हौंगकौंग और मास्को में डैमोक्रेसी के लिए हजारों नहीं, लाखों युवा सड़कों पर उतरने लगे हैं. मास्को पर तानाशाह जैसे नेता व्लादिमीर पुतिन का राज है जबकि हौंगकौंग पर कम्युनिस्ट चीन का. वहां डैमोक्रेमी की लड़ाई केवल सत्ता बदलने के लिए नहीं है बल्कि सत्ता को यह जताने के लिए भी है कि आम आदमी के अधिकारों को सरकारें गिरवी नहीं रख सकतीं.

अफसोस है कि भारत में ऐसा डैमोक्रेसी बचाव आंदोलन कहीं नहीं है, न सड़कों पर, न स्कूलोंकालेजों में और न ही सोशल मीडिया में. उलटे, यहां तो युवा हिंसा को बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं. वे सरकार से असहमत लोगों से मारपीट कर उन्हें डराने में लगे हैं. यहां का युवा मुसलिम देशों के युवाओं जैसा दिखता है जिन्होंने पिछले 50 सालों में मिडिल ईस्ट को बरबाद करने में पूरी भूमिका निभाई है.

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डैमोक्रेसी आज के युवाओं के लिए जरूरी है क्योंकि उन्हें वह स्पेस चाहिए जो पुराने लोग उन्हें देने को तैयार नहीं. जैसेजैसे इंसानों की उम्र की लौंगेविटी बढ़ रही है, नेता ज्यादा दिनों तक सक्रिय रह रहे हैं. वे अपनी जमीजमाई हैसियत को बिखरने से बचाने के लिए, स्टेटस बनाए रखने का माहौल बना रहे हैं. वे कल को अपने से चिपकाए रखना चाह रहे हैं, वे अपने दौर का गुणगान कर रहे हैं. जो थोड़ीबहुत चमक दिख रही है उस की वजह केवल यह है कि देश के काफी युवाओं को विदेशी खुले माहौल में जीने का अवसर मिल रहा है जहां से वे कुछ नयापन भारत वापस ला रहे हैं. हमारी होमग्रोन पौध तो छोटी और संकरी होती जा रही है. देश पुरातन सोच में ढल रहा है. हौंगकौंग और मास्को की डैमोक्रेसी मूवमैंट भारत को छू भी नहीं रही है.

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