पेरैंट्स हों या दोस्त, आलोचनात्मक रवैये से न खोएं आत्मविश्वास

किशोरावस्था यानी टीनऐज शारीरिक और मानसिक विकास की एक महत्त्वपूर्ण अवधि है. इस अवधी
में एक टीनऐज के तौर पर आप बहुत कुछ सीख रहे होते हैं. आप के अपने दोस्तों, पेरैंट्स और
सिबलिंग्स के साथ रिश्ते नई शक्ल ले रहे होते हैं. टीनऐजर्स के लिए यही वक्त होता है अपना भविष्य और कैरियर को एक रूप देने का.

ऐसी स्थिती में पेरैंट्स एक खास भूमिका अदा करते हैं जोकि उन के मानिसक विकास को प्रभावित
करती है. अकसर आप ने देखा होगा कि टीनेजर्स के पेरैंट्स अपने बच्चों को तरहतरह से परखते हैं और
उन की परख पर खरे न उतर पाने के कारण अकसर अपने बच्चों की आलोचना करने से भी कतराते भी नहीं.

आलोचना जरीया हो

पेरैंट्स के अनुसार आलोचना एक जरीया हो टीनऐजर्स को अपनी परफौर्मेंस में सुधार करने के लिए, प्रेरित करने के लिए.

एक ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा,”बचपन में जब पापा मेरे मार्क्स देख कर कहते कि ओह, गणित में तो बहुत कम अंक आए हैं, बेटा. मगर कोई बात नहीं अगली बार कोशिश करो अच्छा करने की. वहीं मेरी मां मुझे नीचे के कमरे से कुछ लाने के लिए कहतीं और फिर अचानक ही कहतीं कि रहने दो तेरे बस की नहीं है, तो पता नहीं क्यों मैं हतोत्साहित होने के बजाय वह काम करने के लिए ज्यादा उत्साहित हो जाती.”

लेकिन आज के समय टीनऐजर्स इस तरह के छोटे बडे क्रिटिसिज्म को नकारात्मक तरीके से ले लेते हैं और अपनेआप को कमजोर और डीमोटीवेट करने लगते हैं.

आइए, जानें कैसे अपनेआप को एक टीनऐजर्स के तौर पर आप क्रिटिसिज्म से बचा सकते हैं :

क्रिटिसिज्म को लें पौजिटिव

टीनऐजर्स में दोस्तों के साथ बने रहने का सामाजिक दबाव होता है, जिन में से कुछ दोस्त हमेशा आगे होते हैं. वे बेहतर दिखते हैं, ज्यादा समझदारी से काम लेते हैं, स्कूल में अधिक उपलब्धियां हासिल करते हैं और अधिक लोकप्रिय और कूल होते हैं.

सुबहसुबह स्कूल के दिनों के लिए तैयार होने की बात है आप वहीं अपनी आलोचना शुरू कर देते हैं.
‘मैं कैसा दिख रहा/रही हूं’,’मेरी दोस्त कितनी सुंदर दिखती है’,’ मेरा दोस्त अच्छा नंबर लाया है’,’वह स्पोर्ट्स में कितना अच्छा है…’ आदि आप खुद की आलोचना कर के अपना कौन्फिडेंस खो देते हैं.

ऐसा करने से बचें. हर व्यक्ति की अपनी एक सीमा और खासियत होती है. आप का सुंदर दिखना
उतना जरूरी नहीं है जितना कि आप का प्रभावी दिखना. खुद की तुलना किसी के साथ न करें चाहे वह आप का दोस्त या फिर भाई या बहन ही क्यों न हो. ऐसा करना खुद के साथ क्रूरता करने जैसा ही है. ऐसा कर के आप अपना आत्मविश्वास खो देंगे और अगर यह क्रिटिसिज्म आप के पेरैंट्स द्वारा किया गया है तो याद रखें कि आप के पेरैंट्स की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे आप की लिमिट्स और प्रतीभा को बढ़ाने की कोशिश करते रहें.

इसलिए उन के द्वरा किये गए क्रिटिसिज्म को नकारात्म रूप से न लें. इस को ले पौजीटिव वे में रहें और अपनी परफौर्मेंस को सुधारने की कोशिश करते रहे.

क्रिटिसिज्म को न होने दें हावी

अमेरिका के मशहूर राइटर विलियम गिलमोर सिम्स कहते हैं, “आलोचना का भय प्रतिभा की मृत्यु है.”

इसलिए कभी भी क्रिटिसिज्म यानी आलोचना को अपने ऊपर हावी न होने दें. टीनऐजर्स क्योंकि
भावुकता से भरे होते हैं इसलिए अकसर टीनऐजर्स किसी भी तरह के छोटेबङे क्रिटिसिज्म को दिल से
लगा लेते हैं जिस से उन की परफौर्मेंस गिरती चली जाती है. ऐसा न करें.

हैल्दी क्रिटिसिज्म को अपनाएं और अनहैल्दी क्रिटिसिज्म को नजरअंदाज करते चलें, बिलकुल वैसे ही जैसे अकसर आप की परफौर्मेंस को नजरअदाज कर दिया जाता है.

पेरैंट्स के लिए

टीनऐजर्स के लिए क्रिटिसिज्म से ज्यादा जरूरी है प्रोत्साहन. क्रिटिसिज्म और प्रोत्साहन का बैलेंस टीनऐजर्स को मजबूत बनाता है लेकिन सिर्फ क्रिटिसिज्म उन्हें अकसर कमजोर करता है खासकर पेरैंट्स की तरफ से किया गया क्रिटिसिज्म.

यह टीनऐजर्स में सैल्फ डाउट्स और अंडर कौन्फिडैंस पैदा करता है जिसे समझने में अकसर टीनऐजर्स को एक लंबा वक्त लग जाता है.

इसलिए कभी भी गुस्से में आलोचना न करें. कभी भी सुधार या दंड देने के लिए आलोचना न करें.

केवल आलोचना का उपयोग न करें
और ‘क्या आप मूर्ख हैं’,’आप कभी नहीं सीखेंगे’,’आप कुछ भी ठीक से नहीं कर सकते…’ जैसे शब्दों से बचें.

जब मां के कैरेक्टर पर शक करने लगे बेटी

काव्या मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर के पोस्ट पर थी, उसकी उम्र लगभग 40 साल की थी. कहते हैं न कि “किसी महिला के पास ब्यूटी और ब्रेन हो, तो लाइफ में सफलता उसके कदमों को चूमती है.” काव्या की भी लाइफ कुछ ऐसी ही थी, लेकिन वह डिवोर्सी थी और एक बेटी की मां भी. काव्या की बेटी 12 वीं में थी.
काव्या अक्सर घर लेट आती थी. उसे उसका कौलिग छोड़ने आता था. काव्या की बेटी (रूही) को अपनी मां के कैरेक्टर पर शक था, उसे ऐस लग रहा था कि उसकी मां अपनी कौलिग के साथ रिलेशनशिप में है, इसलिए वह उसी के साथ औफिस से घर आती है और हर वीकेंड बाहर घूमने भी जाती है. वह सोच रही थी इस उम्र में मेरी मां किसी के साथ रिलेशनशिप में कैसे हो सकती है, वह काव्या से इस बारे में पूछना भी चाहती थी पर वह पूछ नहीं पाती थी.

ये सिर्फ काव्या के साथ ही नहीं हुआ, ऐसी कई घटनाएं सुनने को मिलती है कि बेटी मां के चरित्र पर शक करती है. साल 2019 में छत्तीसगढ़ में एक मामला सामने आया था, जानकारी के अनुसार जब बेटियों को अपनी मां के अवैध संबंध के बारे में पता चला, तो उन्होंने उस आदमी की पिटाई शुरू कर दी. हालांकि वर्किंग महिलाओं को इस तरह की समस्याओं का ज्यादा सामना करना पड़ता है. जब बच्चे उन्हीं के कैरेक्टर पर शक करने लगते हैं.

साइकोलौजिस्ट के अनुसार, पेरेंट के अफेयर का बुरा असर बड़े बच्‍चों की तुलना में छोटे बच्‍चों पर पड़ता है, क्‍योंकि वो अपनी हर छोटीछोटी जरूरत या सपोर्ट के लिए अपने पेरेंट पर ही निर्भर रहते हैं. इन बच्चों का इमशोनल सपोर्ट भी पेरेंट होते हैं.

हमारे समाज में काव्या जैसी कई महिलाएं वर्किंग और सिंगल पेरेंट है, ऐसा नहीं है कि मां बनने के बाद या तलाक हो जाने के बाद किसी साथी की जरूरत नहीं होती. हर उम्र के पड़ाव पर पार्टनर की जरूरत होती है. यह जरूरी नहीं है कि केवल फिजिकल नीड के लिए ही महिला को साथी चाहिए, कई बार इमोशनली सपोर्ट के लिए भी किसी के सहारे की जरूरत होती है.

एक सर्वे के अनुसार, पेरेंट बनने के बाद लोग एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर की तरफ बढ़ते हैं. हम सभी जानते हैं कि पतिपत्नी दोनों को बच्चों को ज्यादा देखभाल करने और समय देने की जरूरत होती है. ऐसे में दोनों का ध्यान एकदूसरे से हटता है. इस तरह पेरेंट्स शादी से बाहर रिश्ते तलाश करते हैं.

मां को बेटी के साथ फ्रेंडली होना चाहिए, खासकर जब महिलाएं वर्किंग और सिंगल पेरेंट हैं. दरअसल, आप अपनी बेटी से दिल की बात कह सकती हैं, आप अपने कौलिग या दोस्तों के बारे में खुलकर बातें शेयर कर सकती हैं. कहा जाता है कि मां और बेटी सबसे अच्छी दोस्त होती है और यह बात सच भी है. अगर मांबेटी आपस में खुलकर बात नहीं करती हैं, तो चीजें गलत हो जाएंगी, इससे दोनों के रिश्ते में दूरियां भी बढ़ेगी.

हम आपको इस आर्टिकल में कुछ प्वाइंट्स के जरिए बताएंगे कि जब बेटी मां के कैरेक्टर पर शक करती है, तो इस कंडीशन में दोनों को क्या करना चाहिए?

• मां के दोस्तों से बेटी को प्रौब्लम होती है, तो आपदोनों इस बारे में बात करें.
• बेटी को भी यह समझना जरूरी है कि मां को भी कोई पसंद आ सकता है.
• कई बार किसी लड़की को ये लगता है कि अगर उसके मां के लाइफ में कोई दूसर व्यक्ति आएगा तो इससे उनके रिश्ते पर असर पड़ेगा, इसलिए वो नहीं चाहती कि मां का किसी के साथ अफेयर हो.
• मां के लाइफ में किसी और के आ जाने से बेटी के लिए उसका प्यार कम नहीं हो सकता है. हो सकता है कि मां और उसका पार्टनर दोनों मिलकर बेटी की और भी अच्छे से ख्याल रखें.

आंटियों की छींटाकशी की शिकार लड़कियां

कोमल जैसे ही स्लीवलेस टॉप और कार्गो पैंट पहन कर बाहर निकलने को हुई कि उस की सुमन आंटी पीछे से उस की मां को सुनाती हुई बोली,” सविता कुछ अपनी बेटी को भी समझाया कर. देख किस तरह के कपड़े पहन कर जा रही है. मेरी बेटी अगर ऐसी जाती तो उसे घर से निकलने नहीं देती. बुरा मत मानना बहन पर तेरी बेटी इतनी बड़ी हो गई है लेकिन पहनने ओढ़ने की समझ नहीं है. मैं ने अक्सर देखा है पता नहीं कैसे कटे फटे कपड़े पहन कर निकल जाती है.”

कोमल ने पीछे मुड़ कर देखा. सुमन आंटी उस के घर आई हुई थी और बैठ कर चाय पीते हुए उस पर कमैंट्स कर रही थी. कोमल करीब जाते हुए बोली,” आंटी आप को पता है मैं हमेशा ट्रेंडी और स्टाइलिश कपड़े पहनने पसंद करती हूँ ताकि कहीं भी कॉन्फिडेंस के साथ जाऊं. मैं आज के समय के कपड़े पहन रही हूँ और आप चाहती हो कि मैं आप के समय के कपड़े पहनूं. मगर क्यों? ”

” क्या मतलब तू 18 साल की हो गई है ना. अब तुझे मन नहीं करता सलवार सूट दुपट्टा लेकर बलखाती हुई खूबसूरत सी बन कर जाए. इस तरह के स्लीवलेस कपड़े पजामा या फिर कटे फटे कपड़े पहन अजीब नहीं लगता ?

“ओह आंटी कटे फटे कपड़े नहीं वह आजकल की ट्रेंड वाले कपड़े हैं. स्टाइलिश लगते हैं. ” कोमल ने कहा.

” तुझे लगते होंगे स्टाइलिश मुझे तो भिखारी के कपड़े लगते हैं. मेरी बात मान दो चार ढंग के कपड़े खरीद कर ला और उसे पहन कर निकल. 10 लोग देखेंगे तुझे. पसंद करेंगे. तेरी शादी भी हो जाएगी.” सुमन आंटी अपनी रौ में बोलती गई.

” बस आंटी शादी जरूर हो जाए. जैसा आप ने खुद किया, 17 साल में आप ने शादी कर ली थी. 18 साल में मां बन गई और फिर एक एक करके 4 बच्चों ने जन्म ले लिया. आप की जिंदगी में अब तक क्या रहा? बस खाना बनाना , बच्चे को जन्म देना, उन्हें खिलाना , बड़ा करना और धार्मिक रीति रिवाज निभाना. मैं ऐसी जिंदगी कभी नहीं जी सकती. ”

” उस से अच्छा सुख है क्या औरत की जिंदगी में ? एक औरत तभी पूर्ण बनती है जब वह एक अच्छी मां , अच्छी पत्नी और अच्छी बहू बनती है समझी.” सुमन आंटी अपनी बात पर कायम थी.

” क्यों उसे खुद सुखी रहने का हक़ नहीं है? अपने बारे में सोचने या अपना अलग वजूद बनाने का हक़ नहीं? आप अभी 40 – 45 साल की हो ना पर आप लगते हो 60 की. एक तो आप की पुरानी सोच और एक आप का रहन सहन सब पुरातन पंथी. ” कह कर कोमल गुस्से में चली गई. उस का मूड ऑफ़ हो चुका था.

इधर सुमन आंटी उसकी मां को समझती रही,” देख सविता मैं तुझ से बड़ी हूं ना. तेरे भले के लिए समझा रही हूं. तेरी बच्ची अभी बड़ी नासमझ है. उसे कुछ दुनियादारी की बातें बताओ.”

” अच्छा सुमन बहन वो सब छोड़ो. तुम बताओ एग्जाम में तुम्हारे दीपक के नंबर क्या आए है ? हमारी बेटी ने तो कॉलेज में टॉप किया है”.

” मेरा बेटा भी बहुत तेज है. बहुत जल्दी नौकरी करने लगेगा फिर लड़कियों की लाइन लग जाएगी” सुमन आंटी अपने बेटे के गुण गाने लगी.

इसी तरह मानसी जो हॉस्टल में रह कर पढ़ती है, जब भी घर आती है तो उस की बगल वाली आंटी जरूर चली आती है. फिर उस से खोदखोद कर पूछती है,” वहां हॉस्टल में लड़के तो नहीं आते? तुम लोगों को रात में आने को मना नहीं किया जाता ? तेरा कोई बॉयफ्रेंड तो नहीं? तेरी उम्र हो रही है अब हॉस्टल छोड़ और घर में रह. घर के कामकाज सीख और शादी कर. ”

मानसी चिढ़ कर कहती,” आंटी मेरी जिंदगी है न. मैं जी लूंगी जैसा दिल करे. आप क्यों चिंता करती हो?”

” देख बच्ची तेरे भले के लिए कह रही थी. बाकी तू समझ तेरी मां समझे. ” कह कर वह चली जाती. लेकिन हर बार कुछ इसी तरह के कॉमेंट्स जरूर करती.

दरअसल जितनी चिंता बेटी की शादी, उसके पहनावे, उसकी पढ़ाई लिखाई या उसके कैरेक्टर को ले कर घर में मां बाप को या बड़े भाई बहन को नहीं होती उस से बहुत ज्यादा चिंता अगल बगल की आंटियां करती हैं. ऐसी आंटियां जिन का खुद तो कभी पढ़ाई या नौकरी करने से वास्ता नहीं रहा. जिंदगीभर घर के चौक चूल्हे में सिमटी रही और इस वजह से उनकी सोच भी उतनी ही संकुचित रह जाती है.

संकुचित धार्मिक सोच का असर

उनके पास काम क्या होता है या तो दूसरे के घर में झांकना, दूसरे के बच्चों पर कमेंट करना, पड़ोसियों के अवैध संबंधों की जांच पड़ताल करना, जासूसी करना और दूसरों पर नजर रखना. इसी क्रम में वह अपनी घटिया, संकुचित और रूढ़िवादी सोच दूसरों पर थोपती हैं. अपनी जिंदगी में उन्होंने कुछ किया नहीं और आगे करने की कोई संभावना भी नहीं है. आगे बढ़ती जनरेशन की समझ वे आत्मसात नहीं कर पाती और उन्हें कमेंट करके अपनी फ्रस्ट्रेशन निकालती है कि लड़कियों की जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद शादी है और इसलिए बचपन से ही लड़कियों को चौका चूल्हा सीखना चाहिए , दाब ढक कर रहना चाहिए. मतलब जो सोच एक समय में दादी परदादी की होती थी ऐसी सोच अगल-बगल की आंटियां भी रखती हैं.

वह खुद क्या करती हैं ? वे या तो भजन कीर्तन में चली जाती है या किटी पार्टी में समय बर्बाद करती है. जो थोड़ी पैसे वाली होती है वह किटी पार्टी में समय बर्बाद करती है. जिनकी हैसियत पार्टी अटेंड करने की नहीं है तो वह धार्मिक धर्म कर्म पूजा पाठ में अपना समय लगाती है. उनका समय कटता नहीं तो फिर वह इधर-उधर नजर रखने लगती है. दूसरों के कैरेक्टर के का पोस्टमार्टम करती है और फिर एक दूसरे को चुगली करती है.

दरअसल आंटियों की भी गलती नहीं है. उन्हें शुरू से ही समझाया गया कि धर्म कर्म,, पूजा पाठ चौका चूल्हा बच्चे घर गृहस्ती यही सब उनकी जिंदगी है. उन को हमेशा से धर्म कर्म की कहानी सुनाई गई है. वह इसी पिछली सोच के साथ जीती हैं.

फैशन की समझ नहीं

ऐसी आंटियों को आजकल के फैशन की कोई जानकारी नहीं है. ना ही उन्होंने कभी खुद अपनी जिंदगी में खूबसूरत और स्मार्ट दिखने की कोशिश की. अब उनकी उम्र भी नहीं रही और उम्र अगर है भी तो भी उन्होंने अपने शरीर को इतना बेडौल बना रखा है कि उस पर कुछ जंचेगा नहीं. अपने चेहरे और पर्सनालिटी को इतना बोरिंग बनाया हुआ है कि उन पर कुछ फैशनेबल ड्रेस सूट नहीं करेंगे. वह खुद तो वह सब कर नहीं सकती है फिर दूसरों को कैसे करने दे और फिर उनकी सोच भी संकुचित है. उन्हें पढ़ाई लिखाई से कभी ज्यादा वास्ता रहा नहीं. अच्छे लोगों में उठने बैठने की समझ नहीं. वह तो घर परिवार या अपने जैसी चार-पांच महिलाओं का ग्रुप बनाकर दूसरों पर छींटाकशी करने का काम करती हैं.

खुद भी बदलें

अगर ये आंटियां कोशिश करें तो खुद अपनी जिंदगी भी बदल सकती है. यह किटी पार्टी और कर्म कर्म से ऊपर उठकर कुछ अपनी पर्सनालिटी को सुधारने की कोशिश करती. कुछ ऐसे काम करती की बड़े लोगों मतलब पढ़े लिखे लोगों से संपर्क बनता. अपनी हॉबीज को में अपना समय लगाती और उससे पैसे कमाने का जुगाड़ करती. तरीके तो बहुत है. अगर वह चौके चूल्हे में ही लगी रहती है तो उसी से उठकर वह टिफिन सर्विस का काम कर सकती है. वह अगर पढ़ी-लिखी हो तो बच्चों को पढ़ाने का काम कर सकती है. अगर ड्राइंग , पेंटिंग कहानी कविता वगैरह में रुचि है तो क्रिएटिव काम कर सकती है. वह चाहे तो समाज के लिए कुछ अच्छे काम करके दिखा सकती है. सोशल एक्टिविस्ट बन सकती है. पर नहीं उन को करना क्या है तो दूसरों को आगे बढ़ता देख उनका रास्ता काटना है. दूसरों के बच्चों पर छींटाकशी करना और उन्हें सही रास्ता दिखाने की बात कहते हुए गलत रास्ते पर लाने की कोशिश करना.

कॉन्फिडेंस जरुरी

जब तक एक लड़की ढंग के कपड़े पहनकर निकलेगी नहीं तो उसके अंदर आत्मविश्वास कैसे आएगा? स्टाइलिश ट्रेंडी और खूबसूरत स्मार्ट कपड़े पहन कर या मेकअप कर के लड़कियों में आत्मविश्वास आता है. आज के समय में जब इतना कंपटीशन है तो उस के लिए कम से कम कपड़े तो ऐसे हो कि जिन को लेकर वह अनकंफरटेबल ना हो. हर तरह के काम कर सके. हर जगह आना-जाना कर सके. न कि अपना दुपट्टा और साड़ी संभालती रहे. इसलिए समय आ गया है की आंटियां अपने आप को कहीं अच्छी जगह इंवॉल्व करें ना कि दूसरों पर नजर रखें. कम उम्र की लड़कियों को उनके समय और उनकी उम्र के हिसाब से जीने का मौका दें और आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करें ना कि उन्हें बात सुनाएं.

मिलेट्स से बने हेल्दी फूड के बारें में क्या कहती है महिला उद्यमी विद्या जोशी, जानें यहां

अगर जीवन में कुछ करने को ठान लिया हो तो समस्या कितनी भी आये व्यक्ति उसे कर गुजरता है. कुछ ऐसी ही कर दिखाई है, औरंगाबाद की महिला उद्यमी विद्या जोशी. उनकी कंपनी न्यूट्री मिलेट्स महाराष्ट्र में मिलेट्स के ग्लूटेन और प्रिजर्वेटिव फ्री प्रोडक्ट को मार्किट में उतारा है, सालों की मेहनत और टेस्टिंग के बाद उन्होंने इसे लोगों तक परिचय करवाया है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. उनके इस काम के लिए चरक के मोहा ने 10 लाख रुपये से सम्मानित किया है. उनके इस काम में उनका पूरा परिवार सहयोग देता है.

किये रिसर्च मिलेट्स पर

विद्या कहती है कि साल 2020 में मैंने मिलेट्स का व्यवसाय शुरू किया था. शादी से पहले मैंने बहुत सारे व्यवसाय किये है, मसलन बेकिंग, ज्वेलरी आदि करती गई, लेकिन किसी काम से भी मैं पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पा रही थी. मुझे हमेशा से कुछ अलग और बड़ा करना था, लेकिन क्या करना था, वह पता नहीं था. उसी दौरान एक फॅमिली फ्रेंड डॉक्टर के साथ चर्चा की, क्योंकि फ़ूड पर मुझे हमेशा से रूचि थी, उन्होंने मुझे मिलेट्स पर काम करने के लिए कहा. मैंने उसके बारें में रिसर्च किया, पढ़ा और मिलेट्स के बारें में जानने की कोशिश की. फिर उससे क्या-क्या बना सकती हूँ इस बारें में सोचा, क्योंकि मुझे ऐसे प्रोडक्ट बनाने की इच्छा थी, जिसे सभी खा सके और सबके लिए रुचिकर हो. किसी को परिचय न करवानी पड़े. आम इडली, डोसा जैसे ही टेस्ट हो. इसके लिए मैंने एक न्यूट्रीशनिस्ट का सहारा लिया, एक साल उस पर काम किया. टेस्ट किया, सबको खिलाया उनके फीड बेक लिए और फीडबेक सही होने पर मार्किट में लांच करने के बारें में सोचा.

मिलेट्स है पौष्टिक

विद्या आगे कहती है कि असल में मेरे डॉक्टर फ्रेंड को नैचुरल फ़ूड पर अधिक विशवास था. उनके कुछ मरीज ऐसे आते थे, जो रोटी नहीं खा सकते थे, ऐसे में उन्हें ज्वार, बाजरी, खाने के लिए कहा जाता था, जिसे वे खाने में असमर्थ होते थे. कुछ नया फॉर्म इन चीजो को लेकर बनाना था, जिसे लोग खा सकें. मसलन इडली लोग खा सकते है, मुझे भी इडली की स्वाद पसंद है. उसी सोच के साथ मैंने एक प्रोडक्ट लिस्ट बनाई और रेडी टू कुक को पहले बनाना शुरू किया, इसमें इडली का आटा, दही बड़ा, अप्पे, थालपीठ आदि बनाने शुरू किये. ये ग्लूटेन और राइस फ्री है. उसमे प्रीजरवेटिव नहीं है और सफ़ेद चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है. इसमें अधिकतर असली घी और गुड से लड्डू, कुकीज बनाया जाता है. इन सबको बनाकर लोगों को खिलाने पर उन्हें जब पसंद आया, तब मैंने व्यवसाय शुरू किया. इसमें मैंने बैंक से मुद्रा लोन लिया है. मैंने ये लोन मशीन खरीदने के लिए लिया था. सामान बनाने से लेकर पैकिंग और अधिक आयल को प्रोडक्ट से निकालने तक की मशीन मेरे पास है.

हूँ किसान की बेटी

विद्या कहती है कि नए फॉर्म में मैंने मिलेट्स का परिचय करवाया. इसमें सरकार ने वर्ष 2023 को मिलेट्स इयर शुरू किया जो मेरे लिए प्लस पॉइंट था. मैं रियल में एक किसान की बेटी हूँ, बचपन से मैंने किसानी को देखा है, आधा बचपन वहीँ पर बीता है. मेरे पिता खेती करते थे, नांदेड के गुंटूर गांव में मैं रहती थी. 11 साल तक मैं वही पर थी. कॉलेज मैंने नांदेड में पूरा किया. मैंने बचपन से ज्वार की रोटी खाई है. शहर आकर गेहूँ की रोटी खाने लगी थी. मेरे परिवार में शादी के बाद मैंने देखा है कि उन्हें ज्वार, बाजरी की रोटी पसंद नहीं, पर आब खाने लगे. बच्चे भी अब मिलेट्स की सभी चीजे खा लेते है. ज्वार, बाजरा, नाचनी, रागी, चेना, सावा आदि से प्रोडक्ट बनाते है.

मुश्किल था मार्केटिंग

विद्या को मार्किट में मिलेट्स से बने प्रोडक्ट से परिचय करवाना आसान नहीं था. विद्या कहती है कि मैंने व्यवसाय शुरू किया और कोविड की एंट्री हो चुकी थी. मेरा सब सेटअप तैयार था, लेकिन कोविड की वजह से पहला लॉकडाउन लग गया, मुझे बहुत टेंशन हो गयी. बहुत कठिन समय था, सभी लोग मुझे व्यवसाय शुरू करने को गलत कह रहे थे, क्योंकि ये नया व्यवसाय है, लोग खायेंगे नहीं. लोगों में मिलेट्स खाने को लेकर जागरूकता भी नहीं थी, जो आज है. इसमें भी मुझे फायदा यह हुआ है कि कोविड की एंट्री से लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है. हालाँकि दो महीने मेरा यूनिट बंद था, क्योंकि मैं लॉकडाउन की वजह से कही जा नहीं सकती थी, लेकिन लोग थोडा समझने लगे थे. बैंक का लोन था, लेकिन उस समय मेरे पति ने बहुत सहयोग दिया, उन्होंने खुद से लोन भरने का दिलासा दिया था. इसके बाद भी बहुत समस्या आई, कोई नया ट्राई करने से लोग डर रहे थे. शॉप में भी नया प्रोडक्ट रखने को कोई तैयार नहीं था, फिर मैंने सोशल मीडिया का सहारा लिया. तब पुणे से बहुत अच्छा रेस्पोंस मिला. वह से आर्डर भी मिले. इसके अलावा शॉप के बाहर भी सुबह शाम खड़ी होकर मिलेट्स खाने के फायदे बताती थी. बहुत कठिन समय था. अब सभी जानते है. आगे भी कई शहरों में इसे भेजने की इच्छा है.

मिलेट्स होती है सस्ती

विद्या का कहना है कि ये अनाज महंगा नहीं होता, पानी की जरुरत कम होती है. जमीन उपजाऊं अधिक होने की जरुरत नहीं होती. इसमें पेस्टीसाइड के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती. इसलिए इसके बने उत्पाद अधिक महंगे नहीं होते. मैं बाजार से कच्चे सामान लेती हूँ. आगे मैं औरंगाबाद के एग्रीकल्चर ऑफिस से सामान लेने वाली हूँ. किसान उनके साथ जुड़े होते है. वहां गुणवत्ता की जांच भी की जाती है. अच्छी क्वालिटी की प्रोडक्ट ली जाती है. सामान बनने के बाद भी जांच की जाती है. हमारे प्रोडक्ट में भी प्रिजेर्वेटिव नहीं होते. कई प्रकार के आटा, थालपीठ, ज्वार के पोहे, लड्डू आदि बनाती हूँ. मैं औरंगाबाद में रहती हूँ. गोवा, पुणे, चेन्नई और व्हार्ट्स एप ग्रुप और औरंगाबाद के दुकानों में भेजती हूँ. इसके अलावा मैं जिम के बाहर भी स्टाल लगाती हूँ.

मिला सहयोग परिवार का

परिवार का सहयोग के बारें में विद्या बताती है कि मैं हर दिन 10 से 12 घंटे काम करती हूँ, इसमें किसी त्यौहार या विवाह पर गिफ्ट पैकिंग का आर्डर भी मैं बनाती हूँ. सबसे अधिक सहयोग मेरे पति सचिन जोशी करते है, जो एक एनजीओ के लिए काम करते है. मेरे 3 बच्चे है, एक बड़ी बेटी स्नेहा जोशी 17 वर्ष और जुड़वाँ दो बच्चे बेदांत और वैभवी 13 वर्ष के है. बच्चे अब बड़े हो गए है, वे खुद सब काम कर लेते है. मेरी सास है, वह भी जितना कर सकें सहायता करती है. सहायता सरकार से नहीं मिला, लेकिन चरक के मोहा से मुझे 10 लाख का ग्रांट मिला है, जिससे मैं आगे मैं कुछ और मशीनरी के साथ इंडस्ट्रियल एरिया में जाने की कोशिश कर रही हूँ. अभी मैं मिलेट्स की मैगी पर काम कर रही हूँ. जो ग्लूटेन फ्री होगा और इसका ट्रायल जारी है. 5 लोगों की मेरे पास टीम है. प्रोडक्ट बनने के बाद न्यूट्रशनिस्ट के पास भेजा जाता है, फिर ट्रायल होती है. इसके बाद उसका टेस्ट और ड्यूरेबिलिटी देखी जाती है. फिर लैब में इसकी गुणवत्ता की जांच की जाती है.

सस्टेनेबल है मिलेट्स

स्लम एरिया में प्रेग्नेंट महिलाओं को मैं मिलेट्स के लड्डू देती हूँ, ताकि उनके बच्चे स्वस्थ पैदा हो. अधिकतर महिलायें मेरे साथ काम करती है. इसके अलावा तरुण भारत संस्था के द्वारा महिलाओं को जरुरत के अनुसार ट्रेनिंग देकर काम पर रखती हूँ. उन्हें जॉब देती हूँ, इससे उन्हें रोजगार मिल जाता है.

मिलेट्स से प्रोडक्ट बनाने के बाद निकले वेस्ट प्रोडक्ट को दूध वाले को देती हूँ, जो दुधारू जानवरों को खिलाता है. इस तरह से कुछ भी ख़राब नहीं होता. सब कंज्यूम हो जाता है.

विकास के आधार को लेकर क्या कहती है पत्रकार और टीवी एंकर बरखा दत्त

पत्रकार और राइटर बरखा दत्त का जन्म नई दिल्ली में एयर इंडिया के अधिकारी एस पी दत्त और प्रभा दत्त, के घर हुआ था. दत्त को पत्रकारिता की स्किल मां से मिला है. महिला पत्रकारों के बीच बरखा का नाम लोकप्रिय है. उनकी छोटी बहन बहार दत्त भी टीवी पत्रकार हैं. बचपन से ही क्रिएटिव परिवार में जन्मी बरखा ने पहले वकील या फिल्म प्रोड्यूस करने के बारें में सोचा, लेकिन बाद में उन्होंने पत्रकारिता को ही अपना कैरियर बनाया.

चैलेंजेस लेना है पसंद

वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के समय कैप्टेन बिक्रम बत्रा का इंटरव्यू लेने के बाद बरखा दत्त काफी पॉपुलर हुई थी. वर्ष 2004 में भूकंप और सुनामी के समय भी रिपोर्टिंग की थी. उन्हें चुनौतीपूर्ण काम करना बहुत पसंद था, इसके लिए उन्हें काफी कंट्रोवर्सी का सामना करना पड़ा. वर्ष 2008 में बरखा को बिना डरे साहसिक कवरेज के लिए पदम् श्री पुरस्कार भी मिला है. इसके अलावा उन्हें बेस्ट टीवी न्यूज एंकर का ख़िताब भी मिल चुका है. बरखा के चुनौतीपूर्ण काम में कोविड 19 के समय उत्तर से दक्षिण तक अकेले कवरेज करना भी शामिल है, जब उन्होंने बहुत कम मिडिया पर्सन को ग्राउंड लेवल पर मजदूरों की दशा को कवर करते हुए पाया. उनकी इस जर्नी में सबसे कठिन समय कोविड से आक्रांत उनकी पिता की मृत्यु को मानती है, जब वह कुछ कर नहीं पाई.

 

 

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बरखा दत्त ने मोजो स्टोरी पर ‘वी द वीमेन’ की 6 एडिशन प्रस्तुत किया है, जहाँ महिलाओं ने अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों से गुजरते हुए कैसे आगे बढ़ी है, उनके जर्नी की बात कही गयी है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. वह कहती है कि वुमन एम्पावरमेंट पर कई कार्यक्रम हर साल होते है, जिसमे कुछ तो एकेडमिक तो कुछ ग्लैमर से जुड़े शो होते है, जिससे आम महिलाएं जुड़ नहीं पाती. मैंने ग्रासरूट से लेकर सभी से बात की है. ग्राउंड से लेकर एडल्ट सभी को शामिल किया गया है, इसमें केवल महिलाएं ही नहीं, पुरुषों, गाँव और कम्युनिटी की औरतों को भी शामिल किया गया है. इसमें गे राईट से लेकर मेनोपोज सभी के बारें में बात की गई है, ताकि दर्शकों के पसंद के अनुसार कुछ न कुछ देखने और सीखने को मिले.

इक्विटी ऑफ़ वर्क है जरुरी

बरखा आगे कहती है कि मुझे लगता है, चुनौती हर इंसान का अपने अपने अंदर होता है, इसमें हमारे संस्कार, एक माहौल में बड़े होना शामिल होती है. घरों में क्वालिटी की बात नहीं होती, लेकिन महिलाएं काम और ड्रीम शुरू करती है, लेकिन आगे जाकर छोड़ देती है, इसे क्यों छोड़ दिया, या क्या समस्या था, पूछने पर वे परिवार और बच्चे की समस्या को खुद ही उजागर कर संतुष्टि पा लेती है. मैं हमेशा कहती हूँ कि ‘इक्वलिटी ऑफ़ वर्क’ अधूरी रहेगी, अगर महिला ने घर पर इक्वलिटी की बात न की हो, क्योंकि एक सर्वे में पता चला है कि कोविड के दौरान काफी महिलाओं ने काम करना छोड़ दिया है. देखा जाय तो महिलाएं हर बाधाओं को पार कर काम कर रही है. फाइटर जेट से लेकर फ़ौज और स्पेस में भी चली गई है, लेकिन आकड़ों को देखे तो इंडिया में काम करने वाली महिलाओं की संख्या में कमी आई है, बढ़ी नहीं है. भागीदारी काम में कम हो रही है. पढ़ी लिखी औरतों के लिए मेरा कहना है कि पढ़े लिखे होने की वजह से हमेशा जागरूक होनी चाहिए. हमें मौका गवाना नहीं चाहिए, क्योंकि कई महिलाओं को ये मौका नहीं मिल पाता है.

 

 

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करना पड़ा, खुद को प्रूव

बरखा कहती है कि मैंने कई बार अपनी बातों को जोर देकर सामने रखा है. वर्ष 1999 में जब मैंने कारगिल वार को कवर करने गई थी, मुझे अपनी ऑर्गनाइजेशन को बहुत मनाना पड़ा. वार फ्रंट में जाने का मौका नहीं मिल रहा था, आज तो महिलाएं फ़ौज में है, तब बहुत कम थी. उन्होंने कहा कि खाने , रहने औए बाथरूम के लिए जगह नहीं होगी, मैंने कहा कि मैं सबकुछ सम्हालने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि मैं एक वार ज़ोन में जा रही हूँ. मैंने देखा है कि आप जितना ही चुनौतीपूर्ण काम करें और अचीव कर लें, उतनी ही आपको बहुत अधिक मेहनत करने की जरुरत आगे चलकर होती है और उस पोस्ट पर पहुँच कर 10 गुना अधिक काम, कंट्रोवर्सी और जजमेंट की शिकार होना पड़ता है. एक महिला को पूरी जिंदगी संघर्ष करनी पड़ती है, वह ख़त्म कभी नहीं होती.

खुले मन से किया काम

बरखा ने हमेशा ही चुनौतीपूर्ण काम किया है और ग्राउंड लेवल से जुड़े रहना उन्हें पसंद है. वह कहती है कि कोविड के समय में मैंने दिल्ली से केरल गाडी में गयी थी और पूरे देश का कवरेज दिया था. किसी बड़ी मिडिया को मैंने रास्ते पर नहीं देखा. माइग्रेंट्स रास्ते पर पैदल जा रहे थे, केवल दो चार लोकल प्रेस दिखाई पड़ी थी. बड़े-बड़े टीवी चैनल कोई भी नहीं दिखा. रिपोर्टर के रूप मैं मुझे लोगों तक ग्राउंड लेवल तक पहुंचना मेरा पैशन रहा है. इसके अलावा मुझे ऑथेंटिक रहने की इच्छा हमेशा रही है, क्योंकि मैंने बहुतों को देखा है कि वे खुले मन से काम नहीं करते. फॉर्मल रहते है और अगर कोई व्यक्ति फॉर्मल रहता है, तो अगला भी कुछ कहने से हिचकिचाएगा. मैने हमेशा एक आम इंसान बनकर ही लोगों से बातचीत की है.

 

 

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था कठिन समय

उदास स्वर में बरखा कहती है कि जीवन का कठिन समय मेरे पिता का कोविड में गुजर जाना रहा. दो साल से मैंने कोविड को कवर किया और बहुत सारे ऐसे स्टोरी को कवर किया जिसमे लोगों को ऑक्सीजन, बेड और प्रॉपर चिकित्सा नहीं मिल रही थी. मेरे लिए अच्छी बात ये रही कि मैने फ़ोन कर पिता को एक हॉस्पिटल मुहैय्या करवाया था. मैं उस समय बहुत सारे हॉस्पिटल गई, लेकिन मेरे पिता जिस हॉस्पिटल में थे, वहां नहीं जा पाई. जबतक मैं पहुंची, बहुत देर हो चुकी थी. वही मेरे लिए जीवन का सबसे कठिन समय था.

मिली प्रेरणा

बरखा आगे कहती है कि मेरा प्लान वकील बनने का था, फिर फिल्म बनाने की सोची, लेकिन जब मैंने मास्टर की पढाई पूरी की, तो कोई प्राइवेट प्रोडक्शन हाउस इंडिया में नहीं थी. केवल दूरदर्शन के पास प्रोडक्शन हाउस था. मैंने एन डी टीवी में ज्वाइन किया और मुझे एक स्टोरी करने के लिए भेजा दिया गया, उन्हें मेरा काम पसंद आया और मैं रिपोर्टर बन गई

विकास का आधार

विकास का आधार हर इंसान का हक बराबर होने से है. मेरी राय में घर्म, जाति, क्लास आदि से किये गए आइडेंटिटी कई बार लोगों को डिसाइड करती है तो कई बार डीवाईड करती है. विकास मेरे लिए एक्रोस आइडेंटिटी, केटेगोरी, डिवीज़न आदि सबके अधिकार एक जैसे होने चाहिए, तभी विकास संभव हो सकेगा.

कोरोना और बच्चों की Handwriting

कोरोना के इस संसार में आगमन के बाद से आर्थिक, सामाजिक जैसे क्षेत्रों में देश के प्रत्येक नागरिक को नुकसान उठाना पड़ा है. बड़ों के साथ साथ बच्चे भी इससे बहुत अधिक प्रभावित हुए हैं, लॉक डाउन के कारण लंबे समय तक घरों में रहने से वे चिड़चिड़े और तनावग्रस्त रहने लगे हैं. पूरे वर्षभर से वे लेपटॉप और मोबाइल के सामने घण्टों बैठकर अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे हैं. कमजोर होती नींव, दोस्तों के साथ होने वाली मौज मस्ती का अभाव, घर में निरन्तर रहने से कमजोर होता आत्मविश्वास, गजेट्स से पढ़ने से बीमार होती  आंखें, कमजोर होती लर्निंग कैपेसिटी जैसे अनेकों नुकसान बच्चों को ऑनलाइन पढ़ने से हो रहे हैं परन्तु इस दौरान उनकी खराब होती हैंडराइटिंग सबसे बड़े नुकसान के रूप में उभरा है.

एक समाचार पत्र एजेंसी के द्वारा कराए गए सर्वे में पाया गया कि कोरोना के ऑनलाइन क्लासेज के दौरान कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों की हैंडराइटिंग को बहुत अधिक प्रभावित किया है. जब कि इस उम्र में सबसे ज्यादा फोकस हैंडराइटिंग पर होता था क्योंकि बाल्यावस्था में बन गयी अक्षरों की बनावट घर की नींव की भांति होती है जो जिंदगी भर वैसी ही होती है. ग्वालियर के एयरफोर्स स्कूल की शिक्षिका और कैलीग्राफी विशेषज्ञ कीर्ति दुबे कहतीं हैं , ”बच्चों के अक्षरों की बनावट, उनके मध्य कस स्पेस और लाइनों के बीच का अंतर अब कहीं नजर नहीं आता वे किसी तरह जल्दी जल्दी लिखकर हमें ऑनलाइन दिखा देते हैं जिसमें हमारे द्वारा दी गयी समझाइश का कोई असर होते नहीं दिखता क्योंकि उन्हें पता है कि स्क्रीन के उस पार बैठकर हम कुछ नहीं कर सकते.”

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हैंडराइटिंग बिगड़ने के क्या हैं कारण

-उनकी हैंडराइटिंग खराब होने का सबसे बड़ा कारण है कि कोरोना काल से पूर्व टीचर द्वारा बोर्ड पर लिखे शब्दों को देखकर वे  काफी कुछ सीखते थे जो अब नहीं हो पा रहा है.

-उन्हें पता है कि वे कैसा भी लिख लें अब कोई उसे देखने वाला नहीं है.

-स्कूल जाने पर शिक्षक बच्चों को होमवर्क दिया करते थे जिससे बच्चों को लिखने की आदत रहती थी.

-कक्षा में एक दूसरे को देखकर बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना रहती थी जिससे वे सुंदर लेखन के द्वारा शिक्षक पर अपना प्रभाव जमाने का प्रयास करते थे परन्तु अब यह सब नदारद है.

क्या करें अभिभावक

स्कूल कब खुलेंगे यह नहीं कहा जा सकता परन्तु इस समय घर में रह रहे बच्चों को माता पिता थोड़े से प्रयास करके बच्चों की हैंडराइटिंग को सुधार सकते हैं. इस समय चूंकि स्कूल की पढ़ाई का प्रेशर भी नहीं है तो उनकी हेंडराइटिंग पर आसानी से काम किया जा सकता है-

-ऑनलाइन स्टडी से समझकर कॉपी पर लिखने का प्रयास करें.

-बच्चों को सही से अक्षर की बनावट लाइन स्पेसिंग पर पर्याप्त ध्यान देने को कहें.

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-अच्छा लिखने के लिए सबसे पहली शर्त है पढ़ना, इसलिए अपने बच्चों को बाल पत्रिकाएं अवश्य पढ़ने को दें, पढ़ने से नवीन जानकारी प्राप्त करने के साथ साथ वे अक्षरों को बनाना भी सीखते हैं.

-इंग्लिश और हिंदी भाषा के लिए बाजार में उपलब्ध कर्सिव राइटिंग की कापियों का उपयोग किया जा सकता है.

-बच्चों से नियमित रूप से 8 से 10 लाइनें लिखवाएं.

-सबसे महत्त्वपूर्ण है कि आप अपने बच्चों से कोई भी काम करवाएं उसे चेक अवश्य करें ताकि उनका उत्साह कायम रहे.

पर्सनैलिटी ग्रूमिंग खोले सफलता के द्वार

रीना देखने में बहुत सुंदर थी. लंबा कद, छरहरा बदन, बोलती आंखें और लंबे व काले बाल देख कर कोई भी उस की तारीफ करने से खुद को रोक नहीं पाता था. एमबीए करने के बाद जब वह अपनी पहली नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जा रही थी तो किसी को इस बात की उम्मीद नहीं थी कि वह सफल नहीं होगी. रीना भी यह मान रही थी कि वह आज सफल हो कर ही लौटेगी. इंटरव्यू के दौरान जब रीना से सवाल किए गए तो वह उन का सही तरह से जवाब भी दे रही थी.

इंटरव्यू के दौरान ही रीना की मुलाकात दीपा से हुई. वह भी देखने में रीना जैसी ही थी पर पता नहीं क्यों रीना को बारबार यह लग रहा था कि रीना की जगह दीपा को ही इंटरव्यू में चुना जाएगा. रीना का अंदाज सही निकला. इंटरव्यू के बाद दीपा को ही कंपनी सैक्रेटरी के लिए चुना गया.

रीना के करीबी लोगों को जब इस बात का पता चला तो उन का कहना था कि इंटरव्यू के दौरान दीपा का पक्ष ले लिया गया होगा. इस के जवाब में रीना ने कहा कि ऐसी बात नहीं है. दीपा में आत्मविश्वास साफतौर पर झलक रहा था जबकि मैं उस का मुकाबला नहीं कर पा रही थी. मुझे उसी समय लग गया था कि दीपा बाजी मार ले जाएगी.

रीना ने इस के बाद कैरियर कांउसलर और इमेज सीकर्स कंपनी की दिशा संधू से मुलाकात की और अपनी पूरी बात बताई. दिशा संधू ने रीना को बताया कि उस की पर्सनैलिटी तो बहुत अच्छी है, बस इस को थोड़ी सी ग्रूमिंग की जरूरत है.

पर्सनैलिटी ग्रूमिंग के टिप्स व महत्त्व आप भी जानें:

बढ़ता है आत्मविश्वास

पर्सनैलिटी का मोहक रूप काम के हिसाब से तय होता है. फर्स्ट इंपैक्ट कंपनी की डायरैक्टर सौम्या चतुर्वेदी कहती हैं, ‘‘आप जिस प्रोफैशन में हों उस के हिसाब से ही कपड़े पहनें और मेकअप करें. आप की बातचीत का तरीका भी इतना आकर्षक हो कि एक बार बात करने वाला आप से बारबार बात करने के लिए लालायित रहे. ग्लैमर से भरपूर नौकरियों में पर्सनैलिटी बहुत ही जरूरी हो गई है.’’

व्यक्तित्व और पहनावा

फैशन डिजाइनर नेहा बाजपेयी का कहना है, ‘‘पर्सनैलिटी ग्रूमिंग का सब से खास हिस्सा ड्रैससैंस है. आप की ड्रैससैंस जितनी अच्छी होगी सामने वाले पर उस का प्रभाव उतना ही अच्छा पड़ेगा. अच्छी पर्सनैलिटी के लिए यह जानना जरूरी है कि किस मौके पर कैसी डै्रस पहनी जाए. पार्टी और औफिस की डै्रस कभी एकजैसी नहीं हो सकती. यह बात केवल महिलाओं के लिए ही लागू नहीं होती, पुरुषों पर भी होती है.’’

मेकअप हो सौम्य और सुंदर

ब्यूटी ऐक्सपर्ट अनामिका राय सिंह कहती हैं, ‘‘पर्सनैलिटी ग्रूमिंग में मेकअप का भी बड़ा महत्त्व होता है. इसलिए मेकअप करने से पहले यह जान लें कि आप किस जगह पर जा रही हैं. अगर पार्टी में जाना है तो आप का मेकअप कलरफुल होना चाहिए. औफिस में मेकअप अलग किस्म का होता है. बहुत ज्यादा भड़काऊ मेकअप औफिस में भद्दा लगता है. सौम्य मेकअप आप को ज्यादा आकर्षक बनाता है. आप जिस पद पर काम कर रही हैं, मेकअप उस के हिसाब से भी होना चाहिए.’’

शारीरिक भाषा

मेकअप के साथसाथ बौडी लैंग्वैज का भी अपना महत्त्व होता है. उस में भी सुधार जरूरी है.

सुनीता को बात करतेकरते हाथ झटकने की आदत थी. उस को अपनी इस आदत के चलते कई बार पार्टी में हास्यास्पद हालात का सामना करना पड़ जाता था. उस के पति दीपक को यह बात समझ आई तो उस ने सुनीता की यह आदत छुड़वाने में मदद की. स्नेहा एक बैंक में अफसर थी. उस में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी पर कभीकभी तनाव में आने पर वह अपने हाथ के नाखून मुंह में डाल कर कुतरना शुरू कर देती थी. बहुत मुश्किल से उस की यह आदत छूट सकी.

चलनेफिरने, उठनेबैठने टेलीफोन पर बात करने का भी अपना एक तरीका होता है. जो बौडी लैंग्वैज का अहम हिस्सा होता है. इस को निखारे बिना पर्सनैलिटी ग्रूमिंग मुश्किल हो जाती है. बातचीत में शिष्टाचार भी पर्सनैलिटी ग्रूमिंग को बढ़ाता है. कई बार लोग बातचीत में अनावश्यक लटकेझटके दिखाते हैं जो पर्सनैलिटी को मैच नहीं करती. ऐसे में जरूरी है कि अपनी बौडी लैंग्वेज को सही से रखा जाए.

शादी आसान पर तोड़ना कठिन क्यों

हिंदू विवाह कानून के अंतर्गत विवाह करना तो बहुत आसान है पर तोड़ना बहुत कठिन. देश की अदालतें ऐसे मामलों से भरी पड़ी हैं जिन में पतिपत्नी वर्षों तक तलाक के लिए इंतजार करते नजर आते हैं. हां, यह अवश्य है कि इन मामलों में एक जना तलाक का आदेश चाहता है और दूसरा उस का विरोध करता है.

कठिनाई तो यह होती है कि जब 5-7 साल बाद फैमिली कोर्ट से कोई तलाकनामा मिल भी जाए तो दोनों में से एक कोर्ट में अपील करने पहुंच जाता है. कई मामले तो 10-15 वर्षों बाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं जो तब कानून की व्याख्या करता है.

यह एक दुखद बात है. तलाक का कानून असल में सरल और सहज होना चाहिए. जब कोई पतिपत्नी साथ न रहना चाहें तो देश की कोई भी ताकत उन्हें साथ रहने को मजबूर नहीं कर सकती. पतिपत्नी संबंध जोरजबरदस्ती का है ही नहीं. 1956 से पहले जब हिंदू विवाह कानून नहीं था तब भी औरतें जब चाहे अपने मायके जा कर बैठ जाती थीं और पति जब चाहे एक को बिना तलाक दिए दूसरी से शादी कर लेता था.

1956 का सुधार औरतों के लिए आफत बन गया है, क्योंकि अब बिचौलिया अदालत दरअसल घर को जोड़ने की जगह जिंदगी के टूटे बरतनों को सहेज कर वर्षों तक रखने को मजबूर करती है.

अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को 2011 में हुए तलाक और दूसरे विवाह की वैधता का फैसला 7 वर्षों बाद 2018 में देना पड़ा. नए पतिपत्नी झगड़ने लगे थे कि उन का दूसरा विवाह कानूनी है या नहीं, क्योंकि पिछले तलाक के आदेश को ऊपर की अदालत में चुनौती दी गई थी.

सवाल इस मामले का नहीं है. सवाल है कि तलाक के मामलों में कानून ऐसा हो ही क्यों कि एक जना दूसरे को वर्षों तक बांध कर रख सके. जब मामला अदालत में चला गया तो तलाक पूरी तरह दे दिया जाना चाहिए और यदि तलाक मंजूर हो गया तो अपील की गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिए. अपील केवल खर्च व बच्चों की कस्टडी के लिए होनी चाहिए.

पति और पत्नी को अपने फैसले लेने का पूरा हक होना चाहिए और जैसे वे विवाह से पहले मनमरजी से मित्र की तरह संबंध बना व तोड़ सकते हैं, वैसे ही विवाह बाद कानूनी मुहर के साथ तोड़ सकें, यह हक होना चाहिए. इस में वकीलों की जगह ही नहीं है.

तलाक मांगा, तो मिल जाना चाहिए. यह प्रक्रिया कानून में ही होनी चाहिए और अदालतों को बाल की खाल निकालने से बचना चाहिए.

हां, खर्च के मामले में कमाऊ जने पर तलाक को भारी बनाया जा सकता है, वह गुंजाइश है. जैसे सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन पीनल कोड की धारा 497 को समाप्त कर के औरतों को आजाद किया है वैसे ही तलाक के मामले में भी हो.

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