सुपर पॉवर मिलने पर अभिनेत्री रिया शर्मा क्या करना चाहती है, पढ़े इंटरव्यू

अभिनेत्री रिया शर्मा महाराष्ट्र के नागपुर की है. उनकी मां प्रतिमा शर्मा एक यूट्यूबर हैं. उन्होंने नागपुर, महाराष्ट्र के एक कॉलेज से ग्रेजुएशन किया है. उन्होंने ‘सात फेरो की हेरा फेरी’, से कैरियर की शुरुआत की थी, इसके बाद उन्होंने “ये रिश्ते हैं प्यार के”, “तू सूरज मैं साँझ पियाजी”, “इतना ना करो मुझे प्यार के लिए” आदि कई धारावाहिकों में अभिनय के लिए जानी जाती हैं. आज उनका नाम टेलीविज़न जगत में बड़ी अभिनेत्रीयों में गिना जाता हैं. इसके अलावा वह हिंदी फिल्म रिया “एम.एस धोनी” में छोटा सा रोल निभा चुकी हैं. अभी रिया सोनी सब टीवी पर ‘ध्रुव तारा – समय सदी से परे’ यह एक फेंटासी शो है, जिसमें रिया ने तारा की भूमिका निभाई है, जिसे दर्शक पसंद कर रहे है. इस शो के प्रमोशन पर रिया ने अपनी जर्नी के बारें में बात की,पेश है कुछ अंश.

मिली प्रेरणा

रिया का कहना है कि मेरा अभिनय में आना एक इत्तफाक था. मुझे बचपन से ही परफोर्मेंस पसंद रहा, स्कूल से आने के बाद मैं आइने के सामने खड़ी होकर डायलाग बोलती थी. खुद से बातें करती थी और मुझे दर्शकों की वाहावाही बहुत पसंद थी, लेकिन मुझे ये पता नहीं था कि मैं एक्ट्रेस ही बनूँगी. दूर -दूर तक कभी मुंबई आने के बारें में नहीं सोचा था. अचानक मुझे शो ‘फियर फाइल्स’ एपिसोड की लीड के लिए बुलाया गया था, मैंने ऑडिशन दिया और चुनी गई और मुंबई आ गयी, जबकि मेरी पूरी फॅमिली एजुकेशन बैकग्राउंड से है.

मिला सहयोग

रिया कहती है कि मेरी माँ प्रतिमा शर्मा बहुत सपोर्टिव थी, बचपन में मुझे पोएट्री रिसाईटिंग, स्टेज ड्रामा आदि में ले जाती थी. उन्हें पता था कि मुझे ये सब पसंद है. कॉलेज में आने के बाद मैंने अभिनय को लेकर सोचना शुरू किया, लेकिन इतने बड़े शहर में अकेले जाना मेरे लिए बड़ी बात थी, लेकिन जब इत्तफाक से मैं अभिनय के लिए चुनी गई, तो मेरे पेरेंट्स ने साथ दिया. 17 साल की उम्र से मैंने अभिनय शुरू किया.

रिलेटेबल है ये कहानी

रिया कहती है कि मैंने इस तरह के फेंटासी शो पहले भी किये है और इसे सुनकर मैं बहुत उत्साहित थी. इसमें कॉमेडी, ड्रामा और अलग तरीके की बातचीत सबकुछ शामिल है. जो मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं हमेशा ही कुछ न कुछ आगे के लाइफ के बारें में सोचती रहती हूँ और उसे इमेजिन भी करती हूँ. मुझे लगता है सभी जीवन में ऐसी बातें हमेशा ही सोचते है,

आगे क्या होगा, पीछे क्या हुआ था, लोग तब कैसे थे ये सब जानने की इच्छा होती है.

मुझे पास्ट और फ्यूचर में जाने की भी बहुत इच्छा है. इस चरित्र से मैं कुछ अवश्य रिलेट करती हूँ, जैसे छोटी-छोटी हाव-भाव जो मुझसे मेल खाती है. मैंने पहले जो भी भूमिका निभाई है, हर चरित्र से खुद को रिलेट कर पाई हूँ. इसमें तारा हर चीज को देखकर उत्साहित हो जाती है. मैं भी रियल लाइफ में छोटी-छोटी चीजो से खुश हो जाती हूँ.

होती है अनुभव की कमी

कोविड की वजह से लोगों ने भविष्य की प्लानिंग करना छोड़ दिया है, क्योंकि कल के बारें में किसी को पता नहीं, लेकिन टाइम लाइन पर अगर कोई भविष्य को जान पाता है, तो उसे लाइफ की प्लानिंग करना आसान होगा क्या? इस बारें में रिया कहती है कि अगर फ्यूचर देखकर उसमे कुछ सुधार कर सकती थी, तो जीवन में आये उतार-चढ़ाव का सामना करने के अनुभव को पाने में समर्थ नहीं होती.

था संघर्ष

रिया आगे कहती है कि रियलिटी यहाँ का अलग ही था, मैं नागपुर जैसे छोटे शहर से आई थी, जहाँ ट्राफिक नहीं थी, लाइफ इजी थी. कभी मैंने इतना संघर्ष नहीं किया, थोड़े पैसे जो घर से मिले थे. जब वह खत्म होने लगी, तब चिंता सताने लगी, इससे पहले मुंबई इसकी ग्लैमर से बहुत प्रभावित थी, यहाँ समस्या यह थी कि शूट की पेमेंट 40 दिन बाद होती है और मुझे पैसों की जरूरत थी, लेकिन मैंने पेरेंट्स से पैसे नहीं मांगे और अपने पैसे से गुजारा करना चाहती थी. हालाँकि पेरेंट्स ने कभी पैसे के लिए मना नहीं किया, बल्कि ख़ुशी से देते थे, पर मेरे लिए अपने दम पर घर चलाना एक चुनौती थी और मैं वह कर पाई, जो मेरे लिए बड़ी बात रही. मैंने जिंदगी के बहुत कठिन समय को नजदीक से देखा है, इसलिए

आज जो भी मुझे मिलता है, उसमें खुश रहती हूँ.

इसके अलावा संघर्ष हमेशा रहता है, ये सही है कि अब चीजे थोड़ी आसान हुई है, लेकिन हमेशा कुछ अच्छा करने की कोशिश में संघर्ष है. असल में इंडस्ट्री के बारें में पता कर पाना आसान नहीं, क्योंकि यहाँ कभी काम है, कभी नहीं. कई बार एक काम मिलने के बाद आगे अच्छा मिलेगा या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं होती. मेरी माँ ने हमेशा कहा है कि लाइफ में रिस्क नहीं लेने से व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता और मुझे भी वह ऐसी ही सलाह देती आई है.

करना है हिंदी वेब और फिल्मों में काम

रिया हंसती हुई कहती है कि मैं हर शो के बाद मैं हिंदी फिल्मों और वेब में काम करने की इच्छा रखती हूँ, लेकिन कोई ढंग का काम नहीं मिलता. इसके अलावा मैं सोचती हूँ कि जब मुझे अच्छी शो में काम मिल रहा है, तो मैं मना कैसे कर सकती हूँ, क्योंकि आज बहुतों के पास एक अच्छा काम नहीं है. मुझे आगे चलकर हिंदी फिल्मों और वेब सीरीज को भी एक्स्प्लोर करना है. मुझे को-स्टार अभिनेता संजय दत्त और निर्देशक राजकुमार हिरानी के साथ काम करने की बहुत इच्छा है.

फैशन है पसंद

रिया को वेस्टर्न और इंडियन दोनों तरीके की पोशाक पसंद है. ये अधिकतर उनके मूड पर निर्भर होता है. वह हर तरीके की ड्रेस पहनती है.

रिश्तों को सहेजना है जरुरी

रिया कहती है कि रिश्तों में आजकल बहुत सारे बदलाव आ चुके है, आज रिश्तों में एक एडवेंचर या चुनौती होती है. मेरे हिसाब से किसी रिश्ते को संबंधों में बाँध लेने से उसे जीने में आसानी होती है, पर आज ऐसा नहीं है, बिना शर्तों के प्यार चलती है, शर्तों से वे बिगड़ जाती है. सपनो का राजकुमार मेरे जीवन में नहीं है. अभी सपने सिर्फ कैरियर ही है. तनाव होने पर मैं खुद को समझा लेती हूँ कि मुझे एक अच्छा काम मिला है और मुझे इसे दिल से करना है. अधिकतर मुझे पेरेंट्स की याद आती है और समय की कमी की वजह से जा नहीं पाती. फ़ोन पर बात कर लेती हूँ.

दिया सन्देश

युवाओं को मेरा मेसेज है कि सभी को अपने पेरेंट्स को देखकर, उनके मेहनत को देखकर सीख लेनी है, किसी चीज के न मिलने पर परेशान न हो, बल्कि धीरज धरे और आगे बढे, तनाव न लें. इससे सफलता अवश्य मिलेगी. मुझे कोई सुपर पॉवर मिलने पर असहाय लोग और जानवरों के लिए कुछ काम करना चाहती हूँ.

मिलेट्स से बने हेल्दी फूड के बारें में क्या कहती है महिला उद्यमी विद्या जोशी, जानें यहां

अगर जीवन में कुछ करने को ठान लिया हो तो समस्या कितनी भी आये व्यक्ति उसे कर गुजरता है. कुछ ऐसी ही कर दिखाई है, औरंगाबाद की महिला उद्यमी विद्या जोशी. उनकी कंपनी न्यूट्री मिलेट्स महाराष्ट्र में मिलेट्स के ग्लूटेन और प्रिजर्वेटिव फ्री प्रोडक्ट को मार्किट में उतारा है, सालों की मेहनत और टेस्टिंग के बाद उन्होंने इसे लोगों तक परिचय करवाया है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. उनके इस काम के लिए चरक के मोहा ने 10 लाख रुपये से सम्मानित किया है. उनके इस काम में उनका पूरा परिवार सहयोग देता है.

किये रिसर्च मिलेट्स पर

विद्या कहती है कि साल 2020 में मैंने मिलेट्स का व्यवसाय शुरू किया था. शादी से पहले मैंने बहुत सारे व्यवसाय किये है, मसलन बेकिंग, ज्वेलरी आदि करती गई, लेकिन किसी काम से भी मैं पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पा रही थी. मुझे हमेशा से कुछ अलग और बड़ा करना था, लेकिन क्या करना था, वह पता नहीं था. उसी दौरान एक फॅमिली फ्रेंड डॉक्टर के साथ चर्चा की, क्योंकि फ़ूड पर मुझे हमेशा से रूचि थी, उन्होंने मुझे मिलेट्स पर काम करने के लिए कहा. मैंने उसके बारें में रिसर्च किया, पढ़ा और मिलेट्स के बारें में जानने की कोशिश की. फिर उससे क्या-क्या बना सकती हूँ इस बारें में सोचा, क्योंकि मुझे ऐसे प्रोडक्ट बनाने की इच्छा थी, जिसे सभी खा सके और सबके लिए रुचिकर हो. किसी को परिचय न करवानी पड़े. आम इडली, डोसा जैसे ही टेस्ट हो. इसके लिए मैंने एक न्यूट्रीशनिस्ट का सहारा लिया, एक साल उस पर काम किया. टेस्ट किया, सबको खिलाया उनके फीड बेक लिए और फीडबेक सही होने पर मार्किट में लांच करने के बारें में सोचा.

मिलेट्स है पौष्टिक

विद्या आगे कहती है कि असल में मेरे डॉक्टर फ्रेंड को नैचुरल फ़ूड पर अधिक विशवास था. उनके कुछ मरीज ऐसे आते थे, जो रोटी नहीं खा सकते थे, ऐसे में उन्हें ज्वार, बाजरी, खाने के लिए कहा जाता था, जिसे वे खाने में असमर्थ होते थे. कुछ नया फॉर्म इन चीजो को लेकर बनाना था, जिसे लोग खा सकें. मसलन इडली लोग खा सकते है, मुझे भी इडली की स्वाद पसंद है. उसी सोच के साथ मैंने एक प्रोडक्ट लिस्ट बनाई और रेडी टू कुक को पहले बनाना शुरू किया, इसमें इडली का आटा, दही बड़ा, अप्पे, थालपीठ आदि बनाने शुरू किये. ये ग्लूटेन और राइस फ्री है. उसमे प्रीजरवेटिव नहीं है और सफ़ेद चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है. इसमें अधिकतर असली घी और गुड से लड्डू, कुकीज बनाया जाता है. इन सबको बनाकर लोगों को खिलाने पर उन्हें जब पसंद आया, तब मैंने व्यवसाय शुरू किया. इसमें मैंने बैंक से मुद्रा लोन लिया है. मैंने ये लोन मशीन खरीदने के लिए लिया था. सामान बनाने से लेकर पैकिंग और अधिक आयल को प्रोडक्ट से निकालने तक की मशीन मेरे पास है.

हूँ किसान की बेटी

विद्या कहती है कि नए फॉर्म में मैंने मिलेट्स का परिचय करवाया. इसमें सरकार ने वर्ष 2023 को मिलेट्स इयर शुरू किया जो मेरे लिए प्लस पॉइंट था. मैं रियल में एक किसान की बेटी हूँ, बचपन से मैंने किसानी को देखा है, आधा बचपन वहीँ पर बीता है. मेरे पिता खेती करते थे, नांदेड के गुंटूर गांव में मैं रहती थी. 11 साल तक मैं वही पर थी. कॉलेज मैंने नांदेड में पूरा किया. मैंने बचपन से ज्वार की रोटी खाई है. शहर आकर गेहूँ की रोटी खाने लगी थी. मेरे परिवार में शादी के बाद मैंने देखा है कि उन्हें ज्वार, बाजरी की रोटी पसंद नहीं, पर आब खाने लगे. बच्चे भी अब मिलेट्स की सभी चीजे खा लेते है. ज्वार, बाजरा, नाचनी, रागी, चेना, सावा आदि से प्रोडक्ट बनाते है.

मुश्किल था मार्केटिंग

विद्या को मार्किट में मिलेट्स से बने प्रोडक्ट से परिचय करवाना आसान नहीं था. विद्या कहती है कि मैंने व्यवसाय शुरू किया और कोविड की एंट्री हो चुकी थी. मेरा सब सेटअप तैयार था, लेकिन कोविड की वजह से पहला लॉकडाउन लग गया, मुझे बहुत टेंशन हो गयी. बहुत कठिन समय था, सभी लोग मुझे व्यवसाय शुरू करने को गलत कह रहे थे, क्योंकि ये नया व्यवसाय है, लोग खायेंगे नहीं. लोगों में मिलेट्स खाने को लेकर जागरूकता भी नहीं थी, जो आज है. इसमें भी मुझे फायदा यह हुआ है कि कोविड की एंट्री से लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है. हालाँकि दो महीने मेरा यूनिट बंद था, क्योंकि मैं लॉकडाउन की वजह से कही जा नहीं सकती थी, लेकिन लोग थोडा समझने लगे थे. बैंक का लोन था, लेकिन उस समय मेरे पति ने बहुत सहयोग दिया, उन्होंने खुद से लोन भरने का दिलासा दिया था. इसके बाद भी बहुत समस्या आई, कोई नया ट्राई करने से लोग डर रहे थे. शॉप में भी नया प्रोडक्ट रखने को कोई तैयार नहीं था, फिर मैंने सोशल मीडिया का सहारा लिया. तब पुणे से बहुत अच्छा रेस्पोंस मिला. वह से आर्डर भी मिले. इसके अलावा शॉप के बाहर भी सुबह शाम खड़ी होकर मिलेट्स खाने के फायदे बताती थी. बहुत कठिन समय था. अब सभी जानते है. आगे भी कई शहरों में इसे भेजने की इच्छा है.

मिलेट्स होती है सस्ती

विद्या का कहना है कि ये अनाज महंगा नहीं होता, पानी की जरुरत कम होती है. जमीन उपजाऊं अधिक होने की जरुरत नहीं होती. इसमें पेस्टीसाइड के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती. इसलिए इसके बने उत्पाद अधिक महंगे नहीं होते. मैं बाजार से कच्चे सामान लेती हूँ. आगे मैं औरंगाबाद के एग्रीकल्चर ऑफिस से सामान लेने वाली हूँ. किसान उनके साथ जुड़े होते है. वहां गुणवत्ता की जांच भी की जाती है. अच्छी क्वालिटी की प्रोडक्ट ली जाती है. सामान बनने के बाद भी जांच की जाती है. हमारे प्रोडक्ट में भी प्रिजेर्वेटिव नहीं होते. कई प्रकार के आटा, थालपीठ, ज्वार के पोहे, लड्डू आदि बनाती हूँ. मैं औरंगाबाद में रहती हूँ. गोवा, पुणे, चेन्नई और व्हार्ट्स एप ग्रुप और औरंगाबाद के दुकानों में भेजती हूँ. इसके अलावा मैं जिम के बाहर भी स्टाल लगाती हूँ.

मिला सहयोग परिवार का

परिवार का सहयोग के बारें में विद्या बताती है कि मैं हर दिन 10 से 12 घंटे काम करती हूँ, इसमें किसी त्यौहार या विवाह पर गिफ्ट पैकिंग का आर्डर भी मैं बनाती हूँ. सबसे अधिक सहयोग मेरे पति सचिन जोशी करते है, जो एक एनजीओ के लिए काम करते है. मेरे 3 बच्चे है, एक बड़ी बेटी स्नेहा जोशी 17 वर्ष और जुड़वाँ दो बच्चे बेदांत और वैभवी 13 वर्ष के है. बच्चे अब बड़े हो गए है, वे खुद सब काम कर लेते है. मेरी सास है, वह भी जितना कर सकें सहायता करती है. सहायता सरकार से नहीं मिला, लेकिन चरक के मोहा से मुझे 10 लाख का ग्रांट मिला है, जिससे मैं आगे मैं कुछ और मशीनरी के साथ इंडस्ट्रियल एरिया में जाने की कोशिश कर रही हूँ. अभी मैं मिलेट्स की मैगी पर काम कर रही हूँ. जो ग्लूटेन फ्री होगा और इसका ट्रायल जारी है. 5 लोगों की मेरे पास टीम है. प्रोडक्ट बनने के बाद न्यूट्रशनिस्ट के पास भेजा जाता है, फिर ट्रायल होती है. इसके बाद उसका टेस्ट और ड्यूरेबिलिटी देखी जाती है. फिर लैब में इसकी गुणवत्ता की जांच की जाती है.

सस्टेनेबल है मिलेट्स

स्लम एरिया में प्रेग्नेंट महिलाओं को मैं मिलेट्स के लड्डू देती हूँ, ताकि उनके बच्चे स्वस्थ पैदा हो. अधिकतर महिलायें मेरे साथ काम करती है. इसके अलावा तरुण भारत संस्था के द्वारा महिलाओं को जरुरत के अनुसार ट्रेनिंग देकर काम पर रखती हूँ. उन्हें जॉब देती हूँ, इससे उन्हें रोजगार मिल जाता है.

मिलेट्स से प्रोडक्ट बनाने के बाद निकले वेस्ट प्रोडक्ट को दूध वाले को देती हूँ, जो दुधारू जानवरों को खिलाता है. इस तरह से कुछ भी ख़राब नहीं होता. सब कंज्यूम हो जाता है.

विकास के आधार को लेकर क्या कहती है पत्रकार और टीवी एंकर बरखा दत्त

पत्रकार और राइटर बरखा दत्त का जन्म नई दिल्ली में एयर इंडिया के अधिकारी एस पी दत्त और प्रभा दत्त, के घर हुआ था. दत्त को पत्रकारिता की स्किल मां से मिला है. महिला पत्रकारों के बीच बरखा का नाम लोकप्रिय है. उनकी छोटी बहन बहार दत्त भी टीवी पत्रकार हैं. बचपन से ही क्रिएटिव परिवार में जन्मी बरखा ने पहले वकील या फिल्म प्रोड्यूस करने के बारें में सोचा, लेकिन बाद में उन्होंने पत्रकारिता को ही अपना कैरियर बनाया.

चैलेंजेस लेना है पसंद

वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के समय कैप्टेन बिक्रम बत्रा का इंटरव्यू लेने के बाद बरखा दत्त काफी पॉपुलर हुई थी. वर्ष 2004 में भूकंप और सुनामी के समय भी रिपोर्टिंग की थी. उन्हें चुनौतीपूर्ण काम करना बहुत पसंद था, इसके लिए उन्हें काफी कंट्रोवर्सी का सामना करना पड़ा. वर्ष 2008 में बरखा को बिना डरे साहसिक कवरेज के लिए पदम् श्री पुरस्कार भी मिला है. इसके अलावा उन्हें बेस्ट टीवी न्यूज एंकर का ख़िताब भी मिल चुका है. बरखा के चुनौतीपूर्ण काम में कोविड 19 के समय उत्तर से दक्षिण तक अकेले कवरेज करना भी शामिल है, जब उन्होंने बहुत कम मिडिया पर्सन को ग्राउंड लेवल पर मजदूरों की दशा को कवर करते हुए पाया. उनकी इस जर्नी में सबसे कठिन समय कोविड से आक्रांत उनकी पिता की मृत्यु को मानती है, जब वह कुछ कर नहीं पाई.

 

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Barkha Dutt (@barkha.dutt)

बरखा दत्त ने मोजो स्टोरी पर ‘वी द वीमेन’ की 6 एडिशन प्रस्तुत किया है, जहाँ महिलाओं ने अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों से गुजरते हुए कैसे आगे बढ़ी है, उनके जर्नी की बात कही गयी है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. वह कहती है कि वुमन एम्पावरमेंट पर कई कार्यक्रम हर साल होते है, जिसमे कुछ तो एकेडमिक तो कुछ ग्लैमर से जुड़े शो होते है, जिससे आम महिलाएं जुड़ नहीं पाती. मैंने ग्रासरूट से लेकर सभी से बात की है. ग्राउंड से लेकर एडल्ट सभी को शामिल किया गया है, इसमें केवल महिलाएं ही नहीं, पुरुषों, गाँव और कम्युनिटी की औरतों को भी शामिल किया गया है. इसमें गे राईट से लेकर मेनोपोज सभी के बारें में बात की गई है, ताकि दर्शकों के पसंद के अनुसार कुछ न कुछ देखने और सीखने को मिले.

इक्विटी ऑफ़ वर्क है जरुरी

बरखा आगे कहती है कि मुझे लगता है, चुनौती हर इंसान का अपने अपने अंदर होता है, इसमें हमारे संस्कार, एक माहौल में बड़े होना शामिल होती है. घरों में क्वालिटी की बात नहीं होती, लेकिन महिलाएं काम और ड्रीम शुरू करती है, लेकिन आगे जाकर छोड़ देती है, इसे क्यों छोड़ दिया, या क्या समस्या था, पूछने पर वे परिवार और बच्चे की समस्या को खुद ही उजागर कर संतुष्टि पा लेती है. मैं हमेशा कहती हूँ कि ‘इक्वलिटी ऑफ़ वर्क’ अधूरी रहेगी, अगर महिला ने घर पर इक्वलिटी की बात न की हो, क्योंकि एक सर्वे में पता चला है कि कोविड के दौरान काफी महिलाओं ने काम करना छोड़ दिया है. देखा जाय तो महिलाएं हर बाधाओं को पार कर काम कर रही है. फाइटर जेट से लेकर फ़ौज और स्पेस में भी चली गई है, लेकिन आकड़ों को देखे तो इंडिया में काम करने वाली महिलाओं की संख्या में कमी आई है, बढ़ी नहीं है. भागीदारी काम में कम हो रही है. पढ़ी लिखी औरतों के लिए मेरा कहना है कि पढ़े लिखे होने की वजह से हमेशा जागरूक होनी चाहिए. हमें मौका गवाना नहीं चाहिए, क्योंकि कई महिलाओं को ये मौका नहीं मिल पाता है.

 

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Barkha Dutt (@barkha.dutt)

करना पड़ा, खुद को प्रूव

बरखा कहती है कि मैंने कई बार अपनी बातों को जोर देकर सामने रखा है. वर्ष 1999 में जब मैंने कारगिल वार को कवर करने गई थी, मुझे अपनी ऑर्गनाइजेशन को बहुत मनाना पड़ा. वार फ्रंट में जाने का मौका नहीं मिल रहा था, आज तो महिलाएं फ़ौज में है, तब बहुत कम थी. उन्होंने कहा कि खाने , रहने औए बाथरूम के लिए जगह नहीं होगी, मैंने कहा कि मैं सबकुछ सम्हालने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि मैं एक वार ज़ोन में जा रही हूँ. मैंने देखा है कि आप जितना ही चुनौतीपूर्ण काम करें और अचीव कर लें, उतनी ही आपको बहुत अधिक मेहनत करने की जरुरत आगे चलकर होती है और उस पोस्ट पर पहुँच कर 10 गुना अधिक काम, कंट्रोवर्सी और जजमेंट की शिकार होना पड़ता है. एक महिला को पूरी जिंदगी संघर्ष करनी पड़ती है, वह ख़त्म कभी नहीं होती.

खुले मन से किया काम

बरखा ने हमेशा ही चुनौतीपूर्ण काम किया है और ग्राउंड लेवल से जुड़े रहना उन्हें पसंद है. वह कहती है कि कोविड के समय में मैंने दिल्ली से केरल गाडी में गयी थी और पूरे देश का कवरेज दिया था. किसी बड़ी मिडिया को मैंने रास्ते पर नहीं देखा. माइग्रेंट्स रास्ते पर पैदल जा रहे थे, केवल दो चार लोकल प्रेस दिखाई पड़ी थी. बड़े-बड़े टीवी चैनल कोई भी नहीं दिखा. रिपोर्टर के रूप मैं मुझे लोगों तक ग्राउंड लेवल तक पहुंचना मेरा पैशन रहा है. इसके अलावा मुझे ऑथेंटिक रहने की इच्छा हमेशा रही है, क्योंकि मैंने बहुतों को देखा है कि वे खुले मन से काम नहीं करते. फॉर्मल रहते है और अगर कोई व्यक्ति फॉर्मल रहता है, तो अगला भी कुछ कहने से हिचकिचाएगा. मैने हमेशा एक आम इंसान बनकर ही लोगों से बातचीत की है.

 

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Barkha Dutt (@barkha.dutt)

था कठिन समय

उदास स्वर में बरखा कहती है कि जीवन का कठिन समय मेरे पिता का कोविड में गुजर जाना रहा. दो साल से मैंने कोविड को कवर किया और बहुत सारे ऐसे स्टोरी को कवर किया जिसमे लोगों को ऑक्सीजन, बेड और प्रॉपर चिकित्सा नहीं मिल रही थी. मेरे लिए अच्छी बात ये रही कि मैने फ़ोन कर पिता को एक हॉस्पिटल मुहैय्या करवाया था. मैं उस समय बहुत सारे हॉस्पिटल गई, लेकिन मेरे पिता जिस हॉस्पिटल में थे, वहां नहीं जा पाई. जबतक मैं पहुंची, बहुत देर हो चुकी थी. वही मेरे लिए जीवन का सबसे कठिन समय था.

मिली प्रेरणा

बरखा आगे कहती है कि मेरा प्लान वकील बनने का था, फिर फिल्म बनाने की सोची, लेकिन जब मैंने मास्टर की पढाई पूरी की, तो कोई प्राइवेट प्रोडक्शन हाउस इंडिया में नहीं थी. केवल दूरदर्शन के पास प्रोडक्शन हाउस था. मैंने एन डी टीवी में ज्वाइन किया और मुझे एक स्टोरी करने के लिए भेजा दिया गया, उन्हें मेरा काम पसंद आया और मैं रिपोर्टर बन गई

विकास का आधार

विकास का आधार हर इंसान का हक बराबर होने से है. मेरी राय में घर्म, जाति, क्लास आदि से किये गए आइडेंटिटी कई बार लोगों को डिसाइड करती है तो कई बार डीवाईड करती है. विकास मेरे लिए एक्रोस आइडेंटिटी, केटेगोरी, डिवीज़न आदि सबके अधिकार एक जैसे होने चाहिए, तभी विकास संभव हो सकेगा.

पैसे की कमी के कारण कई बार हौकी छोड़ने का विचार आया- रानी रामपाल, हौकी खिलाड़ी

हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले के शाहबाद में एक गरीब परिवार में 4 दिसंबर, 1994 को जन्मी रानी रामपाल के पिता परिवार का पेट पालने के लिए टांगा चलाते थे. दिन भर में बमुश्किल 100 रुपए उन की कमाई होती थी जिस में पत्नी, 3 बच्चे, अपना और घोड़े का खाना जुटाना मुश्किल होता था. रानी के दोनों बड़े भाइयों ने जब होश संभाला तो पिता का हाथ बंटाने के लिए एक भाई ने एक दुकान में सेलसमैन की नौकरी कर ली और दूसरा बढ़ई बन गया.

पिता की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण रानी का स्कूल में एडमिशन बड़ी मुश्किल से हुआ. रानी स्कूल के मैदान में दूसरे बच्चों को हौकी खेलते हुए देखती थी. उस समय उन की उम्र सिर्फ 6 साल थी. हौकी का खेल उन्हें आकर्षित करती थी.

कभीकभी वे दूसरे बच्चों से हौकी स्टिक ले कर खेलने लगती थीं. धीरेधीरे हौकी पर उन का हाथ जमने लगा. स्कूल के बच्चे अकसर उन को अपने साथ खिलाने लगे.

पैसे की समस्या

एक दिन रानी ने अपने पिता से हाकी खेलने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन पिता राजी नहीं हुए. उस समय लड़कियों का हाफ पैंट पहन कर हौकी खेलना बहुत बड़ी बात थी. जिस लोकैलिटी में उन का परिवार रहता था वहां बेटियों का हाफ पैंट पहनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था.

रानी के बहुत जिद करने के बाद उन के पिता ने रानी का दाखिला शाहाबाद हौकी ऐकैडमी में करवा दिया. एडमिशन तो मिल गया, लेकिन मुश्किल यह थी कि रानी के पिता के पास इतने पैसे नहीं होते थे कि वे उन की कोचिंग की फीस चुका सकें. कई बार भाइयों ने कुछ पैसे जमा कर बहन को दिए तो कभी पिता ने उधार ले कर फीस चुकाई. रानी ने इस कारण कई बार हौकी छोड़ने के बारे में सोचा. लेकिन जब पैसे की समस्या की बात उन के कोच बलदेव सिंह और कुछ सीनियर खिलाडि़यों के सामने आई तो उन्होंने रानी को समझाया और उन की आर्थिक मदद की.

खेल के साथ पढ़ाई

खेल के साथसाथ रानी की पढ़ाई भी चलती रही. स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने बीए में एडमिशन ले लिया लिया लेकिन अभ्यास के कारण वे ग्रैजुएशन पूरा नहीं कर पाईं.

रानी रामपाल ने 212 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले और भारतीय महिला हौकी टीम की कप्तान बनीं. रानी ने जून, 2009 में रूस के कजान में आयोजित चैंपियंस चैलेंज टूरनामैंट में खेला और फाइनल में 4 गोल कर के भारत को जीत दिलाई. उन्हें ‘द टौप गोल स्कोरर’ और ‘यंग प्लेयर औफ द टूरनामैंट’ चुना गया. नवंबर, 2009 में आयोजित एशिया कप में भारतीय टीम के लिए रजत पदक जीतने में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.

2010 राष्ट्रमंडल खेलों और 2010 एशियाई खेलों में भारत की राष्ट्रीय टीम के साथ खेलने के बाद रानी रामपाल को 2010 की एफआईएच महिला औल स्टार टीम में नामांकित किया गया. वे ‘वर्ष की युवा महिला खिलाड़ी’ पुरस्कार के लिए नामांकित हुईं. उन्हें ग्वांगझोउ में 2010 एशियाई खेलों में उन के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें एशियाई हौकी महासंघ की औल स्टार टीम में भी शामिल किया गया था. 2010 में अर्जेंटीना के रोसारियो में आयोजित महिला हौकी विश्व कप में उन्होंने कुल 7 गोल किए, जिस ने भारत को विश्व महिला हौकी रैंकिंग में 9वें स्थान पर रखा.

लाजवाब प्रदर्शन

उन्हें 2013 जूनियर विश्व कप में ‘टूरनामैंट का खिलाड़ी’ चुना गया था. 2013 के जूनियर विश्व कप में उन्होंने भारत को पहला कांस्य पदक दिलाया. उन्हें 2014 के फिक्की कमबैक औफ द ईयर अवार्ड के लिए नामित किया गया. वे 2017 महिला एशियाई कप का हिस्सा रहीं और 2017 में जापान के काकामीगहारा में दूसरी बार खिताब भी जीता था.

रानी ने भारतीय खेल प्राधिकरण के साथ सहायक कोच के रूप में भी काम किया. राष्ट्रमंडल खेलों में रानी रामपाल का प्रदर्शन लाजवाब रहा है. 2020 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया.

सफल स्टार्टअप खड़ा करना है तो सबसे पहले खुद पर भरोसा करना होगा- विनीता सिंह

गुजरात के एक छोटे से गांव में जन्मीं विनीता सिंह ऐसी ही युवा व्यवसायी हैं. अपने पहले 2 स्टार्टअप में सफल न हो पाने के बावजूद विनीता का खुद पर भरोसा डगमगाया नहीं. अपनी योग्यता और मेहनत के दम पर फिर से एक ऐसी कंपनी शुरू करने का प्लान बनाया जो महिलाओं के लिए हो और जिस में महिलाएं रोजगार भी पा सकें. उन्होंने चुनौतियों के सामने कभी घुटने नहीं टेके और फिर इस तरह शुगर कौस्मैटिक्स का जन्म हुआ.

जिंदगी का सफरनामा

विनीता का जन्म 1983 में हुआ था. उन के पिता तेज पाल सिंह एम्स के साइंटिस्ट थे और मां पीएचडी होल्डर. विनीता ने दिल्ली पब्लिक स्कूल से पढ़ाई की और ग्रैजुएशन करने के लिए आईआईटी मद्रास चली गईं. इस के बाद उन्होंने आईआईएम अहमदाबाद से एमबीए की डिगरी प्राप्त की. विनीता के पति कौशिक मुखर्जी हैं. दोनों की मुलाकात एमबीए करने के दौरान हुई थी और 2011 में दोनों ने शादी कर ली.

स्टार्टअप्स की प्लानिंग के शुरुआती दिनों को याद करते हुए विनीता कहती हैं, ‘‘मुझे और कौशिक को यह एहसास हो गया था कि अब युवतियां बंधनों से आजाद हो कर बाहर भी निकल रही हैं और अपना रास्ता भी खुद बना रही हैं. फिर हम ने फैबबैग की शुरुआत की.’’

शुगर की शुरुआत

अपने व्यवसाय के अनुभवों से विनीता को यह एहसास हो गया था कि महिलाएं आखिर ब्यूटी इंडस्ट्री से किस बात की उम्मीद रखती हैं. उन्होंने फैबबैग के दौरान मिले कंज्यूमर फीडबैक को आधार बना कर यह समझ लिया कि ब्यूटी इंडस्ट्री में ट्रांसफर प्रूफ और लंबे समय तक टिकने वाले मेकअप की डिमांड ज्यादा है. विनीता ने ब्यूटी वर्ल्ड में पाई जमाने की शुरुआत की क्रेयौन लिपस्टिक्स से.

विनीता ने स्टार्टअप शुरू करने की चाह रखने वालों को प्रोत्साहित करने के लिए एक बार ट्वीट किया था, ‘‘यदि आप अपनी कौरपोरेट जौब को छोड़ कर स्टार्टअप शुरू करना चाहते हैं तो सफल होने के लिए सब से जरूरी है खुद पर भरोसा करना. यदि खुद पर भरोसा न हो तो उतारचढ़ाव भरे इस सफर में आप डगमगा सकते हैं.’’

आज शुगर कौस्मैटिक्स भारत के टौप 3 ब्यूटी ब्रैंड्स में शामिल है और देशभर में इस के 45 हजार से भी ज्यादा आउटलेट्स हैं.

शुगर ब्रैंड शुरू करने के उद्देश्य के बारे में विनीता कहती हैं, ‘‘मैं हमेशा से ऐसा काम करना चाहती थी जिस में मेरी मुख्य ग्राहक महिलाएं ही हों. जब मेरे पहले 2 स्टार्टअप सफल नहीं हुए तो मैं ने अपने पति कौशिक के साथ 2012 में सब्सक्रिप्शन मौडल पर आधारित ब्यूटी ब्रैंड शुरू करने का प्लान बनाया. धीरेधीरे हमारे पास लगभग 2 लाख महिलाओं ने अपनी ब्यूटी से जुड़ी प्राथमिकताएं भेजीं और फिर 2015 में कंज्यूमर ब्यूटी ब्रैंड शुगर कॉस्मेटिक्स लौंच हुआ.’’

अब जज करने की बारी

स्टार्टअप्स को बढ़ावा देने वाले ‘शार्क टैंक’ के बारे में आज हरकोई जानता है. ‘शार्क टैंक’ के सफर के बारे में बात करते हुए विनीता कहती हैं, ‘‘लगभग 15 साल पहले तक स्टार्टअप व्यवसायी को बेरोजगार ही माना जाता था. अब ‘शार्क टैंक’ की वजह से यह सोच बदल रही है. खुद के लिए फंड रेज करने से ले कर इनवैस्टर बनने तक की राह थोड़ी मुश्किल भरी थी, लेकिन खुश हूं कि अपने आत्मविश्वास के बलबूते मैं यह सब कर सकी.’’

अपने दम पर पहचान बनाने की चाह रखने वाली महिलाओं के लिए विनीता का कहना है, ‘‘आज जो भी महिला स्टार्टअप शुरू करने की सोच रही है उसे सब से पहले खुद की स्किल्स पर अटूट भरोसा करना होगा. माना कि आज भी महिलाओं का नंबर स्टार्टअप की दुनिया में बेहद कम है, लेकिन जिस तरह से महिलाएं आगे आ रही हैं उस से साफ है कि वह दिन दूर नहीं जब इस क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों से आगे निकल जाएंगी.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें