मानोबी बंधोपाध्याय

पहली ट्रांसजैंडर प्रिंसिपल

घर में बच्चे का जन्म हो, शादी हो या कोई और खुशी का उत्सव, उन का आना स्वाभाविक है. उन्हें बुलाना नहीं पड़ता, अपनेअपने इलाके की खबर रखते हैं, इसलिए तुरंत ही पहुंच जाते हैं. उन के आने  से समाज थोड़ा असहज महसूस करता है. न जाने कितनी आशंकाएं मन को घेर लेती हैं कि न जाने क्या हो. उन से अभद्र व्यवहार की ही उम्मीद की जाती है, क्योंकि उन्हें इसी तरह के खाके में सदियों से रखा गया है. लेकिन वे खुशी से तालियां बजाते आते हैं, नाचगा कर बधाइयां देते हैं और बख्शीश जिसे वे अपना हक समझते हैं, ले कर आशीषें दे कर चले जाते हैं. फिर भी समाज उन्हें अपने से अलग, अपनी सामाजिक व्यवस्था से अलग मानता है. उन्हें हिजड़ा, किन्नर कह कर उन का मजाक उड़ाया जाता है. रास्ते में जब वे भीख मांगते दिखते हैं तो गाड़ी का शीशा चढ़ा लिया जाता है.

मानोबी ने तोड़ा मिथक

पश्चिम बंगाल के नाडिया जिले के कृष्णानगर वूमंस कालेज की प्रिंसिपल मानोबी बंधोपाध्याय आज किसी परिचय की मुहताज नहीं हैं. ‘अ गिफ्ट औफ गौडस लक्ष्मी’ की लेखिका मानोबी बंधोपाध्याय की यात्रा सोमनाथ से मानोबी बनने की ही नहीं है. उन की कहानी संघर्षों और चुनौतियों से लड़ने और उन्हें परास्त करने की भी है, स्त्री मन में पुरुष देह की भी है.

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मानोबी कहती हैं, ‘‘अगर मैं ने अपनी जीवनयात्रा के बारे में बताना शुरू किया तो वह वेद बन जाएगा, उपनिषद् बन जाएगा यानी इतनी लंबी है मेरी जीवनयात्रा. वैसे जैसे ट्रांसजैंडर होते हैं वैसी ही है मेरी जीवनयात्रा. फर्क इतना है कि आज मैं उच्च शिक्षित हूं और कालेज की प्रिंसिपल बन गई हूं. आज मेरे पास ताकत है. शिक्षा की वजह से मेरे जीवन में अंतर आया है, पर हम ट्रांसजैंडर हैं, यह बात समाज हमें कभी भूलने नहीं देता है.’’

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