यों ही अचानक: अकेले पड़ गए मुकुंद की जिंदगी में सारिका को क्या जगह मिली

मेरा वसंत: क्या निधि को समझ पाया वसंत

मैं ने तुम से पूछा, ‘बुरा लगा?’
‘नहीं,’ तुम्हारा यह जवाब सुन मैं स्तब्ध रह गई कि क्या मेरे बात करने न करने से तुम को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता? पर मैं जब भी तुम से नाराज़ हो कर बात करना बंद करती हूं, दिल धड़कना भूल जाता है और दिमाग सोचना. मन करता है कि तुम मुझे आवाज़ दो और मैं उस आवाज़ में खो दूं अपनेआप को. कभी लगता, क्यों न कौल कर के सुन लूं तुम्हारी आवाज़, पर है न मेरे पास भी अहं की भावना कि क्यों करूं जब तुम्हें चाहत ही नहीं मुझे सुनने की.

मैं ने कहीं सुना था- ‘ज़िंदगी को लाइटली लेने का’. लेकिन ज़िदंगी का हरेक पन्ना जब तुम से जुड़ा हो तो कैसे इस को हलके में ले लूं.

कुछ लोग कहते हैं कि प्यारव्यार कुछ नहीं होता. बस, रासायनिक क्रिया है जो दिल और दिमाग़ को बंद कर देती है और सोचनेसमझने की क्रिया समाप्त कर देती है. पर अगर ऐसा है तो किसी एक के लिए ही दिल क्यों धड़कता है. समझ के बाहर है न, यह ये प्यारव्यार…

कितना अच्छा होता न, मेरी तरह तुम्हारा भी दिल सिर्फ़ मेरे लिए धड़कता और मेरा ही नाम तुम्हारी ज़बान पर होता. पर तुम्हारे लिए तो मेरे सिवा सभी लोग ख़ास हैं और हां, काम की अधिकता भी तो कारण है न मुझ से दूर जाने का.

कुछ प्यार अधूरा ही रहता है, क्या मेरे प्यार को भी अधूरापन ही मिलेगा. पर, मैं तो तुम्हारे ही रंगों में रंगी हूं, सो, तुम्हारा द्वारा दिया हुआ अधूरापन भी स्वीकार है मुझे.

तुम खुश रहो. जानते हो, चाहती हूं कि अपनी खुशी भी तुम्हें दे दूं, पर अपनी खुशी तुम्हें नहीं दे सकती क्योंकि मैं अधूरी हो कर कभी खुश नहीं रह सकती.

जा रही हूं तुम से दूर, कुछ दूर जहां से मैं तुम्हें तो देख सकूं पर तुम मुझे न देख सकोगे. जब मुझे लगेगा कि जितनी बेक़रारी मेरे दिल में है उतनी ही तुम्हारे दिल में पनपने लगी, तब मैं वापस आ जाऊंगी. तुम्हारी बांहों की गरमाहट मुझे बेचैन करेगी. पर इस बेचैनी में भी बहुत प्यारा एहसास कैद रहेगा.

फिर से आतुर मन मिलन के लिए.

तुम्हारी,

निधि.

यह पत्र पढ़ कर मैं कुछ देर सन्न रह गया. काठ बना खड़ा चुपचाप इस खत को बारबार पढ़ता रहा. परसों रात ही तो आया था एक सप्ताह के बाद. नाराज़ निधि को मनाने में एक घंटा लग गया. उस की नाराज़गी दूर नहीं हुई. अबोलापन 2 दिन रहा घर में. आज रात ही तो इस घुटनभरे अबोलापन से छुटकारा मिला था. फिर उस ने पूछा तो था, ‘मेरे नाराज़ होने से तुम को बुरा लगता है न?’ और मैं ने सहजता से कह दिया था, ‘नहीं.’

ओह, निधि, तुम बात नहीं करती हो, तो मैं भी परेशान हो जाता हूं. लेकिन मैं दर्शाना नहीं चाहता. मुझे लगता, अगर इस बात को तुम्हारे सामने कहूंगा तो तुम और ज़्यादा रूठने लगोगी और अगर मैं कह दूं कि नहीं बुरा लगता तुम बात करो या न करो तो तुम रूठना कम कर दोगी. मैं ने अपना फ़ायदा देखा, तुम्हारी भावनाओं को नजरअंदाज किया. मुझे माफ़ कर दो, निधि. तुम आ जाओ वापस. अब मैं सबकुछ तुम्हारे हिसाब से करूंगा. मैं चाहता हूं कि तुम्हें समय दूं, पर…

मुझे पता है, तुम मुझे बहुत प्यार करती हो. तभी तो इतना गुस्सा करती हो. गुस्सा भी प्यार का ही एक रूप है. पर मैं उस समय इसलिए नहीं मनाता क्योंकि तुम उस समय मेरी बात बिलकुल नहीं समझ पातीं. इंसान जब किसी से नाराज़ होता है तो वह उस समय हर हाल में गलत लगता है. तब समझाना गुस्से को बढ़ाना ही होता है. तुम समझती हो कि उन लमहों में मैं बहुत आराम से रहता हूं, तुम्हें क्या पता कि मैं हर रात जागता हूं सिर्फ तुम्हारी याद में, शायद कौल आ जाए और मैं सुन न पाऊं. लमहालमहा बेचैनी और बेक़रारी छाई रहती है. तब सिर्फ तुम खयालों में मेरे रहती हो. वक्त का पता नहीं चलता और खानापीना सब भूला रहता.

तुम सोचती हो कि मैं तुम्हें अनदेखा करता हूं पर कभी तुम खुद को मेरी जगह रख कर देखो तब समझ आएगा कि काम का कितना प्रैशर रहता है मेरे ऊपर. तब तुम कहोगी कि क्यों करते हो इतना काम. तो मेरी जान, काम नहीं करूंगा तो तुम्हारी ज़रूरतें और रोज की फ़रमाइश कौन पूरा करेगा.

ऐसा क्यों किया निधि? तुम जानती हो मैं तुम्हारे बगैर एक पल नहीं रह सकता. थोड़ी व्यस्तता थी और कभीकभी दोस्तों के पास बैठ जाता था, लेकिन मैं फिर भी समय निकालता था तुम्हारे लिए. हां, इधर कुछ ज़्यादा झगड़ा होने लगा था. लेकिन वज़ह मैं या तुम नहीं थीं. वज़ह थीं परिस्थितियां. पर क्या करता, नौकरी ही ऐसी है कि उस के लिए चौबीस घंटे भी कम ही हैं. तुम को कितनी बार समझाया- तुम नहीं समझोगी तो और कौन समझेगा, बताओ.

रोने का मन हुआ मेरा. दिल किया नौकरी छोड़ वहां भाग जाऊं जहां निधि मेरी प्रतीक्षा कर रही है. पर उस ने बताया ही नहीं कि कहां गई है. वसंत के मौसम में मेरी वसंत पता नहीं कहां चली गई? दिल ने जैसे धड़कना ही बंद कर दिया. कुछ पलों की जुदाई इतनी तकलीफदेह. अब समझ आ रहा है कि क्यों निधि मेरे कईकई दिनों बाद घर आने पर रूठ जाती थी. सच, अकेलापन बहुत उबाऊ होता है.

खिड़की के खुली रहने के बावजूद दम घुट रहा था. हवा ने भी जैसे मुंह मोड़ लिया हो. बाहर निकला. बागबानी की शौकीन निधि क्यारियों में एक से बढ़ कर एक पौधे लगाए हुए थी. इस पर पहले कभी ध्यान नहीं गया था मेरा. मन वहां भी नहीं लगा.

आज फिर लखनऊ जाना था. मन नहीं कर रहा था. फिर भी जाना तो था ही. और फिर इस अकेलेपन से दूर भी जाना चाहता था.

चाय पीने की इच्छा हुई. किचेन में जाते ही निधि की याद आई और मैं लौट आया. आंसुओं को पोंछते हुए तैयार हुआ और निकल गया घर से. महसूस हुआ, पीठ पर किसी की आंखों का स्पर्श. पलट कर देखा, कोई न था.

लखनऊ जाने के बाद मेरा मन वापस अपने घर जाने के लिए बेचैन होने लगा. ऐसा लगता, निधि मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी.

वापस आ गया इलाहाबाद.

घर पहुंच कर जब देखा नहीं है निधि, मन झुंझलाया और निधि पर गुस्सा भी आया. क्या वह नहीं जानती कि नौकरी उसी के सुखसुविधा के लिए करता हूं. सोचता हूं कि उसे दुनिया की सारी खुशियां मिलें. मेरा मन भी करता कि उस के साथ बैठ सारी ज़िंदगी गुजार दूं. पर बैठने से सबकुछ नहीं मिल जाता- वह यह क्यों नहीं समझती है. मन खीझ आया अपनेआप पर. निकल गया घर से. निरुद्देश्य घूमता रहा सड़कों पर. बनारस जाने वाली बस दिखी. और मैं जा बैठा उसी में.

भूख से पेट में जलन उठी. प्यास भी महसूस हुई. 2 दिनों से भूखेप्यासे बेवजह चलते जा रहा था मैं.

एक जगह बस रुकी. पारले जी बिस्कुट के साथ एक कप चाय गटक लिया. दुख हो या सुख, पेट कब शांत रहा है.

गंगाघाट पर घंटों बैठा रहा. पानी को रौंदते हुए नाव, स्टीमर की आवाज़, पंक्षियों की चहचहाहट, मछलियों का बारबार उछल कर पानी की सतह पर आना, बच्चों की हंसी, प्रेमीप्रेमिकाओं की प्यारभरी बातें, प्यारेप्यारे जोड़ों की मदमस्त हंसी, बुजुर्ग की आस्थाभरी निगाह- उदासी के गर्त में मुझे धकेलने लगीं.

सब खुश है, सिवा मेरे. मेरे हिस्से दुख क्यों दे गई निधि? गंगाआरती की तैयारी शुरू हो गई. भीड़ का बढ़ता रेला और मेरा मन इस भीड़ से मुक्ति के लिए छटपटाने लगा. मन किया कि आरती देख लूं, पर आस्था-अनास्था के बीच त्रिशंकु जैसा मन डोलने लगा और मैं चुपचाप वहां से निकल गया.

मन किया एक बार निधि को फोन करूं, शायद वह मान जाए और आ जाए फिर से मेरी बांहों में. पौकेट में हाथ डाला, मोबाइल नहीं था. बेचैन मन ने सोचा, कहां छोड़ दिया मोबाइल. फिर मन ने ही समझाया कि शायद हड़बड़ी में छोड़ आया हूं घर पर.

ठंडी हवा का झोंका आया, चला गया. आसमान की ओर देखा- साफ और सफेद बादल तैर रहे थे. कुछेक तारे भी दिख रहे थे. चांद बादलों में छिप शरारत कर रहा था. यही चांद कई बार हमारे प्यार को देखा करता था जब खुले छत पर, आसमान के नीचे मैं और निधि एकदूसरे की बांहों में खोए रहते थे. निधि कभीकभी शरमा कर कहती, ‘धत, चांद मुझे देख रहा है.’

मैं हंसते हुए कहता, ‘चांद भी तुम्हारी तरह शरमा कर छिप रहा है.’

‘कहां हो गुड़िया?’ मैं यह कहता और हंसी आ जाती. जब भी उसे गुड़िया कहता, वह आंखों को गोलगोल घुमा कर कहती, ‘मैं निधि हूं, छोटी सी गुड़िया नहीं. जिसे जब चाहो, चाबी से चला लो. यहां मेरी मरजी चलती है, समझे.’

तुम्हारी मरजी ही तो चलती थी सोना. सोना कहने पर वह मूर्ति जैसी खड़ी हो जाती और कहती, ‘सोना में सजीव का लक्षण कहां से लाओगे.’

पलकों पर आंसू आ गए. क्या कभी लौट कर नहीं आएगी निधि…

रात एक ढाबे पर सो कर गुजारा. सुबह हुई. समझ नहीं आ रहा था कि कहां जाऊं. आखिरकार घर जाने के लिए बस में बैठ गया. तभी ‘मूंगफली ले लो मूंगफली’ की आवाज़ आई. 9 या 10 साल के बच्चे की आवाज़ थी. मैं ने उस के चेहरे पर भोली मुसकान देखी. खरीद लिया एक पाव मूंगफली. निधि को बहुत पसंद है. जब भी हम सफ़र पर होते, वह जरूर खरीदती.

बस चलने लगी. कुछ यात्री ऊंघने लगे, कुछ बातों में मशगूल और कुछ खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने में. ऊब कर मैं भी बाहर की ओर देखने लगा. मन कहीं भी नहीं लग रहा था.

वापस घर ही जाने का मन हुआ. सोचा, वहां निधि की यादों के साथ रह लूंगा.

घर पहुंचा, लौन में लगे पौधे मुरझा रहे थे. निधि की याद इन को भी आती होगी. सुना था कि पेड़पौधे भी उस के लिए उदास होते हैं जो उन्हें प्यार से सींचते व उन की देखभाल करते हैं. प्यारभरी नजरों से उन्हें देख, मुख्य दरवाजे का ताला खोल अंदर गया. अंदर किचेन से बरतन की आवाज़ आ रही थी. देखा, निधि चाय बना रही थी. मैं पागलों की तरह उस से लिपट गया, “मेरी जान, कहां चली गई थीं, तुम जानती हो कि तुम्हारे बगैर मैं नहीं रह सकता. एकएक पल एकएक बरस जैसा लग रहा था.”

निधि मुसकराई, “एहसास होना जरूरी है मेरी जान. किसी ने सच कहा है, ‘दूरियां प्यार को बढ़ाती हैं.’ मैं देख रही थी तुम्हारी बेचैनी, दिल कर रहा था, आ जाऊं तुम्हारे पास. पर कुछ देर और परेशान हाल देखने की चाहत के कारण मैं छिपी रही. तुम मुझे बहुत प्यार करते हो, राज. मैं तुम्हें छोड़ कर कभी नहीं जाऊंगी.”

“आज का दिन मेरे लिए खुशियोंभरा है. आज ही मेरा वसंत है और तुम मेरी बसंती,” मैं ने उसे चूमते हुए कहा.

यों ही अचानक: भाग 3- अकेले पड़ गए मुकुंद की जिंदगी में सारिका को क्या जगह मिली

सुदेश के दोस्त ने उन दोनों को सुदेश के बनारस के उस फ्लैट की चाबी दी जहां सुदेश अकसर यहां आने पर किराए पर रहता था. बात हुई कि दोस्त बाद में इस फ्लैट में आ कर उन्हें सारी बातें बताएगा और बिजनैस के मामले में सारिका को जानकारी देगा. दोनों होटल से अपना सामान ले कर यहां पहुंचे.

2 कमरों का यह फ्लैट सारी सुविधाओं से लैस था. कमरों में सामान अस्तव्यस्त था. दोनों मिल कर उसे समेटते रहे. अचानक दोनों एकदूसरे को देख झेंपने लगे. नशे से ले कर अश्लील वस्तुएं उधरउधर पड़ी मिल रही थीं. वैसे तो सारिका के लिए यह नई बात नहीं थी, मगर पत्नी होने का एहसास सारिका की आंखों से झरने लगा. मुकुंदजी ने उसे आवाज दी. उसे आंसू पोंछते देख वे उस के नजदीक आ गए.

झिझक को परे करते मुकुंदजी ने सारिका का हाथ धीमे से पकड़ लिया. कुछ एहसास यूं साझ हो गए कि सारिका अनजाने ही उन के करीब आ गई. 2 सांसें एकदूसरे की आहट को अपने में जज्ब करते कुछ देर यों ही खड़े रहे, फिर जैसे दोनों को अपनीअपनी शर्म और झिझक की फिक्र हो आई.

डाक्टर साहब परे हटते हुए बोले, ‘‘चलो गीजर औन है, नहा लो, फिर लंच के बाद अस्पताल चलना है न.’’

4 दिन और ऐसे ही अस्पताल तक दौड़ लगाते बीतते रहे. इस दलदल भरे जीवन में आखिर कब तक रुके रहते मुकुंदजी. उधर निलय भी अब पापा के लिए परेशान था. फिर उन के अपने मरीज. उन्हें भी डाक्टर साहब की जरूरत थी.

शाम को मुकुंदजी वापस आए तो सारिका से कहा, ‘‘निलय के बारे में सोच रहा हूं,  मुझे अब जाना होगा, मेरे मरीज भी परेशान हैं, मैं ने सुदेश के दोस्त को अच्छी तरह समझ दिया है. वह तुम्हें पूरी तरह मदद देगा. उस का फोन नंबर तो तुम्हारे पास है, अब सुदेश के सामने दोस्त की मदद से बिजनैस आदि की बातें अच्छी तरह समझ लो. घर से रिश्तेदारों को बुला लेना सही रहेगा.’’

सारिका फफक पड़ी. मुकुंदजी को वास्तविकता का ज्ञान था. उन्होंने बात जारी रखी, ‘‘मेरे रहते रिश्तेदार आएं तो तुम्हारे और मेरे बारे में बातें दूसरी निकल आएंगी. फिर तुम्हें मदद मिलनी मुश्किल होगी. मैं कल सुबह ही ट्रेन से वापस जा रहा हूं. तुम कल घर वालों को और ननदों को फोन कर के बुला लो. बिजनैस या पैसे के मामले में तुम्हें अपना हक समझना होगा. हार नहीं मानोगी, तुम्हें अपने बच्चे के साथ खुशी से जीना है, जिस ने जो किया, उसे वह मिला, यही सच है.’’

सुबह 5 बजे बगल के कमरे का दरवाजा ठेल वापसी को तैयार मुकुंदजी सारिका से मिलने आए. जाने की इत्तला देनी थी.

मद्धम नाइट लैंप की रोशनी में उन्होंने सारिका को देखा. आकर्षण का सुख मुकुंदजी की आंखों में लबालब भर गया. छरहरी परी सी काया बिस्तर पर जैसे मूक आमंत्रण दे रही थी.

किसी अनजाने लोक की रहस्यमयी स्त्री जैसे उन के संयम पर मंदमंद मुसकरा रही थी. वे उसे जानने को आतुर हो गई. भूल गए कि वे किसलिए अभी यहां आए थे, क्या कहना था उन्हें. मुकुंदजी सारिका के करीब आ गए थे. गुलाबी चुन्नी को सरकाया तो फिसल कर बदन से परे हट गई. उस के गोरे चेहरे पर और उस के रसभरे होंठों पर उन की दृष्टि निबद्ध हो गई. ‘एक पिता,’ ‘एक पति,’ ‘एक डाक्टर’ के परिचय में कैद मुकुंदजी आज अचानक अपने पिंजरे का दरवाजा खोलने को बेचैन से दिखे. रुके हुए स्रोत का बांध जैसे आज अचानक किसी ने खोल दिया था. शिला टूट गई थी, चाहत बह निकली थी.

अपने अंदर के एक अनजाने व्यक्ति से रूबरू होते हुए मुकुंदजी ने सारिका  को अपने हृदय में समेट उस के होंठों पर अपना होंठ रख दिया. एक पल को जैसे विश्व का स्पंदन थम गया. सारी ऊहापोह, नीलिमा को खोने का दुख, उस के प्रति अपराध भावना, खुद के गांभीर्य के प्रति सजग भाव सबकुछ खत्म हो गया पल में. सिर्फ 2 प्राण एक मन रह गए थे जैसे. सारिका जग चुकी थी. कुछ देर जगी हुई शांत सी पड़ी रही, फिर धीमे से दोनों हाथों से उन्हें बांध लिया. मुकुंदजी को सारिका के दिल का पता मिल गया था. वे उठ कर खड़े हो गए. कहा, ‘‘जा रहा हूं, मगर तुम्हारे लिए एक ही जगह ठहरा मिलूंगा, हां, अपना कर्तव्य पहले रखना. आज वह बीमार है, उस की दिल से सेवा करना, अगर स्वस्थ हो जाए तो उस का साथ निभाना, मेरी शुभकामनाएं हमेशा साथ रहेंगी तुम्हारे.’’ मुकुंदजी अपना बैग ले कर निकल गए. सारिका बोझिल और असहाय सी उन्हें जाते देखती रही. अब आगे क्या?

साल बीत रहे थे. निलय आज अपनी 10वीं कक्षा की परीक्षा के लिए गया था. अच्छे इलाज, देखरेख और बड़ा हो जाने की वजह से अब पहले से ज्यादा बेहतर था वह. स्कूलवालों की ओर से उसे अच्छी सुविधा दी गई थी और सैंटर से परीक्षा दिलवा कर उसे घर पहुंचाने की जिम्मेदारी स्कूल वालों ने ही ले रखी थी. मुकुंदजी की तबीयत आज कुछ ज्यादा ही खराब थी. बुखार ज्यादा चढ़ा हुआ था. 5 दिनों से वायरल हो रहा था उन्हें. अचानक उन्हें अपने सिरहाने किसी की आहट महसूस हुई. कौन हो सकता है? बेटे के निकलने के बाद आज वे दरवाजा लगाना भूल गए थे. आंखें खोलीं.

3 साल बाद अचानक कैसे. बोले, ‘‘सारिका? ’’ डाक्टर साहब व्याकुल हो उठे.

‘‘तुम कैसे आ पाई? कहां थी अब तक?’’

‘‘मायके में.’’

‘‘आओ, मेरे पास बैठो.’’

‘‘इतना बुखार है आप को?’’

‘‘तुम अपनी कहो सारिका.’’

आप के जाने के बाद महीनाभर मैं वहां रुकी रही. बेटे को मेरे मायके के ही पास स्कूल में भरती करवा दिया गया था. मेरी मां संभालती थी उसे. सभी रिश्तेदारों को खबर की गई थी, ननदें उन के बेटे और मेरे भाई आए थे.’’

‘‘उस के बाद?’’

‘‘बाद में मायके में ही आ गई मैं.’’

‘‘और सुदेश?’’

‘‘महीनेभर में ही वे चल बसे.’’

‘‘उड़ती खबर मैं ने भी सुनी थी, पर महीनेभर में ही?’’

‘‘ननदों ने अपने बेटों के लिए भी बिजनैस से हिस्सा निकाला. मुझे एक करोड़ थमाए, मैं संतुष्ट हूं, ज्यादा हिसाब नहीं मिलाती.’’

‘‘बेटा कहां है?’’

वह मायके में ही है, वहीं रम गया है. इस घर को मैं ने बेच दिया है और इसी शहर में दूसरा घर ले लिया है. आप की मरजी हो तो हम दोनों…’’

डाक्टर साहब ने उस के हाथों को अपने हाथों में ले कर पूछा, ‘‘आगे कहो.’’

‘‘आप कहें तो…’’

‘‘कहो.’’

सारिका ने सिर झका लिया. ढेरों बातें उस के दिल में छटपटाने लगीं. झिझक की वह बारीक झिल्ली बड़ी मजबूत सी लग रही थी जो तोड़े न टूटती थी.

मुकुंदजी उठ कर बैठ गए, कहा, ‘‘कालोनी वालों की नजरों के सामने तुम इस घर में साथ नहीं रहना चाहती न? ठीक है हम वहीं चले जाएंगे, जहां तुम कहो. पर अच्छी तरह सोचा तुम ने कि हम दोनों के बीच उम्र का फासला… तुम कितना सह पाओगी? और फिर निलय?’’

उन के कंधे पर सारिका ने अपना माथा टिका लिया और शांति से बोलती रही, ‘‘नीलिमा दीदी की अब पूरी जिम्मेदारी मेरी, निलय अगर मुझे अपना ले और आप ने उम्र की बात छेड़ी ही क्यों? मैं ने बताया नहीं आप को कि मैं इतना हिसाबकिताब नहीं देखती.’’

मुकुंदजी मुसकरा पड़े.

‘‘हां, अब वही बातूनी सारिका मुझे वापस मिल गई है. निलय की फिक्र न करो. जरा सा प्यार मिला नहीं कि पिघला.’’

फिर तो छोटे से कमरे में बड़ेबड़े सतरंगी सपनों के हजारों फूल खिलते रहे. सारिका बोलती रही. डाक्टर मुकुंद प्रधान

इस चपलाचंचला को मंत्रमुग्ध से सुनते रहे.

यों ही अचानक: भाग 2- अकेले पड़ गए मुकुंद की जिंदगी में सारिका को क्या जगह मिली

अच्छी कदकाठी और तीखे नैननक्श वाली सारिका उन के इतना नजदीक आ  खड़ी हुई तो वे घबरा गए. स्वभाव से अंतर्मुखी और अपनेआप में सिमटे हुए से डाक्टर साहब, ‘‘नहीं… नहीं… बिलकुल भी नहीं, मैं अभी जल्दी में हूं,’’ आदि कह कर उसे जाने का विचलित सा संदेश देते रहे.

मगर सारिका ने कहा, ‘‘मैं अकेला रहना बिलकुल पसंद नहीं करती. मगर क्या बताऊं हमेशा अब अकेले रहना होगा. क्या हुआ जो अगर हम आपस में कभी थोड़ी बात कर लिया करें?’’

‘‘कर लेंगे पर आज मुझे देर हो रही है,’’ मुकुंदजी अब भी टका सा जवाब दे कर हटने के प्रयास में थे.

‘‘आप को देर नहीं होगी, आप बस तैयार हो कर मेरे घर आ जाइए… अपना टिफिन मुझे दे दीजिए… इस में मैं ‘न’ नहीं सुनूंगी.’’

डाक्टर साहब ने आखिर हार मानी और मुसकरा कर बोल पड़े, ‘‘बड़ी जिद्दी हो.’’

‘‘लाइए पहले टिफिन दीजिए,’’ और इस तरह सारिका को दीवारों से बेहतर सुनने वाला मिल गया था.

‘‘आज बाजार में दुकानदार ने मुझे ढंग लिया, आज स्कूल में टीचर को खूब खरीखरी सुना आई. मेरा पति तो इधर पटक कर मुझे भूल ही गया, आप ही बताएं क्या मैं अकेले उम्र बिताने को ब्याही गई?’’

डाक्टर साहब अपने बेटे को शाम को पढ़ा रहे होते या फिर उस की पढ़ाई के वक्त पास बैठते, सारिका इन दिनों अपने बच्चे को उस की पढ़ाई के लिए मुकुंदजी के घर ले आती. दोनों बच्चे पढ़ते और वे दोनों थोड़ी दूरी पर बैठे होते. मुकुंदजी तो कई तरह की किताबें और अखबार पढ़ते और सारिका ताबड़तोड़ अपने दिल की बात मुकुंदजी को बताती. उम्र का फासला सारिका में जरा भी झिझक पैदा नहीं कर पाता.

मुकुंदजी अब सारिका की बातों के आदी हो रहे थे. उन की झिझक कुछ कम हो रही थी. अब संग वे थोड़ा हंसते, थोड़ा मजाक भी कर लेते जैसेकि नहीं, उम्र बिताने की अब फिक्र कहां. अब तो सिलसिला चल ही पड़ा है.

सारिका भौचक उन की ओर ताकती, फिर कहती, ‘‘मैं चलती हूं. आप के बेटे को पढ़ने में दिक्कत हो रही होगी, मेरी बातों की वजह से.’’

डाक्टर साहब कहते, ‘‘चलो दूसरे कमरे में बैठें.’’

सारिका अवाक होती. पहले तो मुकुंदजी भगाने की फिराक में रहते, अब क्या? मुकुंदजी वाकई उसे ले कर अपने बैडरूम में आते. उसे बिस्तर पर बैठने का इशारा कर के खुद बगल में रखे चेयर पर बैठ जाते.

सारिका को फिर से इतिहास के खंडहरों से ले कर भविष्य के टाइम मशीन में सवार यों ही बोलतेबतियाते छोड़ देते.

सात 17 बोलते वह जब कभी मुकुंदजी से कोईर् जवाब मांगती तो वे भौचक से उस की ओर ताकते.

कई दिनों से मुकुंदजी को ले कर सारिका के दिल में एक  कचोट पैदा हो रही थी. एक दिन वह इस तरह विफर पड़ी कि डाक्टर साहब अवाक उसे देखते रह गए.

‘‘फिर क्या फर्क रह गया आप में और सुदेश में? मैं तो अपने घर में बैठी अकेली इसी तरह बकबक कर सकती हूं. सुदेश जब भी घर आते पैसा पकड़ाने और देह की भूख मिटाने के सिवा मुझ से कोई वास्ता न रखते और आजकल तो वह रस्म भी जाने कैसे खत्म हो गई. मैं हूं या नहीं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता ठीक इसी तरह जैसे आप…’’

डाक्टर साहब शर्म से सिहर उठे. अवाक हो पहले तो सारिका को देखते रहे, फिर शर्म से गड़ने लगे.

अनर्गल बोलती सी सारिका अचानक ठिठक गई. महीना भर ही तो  हुआ है डाक्टर साहब से घुलतेमिलते, जाने क्याक्या वह बोल जाती है. उसे बहुत बुरा लग रहा था, वह चुप हो गई. डाक्टर साहब ऐसे ही शरमीले, इन बातों से वे शर्म से गड़ कर अखबार में ही धंस गए. उन दोनों की चुप्पी अब न जाने क्याक्या बोल उठी. डाक्टर साहब भी सुन रहे थे और सारिका भी. सारिका धीरे से उठी, नींद से बोझिल अपने बेटे को स्कूल बैग के साथ लिया और घर चली गई. 2 दिन वह नहीं आई. डाक्टर साहब ने भी कोई खबर नहीं ली.

चौथे दिन सारिका शाम 7 बजे उन के घर आई. कुछ ज्यादा ही अस्तव्यस्त, आंखें रोरो कर सूजी हुईं.

सारिका आते ही बोली, ‘‘कोई खोजखबर नहीं… मैं मुसीबत में पड़ूं तो क्या करूं. घर वाले इतनी दूर.’’

नर्मदिल डाक्टर साहब चिंतित से बोल पड़े, ‘‘क्यों क्या हुआ?’’

‘‘सुदेश बनारस गए हुए हैं, वहीं अचानक उन की तबीयत बहुत बिगड़ी… वे अस्पताल में हैं.’’

‘‘अरे क्या हुआ अचानक?’’

‘‘शायद लिवर में तकलीफ थी और अब तो बताया गया… और सारिका ने आंखें झका लीं, फिर तुरंत आगे कहने को उतावली सी डाक्टर साहब की ओर अपनी नजरें टिका दीं.

डाक्टर साहब ने उसे प्रेरित किया, ‘‘हां कहो और क्या बताया गया?’’

‘‘सैक्सट्रांसमिटेड डिजीज.’’

सारिका के कहते ही डाक्टर साहब की नजरें झक गईं. उन्हें सारिका पर बड़ा तरस आया कि बाकई दुखी स्त्री है.

डाक्टर साहब के साथ तो नीलिमा का प्यार और भरोसा हमेशा कायम है, लेकिन यह तो पति के रहते भी आज बहुत गरीब है.

डाक्टर साहब ने उसे अंदर ले जा कर कमरे में बैठाया. पूछा, ‘‘बनारस जाओगी?’’

‘‘मैं जाना चाहती हूं, मेरी जिंदगी यों मंझधार में…’’

सारिका को आंसू पोंछते देख डाक्टर साहब खुद को रोक नहीं पाए और आगे बढ़ उस के कंधे पर हाथ रखा. कहा, ‘‘ मैं ले जाऊंगा बनारस तुम्हें. अपने बेटे निलय को उस की बूआ के घर छोड़ दूंगा. तुम अंकित को…’’

सारिका उत्साहित सी बोल पड़ी, ‘‘मायके से कोई आ कर ले जाएगा, कहा था उन्होंने, अगर मैं बनारस जाऊं तो…’’

3 दिन बाद वे बनारस के एक होटल में थे. दोनों ने अगलबगल 2 कमरे लिए थे. तय हुआ दूसरे दिन वे अस्पताल सुदेश को देखने चलेंगे.

रात वे दोनों अपनेअपने कमरे में रहे. सुबह सारिका की  नींद खुली तो उसे बड़ी घबराहट हुई. वह तैयार हो कर मुकुंदजी के कमरे के दरवाजे पर गई. आवाज दी, सन्नाटे के सिवा कुछ भी हासिल नहीं हुआ उसे. फोन लगाया उस ने मुकुंदजी को. पता चला वे अलसुबह ही बनारस के घाट चले गए हैं.

सारिका उन्हें वहां अपने आने की इत्तला दे कर जल्दी बनारस घाट पहुंची. दूर से ही एकाकी कोने में बैठे मुकुंदजी सारिका को दिख गए. उगते सूरज को एकटक देख रहे थे वे.

सारिका कुछ देर उन के सामने खड़ी रही, फिर खुद ही बोल पड़ी, ‘‘आप मुझे छोड़ कर क्यों चल आए? अनजाने शहर में मेरी फिक्र नहीं की?’’

मुकुंदजी ने शांत भाव से सारिका को देखा और बोले, ‘‘फिक्र करता हूं तभी तो अनुमति लेने आया था.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘आगे की जिंदगी में न जाने कहां तक तुम्हारी फिक्र करनी पड़े, नीलिमा से कहे बिना कैसे तुम्हारा साथ दूं? मेरा मन कचोट रहा था, आज नीलिमा से अकेले में अपने मन की ऊहापोह…’’

एक बच्चे सी जिज्ञासा लिए सारिका पूछ बैठी, ‘‘नीलिमा दीदी से अनुमति मिल गई न?’’

डाक्टर साहब सिर झकाए बैठे रहे. क्या सारिका के प्रति वे दुर्बल हो रहे हैं? क्या उन के मन में सारिका को ले कर मोह और आकर्षण पैदा हो गया है?

और सारिका? क्या वह सिर्फ अपने हालात से जूझ रही या छोटी सी दूब उस की भी अनुभूतियों और कामनाओं की जमीन पर उग आईर् है? मुकुंदजी सारी असमंजस को एकतरफ ढकेल उठ खड़े हुए, ‘‘चलो तुम्हें अस्पताल चलना है न?’’ सारिका भी बिन कुछ कहे उठ खड़ी हुई. एक संतोष था कि शायद मुकुंदजी उस की परेशानी में साथ निभाएंगे.

सुदेश लंबा, स्मार्ट, गोराचिट्टा युवक जिसे अपने पैसे, औकात और व्यक्तित्व पर बड़ा घमंड था, जो किसी की सुनना अपनी तौहीन समझता था. अपने ऊंचे कांटेक्ट के बल पर वक्त को मुट्ठी में बांध सकता है, वह सोचता.

सुदेश जिस की पहली बीवी ने दुख झेला, बिन सहे चली गई, मगर दुख ले कर. दूसरी बीवी सहने की हद से गुजर गई तड़पती हुई. अनजाने ही दोनों की आहें लग गईं थी उसे. उस की बिंदास लापरवाह जिंदगी जीने के अंदाज ने उसे इस मरणखाट पर ला पटका था.

सुदेश से मिलने के बाद नर्स उन्हें अपने चैंबर में ले गईं. बोली, ‘‘मैं ने सुदेशजी से आप का फोन नंबर ले कर आप को फोन किया था. इन के दोस्त का नंबर मेरे पास है, वही इन का सबकुछ देख रहे हैं. कुछ देर में वे आ जाएंगे, इन के बिजनैस पार्टनर भी हैं. आप लोग उन से सारी बातें कर लें. सुदेशजी का लिवर सत्तर फीसदी खराब हो चुका है. साथ ही ट्रांसमिटेड डिजीज भी बहुत बढ़ा हुआ है, इन्फैक्शन अंदर तक फैल चुका है.’’

इस पूरे हालात में सारिका बहुत कमजोर सी पा रही थी खुद को. मुकुंदजी साथ न होते तो क्या होता… रहरह उस के दिमाग में यही खयाल आते.

प्रेम की इबारत

रात के अंधियारे में पूरा मांडवगढ़ अब कितना खामोश रहता है, यहां की हर चीज में एक भयानकता झलकती है. धीरेधीरे खंडहरों में तबदील होते महल को देख कर इतना तो लगता है कि ये कभी अपार वैभव और सुविधाओं की अद्भुत चमक से रोशन रहते होंगे. कभी गूंजती होंगी यहां रहने वाले सैनिकों की तलवारों की खनक, घोड़ों के टापों की आवाजें, हाथियों की चिंघाड़, जिस की गवाह हैं ये पहाडि़यां, ये दीवारें उस शौर्यगाथा की, जो यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरी पड़ी हैं.

यहां बने महल का हर कोना, जिस ने देखे होंगे वह नजारे, युद्ध, संगीत और गायन जिस की स्वर लहरियां बिखरी होेंगी यहां की फिजा में. काश, ये खामोश गवाह बोल सकते तो न जाने कितने भेद खोल देते और खोल देते हर वह राज, जो दफन हैं इन की दीवारों में, इन के दिलों में, इन के फर्श में, मेहराबों में, झरोखों में, सीढि़यों में और यहां के ऊंचेऊंचे गुंबदों में.’’

‘‘चुप क्यों हो गए दोस्त, मैं तो सुन रहा था. तुम ही खामोश हो गए दास्तां कहतेकहते,’’ रानी रूपमती के महल के एक झरोखे ने दूसरे झरोखे से कहा.

‘‘नहीं कह पाऊंगा दोस्त,’’ पहला वाला झरोखा बोलतेबोलते खामोश हो चुका था. किंतु महल की दीवारों ने भी तन्मयता से उन की बातें सुनी थीं. आखिरकार जब नहीं रहा गया तो एक दीवार बोल ही पड़ी :

‘‘दिन भर यहां सैलानियों की भीड़ लगी रहती है. देशीविदेशी इनसानों ने हमारी छाती पर अपने कदमों के जाने कितने निशान बनाए होंगे. अनगिनत लोगों ने यहां की गाथाएं सुनी हैं, विश्व में प्रसिद्ध है यह स्थान.

‘‘मांडवगढ़ के सुल्तानों का इतिहास, उन की वीरता, शौर्य और ऐश्वर्य के तमाम किस्सों ने, जो लेखक लिख गए हैं, यहां के इतिहास को अमर कर दिया है. समूचे मांडव में बिखरा पड़ा है प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य. नीलकंठ का रमणीक स्थान हो या हिंडोला महल की शान, चाहे जामा मसजिद की आन हो, हर दीवार, गुंबद अपने में समेटे हुए है एक ऐसा रहस्य, जहां तक बडे़बडे़ इतिहासकार भी कहां पहुंच पाए हैं.’’

‘‘हां, तुम सच कहती हो, ये कहां पहुंचे?’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘यह तो हम जानते हैं, मांडव का हर वह किला, उस की हर मेहराब, हर सीढ़ी, हर दीवार जो आज चुप है…जानती हो बहन, वह बेबस है. काश, कुदरत ने हमें भी जबां दी होती तो हम बोल पड़ते और वह सब बदल जाता, जो यहां के बारे में दोहराया जाता रहा है, बताया जाता रहा है, कहा जाता रहा है.

‘‘हम ने बादशाह अकबर की यात्रा देखी है. कुल 4 बार अकबर ने मांडवगढ़ के सौंदर्य का आनंद उठाया था. हम ने अपनी आंखों से देखा है उस अकबर महान की छवि को, जो आज भी हमारी आंखों में बसी हुई है. हम ने सुल्तान जहांगीर की वह शानोशौकत भी देखी है जिस का आनंद उठाया था, यहां की हवाओं ने, पत्तों ने, इस चांदनी ने.’’

पहली दीवार की तरफ से कोई संकेत न आते देख दूसरी दीवार ने पूछा, ‘‘सुनो, बहन, क्या तुम सो गईं?’’

‘‘नहीं बहन, कहां नींद आती है,’’ पहली दीवार ने एक ठंडी आह भर कर कहा.

‘‘देखो तो, रात की खामोशी में हवाएं उन मेहराबों को, झरोखों को चूमने के लिए कितनी बेताब हो जाती हैं, जहां कभी रानी रूपमती ने अपने सुंदर और कोमल हाथों से स्पर्श किया था,’’ पहली दीवार बोली, ‘‘ताड़ के दरख्तों को सहलाती हुई आती ये हवाएं धीरेधीरे सीढि़यों पर कदम रख कर महल के ऊपरी हिस्से में चली जाती हैं, जहां से संगीत की पुजारिन और सौंदर्य की मलिका रानी रूपमती कभी सवेरेसवेरे नर्मदा के दर्शन के बाद ही अपनी दिनचर्या शुरू करती थीं.’’

‘‘हां बहन, मैं ने भी देखा है,’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘इस हवा के पागलपन को महसूस किया है. यह रात में भी कभीकभी यहीं घूमती है. सवेरे जब सूरज की किरणों की लालिमा पहाडि़यों पर बिखरने लगती है तो यह छत पर उसी स्थान पर अपनी मंदमंद खुशबू बिखेरती है, जहां कभीकभी रूपमती जा कर खड़ी हो जाती थीं. कैसी दीवानगी है इस हवा की जो हर उस स्थान को चूमती है जहांजहां रूपमती के कदम पडे़ थे.’’

पहली दीवार कहां खामोश रहने वाली थी. झट बोली, ‘‘हां, इन सीढि़यों पर रानी की पायलों की झंकार आज भी मैं महसूस करती हूं. मुझे लगता है कि पायलों की रुनझुन सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर आ रही है.’’

दीवारों की बातें सुन कर अब तक खामोश झरोखा बोल पड़ा, ‘‘आप दोनों ठीक कह रही हैं. वह अनोखा संगीत और रागों का मिलन मैं ने भी देखा है. क्या उसे कलम के ये मतवाले देख पाएंगे? नहीं…बिलकुल नहीं.

‘‘पहाडि़यों से उतरती हुई संगीत की वह मधुर तान, बाजबहादुर के होने का आज भी मुझे एहसास करा देती है कि बाजबहादुर का संगीत प्रेम यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरा हुआ है.’’

उपरोक्त बातचीत के 2 दिन बाद :

रात की कालिमा फिर धीरेधीरे गहराने लगी. ताड़ के पेड़ों को वही पागल हवाएं सहलाने लगीं. झरोखों से गुजर कर रूपमती के महल में अपने अंदाज दिखाने लगीं.

झरोखों से रात की यह खामोशी सहन नहीं हो रही थी. आखिरकार दीवारों की ओर देख कर एक झरोखा बोला, ‘‘बहन, चुप क्यों हो. आज भी कुछ कहो न.’’

दीवारों की तरफ से कोई हलचल न होते देख झरोखे अधीर हो गए फिर दूसरा बोला, ‘‘बहन, मुझ से तुम्हारी यह चुप्पी सहन नहीं हो रही है. बोलो न.’’

तभी झरोखों के कानों में धीमे से हवा की सरगोशियां पड़ीं तो झरोखों को लगा कि वह भी बेचैन थीं.

‘‘तुम दोनों आज सो गई हो क्या?’’ हवा ने पूरे वेग से अपने आने का एहसास दीवारों को कराया.

‘‘नहीं, नहीं,’’ दीवारें बोलीं.

‘‘देखो, आज अंधेरा कुछ कम है. शायद पूर्णिमा है. चांद कितना सुंदर है,’’ हवा फिर अपनी दीवानगी पर उतरी.

‘‘मैं आज फिर नीलकंठ गई तो वहां मुझे फूलों की खुशबू अधिक महसूस हुई. मैं ने फूलों को देखा और उन के पराग को स्पर्श भी किया. साथ में उन की कोमल पंखडि़यों और पत्तियों को भी….’’

‘‘क्या कहा तुम ने, जरा फिर से तो कहो,’’ एक दीवार की खामोशी भंग हुई.

हवा आश्चर्य से बोली, ‘‘मैं ने तो यही कहा कि फूलों की पंखडि़यों को…’’

‘‘अरे, नहीं, उस से पहले कहा कुछ?’’ दीवार ने फिर प्रश्न दोहराया.

‘‘मैं ने कहा फूलों के पराग को… पर क्या हुआ, कुछ गलत कहा?’’ हवा के चेहरे पर अपराधबोध झलक रहा था. मानो वह कुछ गलत कह गई हो. वह थम सी गई.

‘‘अरे, तुम को थम जाने की जरूरत नहीं… तुम बहो न,’’ दीवार ने उस की शंका दूर की.

हवा फिर अपनी गति में लौटने लगी.

‘‘वह जो लंबा लड़का आता है न और उस के साथ वह सांवली सी सुंदर लड़की होती है…’’

‘‘हां…हां… होती है,’’ झरोखा बोल पड़ा.

‘‘उस लड़के का नाम पराग है और आज ही उस लड़की ने उसे इस नाम से पुकारा था,’’ दीवार का बारीक मधुर स्वर उभरा.

‘‘अच्छा, इस में आश्चर्य की क्या बात है? हजारों लोग  मांडव की शान देखने आतेजाते हैं,’’ हवा ने चंचलता बिखेरी.

‘‘किस की बात हो रही है,’’ चांदनी भी आ कर अब अपनी शीतल किरणों को बिखेरने लगी थी.

‘‘वह लड़का, जो कभीकभी छत पर आ कर संगीत का रियाज करता है और वह सांवलीसलोनी लड़की उसे प्यार भरी नजरों से निहारती रहती है,’’ दीवार ने अपनी बात आगे बढ़ाई.

‘‘अरे, हां, उसे तो मैं भी देखती हूं जो घंटों रियाज में डूबा रहता है,’’ हवा ने मधुर शब्दों में कहा, ‘‘और लड़की बावली सी उसे देखती है. लड़का बेसुध हो जाता है रियाज करतेकरते, फिर भी उस की लंबीलंबी उंगलियां थकती नहीं… सितार की मधुर ध्वनि पहाडि़यों में गूंजती रहती है .’’

‘‘उस लड़की का क्या नाम है?’’ झरोखा, जो खामोश था, बोला.

‘‘नहीं पता, देखना कहीं मेरे दामन पर उस लड़की का तो नाम नहीं,’’ दीवार ने झरोखे से कहा.

‘‘नहीं, तुम्हारे दामन में पराग नाम कहीं भी उकेरा हुआ नहीं है,’’ एक झरोखा अपनी नजरों को दीवार पर डालते हुए बोला.

‘‘हां, यहां आने वाले प्रेमी जोड़ों की यह सब से गंदी आदत है कि मेरे ऊपर खुरचखुरच कर अपना नाम लिख जाते हैं, जिन की खुद की कोई पहचान नहीं. भला यों ही दीवारों पर नाम लिख देने से कोई अमर हुआ है क्या?’’ दीवार का स्वर दर्द भरा था.

‘‘कहती तो तुम सच हो,’’ शीतल चांदनी बोली, ‘‘मांडव की लगभग हर किले की दीवारों का यही हाल है.’’

‘‘हां, बहन, तुम सच कह रही हो,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, जो अब तक खामोशी से उन की यह बातचीत सुन रही थी.

‘‘तुम,’’ झरोखा, दीवार, हवा और शीतल चांदनी के अधरों से एकसाथ निकला.

‘‘हर जगह नाम लिखे हैं, ‘सविता- राजेश’, ‘नैना-सुनीला’, ‘रमेश, नीता को नहीं भूलेगा’, ‘रीतू, दीपक की है’, ‘हम दोनों साथ मरेंगे’, ‘हमारा प्रेम अमर है’, ‘हम दोनों एकदूसरे के लिए बने हैं.’ यही सब लिखते हैं ये प्रेमी जोडे़,’’ नर्मदा की पवित्रता ने कहा.

‘‘बडे़ कठोर प्रेमी हैं ये लोग, जिस बेदर्दी से दीवारों पर लिखते हैं, इस से क्या इन का प्रेम अमर हो गया?’’ दीवार के स्वर में अब गुस्सा था.

‘‘ये क्या जानें प्रेम के बारे में?’’ झरोखे ने कहा, ‘‘प्रेम था रानी रूपमती का. गायन व संगीत मिलन, सबकुछ अलौकिक…’’

नर्मदा की पवित्रता की मुसकान उभरी, ‘‘मेरे दर्शनों के बाद रूपमती अपना काम शुरू करती थीं, संगीत की पूजा करती थीं.’’

बिलकुल, या फिर प्रेम का बावलापन देखा है तो मैं ने उस लड़की की काली आंखों में, उस के मुसकराते हुए होंठों में’’, हवा बोली, ‘‘मैं ने कई बार उस के चंदन से शीतल, सांवले शरीर का स्पर्श किया है. मेरे स्पर्श से वह उसी तरह सिहर उठती है जिस तरह पराग के छूने से.’’

चांदनी की किरणों में हलचल होती देख कर हवा ने पूछा, ‘‘कुछ कहोगी?’’

‘‘नहीं, मैं सिर्फ महसूस कर रही हूं उस लड़की व पराग के प्रेम को,’’ किरणों ने कहा.

‘‘मैं ने छेड़ा है पराग के कत्थई रेशमी बालों को,’’ हवा ने कहा, ‘‘उस के कत्थई बालों में मैने मदहोश करने वाली खुशबू भी महसूस की है. कितनी खुशनसीब है वह लड़की, जिसे पराग स्पर्श करता है, उस से बातें करता है धीमेधीमे कही गई उस की बातों को मैं ने सुना है…देखती रहती हूं घंटों तक उन का मिलन. कभी छेड़ने का मन हुआ तो अपनी गति को बढ़ा कर उन दोनों को परेशान कर देती हूं.’’

‘‘सितार के उस के रियाज को मैं भी सुनता रहता हूं. कभी घंटों तक वह खोया रहेगा रियाज में, तो कभी डूबने लगेगा उस लड़की की काली आंखों के जाल में,’’ झरोखा चुप कब रहने वाला था, बोल पड़ा.

ताड़ के पेड़ों की हिलती परछाइयों से इन की बातचीत को विराम मिला. एक पल के लिए वे खामोश हुए फिर शुरू हो गए, लेकिन अब सोया हुआ जीवन धीरे से जागने लगा था. पक्षियों ने अंगड़ाई लेने की तैयारी शुरू कर दी थी.

दीवार, झरोखा, पर्यटकों के कदमों की आहटों को सुन कर खामोश हो चले थे.

दिन का उजाला अब रात के सूनेपन की ओर बढ़ रहा था. दीवार, झरोखा, हवा, किरण आदि वह सब सुनने को उत्सुक थे, जो नर्मदा की पवित्रता उन से कहने वाली थी पर उस रात कह नहीं पाई थी. वे इंतजार कर रहे थे कि कहीं से एक अलग तरह की खुशबू उन्हें आती लगी. सभी समझ गए कि नर्मदा की पवित्रता आ गई है. कुछ पल में ही नर्मदा की पवित्रता अपने धवल वेश में मौजूद थी. उस के आने भर से ही एक आभा सी चारों तरफ बिखर गई.

‘‘मेरा आप सब इंतजार कर रहे थे न,’’ पवित्रता की उज्ज्वल मुसकान उभरी.

‘‘हां, बिलकुल सही कहा तुम ने,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

उन की जिज्ञासा को शांत करने के लिए पवित्रता ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘क्या तुम सब को नहीं लगता कि महल के इस हिस्से में अभी कहीं से पायल की आवाज गूंज उठेगी, कहीं से कोई धीमे स्वर में राग बसंत गा उठेगा. कहीं से तबले की थाप की आवाज सुनाई दे जाएगी.’’

‘‘हां, लगता है,’’ हवा ने अपनी गति को धीमा कर कहा.

‘‘यहां, इसी महल में गूंजती थी रानी रूपमती की पायलों की आवाज, उस के घुंघरुओं की मधुर ध्वनि, उस की चूडि़यों की खनक, उस के कपड़ों की सरसराहट,’’ नर्मदा की पवित्रता के शब्दों ने जैसे सब को बांध लिया.

‘‘महल के हर कोने में बसती थी वीणा की झंकार, उस के साथ कोकिलकंठी  रानी के गायन की सम्मोहित कर देने वाली स्वर लहरियां… जब कभी बाजबहादुर और रानी रूपमती के गायन और संगीत का समय होता था तो वह पल वाकई अद्भुत होते थे. ऐसा लगता था कि प्रकृति स्वयं इस मिलन को देखने के लिए थम सी गई हो.

‘‘रूपमती की आंखों की निर्मलता और उस के चेहरे का वह भोलापन कम ही देखने को मिलता है. बाजबहादुर के प्रेम का वह सुरूर, जिस में रानी अंतर तक भीगी हुई थी, बिरलों को ही नसीब होता है ऐसा प्रेम…’’

‘‘उन की छेड़छाड़, उन का मिलन, संगीत के स्वरों में उन का खो जाना, वाकई एक अनुभूति थी और मैं ने उसे महसूस किया था.

‘‘मुझे आज भी ऐसा लगता है कि झील में कोई छाया दिख जाएगी और एहसास दिला जाएगी अपने होने का कि प्रेम कभी मरता नहीं. रूप बदल लेता है समय के साथ…’’

‘‘हां, बिलकुल यही सब देखा है मैं ने पराग के मतवाले प्रेम में, उस की रियाज करती उंगलियों में, उस के तराशे हुए अधरों में,’’ झरोखे ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘गूंजती है जब सितार की आवाज तो मांडव की हवाओं में तैरने लगते हैं उस सांवली लड़की के प्रेम स्वर, वह देखती रहती है अपलक उस मासूम और भोले चेहरे को, जो डूबा रहता है अपने सितार के रियाज में,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

‘‘कितना सुंदर लगता था बाजबहादुर, जब वह वीणा ले कर हाथों में बैठता था और रानी रूपमती उसे निहारती थी. कितना अलौकिक दृश्य होता था,’’ नर्मदा की पवित्रता ने बात आगे बढ़ाई.

इस महान प्रेमी को युद्ध और उस के नगाड़ों, तलवारों की आवाजों से कोई मतलब नहीं था, मतलब था तो प्रेम से, संगीत से. बाज बहादुर ने युद्ध कौशल में जरा भी रुचि नहीं ली, खोया रहा वह रानी रूपमती के प्रेम की निर्मल छांह में, वीणा की झंकार में, संगीत के सातों सुरों में.

‘‘ऐसे कलाकार और महान प्रेमी से आदम खान ने मांडव बड़ी आसानी से जीत लिया, फिर शुरू हुई आदम खान की बर्बरता इन 2 महान प्रेमियों के प्रति…’’

‘‘कितने कठोर होंगे वे दिल जिन्होंने इन 2 संगीत प्रेमियों को भी नहीं छोड़ा,’’ हवा ने अपनी गति को बिलकुल रोक लिया.

‘‘हां, वह समय कितना भारी गुजरा होगा रानी पर, बाज बहादुर पर. कितनी पीड़ा हुई होगी रानी को,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, ‘‘रानी इसी महल के कक्ष में फूटफूट कर रोई थीं.’’

‘‘आदम खान रानी के प्रस्ताव से सहमत नहीं हुआ. रानी का कहना था कि वह एक राजपूत हिंदू कन्या है. उस की इज्जत बख्शी जाए…आदम खान ने मांडव जीता पर नहीं जीत पाया रानी के हृदय को, जिस में बसा था संगीत के सुरों का मेल और बाज बहादुर का पे्रम.

‘‘जब आदम खान नियत समय पर रानी से मिलने गया तो उस ने रूपमती को मृत पाया. रानी ने जहर खा कर अमर कर दिया अपने को, अपने प्रेम को, अपने संगीत को.’’

‘‘हां, केवल शरीर ही तो नष्ट होता है, पर प्रेम कभी मरा है क्या?’’ झरोखा अपनी धीमी आवाज में बोला.

तभी दीवार की धीमी आवाज ने वहां छाने लगी खामोशी को भंग किया, ‘‘हर जगह मुझे महसूस होती है रानी की मौजूदगी, कितना कठोर होता है यह समय, जो गुजरता रहता है अपनी रफ्तार से.’’

‘‘पराग, वह लंबा लड़का, जो रियाज करने आता है और उस के साथ आती है वह सुंदर आंखों वाली लड़की. मैं ने उस की बोलती आंखों के भीतर एक मूक दर्द को देखा है. वह कहती कुछ नहीं, न ही उस लड़के से कुछ मांगती है. बस, अपने प्रेम को फलते हुए देखना चाहती है,’’ झरोखा बोला.

‘‘हां, बिलकुल सही कह रहे हो. प्रेम की तड़प और इंतजार की कसक जो उस के अंदर समाई है वह मैं ने महसूस की है,’’ हवा ने अपने पंख फैलाए और अपनी गति को बढ़ाते हुए कहा, ‘‘उस के घंटों रियाज में डूबे रहने पर भी लड़की के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती. वह अपलक उसे निहारती है. मैं जब भी पराग के कोमल बालों को बिखेर देती हूं, वह अपनी पतलीपतली उंगलियों से उन को संवार कर उस के रियाज को निरंतर चलने देती है.’’

‘‘सच, कितनी सुंदर जोड़ी है. मेरे दामन में कभी इस जोड़ी ने बेदर्दी से अपना नाम नहीं खुरचा. अपनी उदासियों को ले कर जब कभी वह पराग के विशाल सीने में खो जाती है तो दिलासा देता है पराग उस बच्ची सी मासूम सांवली लड़की को कि ऐसे उदास नहीं होते प्रीत…’’ दीवार ने कहा.

‘‘यों ही प्रेम अमर होता है, एक अनोखे और अनजाने आकर्षण से बंधा हुआ अलौकिक प्रेम खामोशी से सफर तय करता है,’’ झरोखा बोला.

हवा ने अपनी गति अधिक तेज की. बोली, ‘‘मैं उसे देखने फिर आऊंगी, समझाऊंगी कि ऐ सुंदर लड़की, उदास मत हो, प्रेम इसी को कहते हैं.’’

खामोशी का साम्राज्य अब थोड़ा मंद पड़ने लगा था, सुबह की किरणों ने दस्तक देनी शुरू जो कर दी थी

मायूस मुसकान: आजिज का क्या था फैसला

लेखिका- रोचिका अरुण शर्मा

 

ममता का आंगन: मां के लिए कैसे बदली निशा की सोच

विदाई की बेला… हर विवाह समारोह का सब से भावुक कर देने वाला पल. सुंदर से लहंगे में आभूषणों से लदी निशा धीरेधीरे आगे कदम बढ़ा रही थी. आंसुओं से उस का चेहरा भीगा जा रहा था. सहेलियां और भाभियां उलाहना दे रहीं थीं, “अरे इतना रोओगी तो मेकअप धुल जाएगा.” इसी तरह की चुहलबाजी हो रही थी.

मगर वह चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी. खुद को दोराहे पर खड़ा महसूस कर रही थी आज वह.

सजीधजी सुंदर सी कार उसे पिया के घर ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी. अजय कार में बैठ चुका था. निशा ने कनखियों से देखा तो लगा कि अजय बेसब्री से उस का इंतजार कर रहा था, मानो कह रहा हो, “अब बस भी करो निशा… नए घर में भी लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.”

वह एक कदम आगे बढ़ती तो दो कदम पीछे वाली स्थिति थी. पापाभैया पास में ही खड़े थे. निशा पलट कर पापा के गले लग कर रोने लगी. भाई उसे प्यार से सहला रहा था, मानो पापा से छुड़ाना चाह रहा हो और कह रहा हो,” दीदी, एक नई सुंदर सी दुनिया तुम्हारी प्रतीक्षा में है. उस का स्वागत करो.”

तभी उस ने देखा कि मां किसी अपराधिनी सी दूर खड़ी अपने ढुलकते आंसुओं को छिपाने का असफल प्रयास कर रही थी. दोनों तरफ से स्थिति कमोबेश एक सी ही थी.

मां आगे बढ़ कर उसे गले लगाने का साहस नहीं कर पा रही थी क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं निशा नाराज ना हो जाए. ये अधिकार निशा ने उन्हें आज तक दिया ही नहीं था.

इधर, निशा भी चाहते हुए ममत्व की प्यास को सहलाने में नाकाम साबित हो रही थी. बड़ी ही मुश्किल से मां धीरेधीरे आगे आ कर खड़ी हो गई. मौसी, बुआ सभी से निशा प्रेम से गले मिल रही थी, तभी अचानक मां के दिल में गहरा दर्द का सैलाब उमड़ पड़ा और उसे जोर की रुलाई आ गई.

यह देख कर निशा से रहा नहीं गया. वह मां की तरफ बढ़ी. दोनों मांबेटी इस तरह गले मिलीं जैसे दोनों को एकदूसरे से कोई शिकवाशिकायत ही ना हो. शब्द साथ नहीं दे रहे थे. बस कुछ देर एकदूसरे से लिपट कर दोनों पूर्ण हो गई थी. अब निशा को जाना ही था, क्योंकि कार काफी देर से स्टार्ट हो कर खड़ी थी.

नए घर में पहुंच कर निशा को बहुत प्यारसम्मान मिला. शुरू के कुछ दिनों में उसे किसी भी काम में हाथ नहीं लगाने दिया. उस की छोटी प्यारी सी ननद अपनी मां के हर काम में हाथ बंटाती. धीरेधीरे हाथों की मेहंदी का रंग छूटने के साथसाथ नेहा भी घरपरिवार की जिम्मेदारियों में शामिल हो गई. जबकि मां के घर में वह कोई भी काम नहीं करती थी, मगर ससुराल तो ससुराल ही होता है. शुरुआत में कुछ कठिनाई भी आई. कई बार वह रो पड़ती थी कि अपनी समस्या किसे बताए.. क्योंकि अपनी मां को तो उस ने पूर्ण रूप से तिरस्कृत किया हुआ था

मां ने कई बार प्रयास किया था कि निशा घर के थोड़े बहुत काम सीख ले, परंतु ढाक के वही तीन पात. जब कुछ छोटी थी तो पापा के लाड़प्यार की वजह से और फिर बड़ी होने पर मां से एक अनकही रंजिश होने के नाते. यूं निशा को काम करने में कोई परेशानी नहीं थी, परंतु वह मां से कुछ नहीं सीखना चाहती थी. न जाने क्यों उन्हें अपना दुश्मन समझने लगी थी वह.

विवाह को लगभग 20 दिन बीत चुके थे. निशा की सास उसे एक बड़ा सा डब्बा देते हुए बोली, “बेटा, यह बौक्स तुम्हारी मां ने तुम्हें सरप्राइस के तौर पर दिया है. तुम्हीं इसे खोलना और देखना कि इस में क्या है. अपने सारे जेवर डब्बे में रख देना. लौकर में रखवा देंगे. घर में रखना सुरक्षित नहीं होगा.”

शाम को जब निशा अपने जेवर डब्बे में करीने से संभाल रही थी, तो उस ने वह बौक्स भी खोला. वह देख कर अवाक रह गई. डब्बे में सुंदर से सोने और हीरे के जेवरात थे और साथ में एक पत्र भी.

यह पत्र उस की मां रीता ने लिखा था, “प्यारी निशा, तुम्हारे पापा का मुझ से शादी करने का मकसद सिर्फ इतना था कि उन की अनुपस्थिति में मैं तुम्हारी देखभाल कर सकूं. अब तुम्हारा विवाह हो चुका है. समय के साथ धीरेधीरे समझ जाओगी कि एक पिता के लिए अकेले संतान को पालना कितना मुश्किल होता है. मां तो सिर्फ मां होती है. यह सौतेला शब्द तो हमारे समाज ने ही गढ़ा है. पूर्वाग्रह से ग्रसित यह भावना किसी स्त्री को जाने समझे बगैर ही खलनायिका बना देती है. तुम्हारा विदाई के समय मुझ से लिपटना मुझे उम्रभर की खुशी दे गया.

“मेरा बचपन भी कुछ तुम्हारी ही तरह बीता है. सदा सुखी रहना.

“और हां, अपनी मां से मिलने कब आ रही हो?”

वह सोच में पड़ गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. उसे इन गहनों में से ममत्व की सुगंध आने लगी. वह काफी देर तक उन्हें देखती रही. इन में से कुछ गहने उस की अपनी मां के थे और अधिकतर नई मां के, जिसे उस ने मां तो कभी माना ही नहीं.

दरअसल, निशा के जीवन में दुखद मोड़ तब आया, जब 12 साल की उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई थी. लाड़प्यार से पली एकलौती संतान कुदरत के इस अन्याय को सहने की समझ भी नहीं रखती थी. पिता राजेश भी परेशान. एक तो पत्नी की असमय मृत्यु का गम, दूसरा 12 साल की बिटिया को पालने की जिम्मेदारी. ऐसी कच्ची उम्र में जब बच्चे कई तरह के शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों से गुजरते हैं, एक पिता के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है, ऐसे में खासकर बिटिया का लालनपालन करना.

कुछ लोगों ने सलाह दी कि वह निशा की मौसी से विवाह कर ले. क्योंकि अपनी बहन की संतान को जितने प्यार से वह पालेगी, ऐसा कोई दूसरी महिला नहीं कर सकती. परंतु निशा की मौसी उस के पिता से उम्र में बहुत छोटी थी, इसलिए राजेश को यह मंजूर नहीं था. खैर, समय की मांग को देखते हुए रीता के साथ निशा के पिता राजेश का पुनर्विवाह सादे समारोह में हो गया.

मां को गए अभी सिर्फ एक ही साल हुआ था. निशा की यादों में मां की हर बात जिंदा थी. इकलौती संतान होने की वजह से मातापिता का संपूर्ण प्यार उसी पर निछावर था.

राजेश ने रीता के साथ विवाह तो किया, परंतु निशा को किसी भी मनोवैज्ञानिक संकट में वह नहीं डालना चाहते थे. रीता भी खुद बहुत समझदार थी. इधर निशा भावनात्मक मानसिक और शारीरिक तौर पर आने वाले बदलावों से गुजर रही थी.

मां उसे भावनात्मक सहारा देने का भरसक प्रयास करती, परंतु निशा हर बार मां को ठुकरा देती है. अकेलीअकेली उदास सी रहती थी वह. नई मां कभी पिता से हंस कर, खिलखिला कर बात करती, तो निशा परेशान हो उठती. उसे लगता कि इस महिला ने आ कर उस की मां की जगह ले ली है.

निशा की मां की साड़ियां राजेश के कहने पर अगर रीता ने पहन लीं, तो निशा आगबबूला हो उठती. यह सब देख कर रीता ने अपनेआप को बहुत संयमित कर लिया था. वह नहीं चाहती थी कि किशोरावस्था में किसी बच्चे के दिमाग पर कोई गलत असर पड़े. समय के साथसाथ निशा का अकेलापन दूर करने के लिए एक छोटा भाई आ चुका था. आश्चर्य कि छोटे भाई से निशा को कोई शिकायत नहीं थी. वह उस के साथ खेलती और अब थोड़ा खुश रहने लगी थी. लेकिन मां के प्रति अपने व्यवहार को वह नहीं बदल पाई थी.

22 साल की उम्र पूरी होने पर घर वालों से विचारविमर्श के बाद निशा का विवाह तय कर दिया गया. निशा ने भी कोई अरुचि नहीं दिखाई. वह तो मानो नई मां से छुटकारा पाना चाहती थी.

आज इन गहनों को संभालते वक्त वह सोचने लगी कि अपनी मां की साड़ी तक वह नई मां को नहीं पहनने देती थी और इस अनचाही मां ने तो उसे खूब लाड़प्यार से पाला. कभी अपने बेटे और उस में कोई फर्क नहीं किया.

विवाह के समय अपनी सुंदर कीमती साड़ियां और भारी गहने सब उसी को सौंप दिए, जैसा कोई असली मां करती है.

तभी सासू मां ने उसे आवाज दे कर दरवाजे पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. निशा का उदासीन चेहरा देख कर वह बोली, “अरे बेटा, क्या बात है…? मैं ने लौकर वाली बात कह कर तुम्हारा दिल तो नहीं दुखाया… दरअसल, घर में इतना कीमती सामान रखना असुरक्षित है इसीलिए मैं ने ऐसा कह दिया.”

“अरे नहीं मम्मी, ऐसी बात नहीं है,” कह कर वह रुक गई. आगे और कहती भी क्या..? कैसे कह देती कि जिस मां ने अपना सर्वस्व उस के लालनपालन में लुटा दिया, उस से वह इतनी नफरत करती थी कि पश्चाताप करने की भी कोई राह ही नहीं सूझ रही है.

खैर, सासू मां समझदार थी. सब जानते हुए भी वे अनजान ही बनी रहीं. इधर निशा के अंदर उधेड़बुन चलती रही.

शाम को अजय आ कर बोला,”अगले 2-3 दिन में हम तुम्हारे घर मम्मीपापा से मिलने चल रहे हैं.”

दरअसल, अजय की मां ने ही उसे निशा को मां के घर ले जाने की सलाह दी थी. वह धीरे से बोली, “ठीक है.” मगर मन ही मन बड़ी शर्मिंदा हो रही थी कि कैसे सामना करूंगी मां का.

अगले दिन सुबह मौसी का फोन आया. निशा आत्मग्लानि से भरी हुई थी. उस ने मौसी से मां का जिक्र किया. तब मौसी ने ही उसे बताया कि अजय के साथ उस का विवाह उस की मां रीता ने ही तय किया था. दरअसल, अजय की मां रीता की बचपन की सहेली थी. अजय की मां का विवाह तो समय से हो गया, परंतु यह रीता का दुर्भाग्य था कि बहुत ही छोटी उम्र में उस की मां की मृत्यु हो गई. पिता ने दूसरा विवाह नहीं किया. पारिवारिक सदस्यों के साथ मिल कर खुद ही अपनी बेटी को पालने की जिम्मेदारी ली. परिवार के बीच में रीता की परवरिश तो ठीकठाक हो गई, परंतु उस के विवाह में देरी होती रही, क्योंकि दादादादी की मृत्यु हो चुकी थी. ताऊताई अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए थे. अब रह गए थे रीता और उस के पिता. वह पिता को छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहती थी.

अधिक उम्र हो जाने पर भी लड़की के लिए लड़का मिलना कभीकभी मुश्किल काम साबित हो जाता है. इसीलिए जब राजेश की पहली पत्नी की मृत्यु हुई, तब रीता का विवाह उन के साथ इस शर्त पर हुआ कि उन की बेटी निशा को अपनी बेटी की तरह मान कर पालेगी. और रीता ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई. कुछ साल बाद अपना बेटा होने के बावजूद भी उस ने दोनों बच्चों में कभी कोई फर्क नहीं किया. और आज भी यह रीता ही थी, जिस ने निशा का रिश्ता अपनी सहेली के बेटे अजय से करवाया था, ताकि वह स्वयं अपनी बेटी के भविष्य को ले कर आशान्वित रहे. परंतु यह बात परिवार के किसी भी सदस्य ने निशा को नहीं बताई थी, क्योंकि उसे तो नई मां से अत्यधिक बैर था. फिर वह ये बात कैसे बरदाश्त करती…?

यह जान कर निशा अत्यधिक दुखी और शर्मिंदा थी. उस ने साहस कर के मां को फोन मिलाया.

उधर से मां की प्यारी सी आवाज आई,” बेटा, रिश्तों को सहेजने की कोई उम्र नहीं होती. जब भी अवसर मिले, इन्हें संवार लो.”

शायद मां इस से आगे कुछ नहीं बोल पाई और इधर निशा मायके जाने की तैयारी में जुट गई, क्योंकि उधर ममता का आंगन बांह पसारे उस के इंतजार में था.

यों ही अचानक: भाग 1- अकेले पड़ गए मुकुंद की जिंदगी में सारिका को क्या जगह मिली

होता,बहुत कुछ यों ही होता है अचानक, वरना 46 साल के सीधे से बिलकुल चुपचुप रहने वाले मुकुंद प्रधान की एक प्रेम कहानी नहीं बनती और वह भी पत्नी की मृत्यु के बाद.

मुकुंद प्रधान तो ऐसे व्यक्ति हुए कि वे सरेआम किसी लड़की को चूम भी रहे हों तो लोग अपनी आंखों को गालियां देते निकल जाएंगे, लेकिन अपनी आंखों पर भरोसा कभी न करेंगे.

बच्चों के डाक्टर उम्र तो बता ही दी, कदकाठी मध्यम. देखनेभालने की बात निकल ही आती है जब प्रेम प्रसंग की बात छिड़े. तो अपने मुकुंद प्रधान यद्यपि देखने में उतने बुरे भी नहीं थे, फिर भी कमसिन स्त्रियों की नजर उन पर कम ही पड़ती. गेहुंए वर्ण का एक सामान्य सा दिखने वाला व्यक्ति, मूंछें नदारद और आंखें. शायद जबान का काम करती.

बच्चों के मैडिसिन के डाक्टर थे. आए दिन गरीब बच्चों का मुफ्त इलाज करते. रविवार अपने बेटे के साथ समय बिताते. नीलिमा यद्यपि डाक्टर साहब की आगे की जिंदगी में भले ही न हों, मगर उन्हें भुलाया भी नहीं जा सकता.

नीलिमाजी डाक्टर साहब की सिर्फ अर्द्धांगिनी ही नहीं थीं, बल्कि वे डाक्टर साहब के साथसाथ पूरी कालोनी की आंखों का तारा भी थीं. गांव की सरल सी स्त्री, सीधीसादी, सूरत भोली सी. महल्ले भर में किसी को कोई तकलीफ हो नीलिमा दौड़ी जातीं. डाक्टर साहब की तो हर वक्त सेवा में मुस्तैद.

हां डाक्टर साहब और उन की पत्नी के दिल में तब चुभन सी हो जाती जब उन के इकलौते बेटे निलय की बात छिड़ जाती. 12 साल का यह बच्चा सैरेब्रल पैलेसी का शिकार था. कमर से लाचार था निलय और चलनेफिरने में उसे बहुत तकलीफ थी. नीलिमाजी इस बच्चे के उपचार के लिए आए दिन बड़ेबड़े डाक्टरों और विशेषज्ञों के चक्कर लगातीं, घर पर भी ज्यादा वक्त उसे व्यायाम करवाती रहतीं.

दूसरे शहर से खबर आई थी कि नीलिमाजी के ननदोई की तबीयत ज्यादा खराब है  और उन्हें अस्पताल में भरती करवाया गया है. नादान और सारी स्थितियों को संभालने में अक्षम. नीलिमा दौड़ी गईं ननद के पास. 3 दिन बाद वहां स्थिति कुछ सही हुई और ननद के जेठजेठानी ने आने की खबर दी तो वे वहां से वापसी का मन बना पाईं. ननद के घर से बसस्टैंड 5 किलोमीटर था. ननद के बेटे को सुबह 5 बजे स्कूटर से उन्हें बसस्टैंड तक छोड़ने को कहा गया. 2 रातों से सोई नहीं थीं नीलिमा, और उन का बीपी भी हाई रहता था. स्कूटर के पीछे बैठी नीलिमा कब नींद से बोझिल हो सड़क पर लुढ़क गईं और किस तरह अचानक सबकुछ खत्म हो गया, कोई कुछ समझ ही नहीं पाया.

एकाएक जैसे दुनिया चलती सी रुक गई थी. डाक्टर साहब जैसे बीच समंदर में फेंक दिए गए थे. दिनोंदिन उदास, चुपचुप और खुद में ही वे सिकुड़ते चले गए. निलय बीचबीच में दहाड़ें मार कर रोता और डाक्टर साहब के चुप कराने पर भी चुप नहीं होता. 3 महीने हुए थे उन की जिंदगी वीरान हुए और करीब 6 महीने पहले वे आईर् थी, ठीक उन के घर के सामने इस मकान में. वह सारिका थी, सुदेश की नई सी दिखने वाली 7 साल पुरानी 27 वर्षीय पत्नी. इन का एक 5 साल का बेटा अंकित भी साथ था.

सुदेश के कई तरह के व्यवसाय थे. 6 महीने पहले ये लोग डाक्टर साहब के घर के सामने वाला मकान खरीद कर यहां आ बसे थे.

36 साल के सुदेश महोदय की यह दूसरी शादी है. उन की पहली शादी टिकी नहीं. पत्नी ज्यादा सहनशील नहीं थी. जैसाकि आमतौर पर भारतीय महिलाओं के असंख्य गुणों में से एक माना जाता है.

सुदेश को बिजनैस ट्रिप पर जा कर नशा करने और खूबसूरत लड़कियों को बिस्तर की संगिनी बनाने का बेहद शौक था. पहली पत्नी इन की कुछ तेज किस्म की थीं. उन की खोजी दृष्टि से सुदेश बच न पाए और बीवी ने भी इस तरह घुटघुट कर जीने से बेहतर अलग हो जाना ही ठीक समझ.

सारिका बड़े परिवार और सीमित आय वाले घर की है. पैसे वाले 2 बहनों पर इकलौते लड़के का रिश्ता आते ही 21 साल की सारिका किसी भी कीमत पर बख्शी न जा सकी, ‘हर मर्द ऐसा ही होता है,’ ‘पहली पत्नी ने बदनाम करने के लिए ऐसा कहा’ आदि तर्कों से सारिका की अनिच्छा को खारिज करते हुए उसे सुदेश को सौंप दिया गया. हां यह शादी सौंप कर मुक्त हो जाने जैसी ही थी.

जिंदगी से सम?ौता तो कर लिया था सारिका ने, लेकिन अंदर की घुटन बातबात पर फूट पड़ती. पहले से ही वह ज्यादा बात करने वालों में से थी, तिस पर अब जब जिंदगी के फैसलों के आगे उस की एक न चली तो छोटीछोटी बातों पर ही वह खाने को दौड़ती.

सुदेश 2-4 दिन घर आता और निकल जाता. सारिका महसूस करती कि बिजनैस के साथसाथ उस की निजी जिंदगी के गहराए रहस्य उस के पति को बाहर दौड़ाते रहते.

आज भी वह अकेले ही बड़बड़ाती, भुनभुनाती बच्चे को स्कूल के लिए तैयार कररही थी.

बच्चा लगातार रो रहा था. सारिका को लगा बाहर स्कूल वैन आ चुकी है. वह दौड़ती गेट पर आई, वैन तो आई नहीं थी, लेकिन वह वहीं खड़े चिल्ला पड़ी, ‘‘सुबह से दहाड़ें मार रहा लड़का. पता नहीं चुप क्यों नहीं होता?’’

पास ही सामने गेट पर डाक्टर साहब अपने मुकुंद प्रधान खड़े निलय के स्कूल की गाड़ी का इंतजार कर रहे थे. उधर आंगन में बैठा निलय आधे घंटे से रोता हुआ अभी भी मां की याद में सुबुक रहा था.

सारिका के इस तरह कहने पर डाक्टर साहब बड़े लज्जित हुए. सैरेब्रल पैलेसी का शिकार निलय अपनी भावनाओं को बड़ी मुश्किल से दबा पाता है. वैसे तो पढ़ने में बड़ा होशियार है, ज्यादा शांत बैठ कर ड्राइंग आदि करता रहता है, लेकिन स्कूल जाते वक्त उसे मां की याद बड़ी सता जाती है. वह रोक नहीं पाता खुद को. डाक्टर साहब भी थोड़ी देर सहला कर छोड़ देते हैं. जितना ही वे उसे चुप कराते हैं, उस का दुख बढ़ ही जाता.

मुकुंदजी ने सारिका की ओर पलट कर देखा. आंखों में उन की मूक दर्द सा था. सारिका की उन पर नजर पड़ी. अभी तक 6 महीने बीत चुके थे, पर कभी भी उन से बातचीत नहीं हुई थी उस की. नीलिमाजी से परिचय होतेहोते ही वे चल बसीं. फिर सारिका की उन लोगों में दिलचस्पी नहीं रही. बेटे के स्कूल जाने के बाद वह घर के कामकाज और सिलाईबुनाई में व्यस्त हो जाती.

सारिका को महसूस हुआ कि उस का कहना डाक्टर साहब ने अपने बेटे के लिए समझ है. अभी वह बहुत जल्दी में थी, निलय की स्कूल वैन आ गई थी, वह जा चुका था, लेकिन सारिका का अपने बेटे को स्कूल वैन में बैठाना टेढ़ी खीर लग रहा था. लड़का कुछ ज्यादा ही अड़ गया.

डाक्टर साहब अचानक आगे आए और बच्चे को गोद में ले लिया. उसे पता नहीं कैसे बहलायाफुसलाया, लड़का स्कूल वैन में आराम से बैठ गया. उस के जाने के बाद सारिका मुकुंदजी की ओर बढ़ आई. कहा, ‘‘मैं ने अपने बेटे के बारे में कहा था कि दहाड़ें मार रहा है.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ डाक्टर साहब कह कर अंदर जाने लगे तो सारिका को अपनी बात पर अफसोस हो रहा. वह उन के पीछेपीछे अंदर तक आ गई.

डाक्टर साहब ने अचानक पीछे मुड़ कर उसे देखा तो ठिठक गए.

‘‘मुकुंदजी आज चाय मैं आप को पिलाती हूं,’’ सारिका मनुहार सी करने लगी.

‘‘चाय मैं पी चुका हूं, अब टिफिन तैयार कर क्लीनिक के लिए निकलूंगा,’’ डाक्टर साहब पिघलने को तैयार नहीं थे.

मुखौटा: समर का सच सामने आने के बाद क्या था संचिता का फैसला

भारतीयलड़कियों की किसी अमेरिकन या अंगरेज लड़के से शादी करने के बाद क्या हालत होती है इस का वर्णन करना आसान नहीं है. वे धोखा केवल इसलिए खाती हैं क्योंकि उन के परिवार वाले शादी से पहले लड़के की ठीक से तहकीकात नहीं करते.

निर्मला पुणे की रहने वाली हैं. उन की माता और महिला मंडल में आने वाली वत्सलाजी से अच्छी जानपहचान थी. एक दिन बातोंबातों में संचिता की शादी का जिक्र किया तब वत्सलाजी ने उन्हें अपने अमेरिका में रहने वाले भतीजे समर के बारे में बताया जो शादी के लायक हो गया था.

फिर दोनों अपनेअपने घर में इस बारे में बात करती हैं. संचिता अमेरिका में रहने वाले लड़के से शादी के लिए तैयार हो जाती है. वत्सलाजी भी समर को फोन कर के उस की राय मांगती है. तब वह भी शादी के लिए राजी हो जाता है. दोनों वीडियो चैट करते हैं तो सब ठीकठाक लगता है.

समर 2 महीनों के लिए भारत आ गया और झट मंगनी पट ब्याह हो गया. समर की

कोई भी तहकीकात किए बिना सिर्फ वत्सलाजी के भरोसे संचिता के मातापिता उस का ब्याह समर से कर दिया. वैसे वत्सलाजी पर भरोसा करने के पीछे एक वजह और थी और वह यह कि समर को वत्सलाजी ने ही पालपोस कर बड़ा किया था. समर  जब छोटा था तब उस के मातापिता की एक दुर्घटना में मौत हो गई थी.

समर की जिम्मेदारी उठाने के लिए कोई तैयार नहीं था. पर जब समर के अमीर मातापिता की प्रौपर्टी में से समर का पालनपोषण करने

वाले व्यक्ति क ो हर महीने 25 हजार रुपए देने की बात सामने आई, जोकि उन की प्रौपर्टी के पैसों के ब्याज में दिए जाने थे, वत्सलाजी उसे संभालने के लिए आगे आ गईं. वत्सलाजी विधवा थीं, उन्हें बच्चे भी नहीं थे और उन्हें मिलने वाली पैंशन से वे सिर्फ अपना ही गुजारा कर सकती थीं, इसलिए वे पहले समर को पालने के लिए मना पर 25 हजार रुपए महीने मिलने की बात सुन कर वे समर को पालने के लिए राजी हो गई.

वत्सलाजी ने समर के पालनपोषण में कोई कमी नहीं छोड़ी. उसे अच्छे स्कूल में पढ़ायालिखाया. उसे सौफ्टवेयर इंजीनियर बनाया. समर के 18 बरस का होने के बाद उस की प्रौपर्टी उस के नाम कर दी गई और 21 साल का होने के बाद उस के हाथों सौंप दी गई. पर पैसा मिलते ही समर की ख्वाहिशें बढ़ने लगीं और वह अमेरिका में बसने के सपने देखने लगा और फिर उस ने वैसा ही किया.

सौफ्टवेयर इंजीनियर बनते ही वह एक कंपनी में नौकरी के जरीए अमेरिका चला गया और वहीं पर बस गया. अब शादी के सिलसिले में वह भारत आया और संचिता के साथ शादी कर के उसे भी अमेरिका ले गया. समर के साथ खुशीखुशी कब 2 साल बीत गए संचिता को पता ही नहीं चला. उसे लगने लगा था मानो समर के साथ उसे दुनिया के सारे सुख मिल रहे हैं. ऐसे में ही उसे अपने गर्भवती होने का एहसास हुआ. डाक्टर के पास चैकअप करा कर इस बात की तसल्ली कर ली और फिर समर के आने की राह देखने लगी. वह जल्द से जल्द यह खुशखबरी समर को बताना चाहती थी.

शाम को समर के घर आते ही उस ने सब से पहले उसे यही खुशखबरी दी. पर उस के चेहरे पर खुशी की जगह और ही भाव नजर

आने लगे. उस का बदला रूप देख कर संचिता पलभर के लिए कांप गई. लेकिन कुछ ही क्षणों में समर संभल गया और संचिता को बांहों में भरते हुए बोला, ‘‘मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है मैं बाप बनने वाला हूं. सच कहूं तो तुम ने जब यह खुशखबरी दी तब मुझे कुछ सूझा ही नहीं. अब तुम आराम करो. कल हम अपनी अच्छी पहचान वाली लेडी डाक्टर के पास जाएंगे ताकि वह अच्छी तरह तुम्हारा चैकअप करें.’’

दूसरे दिन संचिता ने जब आंखें खोली तब उसे अपनी कमर के नीचे का भाग कुछ भारीभारी सा लग रहा था. उस ने कमरे का निरीक्षण किया तब उसे ऐसा लगा कि वह किसी अस्पताल के कमरे में है. उस ने उठने की कोशिश की तो उस से उठा भी नहीं जा रहा था. तब एक नर्स दौड़ती हुई उस के पास आई और बोली, ‘‘अब थोड़ी देर और आराम करो. 2-3 तीन घंटे बाद तुम उठ सकती हो.’’

संचिता ने जब उस से पूछा कि उसे क्या हुआ तब नर्स ने उसे हैरानी से देखते हुए कहा कि तुम्हारा अबौर्शन हुआ है. सुनते ही संचिता के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई क्योंकि वह तो सिर्फ चैकअप के लिए आई थी. डाक्टर ने

उसे कोलड्रिंक पीने के लिए दिया था. उस के बाद उसे गहरी नींद आने लगी और वह सो गई. पर अब उसे सब पता चल गया था. कुछ घंटों बाद समर आ कर उसे ले गया. घर जाने के

बाद उस ने शाम को संचिता से बस इतना ही कहा कि अभी वह बच्चे के लिए तैयार नहीं है. उसे अभी बहुत कुछ करना है. अगर वह उसे गर्भपात कराने को कहता तो शायद वह कभी तैयार नहीं होती, इसलिए उस ने यह रास्ता अपनाया.

अब संचिता के पास झल्लाने के सिवा कुछ नहीं बचा था. उस ने समर से बात करना छोड़ दिया. पहले समर के प्रति उस के मन में जो प्यार और आदर की भावना थी उस की जगह अब उस पर घृणा, तिरस्कार और चिड़ आने लगी थी. पर यहां विदेश में समर से बैर लेना उस ने उचित नहीं समझ क्योंकि यहां उस का कोई नहीं था. न कोई दोस्त न रिश्तेदार न पड़ोसी. अपना दर्द वह किसे सुनाती.

तभी एक दिन दोपहर को वत्सला बूआ का फोन आया. उन्होंने उसे बताया कि पिछले 15 दिनों में समर का 3 बार फोन आ चुका है और वह हर बार 25 लाख रुपए उस के अमेरिका के खाते में जमा करने की बात कह रहा है. उस ने बूआ को यह कहा कि  उस ने अपनी नौकरी छोड़ दी है और खुद का कोई कारखाना शुरू करना चाहता है, जिस के लिए उसे पैसों की सख्त जरूर है. पर बूआ को दाल में कुछ काला नजर आया, इसलिए उन्होंने संचिता से इस बारे में पूछना चाहा. पर संचिता को तो इस बारे में कुछ भी पता नहीं था. उलटा उस ने जब समर द्वारा धोखे से उस का गर्भपात कराने की बात वत्सला बूआ को बताई तब वे और भी हैरान रह गईं.

अब तो संचिता को समर से डर लगने लगा था. उस की सारी सचाई सामने आने लगी थी. विदेश में उस से बैर लेना मुनासिब नहीं था और मामापिता को सचाई बता कर वह उन्हें मुश्किल में नहीं डालना चाहती थी.

दूसरे दिन अब आगे क्या करना है, इस कशमकश में डूबी संचिता भारतीय

भूल के अमेरिका में रह रहे लोगों के लिए निकाले जा रहे अखबार के पन्ने पलट रही थी. तब एक तसवीर देख कर उस के हाथ रुक गए और उस ने वह खबर पढ़ी. प्रणोती, क्राइम विभाग की पत्रकार ने अपनी हिम्मत और दिमाग से बड़े सैक्स रैकेट का परदाफाश किया और सफेदपोश कहे जाने वाले भारत और पाकिस्तान के काले दरिंदों को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया. उस ने 2-3 बार वह खबर पढ़ी. उसे आशा की किरण नजर आने लगी. उस ने तुरंत अखबार के कार्यालय में फोन लगाया और प्रणोती के घर का पता और फोन नंबर ले लिया. प्रणोती उस की सहपाठी निकली. दोनों पूना में एकसाथ पढ़ा करती थीं. उस के पिताजी नौकरी के सिलसिले में अमेरिका गए और उस की मां को भी साथ ले गए और फिर हमेशा के लिए अमेरिका में ही बस गए.

संचिता ने फोन कर के प्रणोती से संपर्क किया और उस से मिलने की इच्छा जाहिर की. प्रणोती ने उसे तुरंत अपने घर बुला लिया. अमेरिका में भी उस का अपना कोई है यह जान कर संचिता को बहुत अच्छा लगा. प्रणोती से मिल कर उस ने उस के साथ जो कुछ घटा और वत्सला बूआ ने 25 लाख रुपयों के बारे में जो कुछ कहा वह सब बताया.

प्रणोती ध्यान से उस की बातें सुनती रही. लगभग 2 घंटे दोनों में इस बात पर चर्चा चली. फिर प्रणोती से विदा ले कर संचिता अपने घर चली गई. प्रणोती ने उसे आश्वासन दिया कि वह मामले की तह तक जाएगी.

इधर संचिता रातभर समर की राह देखती रही पर वह घर नहीं आया. फिर कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला. पर सुबह भी वह नहीं आया. उस ने झट से चाय बना कर पी और नहाधो कर प्रणोती से मिलने जाने की तैयारी की. उस की गैरहाजिरी से समर घर आ सकता था, इसलिए उसे जाते एक चिट्ठी छोड़ दी कि वह मार्केट जा रही है.

प्रणोती के घर जाते ही प्रणोती ने उसे बैठाया और कहा, ‘‘आज मैं जो बताने जा रही हूं उसे धैर्य से सुनना. तुम ने मुझे समर के औफिस का पता और उस के बारे में जो जरूरी जानकारी दी थी उस के आधार पर मैं ने कल ही उस की तहकीकात शुरू कर दी थी. संचिता, कल रात समर को खून के मामले में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. वह शबर के पुलिस लौकअप में बंद है. दूसरी बात उस ने नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया बल्कि उसे नौकरी से निकाला गया है क्योंकि उस ने औफिस में भारतीय मुद्रा के रूप में 25 लाख रुपयों का गबन किया था. वत्सला बूआ से उस ने सब झठ कहा था. कल सुबह उस के खाते में पैसे जमा होते ही उस ने वे पैसे कंपनी में भर कर खुद को छुड़ा लिया.

‘‘फिर दिनभर यहांवहां भटक कर शराब के नशे में धुत्त हो कर वह देर रात को कैसिनो में पहुंचा. वह हमेशा का ग्राहक था इसलिए कैसिनो के मालिक ने उसे जुआ खोलने के लिए 2 लाख रुपए उधार दिए, पर समर घंटेभर में ही सारे

पैसे हार गया और उस ने कैसिनो के मालिक से फिर से पैसों की मांग की. पर कैनो के मालिक ने उसे पहले के दो लाख रुपए 24 घंटों के अंदर वापस करने की बात कहते हुए और

पैसे देने से मना कर दिया. तब दोनों में इस बात को ले कर झगड़ा हो गया और झगड़ा बढ़तेबढ़ते लड़ाई में बदल गया जिस में समर के हाथों कैसिनो के मालिक का खून हो गया. वह वहां

से भागने की फिराक में था पर कैसिनो के बाउसरों ने उसे पकड़ लिया और पुलिस के हवाले कर दिया.

‘‘और अब मैं जो कहने जा रही हूं वह सुन कर तुम्हारे पांवों तले की जमीन खिसक जाएगी. तुम्हारी शादी से 6 महीने पहले उस ने एक जरमन लड़की से शादी की पर उस लड़की ने समर की चालढाल देख कर उसे छोड़ दिया. दोनों का अब तक कानूनी तौर पर तलाक भी नहीं हुआ है. इसलिए तुम्हारी शादी गैरकानूनी मानी जा सकती है. तुम्हारा गर्भपात कराने के पीछे भी शायद यही मंशा थी कि तुम्हारी और तुम्हारे बच्चे की वजह से वह मुश्किल में पड़ सकता था.

‘‘संचिता, समर पूरी तरह फ्रौड निकला. उस पर दया करने की कोई जरूरत नहीं है. तू जैसे भी हो अपनेआप को उस के चंगुल से छुड़ा ले. मैं अपने वकील से बात करती हूं. देखते हैं वे क्या सलाह देते हैं. कल दोपहर को समर को कोर्ट में हाजिर किया जाएगा. हम वहां अपने वकील के साथ जाएंगे. अभी तुम अपने घर जाओ और तुम्हारा जितना सामान, जेवरात और पैसे हैं उन्हें ले कर मेरे घर आ जाओ. यहां तुम्हारी सारी चीजें बिलकुल महफूज रहेंगी और मामला पूरी तरह से निबटने तक तुम मेरे घर मेरी सहेली, मेरी बहन बन कर रह सकती हो.’’

संचिता ने आंसू पोंछे और प्रणोती के हाथों पर हाथ रख कर हां में सिर हिलाते हुए चली गई. घर पहुंचते ही संचिता ने तुरंत अपनी बैग निकाला और सारे कपड़े उस में भर दिए.

अपने जेवर सहीसलामत देख कर उसे राहत महसूस हुई. उस ने जेवर, नकद रुपए, अपने सारे कागजात और पासपोर्ट व वीजा भी बैग में रखा. फिर पूरे घर पर एक नजर डाल कर अपना बैग उठा कर प्रणोती के घर चल दी.

दूसरे दिन समर को कोर्ट में हाजिर किया गया. संचिता प्रणोती के साथ वहीं खड़ी थी. कोर्ट से बाहर आने के बाद संचिता ने समर का कौलर पकड़ कर उस से पूछा कि उस ने

ऐसा क्यों किया, पर समर ने कोई जवाब नहीं दिया और पुलिस की गाड़ी में जा बैठा. संचिता प्रणोती के साथ मिल कर उस जरमन लड़की से भी मिली जिसे समर ने धोखा दिया था. समर के कारनामे सुन कर वह लड़की हैरान रह गई. उस ने संचिता से सहानुभूति दिखाई और कहा कि समर से छुटकारा पाने के लिए अगर उसे उस से कोई मदद चाहिए तो वह उस की जरूर मदद करेगी.

अब संचिता को विश्वास हो गया कि वह समर से आसानी से छुटकारा पा लेगी. लेकिन समर का केस पूरे डेढ़ साल तक चला. समर को 10 साल की कैद की सजा सुनाई गई. इस बार संचिता ने उस के सामने तलाक के कागजात रख दिए और समर ने भी बिना कुछ कहे उन पर साइन कर दिए. संचिता आजाद हो चुकी थी. उस ने प्रणोती को बहुतबहुत धन्यवाद दिया.

समर के काले कारनामों की पूरी जानकारी संचिता ने वत्सला बूआ और अपने मातापिता को दे दी. उन सभी को गहरा आघात लगा. वत्सला बूआ ने संचिता के मातापिता से माफी मांगी. लेकिन इस में वत्सला बूआ की कोई गलती नहीं थी और वे भी समर के धोखे की शिकार हुई थीं, इसलिए संचिता के मातापिता ने उन्हें माफ कर दिया.

अगले हफ्ते संचिता मुंबई के सहारा हवाईअड्डे पर उतर रही थी. उस के मातापिता और वत्सला बूआ उस के स्वागत के लिए खड़े थे, उस ने समर के चेहरे पर लगा झठ का मुखौटा जो निकाल फेंका था और उस का असली चेहरा दुनिया के सामने लाया था. ऐसे और भी कितने समर इस दुनिया में मौजूद हैं, जिन के चेहरे पर चढ़ा झठ का मुखौटा निकाल फेंकने के लिए खुद महिलाओं को ही आगे आना होगा.

उसका दुख: क्या नंदा को मिल पाया पति का प्यार

टैक्सी हिचकोले खा रही थी. कच्ची सड़क पार कर पक्की सड़क पर आते ही मैं ने अपने माथे से पंडितजी द्वारा कस कर बांधा गया मुकुट उतार दिया. पगड़ी और मुकुट पसीने से चिपचिपे हो गए थे. बगल में बैठी सिमटीसिकुड़ी दुलहन की ओर नजर घुमा कर देखा, तो वह टैक्सी की खिड़की की ओर थोड़े से घूंघट से सिर निकाल कर अपने पीछे छोड़ आए बाबुल के घर की यादें अपनी भीगी आंखों में संजो लेने की कोशिश कर रही थी.

मैं ने धीरे से कहा, ‘‘अभी बहुत दूर जाना है. मुकुट उतार लो.’’

चूडि़यों की खनक हुई और इसी खनक के संगीत में उस ने अपना मुकुट उतार कर वहीं पीछे रख दिया, जहां मैं ने मुकुट रखा था.  चूडि़यों के इस संगीत ने मुझे दूर यादों में पहुंचा दिया. मुझे ऐसा लगने लगा, जैसे मेरे अंदर कुछ उफनने लगा हो, जो उबाल आ कर आंखों की राह बह चलेगा. आज से 15 साल पहले मैं इसी तरह नंदा को दुलहन बना कर ला रहा था. तब नएपन का जोश था, उमंग थी, कुतूहल था. तब मैं ने इसी तरह कार में बैठी लाज से सिकुड़ी दुलहन का मौका देख कर चुपके से घूंघट उठाने की कोशिश की थी. वह मेरा हाथ रोक कर और भी ज्यादा सिकुड़ गई थी.

मैं ने उसे अभी तक देखा ही नहीं था. मैं ने चाचाजी की पसंद को ही अपनी पसंद मान लिया था. अब उसे देखने के लिए मन उतावला हो रहा था. नंदा को पा कर मैं फूला नहीं समा रहा था. वह भी खुश थी. भरेपूरे परिवार में वह जल्दी ही हिलमिल गई. मां उस की तारीफ करते नहीं अघाती थीं. घर में जो भी औरतें आतीं, वे अपनी बहू से उन्हें जरूर मिलाती थीं. अपने 5 बेटों और बड़ी बहू का वे उतना ध्यान नहीं रखतीं, जितना उस का रखती थीं. सासससुर की देखरेख, देवरननदों की पढ़ाई की सुविधा जुटाना, मुझे कालेज में जाने के लिए कपड़े, जूते, किताबें तैयार कराना, नौकरचाकरों को अपनी देखरेख में काम कराना उस के जिम्मे लगने लगा था. अगर मैं कभीशहर घूम आने या अपने दोस्तों के यहां चलने के लिए कहता, तो वह धीरे से कह देती, ‘ससुरजी को दवा देनी है. नौकरों से सब्जी की गुड़ाई करानी है. जानवरों के सानीपानी देना है. जेठानीजी अकेले कहां करा पाएंगी इतना सारा काम? मैं चली जाऊंगी, तो सासूमां को तकलीफ उठानी पड़ेगी. आज नहीं, फिर कभी.’

उस की ऐसी दलीलों को सुन कर मन मसोस कर मुझे चुप रह जाना पड़ता. जोशीजी की पत्नी ताना दे कर कहतीं, ‘‘मास्टरजी, कभी बहू को तो यहां लाया करो. आप ने तो उन्हें ऐसे छिपा लिया है, जैसे हम नजर लगा देंगे.’’ कालेज से जब घर लौटता, तो थक कर चूर हो जाता था. कभीकभी तो आठों पीरियड पढ़ाने पड़ जाते थे. मेरी तकलीफ नंदा जानती थी. समय निकाल कर जिद कर के वह मालिश करने लग जाती. एक दिन वह मुझ से नाराज थी. रात को बिना खाए ही सो गई. बात यह थी कि उस ने उस दिन मेरे पास आ कर कहा था, ‘‘पतिजी, एक बात कहूं? अगर आप मानोगे, तो तब कहूंगी,’’ वह बड़ी ही मासूमियत से बोली थी. वह अकेले में मुझे ‘पतिजी’ कहती थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कहो तो सही.’’

‘‘पहले मानूंगा कहो,’’ वह बोली.

‘‘अच्छा बाबा, मानूंगा,’’ मैं बोला.

‘‘मुझे कुछ ज्यादा पैसे चाहिए,’’ उस ने कहा.

‘‘किसलिए चाहिए, यह तो बताओ?’’

‘‘अभी यह मत पूछो. तुम्हें अपनेआप पता चल जाएगा. मुझे 3 सौ रुपए की जरूरत है,’’ वह बोली.

‘‘जब तक तुम वजह नहीं बताओगी, पैसे नहीं मिलेंगे,’’ मैं ने भी अपना फैसला सुना दिया. इस के बाद वह रात को मुझ से नहीं बोली. सब को खाना खिला कर वह बिना खाए ही सो गई. दूसरे दिन मांजी को नंदा से कहते हुए सुना, ‘‘क्या बात है, जसौद हरीश व हंसी को साथ ले कर नैनीताल नंदा देवी देखने ले जाने वाला था, अभी तक तैयार नहीं हुए?’’

‘‘पैसों का इंतजाम नहीं हो पाया मांजी. अगर आप थोड़ा पैसों की मदद कर दें, तो मैं उन से मांग कर आप को दे दूंगी, नहीं तो बच्चों का दिल टूट जाएगा. वे एक हफ्ते से कितने बेचैन हैं?’’ कहते हुए वह मांजी की ओर याचना भरी नजरों से देख रही थी.

‘‘ऐसा था, तो अभी तक क्यों नहीं कहा… मैं तो सोच रही थी कि शायद तुम्हारे जाने का प्रोग्राम बदल गया है,’’ मां बोलीं.

‘‘मांजी, मैं ने सोचा कि उन से कह कर…’’ मुझे देख कर वह चुप हो गई. मैं कालेज जाने की तैयारी कर रहा था. सासबहू की बातें मेरे कानों में पड़ीं, तो मैं उन के पास पहुंचा और जेब से पैसे निकाल कर नंदा को थमाते हुए बोला, ‘‘अरे भई, पहले ही कह दिया होता. वजह तो मैं पूछ ही रहा था. मैं ने कभी मना किया है तुम्हें?’’

वह मुसकराते हुए पैसे ले कर अंदर की ओर चल दी. वह देवरननद को यह खुशखबरी देने की बेचैनी अपने में नहीं रोक सकी. देवर व ननद से इतना लगाव देख कर मुझे उस से और भी प्यार हो आया. हमारी खुशहाल जिंदगी के 2 साल बीत गए. इस बीच हमारी गोद में एक नन्हा मुन्ना भी आ गया. बच्चे की जिम्मेदारी मांजी ने अपने ऊपर ले ली थी. वे ही उसे नहलातींधुलातीं, देखरेख करतीं. नंदा केवल अपना दूध पिलाने और रात को पास में ही सुलाने की ड्यूटी निभाती. सब ठीक ही चल रहा था. बोझ का एहसास तो तब हुआ, जब 4 साल और 2 साल के फर्क में 2 लड़कियां और चली आईं. उस दिन मेरा बेटा नवीन मेरे पलंग पर आ कर सो गया था. बड़ी बेटी मां के पास सो रही थी. छोटी बेटी को नंदा थपकी दे कर अपनी चारपाई पर सुला रही थी. मैं ने नंदा के मन को टटोलने के लिए पूछ लिया, ‘‘आधा दर्जन पूरा होने में 3 ही अदद की तो कमी रह गई. तुम्हारा क्या विचार है?’’

वह झुंझला कर बोली, ‘‘तुम भी कैसी बात करते हो जी? इन 2 लड़कियों की फिक्र ही मेरा दिमाग चाट रही है. 2-1 और हो जाएं, तो घर का भट्ठा ही बैठ जाएगा. ब्याहने के लिए कहां से लाओगे इतने पैसे?’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम ठीक कह रही हो. वह तो मैं ने तुम्हारे विचार जानने के लिए कहा था. सोच रहा हूं कि इस आने वाले जाड़ों में परिवार नियोजन करा लूं.’’

यह सुन कर वह चौंक पड़ी. कुछ देर वह मेरी ओर ताकती रही, फिर मेरे पास आ कर कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘तुम इतने कमजोर हो. कहीं तुम्हें कुछ हो गया, तो मैं क्या करूंगी? मैं तो कहीं की नहीं रहूंगी. मुझे ही फैमिली प्लानिंग करा लेने दो. तुम जब कहो, तब मैं अस्पताल चल दूंगी.’’

मैं खीझ उठा, ‘‘तुम्हारी सोच तो बस जिद करने की आदत है. तुम यह क्यों नहीं समझतीं कि मर्द को फैमिली प्लानिंग में ज्यादा मुश्किल नहीं होती. औरत के लिए दिक्कत होती है. अस्पताल में कम से कम 2 दिन रुकना पड़ता है. दूसरा कोई आसान तरीका अभी नहीं निकला है. तुम निश्चिंत रहो. मुझे कुछ नहीं होने वाला है.’’

‘‘नहीं, तुम यह कभी मत करना. मैं ने सुना है कि मर्द कमजोर हो जाते हैं. मैं सारी तकलीफ झेलने को तैयार हूं, पर तुम्हें आपरेशन नहीं कराने दूंगी.’’

उस के मासूम चेहरे को देख कर मुझे ‘हां’ कहने के अलावा और कोई चारा नहीं दिखा.

3 महीने भी नहीं गुजरे थे कि सरकारी आदेश आ गया. 2 बच्चों से ज्यादा जिन के बच्चे हैं, तुरंत नसबंदी कराने के सख्त आदेश कर दिए. उन दिनों इमर्जैंसी चल रही थी. चमचों और पिछलग्गुओं की बन आई थी. नेताओं को खुश करने के लिए, सरकार को खुश करने के लिए जनता पर जीतोड़ कहर ढाया जा रहा था. तब प्रिंसिपल भी भला पीछे क्यों रहें. उन के तो दोनों हाथ में लड्डू थे. सरकार को भी खुश करो और दर्जनभर केस दिलवा कर एक इंक्रीमैंट और जुड़वा लो. मैं ने आपरेशन कराने से पहले नंदा की रजामंदी ले लेना ठीक समझा, वरना उसे मनाना मुश्किल होगा. इन दिनों वह बच्चों को ले कर रामगढ़ गई हुई थी. जब उसे मालूम हुआ कि मैं आपरेशन कराने वाला हूं, वह दौड़ीदौड़ी चली आई. मेरे समझाने पर भी वह नहीं मानी. आपरेशन की ड्रैस पहना कर जब नर्सें उसे आपरेशन रूम में ले जा रही थीं, तब मेरा कलेजा काटने को आ रहा था. मैं अपने को धिक्कार रहा था कि मैं उसे क्यों अस्पताल ले आया? क्यों उस की बात मानी?

आपरेशन रूम से बाहर लाने में तकरीबन आधा घंटा लगा होगा. मुझे वे पल घंटों लंबे लगे. स्ट्रेचर पर सफेद कपड़ों में उसे बेहोश देख कर मुझे एकबारगी रोना सा आ गया. गला ऐसा भर आया, मानो कोई गला घोंटने लगा हो. बेहोशी में कराह के बीच उस का पहला साफ शब्द था, ‘‘पतिजी…’’ 3 साल बाद शादी की 13वीं सालगिरह की मनहूस आखिरी रील चल रही थी. इस रील के प्रमुख पात्र थे. मैं नायक था, नायिका नंदा थी और खलनायक खुद ऊपर वाला. खलनायक को नंदा का मेरे पास रहना अब नागवार सा लगा. फिर क्या था, उस ने उसे मुझ से छीनने की साजिश रच डाली. चिनगारी बुझने से पहले खूब रोशनी करती है न, ऊपर वाले ने नंदा की जिंदगी का भी यही सब से अच्छा सुनहरा साल चला दिया.

उस का छोटा भाई अपनी दीदी से मिलने आया था. नंदा अपनी खुशी को नहीं संभाल पा रही थी. अंदरबाहर इधरउधर वह तितली सी फुदक रही थी. रात को जब सब लोग मेरे बैडरूम में रेडियो के गानों के बीच गपशप में मशगूल थे, तो नंदा ने मुझ से अपनी तकलीफ जाहिर की, ‘‘आज मैं खाना नहीं खा सकी. मेरे जबड़े में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘ज्यादा बोलती है न, इसलिए जबड़ा दर्द करेगा ही,’’ मैं ने बात हंसी में टाल दी. सुबह अपने भाई को विदा कर वह मेरे पास आ रही थी. आते ही वह सिसकियों से भर गई. आखिर इतना दुख वह कब से अपने में रोके थी? मैं हैरान रह गया. शायद भाई की जुदाई हो. पर ऐसी कोई बात न थी. उस का रोना शारीरिक दुख था. वह अपना मुंह पूरी तरह नहीं खोल पा रही थी. जबड़े दर्द के साथसाथ कसते चले जा रहे थे. मात्र उंगली डालने लायक जगह बची थी. मैं सहम गया.

उस ने मुझे छुट्टी ले कर अस्पताल चलने को कहा. मैं तुरंत उसे ले कर डाक्टर मेहरा के प्राइवेट अस्पताल को चल दिया. राधा भाभी को भी अपने साथ ले लिया.

डाक्टर मेहरा ने देखा और पूछा, ‘‘कहीं चोट तो नहीं लगी है?’’

नंदा ने सिर हिला कर जवाब दिया, ‘‘नहीं.’’

‘‘कहीं कील या ब्लेड तो नहीं चुभा था?’’

जवाब था, ‘‘नहीं.’’

‘‘इधर महीनेभर के अंदर कोई ऐसी बात याद करो कि तुम्हारे शरीर से खून निकला हो या शरीर में कुछ चुभा हो या फिर तुम ने किसी पिन, सूई जैसी किसी चीज से दांत खुरचा हो?’’

कुछ देर सोचने के बाद उस ने ही कहा, ‘‘कुछ याद नहीं पड़ता.’’

मैं डाक्टर के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था. डाक्टर के चेहरे पर हैरानी और उतारचढ़ाव साफ जाहिर हो रहा था. डाक्टर बोला, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता. जरूर कुछ न कुछ हुआ होगा, जो तुम याद नहीं कर पा रही हो. बिना चोट के तो यह मुमकिन ही नहीं है.’’ फिर डाक्टर ने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘मुझे टिटनैस का डर लग रहा है. आप इन्हें जितनी जल्दी हो सके, सरकारी अस्पताल में भरती करा दें.’’

बीमारी का नाम सुनते ही मेरे पैरों की जमीन खिसकने लगी. मैं घबरा गया और उन से पूछा, ‘‘डाक्टर साहब, कहीं खतरा तो नहीं है?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. अगर समय पर टिटनैस के इंजैक्शन लग जाएंगे, तो ठीक हो जाएंगी.’’ मुझे याद नहीं कि मैं ने कब परचा लिया और कब हम तीनों सरकारी अस्पताल पहुंच गए. हम में से किसी को होश नहीं था. खतरे का डर सब को हो गया था, क्योंकि इस बीमारी की भयंकरता सब ने सुन रखी थी. डाक्टर ने देखा, जांचा, परखा, पूछा आखिर में पहले डाक्टर की बात का समर्थन करते हुए नंदा को स्पैशल वार्ड में दाखिल कर दिया. एटीएस के 50,000 पावर के इंजैक्शन का इंतजाम भी मुझे ही करना था. वह इंजैक्शन अस्पताल में नहीं था. देर करना खतरनाक था. नंदा के पास भाभी को छोड़ कर मैं सब्र से काम लेने के लिए कह कर जाने लगा, तो वे दोनों मुंह दबा कर फफक कर रो उठीं.

मैं ने अपने को भरसक संभाला. लगा, जैसे सीना फट जाएगा. समय गंवाना ठीक न समझ कर मैं शहर को चल दिया. घंटेभर बाद इंजैक्शन का भी इंतजाम हो गया. घर में सूचना देते समय मेरा गला भर गया, आंखें बरसने लगीं. सारे घर में अजीब सा सन्नाटा छा गया. पहली रात हलकीहलकी कराहने की आवाजें आती रहीं. मैं उस के साथ था. मैं उस के माथे को सहला रहा था. उस ने अपना पर्स, कानों के कनफूल, मंगलसूत्र सब मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘पतिजी, इन्हें रख लो. अपना खयाल रखना. बच्चों का खयाल रखना,’’ वह आगे कुछ न कह सकी. आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे.

मैं ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘चिंता मत करो, तुम बिलकुल ठीक हो जाओगी.’’ हम दोनों को ही एहसास हो चुका था कि अलविदा का समय नजदीक आ चुका है. शायद रातभर में हम इतना ही बोले थे. दूसरे दिन तक सारे गांव, इलाके, रिश्तेदारों तक को सूचना मिल गई थी. अस्पताल में भीड़ रोके नहीं रुक रही थी. अब नंदा का रूम डार्करूम बना दिया गया था. आंखों पर पट्टी रख दी गई थी. उस के आसपास आवाज करने की मनाही कर दी गई थी.

अगले दिन उस के पैरों में जकड़न चालू हो गई. पीठ में दर्द, ऐंठन बढ़ गई. दांत आपस में भिंच गए. धीरेधीरे जकड़न व ऐंठन सारे बदन में दाखिल हो गई. हलकेहलके झटके भी पड़ने चालू हो गए.

जब झटके पड़ते, ऐंठन होती, तो हम लोग उस के हाथ, पैर, सीना हलके से मलते. ग्लूकोज की बोतलों में तरहतरह की दवाओं का मिश्रण उसे दिया जा रहा था. एटीएस का तब तक दूसरा भी 50,000 पावर का इंजैक्शन लगा दिया गया था.

एकएक दिन खिसक रहे थे और उस की हालत दिनबदिन खराब होती जा रही थी. उस का शरीर इंजैक्शनों से छलनी हो गया था. पानी के बिना वहां सूखी पपडि़यां तड़क आई थीं. दांत कसने से खून बह रहा था. जूस व पानी के लिए वह संकेत करती, लेकिन डाक्टर की इजाजत नहीं थी. दिल मसोस कर रह जाना पड़ता. फट आए होंठों में ग्रीसलीन लगा कर तर करने की कोशिश की. पानी की 2-4 बूंदें तो दरारों में ही समा जाती थीं. इधर झटके तेज होते गए. दौरों की लंबाई भी बढ़ती गई. दर्द से छुटकारा दिलाने के लिए उसे नींद के इंजैक्शन दिए जा रहे थे, पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था.

अब ग्लूकोज को भी शरीर ने खींचना छोड़ दिया था. निराशा में सब का दिल डूबने लगा. अभी छठे दिन की पौ नहीं फटी थी. रात को बारिश के बाद धुंधला सा उजाला होने लगा था. नर्स नींद का इंजैक्शन दे कर चली गई. कुछ समय बाद मैं दूसरे लोगों की देखरेख में नंदा को सौंप कर नहानेधोने चला गया. जब लौट कर आया, तब तक नंदा नहीं रही थी. अब न कोई झटके थे. न दौरे थे. न दर्द था. न कराहें थीं. थीं तो बस घर वालों की, दोस्तों की घुटती सिसकियां. मेरा सबकुछ लुट गया था. मैं खोयाखोया सा रहने लगा. छोटी बच्चियां जब टकटकी लगा कर मेरी ओर देखतीं, कलेजा मुंह में आने को हो जाता. थपकियां दिला कर, सीने से लगाए उन्हें सुला देता. नवीन ने चुप्पी साध ली थी. चुपचाप आ कर पुस्तक पढ़ने लग जाता. अब मांजी ही बच्चों की परवरिश कर रही थीं. धीरेधीरे 2 साल निकल गए. मांजी बच्चों की खातिर दोबारा शादी करने की बात छेड़तीं, तो मैं टाल जाता था. ससुराल वालों ने भी शादी के लिए कहना शुरू कर दिया. कई जगह से रिश्ते भी आने शुरू हो गए, लेकिन मैं साफ मना कर देता. भला पराए बच्चों को कौन नवेली अपना लेगी?

सासजी को शादी के लायक हो आई अपनी बेटी खुशी की उतनी चिंता न थी, जितनी मेरी और मेरे बच्चों की. मैं ने खुशी के लिए योग्य लड़का तलाश कर सूचना भेजी, तो जवाब आया कि खुशी ने इसलिए इनकार कर दिया है कि जब तक जीजाजी शादी नहीं कर लेंगे, वह भी शादी नहीं करेगी. बात बिगड़ती देख ससुराल वालों ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न खुशी से ही मेरी शादी कर दी जाए. खुशी ने भी अपनी दीदी के बच्चों की खातिर अपना त्याग स्वीकार कर लिया. लेकिन मैं इसे कैसे स्वीकार कर लेता?

मैं ने उसे समझाया, ‘‘खुशी, तुम यह क्या कर रही हो? जरा सोचो तो… मेरी उम्र का 38वां साल पार होने जा रहा है, जबकि तुम अभी 20 साल की होगी. फिर मैं 3 बच्चों का पिता भी हूं. मेरी खातिर अपनी जिंदगी क्यों बरबाद करने पर तुली हो? यह सही नहीं है.’’

वह धीरे से बोली, ‘‘आप मेरी चिंता न करें. सब सोचसमझ कर ही तो मैं ने हां की है. उम्र की क्या कहते हैं? माथे में उम्र लिखी होती, तो दीदी यों ही हमें छोड़ कर चली थोड़े ही जातीं? बच्चे मुझ से हिलेमिले हैं. मां का दुख भूल जाएंगे.

‘‘दीदी पर जितना हक आप का था, क्या मेरा हक नहीं? मुझे भी तो उस का दुख उतना ही है, जितना आप को,’’ उस के अंदर अपनापन और त्याग की भावना साफ झलक रही थी. बहुत समझाने पर भी उस ने अपना इरादा नहीं बदला, तब मुझे भी सहमति देनी पड़ी. आखिर किसकिस का मुंह संभालता? टैक्सी ने हिचकोला खाया, तो मेरी पिछली यादें टूट गईं. मैं अपनी यादों में इतना खो गया था कि मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि मैं वर बना बैठा हूं. एक दुलहन भीगी पलकों से मुझे ही निहार रही है. मुझे पढ़ रही है. समझ रही है. शायद तब तक मेरी आंखों के रास्ते कुछ बह कर सूख गया था. वह मुझ पर लुढ़क गई और मेरी गोदी में सो गई.

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