कर्ज का बोझ ऐसे करें कम

ईशा के पापा ने उस के बर्थडे पर उसे आईफोन 14 प्रो प्लस गिफ्ट किया, जिस की कीमत क्व80 हजार है. ईशा जब अगले दिन अपना न्यू ब्रैंडिंग फोन ले कर कालेज गई तो सब उस का फोन देख कर हैरान थे. लेकिन सब से ज्यादा हैरान थी समायरा. समायरा ईशा की क्लासफैलो है. उस का बर्थडे भी आने वाला है. उस ने सोचा कि वह भी यह फोन लेगी. लेकिन समायरा के पापा एक औटोरिकशा चालक है. ऐसे में वे उसे आईफोन 14 प्रो प्लस जैसा फोन दिलाने में असमर्थ हैं क्योंकि उन की इतनी इनकम नहीं है.

अब समस्या यह है कि समायरा के पास खुद इतने पैसे नहीं हैं कि वह इस फोन को खरीद सके क्योंकि समायरा एक पार्टटाइम वौइस आर्टिस्ट है इसलिए उस ने इस फोन को ईएमआई पर लेने की सोची. ईएमआई के जरीए वह धीरेधीरे कर के फोन की पेमैंट कर देगी और उस पर इतना बर्डन भी नहीं होगा. यही सोच कर उस ने आईफोन 14 प्रो प्लस ले लिया.

3 ईएमआई भरने के बाद समायरा की तबीयत खराब हो गई. डाक्टर ने उसे बैड रैस्ट करने को कहा. बस तभी से वह घर पर पड़ी है. काम न करने की वजह से वह फोन की ईएमआई भी नहीं भर पाई और बैंक का कर्मचारी बारबार उसे फोन कर के ईएमआई पे करने को कहने लगा. कुछ दिनों बाद बैंक के कर्मचारी उसे धमकी भरे फोन भी करने लगे. हद तो तब हो गई जब बैंक की तरफ से उस के दोस्तों, परिवार वालों और रिश्तेदारों को फोन किया जाने लगा. समायरा इन सब से तंग आ चुकी थी. अंत में उस के पापा ने किसी तरह बची ईएमआई की पेमैंट की.

ईएमआई के जरीए लोन

अगर आप समायरा जैसी प्रौब्लम में फंसना नहीं चाहते तो यह जान लें कि लोन को ईएमआई के पार्ट में दिया जाता है, ईएमआई आप को कितने पार्ट में देनी है यह आप और बैंक पर डिपैंड करता है. आप ईएमआई की स्टालमैंट को 2 महीनों से ले कर 2 सालों तक कितने भी समय में दे सकते हैं या इस से भी ज्यादा हो सकता है. इसलिए अगर आप ईएमआई के जरीए लोन चुकता करने के बारे में सोच रहे हैं तो लोन सम झ कर लें.

यह न समझें कि हम बहुत सा सामान खरीद लेते हैं और धीरेधीरे कर के ईएमआई चुकाते रहेंगे. ईएमआई के लालच में पड़ कर आप एकसाथ बहुत सारा सामान न खरीदें. सामान तभी खरीदें जब आप को उस की जरूरत हो. यह न हो कि आप ईएमआई लोन के दलदल में डूबते जां.

ईएमआई का मतलब है कि आप अपने लोन को धीरेधीरे कर के मासिक किस्तों में चुका सकते हैं. इस से आप की मासिक किस्तें हलकी होती हैं लेकिन बाजार दर के कारण आप को ईएमआई लोन पर अधिक ब्याज का सामना भी करना पड़ सकता है. अपनी फाइनैंशियल स्टैबिलिटी और फाइनैंशियल गोल्स को ध्यान में रखते हुए लोन को सोचसम झ कर लेना चाहिए. यह एक सम झदार इनसान की खूबी है.

खर्चों के हिसाब से लोन

जयपुर के ऐक्सिस बैंक में कार्यरत ज्ञान यादव कहते हैं, ‘‘कोई भी ईएमआई लोन लेने से पहले अपनी मंथली इनकम का कैलकुलेशन जरूर कर के देख लें क्योंकि ईएमआई हर महीने जाएगी इसलिए ईएमआई वाले अमाउंट को पहले ही निकाल कर साइड में रख लें. फिर इस के बाद अपने डेली खर्चे और बाकी के खर्च के लिए पर्याप्त बैलेंस देखें. इस के बाद डिसाइड करें कि आप को लोन लेना है या नहीं. कहीं ऐसा न हो कि आप ईएमआई के भरोसे लोन तो ले लें और फिर उसे चुका न पाएं.

‘‘ऐसे में आप को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. इस में बैंकों द्वारा दी जाने वाली धमकी भी शामिल है. इसीलिए सोचसम झ कर, अपनी इनकम और अपने खर्चों के हिसाब से ही लोन लें.’’

ईएमआई के तौर पर चढ़े कर्ज का बो झ कम करने के लिए कुछ टिप्स इस तरह हैं-

बजट तैयार करें: अपनी इनकम और खर्चों की लिस्ट बना कर एक बजट तैयार करें जिस से आप अपनी फाइनैंशियल स्थिति को सही रख सकते हैं.

ईएमआई को दें प्राथमिकता: ईएमआई लोन की किस्त का समय पर भुगतान करें ताकि ब्याज बढ़ने से बचाया जा सके और भविष्य में आप का क्रैडिट स्कोर भी न बिगड़े.

इमेरजैंसी योजना बनाएं: इमेरजैंसी योजना बनाना बहुत जरूरी है ताकि आप अचानक आई फाइनैंशियल प्रौब्लम का सामना कर सकें और कर्ज से निकल सकें.

फाइनैंशियल ऐजुकेशन: फाइनैंशियल ऐजुकेशन लें और सही जगह इनवैस्ट करने के बारे में सीखें ताकि आप अपनी पैसिफ इनकम बढ़ा सकें.

ऐक्स्ट्रा इनकम के सोर्स ढूंढ़ो: अगर अवसर मिले तो ऐक्स्ट्रा इनकम के सोर्स ढूंढ़ो, जैसेकि फ्रीलांस इनकम या साइड बिजनैस.

ज्यादा खर्च से बचें: अपने खर्चों को कम से कम करें और सेविंग्स को बढ़ाएं ताकि आप आने वाले समय में कर्ज जैसी स्थित का सामना कर सकें.

क्रैडिट स्कोर की निगरानी: अपने क्रैडिट स्कोर को निरंतर निगरानी में रखें और उसे सुधारने के लिए जरूरी कदम उठाएं. क्रैडिट स्कोर एक इंपौर्टैंट इकौनौमिक पैरामीटर है जो आप की फाइनैंशियल हैल्थ को मापने में हैल्प करता है. यह एक निर्दिष्ठ संख्या है जो व्यक्ति की फाइनैंशियल हिस्ट्री के बारे में जानकारी देती है और साथ ही वित्तीय लेनदेन की स्थिति को भी दर्शाती है.

इन टिप्स को अपना कर आप अपने कर्ज का बो झ कम कर सकते हैं और अपनी फाइनैंशियल हैल्थ को सुधार सकते हैं.

लेट पेमैंट चार्ज और डिफाल्टर होने से बचने के लिए हम आप को कुछ ऐसे तरीके बताने जा रहे हैं, जिन के माध्यम से आप को लोन मिलना भी आसान हो जाएगा और ईएमआई का भुगतान करने में आप को कोई परेशानी भी नहीं आएगी. आइए, जानते हैं इन उपायों को:

ईएमआई चुकाने के 2 तरीके होते हैं-  एडवांस और एरियर. ज्यादातर लोग एडवांस ईएमआई जमा करते हैं लेकिन जरूरत पड़ने पर आप एरियर ईएमआई भी भर सकते हैं. लोन के ब्याज की तारीख आमतौर पर महीने के शुरू में ही होती है. इसे एडवांस ईएमआई कहते हैं. वहीं अगर आप महीने के आखिर में ब्याज चुकाते हैं तो इसे एरियर ईएमआई कहा जाता है.

अपने लोन की अवधि बढ़वाएं

अगर आप ईएमआई का भुगतान समय पर नहीं कर पा रहे हैं और इस की वजह से आप फाइनैंशियल प्रौब्लम से जू झ रहे हैं तो आप अपने मौजूदा ऋण देने वाले बैंक से लोन की समय सीमा बढ़ाने की अपील कर सकते हैं. ऐसा करने से आप को पेमैंट रिटर्न करने के लिए और समय मिल जाएगा. पेमैंट रिटर्न के लिए ज्यादा समय मिलने पर आप डिफाल्टर होने की संभावना से बच जाएंगे.

रखें इमरजैंसी फंड

समय पर ईएमआई का भुगतान करने के लिए आप को बचत कर इमरजैंसी फंड के तौर पर अपने पास कुछ राशि रखनी चाहिए. आर्थिक संकट से जू झने में यह फंड आप की मदद कर सकता है. अगर आप की लाइफ में कुछ बुरा हो जाता है जैसे अगर आप की जौब छूट जाती है या आप बीमार हो जाते हैं तो यह फंड आप के काम आ सकता है. इस से आप की लोन चुकाने की क्षमता प्रभावित नहीं होगी.

सिबिल स्कोर ठीक करें

बैंक लोन देने से पहले आप का सिबिल स्कोर चैक करते हैं. इस से आप की फाइनैंशियल केपिबिलिटी का अंदाजा लगता है और आप को आसानी से लोन मिल जाता है. इसलिए आप लोन के लिए अप्लाई करने से पहले ही अपना सिबिल स्कोर ठीक कर लें. अगर ईएमआई चुकाने में देरी हो जाती है तो हमारा क्रैडिट स्कोर भी कम हो जाता है, जिस की वजह से फ्यूचर में लोन मिलना मुश्किल हो जाता है. इन तरीकों को अपना कर आप अपने लोन को जल्दी से जल्दी चुका पाएंगे.

ऐसे तो घरों की छतें टूटने लगेंगी

फूड होम डिलिवरी सर्विस स्विग्गी का इस साल का नुकसान 3,629 करोड़ है. उस के साथ काम कर रही जोमैटो भी भारी नुकसान में है और उस ने 550 करोड़ की सहायता अभी किसी फाइनैंशियल इनवैस्टर से ली है. स्विग्गी को पिछले साल 1,617 करोड़ का नुकसान हुआ था पर फिर भी उस का मैनेजमेंट धड़ाधड़ पैसा खर्च करता रहा और अब यह नुकसान दोगुना से ज्यादा हो गया.

स्विग्गी की डिलिवरी से फूले नहीं समा रहे ग्राहक यह भूल रहे हैं कि इस नुकसान की कीमत उन से आज नहीं तो कल वसूली ही जाएगी. जितनी भी ऐप बेस्ड सेवाएं हैं वे मुफ्त या सस्ती होने के कारण भारी नुकसान में कुछ साल चलती हैं पर जब वे मार्केट पर पूरी तरह कब्जा कर लेती हैं तो खून चूसना शुरू कर देती हैं.

स्विग्गी अब धीरेधीरे छोटे रेस्तरांओं का बिजनैस खत्म कर रही है और वह क्लाउड किचनों से काम करा रही है. वह अब डिलिवरी बौयज को दी गई शर्तों पर काम करने को मजबूर कर रही है. स्विग्गी से जो रेस्तरां नहीं जुड़ता वह देरसवेर बंद हो जाता है चाहे उस रेस्तरां का खाना और उस की सेवा कितनी ही अच्छी क्यों न हो.

स्विग्गी ने घरों की औरतों को काम न करने का नशा डाल दिया है और इस के लिए 1 साल का 3,600 करोड़ का खर्च करता है. अगर औरतें घरों की किचन में नहीं घुसेंगी तो उन्हें देरसवेर वही खाना पड़ेगा जो स्विग्गी या उस जैसा कोई ऐप मुहैया करेगा. घरों में से किचन गायब हो जाएगी तो लोग दानेदाने के लिए किसी ऐप को तलाशेंगे.

जैसे अब किराने की दुकानों को अमेजन व जियो भारी नुकसान सह कर बंद करा रहे हैं वैसे ही स्विग्गी लोगों का स्वाद बदल रही है. आप वह खाइए जो मां या पत्नी ने नहीं बनाया और डिलिवर हुआ. मां या पत्नी का प्रेम उस खाने से पैदा होता है जो वे प्रेम से बनाती हैंखिलाती हैं. जब इस प्रेम की ही जरूरत नहीं होगी तो घर की छतें टूटने लगेंगी. यह बड़ी कौरपोरेशनों के लिए अच्छा है. सदियों तक राजा और धर्मों के ठेकेदार घरों से आदमियों को निकाल कर युद्ध या धर्म प्रचार में लगाते रहे हैं और दोनों काम करने वालों को जम कर लूटते रहे थे.

उन की औरतें बेबसअनचाहीकेवल बच्चे पैदा करने वाली मशीनें बन कर रह जाती थीं. अब इन औरतों को भी कौरपोरेशनों ने टारगेट करना शुरू कर दिया है और उन से किचन छिनवा दी है. सैनिकों या धर्म के सेवकों को मैसों व लंगरों में खाना खाना पड़ता थाएक जैसावही स्विग्गी करेगा. दिखावटीनकली सुगंध वाला खाना जिस में सस्ती सामग्री लगे लेकिन पैकिंग बढि़या हो और दाम इतने कि न दो तो खाना मिले ही नहीं.

भारत में नए साल पर स्विग्गी ने 13 लाख खाने डिलिवर किए क्योंकि इतने घरों की औरतों ने खाना बनाने से इनकार कर दिया. इस डिलिवरी में कौन लगा थास्विग्गी की स्लेव लेबर जो भीड़ में गरम खाना डिलिवर करने में लगी थी. उन के लिए न अब दीवाली त्योहार रह गया हैन नया साल.

3,600 करोड़ का खर्च इतनी बड़ी जनता को घरों में कैद करने में या मोटरबाइक पर गुलामी करने में कुछ ज्यादा नहीं है. इस का फायदा कोई तो उठा रहा है चाहे आप को वह दिखे न.

भांडा तो फूटा है मगर होगा क्या

लड़कियां मजबूत होंगी तो वे सैक्सुअल हैरेसमैंट से बच सकती हैं और उन्हें सैल्फ डिफेंस सीखना चाहिए. कुश्ती संघ के उधड़े जख्मों से अब साफ है कि वह बेकार है. जरूरत लड़कियों को शारीरिक रूप से मजबूत होने की नहीं है, उस सामाजिक ढांचे को पटकनी देने की है जो औरतों को एक पूरी जमात के तौर पर दबा कर रखता है.

भाजपा के ऊंची जाति के सांसद ब्रज भूषण सिंह खुद कुश्ती खेलना न जानते हों, वे ‘रैसलिंग फैडरेशन औफ इंडिया’ के प्रैसिडैंट हैं और उन के शैडो में सैकड़ों रैसलर सैक्सुअल हैरेसमैंट की शिकायतें ले कर उठ खड़ी हुई हैं.

रैसलिंग कैंपों, विदेशी टूरों, सिलैक्शन में कोचों और न जाने किनकिन को खुश करना पड़ता है तब महिला रैसलर विदेश व देश में मैडल पाने का मौका पाती हैं. हर महिला रैसलर की कहानी शायद मैडल के पीछे लगी पुरुष वीर्य की बदबू से भरी है. कदकाठी और ताकत में मजबूत होने के बाद रैसलरों को न जाने किसकिस को ‘खुश’ करना पड़ता है. रैसलर महिलाओं के साथ जो बरताव होता है उस के पीछे एक कारण है कि वे पिछड़ी जातियों से ज्यादा आती हैं जिन के बारे में हमारे धर्मग्रंथ चीखचीख कर कहते हैं कि वे तो जन्म ही सिर्फ सेवा करने के लिए लेती हैं. देश के देह व्यापार में यही लड़कियां छाई हुई हैं. जाति और समाज के बंधन रैसलर लड़कियों को सैक्सुअल हैरेसमैंट से मुक्ति नहीं दिला सकते. ऐसा बहुत से क्षेत्रों में होता है जहां औरतें अकेली रह जाती हैं. एक युग में जब काशी और वृंदावन हिंदू ब्राह्मण विधवाओं से भरे थे, जिन के घर वालों ने उन्हें त्याग दिया था. वहीं के पंडित संरक्षकों ने उन्हें विदेश ले जाए जा रहे गिरमिटिया मजदूरों के साथ भिजवाया था.

एक तरह से वे जापानी सेना की कंफर्ट वूमंस की तरह थीं जिन्हें कोरियाई सेना के साथ सैनिकों को सुख देने के लिए पकड़ कर रखा था. यह द्वितीय विश्वयुद्ध में हुआ था जब जापान ने कोरिया पर कब्जा कर लिया था. कोरियाई लड़कियां शारीरिक रूप से कमजोर थीं और जब देश ही हार गया हो तो वे क्या करें? अफसोस यह है कि बड़ीबड़ी बातें करने वाला समाज तुलसीदास का कथन औरतों को ताड़न का अधिकारी ही मानता है और सरकार समर्थक अपनी बात पर अड़े रहने के लिए ताड़ना शब्द का नयानया अर्थ रोज निकालते हैं. यही रैसलिंग फैडरेशन में होता है, सभी खेलों में होता है जहां चलती पुरुषों की है पर खेलती लड़कियां हैं. गांवों से आने वाली कम पढ़ीलिखी लड़कियां केवल कपड़े न उतारने की जिद के कारण चमकदमक, विदेशी दौरों, बढि़या रिहाइश का मौका नहीं खोना चाहतीं.

उन्हें बचपन से सिखाया गया है कि पिता, भाई, पति, ससुर के हर हुक्म को सिरआंखों पर रख कर मान लो. अब यह भांड़ा फूटा है पर होगा क्या? होगा यह कि विद्रोह करने वाली लड़कियों को शहद की बूंदों पर मंडराने वाली घरेलू मक्खियों की तरह मार दिया जाएगा. सरकारी आदेशों की हिट उन पर छिड़क दी जाएगी. अगले दौर में उन लड़कियों को लिया जाएगा जो पहले दिन से सर्वस्व देने को तैयार हों. न समाज बदलने वाला, न पुरुषों की लोलुपता और कामुकता. ऊपर से रामायण, महाभारत के किस्से स्पष्ट करते रहेंगे कि औरतो, तुम तो बनी ही यातनाएं सहने को, तुम्हें लक्ष्मण रेखाओं में रहना है, तुम्हें अग्नि में जलना है या भूमि में समाना है, तुम्हें एक नहीं कई पतियों को खुश रखना है, वंश चलाने के लिए व नपुंसक पतियों की इज्जत बचाने के लिए तुम्हें दूसरे पुरुषों के हवाले किया जा सकता है. वह स्वर्ण पौराणिक युग फिर लौट आया है. राम और कृष्ण की जन्मभूमियों को नमन करो और फैडरेशन के अफसरों को खुश करो वरना न पैसा मिलेगा, न 2 वक्त की कुछ दिन अच्छी रोटी मिलेगी.

भारतीय प्रधानमंत्री का विदेशी दौरा

भारतीय मूल के और भारतीय ससुर के दामाम होने के बावजूद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रिषी सुनक भी भारतीयों के इंग्लैंड में प्रवेश पर पाबंदियां लगाने लगे हैं. इंग्लैंड के कट्टरपंथी अब रेस रिलिज्य व कलर को लेकर उसी तरह बेचैन होने लगे हैं जैसे भारतीय प्रधानमंत्री, गृहमंत्री से ले कर आप की गली के नुक्कड़ के मंदिर के पुरोहित हैं. उन्हें लगता है कि ग्रेट ब्रिटेन में जल्दी ही गोरे मूल निवासी बन रह जाएंगे. उन्हें भी गोरों की कम जन्मदर और भूरों, कालों की जन्मदर के बारे में व्हाट्सएप ज्ञान उसी तरह बांटा जा रहा है जैसा भारत में बांटा जा रहा है.

भारतीय प्रधानमंत्री इस बार में बात करने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकते. अमेरिका की भारतीय रक्त वाली कमला हैरिस और गृह ब्रिटेन के पूरे भारतीय रक्त वाले रिषी सुनक को ले कर भारतीय जनता पार्टी ने न तो देश भर में घी के दिए जला कर न देश में ढोल में पीटे कि यह कारनामा पार्टी की उपलब्धि है क्योंकि इन दोनों विश्व नेताओं ने भारत के प्रधानमंत्री से कोई ज्यादा लाड नहीं जताया.

भारतीयों का वीसा ले कर ग्रेट ब्रिटेन में प्रवेश करने के लिए कतारों में खड़ा रहना तो चालू है ही, हजारों जोखिम भरी इंग्लिश चैनल छोटीछोटी बातों में यूरोपीय मेनलैंड से चल कर प्यार पा रहे हैं ताकि वहां जा कर कह सकें कि उन्हें अपने देश की सरकार से खतरा है. दुनिया भर में जो भारतीय गैरकानूनी ढंग से फैले हुए हैं उन में से बहुतों ने यही कहा है कि वे अपने मूल देश में भेदभाव, जुल्मों सरकारी तानाशाही के शिकार हैं और उन्हें राजनीतिक शरणार्थी के तौर पर शरण दी जाए. इस तरह वे कानून बहुत से यूरोपीय देश में हैं कि वे किसी भी शरण मांगने वाले को बिना सुनवाई के भगाएंगे नहीं. इस सुनवाई के दौरान भारतीय शरण मांगने वाले अपने घर हो रहे जुल्मों की झूठी अच्छी कहानियां अदालत को सुनाते हैं.

यह अफसोस है कि ङ्क्षहदू होते हुए भी रिषी सुनक ने अपने धर्म भाईयों की नहीं सुनी. उन्हें धर्म भाईयों और रक्त भाइयों की नहीं, अपने नए देश के नागरिकों की वोटों की ङ्क्षचता है. रिषी सुनक जैसे भारतीय मूल के लोग ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका में ही नहीं और बहुत से देशों में हैं जो अपने देश को एक बुरा सपना मान कर त्याग चुके हैं. वे भारतीय मूल के हो कर भी भारत सरकार की हां में हां नहीं मिलाते.

उस से अच्छे थे तो पिछले एक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनेल्ड ट्रंप थे जो दिल्ली, मुंबई में टं्रप टौवर बनवाने के लिए अमेरिका के हाउसटन में नरेंद्र मोदी की भारतीय मूल के लोगों की सभा में खड़े हुए थे और फिर भारत भी ऐन कोविड से पहले आए थे जब अहमदाबाद में वे नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में ‘एक बार फिर ट्रंप सरकार’ के नारे से गदगद हुए थे. रिषी सुनक और कमला हैरिस जो यहाकदा पूजापाठ करने भारत आते हैं को धर्म विद्रोही क्यों नहीं घोषित किया जाए.

वुमंस डे पर दें अपनी महिला मित्र को दें ये अनोखे ​गिफ्ट

किसी खास अवसर पर जब हमें अपनी बहन, फ्रैंड, गर्लफ्रैंड, औफिस की ​कलिग या फिर अपनी पत्नी को कोई गिफ्ट देना होता है तो हम कई गिफ्ट देखने के बाद ही उन में से एक बैस्ट चुनते हैं, उस वक्त हम सोचते हैं कि हम उन्हें कुछ ऐसा गिफ्ट दें, जिसे देखने के बाद उन के मुंह से बस यही निकले कि इस से अच्छा गिफ्ट और कुछ नहीं हो सकता. यह सब तो ठीक है लेकिन क्या कभी आप ने कुछ ऐसे गिफ्ट्स के बारे में सोचा है जो उन्हें खुशी दे, उन्हें सम्मान दे. यकीनन आप ने नहीं सोचा होगा, आइए इस महिला दिवस उन्हें कुछ ऐसे ही गिफ्ट्स देते हैं.

1 गंदे और भद्दे चुटकुलों को कहें ना

महिला हो या पुरुष मस्ती मजाक सभी को अच्छा लगता है, लेकिन इस का भी एक दायरा होता है. कई पुरुष जानबूझकर औफिस में व सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं से संबंधित भद्दे व गंदे जोक्स मारते हैं. ग्रुप में जब भी बात करते हैं तो ​महिलाओं को सैंटर टौपिक में रखते हैं और ठहाके मार के हंसते हैं. हर वक्त बस लड़कियों में कमी निकालते रहते हैं. अगर आप भी ऐसा करते हैं तो अपनी इस आदत को बदल डालिए. सिर्फ यही नहीं बल्कि अगर आप के सामने भी कोई ऐसा करता है तो मूक दर्शक बन कर न देखते रहें बल्कि उसे भी समझाएं.

2 टैलेंट पर न करें शक

कुछ पुरुषों की आदत होती है कि वे ​महिलाओं को प्रोत्साहित करने के बजाय उन्हें बारबार कहते रहते हैं कि तुम से नहीं हो पाएगा तुम रहने दो. कई बार तो औफिस में यह भी देखने को मिलता है कि अगर महिलाएं किसी काम को करने के लिए आगे आती हैं तो बौस तक कह देते हैं ‘आरती तुम रहने दो इस काम को लड़के अच्छे से कर लेंगे, रोहित तुम इस काम को कर लो’. आप ऐसा व्यवहार करना छोड़ दें बल्कि अगर वे कोई काम करना चाहती हैं तो उन्हें प्रोत्साहित करें, न कि उन के टैलेंट पर शक कर के उन्हें पीछे खींचे.

3 न ढूंढ़े टचिंग का बहाना

अक्सर पुरुष भीड़ की आड़ में महिलाओं को टच करने का बहाना ढूंढ़ते रहते हैं, मौका मिला नहीं कि हाथ साफ करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं. लेकिन क्या आप को पता है ऐसा कर के आप महिलाओं के साथ ‘लिटिल रेप’ करते हैं. जी हां, आज ईव टीजिंग भी लिटिल रेप से कम नहीं है इसलिए अपनी इस तरह की आदतों को छोड़िए और महिलाओं को सम्मान देना शुरू करिए.

4 न दें कैरेक्टर सर्टिफिकेट

महिलाओं को पूरी आजादी है कि वे क्या पहनना चाहती हैं और क्या नहीं, कहां जाना चाहतीं हैं और कहां नहीं, किस से बात करना चाहती हैं और किस से नहीं. आप इस आधार पर कभी भी किसी महिला का कैरेक्टर डिसाइड न करें कि वह कैसी है.

5 न करें कमैंट

पुरुष कितनी भी रफ ड्राइविंग करें लेकिन जब महिलाएं डाइविंग करते हुए थोड़ी सी भी गलती करतीं हैं तो ताने मारने लगते हैं कि समझ नहीं आता कि महिलाएं क्यों ड्राइव करती हैं, उन के लिए तो पिछली सीट ही ठीक है. आप इस तरह के कमैंट करना छोड़ दें बल्कि अगर वे गलती करते दिखें तो कमैंट के बजाय समझाएं.

डेटिंग ऐप

श्रद्धा और पूनावाला कांड में एक ???…..??? वह समाज है जो आज भी हर घर को, हर यूथ को, हर दिल को जातिधर्म, इकौनोमिक स्टेट्स, भाषा, स्किल, कलर से बांटता है. हमारे यहां सदियों पुरानी ट्रेडिशनों को बुरी तरह अपनाया ही नहीं जाता, पैदा होते ही बच्चों को उन का गुलाम भी बना दिया जाता है. जब दिलों में उमंगे उठने लगें, जब किसी की ओर अट्रैक्शन होने लगे, जब लगे कि साथ में एक बौयफ्रैंड, गर्लफ्रैंड होना यूथ की निशानी है लेकिन घर वाले हर चौइस पर पहरा देते हों तो सिवा रिबेल बनने के कोई ठोस रास्ता नहीं है.

श्रद्धा और पूनावाला जैसे मामले हर जगह हो रहे हैं क्योंकि स्कूलों में, सडक़ों पर, बसस्टैंडों पर, पड़ोस में, वर्कप्लेस में अब हर जाति, रंग, धर्म के लोग मिल रहे हैं. मांबाप को यह गवारा नहीं होता कि उन की लाड़ली या लाड़ला किसी ऐसे से पक्का मेलजोल बढ़ाए जो उन के समाज को मंजूर न हो. धर्म के दुकानदार इस कदर चारों ओर फैले हुए हैं और इस कदर उन के एजेंट बिखरे हैं कि कहीं भी जरा भी भनक लगी नहीं कि घरों में हंगामा हो जाता है. लड़कियां और लडक़े ज्यादातर मामलों में अपने फ्रैंड के बारे में सीक्रेसी बरतते हैं और यह कोशिश करते हैं कि उन का संबंध पता न चले.

यह आसान नहीं होता. बारबार फोन की रिंग बजना, देररात तक फोन पर फुसफुसाहट, फोन आते ही एकांत ढूंढऩा, घंटों गायब रहना और पूछने पर टेढ़ेमेढ़े जवाब देना आम है. पर मांबाप, बहनभाई भांप लेते हैं. उन से ज्यादा वे भांप लेते हैं जो सडक़ों के चौराहों पर भगवा दुपट्टा डाले खाली खड़े हरेक को धमकाते रहते हैं. उन से बच पाना बहुत मुश्किल होता है. इसलिए लडक़ेलड़कियां घर छोड़ कर भागते हैं. उन्हें दीनदुनिया की खबर नहीं होती. उन्हें रहने की जगह नहीं मिलती. उन की जेबों में पैसे सीमित होते हैं. गुस्साय मांबाप पुलिस में शिकायत करने की धमकियां देने लगते हैं.

देश में मौजूदा सरकार तो उन लोगों की है जो चाहते हैं कि हर शादी अपने धर्म के दुकानदार के कहने पर सैकड़ों साल पुराने रीतिरिवाजों से हो और शादी से पहले लडक़ालडक़ी एकदूसरे का मुंह तक न देखें. वे भला अपनी मरजी से चल रहे लडक़ीलडक़े को कोई प्रोटैक्शन देंगे. वे तो लडक़े पर किडनैपिंग, रेप, लूट का चार्ज लगा कर ऐसा करने की अदालत के फैसले से पहले ही सजा दे देते हैं.

पूनावाला और श्रद्धा किसी डेटिंग ऐप पर पहले मिले थे. हालांकि 4 साल साथ रहने के बाद श्रद्धा का ब्रूटल मर्डर हुआ पर उन लोगों की कमी नहीं है जो डेटिंग ऐपों को ही दोषी ठहरा रहे हैं. उन का कहना है कि अगर ऐप न होती तो हादसा न होता. वे यह क्यों नहीं कहते कि अगर समाज खुला होता, जाति, धर्म, भाषा, रंग की दीवारें न होतीं तो क्या युवा दिलों को खुल कर मिलने के ज्यादा मौके न मिलते.

कुनीतियों के चलते पिछड़ता देश

भारत जैसे देश अपनी सरकारों की गलत नीतियों के कारण वर्ल्ड लेबर सप्लायर बनने जा रहे हैं. आज भारत के ही सब से अधपढ़े या अच्छे पढ़े युवा विदेशों में जा रहे हैं और हर देश इन के लिए दरवाजे खोल रहा है क्योंकि उन की अपनी जनता बढऩी बंद हो गई है, वहां बच्चे कम हो रहे हैं, लेबर फोर्स सिकुड़ कर रही है. भारत में इस बात को कई बार प्राइड से कहा जाता है, पर है शर्म की बात. भारत के युवाओं को विदेशों में लगभग दोगुने पैसे मिलते हैं. किसीकिसी देश में 3-4 गुना भी हो जाते हैं. ठीक है कि वहां खाना, ट्रांसपोर्ट महंगा है पर लाइफस्टाइल अच्छी है, महंगा किराया है पर कई ऐसी फैसिलिटीज हैं जो उन के सपनों में भी नहीं आतीं.
कनाडा ने अब स्टूडैंट्स को एक छूट दी है जिसे वरदान माना जा रहा है. अब तक स्टूडैंट वीसा पर आने वाले सप्ताह में 20 घंटे काम कर के पैसे का जुगाड़ कर सकते थे. अब 31 दिसंबर, 2023 तक छूट दी गई है कि वे जितना भी चाहें काम कर लें. इन-डायरैकक्टली समझें कि यूथ अपनी पढ़ाई का खर्च पार्टटाइम काम कर के निकाल सकते हैं. इन स्टूडैंट्स में ज्यादातर भारत के ही हैं.
यह वह टेलैंट है जिस का एक्सपोर्ट हम लगातार कर रहे हैं क्योंकि हमारे यहां का सोशल व एडमिनिस्ट्रेटिव स्ट्रक्चर ही ऐसा है कि हर काम हर जना नहीं कर सकता. वहां स्टूडैंट्स अपना बैकग्राउंड भूल कर सैनिटरिंग, ???… लीडर…???,

डिलीवरी पर्सन का काम ऐक्सैप्ट कर रहे हैं. यहां भारत में उन के मांबाप नहीं जानते पर यदि वे वहां कहीं भूलेभटके चले जाएं तो मिलने वाले डौलरों की वजह से मुंह बंद कर लेते हैं.

ह्यूमन कैपिटल आज भी किसी देश की सब से बड़ी कैपिटल है पर हमारी सोसायटी पौपुलेशन को बोझ मानती है. कनाडा, अमेरिका, यूरोप, जापान और यहां तक कि चीन भी अब समझने लगे हैं कि लाइफस्टाइल बनाए रखने के लिए, जीडीपी ग्रोथ के लिए वर्कर चाहिए ही. भारत उन वर्कर्स का एक अच्छा सोर्स है क्योंकि अफ्रीका के बाद भारत ही ऐसा देश है जहां अनएंपलौयमैंट सब से ज्यादा है. वैसे भी, यूरोपियन व अमेरिकी रंगभेद की वजह से ब्लैक की जगह ब्राउन्स को प्रैफर किया जाता है. हमारा लौस, उन का गेन है. पर क्या करें? इस देश का यूथ इस देश में नारे तो लगाता है पर काम की अपौर्चुनिटी उस के पास नहीं है.

क्या भारतीय मीडिया बिका हुआ है?

अडानी समूह पर बहस में कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकाअर्जुन खडगे ने एक जगह  कह दिया कि सरकार ने सारे न्यूज चैनलों के एंकर खरीद लिए हैं. गोदी मीडिया, गोदी मीडिया सुनने वाले चैनल एंकर आमतौर पर इस तरह की सुनने की आदत हैं पर एक को पूछ लिया कि साबित कर के दिखाओ कि एक भी पाई ली हो. यह साबित करने की बात भी मजेदार है. एकरों को यह कहना पड़ रहा है कि दूसरा पक्ष साबित करें कि वे झूठ बोल रहा है, अपनेआप में स्वीकारों की है. जनता या नेता कोई ईडी, सीबीआई, एनआईए तो हैं नहीं जो आप को महिनों बंद कर के रखे कि आप की पाई को ढूंढना है. यह ताकत तो उन के पास है जो पाई दे सकते हैं.

गोदी मीडिया बिका हुआ है यह तो साफ दिखता है कि वे रातदिन ङ्क्षहदूमुसलिम करते हैं, सरकार का प्रचार करते है. प्रधानमंत्री की चुनावी रैलियों का सीधा प्रसारण घंटों तक करते हैं और उन के चैनल ही फ्री औफ कौस्ट सैटटौप वाक्यों से ग्राहकों तक पहुंचाते हैं. किसी के बिकने के सुबूत इतना ही काफी है कि वह अमीरों, उद्योगपतियों, सब में बैठे लोगों की बातें रातदिन को और जो लोग उन की पोल खोले उन की बात को रिपोर्ट भी न करे.

अक्सर आलोचना करने वालों से पूछा जाता है कि आप दूसरा पक्ष भी क्यों नहीं देते. ‘सरिता’ को सैंकड़ों पत्र मिलते हैं हम दूसरी तरपु की बातें, यानी वे बातें जो सरकार ढिढ़ोरा पीट कर कह रही है और मंदिरों के प्रवचनों में रोजाना दोहराया जा रही हैं, हम भी क्यों नहीं कह रहे, नहीं कह रहे तो अवश्य किसी ने खरीद रखा है.

ये अजीबोगरीब तर्क है. जिस के पास पैसा वही तो खरीद सकता है. जब आप पैसे वालों की आलोचना कर रहे है, पोल खोल रहे हो, जनता को गुमराह होने से बचा रहे हो, पीडि़तों को उन के अधिकारों की बात कर रहे हो तो कौन आप को खरीदेगा. आप से तो हरेक को डर लगेगा कि अगर आज कुछ दे भी दिया तो कल ये उन के खिलाफ भी बोल सकी हैं.

कांग्रेस अपनेआप में पूरी तरह डिटरजैंक से धुली हो जरूरी नहीं. वह सत्ता में 50-60 साल रही. हर कांग्रेसी ठस के वाला है. हरेक छत गाडिय़ां बंगले हैं पर फिर भी यदि ये लोग आज भी कांग्रेस में हैं और भाग कर भारतीय जनता पार्टी के तले नहीं चले गए तो साबित करता है कि इन में कुछ अभी बाकी है जो लोकतंत्र, जवाबदेही, कमजोरों के अधिकारों की रक्षा कर रहा है.

जिस तरह से विपक्षी दलों और उन के नेताओं को बंद किया जा रहा है और करते समय जिस तरह एंकर सुॢखयों में समाचार प्रकाशित करते हैं, और जिस तरह से वे दिल्ली के उपराज्यपाल या अन्य राज्यपालों की दखलअंदाजियों की खबरें पचा जाते हैं, जिस तरह से वे औरतों पर हो रहे अत्याचारों की बात को 3 सैकंड में दिखा कर रफादफा कर देते हैं उस से काम साबित करना बचता है कि एंकर शुद्ध हरिद्वार जल से पाप रहित हो चुके हैं. भक्तिभाव में डूबे होना भी निकला है. हो सकता है कि चैनलों के मालिकों की श्रद्धा किसी नेता या किसी नेता में हो क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर किसी के अन्य पक्ष हों. यह भी बिकता है.

आज चाहे एक जने के अधिकार व आस्तित्म की रक्षा की बात हो या सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, अल्पसंख्यकों, औरतों, विचारकों, छोटे मजदूरों, किसानों की, यदि वे समाज में घुटन महसूस कर रहे हैं तो जो भी उन का मालिक या संचालक वह खुद टिका हुआ है या खरीद रहा है नुकसान उसका है जो दबा है.

बच्चे गोद लेने की प्रक्रिया

जब बच्चे न हो रहे हों तो आसपास के लोग कहने लगते है कि किसी को गोद ले लो. गोद लेने की सलाह देेने वाले नहीं जानते कि यह प्रोसीजर बहुत पेचीदा और सरकारी उलजुलूल नियमों वाला है जिस में आमतौर पर गोद लेने वाले मांबाप थक जाते हैं. कुछ ही महीनों, सालों की मेहनत के बाद एक बच्चा पाते हैं और उस में भी चुनने की गुंजाइश नहीं होती क्योंकि कानून समझता है, जो सही भी है, कि छोटे बच्चे कोई खिलौने नहीं है कि उन्हें पसंद किया जाए.

इस से ज्यादा मुश्किल गोद हुए बच्चे की होती है. वह नए घर में कैसे फिट बैठता है, यह पता करना असंभव सा है. अमेरिका की अनुप्रिया पांडेय ने कुछ बच्चों से बात की जिन्हें बचपन में भारत से गोद लिया गया था और वे अमेरिका में गोरोंकालों के बीच बड़े हुए. इन में से एक है लीला ब्लैक अब 41 साल की है. 1982 में उसे अकेली अमेरिकी नर्स ने एडोप्ट किया था. लीला ने अपना बचपन एक कौन पिताक्ट में गुजारा पर उसे खुशी थी कि जिस तरह उस की 2 माह की उम्र में हालत थी, वह बचती ही नहीं. अब अमेरिकी प्यार भी मिला, सुखसुविधाएं और हीयङ्क्षरग लौस व सेरीब्रल प्लासी रोग का ट्रीटमैंट भी.

2 बच्चों की एक अमेरिकी गोरे युवक से शादी के बाद लीला ने अपनी जड़ें खोजने की कोशिश की. उस ने भारतीय खाना बनाया, खाया, भारत की सैर 2-3 बार की, होलीदीवाली मनाई, अपने डीएनए टैस्ट से अपने जैसे 3-4 कङ्क्षजस को ढूंढा (न जाने वे चचेरे भाईबहन थे या नहीं पर भारतीय खून उन में है). अमेरिका में हर साल 200 से ज्यादा बच्चे भारत से एडोप्ट किए जाते हैं और उन की एक बिरादरी सी बन गई है. भारत में गोद लिए गए बच्चों के सामने मांबाप से मिलतेजुलते रंग, भाषा, कदकाठी के अलावा जाति का सवाल भी आ खड़ा होता है. कुंडलियों में आज भी विश्वास रखने वाला ङ्क्षहदू समाज यहां किसी भी गोद लिए बच्चो को आसानी से अपने में मिलाता है. पिछले जन्म के कर्मों का फल सोच कर हमेशा भारी रहता है.

अमेरिका यूरोप उदार देश हैं वहां जो भी कहीं से भी आएं. उन्हें खुले मन से स्वीकार किया जाता है पर फिर भी इशूस होते है. नैटफ्लिक्स पर चल रही ‘रौंग साइड औफ ट्रैक’ में एक स्पेनिश परिवार द्वारा नियटनामी लडक़ी को गोद लेना जो बड़ी हो कर विद्रोही हो जाते है, बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है. इस सीरीज में मुख्य पात्र दादा होता है जो इस वियटनामी लडक़ी के चीनी फीचर्स का मजाक उड़ाता है पर जब वह ड्रग टे्रडर्स के चुंगल में फंसने लगती है तो अपनी जान की बाजी लगा कर, पुलिस की आंखों में धूल डाल कर, पोती को बचा कर निकलता है जबकि उस को गोद लेने कभी उस की बेटी उस से तंग आ कर उसे किसी मंहगे होस्टल में भेजना चाह रही थी.

अब जब अकेलों की संख्या बढ़ रहे है. अनाथ कम हो रहे हैं, भारत में गर्भपात की सुविधाएं हैं, गोद लिए जा सकने वाले बच्चे कम मिलेंगे पर जो मिलेंगे उन्हें सही वातावरण मिलेगा, संदेह है. हम मूलत: कट्टरपंथी हैं और गोद लेने में मरने के बाद, मरने की रीतिरिवाजों की फिक्र ज्यादा रहती है, बजाए ङ्क्षजदगी के खालीपन को भरने की.

जब कोरोना ने छीन लिया पति

लेखक व लेखिका -शैलेंद्र सिंह, भारत भूषण श्रीवास्तव, सोमा घोष, नसीम अंसारी कोचर, पारुल भटनागर 

कोरोना महामारी की पहली लहर इतनी भयावह नहीं थी, मगर दूसरी लहर ने देशभर में लाखों परिवारों को पूरी तरह उजाड़ दिया. कई परिवार ऐसे हैं, जहां जवान औरतों ने अपने पति खो दिए हैं. कई महिलाएं 30-40 साल की उम्र की हैं, जिन के छोटे छोटे मासूम बच्चे हैं. कई ऐसी हैं जो आर्थिक रूप से पूरी तरह पति पर निर्भर थीं.

पति की मौत के बाद उन के सामने अपने बच्चों के लालनपालन की समस्या खड़ी हो गई है. आर्थिक जरूरतें और अनिश्चित भविष्य उन्हें डरा रहा है. बच्चों के कारण दूसरी शादी का फैसला भी आसान नहीं है.

गृहशोभा के रिपोर्टर्स की टीम ने ऐसी अनेक महिलाओं के दुखों और परेशानियों को जानने की कोशिश की:

पति के नाम को जिंदा रखना चाहती हैं ऐश्वर्या लखीमपुर खीरी जिले के गोला की रहने वाली ऐश्वर्या पांडेय की शादी 2009 में हुई थी. उन के पति पीयूष बैंक में कार्यरत थे. ऐश्वर्या एमबीए के बाद जौब करने लगी थी, मगर शादी के बाद ससुराल की जिम्मेदारियों और बेटे पार्थ के जन्म के कारण जौब छोड़नी पड़ी.

ऐश्वर्या और पीयूष बेटे पार्थ के भविष्य को ले कर सुनहरे सपने देख रहे थे. मगर काल के क्रूर चक्र को कुछ और ही मंजूर था.

11 मई, 2021 को पीयूष कोरोना की चपेट में आ गए. बैंक स्टाफ और अस्पताल के लोगों ने ऐश्वर्या का साथ दिया. अस्पताल में पीयूष का औक्सीजन लैवल घटने पर उन्हें आईसीयू में शिफ्ट किया गया. 8 जून को उन्हें जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

मगर उन का कोविड टैस्ट लगातार पौजिटिव ही आ रहा था. 9 जून को उन का पल्स रेट फिर बिगड़ने लगा तो उन्हें फिर से आईसीयू में ले जाया गया, मगर 10 जून की सुबह ऐश्वर्या के जीवन में अंधेरा बन कर आई यानी पीयूष इस दुनिया से हमेशा के लिए दूर चले गए. ऐश्वर्या डिप्रैशन में चली गई.

ऐश्वर्या कहती है, ‘‘मेरे लिए सब से अधिक महत्त्वपूर्ण बेटे को संभालना था. मैं ने यह सोच कर हिम्मत बांधी कि अगर मुझे कुछ हो गया होता तो पीयूष कैसे बेटे को संभाल रहे होते? इस सोच ने मुझे हिम्मत दी. बेटे को ले कर मैं लखनऊ लौटी. उस का स्कूल में एडमिशन कराया. घर वालों ने सहयोग किया. अभी भी मैं पूरी तरह से उस दुख से उबर नहीं पाई हूं.

पहले घर किराए का था अब जिंदगी

दिल्ली में रहने वाली कंचन माथुर अपने पति शिशिर माथुर के साथ बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंच चुकी थीं. उम्र के 55 साल पूरे हो गए थे. पति भी 58 के थे. 2 बेटियां थीं, जिन की शादियां हो चुकी थीं. घर में अब ये 2 ही बचे थे. शुरू से ही कंचन और उन के पति शिशिर किराए के मकान में रहे. अपना घर नहीं खरीदा. वजह थी 2 बेटियां. शिशिर सोचते थे कि बेटियां शादी कर के अपनेअपने घर चली जाएंगी तो अपना घर ले कर क्या करना.

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कोरोना की दूसरी लहर ने शिशिर को जकड़ लिया. 2 हफ्ते होम क्वारंटाइन रहे. बड़ी बेटी, जो दिल्ली में ही ब्याही थी, उस ने देखभाल के लिए अपने बड़े लड़के को भेज दिया. मगर शिशिर का बुखार नहीं उतर रहा था. उन्हें डायबिटीज भी थी. एक शाम जब शिशिर का औक्सीजन लैवल 86 हो गया तो बेटीदामाद घबरा कर औक्सीजन सिलैंडर लेने के लिए गए, मगर कहीं नहीं मिला और न ही किसी अस्पताल में बैड खाली मिला.

दूसरे दिन नोएडा के एक अस्पताल में जगह मिली. मगर 4 दिन के इलाज के बाद ही शिशिर चल बसे. उन के दोनों फेफड़े संक्रमण के कारण नष्ट हो चुके थे. अस्पताल से ही उन का शव अस्पताल के कर्मचारियों के द्वारा श्मशान ले जाया गया और उन्होंने ही उन का क्रियाकर्म किया. घर के किसी सदस्य ने अंतिम समय में उन्हें नहीं देखा.

गहरा धक्का

इस बात का सब से ज्यादा धक्का उन की पत्नी कंचन को लगा है. पति के अचानक चले जाने से वे बिलकुल बेसहारा हो गई हैं. बड़ी बेटी किसी तरह अपने ससुराल वालों को राजी कर के उन्हें अपने साथ ले तो गई है, मगर अजनबी लोगों के बीच कंचन की वैसी देखभाल नहीं हो पा रही है जैसी उन के पति के रहते अपने घर में होती थी.

उन के दामाद ने उन का किराए का घर खाली कर दिया है. सारा सामान बेच दिया. बैंक में जो पैसा था वह अपने अकाउंट में ट्रांसफर करवा लिया.

घर का सामान बिकते देख कंचन के दिल पर जो गुजरी उस दर्द को कोई और नहीं समझ सकता है. पति की जोड़ी गई 1-1 चीज उन की आंखों के सामने कबाड़ में बेच दी गई. पहले घर किराए का था, मगर घर में रहने वाला अपना था, पर अब उन की पूरी जिंदगी किराए की हो गई है.

फिट इंसान के साथ ऐसा होगा सोचा न था

37 वर्षीय रेशमा राजेश पाटिल और उन के 12 वर्षीय बेटे रितेश राजेश पाटिल की जिंदगी कोरोना ने वीरान कर दी. कोविड की दूसरी लहर में मां ने अपना पति और बेटे ने अपने पिता को खो दिया है.

मुंबई के नजदीक अलीबाग के रहने वाले 42 वर्षीय तंदुरुस्त राजेश पाटिल सरकारी दफ्तर में काम करते थे. कोरोना की दूसरी लहर ने राजेश के बुजुर्ग पिता को कोरोना हो गया. राजेश पिता को रोजाना खाना पहुंचाने अस्पताल जाने लगा. एक दिन उसे भी बुखार हो गया. टैस्ट करवाने पर वह भी कोरोना पौजिटिव पाया गया. राजेश तुरंत होम क्वारंटाइन में चला गया. उस की पत्नी रेशमा ने अपने बेटे को मामा के पास मायके भेज दिया.

रेशमा अपने आंसू पोछती हुई कहती हैं, ‘‘होम क्वारंटाइन में राजेश डाक्टर से पूछ कर दवा ले रहे थे. लेकिन एक दिन उन्हें सांस लेने में ज्यादा दिक्कत होने लगी तो मैं तुरंत उन्हें सिविल अस्पताल ले गई. डाक्टर ने जांच की और बताया कि उन का औक्सीजन लैवल 97 है, इसलिए उन्हें यहां भरती नहीं कर सकते. तब मैं उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई. वहां जांच करने पर पता चला कि उन्हें निमोनिया हो गया है. डाक्टर ने एक इंजैक्शन शुरू करने की बात कही, जो 40 हजार रुपए का था. मैं ने पैसा अरेंज किया और इंजैक्शन ला कर दिए. मगर इंजैक्शन का उन पर कोई असर नहीं हुआ और 20 दिन अस्पताल में रहने के बाद उन का देहांत हो गया.

‘‘अभी रेशमा किराए के मकान में रहती हैं. उन्हें पति की पैंशन नहीं मिल सकती है क्योंकि उन्होंने 2009 में सरकारी नौकरी जौइन की थी. कुछ पैसे उन्हें राज्य सरकार और संस्था की तरफ से जरूर मिले हैं. बाल संगोपन संस्था के अंतर्गत उन्हें राज्य सरकार की तरफ से 50 हजार रुपए की रकम फौर्म भरने के 4 दिन बाद मिल गई. इस के अलावा बाल संगोपन संस्था के द्वारा बेटे की पढ़ाई के लिए प्रति माह 11 सौ रुपए और मुफ्त में थोड़ा राशन मिल जाता है, जिस से गुजारा हो रहा है. लेकिन आगे उन्हें खुद अपने पैरों पर खड़ा होना होगा.’’

रेशमा कहती हैं, ‘‘मैं ने पति के औफिस में नौकरी के लिए अर्जी दी है, लेकिन मेरे लायक कोई पद खाली होने पर ही मुझे नौकरी मिलेगी. गांव में पढ़ाई अच्छी न होने की वजह से मुझे बेटे की शिक्षा के लिए अलीबाग में ही रहना है. मेरे ससुराल में मेरे सासससुर भी हैं.’’

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जैसे जिंदगी से रोशनी चली गई

भोपाल के गांधी मैडिकल कालेज में टैक्नीशियन पद पर कार्यरत रवींद्र श्रीवास्तव की पत्नी रश्मि शहर के सरकारी स्कूल बाल विद्या मंदिर में प्राध्यापिका थीं. 18 साल पहले दोनों

की शादी हुई थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि गत 9 मई को कोरोना रश्मि को अपने साथ ले गया.

‘‘मुझे अभी तक यकीन नहीं होता कि रश्मि अब नहीं रही,’’ रवींद्र कहते हैं, ‘‘औफिस से घर लौटता हूं तो लगता है वह मेरा चाय पर इंतजार कर रही है. सच को स्वीकारने की बहुत कोशिश करता हूं, लेकिन उस की याद किसी न किसी बहाने आ ही जाती है.

रश्मि के जाने के बाद रवींद्र का सूनापन अब शायद ही कभी भर पाए. 17 साल का बेटा ऋषि भी अकसर उदास रहता है. रवींद्र पूरी तरह टूट गए हैं, मगर बेटे के लिए जैसेतैसे खुद को संभाले हुए हैं.

परिवार के लिए कमाना है

‘‘27 अप्रैल, 2021 को मेरे पति विकास ने कोविड की दूसरी लहर में अपनी जान गवां दी. मैं और मेरे दोनों बच्चे इस दुनिया में अकेले रह गए…’’ कहती हुई 40 वर्षीय नयना विकास की आवाज भारी हो गई.

नैना के पति विकास छत्तीसगढ़ के जिले के रायगढ़ के अंतर्गत सासवाने गांव में नयना और 2 बच्चों के साथ रहते थे. उन का बिल्डिंग मैटीरियल सप्लाई करने का व्यवसाय था, जिसे अब नयना संभाल रही हैं. मददगार प्रवृत्ति के विकास कोविड-19 के दूसरी लहर के दौरान लोगों की मदद कर रहे थे. उन्हें कुछ हो जाएगा, इस बारे में उन्होंने सोचा नहीं था.

नयना कहती हैं, ‘‘एक दिन उन्हें बुखार आया पर उन्होंने बताया नहीं. बुखार के साथ ही काम करते रहे. वे 100 से 150 लोगों को खाना खिलाते थे, जिसे मैं खुद बनाती थी. जो भी पैसा उन्हें अपने व्यवसाय से मिलता था, उन्हें जरूरतमंदों के लिए खर्च कर देते थे. 14 अप्रैल से उन्हें बुखार था. 19 अप्रैल को राशन बांटने के उद्देश्य से उन्होंने गांव के सरपंच के साथ मीटिंग रखी थी. मीटिंग खत्म होते ही वे घर आ गए. बुखार तेज था. मैं उन्हें सिविल अस्पताल ले गई, जहां टैस्ट करवाने पर रिपोर्ट पौजिटिव आई. मगर वहां अस्पताल में कोई बैड नहीं मिला. फिर मैं ने उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई जहां उन की मौत हो गई.

नयना के 2 बच्चे हैं. बेटी 8वीं कक्षा में और बेटा 5वीं कक्षा में पढ़ रहा है. दुख से उबरने के बाद नयना ने पति का व्यवसाय संभाल लिया है. काम में थोड़ी मुश्किलें भी हैं क्योंकि वे पहले इस काम से जुड़ी नहीं थीं. पति का बैंक खाता बिलकुल खाली है और किसी प्रकार का हैल्थ इंश्योरैंस भी नहीं है. नयना पर काफी कर्ज हो गया है.

पति की मृत्यु के बाद बाल संगोपन संस्था की तरफ से नयना को 50 हजार रुपए तथा राज्य सरकार की तरफ से बच्चों को पढ़ाई का खर्च मिल रहा है. लेकिन आगे नयना को ही परिवार की गाड़ी खींचनी है बिलकुल अकेले.

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बच्चों की परवरिश में कोई कमी नहीं आने दूंगी -विना दुब

कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में कुहराम मचा रखा है. लाखों परिवारों ने इस में अपने लोगों को खो दिया है. किसी ने बेटा, किसी ने पति, किसी ने पिता तो किसी ने पत्नी, बहन, बेटी या मां को खो दिया है. कुछ बच्चे तो ऐसे हैं जिन्होंने इस महामारी में अपने मातापिता दोनों को ही खो दिया है.

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की विना दुबे ने कोरोना की दूसरी लहर में अपने पति को खो दिया. उन के दर्द को शब्दों में बयां करना मुश्किल है, लेकिन विना ने हिम्मत नहीं हारी. दर्द से उबर कर जीवन को फिर वापस पटरी पर ले आई हैं और बच्चों का पालनपोषण कर रही हैं.

विना नहीं चाहतीं कि उन के बच्चों को कोई कमी हो या उन की पढ़ाई और कैरियर में किसी प्रकार की रुकावट पैदा हो. विना ने गृहशोभा से अपनी आपबीती साझ की:

जब आप को पता चला कि कोरोना से आप के पति की मृत्यु हो गई है तो उस समय आप को क्या लग रहा था?

मेरे पति अखिल कुमार दुबे मेरे लिए मेरे आदर्श, मेरे मार्गदर्शक, मेरे सबकुछ थे. लेकिन जब मुझे पता चला कि 6 दिन हौस्पिटल में इलाज करवाने के बाद भी वे नहीं रहे, तो मुझे एक पल को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि वे हमें छोड़ कर चले गए हैं. लेकिन हकीकत यही थी कि वे अब नहीं रहे. मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि आगे अब जिंदगी कैसे गुजारूंगी, क्या करूंगी, बच्चों का, खुद का जीवनयापन कैसे करूंगी? मेरे कदमों के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई हो. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सामने ढेरों परेशानियां थीं. लेकिन बच्चों की खातिर मैं ने पति के जाने के दुख को अपने अंदर छिपा कर उन के लिए आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?

एक तो पति के जाने का गम और दूसरा आर्थिक तंगी. उस समय खुद को कैसे स्ट्रौंग बनाऊं, यही मेरे लिए सब से बड़ा संघर्ष था. 2 बच्चों की परवरिश, ऐजुकेशन की जिम्मेदारी अकेले मेरे कंधों पर आ गई है. भले ही मैं पहले से वर्किंग हूं, लेकिन बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए सिंगल हैंड से काम नहीं चलता बल्कि मातापिता दोनों का कमाना बहुत जरूरी है. मगर मैं अकेली रह गई हूं. ऐसे में मैं इस संघर्ष के सामने हिम्मत तो नहीं हारूंगी क्योंकि मेरे बच्चों के भविष्य का सवाल जो है.

आप कैसे अपने परिवार का जीवनयापन कर रही हैं?

मैं बीए पास वर्किंग वूमन हूं. मुझे अपने बच्चों की हर जरूरत को पूरा करना है, इसलिए कोई भी काम करना पड़े, मैं पीछे नहीं हटूंगी. जौब के कारण बच्चे उपेक्षित न हों, इस बात का भी मैं पूरा ध्यान रखती हूं. उन के साथ वक्त गुजारती हूं, उन की प्रोब्लम सुनती हूं, पढ़ाई में उन्हें पूरा सहयोग देती हूं क्योंकि अब मैं ही उन की मां और पिता दोनों हूं.

पति के न रहने पर समाज व रिश्तेदारों का क्या योगदान रहा?

समाज का तो कुछ नहीं कह सकती क्योंकि वो दौर ही ऐसा था जब सभी एकदूसरे से दूरी बनाए हुए थे. सब अपनों को बचाने के लिए, अपनेअपने बारे में सोच रहे थे. लेकिन ऐसे वक्त में मेरे जेठ अमित दुबे और जेठानी रीना दुबे ने तनमनधन हर तरह से सहयोग दिया. समाजसेविका नीतूजी की मैं दिल से आभारी हूं. उन्होंने जो बन पड़ा वह हमारे लिए किया. मेरे भाई मेरी हिम्मत बन कर खड़े हुए हैं, जिस के कारण मुझे आगे बढ़ने का हौसला मिला है.

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हादसे के बाद जीवन के लिए सीख?

मैं सभी से यही कहना चाहूंगी कि जीवन में कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता. कब हंसतीखेलती जिंदगी में सन्नाटा छा जाए, किसी को नहीं मालूम. इसलिए परिवार में जब तक संभव हो सके पति पत्नी मिल कर काम करें. चाहे आप ज्यादा शिक्षित न भी हों तो भी जो भी आप में करने की योग्यता है, जैसे कुकिंग, बुनाई आदि तो उसे कर के न सिर्फ खुद सैल्फ डिपेंडैंट बनें, बल्कि उस से होने वाली आय को भविष्य के लिए जोड़ कर रखें ताकि कभी भी मुसीबत आने पर आप अपने परिवार की हिम्मत बन कर कठिन परिस्थितियों से लड़ पाने में सक्षम हों. फुजूलखर्ची छोड़ कर सेविंग करने की आदत को बढ़ाएं, साथ ही कभी भी हिम्मत न हारें.

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