस्फोटक सामग्री साथ में न लाएं.’ यह जोक्स सुन कर यही लगता है कि महिलाएं विस्फोटक सामग्री हैं.

एक दूसरा जोक- ‘रेप कोई अपराध नहीं. यह सरप्राइज सैक्स है.’ ये जोक्स पढ़ कर यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि जो घटना किसी को आत्महत्या या डिप्रैशन की स्थिति तक ले जाती है, वह किसी के लिए मजाक कैसे हो सकती है? किसी साहित्यकार ने लिखा है कि अगर महिलाओं के पास बुद्घि होती तो पुरुषों का जीना काफी मुश्किल हो जाता. एक पाठक के रूप में इस का मतलब यही निकाला जा सकता है कि उस साहित्यकार के अनुसार महिलाओं को बुद्धि नहीं होती है.

हर जगह सिर्फ मजाक

फिल्मी परदा हो, टीवी सीरियल हो, सोशल मीडिया हो या फिर नाटक, हर जगह महिलाओं को मजाक का साधन माना जाता है. हैरानी की बात तो यह है कि महिलाओं को मजाक का साधन मानना उचित है.

हमारा समाज पुरुषप्रधान है और इस समाज का मानना है कि महिलाओं को बुद्घि नहीं होती जबकि वर्तमान में महिलाओं ने अपनी क्षमता साबित कर दिखाई है. सही बात तो यह है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को आगे बढ़ने का मौका ही नहीं मिला था. इसीलिए वे पीछे रह गईं. रचना करने वाले ने रचनाकरने की क्षमता महिलाओं को दी है. यह क्षमता पुरुषों को कभी नहीं मिलने वाली. महिलाएं चाहें तो इस मुद्दे पर पुरुषों का मजाक उड़ा सकती हैं.

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पुरुष महिलाओं का मजाक उड़ा कर महिलाओं को सम्मान देने में कंजूसी करता आया है. पर अब चूंकि हर क्षेत्र में महिलाएं आगे हैं, इसलिए उन्हें नीचा दिखाने और उन का मुकाबला न कर पाने की अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए पुरुष महिलाओं को मजाक का साधन बनाते हैं. महिलाओं का भोलापन, जल्दी विश्वास कर लेने वाले उन के स्वभाव को पुरुष उन की कमजोरी मानता है. महिलाओं के इस स्वभाव में कमी नहीं आ रही, इसलिए महिलाएं कमजोर पड़ती हैं और वे मजाक का साधन बनती हैं. महिलाओं को मजाक का साधन बना कर पुरुष यह साबित करता है कि  वह हीनभावना से ग्रस्त है. महिलाएं कमजोर हैं, इसलिए पुरुष इस बात को नहीं मानता, पर महिलाओं पर विश्वास करने की पुरुष में क्षमता नहीं है. इसलिए वह महिलाओं को कमजोर मानता है.

मजाक में कमजोरी छिपाते पुरुष

सही बात तो यह है कि जो पुरुष महिलाओं का मजाक उड़ाते हैं, उन का ठीक से विकास नहीं हुआ होता. पुरुष अपने अंदर इतनी विशालता नहीं ला सका है कि वह महिलाओं पर विश्वास कर सके और उन्हें समान हक देने की हिम्मत कर सके.

यह भी सच है कि कमजोर लोग या अन्य कोई खुद से आगे न निकल सके, इस तरह का डर होने पर वे दूसरों का मजाक उड़ाते हैं, कटाक्ष करते हैं. समाज में महिलाओं की सुरक्षा के बारे में चर्चा होती है तो उस में भी कहीं न कहीं फायदा उठाने की बात होती है.

टीवी चैनलों में भी महिलाओं का मजाक उड़ाने के लिए एक नई रीति अपनाई गई है. पुरुषों को महिलाओं के कपड़े पहना कर अप्राकृतिक उभार बना कर गलत हरकतें करा कर कौमेडी की जाती है. ऐसे कार्यक्रमों में अकसर पत्नी को अपमानित करने वाले जोक्स करते हैं. उन के शरीर के अंगों के बारे में गंदे शब्दों से कटाक्ष करते हैं, जबकि यह एक तरह से बीभत्सता है.

दुख की बात तो यह है कि पुरुषों की इस प्रवृत्ति में महिलाएं भी अपना अधिकार मान कर इस सब को स्वीकार कर लेती है. अगर महिलाएं इस तरह के कार्यक्रम देखना बंद कर दें तो इस तरह के कार्यक्रम अपनेआप बंद हो जाएंगे. इस तरह के कार्यक्रमों से यही लगता है कि जैसे पुरुष महिलाओं को बताते हैं कि उन का स्थान क्या है. पुरुष इस तरह के कार्यक्रमों से यही प्रयास करते हैं कि घर में उन की चलती रहे.

सही बात तो यह है कि हास्य,उस में भी निर्दोष हास्य परोसने में खासी मेहनत करनी पड़ती है, जबकि महिलाओं का मजाक उड़ाने में कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती. इसलिए हास्य के लिए पुरुषों का सब से बड़ा हथियार है महिलाओं का मजाक उड़ाना. पुरुष को अपमानित करने के लिए उसे चूडि़यां पहनाईर् जाती हैं. इस का मलब क्या है? दरअसल, चूडि़यां पहना कर यह बताने की कोशिश की जाती है कि यह आदमी अब बेकार हो चुका है. इस तरह चूडि़यां पहना कर एक तरह से महिला की क्षमता पर कटाक्ष है. चूडि़यां पहनाने का मतलब है नामर्द और नामर्द यानी क्या? इस तरह चूडि़यां पहना कर यह बताया जाता है कि नामर्द यानी महिला. इस का मतलब महिला होना पूर्णता नहीं है. उस में कुछ कमी है.

देवी और अबला के बीच की खाई

हमारे यहां एक वर्ग अबला नारी का है और दूसरा वर्ग देवी माता का. पुरुष की बराबरी का महिला का कोई वर्ग नहीं है, जैसे उसे स्वीकृत ही नहीं है. देवी और महिला के बीच का अंतर जैसे बढ़ा दिया गया है. महिलाओं को एक मनुष्य के रूप में जो आदर मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता. जिस पर पुरुष का जोर नहीं चलता, उस महिला को देवी बना दिया जाता है. बाकी महिलाओं को अबला बना कर पैरों के नीचे दबाया जाता है. अगर देवी और अबला के बीच अंतर कम हो जाए, तभी महिलाओं का सम्मान बढ़ेगा.

ज्यादातर पुरुष महिलाओं को प्रेम दिखा कर या फिर  झूठ बोल कर बेवकूफ बनाते हैं. रोज के जीवन में भी पतिपत्नी के संबंधों में महिलाओं को बेवकूफ बनाया जाता है. लेकिन जब यह कहा जाता है कि महिलाओं की बुद्धि घुटनों में होती है, तब सारी महिला जाति का अपमान किया जाता है. इस बात को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता.

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एक तरह से देखा जाए तो महिलाओं का दिखावा, सुंदरता, उन की बुद्धिक्षमता, उन का हक, उन का फर्ज सब पुरुषों ने तय किए हैं. पुरुषों ने अपने दृष्टिकोण से महिलाओं के लिए विचार पैदा किए हैं. इसीलिए शृंगार के हास्य में पुरुषों की भूमिका अधिक है. पुरुष महिलाओं को साधन के रूप में देखता है. बोलने और सुनने वाला ज्यादातर पुरुष ही होता है. पुरुष द्वारा तय की गई सुंदरता की व्याख्या में फिट न बैठने वाली महिलाओं का पुरुष मजाक उड़ाते हैं. फिल्मों में कौमेडी सीन के लिए मोटी महिलाओं को दिखाया जाता है. टीवी कार्यक्रमों में भी महिलाओं के कपड़े पहन कर आने वाले पुरुष कुछ भी न करें, तब भी उन्हें देख कर हंसी तो आती ही है. इस का अर्थ यह है कि पुरुष महिलाओं को उच्च पदों पर देखने को राजी नहीं है. शायद इसीलिए कहीं बेचारी दुखियारी तो कहीं मजाक का साधन बनी है.

हमारे समाज में महिलाओं को उपभोग का साधन बनाने का षड्यंत्र चल रहा है. रोजाना इंटरनैट की अलगअलग साइट्स पर महिलाओं के लिए जोक्स, गंदेगंदे कमैंट लिखे जाते हैं. व्यंग्यकार, लेखक या कवि भी महिलाओं का मजाक उड़ा कर अपना काम चला लेते हैं. जैसे पत्नी या महिलाओं के अलावा दूसरे किसी विषय पर उन्हें हास्य मिलता ही नहीं है.

हास्य तो स्वच्छ समाज की पहचान है. हास्य जरूरी है, पर किसी के दुख या कमी को मजाक बनाया जाए तो दुख होता है. जोक्स सुन कर मात्र हंस लेने के बदले उस का अर्थ सम झने की कोशिश करेंगे तो सचमुच हंसने के बजाय रोना आ जाएगा.

इस स्थिति का एक ही इलाज है. महिलाओं पर बने जोक्स पर कम से कम महिलाओं को तो नहीं ही हंसना चाहिए. अगर महिलाएं इस तरह के मजाक का बहिष्कार करना शुरू कर दें तो इस तरह के जोक्स बंद हो जाएंगे और महिलाओं का सम्मान बढ़ेगा.

विज्ञान और अनुसंधान के मामलों में क्यों पीछे हैं भारतीय महिलाएं

भारत समेत पूरी दुनिया के लिए 2020 बेहद डरावने वर्ष के रूप में गुजर रहा है. अर्थव्यवस्थाएं चरमराई हुई हैं. कोरोना कहर के बीच मौत के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं और इस के साथ ही अपनों के लिए लोगों की चिंता भी बढ़ रही है. वस्तुतः कोविड-19 संकट ने समाज में विज्ञान और शोध की महत्ता साबित की है. विज्ञान हमें इस महामारी से निकलने का एग्जिट प्लान बताएगा जब दुनिया में कोरोना वायरस की वैक्सीन विकसित कर ली जाएगी. मगर तब तक वैज्ञानिक और शोधकर्ता यह पता लगाने में जुटे हुए हैं कि वायरस कहां से आया, कैसे फैला और किस तरह का इलाज इस पर असरदार साबित हो सकता है.

जब भी दुनिया में इस तरह के खतरे आते हैं भले ही वह महामारी हो, भूकंप हो, पर्यावरणीय संकट हो या कुछ और इंसान को विज्ञान का आसरा होता है. दुनिया विज्ञान की राह जाती है पर ज्यादातर भारतीय ऐसे संकट के समय में भी अंधविश्वास की राह पकड़ते हैं. धार्मिक रीतिरिवाजों, अनुष्ठानों और व्रतउपवासों के जरिए संकट दूर करने के उपाय ढूंढते हैं.

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने 2008 में यंग साइंटिस्ट्स कम्युनिटी की शुरुआत की थी. अब 2020 में दुनिया के 14 देशों के कुल 25 यंग वैंज्ञानिकों के चेहरे सामने लाए गए हैं जो अनुसंधानों और खोजों के जरिए विश्व परिदृश्य बदलने का काम करेंगे. आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि इन 25 युवा वैज्ञानिकों में 14 महिलाएं हैं. यानी दुनिया में महिलाएं तेजी से विज्ञान और अनुसंधान के फील्ड में आगे बढ़ रही हैं मगर भारतीय महिलाएं इस दृष्टि से काफी पीछे हैं.

अंधविश्वास और भारतीय महिलाएं

बात करें भारतीय महिलाओं की तो यह जगजाहिर है कि भारतीय महिलाओं को हमेशा से धर्म, पाखंड और अंधविश्वास के लपेटे में बांध कर रखा गया है. उन के बढ़ते कदमों पर हमेशा ही धर्म की पाबंदियां रही हैं. इस सन्दर्भ में क्रिमिनल साइकोलोजिस्ट और सोशल वर्कर अनुजा कपूर कहती हैं कि जरा सोचिए इन पाबंदियों की वजह से क्या महिलाओं ने खुद का अस्तित्व नहीं खोया है ? खुद को रेप, किडनैपिंग या मर्डर का विक्टिम नहीं बनाया है ? शारीरिक, मानसिक और आर्थिक नुकसान नहीं उठाया है ? अंधविश्वास की वजह से ही राम रहीम, चिन्मयानन्द और आसाराम जैसे लोग आगे आए. जिन्होंने महिलाओं के अंधविश्वास की प्रवृत्ति का फायदा उठा कर अपने बैंकबैलेंस बढ़ाए और उन की जिंदगी के साथ खेला.

भारतीय महिलाएं अधिक पढ़ीलिखी नहीं होतीं इसलिए उन का दिमाग ज्यादा खुला हुआ नहीं है. यदि महिला पढ़ीलिखी है तो भी वह जिस समाज में रह रही है वहां उसे अपने दिमाग और ज्ञान का पूरा उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जाती. घर में सासससुर हैं, आसपास अड़ोसीपड़ोसी भी हैं. सब उस से अंधविश्वास मानने की बातें करेंगे. उस के पास न तो इतना वक्त होता है और न पेशेंस कि सब से लड़े और अपनी बात रखे. नतीजा उसे सब की बात माननी पड़ती है.

वैसे भी महिलाएं जल्दी झांसे में आ जाती हैं और इस की वजह उन का इमोशनल होना है. उन्हें बेवकूफ बनाना आसान होता है. भले ही वे पढ़ीलिखी हों तो भी पाखंडबाजी में जल्दी आ जाती हैं. आप देखिए मार्केट महिलाओं के कपड़ों और गहनों से सजा मिलेगा. पुरुषों के सामान काफी कम बिकते हैं. महिलाएं मोस्ट कंपल्सिव बायर्स हैं. इस की वजह है उन के अंदर बड़ी मात्रा में एक्सेप्टैंस की चाह का होना. कहीं न कहीं गहने, जेवर जैसी चीजें खरीद कर और मेकअप करवा कर वे अच्छा दिखना चाहती हैं. उन्हें लगता है कि इस तरह उन्हें एक्सेप्टैंस मिलेगा. वे यह भूल जाती हैं कि यह एक्सेप्टैंस अपने अंदर से आती है. कपड़े, पढ़ाई या फैशन से नहीं. इसी तरह कस्टम और रिचुअल्स निभा कर भी वे समाज में अपनी एक्सेप्टैंस बढ़ाना चाहती हैं. मगर इस का नतीजा बहुत बुरा निकलता है.

भय पैदा करता है अंधविश्वास

हमें समझना होगा कि जिंदगी को बेहतर ढंग से कैसे जीया जाए. अंधविश्वास और उस से उपजे भय से आजादी कैसे पाई जाए. अंधविश्वास ने हमारे समाज में रीतिरिवाजों के तौर पर अपनी जड़ें गहरी जमा रखी हैं. स्त्री बीमार है, उस के शरीर में जान नहीं है, फिर भी उसे भूखा रहना है. उपवास करना पड़ता है. क्योंकि करवाचौथ एक ऐसा रिवाज है जिस के मुताबिक़ महिला अपने मुंह में दिन भर अन्न का एक दाना नहीं डाल सकती. इस रिवाज के पीछे छिपे अंधविश्वास ने लोगों के मन में यह भय भर रखा है कि यदि स्त्री ने उपवास तोड़ा तो उस का सुहाग उजड़ जाएगा. अंधविश्वास का यह भय अक्सर औरतों की जिंदगी पर भारी पड़ता है. जरूरी है कि हम किसी भी रिवाज को दिमाग से समझें. अपनी पढ़ाईलिखाई से प्राप्त किए ज्ञान का भी मनन करें. तभी दिमाग खुलेगा और हमें इस भय से मुक्ति मिलेगी.

इसी तरह किसी भी समस्या का प्रैक्टिकल सॉल्यूशन खोजा जाए. परिवार की खुशी के लिए कुछ कल्चरल कस्टम निभाएं. मगर इन से जुड़े भय को मन में बैठने मत दीजिये. खुद पर विश्वास पैदा करने के लिए प्रयास करें. नए रास्ते तलाशें. ऐसी कोई समस्या नहीं जिस का समाधान उपलब्ध न हो. दिल के झांसे में न आएं. दिल हमें अंधविश्वास मानने को प्रेरित करता है. जबकि दिमाग सही रास्ता दिखाता है. खोज करने और रास्ता ढूंढने का मार्ग बताता है. दिमाग ही दिल को हरा सकता है. जो सही लगे समाज की उन्हीं बातों को मानें. उदाहरण के लिए कोविड-19 को ही लें. जरुरी है कि इस समय सकारात्मक सोच रखी जाए. एहतियात बरती जाए. मगर इस के पीछे पागल न हो जाएं. विल पावर से रिकवरी आसान हो जाती है. खुद पर विश्वास होना चाहिए अंधविश्वास नहीं.

भेड़चाल है अंधविश्वास

अनुजा कपूर कहती हैं कि हम डेमोक्रेटिक समाज में रहते हैं और हर किसी को अपने मन की बात बोलने का हक है. लोग अपने इस हक का फायदा उठाते हैं और बोलते हैं. मगर यह नहीं सोचते कि यह बात रिसर्च बेस्ड है भी या नहीं. हम अपनी बात स्टीरियोटाइप कर देते हैं. यह कहना भूल जाते हैं कि यह साइंटिफिक बातें नहीं वरन हमारी सोच है या दूसरे लोगों से सुनीसुनाई बात है. हम चाहते हैं कि लोग हमें सुनें और ज्ञानी समझें. यही हाल हमारे समाज और राजनीति का भी है. आज आधे से ज्यादा वैसे लोग देश चला रहे हैं जो पढ़ेलिखे नहीं हैं.

वैसे सोचने वाली बात यह भी है कि आखिर पढ़ाई हमें कितना समझदार बना पाती है. हम पढ़ कर ज्ञान ले तो लेते हैं पर तब तक उस की कोई अहमियत नहीं जब तक हम उसे सही अर्थों में ग्रहण न कर लें. उसे दिल से स्वीकार न कर लें. ज्ञान हमारी आँखें न खोल दें और जीवन में विकट परिस्थितियां आने पर हम उस ज्ञान का प्रयोग न करें. जबकि होता यह है कि हम ज्ञान इसलिए लेते हैं ताकि समाज हमें स्वीकार करे. हम 10 लोगों के बीच खुद को अलगथलग महसूस न करें. इसलिए अपना दिमाग बंद कर हम भी भेड़चाल में चलने लगते हैं.

रिस्क उठाना नहीं चाहते

लोग रिस्क फैक्टर्स उठाना नहीं चाहते. वे खतरा मोल लेने से डरते हैं. जाहिर है कि जहां आशंका है वहां अंधविश्वास होता है. पढ़ेलिखे होने पर भी आप अंधविश्वासी हो सकते हैं क्योंकि आप ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ लोग अंधविश्वासी हैं. वे आप को भी अंधविश्वासी बनाने के प्रयास में रहते हैं. आप बीमार हैं, बच्चा नहीं हो रहा है या पति के साथ झगड़े चल रहे हैं तो लोगों की सलाहें मिलनी शुरू हो जाती है,’ उस बाबा के पास जाओ और झाड़फूंक करवाओ.’ ‘सोलह सोमवार का व्रत करो.’ ‘मंदिर में 51,000 का चढ़ावा चढ़ाओ, अनुष्ठान करवाओ.’ आदि. लोगों के पास हजारों कहानियां होती हैं सुनाने के लिए कि कहां और कैसे समस्या का समाधान हुआ या कृपा बरसी.

जरूरी है कि हम यह समझें कि शिक्षित हों तो अपने लिए हों. केवल बिजनेस चलाने या पैसे कमाने के लिए नहीं. शिक्षा का असर हमारी सोच और व्यवहार में भी दिखे. महिलाएं खुद को एमपावर करें पर केवल दिखावे के लिए नहीं. अंधविश्वासी होना आप के व्यक्तित्व को या परिवार को नुकसान पहुंचा रहा है तो यह गलत है. अपने ज्ञान का उपयोग करें. आंखें बंद कर पाखंडबाजी और झाड़फूंक पर विश्वास करना निंदनीय है. अंधविश्वासी व्यक्ति वास्तव में पैरानॉइड पर्सनैलिटी हो जाता है जो सिर्फ एक ही चीज पर विश्वास करने लगता है. ऐसा बनने से बचें.

बाबाओं के पाखंडों की असलियत पहचानें. लोगों से बातें करें. गूगल का सहयोग ले. नई खोज करें और अपनी समस्या से बचने का उपाय निकालें. हमारे पास कोविड जैसी समस्याओं से निबटने को बहुत से रास्ते हैं. आज भारत में भी कुछ महिलाएं हैं जो इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं.

भारत की ये 5 महिलाएं (डॉक्टर, आईएएस, वैज्ञानिक) जो कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रही हैं और सप्ताह के सातों दिन चौबीसों घंटे काम कर रही हैं ताकि हम इस लड़ाई में जीत सकें ———

प्रीति सुदान

आंध्र प्रदेश कैडर के 1983 बैच की आईएएस अधिकारी सुदान को आमतौर पर देर रात को अपने कार्यालय से बाहर निकलते देखा जाता है. वह स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की सचिव हैं जो बीमारी के प्रसार को रोकने के लिए सरकार की नीतियों को लागू करने के लिए सभी विभागों के साथ समन्वय करने का काम कर रही हैं. वह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के साथ तैयारियों की नियमित समीक्षा में भी शामिल है.

डॉ निवेदिता गुप्ता

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ निवेदिता गुप्ता देश के लिए उपचार और परीक्षण प्रोटोकॉल तैयार करने में व्यस्त हैं.

रेणु स्वरूप

स्वरूप पिछले 30 वर्षों से विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) में काम कर रही हैं. अप्रैल 2018 तक उन को वैज्ञानिक ’एच’ का पद मिला हुआ था जो एक अच्छे वैज्ञानिक को दर्शाता है. उस के बाद उन्हें सेक्रेटरी के रूप में नियुक्त किया गया था. वह अब कोरोनोवायरस वैक्सीन विकसित करने के शोध में शामिल है.

प्रिया अब्राहम

प्रिया अब्राहम अभी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) पुणे का नेतृत्व रही हैं – जो कि आईसीएमआर से संबद्ध है. एनआईवी शुरुआत में कोविड-19 के लिए देश का एकमात्र परीक्षण केंद्र था.

बीला राजेश

तमिलनाडु के स्वास्थ्य सचिव के रूप में राजेश अपने राज्य में चुनौती से निपटने में सब से आगे रहीं. उन्होंने हाल ही में पोस्ट किया था कि वायरस किसी को भी प्रभावित कर सकता है, चलो एक दूसरे के प्रति संवेदनशील रहें और कोविड-19 के खिलाफ एक समन्वित लड़ाई छेड़ें. वैसे तमिलनाडु सरकार ने हाल ही में डॉ. बीला राजेश को राज्य के स्वास्थ्य सचिव के पद से हटा कर वाणिज्य कर और पंजीकर विभाग का सचिव बना दिया है.

‘‘समाज स्वीकारे न स्वीकारे कोई फर्क नहीं पड़ता- मानोबी बंधोपाध्याय

मानोबी बंधोपाध्याय

पहली ट्रांसजैंडर प्रिंसिपल

घर में बच्चे का जन्म हो, शादी हो या कोई और खुशी का उत्सव, उन का आना स्वाभाविक है. उन्हें बुलाना नहीं पड़ता, अपनेअपने इलाके की खबर रखते हैं, इसलिए तुरंत ही पहुंच जाते हैं. उन के आने  से समाज थोड़ा असहज महसूस करता है. न जाने कितनी आशंकाएं मन को घेर लेती हैं कि न जाने क्या हो. उन से अभद्र व्यवहार की ही उम्मीद की जाती है, क्योंकि उन्हें इसी तरह के खाके में सदियों से रखा गया है. लेकिन वे खुशी से तालियां बजाते आते हैं, नाचगा कर बधाइयां देते हैं और बख्शीश जिसे वे अपना हक समझते हैं, ले कर आशीषें दे कर चले जाते हैं. फिर भी समाज उन्हें अपने से अलग, अपनी सामाजिक व्यवस्था से अलग मानता है. उन्हें हिजड़ा, किन्नर कह कर उन का मजाक उड़ाया जाता है. रास्ते में जब वे भीख मांगते दिखते हैं तो गाड़ी का शीशा चढ़ा लिया जाता है.

मानोबी ने तोड़ा मिथक

पश्चिम बंगाल के नाडिया जिले के कृष्णानगर वूमंस कालेज की प्रिंसिपल मानोबी बंधोपाध्याय आज किसी परिचय की मुहताज नहीं हैं. ‘अ गिफ्ट औफ गौडस लक्ष्मी’ की लेखिका मानोबी बंधोपाध्याय की यात्रा सोमनाथ से मानोबी बनने की ही नहीं है. उन की कहानी संघर्षों और चुनौतियों से लड़ने और उन्हें परास्त करने की भी है, स्त्री मन में पुरुष देह की भी है.

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मानोबी कहती हैं, ‘‘अगर मैं ने अपनी जीवनयात्रा के बारे में बताना शुरू किया तो वह वेद बन जाएगा, उपनिषद् बन जाएगा यानी इतनी लंबी है मेरी जीवनयात्रा. वैसे जैसे ट्रांसजैंडर होते हैं वैसी ही है मेरी जीवनयात्रा. फर्क इतना है कि आज मैं उच्च शिक्षित हूं और कालेज की प्रिंसिपल बन गई हूं. आज मेरे पास ताकत है. शिक्षा की वजह से मेरे जीवन में अंतर आया है, पर हम ट्रांसजैंडर हैं, यह बात समाज हमें कभी भूलने नहीं देता है.’’

संघर्ष की करुण कहानी

मानोबी से जब उन के संघर्ष की बात की तो उन की आंखें नम हो गईं. उन का कहना है, ‘‘इतना संघर्ष किया कि मेरा दुख एक पहाड़ के समान है. मैं ने इतने आंसू बहाए हैं कि एक समुद्र बन जाए. लेकिन उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. कभी विचार नहीं किया कि समाज मुझे किस ढंग से देखता है, मेरे बारे में क्या सोचता है. मेरे लिए महत्त्व की बात है कि मैं कैसे समाज को देखती हूं. लोगों के व्यवहार की चिंता नहीं करती, केवल अपने भीतर झांक कर देखती हूं.’’

प्रिंसिपल बनने के बाद भी हालांकि स्वीकृति की मुहर नहीं लगी है उन की पहचान पर. पर उन्हें इस बात की खुशी है कि उन के छात्र उन से बहुत प्यार करते हैं. वे मानती हैं कि छात्र बहुत मासूम होते हैं, पर टीचर उन्हें उन के खिलाफ भड़काते रहते हैं.

ऐक्सैप्टैंस की परिभाषा क्या है? सवाल के जवाब में वे कहती हैं कि सब बेकार की बातें हैं, इसलिए किसी की स्वीकृति की मुहर उन्हें उन पर नहीं लगानी है. वे मानती हैं कि वे केवल अपना काम कर रही हैं, सरकार ने उन्हें एक ओहदा दिया है और वे उस का सम्मान करती हैं.

केवल अध्यापन ही नहीं मानोबी एक अच्छी कवयित्री भी हैं और कविताओं के माध्यम से केवल उन का वह दर्द ही बाहर निकलता है, जिस से वे गुजरी हैं. एक दर्दभरा काफिला है उन की जिंदगी, उन की इंग्लिश में एक कविता है. वैसे वे बंगला भाषा में ज्यादा लिखती हैं:

व्हेन आई सी द स्काई

आई सा देयर इन नो जैंडर

व्हेन आई सी द नेचर

व्हेन आई सी द वर्ड

व्हेन आई सी द रिवर

आई सा देयर इज नो जैंडर

व्हेन आई कम बैक टु मेनस्ट्रीम सोसायटी औफ ह्यूमन

देन, समवन आस्कड मी

यू आर ए मैन और वूमन.

मानोबी कहती हैं कि 2003-2004 में जब उन्होंने सैक्स चेंज औपरेशन कराने का फैसला लिया तो भी बहुत हंगामा हुआ था. इस दौरान उन्हें कई औपरेशन कराने पड़े और क्व5 लाख खर्च करने पड़े. सर्जरी के बाद से वे मानती हैं पूरी तरह से स्वतंत्र हो गई हैं. जो चाहती हैं, पहनती हैं. अब वे साड़ी भी पहन लेती हैं और महिलाओं की तरह सजसंवर भी लेती हैं.

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मानोबी का एक ग्रुप थिएटर भी है, जिस में वे अभिनय करती हैं. इस के अलावा वे स्क्रिप्ट भी लिखती हैं और शास्त्रीय नृत्य में भी पारंगत हैं. उन का कहना है कि अध्यापन, नाटक, अभिनय, लेखन सभी एकदूसरे से जुड़े हुए हैं और ये सब उन्हें हिम्मत और रस देते हैं. निजी क्षेत्रों ने ट्रांसजैंडर्स के लिए अपने दरवाजे नहीं खोले हैं. इस के बावजूद इस समुदाय ने अपनी मेहनत और दृढ़ इच्छाशक्ति से नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है. यह अलग बात है कि इन में से बहुतों को अपनी पहचान छिपानी पड़ती है ताकि कार्यस्थल पर उन के साथ भेदभाव न हो.

पहली ट्रांसजैंडर कालेज प्रिंसिपल बनने के बाद वे चाहती हैं कि शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा ट्रांसजैंडरों तक पहुंचाए, क्योंकि इस अधिकार से वे अकसर वंचित रह जाते हैं जबकि शिक्षा ही उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने की अहम कड़ी है.

महिलाओं के लिए बातें बहुत और नौकरियां होती हैं कम

मेकिंसे ग्लोबल इंस्टीट्यूट का एक अध्ययन बताता है कि अगर भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं को पुरुषों के बराबर की भागीदारी दी जाए तो साल 2025 तक देश के सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं के श्रम की भूमिका 60 फीसदी तक हो सकती है. गौरतलब है कि साल 2011 की जनगणना के मुताबिक सवा अरब से ज्यादा की आबादी में महिलाओं की तादाद 60 करोड़ है. लेकिन हैरानी की बात यह है कि देश के 55 करोड़ की श्रमशक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी महज 5 करोड़ कामगारों की है.

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज भी हिंदुस्तान में नौकरियों के क्षेत्र में महिलाओं के साथ किस तरह का भेदभाव किया जाता है. दो साल पहले संयुक्त राष्ट्र द्वारा किये गये 188 देशों के महिला श्रमिकों के एक अध्ययन में भारत का स्थान 170वां आया था यानी हम 188 देशों में से नीचे से ऊपर की तरफ 18वें स्थान पर थे. हमसे 17 देश ही ऐसे थे, जहां महिला कामगारों की तादाद प्रतिशत में हमारे यहां से भी कम थी. लेकिन इनमें से कोई भी ऐसा देश नहीं था, जो भारत का एक चैथाई भी हो, अर्थव्यवस्था तो छोड़िये किसी भी मामले में.

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इससे पता चलता है कि भारत में महिलाओं को या तो नौकरियां मिल नहीं रही हैं या आज भी भारतीय समाज उन्हें नौकरी कराने से हिचकता है. तमाम अध्ययन और विशेषज्ञ बार-बार कहते हैं कि अगर अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बराबरी की हो जाती है तो कोई भी अर्थव्यवस्था कहीं ज्यादा मजबूत हो जाती है. भारत के संबंध में तो तमाम विश्व संगठन लगातार कह रहे हैं कि अगर भारत को वाकई आर्थिक महाशक्ति बनना है तो महिलाओं को बड़ी भूमिका देना होगा. लेकिन हाल के सालों में काफी उलट पुलट स्थितियां देखने को मिली हैं. यह तो तय है कि दक्षिण एशिया में अकेला भारत ही नहीं पाकिस्तान भी उन देशों में शामिल हैं, जहां महिलाओं को बड़ी आर्थिक भागीदारी नहीं दी गई.

हद तो यह है कि भारत में नेपाल, वियतनाम और कंबोडिया जैसे छोटे देशों से भी प्रतिशत में कम महिलाएं श्रम में भागीदारी निभा रही हैं. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के 185देशों में हाल के सालों में जहां महिला कामगारों की संख्या बढ़ी है, वहीं 41 देशों में यह कम हुई है और जिन देशों में कम हुई है उनमें भारत सबसे ऊपर है. आखिर क्या वजह है कि भारत में नौकरियों के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या घट रही है? हाल के सालों में जब भारत पूरी दुनिया के विकास के इंजन के रूप में चीन के साथ आगे बढ़कर आया है, उस स्थिति में भारत में महिलाओं की श्रम में भागीदारी की कमी का पहलू क्या है?

इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि हाल के सालों में भारतीय पुरुषों की औसत आय में काफी वृद्धि हुई है जिससे घरों में महिलाओं को खासकर खेतों और निर्माण के क्षेत्र में काम कराने से रोका गया है. देखा जाए तो यह एक सकारात्मक पक्ष है क्योंकि भारत में असंगठित मजदूरों के लिए काम की परिस्थितियां बेहद अमानवीय होती हैं, चाहे फिर वे महिलाएं ही क्यों न हो या बाल श्रमिक ही क्यों न हों? पिछले एक दशक में भारतीय पुरुषों की आय में हुई बढ़ोत्तरी के कारण महिलाओं को घर की देखरेख में ज्यादा फोकस करने के लिए प्रेरित किया गया है. हालांकि यहीं पर एक विरोधाभासी आंकड़ा यह भी है कि मनरेगा जैसे रोजनदारी वाले काम के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या न सिर्फ बढ़ी है बल्कि मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी से ग्रामीण क्षेत्र में बेहद गरीब लोगों की सामाजिक स्थिति में काफी सुधार आया है.

इस सुधार के पीछे महिलाओं की आय का बड़ा योगदान है. चूंकि मनरेगा में मजदूरों को नकद और त्वरित भुगतान किया जाता है, इस वजह से मनरेगा की आय ने देश के सबसे कमजोर तबकों में दिखने वाला सुधार किया है. लेकिन जहां यह बात समझ में आती है कि पारिवारिक आय में हुई बढ़ोत्तरी के कारण महिलाओं को भारी, जटिल और कठिन श्रम क्षेत्रों से काफी हद तक मुक्ति मिली है, जो उनकी सेहत और सुरक्षा के लिहाज से अच्छी बात है. लेकिन संगठित क्षेत्र में जहां श्रम की स्थितियां कठिन या अमनावीय नहीं हैं, वहां महिलाओं की भागीदारी में कमी क्यों आयी है? इस कमी के दो कारण हंै, एक कारण में महिलाएं खुद जिम्मेदार हैं और दूसरे कारण में अप्रत्यक्ष रूप से इम्प्लायर ही महिलाओं की भागीदारी को हतोत्साहित करता है.

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दरअसल हमारे यहां महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कानून कितने भी बन गये हांे, लेकिन आज भी महिलाएं न सिर्फ कार्यस्थल पर बल्कि कार्यस्थल से घर तक की दूरी में भी काफी ज्यादा असुरक्षित हैं. प्राइवेट नौकरियों में जिन कामगारों की सबसे ज्यादा तनख्वाहें इम्प्लाॅयर द्वारा मारी जाती हैं, उनमें महिलाओं की संख्या 90 फीसदी होती है. अगर किसी कंपनी के बंद होने की स्थिति बनती है तो सबसे पहले महिलाओं के आर्थिक हितों का नुकसान होता है. इसका मनोविज्ञान यह है कि आज भी भारतीय समाज में यह माना जाता है कि महिलाओं को आसानी से दबाया जा सकता है, फिर चाहे वो कामगार ही क्यों न हों? लेकिन तमाम खामियां अपनी जगह है. मगर यदि भारत को वाकई आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरकर आना है, तो महिलाओं के साथ आर्थिक भागीदारी के मामले में होने वाले भेदभाव को जल्द से जल्द खत्म करना होगा.

घटक रिश्ते की डोर

28लेखक- सुरेशचंद्र मिश्र 

कानपुर जनपद के टिक्कन-पुरवा के रहने वाले पुत्तीलाल मौर्या की बेटी कोमल शाम को नित्य क्रिया जाने की बात कह कर घर से निकली थी, लेकिन जब वह रात 8 बजे तक घर लौट कर नहीं आई तो घर वालों को चिंता  हुई. उस का फोन भी बंद था. इसलिए यह भी पता नहीं चल पा रहा था कि वह कहां है.

पुत्तीलाल की पत्नी शिवदेवी ने बेटी को इधरउधर ढूंढा लेकन वह नहीं मिली. इस के बाद पुत्तीलाल भी उसे तलाशने के लिए निकल गया. पर उस को पता नहीं लगा. पुत्तीलाल का घबराना लाजिमी था. अचानक आई इस आफत से उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. बेचैनी से शिवदेवी का हलक सूखने लगा तो वह पति से बोली, ‘‘कोमल हमारी इज्जत पर दाग लगा कर कहीं प्रमोद के साथ तो नहीं भाग गई?’’

‘‘कैसी बातें करती हो, शुभशुभ बोलो. फिर भी तुम्हें शंका है तो चल कर देख लेते हैं.’’

इस के बाद पुत्तीलाल अपनी पत्नी के साथ प्रमोद के पिता रामसिंह मौर्या के घर जा पहुंचे. जो पास में ही रहता था. वैसे रामसिंह रिश्ते में पुत्तीलाल का साढ़ू था. उस समय रात के 10 बज रहे थे. रामसिंह पड़ोस के लोगों के साथ अपने चबूतरे पर बैठा था. पुत्तीलाल को देखा तो उस ने पूछा, ‘‘पुत्तीलाल, इतनी रात गए पत्नी के साथ. सब कुशलमंगल तो है.’’

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‘‘कुछ भी ठीक नहीं है भैया. कोमल शाम से गायब है. उस का कुछ पता नहीं चल रहा. मैं आप से यह जानकारी करने आया हूं कि प्रमोद घर पर है या नहीं?’’ पुत्तीलाल बोला.

‘‘प्रमोद भी घर पर नहीं है. उस का फोन भी बंद है. शाम 7 बजे वह पान मसाला लेने जाने की बात कह कर घर से निकला था. तब से वह घर वापस नहीं आया. इस का मतलब प्रमोद और कोमल साथ हैं.’’ रामसिंह ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘हां, भैया मुझे भी ऐसा ही लगता है. उन्हें अब ढूंढो. कहीं ऐसा न हो कि दोनों कोई ऊंचनीच कदम उठा लें, जिस से हम दोनों की बदनामी हो.’’ इस के बाद दोनों मिल कर प्रमोद और कोमल को खोजने लगे. उन्होंने बस अड्डा, रेलवे स्टेशन के अलावा हर संभावित जगह पर दोनों को ढूंढा. लेकिन उन का कुछ भी पता नहीं चला. यह बात 27 मार्च, 2019 की है.

28 मार्च, 2019 की सुबह गांव की कुछ महिलाएं जंगल की तरफ गईं तो उन्होंने गांव के बाहर शीशम के पेड़ से फंदा से लटके 2 शव देखे. यह देख कर महिलाएं भाग कर घर आईं और यह बात लोगों को बता दी. इस के बाद तो टिक्कनपुरवा गांव में कोहराम मच गया. जिस ने सुना, वही शीशम के पेड़ की ओर दौड़ पड़ा. सूरज की पौ फटतेफटते वहां सैकड़ों की भीड़ जुट गई. पेड़ से लटकी लाशें कोमल और प्रमोद की थीं.

चूंकि कोमल और प्रमोद बीतीरात से घर से गायब थे. अत: दोनों के परिजन भी घटनास्थल पर पहुंच गए. पेड़ से लटके अपने बच्चों के शवों को देखते ही वे दहाड़ें मार कर रो पड़े. कोमल की मां शिवदेवी तथा प्रमोद की मां मंजू रोतेबिलखते अर्धमूर्छित हो गईं.

घटनास्थल पर प्रमोद का भाई पंकज भी मौजूद था. वह सुबक तो रहा था, लेकिन यह भी देख रहा था कि दोनों मृतकों के पैर जमीन छू रहे हैं. वह हैरान था कि जब पैर जमीन छू रहे हैं तो उन की मौत भला कैसे हो गई.

उसे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रमोद को कोमल के घर वालों ने मार कर पेड़ से लटका दिया है. पंकज ने यह बात अपने घर वालों को बताई तो उन्हें पंकज की बात सच लगी. इस से घर वालों में उत्तेजना फैल गई. गांव के लोग भी खुसरफुसर करने लगे.

इसी बीच किसी ने बिठूर थाने में फोन कर के पेड़ से 2 शव लटके होने की जानकारी दे दी. सूचना पाते ही बिठूर थानाप्रभारी सुधीर कुमार पवार कुछ पुलिसकर्मियों के साथ घटनास्थल की तरफ रवाना हो गए. पवार ने घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण किया.

उन्होंने देखा कि प्लास्टिक के मजबूत फीते को पेड़ की डाल में लपेटा गया था फिर उस फीते के एकएक सिरे को गले में बांध कर दोनों फांसी पर झूल गए थे.

लेकिन उन के पैर जमीन को छू रहे थे. उन के होंठ भी काले पड़ गए थे. कोमल के पैरों में चप्पलें थीं, जबकि प्रमोद के पैर की एक चप्पल जमीन पर पड़ी थी. घटनास्थल पर बालों में लगाने वाली डाई का पैकेट, एक ब्लेड तथा मोबाइल पड़ा था. इन सभी चीजों को पुलिस ने जाब्ते की काररवाई में शामिल कर लिया.

सुधीर कुमार ने फोरैंसिक टीम को मौके पर बुलाए बिना दोनों शवों को चादर में लपेट कर मंधनाबिठूर मार्ग पर रखवा दिया और शवों को पोस्टमार्टम के लिए भेजने हेतु लोडर मंगवा लिया.

मृतक प्रमोद के भाई पंकज व अन्य लोगों ने आरोप लगाया कि यह आत्महत्या का नहीं बल्कि हत्या का मामला है. इसलिए मृतक के भाई पंकज ने हत्या का आरोप लगा कर थानाप्रभारी सुधीर कुमार पवार से कहा कि वे मौके पर फोरैंसिक व डौग स्क्वायड टीम को बुलाएं. लेकिन पंकज की बात सुन कर थानाप्रभारी सुधीर कुमार की त्योरी चढ़ गईं. उन्होंने पंकज और उस के घर वालों को डांट दिया.

थानाप्रभारी की इस बदसलूकी से मृतक के परिजन व ग्रामीण भड़क उठे और पुलिस से उलझ गए. उन्होंने पुलिस से दोनों शव छीन लिए और पथराव कर लोडर को भी क्षतिग्रस्त कर दिया.

इतना ही नहीं, ग्रामीणों ने मंधनाबिठूर मार्ग पर जाम लगा दिया और हंगामा करने लगे. उन्होंने मांग रखी कि जब तक क्षेत्रीय विधायक व पुलिस अधिकारी घटनास्थल पर नहीं आ जाते तब तक शवों को नहीं उठने नहीं देंगे.

आक्रोशित ग्रामीणों को देख कर थानाप्रभारी पवार ने पुलिस अधिकारियों तथा क्षेत्रीय विधायक को सूचना दे दी. सूचना पाते ही एडिशनल एसपी (पश्चिम) संजीव सुमन तथा सीओ (कल्याणपुर) अजय कुमार घटनास्थल पर आ गए. तनाव को देखते हुए उन्होंने आधा दरजन थानों की फोर्स बुला ली.

सीओ अजय कुमार ने मृतक प्रमोद के भाई पंकज से बात की. पंकज ने हाथ जोड़ कर फोरैंसिक टीम व डौग स्क्वायड टीम को घटनास्थल पर बुलाने की विनती की ताकि वहां से कुछ सबूत बरामद हो सकें. इस के अलावा उस ने थानाप्रभारी द्वारा की गई बदसलूकी की भी शिकायत की.

इसी बीच क्षेत्रीय विधायक अभिजीत सिंह सांगा भी वहां आ गए. उन के आते ही ग्रामीणों में जोश भर गया और वह पुलिस विरोधी नारे लगाने लगे. विधायक के समक्ष उन्होंने मांग रखी कि बदसलूकी करने वाले थानाप्रभारी पवार को तत्काल थाने से हटाया जाए तथा मौके पर फोरैंसिक टीम को बुला कर जांच कराई जाए.

अभिजीत सिंह सांगा बिठूर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के चर्चित विधायक हैं. उन्होंने ग्रामीणों को समझाया और उन की मांगें पूरी करवाने का आश्वासन दिया तो लोग शांत हुए.

इस के बाद उन्होंने धरनाप्रदर्शन बंद कर जाम खोलवा दिया. तभी सीओ अजय कुमार ने फोरैंसिक टीम तथा डौग स्क्वायड टीम को बुलवा लिया. यही नहीं उन्होंने आननफानन में जरूरी काररवाई करा कर दोनों शवों को पोस्टमार्टम के लिए हैलट अस्पताल भिजवा दिया.

फोरैंसिक टीम ने एक घंटे तक घटनास्थल पर जांच कर के साक्ष्य जुटाए. वहीं डौग स्क्वायड ने भी खानापूर्ति की. खोजी कुत्ता कुछ देर तक घटनास्थल के आसपास घूमता रहा फिर पास ही बह रहे नाले तक गया. वहां टीम को एक चप्पल मिली. यह चप्पल मृतक प्रमोद की थी. उस की एक चप्पल पुलिस घटनास्थल से पहले ही बरामद कर चुकी थी.

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एडिशनल एसपी (पश्चिम) संजीव सुमन ने बवाल की आशंका को देखते हुए टिक्कनपुरवा  गांव में भारी मात्रा में पुलिस फोर्स तैनात कर दी थी. इतना ही नहीं पोस्टमार्टम हाउस पर भी पुलिस तैनात कर दी. प्रमोद व कोमल के शव का पोस्टमार्टम डाक्टरों के एक पैनल ने किया.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बताया गया कि उन की मौत हैंगिंग से हुई थी. रिपोर्ट में डाई पीने की पुष्टि नहीं हुई. पोस्टमार्टम के बाद कोमल व प्रमोद के शव उन के परिजनों को सौंप दिए गए. परिजनों ने अलगअलग स्थान पर उन का अंतिम संस्कार कर दिया.

प्रमोद और कोमल कौन थे और उन्होंने एक साथ आत्महत्या क्यों की, यह जानने के लिए हमें उन के अतीत में जाना होगा.

उत्तर प्रदेश के कानपुर महानगर से 25 किलोमीटर दूर एक धार्मिक कस्बा है बिठूर. टिक्कनपुरवा इसी कस्बे से सटा हुआ गांव है. यह बिठूर मंधना मार्ग पर स्थित है. इसी गांव में पुत्तीलाल मौर्या अपने परिवार के साथ रहता था. उस के परिवार में पत्नी शिवदेवी के अलावा 4 बेटियां थीं. इन में कोमल सब से बड़ी थी. पुत्तीलाल खेतीबाड़ी कर के अपने परिवार का भरण पोषण करता था.

टिक्कनपुरवा गांव में ही शिवदेवी की चचेरी बहन मंजू ब्याही थी. मंजू का पति रामसिंह मौर्या दबंग किसान था. उस के पास खेती की काफी जमीन थी. रामसिंह के 2 बेटे प्रमोद व पंकज के अलावा एक बेटी थी. प्रमोद पढ़ालिखा था. वह कल्याणपुर स्थित एक बिल्डर्स के यहां बतौर सुपरवाइजर नौकरी करता था. जबकि पंकज कास्मेटिक सामान की फेरी लगाता था.

चूंकि रामसिंह व पुत्तीलाल के बीच नजदीकी रिश्ता था. अत: दोनों परिवारों में खूब पटती थी. उनके बच्चों का भी एक दूसरे के घर बेरोकटोक आना जाना था. जरूरत पड़ने पर दोनों परिवार एक दूसरे के सुखदुख में भी भागीदार बनते थे. पुत्तीलाल को जब भी आर्थिक संकट आता था, रामसिंह उस की मदद कर देता था.

कोमल ने आठवीं पास करने के बाद सिलाई सीख ली थी. वह घर में ही सिलाई का काम करने लगी थी. 18 साल की कोमल अब समझदार हो चुकी थी. वह घर के कामों में मां का हाथ भी बंटाती थी. प्रमोद अकसर अपनी मौसी शिवदेवी के घर आता रहता था. कोमल से उस की खूब पटती थी, क्योंकि दोनों हमउम्र थे. बचपन से दोनों साथ खेले थे, इसलिए एकदूसरे से खूब घुलेमिले हुए थे.

दोनों भाईबहन जरूर थे लेकिन वह जिस उम्र से गुजर रहे थे, उस उम्र में यदि संयम और समझदारी से काम न लिया जाए तो रिश्तों को कलंकित होने में देर नहीं लगती. कह सकते हैं कि अब प्रमोद का कोमल को देखने का नजरिया बदल गया था. वह उसे चाहने लगा था.

लेकिन जब उसे अपने रिश्ते का ध्यान आता तो वह मन को निंयत्रित करने की कोशिश करता. प्रमोद ने बहुत कोशिश की कि वह रिश्ते की मर्यादा बनाए रखे लेकिन दिल के मामले में उस का वश नहीं चला. वह कोशिश कर के हार गया, क्योंकि वह कोमल को चाहने लगा था.

दरअसल, कोमल के दीदार से उस के दिल को सुकून मिलता था और आंखों को ठंडक. दिन में जब तक वह 1-2 बार कोमल से मिल नहीं लेता, बेचैन सा रहता था. वह चाहता था कि कोमल हर वक्त उस के साथ रहे. लेकिन कोमल का साथ पाने की उस की इच्छा पूरी नहीं हो सकती थी.

काफी सोचविचार के बाद प्रमोद ने फैसला किया कि वह कोमल से अपने दिल की बात जरूर कहेगा. कोमल की वजह से प्रमोद अकसर मौसी के घर पड़ा रहता था. बराबर उस के संपर्क में रहने के कारण कोमल भी उस के आकर्षणपाश में बंध गई थी.

एक दिन कोमल अपने कमरे मे बैठी सिलाई कर रही थी कि तभी प्रमोद आ गया. वह मन में ठान कर आया था कि कोमल से अपने दिल की बात जरूर कहेगा. वह उस के पास बैठते हुए बोला, ‘‘कोमल, आज मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कहना चाहते हो बताओ?’’ कोमल ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘मुझे डर है कि तुम मेरी बात सुन कर नाराज न हो जाओ.’’ प्रमोद बोला.

‘‘पता तो चले, ऐसी क्या बात है, जिसे कहने से तुम इतना डर रहे हो.’’

‘‘कोमल, बात दरअसल यह है कि मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. क्या तुम मेरे प्यार को स्वीकार करोगी?’’ प्रमोद ने कोमल का हाथ अपने हाथ में लेकर एक ही झटके में बोल दिया.

‘‘क्या…?’’ सुन कर कोमल चौंक पड़ी, उसे एकाएक अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ.

‘‘हां कोमल, मैं सही कह रहा हूं. मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘प्रमोद तुम ये कैसी बातें कर रहे हो? तुम अच्छी तरह जानते हो कि हमारे बीच भाईबहन का रिश्ता है.’’

‘‘कोमल, मैं ने कभी भी तुम्हें बहन की नजर से नहीं देखा. मुझे अपने प्यार की भीख दे दो. मैं तुम्हारे लिए पूरी दुनिया से लड़ जाऊंगा.’’ उस ने मिन्नत की.

‘‘हम घर परिवार व समाज की नजर में भाईबहन हैं. जब लोगों को पता चलेगा तो जानते हो क्या होगा? तुम किसकिस से लड़ोगे?’’

‘‘मुझे किसी की फिक्र नहीं है.  बस, तुम मेरा साथ दो. तुम इस बारे में ठंडे दिमाग से सोच लो. कल सुबह मुझे कंपनी के काम से लखनऊ जाना है. शाम तक लौट आऊंगा. तब तक तुम सोच लेना और मुझे जवाब दे देना.’’ कह कर प्रमोद कमरे से बाहर चला गया.

रात को खाना खाने के बाद कोमल जब बिस्तर पर लेटी तो नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. उस के कानों में प्रमोद के शब्द गूंज रहे थे. उसने अपने दिल में झांकने की कोशिश की तो उसे लगा कि वह भी जाने अनजाने में प्रमोद से प्यार करती है. लेकिन भाईबहन के रिश्ते के डर से प्यार का इजहार नहीं कर पा रही है.

उस ने सोचा कि जब प्रमोद प्यार की बात कर रहा है तो उसे भी पीछे नहीं हटना चाहिए. जिंदगी में सच्चा प्यार हर किसी को नहीं मिलता. ऐसे में वह प्रमोद के प्यार को क्यों ठुकराए? काफी सोचविचार कर उस ने आखिर फैसला ले ही लिया.

अगले दिन सुबह कोमल के लिए कुछ अलग ही थी. वह प्रमोद के प्यार में डूबी हुई, खोईखोई सी थी. लेकिन घर में किसी को भनक तक नहीं लगी कि उस के दिमाग में क्या चल रहा है. अब वह प्रमोद के लौटने का बेसब्री से इंतजार करने लगी. प्रमोद रात को लगभग 8 बजे घर लौटा और घर के लोगों से मिल कर सीधा कोमल के कमरे में पहुंच गया. उस ने आते ही कोमल से पूछा, ‘‘कोमल, जल्दी बताओ तुम ने क्या फैसला लिया?’’

‘‘प्रमोद, मैं ने रात भर काफी सोचा और फैसला लिया कि…’’ कोमल ने अपनी बात बीच में ही रोक दी.

यह देख प्रमोद के दिल की धड़कनें तेज हो गईं. वह उत्सुकतावश कोमल का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘बोलो कोमल, मेरी जिंदगी तुम्हारे फैसले पर टिकी है. तुम्हारे इस तरह चुप हो जाने से मेरा दिल बैठा जा रहा है.’’

प्रमोद की हालत देख कर कोमल एकाएक खिलखिला कर हंस पड़ी. उसे इस तरह हंसते देख प्रमोद ने उस की ओर सवालिया निगाहों से देखा तो वह बोली, ‘‘मेरा फैसला तुम्हारे हक में है.’’

यह सुन कर प्रमोद खुशी से झूम उठा और उस ने कोमल को बांहों में भर लिया. कोमल खुद को उस से छुड़ाते हुए बोली, ‘‘अपने ऊपर काबू रखो, अगर किसी ने हमें इस तरह देख लिया तो कयामत आ जाएगी. हमारा प्यार शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाएगा.’’

‘‘ठीक है, लेकिन लोगों की नजर में हम भाईबहन हैं, इसलिए वे हमारी शादी नहीं होने देंगे.’’

‘‘हमारी शादी जरूर होगी और कोई भी हमें नहीं रोक पाएगा. लेकिन यह तो बाद की बात है. वैसे एक बात बताऊं कि हमारे बीच जो भाईबहन का रिश्ता है, यह एक तरह से अच्छा ही है. इस से हम पर कोई जल्दी शक नहीं करेगा.’’ प्रमोद मुसकराते हुए बोला.

कोमल भी प्रमोद की बात से सहमत हो गई ओैर फिर उस दिन से दोनों का प्यार परवान  चढ़ने लगा. समय निकाल कर दोनों धार्मिक स्थल बिठूर घूमने पहुंच जाते फिर नाव मेें बैठ कर गंगा की लहरों के बीच अठखेलियां करते. कभीकभी दोनों फिल्म देखने के लिए कानपुर चले जाते थे.

प्रमोद और कोमल मौसेरे भाईबहन थे. ऐसे में उन के बीच जो कुछ भी चल रहा था उसे प्यार नहीं कहा जा सकता था. दोनों बालिग थे, इसलिए इसे नासमझी भी नहीं समझा जा सकता था. कहा जा सकता था. बहरहाल उन के बीच पक रही खिचड़ी की खुशबू बाहर पहुंची तो लोग उन्हें शक की नजरों से देखने लगे और तरह तरह की बातें करने  लगे.

धीरेधीरे यह खबर दोनों के घर वालों तक पहुंच गई. सच्चाई का पता लगते ही दोनों घरों में कोहराम मच गया. परिवार के लोगों ने एक साथ बैठ कर दोनों को समझाया.

रिश्ते की दुहाई दी . लेकिन उन दोनों पर कोई असर नहीं हुआ. हालाकि घर वालों के सामने दोनों ने उन की हां में हां मिलाई और एकदूसरे से न मिलने का वादा किया. उस वादे को दोनों ने कुछ दिनों तक निभाया भी, लेकिन बाद में दोनों फिर मिलने लगे.

यह देख कर पुत्तीलाल व उस की पत्नी शिवदेवी ने कोमल पर सख्ती की और उस का घर से निकलना बंद कर दिया. यही नहीं उन्होंने प्रमोद के अपने घर आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. इस से प्रमोद और कोमल का मिलनाजुलना एकदम बंद हो गया. दोनों के पास मोबाइल फोन थे अत: जब भी मौका मिलता मोबाइल पर बातें कर के अपनेअपने मन की बात कह देते.

इधर रामसिंह और पुत्तीलाल व उन की पत्नियों ने इस समस्या से निजात पाने के लिए गहन विचारविमर्श किया. विचारविमर्श के बाद तय हुआ कि दोनों की शादी कर दी जाए. शादी हो जाएगी तो समस्या भी हल हो जाएगी. कोमल अपनी ससुराल चली जाएगी तो प्रमोद भी बीवी के प्यार में बंध कर कोमल को भूल जाएगा.

इस के बाद रामसिंह प्रमोद के लिए तो पुत्तीलाल कोमल के लिए रिश्ता ढूंढ़ने लगे. रामसिंह को जल्द ही सफलता मिल गई. दरअसल उस के गांव का एक परिवार गुजरात के जाम नगर में बस गया था, जो उस की जातिबिरादरी का था. होली के मौके पर वह परिवार गांव आया था. इसी परिवार की लड़की से रामसिंह ने प्रमोद का रिश्ता तय कर दिया. 7 मई को तिलक तथा 12 मई को शादी की तारीख तय हो गई.

यद्यपि प्रमोद इस रिश्ते के खिलाफ था लेकिन घर वालों के आगे उस की एक नहीं चली. प्रमोद के रिश्ते की बात कोमल को पता चली तो उसे सुनी सुनाई बातों पर विश्वास नहीं हुआ. सच्चाई जानने के लिए कोमल ने घर वालों से छिप कर प्रमोद से मुलाकात की और पूछा, ‘‘प्रमोद, तुम्हारा रिश्ता तय हो जाने के बारे में मैं ने जो कुछ सुना है, क्या वह सच है?’’

‘‘हां, कोमल, तुम ने जो सुना है वह बिलकुल सच है. घर वालों ने मेरी मरजी के बिना रिश्ता तय कर दिया है.’’  प्रमोद ने बताया.

प्रमोद की बात सुन कर कोमल ने नाराजगी जताई और याद दिलाया, ‘‘प्रमोद तुम ने तो जीवन भर साथ रहने का वादा किया था. अब क्या हुआ. तुम्हारे उस वादे का?’’

इस पर प्रमोद ने उस से कहा कि वह अपने वादे को नहीं भूला है. उस के अलावा वह किसी और को अपनी जिंदगी नहीं बना सकता.

‘‘मुझे तुम से यही उम्मीद थी.’’ कह कर कोमल उसके गले लग गई. फिर वह वापस घर आ गई.

इधर पुत्तीलाल ने भी कोमल का रिश्ता उन्नाव जिले के परियर सफीपुर निवासी विनोद के साथ तय कर दिया था. गुपचुप तरीके से पुत्तीलाल ने कोमल को दिखला भी दिया था. विनोद और उस के घर वाले कोमल को पसंद कर चुके थे. गोदभराई की तारीख 28 मार्च तय हो गई थी.

एक दिन कोमल ने अपने रिश्ते के संबंध में मांबाप की खुसुरफुसुर सुनी तो उस का माथा ठनका. उस से नहीं रहा गया तो उस ने मां से पूछ लिया. ‘‘मां, तुम पिताजी से किस के रिश्ते की खुसुरफुसुर कर रही थीं?’’

‘‘तेरे रिश्ते की. मैं ने तेरा रिश्ता परियर सफीपुर गांव के विनोद के साथ कर दिया है. 28 मार्च को तेरी गोद भराई है.’’ शिवदेवी बोली.

कोमल रोआंसी हो कर बोली, ‘‘मां आप ने मुझ से पूछे बिना ही मेरा रिश्ता तय कर दिया. जबकि आप जानती हैं कि मैं प्रमोद से प्यार करती हूं और उसी से शादी करना चाहती हूं.’’

‘‘मुझे पता है कि तू रिश्ते को कलंकित करना चाहती है. पर मैं अपने जीते जी ऐसा होने नहीं दूंगी. इसलिए तेरा रिश्ता पक्का कर दिया है. वेसे भी जिस प्रमोद से तू शादी करने की बात कह रही है. उस का भी रिश्ता तय हो चुका है. इसलिए मेरी बात मान और पुरानी बातों को भूल कर इस रिश्ते को स्वीकार कर ले.’’

कोमल मन ही मन बुदबुदाई कि मां यह तो समय ही बताएगा कि तुम्हारी बेटी दुलहन बनती है या फिर उस की अर्थी उठती है. फिर वह कमरे में चली गई और इस गंभीर समस्या के निदान के लिए मंथन करने लगी. मंथन करतेकरते उस ने सारी रात बिता दी लेकिन कोई हल नहीं निकला. आखिर उसने प्रमोद से मिल कर समस्या का हल निकालने की सोची.

दूसरे रोज कोमल ने किसी तरह प्रमोद से मुलाकात की और कहा, ‘‘प्रमोद मेरे घर वालों ने भी मेरी शादी तय कर दी है और 28 मार्च को गोदभराई है. लेकिन मैं इस शादी के खिलाफ हूं. क्योंकि मैं ने जो वादा किया है, वह जरूर निभाऊंगी. प्रमोद मैं आज भी कह रही हूं कि तुम्हारे अलावा किसी अन्य की दुलहन नहीं बनूंगी.

कोमल और प्रमोद किसी भी तरह एकदूसरे से जुदा नहीं होना चाहते थे. अत: दोनों ने सिर से सिर जोड़ कर इस गंभीर समस्या का मंथन किया. हल यह निकला कि दोनों के घर वाले इस जनम में उन्हें एक नहीं होने देंगे. इसलिए दोनों मर कर दूसरे जनम में फिर मिलेंगे. यानी दोनों ने साथसाथ आत्महत्या करने का फैसला कर लिया.

उन्होंने अपने घर वालों तक को यह आभास नहीं होने दिया कि वे कौन सा भयानक कदम उठाने जा रहे हैं.

27 मार्च, 2019 की दोपहर प्रमोद कस्बा बिठूर गया. वहां एक दुकान से उस ने बालों पर कलर करने वाली डाई के 2 पैकेट तथा एक ब्लेड खरीदा और घर वापस आ गया. शाम 7 बजे उस ने घर वालों से कहा कि वह पान मसाला लेने जा रहा है. कुछ देर में आ जाएगा. गांव के बाहर निकल कर उस ने कोमल को  फोन किया कि वह नाले के पास आ जाए. वह उस का वही इंतजार कर रहा है.

कोमल की दूसरे रोज यानी 28 मार्च को गोदभराई थी. वह गोदभराई नहीं कराना चाहती थी, इसलिए वह शौच के बहाने घर से निकली और गांव के बाहर बह रहे नाले के पास जा पहुंची.

प्रमोद वहां पहले से ही उस का इंतजार कर रहा था. कोमल को साथ ले कर उस ने नाला पार किया. नाला पार करते समय उस की एक चप्पल टूट गई. इस के बाद दोनों शीशम के पेड़ के पास पहुंचे.

वहां बैठ कर दोनों ने कुछ देर बातें कीं. फिर प्रमोद ने जेब से डाई के पैकेट निकाले. उस ने एक पैकेट को ब्लेड से काट कर खोला. उन का मानना था कि डाई में भी जहरीला कैमिकल होता है. इसे पीकर दोनों अत्महत्या कर लेंगे लेकिन डाई को घोलने के लिए उन के पास न पानी था और न गिलास. अत: दोनों ने सूखी डाई फांकने का प्रयास किया. जिस से डाई उन के होंठों पर लग गई.

उसी समय प्रमोद की निगाह प्लास्टिक के फीते पर पड़ी जो सामने के खेत के चारों ओर बंधा था. प्रमोद ब्लेड से फीते को काट लाया. उस ने पेड़ पर चढ़ कर डाल में फीते को राउंड में लपेट दिया. इस के बाद उस ने फीते के दोनों सिरों पर फंदे बना दिए.

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फिर एकएक फंदे में गरदन डाल कर दोनों झूल गए. कुछ देर बाद गला कसने से दोनों की मौत हो गई. मृतकों के शरीर के भार से प्लास्टिक का फीता खिंच गया, जिस से दोनों के पैर जमीन को छूने लगे थे.

28 मार्च, 2019 की सुबह जब गांव की कुछ औरतें नाले की तरफ गईं तो उन्होंने दोनों को शीशम के पेड़ से लटके देखा. उन की सूचना पर ही गांव वाले मौके पर पहुंचे.

चूंकि मृतकों के परिजनों ने पुलिस को कोई तहरीर नहीं दी. इसलिए पुलिस ने कोई मामला दर्ज नहीं किया. इस के अलावा पोस्टमार्टम रिपोर्ट से भी स्पष्ट हो गया कि प्रमोद और कोमल ने आत्महत्या की थी. अत: पुलिस ने इस मामले की फाइल बंद कर दी. लेकिन लापरवाही बरतने के आरोप में एडिशनल एसपी (पश्चिम) संजीव सुमन ने थानाप्रभारी सुधीर कुमार पवार को लाइन हाजिर कर दिया था.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

(कहानी सौजन्य- मनोहर कहानियां) 

आप हम और ब्रैंड

डौ. स्वाति पिरामल

इस चेयर पर्सन, पिरामल इंटरप्राइसेज लिमिटेड

वैज्ञानिक और उद्यमी के नाम से फेमस डा. स्वाति पिरामल की शख्सीयत सचमुच अनूठी है. उन्होंने पब्लिक हैल्थ के बारे में कई इनोवेशन किए हैं.

वे ‘पिरामल लिमिटेड’ की उपाध्यक्ष हैं. यह कंपनी सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाने के लिए मशहूर है. मुंबई से डाक्टर की पढ़ाई पूरी कर डा. स्वाति ने ‘हार्वर्ड स्कूल औफ पब्लिक हैल्थ’ से मास्टर डिगरी ली. उन की शुरू से ही कुछ अलग करने की इच्छा रही, जिस में परिवार और पति का भी काफी सहयोग रहा. उन्हें पद्मश्री की उपाधि भी मिल चुकी है. उन की गिनती दुनिया की 25 मोस्ट पावरफुल महिलाओं में की जाती है. डा. स्वाति के अनुसार महिला का स्वस्थ और जागरूक होना बेहद जरूरी है, क्योंकि वही परिवार भविष्य का निर्माण करती है. महिला दिवस के अवसर पर उन्होंने औफिस की महिलाओं के लिए एक वर्कशौप का आयोजन भी किया था, जिस में महिलाओं को खुद ग्रो करने के तरीके बताए.

पेश हैं, पिरामल रिऐलिटी की पिरामल महालक्ष्मी के लौंच पर उन से हुए कुछ सवालजवाब:

सवाल- इस प्रोजैक्ट की प्रेरणा कहां से मिली?

मैं ने इस प्रोजैक्ट में बायोफिलिया कौंसैप्ट लिया है, क्योंकि हमारा शरीर प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है, हरियाली से हमें सुखद अनुभव होता है, जिसे हम अब भूलते जा रहे हैं. मुंबई जैसे बड़े शहरों में लोग प्रकृति को खोजने पहाड़ों पर जाते हैं, क्योंकि उन्हें नेचर का साथ चाहिए. मैं ने जापान के टोकियो शहर में ट्रैवल के दौरान देखा कि वहां लोग छोटे घरों में रहते हुए भी प्रकृति को बचाने के लिए बहुत तत्पर रहते हैं. इसीलिए वहां बोन्साई पेड़ों का अधिक चलन है, जो कम जगह में उगाए जा सकते हैं. हमारे यहां इन का अभाव है. इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं ने सभी बिल्डिंग्स में ग्रीनरी की व्यवस्था की है. यहां आधी जमीन पर घर और आधी पर हरियाली होगी. यहां 60 थीम्स फेयरी गार्डन होंगे ताकि यहां रहने वाले सभी लोग प्रकृति का आनंद उठा सकें. इस के अलावा मैं पिछले साल लंदन के चेल्सिया फ्लौवर शो में भी गई थी. इस में पहली बार भारत से कोई आया था. मुझे वहां मैडल भी मिला. मुझे बहुत खुशी हुई. फिर लगा कि हमारे अंदर भी प्रतिभा है, जिस का प्रयोग करने भर की जरूरत है.

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 सवाल- पर्यावरण को ले कर लोगों के जागरूक न होने के कारण ग्लोबल वार्मिंग बढ़ी है, जिस से आजकल मुंबई जैसे शहरों में भी तापमान काफी बढ़ गया है, इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगी?

ग्रीनरी और फ्लौवर्स के प्रति मेरी रुचि मैडिकल से ही हुई. प्लांट्स से दवा बनती है. मैं ने 50 हजार प्लांट्स, पत्ते, फंगाई, माइक्रोब्स आदि इकट्ठे किए थे. इन से मैं डायबिटीज, कैंसर जैसे रोगों के लिए दवा खोजती रहती थी. इस से मेरी रुचि इस ओर बढ़ती गई. मैं ने मुंबई में एक फ्लौवर शो किया, जिसे देखने 50 हजार लोग आए थे. खाने में आजकल सबकुछ पैकेज्ड होता है, इस से उस की न्यूट्रिशन वैल्यू कम हो जाती है. माइक्रोग्रीन एक नया कौंसैप्ट है, जिस में बीज उगाते हैं. पहला पत्ता उगने से पहले उस में न्यूट्रिशन वैल्यू 25% होती है. लंदन में मैं ने इस पर वर्कशौप किया और पाया कि बीज से उगाए गए किसी भी सलाद वाले प्लांट की न्यूट्रिशन वैल्यू बहुत अधिक होती है. इसे यहां भी हरकोई अपनी रसोई में ही उगा सकता है. हर नागरिक को पर्यावरण का ध्यान रखना चाहिए.

 सवाल- आज भी हमारे देश में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता की कमी है. इस बारे में क्या कहेंगी?

हमारे देश में यह एक जटिल समस्या अभी भी है. मेरे हिसाब से रोग की रोकथाम पहले होनी चाहिए. बाद में इलाज की बारी आती है. निवारण में भोजन सही समय पर खाना, पोषक तत्त्व वाला भोजन लेना, व्यायाम करना आदि जरूरी होता है. गलत खाना पूरे शरीर को खराब कर देता है. खाना खाने से पहले जांच लें कि आप क्या खाने जा रहे हैं. यह सभी के लिए जरूरी है. इसीलिए मैं ने पिरामल फाउंडेशन की स्थापना की है, जो हैल्थ, ऐजुकेशन और पानी के लिए काम करती है. यह अभी 12 राज्यों में काम कर रही है. यह प्राइमरी हैल्थ सैंटर असम, पंजाब, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्यों में काम कर रहा है. इस में एक टीम को सप्ताह में 1 दिन एक गांव भेजा जाता है. हर गांव के लिए एक दिन निश्चित होता है. इस तरह पूरे राज्य को कवर किया जाता है. इस में प्रिवैंशन, जिस में हम डायबिटीज, एचआईवी, कैंसर जैसी बीमारियों के बारे में जानकारी, जांच के तरीके आदि सबकुछ बताते हैं ताकि लोगों में जागरूकता बढ़े.

 सवाल- महिला ऐंपावरमैंट की दिशा में आप की कंपनी कितना काम कर रही है और महिलाओं को आगे लाना कितना जरूरी है?

महिलाओं का विकास बहुत जरूरी है. ब्रैस्ट कैंसर जो महिलाओं को ही अधिक होता है, इस का जब तक पता चलता है बहुत देर हो गई होती है. पूरे भारत में असम के कामरूप जिले में सब से अधिक महिलाएं ब्रैस्ट कैंसर से ग्रस्त हैं. मेरे हिसाब से इस की वजह वहां महिलाओं का धूम्रपान करना है. वे बहुत गरीब हैं, इसलिए बीमारी को नजरअंदाज करती हैं. मैं ने इस की जांच करने के लिए एक पिंक बस चालू की है, जिस में 24 महिलाएं काम करती हैं. यह बस पूरे क्षेत्र में घूमघूम कर ब्रैस्ट कैंसर की स्क्रीनिंग करती है. इस काम से महिलाओं को फायदा मिल रहा है. असम के बाद मुंबई में सब से अधिक महिलाएं ब्रैस्ट कैसर से ग्रस्त हैं. महिला के स्वस्थ रहने पर ही पूरा परिवार स्वस्थ रहता है.

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 सवाल- आपने काम के साथ परिवार को कैसे संभाला?

मैं ने कभी समय को व्यर्थ नहीं गंवाया. मैं ने हमेशा पूरे दिन की प्लैनिंग की और उस के हिसाब से काम किया. इस के अलावा मैं ने हर काम को कुशलतापूर्वक किया है. जो काम आज करना है उसे कल पर कभी नहीं टाला. मुझे खाना बनाना पसंद है, इसलिए जब भी समय मिलता मैं बच्चों के लिए हैल्दी फूड बनाती हूं. इस से मुझे खुशी मिलती है और मैं स्वस्थ रहती हूं.

 सवाल- आप की फिटनैस का राज क्या है?

फिटनैस का कोई राज नहीं है. काम को समय पर करना मेरी हमेशा प्राथमिकता रही है. मैं ट्रैवल भी बहुत करती हूं और थकान भी महसूस करती हूं, लेकिन जब आप किसी काम को करते हैं तो उस काम से हुए बदलाव को देख कर बहुत खुशी होती है.

 सवाल- आगे क्या प्लैनिंग की है?

पिरामल रिऐलिटी में बहुत सारे प्रोजैक्ट हैं. सब में बायोफिलिया का थीम है ताकि बच्चे अच्छी तरह ग्रो करें. स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर ही ये सारे प्रोजैक्ट बनाए जा रहे हैं. इस के अलावा सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में भी और अधिक काम करने की इच्छा है. उस की प्लैनिंग चल रही है. पानी की कमी को ले कर अभी बहुत सारा काम महाराष्ट्र में करना है. यह नई चुनौती है. वहां ऐसा क्या करें कि सब को पानी मिले खासकर विदर्भ एरिया में इस की बहुत समस्या है.

 सवाल- महिलाओं के लिए क्या संदेश देना चाहेंगी?

अपना काम हमेशा उत्साह से करें. जब जिस काम को करने की सोचें उसे तभी करें. इस से परिवार और आप के अंदर सकारात्मक विचार का सृजन होगा, जिस से आप अच्छा महसूस करेंगी.

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