Welcome 2023: नए साल पर लें नए संकल्प, जो समाज को भी कुछ दे सकें

नए साल का मतलब केवल पार्टी, धूमधड़ाका और कैलेंडर बदलना भर नहीं होता. नए साल से नई शुरुआत होती है. जीवन समय की गणना नए साल से होती है. नए साल में ही जन्मदिन आता है. नए साल के अवसर पर पार्टी, धूमधड़ाका और शुभकामनाओं की शुरुआत के साथ हम कुछ न कुछ ऐसा संकल्प लें जो केवल हमारे भविष्य के लिए ही अच्छा न हो, बल्कि हम समाज को कुछ अलग दे भी सकें.

देश में युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है. दुनियाभर की बात करें तो सब से अधिक युवा हमारे देश में हैं. यह संख्या लगातार बढ़ रही है. युवा देश की सब से बड़ी ताकत हैं. इस के बाद भी युवाओं की ऊर्जा का सही प्रयोग नहीं किया जा रहा है. ऐसे में जरूरी है कि युवाओं को खुद अपना रास्ता तय करना चाहिए. नए संकल्प से युवा एक बदलाव की शुरुआत कर सकते हैं.

आज के दौर में युवाओं के लिए नौकरियों के अवसर बदल रहे हैं. केवल पढ़ाई कर के सरकारी नौकरी के बल पर आगे बढ़ने का साधन सीमित रह गया है. युवाओं की मुख्य परेशानी यह है कि वे खुद को काबिल नहीं बनाना चाहते. वे जल्दी से जल्दी नौकरी हासिल कर के अपने सुखद भविष्य का सपना देखते रहते हैं.

हाल के कुछ सालों को देखें तो युवाओं में नौकरियों के लिए चाहत बढ़ रही है. इस कारण ही वे आरक्षण का विरोध, नौकरियों के लिए धरनाप्रदर्शन, सबकुछ करने को तैयार रहते हैं. नौकरियों की चाहत के चलते युवाओं को तरहतरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है. ऐसे में अगर युवा अपने कैरियर की दिशा पहले से ही तय कर लें तो बेहतर रहता है. नए साल के संकल्प ऐसे में बहुत काम के होंगे.

  1. कैरियर से समाज का भला करना

निफ्ट यानी नैशनल इंस्टिट्यूट औफ फैशन टैक्नोलौजी से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही आशा दीक्षित कहती हैं कि आज के समय में फैशन डिजाइनिंग की डिमांड बहुत बढ़ रही है. नौकरियों से अलग लोग अपने ब्रैंड शुरू कर रहे हैं. इस के जरिए युवा अपने कैरियर को जल्द ही एक पहचान दिला पा रहे हैं. हम केवल खुद का नाम ही नहीं रोशन कर रहे, तमाम लोगों को नौकरियां भी दे रहे हैं. नए फैशन ब्रैंड का ही प्रभाव है कि आज के समय में बड़ेबड़े फैशन ब्रैंड तक बजट के अंदर अपने डिजाइन सैल करने को मजबूर हो रहे हैं. पहले यही डिजाइनर केवल बड़े फिल्मस्टार और बिजनैस सैलिब्रिटी के लिए ही कपड़े डिजाइन करते थे. तब इन की कीमत भी बहुत होती थी. युवा डिजाइनरों के आने से आज यह बदलाव हुआ है कि कम बजट में भी लोग डिजाइनर वियर पहन रहे हैं. एक डिजाइनर के रूप में उन का संकल्प है कि वे छोटेबड़े हर बजट के डिजाइन तैयार करें.

आशा दीक्षित आगे कहती हैं, ‘‘आज के युवा पहले से अधिक सामाजिक होते जा रहे हैं. वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को भी समझ रहे हैं. पढ़ाई के साथ उन का प्रयास होता है कि वे दूसरे बच्चों को भी शिक्षा दे सकें. मैं भी ऐसे लोगों को खासकर अपनी उम्र के लड़केलड़कियों को फैशन का मतलब समझाना चाहती हूं जिस से कि वे भी नए दौर के साथ खुद को अपडेट रख सकें. शिक्षा के जरिए ही युवाओं को अपडेट रखना चाहती हूं.

‘‘मेरा प्रयास यह होगा कि मैं अपनी पहचान से अपने परिवार को गर्व करने लायक कुछ दे सकूं. मेरे परिवार में लड़कालड़की का कोई भेदभाव नहीं है. यही मैं हर घर में होते देखना चाहती हूं. बच्चे पेरैंट्स के साथ अपने ग्रैंड पेरैंट्स को भी महत्त्व दें, उन के साथ सामंजस्य बना कर रखें, यह संकल्प नए साल में हमें लेना है. इस से बच्चों को ग्रैंड पेरैंट्स के अनुभवों का लाभ मिल सकता है. ग्रैंड पेरैंट्स को भी खालीपन नहीं लगेगा. उन के अनुभव और युवाओं की सोच नई राह दिखा सकते हैं.’’

2. लोगों को जागरूक करना

मौडलिंग के क्षेत्र में अपना कैरियर संवार रही संजना मिश्रा कहती हैं, ‘‘मौडलिंग और ऐक्ंिटग के क्षेत्र में कदम रखने से पहले मैं ने यह सोच लिया कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं? यह मैं ने अपने बायोडाटा पर साफ लिख भी दिया है. आमतौर पर इस फील्ड में आने वाली लड़कियों में इस बात को ले कर कंफ्यूजन रहता है कि वे क्या करें और क्या न करें? इस का लाभ दूसरे लोग उठा कर बरगलाते हैं.’’ संजना साल 2015 में मिस यूपी रनरअप, मिस मौडल 2016 विनर रही हैं. ब्यूटीफुल स्माइल और ‘चार्मिंग फेस’ जैसे अवार्ड भी हासिल किए. इस के बाद प्रिंट शूट और रैंप शो भी किए. कई कार्यक्रमों में ऐंकर की भूमिका निभा चुकी संजना अपने नए साल के संकल्प को ले कर कहती है कि उन्हें अपने काम पर फोकस करना है जिस गति से उन्होंने अपने काम को आगे बढ़ाया है उसे और आगे ले जाना है.

संजना कहती हैं, ‘‘मैं अपने क्षेत्र में काम करने वाली लड़कियों को जागरूक करना चाहती हूं ताकि वे पूरी तैयारी के साथ यहां आएं. फैशन की दुनिया में खराबी नहीं है. यहां आने वाले को तय करना होता है कि वह अपनी मेहनत से आगे बढ़ना चाहता है या शौर्टकट रास्ते से. शौर्टकट रास्ते में शुरुआती सफलता दिखती है पर यह चमक चार दिन की होती है. कई बार इस में उलझ कर लोग सबकुछ खत्म कर बैठते हैं. ऐसे में अपनी मेहनत से आगे बढ़ें, यही सब से मजबूत रास्ता होता है.

‘‘आज के समय में फैशन का क्षेत्र बहुत बढ़ा हुआ है. फिल्मों में वैब सीरीज का चलन बढ़ा है. टीवी में ऐक्ंिटग की जरूरतें बढ़ी हैं. रैंप शो और डिजाइनर शूट बढ़ गए हैं. ऐसे में, यह कैरियर पहचान और पैसा दोनों दिलाने में सक्षम है.’’

3. अलग पहचान बनाने का संकल्प

फैशन के क्षेत्र में ही कैरियर बना चुकी साक्षी शिवानंद कहती हैं, ‘‘मैं पढ़ाई और ऐक्टिंग एकसाथ करना चाहती हूं. मेरा फोकस फैशन शो के अलावा ऐक्ंिटग पर है. मेरा संकल्प है कि मैं अपने कैरियर में ऐक्टिंग को आगे बढ़ाऊं. छोटे शहरों में फैशन फील्ड को ले कर रूढि़वादी सोच हावी रहती है. हमें इस से बाहर निकलना है. तभी हम कुछ नया सोच सकते हैं. छोटे शहरों की लड़कियां भी किसी से पीछे नहीं हैं, यह साबित करने का संकल्प इस साल लेना है. मैं छोटे शहरों की लड़कियों को मैसेज देना चाहती हूं कि जब वे फैशन के फील्ड में आएं तो सारे हालात को समझ कर आएं. जिस से उन के सामने असहज हालात न बनें. लड़कियों के साथ उन के पेरैंट्स को भी यह समझ लेना चाहिए. अगर पेरैंट्स समझ लेंगे तो वे अपने बच्चों के सही फैसलों में साथ खड़े होंगे और गलत फैसलों में उन को राह दिखाएंगे.’’

अंशिका वर्मा शेफ बनना चाहती हैं. वे कहती हैं, ‘‘मेरा संकल्प है कि इस साल हर माह में एक नई डिश पर काम करूं और उस को नए रूप में सामने लाऊं. आज के समय में लड़कियों के सामने कई अवसर मौजूद हैं. वे खुद की पहचान बना सकती हैं. पेरैंट्स भी आजकल जागरूक हैं. वे बच्चों की उम्मीदों  का खयाल रखते हुए उन को सहयोग करते हैं. ऐसे में बच्चों की भी जिम्मेदारी है कि  वे पेरैंट्स की उम्मीदों को तोड़ें नहीं. किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए मेहनत के साथ नए इनोवेशन की जरूरत होती है. ऐसे में युवाओं का ज्ञान बढ़ाना चाहिए. आज के समय में युवाओं में सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ गया है. सोशल मीडिया का अपना एक दायरा है. यह सूचना क्रांति का दौर है. सोशल मीडिया का प्रयोग सूचनाओं के आदानप्रदान तक ठीक है. नए प्रयोगों, जानकारियों और विचारों के लिए पढ़ना व समझना जरूरी होता है, तभी आगे बढ़ा जा सकता है.’’

अंशिका आगे कहती है, ‘‘नए साल में हमारा संकल्प है कि हम अपने विचारों के आदानप्रदान के लिए पढ़ना शुरू करें. किसी भी विषय में बिना तर्क के उस का अनुसरण नहीं करना चाहिए. सोशल मीडिया तर्क से बचता है और अफवाहों को फैलाता है, ऐसे में अपने तर्कसंगत विचारों के साथ किसी घटना को हम समझेंगे तो अफवाहों के दौर से बाहर निकल सकेंगे.’’

यह सच है कि आज हर कोई युवाओं को केवल सोशल मीडिया के प्रचार से भरमाना चाहता है. ऐसे में जरूरी है कि युवा अफवाहों से बचें और तर्कसंगत विचारों के साथ आगे बढ़ें.

सोचने की क्षमता आएगी कहां से

प्यार करने में कितने जोखिम हैं, यह शीरींफरहाद,  लैलामजनूं से ले कर शकुंलतादुष्यंत, अहिल्याइंद्र, हिंदी फिल्म ‘संगम’ तक बारबार सैकड़ों हजार बार दोहराया गया है. मांबाप, बड़ों, दोस्तों, हमदर्दों की बात ठुकरा कर दिल की बात को रखते हुए कब कोई किस गहराई से प्यार कर बैठे यह नहीं मालूम.

दिल्ली में लिव इन पार्टनर की अपनी प्रेमिका की हत्या करने और उस के शव के 30-35 टुकड़े कर के एक-एक कर के कई दिनों तक फेंकने की घटना पूरे देश को उसी तरह हिला दिया है जैसा निर्भया कांड में जबरन वहशी बलात्कार ने दहलाया था.

इस मामले में लड़की के मांबाप की भी नहीं बनती और लड़की बिना बाप को बताए महीनों गायब रही और बाप ने सुध नहीं ली. इस बीच यह जोड़ा मुंबई से दिल्ली आ कर रहने लगा और दोनों ने काम भी ढूंढ़ लिया पर निरंतर हिंसा के बावजूद लड़की बिना किसी दबाव के प्रेमी को छोड़ कर न जा पाई.

ज्यादा गंभीर बात यह रही कि लड़के को न कोई दुख या पश्चात्ताप था न चिंता. लड़की को मारने के बाद उस के टुकड़े फ्रिज में रख कर वह निश्चिंतता से काम करता रहा. जो चौंकाने वाला है, वह यह व्यवहार है.

इंग्लिश में माहिर यह लड़का आखिर किस मिट्टी का बना है कि उसे न हत्या करने पर डर लगा, न कई साल तक जिस से प्रेम किया उस का विछोह उसे सताया. यह असल में इंट्रोवर्ट होती पीढ़ी की नई बीमारी का एक लक्षण है. केवल आज में और अब में जीने वाली पीढ़ी अपने कल का सोचना ही बंद कर रही है क्योंकि मांबाप ने इस तरह का प्रोटैक्शन दे रखा था कि उसे लगता है कि कहीं न कहीं से रुपयों का इंतजाम हो ही जाएगा.

जब उस बात में कोई कमी होती है, जब कल को सवाल पूछे जाते हैं, कल को जब साथी कोई मांग रखता है जो पूरी नहीं हो पाती तो बिफरना, आपा खोना, बैलेंस खोना बड़ी बात नहीं, सामान्य सी है. जो पीढ़ी मांबाप से जब चाहे जो मांग लो मिल जाएगा की आदी हो चुकी हो उसे जरा सी पहाड़ी भी लांघना मुश्किल लगता है. उसे 2 मंजिल चढ़ने के लिए भी लिफ्ट चाहिए, 2 मील चलने के लिए वाहन चाहिए और न मिले तो वह गुस्से में कुछ भी कर सकती है.

यह सबक मांबाप पढ़ा रहे हैं, मीडिया सिखा रहा है. स्कूली टैक्स्ट बुक्स इन का जवाब नहीं है. रिश्तेनातेदार हैं नहीं जो जीवन के रहस्यों को सुल झाने की तरकीब सु झा सकें. और कुछ है तो गूगल है, व्हाट्सऐप है, फेसबुक है, इंस्टाग्राम है, ट्विटर है जिन पर सम झाने से ज्यादा भड़काने की बातें होती हैं.

पिछले 20-25 सालों से धर्म के नाम पर सिर फोड़ देने का रिवाज सरकार का हिस्सा बन गया है. हिंसक देवीदेवताओं की पूजा करने का हक पहला बन गया है. जिन देवताओं के नाम पर हमारे नेता वोट मांगते हैं, जिन देवताओं के चरणों में मांबाप सिर  झुकाते हैं, जिन देवीदेवताओं के जुलूस निकाले जाते हैं सब या तो हिंसा करने वाले होते हैं या हिंसा के शिकार हैं.

ऐसे में युवा पीढ़ी का विवेक, डिस्क्रीशन, लौजिक, दूसरे के राइट्स के बारे में सोचने की क्षमता आखिर आएगी कहां से? न मांबाप कुछ पढ़ने को देते हैं, न बच्चे कुछ पढ़ते हैं. न मनोविज्ञान के बारे में पढ़ा जाता है न जीवन जीने के गुरों के बारे में. नैचुरल सैक्स की आवश्यकता को संबंधों का फैवीकोल मान कर साथ सोना साथ निभाने और लगातार साथ रातदिन, महीनों, सालों तक रहने से अलग है.

युवाओं को दोष देने की हमारी आदत हो गई है कि वे भटक गए हैं जबकि असलियत यह है कि भटकी हुई यह वह जैनरेशन है जिस ने इमरजैंसी में इंदिरा गांधी का गुणगान किया, जिस ने ओबीसी रिजर्वेशन पर हल्ला किया, जिस

के एक धड़े ने खालिस्तान की मांग की और फिर दूसरे धड़े ने मांगने वालों को मारने में कसर न छोड़ी. भटकी वह पीढ़ी है जिस ने हिंदूमुसलिम का राग अलापा, जिस ने बाबरी मसजिद तुड़वाई, जिस ने हर गली में 4-4 मंदिर बनवा डाले, जिस ने लाईब्रेरीज को खत्म कर दिया, जिस ने बच्चों के हाथों में टीवी का रिमोट दिया.

आज जो गुनाह हमें सता रहा है, परेशान कर रहा है वह इन दोनों ने उस पीढ़ी से सीख कर किया जो देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार है, जो करप्शन की गुलाम है, जो पैंपरिंग को पाल देना सम झती है. जरा सा कुरेदेंगे तो सड़ा बदबूदार मैला अपने दिलों में दिखने लगेगा, इस युवा पीढ़ी में नहीं जिसे जीवन जीने का पाठ किसी ने पढ़ाया ही नहीं. पाखंड के गड्ढे में धकेलने की साजिश  दिल्ली विश्वविद्यालय के अच्छे पर सस्ते कालेजों में ऐडमिशन पाना अब और टेढ़ा हो गया है क्योंकि केंद्र सरकार ने 12वीं कक्षा की परीक्षा लेने वाले बोर्डों को नकार कर एक और परीक्षा कराई. कौमन यूनिवर्सिटी ऐंट्रैस टैस्ट और इस के आधार पर दिल्ली विश्वविद्यालय और बहुत से दूसरे विश्वविद्यालयों के कालेजों में ऐडमिशन मिला. इस का कोई खास फायदा हुआ होगा यह कहीं से नजर नहीं आ रहा.

दिल्ली विश्वविद्यालय में 12वीं कक्षा की परीक्षा में बैठे सीबीएसई की परीक्षा के अंकों के आधार पर 2021 में 59,199 युवाओं को ऐडमिशन मिला था तो इस बार 51,797 को. 2021 में बिहार पहले 5 रैंकों में शामिल नहीं था पर इस बार 4,450 स्टूडैंट रहे जिन्होंने 12वीं बिहार बोर्ड से की और फिर क्यूईटी का ऐग्जाम दिया. केरल और हरियाणा के स्टूडैंट्स इस बार पहले 5 में से गायब हो गए.

एक और बदलाव हुआ कि अब आर्ट्स खासतौर पर पौलिटिकल साइंस पर ज्यादा जोर जा रहा है बजाय फिजिक्स, कैमिस्ट्री, बायोलौजी जैसी प्योर साइंसेज की ओर. यह थोड़ा खतरनाक है कि देश का युवा अब तार्किक न बन कर भावना में बहने वाला बनता जा रहा है.

क्यूईटी परीक्षा को लाया इसलिए गया था कि यह सम झा जाता था कि बिहार जैसे बोर्डों में बेहद धांधली होती है और जम कर नकल से नंबर आते हैं. पर क्यूईटी की परीक्षा अपनेआप में कोई मैजिक खजाना नहीं है जो टेलैंट व भाषा के ज्ञान को जांच सके. औब्जैक्टिव टाइप सवाल एकदम तुक्कों पर ज्यादा निर्भर करते हैं.

क्यूईटी की परीक्षा का सब से बड़ा लाभ कोचिंग इंडस्ट्री को हुआ जिन्हें पहले केवल साइंस स्टूडैंट्स मिला करते थे जो नीट की परीक्षा मैडिकल कालेजों के लिए देते थे और जेईई की परीक्षा इंजीनियरिंग कालेजों के लिए. अब आर्ट्स कालेजों के लाखों बच्चे कोचिंग इंडस्ट्री के नए कस्टमर बन गए हैं.

देश में शिक्षा लगातार महंगी होती जा रही है. न्यू ऐजुकेशन पौलिसी के नाम पर जो डौक्यूमैंट सरकार ने जारी किया है उस में सिवा नारों और वादों के कुछ नहीं है और बारबार पुरातन संस्कृति, इतिहास, परंपराओं का नाम ले कर पूरी युवा कौम को पाखंड के गड्ढे में धकेलने की साजिश की गई है. शिक्षा को पूरे देश में एक डंडे से हांकने की खातिर इस पर केंद्र सरकार ने कब्जा कर लिया है. देश में विविधता गायब होने लगी है. लाभ बड़े शहरों को होने लगा है, ऊंची जातियों की लेयर को होने लगा है.

क्यूईटी ने इसे सस्ता बनाने के लिए कुछ नहीं किया. उलटे ऊंची, अच्छी संस्थाओं में केवल वे आएं जिन के मांबाप 12वीं व क्यूईटी की कोचिंग पर मोटा पैसा खर्च कर सकें, यह इंतजाम किया गया है. अगर देशभर में इस पर चुप्पी है तो इसलिए कि कोचिंग इंडस्ट्री के पैर गहरे तक जम गए हैं और सरकारें खुद कोचिंग अस्सिटैंस चुनावी वादों में जोड़ने लगी हैं.

12वीं के बोर्ड ही उच्च शिक्षा संस्थानों के ऐडमिशन के लिए अकेले मानदंड होने चाहिए. राज्य सरकारों को कहा जा सकता है कि वे बोर्ड परीक्षा ऐसी बनाएं कि बिना कोचिंग के काम चल सके. आज के युवा को शौर्टकट का औब्जैक्टिव टैस्ट नहीं दिया जाए बल्कि उन की सम झ, भाषा पर पकड़, तर्क की शक्ति को परखा जाए. आज जो हो रहा है वह शिक्षा के नाम पर रेवड़ी बांटना है जो फिर अपनों को दी जा रही है.

बढ़ता जीएसटी बढ़ती महंगाई

नरेंद्र मोदी सरकार बढ़ते जीएसटी कलैक्शन पर बहुत खुश हो रही है. 2017 में जीएसटी लागू होने के कई सालों तक मासिक कलैक्शन 1 लाख करोड़ के आसपास रहा था पर इस जूनजुलाई से उस में उछाल आया है और 1.72 लाख करोड़ हो गया है. 1.72 लाख करोड़ कितने होते हैं यह भूल जाइए, यह याद रखिए कि जीएसटी अगर ज्यादा है तो मतलब है कि सरकार जनता से ज्यादा टैक्स वसूल कर रही है. अगर सालभर में टैक्स 25 से 35% तक बढ़ता है और लोगों की आमदनी 2 से 3% भी नहीं बढ़ती तो मतलब है कि हर घरवाली अपने खर्च काट रही है.

निर्मला सीतारमण ने नरेंद्र मोदी की तर्ज पर एक आम गृहिणी की तरह अपना वीडियो एक सब्जी की दुकान पर सब्जी खरीदते हुए खिंचवाया और इसे भाजपा आईटी सैल पर वायरल किया कि देखो वित्त मंत्री भी आम औरत की तरह हैं. पर यह नहीं सम झाया गया कि सब्जी पर भी भारी टैक्स लगा हुआ था चाहे वह उस मिडल ऐज्ड दुकानदार महिला ने चार्ज नहीं किया हो.

सब्जी आज दूर गांवों से आती है और ट्रक पर लद कर आती है. इस ट्रक पर जीएसटी, डीजल पर केंद्र सरकार का टैक्स है. सब्जी जिस खेत में उगाई जाती है उस पर चाहे लगान न हो पर जिस पंप से पानी दिया जाता है उस पर टैक्स है, जिस बोरी में सब्जी भरी गई उस पर टैक्स है, जिस वेब्रिज पर तोली गई उस पर टैक्स है.

उस ऐज्ड दुकानदार ने जिन इस्तेमाल किए लकड़ी के तख्तों पर अपनी दुकान लगाई, उन पर टैक्स है, जो बत्ती उस ने जलाई उस पर टैक्स है, जिस थैली, चाहे कागज की हो या पौलिथीन की हो, उस पर टैक्स है. निर्मला सीतारमण ने 100-200 रुपए की जो सब्जी खरीदी थी उस पर कितना टैक्स है इस का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है.

बढ़ता जीएसटी देश के बढ़ते उत्पादन को ही नहीं जताता यह महंगाईर् को बताता है. पिछले 1 साल से हर चीज का दाम बढ़ रहा है. दाम बढ़ेंगे तो टैक्स भी बढ़ेगा. हर घर वैसे ही बढ़ती कीमत से परेशान है पर वह इस के लिए जिम्मेदार दुकानदार या बनाने वाले को ठहराता है, जबकि कच्चे माल से दुकान तक बढ़ी कीमत वाले मौल पर कितना ज्यादा जीएसटी देना पड़ा यह नहीं सोचता.

वह इसलिए नहीं सोचता क्योंकि उसे पट्टी पढ़ा दी गई है कि उस के आकाओं ने उसे राममंदिर दिला दिया, चारधाम का रास्ता साफ कर दिया, महाकाल के मंदिर को ठीक कर दिया तो सभी भला करेगा. वह मंदिरों में अपनी  झोली खुदबखुद खाली कर के देता है और बचाखुचा सरकार उस की  झोली से बंदूक के बल पर छीन लेती है.

चुनावों की रेस में कौन रहा है सबसे आगे

2 राज्यों, नगर निगम, कुछ विधानसभाओं व एक लोकसभा का उपचुनाव हुआ. 1 जगह सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा जीती, जम कर जीती, 2 जगह हारी. कुछ उपचुनाव पुरानी पाॢटयों से मिले कुछ पर नई पाॢटयां आईं. मुंह सब के लटके हुए थे पर सब चेहरे पर खुशियां दिखा रहे थे क्योंकि सत्ता की रेवडिय़ां बंटी पर किसी को सारी की सारी न मिली. इन सब में भारत की आम औरत, आम गृहिणी, आम आदमी, आम युवा, आम लडक़ी को क्या मिला, सिवाए बाएं हाथ की इंडैक्स ङ्क्षफगर पर काले निशान के.

ये चुनाव पहले के राजाओं के युद्धों की तरह थे जिस में एक जीतता राज करने लगता. या फिर कोई नहीं जीतता और राज पहले की तरह चलता रहता. कहीं भी चुनाव जनता के लिए, जनता द्वारा, उस के सुखों के लिए नहीं थे.

नरेंद्र मोदी ने गुजरात में 30 सभाएं की पर कहीं नहीं कहा कि वह पहले से ज्यादा और अवसर गृहिणियों, युवाओं, लड़कियों को दिलाएंगे. उन्होंने कहीं नहीं कहा कि टैक्स सही होंगे, लोगों के घरों में पैसे बरसेंगे, नौकरियां आएं ऐसी नीतियां बनेंगी. इसलिए नहीं कहा कि वे तो गुजरात में 27 सालों से हैं और जो करना था कर चुके होते.

क्या गुजराती ज्यादा खुश हैं. क्या गुजरात इन 27 सालों में स्वीटजरलैंड या ङ्क्षसगापुर की छोडि़ए, केरल जैसा भी बन पाया. न सवाल उन से पूछा गया, न उन्होंने अपनी ओर से वायदा करने की कोशिश की. अपस्टार्ट अरङ्क्षवद केजरीबाल ने बड़ेबड़े वादे किए क्योंकि वे जानते थे कि उन्हें जीतता तो है नहीं. वे तो कांग्रेस का खेल बिगाडऩे आए थे.

इन चुनावों या आम चुनावों में जनता की रूचि केवल उंगली पर निशान लगाने तक रह गई है क्योंकि 75 सालों में सरकारों ने जो भी किया वह आम जनता का पैसा खींच कर अपने मतलब के कामों में लगाता रहा हैं. सरकारों ने देश की जनता की भलाई के लिए काम किया, जनता को जो मिला वह तकनीक के कारण मिला.

अमेरिका में आम लोगों की मेहनत करने की प्रेरणा सरकारें देतीं हैं. मिथेल ओबामा ने 2012 में बराक ओबामा के दूसरे 4 सालों के चुनावों में यह नहीं कहा कि उन के पति की सरकार प्लेट पर रख कर कुछ देगी. यह कहा कि वह ऐसी सरकार देना चाहते हैं जिस में नौकरियां न जाएं, लोग सुरक्षा महसूस करें, घरों के दीवाले न पिटें, मेहनत का सही मुआवजा मिले.

हमारे किसी भी चुनाव में यह मुद्दा होता ही नहीं है. राम मंदिर बनाएंगे या समाजवाद लाएंगे या पाकिस्तान को सबक सिखाएंगे जैसे महान वाक्य होते हैं जिन का एक घरवाली, उस के पति, उस के छोटे या बड़े बच्चों का दूर से भी लेनादेना नहीं होता. हां उन्हें डरा दिया जाता है कि  वोट हमें ही देना वरना तुम पर कोई पड़ोसी हमला कर देगा, कोई तुम से ज्यादा हो जाएगा, कोई अपने पूजा घर तुम्हारे मोहल्ले में बना होगा.

अफसोस यह है कि देश की औरतों को सोच कर चुनावी बूथों तक ले जाया जाता है पर उस के आगे वे शून्य, जीरो हो जाती हैं. उन्हें मिलता है बस एक निशान जो 2-3 महीने में रंग खो देता है. यही वजह है कि वोङ्क्षटग बूथों की लाइनों में मुरझाए, थके हारे चेहरे दिखते हैं. जीते कोई भी, 75 सालों से जनता अपनी हार का जश्न मनाते देखती रहती हैं.

देश तो आज़ाद हो गया, अब महिलाओं की बारी है

गुजरात में बाबरा पुलिस ने पति की मृत्यु के बाद दोबारा शादी करने की इच्छा रखने वाली महिला पर हमला करने और उसका सिर मुंडवाने के आरोप में मंगलवार को दो महिलाओं और एक पुरुष को गिरफ्तार किया. पुलिस के एक बयान के अनुसार, महिला आरोपी 35 वर्षीय पुधाबेन और 25 वर्षीय सोनालबेन पीड़िता की रिश्तेदार थीं. इनमें से एक पीड़िता की भाभी थी.

पीड़िता का पति नहीं रहा और अपनी इच्छा अनुसार उसने कोर्ट में दूसरी शादी कर ली. यह विकास उसकी पूर्व भाभी को अच्छा नहीं लगा और भाभी ने पीड़िता से उसकी दूसरी शादी को लेकर सवाल किया तो बात तेजी से आगे बढ़ गई. जल्द ही, ननद ने अपने पति और एक अन्य महिला के साथ मिलकर पीड़िता को बेरहमी से डंडों से पीटा और उसका सिर भी मुंडवा दिया.

सूचना मिलने पर मौके पर पहुंची पुलिस ने पीड़िता को अस्पताल पहुंचाया, जहां उसका इलाज चल रहा है. मारपीट में शामिल तीन लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर मामला दर्ज कर लिया है.

भारत में विधवाओं को हमेशा अस्वीकृति और उत्पीड़न के अधीन किया गया है. सती प्रथा शायद सबसे पुराना और सबसे स्पष्ट उदाहरण है. सती एक अप्रचलित भारतीय अंतिम संस्कार प्रथा है जहां एक विधवा से अपेक्षा की जाती थी कि वह अपने पति की चिता पर आत्मदाह कर लेगी.

इसलिए, ईश्वर चंद्र विद्यासागर (एक समाज सुधारक), ने विधवा पुनर्विवाह की वकालत की और प्रस्तावित किया- विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856. गवर्नर-जनरल लॉर्ड कैनिंग ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित किया, जो सामाजिक रूप से उपेक्षित महिलाओं के जीवन में एक प्रकाशस्तंभ था. अधिनियम का उद्देश्य विधवा पुनर्विवाह को न्यायोचित ठहराना और हिंदू समाज में व्याप्त अंधविश्वास और असमानता को खत्म करना था. लेकिन अधिनियम के लागू होने के सालों बाद लोगों की सोच में आज भी महिलाओं को लेकर कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है.

आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रही. उन्हें कभी भी पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं हुए. इसके अतिरिक्त भारतीय संस्कृति में बाल विवाह और जौहर जैसी अन्य सामाजिक कुरीतियाँ भी प्रचलित थीं.

अपने पूरे जीवन में महिलाएं पुरुषों के नियंत्रण में ही रही हैं. बचपन पर पिता का साया रहा और शादी के बाद पति ने जिम्मेदारी संभाली. पति की मृत्यु के बाद भी वह उसके प्रभुत्व से मुक्त नहीं हुई. पुनर्विवाह करना और एक नया जीवन शुरू करना तो सवाल से बाहर है.

दुःख की बात तो यह है कि आखिर मेडिकल साइंस और इंजीनियरिंग में तेज़ी से तरक्की करने वाले इस देश में महिलाओं को आज भी इतना निम्न समझा जाता है. अधिकार होने के बावजूद भी उनको ये सब सहना पड़ता है. आखिर वह समय कब आएगा जब औरतों के साथ अत्याचार बंद होंगे? क्योंकि तभी हमारा देश पूर्ण रूप से विकसित कहलाएगा. आज भी अपने समुदायों द्वारा अस्वीकृत और अपने प्रियजनों द्वारा परित्यक्त, हजारों हिंदू महिलाएं वृंदावन के लिए अपना रास्ता बनाती हैं, एक तीर्थ शहर जो बीस हज़ार से अधिक विधवाओं का अब घर है. क्या उन्हें पुनर्विवाह करने का हक समाज ने अभी तक नहीं दिया है?

सरकार की हुई जमीन

दिल्ली में बहुत सी जमीन केंद्र सरकार की है जिसे अरसा पहले सरकार ने खेती करने वाले किसानों से कौढिय़ों के भाव खरीदा था. इस में बहुत जगह कमॢशयल प्लाट बने हैं, छोटे उद्योग लगे हैं. रिहायशी प्लाट कट कर दिए गए हैं. जिन कीमतों पर जमीन इंडस्ट्री, दुकानों या घरों को दी गई उस से थोड़ी कम कीमत पर स्कूलों, अस्पतालों, समाजसेवी संस्थाओं को दी गई. यह जमीन दे तो दी गई पर केंद्र सरकार का दिल्ली डेबलेपमैंट अथौरिटी उस पर आज भी 50-60 साल बाद भी कुंडली लगाए भी बैठा है जबकि उद्योग चल रहे है, दुकानें खुली, लोग रह रहे है स्कूल अस्पताल चल रहे हैं.

उस का तरीका है लगे होल्ड जमीन. डीडीए ने आम बिल्डरों की तरह एक कौंट्रेक्ट पर सब आदमियों से साइन करा रखे है कि कौंट्रेक्ट, जिसे सब लोग कहते हैं, कि किसी भी धारा के खिलाफ काम करने पर अलौटमैंट कैंसिल की जा सकती है चाहे कितने ही सालों से वह जमीन अलाटी के पास हो.

ऐसा देश के बहुत हिस्सों में होता है और लीज होल्ड जमीनों पर आदमी या कंपनी या संस्था खुद की पूरी मालिक नहीं रहती. नियमों को तोडऩे पर जो परोक्ष रूप में सरकार के खिलाफ कुछ बोलने पर भी होता है. इस धारा को इस्तेमाल किया जाता है. बहुत से लोग इस आतंक से परेशान रहते हैं.

जहांं भी लीज होल्ड जमीन और अलादी सब लीज के बंधनों से बंधा है वहां खरीदफरोक्त, विरासत में, भाइयों के बीच विवाद में अलौट करने वाला. सरकारी विभाग अपना अडग़ा अड़ा सकता है. 40-50 साल पुरानी शर्तें आज बहुत बेमानी हो चुकी हैं. शहर का रहनसहन तौरतरीका बदल गया है. कामकाज के तरी के बदल गए है पर लीज देने वाला आज भी पुरानी शर्तों को लागू कर सकता है.

कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने इन्हीं लीज की शर्तों के आधार पर काफी सारा दिल्ली का व्यापार ठप्प करा दिया था कि रहायशी इलाकों में दी गर्ई जमीन पर कमॢशयल काम नहीं हो सकता. चाहे यह सिद्धांत 40-50 साल पहले ठीक रहा हो पर आज जब दुकानों की जरूरत है तो चांदनी चौक के रिहायशी कटरे भी दुकानों में बदल गए हैं और खान मार्केट के भी. और शहरों में भी ऐसा हो रहा है लखनऊ के हजरतगंज में ऊपरी मंजिलों में घर गायब हो गए हैं. जयपुर की सी स्कीम में बड़ी घरों की जगह माल बन गए हैं.

सरकारी दफ्तर फिर भी पुराने अधिकार छोडऩे को तैयार नहीं है क्योंकि यह कमाई का बड़ा साधन है. दिल्ली में एक अस्पताल का 1995 में अलौटमैंट कैंसिल कर दिया गया कि वह अस्पताल शुरू करने वालों ने दूसरों को बेच दिया गया जबकि अस्पताल की संस्था वही थी, बस मेंबर बदले गए थे. ट्रायल कोर्ट ने डीडीए का पक्ष लिया पर उच्च न्यायालय ने मामला खारीज कर दिया कि मेंबर बदलना, बेचना नहीं है.

असल में सरकारों को आम आदमी की ङ्क्षजदगी में जितना कम हो उतना ही रहना चाहिए. जब तक वजह दूसरों का नुकसान न हो, सरकार नियमों कानूनों का हवाला दे कर अपना पैसा नहीं वसूल सकती.

देश की सारी कृषि भूमि पर सरकार ने परोक्ष रूप से कुंडली मार ली है. उसे सिर्फ कृषि की भूमि घोषित कर दिया गया है. उस पर न मकान बन सकते है न उद्योग लग सकते है जब तक सरकार को मोटी रकम न दी जाए. सरकारको कृषि योग्य जमीन बचाने की रुचि नहीं है, वह सिर्फ कमाना चाहती है. चेंज इन लैंड यूज के नाम पर लाखों करोड़ों वसूले भी जाते हैं, और मनमानी भी की जाती है. अगर पैसा बनाना हो तो 10-20 साल आवेदन को जूते घिसवाए जा सकते हैं.

अब जमीनें औरतों को विरासत में मिलने लगी हैं. उन्हें इन सरकारी दफ्तरों से निपटना पड़ता है. उन को हर तरह से परेशान किया जाता है. तरहतरह के दयाल पैदा हो गए हैं. हर तरह के ट्रांसफर पर आपत्ति लगा दी जाती है. बेटियों के लिए पिता की संपत्ति एक जीवन जंजाल बन गया है जिसे न निगला जा सकता है न छोड़ा जा सकता है क्योंकि सरकारी सांप गले में जा कर फंस जाता है.

लिवइन रिलेशनशिप: सही या गलत?

लिवइन रिलेशनशिप को सब से बड़ा नुकसान यह है कि लडक़ी को हमेशा यह संदेह रहता है कि अगर पार्टनर छोड़ कर चला गया तो वह आॢथक रूप से कमजोर हो जाएगी. लिवइन रिलेशन शिप भी शादी की तरह ही होते है जिन में लडक़ा ज्यादा कमाता है और घर खर्च का भार उठाता है अगर मकान, गाड़ी व्यवसाय लडक़े के नाम हो तो कुछ दिन बाद पार्टनर को ङ्क्षचता होने लगती है कि चाहे वह कमाऊ क्यों न हो, अलग हो जाने के बाद वह लिङ्क्षवग स्टैर्ड नहीं रख सकेगी जो पार्टनर के साथ रहने पर मिलता है और वहीं उसे हक भी न मिलेगा.

लिवइन जोड़ों में ये झगड़े बढऩे लगे हैं और पूनावाला व श्रद्धा का मामला उन में से एक है जिस की जड़ में फाइनेंशियल इनस्क्यिोरिटी रही लिवइन समझौता लड़कियों के लिए बहुत खतरनाक है तो केवल इसलिए कि दोनों मिल कर जो कमाते है उस से जो लाइफ स्टाइल मिलता है वह एक की कमाई से नहींं मिल सकता. पार्टनस में पैस को ले कर झगड़ा इसलिए आम बात है.

इस का कोई आसान हल नहीं अदालतों ने लड़कियों के दरवाजे खटखटाने पर लिवइन रिलेशनशिप के बावजूद उन्हें मैंनटेनैंस देनी शुरू कर दी है पर इस का कानूनी आधार नहीं है इस पर आपत्ति इसलिए नहीं होती कि लडक़ी जब अदालत का दरवाजा खटखटाती तो वाकई बुरी हालत में होती है.

लिवइन रिलेशनशिप को कानूनी जामा पहनाना भी गलत होगा क्योंकि यह लडक़ेलड़कियों की स्वतंत्रता को खत्म कर देगा. कुछ मामलों में हत्या तक बात पहुंच जाए केवल इसीलिए इन कच्चे संबंध पर लिमेंट पोतना भी संबंधों से फ्रीडम छीनना होगा.

यह तो मामला समझदारी का है. लिवइन में रहने वाले हरेक  को अपनी हैसीयत समझनी चाहिए और संबंध कभी भी टूट जाए, इस की तैयारी करते रहना चाहिए. लिवइन में पार्टनर में आंख मूंद कर भरोसा गलत होगा. लिवइन में फाइनेंस अलग रखे जाए और खर्चें इस तरह बढ़ा नहीं लिए जाए कि दो को अलग रहना तो मुश्किल हो जाए. लिवइन रिलेशनशिप एक ऐसी पार्टनरशिप है जिस में ट्रेन में एक कूपे में सफर करने वाले होते साथसाथ है पर अपना खर्च संपत्ति अलग रखते हैं.

लिवइन को बिना कानूनी आधार वाली आजाद शादी की शक्ल देना गलत है. शादी में ढेरों बंधन हैं जो सदियों से समाजों ने चाहे मनचाहे लगाए हैं. लड़कियों को यह समझ देर से आती है क्योंकि उन का माहौल और उन्हें जानकारी तो उन से मिलती है जो शादीशुदा है. वे ही बेचैन होती हैं. वे ही रिलेशनशिप को पक्का करने पर विवाद करती हैं, वे आमतौर पर पैसे के बारे ङ्क्षचतित रहती हैं.

एक ट्रेन जहां चलती हैं लेडी डौन की

‘‘अरे हटोहटो मु?ो अंदर आने दो… नहीं उतरो आंटी, क्या यही एक ट्रेन है, जो अंतिम है, उतरो, उतर जाओ जगह नहीं है, दूसरी में चढ़ जाना 3 से 4 मिनट में एक लोकल ट्रेन आती है, फिर भी घर जाने की जल्दी में इसी में चढ़ना है…’’ ऐसी कहे जा रही थी, मुंबई की विरार लेडीज स्पैशल में एक युवा महिला, चढ़ने वाली 45 वर्षीय महिला को, जिसे हर रोज इसे सुनना पड़ता है, लेकिन घर का बजट न बिगड़े, इसलिए इतनी मुश्किलों के बाद भी वह जौब कर रही है, हालांकि कोविड के बाद उसे केवल 3 दिन ही औफिस आना पड़ता है, लेकिन इन 3 दिनों में औफिस आना भारी पड़ता है. कई महिलाएं भी उस दबंग महिला की हां में हां मिला रही थीं और उस महिला को उतरने के लिए कह रही थीं.

अबला नहीं सबला है यहां

यहां यह बता दें कि विरार लेडीज स्पैशल रोज चर्चगेट से चल कर हर स्टेशन पर रुकती हुई विरार पहुंचती है, लेकिन उतरने वालों से चढ़ने वालों की संख्या हमेशा अधिक रहती है. गेट के एक कोने में खड़ी महिला गोरेगांव उतरने का इंतजार कर रही थी, लेकिन वह मन ही मन सोच रही थी कि क्या वह उतर पाएगी क्योंकि इस विरार लेडीज स्पैशल में बोरीवली तक की किसी महिला यात्री को चढ़ने या उतरने नहीं दिया जाता क्योंकि बोरीवली लेडीज स्पैशल है, इसलिए विरार महिलाओं के कई गैंग, जो इस बात का इतमिनान करते हैं कि बोरीवली तक उतरने वाली कोई महिला इस ट्रेन में चढ़ी है या नहीं.

4-5 महिला गैंग, जिन में 7-8 महिलाएं हर 1 गैंग में होती हैं. अगर गलती से भी कोई महिला इस लोकल में चढ़ जाती है तो उसे ट्रेन के गैंग विरार तक ले जाते हैं. यहां यह सम?ाना मुश्किल होता है कि अबला कही जाने वाली महिला इतनी सबला कैसे हो गई.

कठिन सफर

असल में मुंबई की लोकल ट्रेन यात्रा के उस एक घंटे में एक महिला ही दूसरी महिला की शत्रु बन जाती है. मायानगरी की भागदौड़ में घरपरिवार के साथ कैरियर को भी संवारने का दबाव महिलाओं पर होता है. सुबह कार्यालय पहुंचने की जल्दी और शाम को घर लौटने की, इस के लिए महिलाएं बहुत कुछ ?ोलती हैं.

इस में सब से दुखदायी है औफिस से घर पहुंचने के लिए मुंबई से विरार की ट्रेन यात्रा, जहां महिला डब्बे में महिलाएं ही दूसरी महिलाओं की शत्रु बन जाती हैं. मुंबई से विरार के बीच की इस ट्रेन यात्रा में महिलाओं के गैंग का बोलबाला रहता है.

ऐसे में कई बार कई महिलाओं ने अपनी नासम?ा से जान तक गवां दी. सुबह निकली महिला चल कर नहीं, स्ट्रेचर पर मृत अवस्था में घर पहुंचती है. यहां सीट भी उन्हीं महिलाओं को मिलती है, जो उस महिला गैंग की सदस्य होती हैं अन्यथा कुछ भी कर लें, आप को मारपीट से ले कर अपनी जान भी गवानी पड़ सकती है.

दमदम मारपीट

ऐसी ही एक घटना घटी पिछले दिनों ठाणे पनवेल लोकल ट्रेन के महिला कोच में. तुर्भे स्टेशन पर सीट खाली होने पर एक महिला यात्री ने दूसरी महिला यात्री को सीट देने की कोशिश की, ऐसे में तीसरी महिला ने उस सीट को कब्जा करने की कोशिश की, पहले तीनों में बहस हुई, बाद में बात इतनी बढ़ी कि वे आपस में मारपीट करने लगीं. कुछ देर बाद मामला इस कदर बढ़ गया कि महिलाओं में बाल खींचना, घूंसा, थप्पड़ तक शुरू हो गए. इस मारपीट में महिला पुलिस आ गई. इस मामले में दोनों महिलाओं ने एकदूसरे के खिलाफ मामला दर्ज कराया. महिला पुलिस सहित करीब 3 महिलाएं इस विवाद में घायल हुईं.

वाशी रेलवे स्टेशन के वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक एस कटारे ने जानकारी देते हुए बताया कि सीट को ले कर शुरू हुए विवाद में कुछ महिलाओं ने आपस में मारपीट की थी. इस मारपीट में एक महिला पुलिसकर्मी भी घायल हो गई. उस का इलाज कराया गया. इस के अलावा सरकारी कर्मचारी से मारपीट करने की वजह से एक महिला को गिरफ्तार भी किया गया.

शिकायत नहीं मुंबई लोकल के ट्रेन के इस सफर में बहस, मारपीट, कपडे़ फाड़ना, धक्के देना आदि होते रहते हैं, लेकिन सही तरह से वही महिला इन लोकल्स में सफर कर पाती है, जो झगडे़ से अलग किसी कोने में खड़ी रह कर अपने पसंद के गाने हैड फोन के द्वारा सुनते हुए खुश रहे. इन लोकल्स में सीट मिलना संभव नहीं और कोई आप को सीट छोड़ देने को कहे, तो हंसती हुई तुरंत सीट छोड़ कर खड़ा हो जाना ही ठीक रहता है ताकि आप सही सलामत अपनी जान ले कर घर पहुंच

Winter Special: रस्मों का जंजाल महिला है बेहाल

हमारे देश में पूरे वर्षभर किसी न किसी त्योहार की धूम रहती है. 4 बड़े मुख्य त्योहारों के अतिरिक्त विभिन्न राज्यों में कई छोटेछोटे त्योहार भी मनाए जाते हैं. त्योहारों के अतिरिक्त कई व्रत एवं उपवास भी होते हैं जिन्हें कुंआरी एवं विवाहित दोनों ही तरह की शिक्षित, अल्पशिक्षित एवं अशिक्षित सभी प्रकार की महिलाएं करती हैं. यों तो ये व्रतत्योहार, उपवासउद्यापन  एक प्रकार से सामाजिक मेलमिलाप का एक माध्यम हैं, किंतु इन के पीछे छिपी कई समस्याएं भी हैं. इस विषय पर कुछ महिलाओं से की गई बात के कुछ अंश यहां साझोकर रही हूं.

फिफ्टीफिफ्टी सी बात

45 वर्षीय अर्चना से जब इस विषय पर बात हुई तो वह कहने लगी, ‘‘हम तो मारवाड़ी हैं, हमारे यहां कई प्रकार के त्योहार एवं व्रतउपवास होते हैं, जिन में अपने रिश्तेदारों से सजधज कर मेलमिलाप होता है. खानाखिलाना भी खूब होता है. फिर घरेलू महिला हूं तो इस बहाने सजधज भी लेती हूं वरना वही रोज का चूल्हाचौका एवं साफसफाई. अकसर ये सारे व्रत विवाहोपरांत पति की लंबी आयु, परिवार में समृद्धि एवं शांति के लिए किए जाते हैं.

‘‘18 वर्ष की उम्र में मेरा विवाह हुआ था और मैं इतने बरसों से ये सब कर रही हूं. लेकिन मेरे पति विवाह पूर्व ही लड़कियों से बहुत आकर्षित होते थे. मातापिता ने इन का 23 वर्ष की उम्र में ब्याह कर दिया कि लड़का कहीं हाथ से न निकल जाए. लेकिन विवाहोपरांत भी ये नहीं सुधारे. और तो और हमारा फैमिली बिजनैस था जो ससुरजी ने जमाया हुआ था, वह भी नहीं संभाला. ससुरजी तो चल बसे और ये ठहरे इकलौते बेटे, इन से न तो घर संभाला न ही व्यापार. बस जहां कोई भी लड़की खूबसूरत या बदसूरत देखी  कि लगे मुंह मारने.

‘‘अब तो जी चाहता है कि करवाचौथ का व्रत ही छोड़ दूं क्योंकिजो पति जिम्मेदारी न उठाए उस के लिए व्रत कैसा. लेकिन लोकलाज के चलते कर रही हूं क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो मेरी सास तो मानो जीतेजी ही मर जाएगी.

‘‘घर में दुकान है, जिसे मैं संभालती हूं, साथ ही सिलाईकढ़ाई भी करती रहती हूं. विवाह होते ही मैं ने कहा था मु?ो बुटीक खुलवा दो पर किसी ने सुनी नहीं. मैं फालतू के रीतिरिवाजों में लगी रही इस के बजाय आय का कोई साधन जुटाती तो अच्छा रहता.’’

औफिस में मैनेजर थी अब घर की गुलाम   

39 वर्षीय विपाशा कहती है, ‘‘31 वर्ष की उम्र में मेरा विवाह हुआ. एक अच्छी कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत थी. जब विवाह हुआ तो मेरी आय पति के बराबर थी. पति एवं ससुर भी अच्छी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं. इसलिए अपनी नौकरी छोड़ कर जब इन के शहर और परिवार में आई तो शायद इन्हें मेरी नौकरी से कोई वास्ता नहीं था. मैं ने नए शहर में नौकरी के लिए खोज शुरू कर दी.

‘‘कुछ अवसर प्राप्त भी हुए तो ससुर बोले कि हम लगवा देंगे कहीं अच्छी जगह. इधर सास बहुत  ही कम पढ़ीलिखी एवं अंधविश्वासी महिला हैं. सो मु?ो न जाने कितने रस्मोरिवाज में उल?ाए रखती हैं. साथ में यह भी कहती हैं कि तू तो पहले पढ़तीलिखती, नौकरी ही करती रही तो घर संभालना क्या होता है तू क्या जाने. पहले तु?ो मैं  वह सब सिखाऊंगी.’’

3 वर्ष इसी तरह बीत गए और एक बेटा भी पैदा हो गया. न तो वह बच्चे की जिम्मेदारी लेते हैं और न ही पति मेरा साथ देते हैं. बच्चे को भी वे पुराने ढर्रे के अनुसार ही रखते हैं. कई बार पति से कहा भी कि यह कैसा माहौल है, किंतु वे चाहते हैं कि मैं उन की मां के अनुसार चलूं. यदि उन की किसी बात की अनदेखी करूं तो घर में कुहराम मच जाता है. जैसे उन के द्वारा किए गए ढकोसले ही उन के पति की तरक्की की जड़ हैं.

कई बार महसूस होता है कि फिर इतना पढ़नालिखना किस काम का. विवाहपूर्व भी  मौजमस्ती नहीं की कि पढ़ाई करनी है और विवाह उपरांत ये ढकोसले. ऐसा महसूस होता है कि इन्हें जगत दिखावे के लिए पढ़ीलिखी लड़की चाहिए थी बस, पर रखते तो मु?ो अनपढ़ों जैसे ही हैं. वर्षभर के व्रतत्योहार, उपवास आदि में लगी

रहती हूं.

‘‘दुख की बात यह है कि बड़ी विचित्र महिला हैं मेरी सास. कहती हैं कि साड़ी तो जरीगोटा की पहनो बहू. पर यदि अपने ब्याह के गहने पहनना चाहूं तो कहती हैं कोई खींच लेगा आर्टिफिशियल पहन लो. किसी भी तरह का अपना शौक तो पूरा कर ही नहीं सकती हूं. हालांकि मु?ो ये सब पसंद नहीं पर परिवार की शांति के लिए करना पड़ रहा है. कभीकभार ऐसा महसूस होता है जैसे पूरा परिवार अपनी मनमरजी से रहता है और मैं यहां इन की गुलाम हूं.’’

आंख फूटी पीड़ा मिटी

मुंबई में रहने वाली स्मिता कहती हैं,

‘‘50 वर्षीय हूं. जब विवाह हुआ तो 7 वर्ष इंजीनियर के पद पर नौकरी कर चुकी थी. पिताजी के घर में न तो कोई बंदिश थीं और न ही अंधविश्वासी मान्यताएं. मुंबई जब रिश्ते की बात चली तो सोचा बड़ा शहर है, नौकरी के अवसर भी ज्यादा मिलेंगे. पति भी बहुत खुले विचारों के मिले. लेकिन परिवार के अन्य सदस्य बहुत ही दकियानूसी विचारों के थे. मजे की बात यह कि उन के स्वयं के लिए कोई नियम कायदाकानून नहीं था और मेरे लिए एक लंबी सूची थी रस्मोंरिवाजों और नियमों की.

‘‘मेरी सास रोज सुबह 9 बजे सो कर उठती. 12 बजे नहाती, चार बजे लंच बनता और रात को 1 बजे हम खाना खा कर सोते. परिवार में ससुर, देवर, पति 3 जने नौकरी वाले थे, जिन के टाइमटेबल के अनुसार मु?ो रसोई और घर की व्यवस्था भी करनी होती जिस में सास का कोई सहयोग न मिलता. लेकिन अमावस के दिन सास सुबह जल्दी नहाधो कर खीर बना लेती और कोई भोग लगाती.

‘‘मु?ो यह अमावस, पूनम तिथियां ध्यान नहीं रहती थीं क्योंकि मायके में ये सब ज्यादा देखासुना नहीं था. दुख की बात यह थी कि सास मु?ो पहले से बताती भी नहीं और फिर बाद में ताना मारती. सालभर के कुछ व्रतउपवास मैं ने किए भी, लेकिन वह हरेक में कुछ न कुछ कमी  निकाल कर घर में ?ागड़ा करती.

‘‘मैं कोशिश करती कि घर में इन बातों को ले कर कोई ?ागड़ा न हो तो सास से पहले से ही पूछती कि यह कैसे करना है. तो भी वे ताने देती और एक दिन ससुर ने मु?ो 12 मास के व्रतत्योहार की पुस्तक ला दी. मैं ने वह पुस्तक पढ़ कर व्रत रख कर रस्में करना शुरू किया. लेकिन फिर भी सास का मुंह तो बना ही रहता.

‘‘मु?ो मन ही मन बहुत अखरता कि कहां इन जंजालों में फंसी हूं. सब से ज्यादा बुरा तब लगा जब करवाचौथ थी. सास ने मु?ो मेहंदी लगाने का भी समय नहीं दिया. हर दिन घर का सारा कम मुझोपर डाल देती और त्योहारों पर भी सजधज करने का जैसे कोई मतलब ही न होता. हर त्योहार पर रीतिरिवाजों को ले कर घर में ?ागड़ा होता. यदि मैं कुछ पूछती तो ब्लैकमेल करती कि मैं तु?ो बताऊंगी ही नहीं, फिर तू कैसे करेगी. जबकि वह स्वयं ही नवरात्रों में प्याज की टोकरी रसोई  से बाहर करवाती.’’ और पानीपूरी के शौकीन मेरे पति और देवर जब घर में हे पानी पूरी का इंतजाम कर लेते तो उनसे रहा न जाता और खा लेतीं. इतना कह वे ठहाका मार कर हंसने लगीं.

‘‘मेरे लिए तो वैसे भी इन ढकोसलों की कोई अहमियत नहीं थी सो पलट कर जवाब दे दिया कि आप क्या नहीं बताएंगी, मैं करूंगी ही नहीं. सो मैं ने वही किया न व्रतउपवास करूंगी और न ही रस्में होंगी. तो फिर सास कमी भी कैसे निकलेगी.

‘‘सब छोड़छाड़ दिया और अपने पति के व्यापार में हाथ बंटाना शुरू किया. जब बेटा पैदा हुआ तो उस के साथ व्यस्त रही और उस के बड़े होने पर अपना फैमिली बिजनैस देखने लगी.’’

महिलाएं अपना समय उत्पादक काम में दें

इन उदाहरणों से यह समझोआता है कि जो व्रतउपवास या त्योहार मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के फायदे के लिए बनाए गए हैं उन में झठे रीतिरिवाज के ढकोसले घुसेड़ कर सिर्फ महिला ही नहीं अपितु पूरे परिवार के लिए तनाव का माध्यम बना दिए क्योंकि पुरुषों को तो करने नहीं पड़ते इसलिए उन्हें इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. वे सोच लेते हैं सासबहू की आपसी लड़ाई है. लेकिन यह सिर्फ लड़ाई नहीं होती है बल्कि परिवार में आई नई बहू को दबा कर रखने की चालें होती हैं.

इस तरह की हरकतों से न सिर्फ उन का मोरल डाउन किया जाता है बल्कि यह भी दिखाया जाता है कि जैसे ससुराल वाले तो सर्वगुणसंपन्न हैं और बहू तो जैसे उन पर कलंक है जिसे समाज की रीतियां नहीं आतीं, जबकि हरेक प्रांत एवं जाति के रीतिरिवाजों में जगह, पसंद एवं समय के अनुसार बदलाव हुए हैं. लेकिन परिवार के बड़े जिन्हें अपने से छोटों को बरगद की सी छांव देनी चाहिए इन ढकोसलों के माध्यम से उन्हें अपनी आकांक्षाओं का शिकार बनाते हैं.

महिलाएं इतनी मेहनत इन रूढि़यों एवं फालतू की रस्मों को सीखने एवं निभाने में करती हैं उस के बजाय कुछ उत्पादक कार्य करे जैसे यदि पढ़ीलिखी है तो व्यापार या नौकरी, अनपढ़ या कम पढ़ीलिखी है तो कोई हाथ का काम करे तो घर में कुछ आर्थिक मदद मिले. यदि ये सब न करे तो अपने बच्चों की परवरिश अच्छे तरीके से करे. उन के साथ समय बिताए, उन के साथ खेलेकूदे, उन्हें स्वास्थ्य संबंधी जानकारी दे तो निश्चितरूप से वे बच्चे एवं परिवार स्वस्थ, सुंदर एवं शांतिपूर्ण होगा और फिर 1-1 परिवार मिलकर ही तो देश का निर्माण करता है.

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