आधी आबादी: न शिक्षा मिली न अधिकार

जुलाई, अगस्त 2022 में महिलाओं को ले कर 2-2 गुड न्यूज आई हैं- पहली रोशनी नेदार ने भारत की सब से अमीर महिला होने का गौरव हासिल किया है तो दूसरी ओर सावित्री जिंदल ने एशिया की सब से अमीर महिला होने का खिताब जीता है. इन दोनों महिलाओं की आर्थिक जगत में कामयाबी इशारा करती हैं कि महिलाएं आज सामाजिक और आर्थिक मोरचे पर पुरुषों से भी आगे निकल रही हैं.

लेकिन यह तसवीर का एक छोटा और अधूरा पहलू है क्योंकि जिस देश की आबादी 150 करोड़ से भी ज्यादा हो वहां की आधी आबादी यानी महिला शक्ति अभी भी आर्थिक मोरचे पर पुरुषों के मुकाबले बहुत कमजोर है.

इस के कारणों का विश्लेषण करेंगे तो शिक्षा ही एक ऐसा कारण नजर आता है, जो सालों से महिलाओं को पुरुषों से काबिलीयत में पीछे कर रहा है. भारत में महिलाओं की शैक्षणिक स्थिति का जायजा लेने जाएंगे तो आज भी देश के कसबों, गांवों में महिलाएं स्कूल जाने के बजाय चूल्हेचौके में अपने भविष्य को  झोंक रही हैं. यही वजह है कि आजादी के 75 सालों के बाद भी शिक्षा के मोरचे पर महिलाएं फेल हैं.

महिला साक्षरता दर में राजस्थान फिसड्डी

अगर बात करें महिला साक्षरता की तो देश के अन्य राज्यों की तुलना में राजस्थान की स्थिति काफी खराब है. आंकड़ों के अनुसार महिला साक्षरता दर में राजस्थान फिसड्डी राज्य की श्रेणी में आता है. ऐसा हम नहीं कह रहे बल्कि यह जनगणना के आंकड़े बताते हैं. राजस्थान के जालौर और सिरोही में महिला साक्षरता दर महज 38 और 39% है जो काफी कम है. हालत में अभी भी ज्यादा सुधार नहीं है.

बिहार का हाल भी बेहाल

एनएसओ की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि बिहार में पुरुष साक्षरता दर महिलाओं से ज्यादा है. बिहार में जहां 79.7% पुरुष साक्षर हैं, वहीं सिर्फ 60% महिलाएं ही साक्षर हैं. बिहार में कुल ग्रामीण साक्षरता दर 69.5% है, वहीं शहरी साक्षरता 83.1% है.

बिहार में लगभग 36.4% लोग निरक्षर

बिहार में 36.4% लोग निरक्षर हैं. 19.2% लोग प्राथमिक स्कूल तक पढ़े, 16.5% लोग माध्यमिक तक, 7.7% उच्चतर माध्यमिक तक, 6% स्नातक तक. महिला निरक्षरता दर 47.7% है, जो पुरुषों की तुलना में लगभग 21% अधिक है.

 झारखंड की स्थिति भी खराब

अगर  झारखंड में महिला साक्षरता की बात करें तो वहां भी स्थिति अच्छी नहीं है. आज भी राज्य की 38% से अधिक महिलाओं को एक वाक्य भी पढ़ना नहीं आता है. अगर बात करें ग्रामीण क्षेत्रों की तो स्थिति और भी खराब है. वहां 55.6% महिलाएं पढ़नालिखना भी नहीं जानती हैं. इस का खुलासा भारत सरकार द्वारा 2019-2021 के बीच करवाए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से हुआ था.

आंध्र प्रदेश भी पीछे

आंध्र प्रदेश में महिला और पुरुष के बीच साक्षरता दर का अंतर 13.9% है. यह भी काफी ज्यादा है.

चौंकाने वाले फैक्ट्स

राष्ट्रीय सांख्यिकी की प्रकाशित रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा हुआ है. इस में सर्वेक्षण 2017 और 2018 के दौरान पुरुषों की साक्षरता दर 80.08% बताई गई, जबकि महिलाओं में यह आंकड़ा महज 57.6% दर्ज किया गया और अगर आज की बात करें तो आज भी साक्षरता के मामले में पुरुषों और महिलाओं में काफी अंतर देखने को मिलता है. जहां पुरुषों में साक्षरता दर 82.14% है, वहीं महिलाओं में यह प्रतिशत सिर्फ और सिर्फ 65.45% है जो काफी कम है.

महिलाओं और पुरुषों की साक्षरता दर

एनएसओ की तरफ से 2 साल पहले किए गए सर्वे में पता चला था कि केरल में 97.4% पुरुष साक्षर हैं, तो महिलाएं 95.2%. दिल्ली में 93.7% पुरुष तो महिलाएं 82.4%. आंध्र प्रदेश में 73.4% पुरुष, तो 59.5% महिलाएं. राजस्थान में 80.8% पुरुष, तो 57.6% महिलाएं. बिहार में 79.7% पुरुष, तो 60.5% महिलाएं साक्षर हैं.

उत्तर प्रदेश में न्यूनतम महिला साक्षरता वाले जिले: जनसंख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश जो देश में नंबर 1 पर आता है, लेकिन आप 2011 की जनगणना के अनुसार आंकड़े जान कर हैरान रह जाएंगे क्योंकि हम आप को यहां के न्यूनतम महिला साक्षरता वाले जिलों से रूबरू जो करवा रहे हैं- श्रावस्ती में महिला साक्षरता दर 34.78%, बलरामपुर में 38.43%, बहराइच में 39.18%, बदायूं में 40.09%, रामपुर में 44.44% है. आंकड़े देख कर आप भी हैरान रह गए न.

अशिक्षित होने की वजह से महिलाओं को क्याक्या परेशानियां होती हैं

नौकरी न मिलना

जब महिलाएं पढ़ीलिखी नहीं होतीं, तब न तो उन्हें परिवार सम्मान देता है और न ही समाज. अपने अनपढ़ होने की वजह से वे कहीं नौकरी भी नहीं कर पातीं, जिस के कारण उन्हें मजबूरीवश अपनों की यातनाएं  झेलनी पड़ती हैं. सब उन्हें कुछ नहीं आता, कह कर बेवकूफ सम झते हैं. उन की किचन स्किल्स को कुछ नहीं सम झा जाता.

लेकिन अगर महिलाएं पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं, तब न तो उन्हें किसी की यातनाएं सहनी पड़ेंगी और न ही हर गलत बात में हां में हां मिला कर चलना पड़ेगा. वे अपने मन की कर पाएंगी और कुछ गलत होने पर उसे सहेंगी भी नहीं बल्कि उस के खिलाफ आवाज उठा पाएंगी जो समाज में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचारों को कम करने और महिलाओं को स्ट्रौंग बनाने में मदद करेगा.

बच्चों को पढ़ाने में दिक्कत

अगर मां पढ़ीलिखी होगी तो वह अपने बच्चों को खुद पढ़ा कर अच्छी शिक्षा दे पाएगी. लेकिन अगर वे ही पढ़ीलिखी न हो तो न तो वह अपने बच्चों की पढ़ाई में मदद कर पाएगी, जिस कारण मां की बच्चों के साथ अच्छी ट्यूनिंग भी नहीं होगी.

स्कूलगोइंग बच्चे भी हमारी मां को कुछ नहीं आता, कह कर बेइज्जत किए बिना नहीं रह पाते हैं. ऐसे में मां लाचार और बेचारी बन कर रह जाती है, जबकि आज जरूरत है कि आप पढ़लिख कर आगे बढ़ें, खुद भी पढें और अपने बच्चों को भी आगे बढ़ने में खूब मदद करें.

अधिकारों के लिए लड़ने में असमर्थ

जब महिलाएं शिक्षित ही नहीं होंगी तो अधिकारों का ज्ञान कैसे होगा. जो जिसने जैसे बता दिया, बस उसी को पत्थर की लकीर मान कर बैठ गए. लेकिन अगर आप पढ़ीलिखी होंगी, तो आप अपने अधिकारों के लिए लड़ेंगी. न गलत सहेंगी और न गलत होने देंगी. इस से आप को सम्मान तो मिलेगा ही, साथ ही आप समाज में अपनी एक अलग जगह भी बना पाएंगी.

जबरन शादी के लिए मजबूर होना

जब लड़की पढ़ीलिखी नहीं होती तो उस के पेरैंट्स उस की जहां शादी तय करते हैं, उसे करनी पड़ती है. फिर चाहे लड़का उसे नापसंद ही क्यों न हो. लेकिन अगर लड़की पढ़ीलिखी होगी, तो वह अपने लिए सही पार्टनर का चुनाव खुद कर पाएगी. खुद आत्मनिर्भर होने के कारण कोई भी उस पर जोरजबरदस्ती नहीं कर पाएगा. उसे अपने लिए जो सही लगेगा, वह खुल कर अपनों के सामने राय रख पाएगी.

ये तो कुछ चुनिंदा कारण हैं और भी कई कारण हैं, जिस के कारण महिलाओं को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. ऐसे में जरूरी है कि हम आजादी के 75 सालों का जश्न मनाने के साथसाथ खुद को कैसे अपने पैरों पर खड़ा करें, इस ओर भी गंभीरता से ध्यान दें.

आधी आबादी लीडर भी निडर भी

किचन से कैबिनेट और घर की चारदीवारी से खेल के मैदान तक, गुपचुप घर में सिलाईबुनाई करती, पापड़बडि़यां तोड़ने से बोर्डरूम तक एक लंबा सफर तय करने वाली आधी आबादी ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि वह घर के साथसाथ बाहर का काम भी उतने ही बेहतर तरीके से संभाल सकती है. व्रतउपवास, कर्मकांड और उस के पांव में बेडि़यां डालने के लिए धर्म के माध्यम से फैलाए जा रहे अंधविश्वासों के घेरे से वह निकल सकती है, यह बात भी उस ने साबित कर दी है.

यह सही है कि किसी भी बड़े बदलाव के लिए जरूरी है समाज की सोच बदलना. बेशक अभी पुरुष समाज की सोच में 50% ही बदलाव आया हो, लेकिन महिलाओं ने अब ठान लिया है कि वे नहीं रुकेंगी और तमाम बाधाओं के बावजूद चलती रहेंगी. फिर चाहे वे शहरी महिला हो या किसी पिछड़े गांव की जो आज सरपंच बनने की ताकत रखती है और खाप व्यवस्था को चुनौती भी देती है.

बहुत समय पहले बीबीसी के एक कार्यक्रम में अभिनेत्री मुनमुन सेन ने कहा था कि महिलाएं किसी भी स्तर पर हों, किसी भी जाति या वर्ग से हों, वे एक ही होती हैं. उन के कुछ मसले एकजैसे होते हैं, उन में आपस में यह आत्मीयता होती है. आज वे मिलजुल कर अपने मसले जुटाने और अपनी पहचान की स्वीकृति पर मुहर लगाने में जुटी हैं, फिर चाहे कोई पुरुष साथ दे या न दे वे सक्षम हो चुकी हैं.

कर रही हैं निरंतर संघर्ष

यह समाज की विडंबना ही तो है कि घर हो या दफ्तर, राजनीति हो या देश, जब कभी और जहां भी महिलाओं को सशक्त बनाने, उन को मजबूत करने पर चर्चा होती है, तो ज्यादातर बात ही होती है, कोई कोशिश नहीं होती. लेकिन वे अपने स्तर पर कोशिश कर रही हैं और कामयाब भी हो रही हैं.

जिस देश की संसद में महिलाएं अब तक 33 फीसदी आरक्षण के लिए संघर्ष कर रही हैं, उसी देश के दूसरे कोनों में ऐसी भी महिलाएं हैं, जो अपने हिस्से का संघर्ष कर छोटीबड़ी राजनीतिक कामयाबी तक पहुंच रही हैं.

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी और अमेरिका की फर्स्ट लेडी होने के अलावा दुनियाभर में मिशेल ने अपनी एक अलग पहचान बनाई जो उन्होंने खुद अपने दम पर हासिल की. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के बाद हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से ला किया. सिडले और आस्टिसन के लिए काम करने के बाद मिशेल ने एक पब्लिलकएलाइजशिकागो ‘अमेरीकोर्प नैशनल सर्विस प्रोग्राम’ की स्थापना की.

उन का बचपन मुश्किलों भरा था, लेकिन मिशेल ने बहुत पहले ही यह सम झ लिया था कि उन्हें मुश्किलों के बीच से रास्ता बना कर जीत हासिल करनी है. मिशेल को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था, इसलिए उन्होंने 2015 में ‘लेट गर्ल्सलर्न’ इनीशिएटिव की शुरुआत की, जहां उन्होंने अमेरिकी लोगों को उच्च शिक्षा में जाने के लिए प्रोत्साहित किया.

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पा ली है मंजिल

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आते ही औरतों की प्रगति, उन की समस्याओं, उन के साथ होने वाली हिंसा, अत्याचार, उन की असुरक्षा से घिरे प्रश्नों यानी उन से जुड़े हर तरह के सवालों की विवेचना व अवलोकन होना आरंभ हो जाता है. कहीं सेमीनार आयोजित किए जाते हैं तो कहीं नारीवादी संगठन फेमिनिज्म की बयार को और हवा देने के लिए नारेबाजी पर उतर आते हैं. इंटरनैशनल वूमंस डे की शुरुआत औरतों के काम करने के अधिकार, उन्हें समाज में सुरक्षा प्रदान करने के लक्ष्य के साथ हुई थी, लेकिन आज जब औरतों ने हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर लिया है और वे कामयाबी का परचम लहरा रही हैं.

आईटी, बीपीओ या बड़ीबड़ी कंपनियों में औरतों की उपस्थिति को देखा जा सकता है. वे मैनेजर हैं, बैंकर हैं, सीईओ हैं, फाउंडर है और प्रेसीडेंट भी है. आज बिजनैस के कार्यक्षेत्र में जैंडर को ले कर की जाने वाले भिन्नता के कोई माने नहीं रह गए हैं. वैसे भी अगर आर्थिक अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना है तो औरतों की सक्रिय भूमिका को स्वीकारना ही होगा.

वास्तव में देखा जाए तो अब नकारने की स्थिति है भी नहीं. हर ओर से महिलाएं उठ खड़ी हुई हैं. ममता बनर्जी हों या सोनिया की पीढ़ी या फिर मलाला और ग्रेटा कम उम्र की युवतियां, बदलाव की आंधी हर ओर से चल रही है.

रख चुकी हैं हर पायदान पर कदम

बेहद प्रभावशाली भाषण से संयुक्त राष्ट्र की बोलती बंद करने वाली ग्रेटा थनबर्ग किसान आंदोलन के दौरान भारत के खिलाफ दुष्प्रचार करने के आरोप में विवादों में अवश्य हैं, पर संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अपनी बातों से दुनियाभर के नेताओं का ध्यान आकर्षित करने वाली 16 वर्षीय स्वीडिश छात्रा ग्रेटा थनबर्ग को टाइम मैगजीन ने 2019 का ‘पर्सन औफ द ईयर’ घोषित किया.

मलाला विश्व की कम उम्र में शांति का नोबेल पुरस्कार पाने वाली पहली युवती है. पाकिस्तान में तालिबानी आतंकवादियों ने इस की हत्या का प्रयास किया क्योंकि मलाला लड़कियों को पढ़ाने का काम कर रही थी जबकि तालिबान ने पढ़ाई पर रोक लगाई हुई थी.

आज वह करोड़ों लड़कियों की प्रेरणा बन चुकी है. उस के सम्मान में संयुक्त राष्ट्र ने प्रत्येक वर्ष 12 जुलाई को मलाला दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की.

जरमनी की चांसलर ऐंजेला मर्केल दुनिया की तीसरी सब से शक्तिशाली हस्ती हैं. उन्हें दुनिया की सब से शक्तिशाली महिला भी कहा जाता है. कमला हैरिस ने तो इतिहास ही रच दिया है. वे अमेरिका की पहली अश्वेत और पहली एशियाई अमेरिकी उप राष्ट्रपति हैं.

तोड़ रही हैं अंधविश्वासों की बेडि़यां

हर क्षेत्र में ऐसी महिलाओं के नामों की सूची इतनी लंबी है कि उन की उपस्थिति को सैल्यूट किए बिना नहीं रहा जा सकता है खासकर भारतीय समाज में जहां उन से केवल घर संभालने और धार्मिक कर्मकांडों में उल झे रहने की ही उम्मीद की जाती थी. सदियों से वे कभी पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती आ रही हैं, कभी बच्चों की सलामती के लिए पूजा करती आ रही हैं तो कभी घर की सुखशांति के लिए हवन और भजन करती आ रही हैं.

उन की कंडीशनिंग इस तरह की गई कि वे घर के बाहर जा कर अपनी पहचान बनाने के बारे में सोचेंगी तो उन्हें पाप लगेगा. लेकिन उन्होंने तमाम मिथकों को तोड़ा, परंपराओं का उल्लंघन किया, अपने अस्तित्व को आकार दिया. इस सब के बावजूद घर को भी बखूबी संभाला और परिवार की डोर को भी थामे रखा. असफल होने के डर से खुद को बाहर निकाला और जो थोड़ा डर अभी भी धार्मिक कुरीतियों के कारण उन के भीतर व्याप्त है उसे भी वह सांप की केंचुल की तरह छोड़ने को तत्पर हैं.

सपोर्ट सिस्टम खड़ा करना होगा

समाजशास्त्री मानते हैं कि औरतों को सब से पहले अपनी असफलताओं को ले कर परेशान होना छोड़ देना चाहिए. उन्हें परिवार व कैरियर के बीच एक बैलेंस बनाए रखना होगा क्योंकि समाज में ऐसी ही सोच व्याप्त है. पर इस मुश्किल से उभरने के लिए उन्हें एक सपोर्ट सिस्टम खड़ा करना होगा. उन्हें बीच राह में प्रयास करना छोड़ नहीं देना चाहिए.

कई औरतें जब डिलिवरी के बाद दोबारा काम पर आती हैं तो उन्हें लगता है कि इतने दिनों में जो एडवांस्मैंट हो चुकी है, वह कहीं उन्हें पीछे न धकेल दे. अपडेट रहना तरक्की की पहली शर्त है, इसलिए तमाम व्यवधानों के बावजूद अगर वे पुन: कोचिंग लें तो उन्हें सहायता मिलेगी. किसी गाइड की मदद ली जा सकती है. ताकि इन्फोसिस जैसी कंपनियां अपने कर्मचारियों को किसी बाहरी गाइड से मदद लेने के लिए प्रोत्साहित करती हैं जिस से उन के मानसिक क्षितिज का विस्तार हो सके. कार्यक्षेत्र में उन के लिए एक सपोर्ट सिस्टम की जरूरत है.

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जमीन से जुड़ी महिलाएं

  सोनी सोढ़ी

(आदिवासी समाज की लीडर)

एक छोटे से स्कूल में बच्चों को पढ़ाने वाली सोनी की जिंदगी 2011 में हुई उस घटना के बाद से हमेशाहमेशा के लिए बदल गई.

इस आदिवासी युवती को उस के भाई की पत्रकारिता की कीमत चुकानी पड़ी. जेल, लगातार बलात्कार और मानसिक शोषण, यहां तक कि गुप्तांग में पत्थर डाल कर उसे निहायत शर्मनाक ढंग से प्रताडि़त किया गया. उसे नक्सली बनाने पर तुली छत्तीसगढ़ सरकार को आखिरकार उसे रिहा करना ही पड़ा. जेल से मर्मस्पर्शी पत्र लिख कर अपने समर्थकों का हौसला बनाए रखा. अपने पर किए हर अत्याचार को उस ने अश्रु की स्याही से न लिख कर हिम्मत और शक्ति की लेखनी से लोगों तक पहुंचाया.

सोनी बताती है कि जब ये सब उस के साथ हुआ तो उसे लगा कि अब वह खड़ी नहीं हो पाएगी. औरतों को सिखाया जाता है कि उन की इज्जत ही उन का सबकुछ है. मैं भी यही सोचती थी और जब मेरे साथ ये सब हुआ तो मु झे लगा कि मैं अब किसी काबिल नहीं रह गई हूं. पर उसे हिम्मत देने वाली भी दो औरतें ही थीं. जेल में उसे दो औरतें मिलीं, जिन्होंने उसे अपने स्तन दिखाए. उन के निपल काट दिए गए थे. तभी सोनी ने ठान लिया कि वह लड़ेगी. उन्होंने अपने गुरु को एक चिट्ठी लिखी और यहीं से शुरु हुई उन की लड़ाई. आज सोनी बस्तर में आदिवासियों के हक के लिए उठने वाली एक बुलंद आवाज है.

शहनाज खान

(युवा सरपंच)

राजस्थान के भरतपुर जिले में रहने वाली  25 साल की शहनाज वहां की कामां पंचायत से सरपंच चुनी गई है. वह राजस्थान की पहली महिला एमबीबीएस डाक्टर सरपंच है. वह कहती है, ‘‘मु झ से पहले मेरे दादाजी भी यहां से सरपंच थे. लेकिन उन के बाद यह बात उठी कि चुनाव में कौन खड़ा होगा. परिवार वालों ने मु झे चुनाव में खड़ा होने को कहा और मैं जीत गई.’’

शहनाज मानती है कि लोग आज भी अपनी बेटियों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजते हैं, इसलिए वह लड़कियों की शिक्षा पर काम करना चाहती है और उन सभी अभिभावकों के सामने अपना उदाहरण रखना चाहती है जो बेटियों को पढ़ने नहीं भेजते.

  सैक्सुअलिटी एक छोटा सा हिस्सा है

महिलाओं को आजादी व बराबरी का हक तभी सही मानों में मिल पाएगा जब स्त्री और पुरुष के बीच के अंतर को जरूरत से ज्यादा महत्त्व देना बंद कर दिया जाएगा. सैक्सुअलिटी जीवन का महज एक छोटा सा हिस्सा है. जैंडर का हमारे जीवन में रोल तो है पर यही सबकुछ नहीं है. यह हमारे जीवन का एक हिस्सा भर है. प्रजनन अंगों को हमारे जीवन में बस एक काम करना होता है, पर इसे पूरा जीवन तो नहीं माना जा सकता. लेकिन फिलहाल मानव आबादी इसी काम को पूरा जीवन बनाने में लगी है. 90 फीसदी आबादी के दिमाग में एक औरत का मतलब कामुकता है. इस सोच को बदलने के लिए ही आधी आबादी आज कटिबद्ध है.

महिलाओं और पुरुषों को 2 अलग प्रजातियां की तरह देखना ठीक नहीं है. अगर हम ने ऐसा किया तो आने वाले समय में अगर संघर्ष हुआ तो एक बार फिर से पुरुषों का वर्चस्व हो जाएगा. अगर फिर से युद्ध के हालात बने तो महिलाओं को चारदीवारी के भीतर जाना होगा.

यहां उन महिलाओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है जो समाज में किसी मुकाम पर पहुंच गई हैं. वे एक बदलाव ला सकती हैं. स्त्री और पुरुष की लड़ाई बनाने के बजाय आधी आबादी को समाज में अपनी काबिलीयत से पहचान बनानी होगी और वह इस में सफल भी हो गई है. कुछ कदम बेशक उसे और चलने हैं, उस के बाद मंजिल उस की मुट्ठी में होगी. महिलाओं ने खुद को सम झना शुरू कर दिया है. वे अपने अस्तित्व को जानने लगी हैं, अपनी शक्ति को पहचानने लगी हैं. नतीजतन समाज में बदलाव की हवा चलने लगी है.

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  बिना डरे बिना घबराए

दुनियाभर में हो रहीं रिसर्च बताती हैं कि औरतें मल्टीटास्किंग होती हैं. अब हर परीक्षा में लड़कियां लड़कों को पीछे छोड़ रही हैं. हर लिहाज से औरतें ज्यादा ताकतवर हैं, लेकिन यह भी एक कड़वी सचाई है कि दुनिया की फौर्च्यून 500 कंपनियों में सिर्फ 4 फीसदी महिलाएं सीईओ हैं. समान वेतन और समान अधिकार तथा काम करने के बेहतर माहौल जैसी चीजों के लिए महिलाएं संघर्ष कर रही हैं. हैरानी की बात है कि इन अधिकारों की बात करने वाली महिलाओं को फेमनिस्ट कह कर नकार दिया जाता है. जरा सोचिए अगर आधी आबादी भी पूरी क्षमता से काम करे तो क्या होगा? नुकसान आधी आबादी का नहीं, पूरी मानवता का हो रहा है.

महिलाएं अब पहले की तरह पुरुषों की परछाईं में दुबक नहीं रहीं बल्कि उस से बाहर  निकल कर नुमाइंदगी कर रही हैं, दिशा दिखा रही हैं और वह भी बिना डरे, बिना घबराए.

कम जनसंख्या अच्छी बात है

भारत में जहां आज भी हिंदू कट्टरपंथी कुप्रचार के कारण  जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की बात कर रहे हैं कि इस से मुसलिम जनसंख्या बढ़नी रुक जाएगी, वहीं दुनिया के समर्थ देश जनसंख्या में भारी कमी के अंदेशे से मरे जा रहे हैं.

जापान में 2020 में 8,40,832 बच्चे पैदा हुए जबकि 2019 में 8,65,259 बच्चे पैदा हुए थे. 1899 के बाद से जब से जनगणना शुरू हुई है जापान में 1 साल में पैदा होने वाले बच्चों की यह गिनती सब से कम है.

यही नहीं जहां 2019 में 5,99,007 विवाह हुए थे, वहीं 2020 में 5,25,490 विवाह ही हुए. कम विवाह, कम बच्चे. 2021 में नए बच्चों की गिनती पिछले साल से 10% और कम होने की आशंका है. पहले सरकार को उम्मीद थी कि प्रति वर्ष 7,00,00 बच्चों का पैदा होना 2031 तक होगा पर यह 10 साल पहले हो गया है.

बस इतना जरूर है कि अब तलाकों की गिनती में वृद्धि रुक गई है, फिर भी 1,93,251 तलाक हुए थे.

जापान के ये आंकड़े असल में यूरोप, चीन, अमेरिका जैसे ही हैं जहां कोरोना से नहीं, ग्लोबल वार्मिंग से नहीं, औरतों की अपनी इच्छाओं के कारण बच्चों की गिनती घटती जा रही है.

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चाहे कितना ही वर्क फ्रौम हौम हो जाए, चाहे कितनी ही मैटरनिटी और पैटरनिटी लीव्स मिल जाएं, यह पक्का है कि हर बच्चा मां पर एक बो झ होता है और वह बेकार का बो झ नहीं ढोना चाहती.

सदियों से आदमी बच्चा पैदा करने के लिए औरतों को शादी कर के गुलाम सा बनाते रहे हैं और खुद मौज करते रहे हैं. सामाजिक ढांचा ऐसा बना दिया गया है कि औरतें अपना अस्तित्व बच्चों में ही देखने लगीं.

भारत में ही नहीं पश्चिमी देशों में भी धर्म ने बच्चों पर जोर दिया चाहे बाद में इन बच्चों को धर्म की रक्षा करने के लिए, मरने के लिए भेजा जाता रहा हो. धर्म ने कभी भी बच्चों की खातिर औरतों को कोई छूट न दी, न लेने दी पर बच्चे न हों तो हजार तरह की तोहमतें लगा दीं.

आज की पढ़ीलिखी औरतें इस साजिश को तोड़ कर पुरुषों के बराबर बच्चे पैदा करने का बो झ न ले कर कंसीव कर रही हैं, जहां कुछ नौकरियों में इतना वेतन व सुविधाएं मिल जाती हैं कि किसी हैल्पर को रखा जा सके. अधिकांश औरतें बच्चों के कारण दूसरे दर्जे की नौकरियों में फंस जाती हैं.

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दुनिया की फैक्टरियां और दफ्तर ऐसे जगहों पर हैं जहां पहुंचने के लिए ही घर से 2 घंटे लगते हैं. 13-14 घंटे दूर रह कर औरतें बच्चे पालने और पुरुषों के बराबर काम करने का दावा नहीं कर सकतीं. इसलिए वे न विवाह कर रही हैं, न बच्चे.

बच्चों के बिना शादी हो तो एक और आजादी रहती. जब मरजी पार्टनर बदल लो. पार्टनर न भी बदलो तो जो अच्छा लगे उस के साथ जैसा मरजी संबंध बना लो जो पुरुष हमेशा से करते आए हैं. आखिर यही वजह है कि दुनियाभर में औरतें ही वेश्याएं हैं, आदमी नहीं. आदमियों के पास अवसर है कि घर में पत्नी बच्चे भी संभाले, बिस्तर भी और वे इधरउधर मुंह मारते रहें.

कम जनसंख्या वैसे विश्व के लिए अच्छी बात है. कम लोग ज्यादा सुखी रहेंगे. प्राकृतिक बो झ भी नहीं बढ़ेगा और बेमतलब के विवाद भी नहीं होंगे.

चीन को पछाड़ देगा भारत लेकिन…

विश्व में सब से ज्यादा आबादी वाले देश चीन और विश्व के सब से बड़े लोकतंत्र भारत के मध्य बौर्डर पर हुई हालिया हिंसक झड़प व मौजूदा गंभीर तनाव के बीच भारत एक माने में प्रतिद्वंद्वी चीन को पछाड़ने वाला है. बढ़ती आबादी से चिंतित दुनिया के देशों के लिए अच्छी खबर यह है कि इस का बढ़ना तो रुकेगा ही, घटना भी शुरू हो जाएगा.

थमेगा बढ़ने का सिलसिला :

दुनिया की आबादी के बढ़ने का सिलसिला अब से 44 वर्षों बाद थम जाएगा. तब यानी वर्ष 2064 में 9.7 अरब के साथ दुनिया की आबादी चरम पर होगी. उस के बाद उस के घटने का सिलसिला शुरू हो जाएगा और इस सदी (21वीं) के आखिर तक यह घट कर 8.8 अरब रह जाएगी.

पीछे रह जाएगा चीन :

वर्ष 2100 तक 1.09 अरब की जनसंख्या के साथ भारत सब से ज्यादा आबादी वाला देश होगा. फिलहाल विश्व की कुल आबादी 7.8 अरब है. इस में भारत की आबादी 1.38 अरब है जबकि चीन की 1.40 अरब है. वर्ष 2030 तक भारत की आबादी 1.65 अरब हो जाएगी, तब ही भारत प्रतिद्वंद्वी चीन को पछाड़ कर आबादी में नंबर वन हो जाएगा. तब तक दुनिया की आबादी 8.14 अरब हो चुकी होगी. मौजूदा समय में चीन की आबादी के बढ़ने की रफ़्तार भारत की आबादी के बढ़ने की रफ़्तार से धीमी है.

बढ़ते रहेंगे नाइजीरियाई : 

द लैंसेट जरनल में प्रकाशित यूनिवर्सिटी औफ वाशिंगटन के इंस्टिट्यूट फौर हैल्थ मैट्रिक्स ऐंड इवोल्यूशन (आईएचएमई) के शोध के अनुसार, वर्ष 2100 में आबादी के मामले में भारत के बाद दूसरा स्थान नाइजीरिया (79.1 करोड़), तीसरा चीन (73.2 करोड़), चौथा अमेरिका (33.6 करोड़) और 5वां पाकिस्तान (24.8 करोड़) का होगा. विश्लेषणात्मक शोध में यह अनुमान भी लगाया गया है कि भारत और चीन जैसे देशों में कामकाज करने योग्य आबादी में कमी आएगी.

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आधी रह जाएगी आबादी :

दिलचस्प यह है कि वर्ष 2100 तक इटली, जापान, पोलैंड, पुर्तगाल, दक्षिण कोरिया, स्पेन और थाईलैंड समेत दुनिया के 20 से ज़्यादा देशों की जनसंख्या आधी से भी कम रह जाएगी. इस समय दुनिया में सब से ज़्यादा आबादी वाले देश चीन की आबादी 1.40 अरब है, जो अगले 80 वर्षों में घट कर 73 करोड़ रह जाएगी.

द लैंसेट में प्रकाशित शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम के अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 2100 में ज़मीन पर 8.8 अरब लोग होंगे, यानी, संयुक्त राष्ट्र संघ के ताज़ा अनुमानों से 2 अरब कम. हालांकि, अफ़्रीक़ी देशों की आबादी तीनगुना बढ़ जाएगी. अफ़्रीकी देश नाइजीरिया की आबादी बढ़ कर 80 करोड़ हो जाएगी. वह भारत (1 अरब 10 करोड़) के बाद दूसरा सब से ज्यादा आबादी वाला देश होगा.

संतुलनअसंतुलन :

विश्व की आबादी का घटना पर्यावरण के लिए अच्छी ख़बर है. वहीं, इस के नतीजे में ज़मीन पर खाने के लिए उगाई जाने वाली सामग्री का बोझ कम हो जाएगा. दूसरी तरफ, ग़ैरअफ़्रीक़ी देशों में आबादी घटने के कारण श्रमबल में कमी आएगी, जिस का उन की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा.

शोध के मुताबिक, 5 से कम उम्र के बच्चों की संख्या 40 फीसदी से ज्यादा घटने का अनुमान है. इन बच्चों की आज की आबादी 681 मिलियन से वर्ष 2100 में 401 मिलियन रह जाएगी. दूसरी ओर, वैश्विक आबादी का एकचौथाई से ज्यादा, यानी 2.37 अरब लोग, 65 वर्ष से अधिक उम्र के होंगे. 80 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले लोगों की संख्या, जो आज लगभग 14 करोड़ है, बढ़ कर 86.6 करोड़ तक हो जाएगी. वहीँ, काम करने वालों की संख्या में भारी गिरावट से कई देशों को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.

कोविड-19 से 50 फीसदी तक घटेगी जन्मदर :

कोरोना के शुरुआती दौर मार्चअप्रैल में लौकडाउन के साथ यूनिसेफ समेत तमाम एजेंसियों ने अनुमान लगाया था कि दुनिया में जन्मदर तेजी से बढ़ेगी और अगले साल आबादी पर इस का असर दिखेगा. हालांकि, मई, जून और जुलाई में कोरोना के बढ़ते कहर के साथ अब अमेरिका, यूरोप और तमाम एशियाई देशों में जन्मदर में 30 से 50 फीसदी तक की कमी का अनुमान जताया गया है.

लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स के सर्वे के अनुसार, कोरोनाकाल विश्व की आबादी में उछाल के बजाय गिरावट का कारण बनेगा. यूरोपीय देश इटली, जरमनी, फ्रांस, स्पेन और ब्रिटेन की बात करें तो 18-34 साल की उम्र के 50 से 60 फीसदी युवाओं ने परिवार आगे बढ़ाने की योजना को एक साल तक के लिए टाल दिया है.

सर्वे के मुताबिक, सोशल डिस्टेंसिंग औऱ अन्य पाबंदियों के बीच बेबी बूम (भारी तादाद में बच्चे पैदा होने) की कोई संभावना नहीं है. सर्वे में फ्रांस और जरमनी में 50 फीसदी युवा दंपतियों ने कहा कि वे महामारी के कारण बच्चे की योजना को टाल रहे हैं. ब्रिटेन में 58 फीसदी ने कहा कि वे परिवार आगे बढ़ाने के बारे में फिलहाल सोचेंगे भी नहीं.

सिर्फ 23 फीसदी दंपतियों ने इस से कोई फर्क न पड़ने की बात कही. इटली में 38 फीसदी और स्पेन में 50 फीसदी से ज्यादा युवाओं ने कहा कि उन की आर्थिक और मानसिक स्थिति अभी ऐसी नहीं है कि वे बच्चे का खयाल रख भी पाएंगे. दंपतियों ने बेरोजगारी को देखते हुए भी परिवार का बोझ न बढ़ाने का समर्थन किया. यह भी आशंका जताई कि अगर अभी वे बच्चा करते हैं तो शायद उन्हें बेहतर इलाज की सुविधाएं भी नहीं मिल पाएंगी. डेनमार्क, स्वीडन, फिनलैंड, नौर्वे और आइसलैंड में भी यही ट्रैंड दिख रहा है.

भारत में भी दिखेगा असर :

यूनिसेफ ने भारत में मार्चदिसंबर के बीच सर्वाधिक 2 करोड़ और चीन में 1.3 करोड़ बच्चे जन्म लेने का अनुमान लगाया था, हालांकि बदले हालात में इस में कमी का अनुमान है. भारत के 13 राज्यों में प्रजनन दर पहले ही काफी नीचे आ चुकी है.

सेव द चिल्ड्रेन के प्रोग्राम एवं पौलिसी इंपैक्ट के निदेशक अनिंदित रौय चौधुरी का कहना है कि भारत के शहरी और ग्रामीण परिवेश में कोविड-19 का प्रभाव जन्मदर पर अलगअलग दिख सकता है. कुपोषण, टीकाकरण, शिक्षा व स्वास्थ्य को लें, तो कोविड का सब से ज्यादा प्रभाव बच्चों पर ही पड़ा है. ऐसे में युवा परिवार बढ़ाने या न बढ़ाने को ले कर क्या कदम उठाते हैं, यह आने वाले समय में पता चलेगा.

आबादी से जुड़े दिलचस्प संकेत :

*  संयुक्त राष्ट्र संघ यानी यूएनओ का अनुमान है कि पूरी दुनिया की आबादी 2023 तक 8 अरब और 2056 तक 10 अरब को पार कर देगी. बता दें कि यूएनओ के अनुमान और द लैंसेट जर्नल में प्रकाशित शोध में फर्क है.

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*  वर्ष 2025-30 तक भारत की जनसंख्‍या 1 अरब 65 करोड़ हो जाएगी. तब भारत पड़ोसी चीन को पछाड़ कर आबादी में नंबर वन हो जाएगा. तब तक दुनिया की आबादी 8 अरब 14 करोड़ हो चुकी होगी.

*  विश्व की आधी आबादी 9 देशों में रहती है. 2017 से 2050 तक भारत, नाइजीरिया, कांगो का लोकतांत्रिक गणराज्य, पाकिस्तान, इथियोपिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, तंजानिया, युगांडा और इंडोनेशिया जनसंख्या वृद्धि में सब से ज्यादा योगदान देंगे. इस का मतलब है कि अफ्रीका की आबादी अब और 2050 के बीच लगभग दोगुना हो जाएगी.

*  आबादी के मामले में नाइजीरिया  2050 से पहले अमेरिका को पीछे छोड़ कर तीसरे स्थान पर पहुंच जाएगा. आज के दौर में सब से तेजी से आबादी में वृद्धि करने वाला देश नाइजीरिया ही है.

* इस समय विश्‍व की कुल आबादी 7.7 बिलियन यानी कि 7.77 अरब है. विश्व में सब से ज्यादा आबादी वाला देश चीन है, इस की कुल आबादी 1.41 अरब है. आबादी के मामले में चीन पहले स्थान पर है और दूसरे नंबर पर भारत जबकि अमेरिका तीसरे नंबर पर है.

*  संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या विभाग के डायरैक्टर जौन विल्मोथ ने हाल ही में कहा कि ताजा अध्ययन में पाया गया कि  अगले 30 वर्षों में भारत की आबादी में 27.3  अरब की वृद्धि हो सकती है. इस हिसाब से 2050 तक भारत की कुल आबादी 1.64 अरब होने का अनुमान है.

बहरहाल, यह सब अनुमानित शोध के मुताबिक है लेकिन गौर करने लायक जो बात है वह यह है कि यदि भारत अपनी स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणाली को सुधार कर विश्वस्तर पर ले आए तो इस का विशाल जनसमूह न केवल देश, बल्कि संसारभर में प्रभावशाली स्थान और रूप में रह सकेगा.

#corornavirus: आबादी के बढ़ते बोझ से जल अकाल की तरफ बढ़ता देश

भले इन दिनों देश में छाये कोरोना संकट के चलते,जल संकट मीडिया की सुर्ख़ियों में जगह न बना पा रहा हो,मगर सच्चाई यही है कि देश का पश्चिमी और दक्षिणी हिस्सा विशेषकर महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, उडीसा और मध्यप्रदेश के बड़े हिस्से में जल संकट कोरोना की तरह ही दैनिक जीवन के लिए बड़ा संकट बना हुआ है. लेकिन यह कोई इस साल या पिछले किसी साल का अचानक आया संकट नहीं है बल्कि अब जल संकट,पिछले एक दशक से भारत का स्थायी संकट बन चुका है. यह कम और मझोले स्तर पर तो देश के करीब दो तिहाई भू-भाग में पूरे साल बना रहता है,लेकिन फरवरी खत्म होकर मार्च माह के मध्य तक पहुँचते पहुँचते यह देश के काफी बड़े हिस्से में भयावह संकट बन जाता है.

इसकी एक बड़ी वजह जल संसाधन पर आबादी का बढ़ता बोझ भी है. भारत के पास धरती की समस्त भूमि का सिर्फ 2.4 प्रतिशत ही है जबकि हमारे खाते में विश्व की 16.7 फीसदी जनसंख्या है. इससे साफ है कि हमारे सभी तरह के संसाधनों पर जिस तरह आबादी का दबाव है,वही दबाव जल संसाधन पर भी है. जल संसाधन पर भारी दबाव के कारण ही हम भूमि जल का दोहन तय अनुपात से कई सौ प्रतिशत ज्यादा करते हैं. हम तय सीमा से भूमि जल का कितना ज्यादा दोहन करते हैं इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि भयंकर भू-जल दोहन के कारण 2007-2017 के बीच भू-जल स्तर में 61% तक की कमी आ चुकी है. अब देश के 40% तक भू-भाग में  सूखे का संकट हर साल रहता है. एक अध्यययन के  मुताबिक़ साल 2030 तक बढ़ती आबादी के कारण देश में पानी की मांग अभी हो रही आपूर्ति के मुकाबले दोगुनी हो जाएगी.

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पेय जल को लेकर पूरी दुनिया में जो संकट मंडरा रहा है, भारत में वह दलगातार बढ़ती आबादी के कारण ज्यादा गहरा हो रहा है. भारत में परिवारों की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच,पानी की मांग एवं आपूर्ति में जो अंतर पैदा हो रहा है उसके कारण 2025 तक भारत विश्व के सर्वाधिक जल संकट वाला देश बन सकता है. साथ ही यह भी अनुमान है कि अगले कुछ सालों में विदेशी कंपनियां भारत में 13 अरब डॉलर  से ज्यादा का निवेश कर सकती हैं. जल क्षेत्र में एक प्रमुख परामर्श कंपनी ईए वाटर के एक अध्ययन के अनुसार, ‘भारत में पानी की मांग सभी मौजूदा स्रोतों से होने वाली आपूर्ति के मुकाबले ऊपर चले जाने की आशंका है और देश 2025 तक जल संकट वाला देश बन सकता है.’

कम्पनी के अध्ययन के मुताबिक ‘परिवार की आय बढ़ने तथा सेवा तथा उद्योग क्षेत्र से योगदान बढ़ने के कारण घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है.’ देश की सिंचाई का करीब 70 प्रतिशत तथा घरेलू जल खपत का 80 प्रतिशत हिस्सा भूमिगत जल से पूरा होता है, जिसका स्तर तेजी से घट रहा है. हालांकि एक तरफ जहां यह आसन्न संकट है वहीं कारपोरेट क्षेत्र इसे बड़े अवसर के रूप में भी देख रहा है यही कारण है कि इस अध्ययन में यह भी कहा गया है कि इस संकट की आशंका के चलते कनाडा, इस्राइल, जर्मनी, इटली, अमेरिका, चीन और बेल्जियम की कई कंपनियां भारत के घरेलू जल क्षेत्र में 13 अरब डॉलर मूल्य के निवेश का अवसर देख रही हैं.

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देश में जल आपूर्ति और दूषित जल प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचे के विकास समेत विभिन्न संबंधित क्षेत्रों में काफी अवसर हैं. पारंपरिक रूप से भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है और इसकी जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई भाग कृषि पर निर्भर है. इसीलिए, पंचवर्षीय योजनाओं में, कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए सिंचाई के विकास को एक अति उच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है और बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएं जैसे- भाखड़ा नांगल, हीराकुड, दामोदर घाटी, नागार्जुन सागर, इंदिरा गांधी नहर परियोजना आदि शुरू की गई हैं. वास्तव में, भारत की वर्तमान में जल की मांग, सिंचाई की आवश्यकताओं के लिए सबसे अधिक है. भारत में वह जल चाहे धरातलीय हो यानी धरती के ऊपर का या फिर भूमि जल यानी धरती के नीचे भूमि में मौजूद. इन दोनों ही किस्म के जलों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल कृषि के लिए ही होता है.

धरातलीय जल का लगभग 89 प्रतिशत और भूमि जल का 92 प्रतिशत तक कृषि में इस्तेमाल होता है. औद्योगिक सेक्टर में, भूमि जल का केवल 2 प्रतिशत और धरातलीय जल का 5 प्रतिशत भाग ही उपयोग में लाया जाता है. घरेलू सेक्टर में धरातलीय जल का उपयोग भूमि जल की तुलना में अधिक है. भविष्य में विकास के साथ-साथ देश में औद्योगिक और घरेलू सेक्टरों में जल का उपयोग कई गुना ज्यादा बढ़ जाने की आशंका है. पानी की कीमत का अभी हम अंदाजा नहीं लगा पा रहे. अगर सब कुछ ऐसा ही रहा और भारत के लोगों ने पानी का मोल न समझा तो वर्ष 2025 तक देश में जल की समस्या बहुत विकराल रूप ले सकती है.

देश में पानी की उपलब्धता की खराब होती स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस साल यानी 2020 के अंत तक पानी की उपलब्धता प्रति व्यक्ति एक हजार क्यूबिक मीटर से भी कम रह जाएगी. तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़े जाने की आशंकाओं के बीच वाकई आज भारत में जलस्रोतों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है नतीजतन कई राज्य पानी की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं. पानी के इस्तेमाल के प्रति लोगों की लापरवाही अगर बरकरार रही तो भविष्य में इसके गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं. विश्व बैंक के एक ताजा अध्ययन में कहा गया है कि 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले 27 एशियाई शहरों में चेन्नई और दिल्ली पानी की उपलब्धता के मामले में सबसे खराब स्थिति वाले महानगर हैं. इस फेहरिस्त में मुम्बई दूसरे स्थान पर जबकि कोलकाता चैथी पायदान पर है.

साफ पानी न मिलने के कारण हर साल भारत में दो लाख लोग जान गवां रहे हैं. देश के करीब 60 करोड़ लोग पीने के पानी की गंभीर किल्लत का सामना कर रहे हैं. वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि बढ़ती आबादी के कारण 2030 तक भारत में पानी की मांग उपलब्धता से दोगुनी हो जाएगी. तब इसका असर भारत के जीडीपी पर पडेगा. माना जा रहा है कि पानी की किल्लत के कारण तब भारत की जीडीपी में 6 प्रतिशत तक की कमी आने की आशंका है.

डैमोक्रेसी और भारतीय युवा

हौंगकौंग और मास्को में डैमोक्रेसी के लिए हजारों नहीं, लाखों युवा सड़कों पर उतरने लगे हैं. मास्को पर तानाशाह जैसे नेता व्लादिमीर पुतिन का राज है जबकि हौंगकौंग पर कम्युनिस्ट चीन का. वहां डैमोक्रेमी की लड़ाई केवल सत्ता बदलने के लिए नहीं है बल्कि सत्ता को यह जताने के लिए भी है कि आम आदमी के अधिकारों को सरकारें गिरवी नहीं रख सकतीं.

अफसोस है कि भारत में ऐसा डैमोक्रेसी बचाव आंदोलन कहीं नहीं है, न सड़कों पर, न स्कूलोंकालेजों में और न ही सोशल मीडिया में. उलटे, यहां तो युवा हिंसा को बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं. वे सरकार से असहमत लोगों से मारपीट कर उन्हें डराने में लगे हैं. यहां का युवा मुसलिम देशों के युवाओं जैसा दिखता है जिन्होंने पिछले 50 सालों में मिडिल ईस्ट को बरबाद करने में पूरी भूमिका निभाई है.

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डैमोक्रेसी आज के युवाओं के लिए जरूरी है क्योंकि उन्हें वह स्पेस चाहिए जो पुराने लोग उन्हें देने को तैयार नहीं. जैसेजैसे इंसानों की उम्र की लौंगेविटी बढ़ रही है, नेता ज्यादा दिनों तक सक्रिय रह रहे हैं. वे अपनी जमीजमाई हैसियत को बिखरने से बचाने के लिए, स्टेटस बनाए रखने का माहौल बना रहे हैं. वे कल को अपने से चिपकाए रखना चाह रहे हैं, वे अपने दौर का गुणगान कर रहे हैं. जो थोड़ीबहुत चमक दिख रही है उस की वजह केवल यह है कि देश के काफी युवाओं को विदेशी खुले माहौल में जीने का अवसर मिल रहा है जहां से वे कुछ नयापन भारत वापस ला रहे हैं. हमारी होमग्रोन पौध तो छोटी और संकरी होती जा रही है. देश पुरातन सोच में ढल रहा है. हौंगकौंग और मास्को की डैमोक्रेसी मूवमैंट भारत को छू भी नहीं रही है.

नतीजा यह है कि हमारे यहां के युवा तीर्थों में समय बिताते नजर आ रहे हैं. वे पढ़ने की जगह कोचिंग सैंटरों में बिना पढ़ाई किए परीक्षा कैसे पास करने के गुर सीखने में लगे हैं. वे टिकटौक पर वीडियो बना रहे हैं, डैमोक्रेसी की रक्षा नहीं कर रहे.

उन्हें यह नहीं मालूम कि बिना डैमोक्रेसी के उन के पास टिकटौक की आजादी भी नहीं रहेगी, ट्विटर का हक छीन लिया जाएगा, व्हाट्सऐप पर जंजीरे लग जाएंगी. हैरानी है कि देशभर में सोशल मीडिया पोस्टों पर गिरफ्तारियां हो रही हैं और देश का युवा चुप बैठना पसंद कर रहा है. वह सड़कों पर उतर कर अपना स्पेस नहीं मांग रहा, यह अफसोस की बात है. देश का भविष्य अच्छा नहीं है, ऐसा साफ दिख रहा है.

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