घरेलू कामगार दर्द जो नासूर बन गया 

पूछा गया था कि लौकडाउन खत्म होने के बाद आप किस से मिलना चाहेंगी? तो अधिकतर महिलाओं ने कहा था कि कामवाली से. बेशक, क्योंकि वर्क फ्रौम होम से ले कर घर और बाई का काम भी महिलाओं के सिर पर आ पड़ा. सच कहें तो घरेलू कामगारों के बिना शहरी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. पतिपत्नी दोनों बाहर जा कर आर्थिक गतिविधियों में संलग्न हो पाते हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि उन के घर को संभालने का जिम्मा घरेलू कामगार के हाथ में होता है. लेकिन आज वही लोग यह शर्त रख रहे हैं कि जब तक बाई अपना कोविड-19 नैगेटिव सर्टिफिकेट नहीं दिखाती, वे उसे अपने घर काम पर नहीं रख सकते हैं.

कामगार संगठन इस तरह की सोच को गलत मानते हैं कि सिर्फ गरीब ही कोरोना फैला सकते हैं. राष्ट्रीय घरेलू कामगार संगठन की राष्ट्रीय संयोजक क्रिस्ट्री मैरी बताती हैं कि कुछ सोसाइटी में टैस्ट रिपोर्ट लाने के लिए बोला जा रहा है. उस के बाद तभी काम की अनुमति देंगे जब मेड उन के साथ घर में ही रहे. आनेजाने की अनुमति नहीं दे रहे हैं. लेकिन 24 घंटे किसी के घर रहना मुश्किल है, क्योंकि उन का भी अपना परिवार है. एक से ज्यादा घरों में काम करने वाली मेड को भी मना कर रहे हैं. 60 साल से ज्यादा उम्र के घरेलू कामगारों को तो बिलकुल इजाजत नहीं दे रहे हैं.

संगठन का कहना है कि कोरोना से संक्रमित तो कोई भी हो सकता है. मेड, थर्मल स्क्रीनिंग, लगातार हाथ धोने, दूरी बनाए रखने जैसे सुरक्षा उपायों के लिए तैयार हैं. फिर भी उन्हें कोई काम पर रखने को तैयार नहीं है, क्योंकि उन्हें डर है कि मेड के घर आने से वे कोरोना संक्रमित हो सकते हैं, ऐसे में इस से अच्छा है खुद ही काम कर लिया जाए.

42 वर्षीय मंजू बेन, अहमदाबाद में सोसाइटी के कई घरों में झाड़ूपोंछा और बरतन धोने का काम करती थी. लेकिन कोरोना की वजह से उस का काम छूट गया. जब अनलौक हुआ तो उम्मीद जगी कि शायद उसे अब काम पर बुला लिया जाएगा. मगर किसी ने उस का फोन नहीं उठाया और न ही काम पर बुलाया. जब वह खुद बात करने गई तो वाचमैन ने बाहर ही रोक दिया. जब सोसाइटी के सैक्रेटरी से फोन पर बात की, तो उन्होंने साफ कह दिया कि अभी बाई का आना मना है. अगर उस की वजह से यहां किसी को कोरोना हो गया तो इस की जिम्मेदारी कौन लेगा? उस के कहने का मतलब था कि उस के यहां काम करने से कोरोना होने का खतरा बढ़ सकता है.

ये भी पढ़ें- महिलाओं के लंबे बाल चाहत है पाखंड नहीं 

ऐसा कब तक चलेगा

मंजू बेन का पति एक फैक्टरी में काम करता था, जो कोरोना की वजह से बंद पड़ी है. घर में खाने वाले 4-5 लोग हैं पर कमाने वाला कोई नहीं. किसी तरह उधार ले कर घर चल रहा है, पर ऐसा कब तक चलेगा, कहा नहीं जा सकता. लौकडाउन में काम बंद होने के कारण परिवार की स्थिति दयनीय हो चुकी है.

लोगों के घरों में काम करने वाली भारती कहती है कि मार्च के दूसरे हफ्ते से ही मुझे पैसों की तंगी शुरू हो गई. जिन के घर काम करती थी, उन्होंने सिर्फ आधे महीने का पैसा दे कर चलता कर दिया. कहा जब फिर से काम पर बुलाना होगा, फोन कर देंगे. लेकिन अभी तक कोई फोन नहीं आया. मतलब यही कि उन्हें हमें काम पर नहीं रखना है अब. मुझे पता नहीं कि सरकार हम जैसों के बारे में क्या सोच रही है या सोच भी रही या नहीं. ये सब कहते हुए भारती की आंखें गीली हो गईं.

डोमैस्टिक वर्कर्स सैक्टर स्किल काउंसिल के एक सर्वेक्षण में कहा गया कि जहां लगभग 85% घरेलू कामगारों को लौकडाउन अवधि के दौरान का वेतन या मजदूरी नहीं मिली वहीं 23.5% घरेलू कामगार काम छूट जाने के कारण अपने मूल स्थान यानी अपने गांव लौट गए, जबकि 38% घरेलू कामगारों ने बताया कि उन्हें भोजन का इंतजाम करने में गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा. लौकडाउन की अवधि में जिंदा रहने के लिए लगभग 30% लोगों के पास फूटी कौड़ी नहीं थी.

यह सर्वेक्षण आठ राज्यों में अप्रैल महीने में किया गया था. जिन में, दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, तमिलनाडु शामिल थे. पूरे भारत में केवल 14 राज्यों ने ही घरेलू श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी को अधिसूचित किया है. इन राज्यों में घरेलू या कामगार अपनी समस्याओं के निदान के लिए शिकायत दर्ज कर सकते हैं. लेकिन राष्ट्रीय राजधानी सहित बाकी राज्यों में उन के पास ऐसा कोई अधिकार या सहारा नहीं है. इसलिए उन के लिए कानूनों में एकरूपता की आवश्यकता है.

घरेलू मेड और इन लोगों को काम देने वाले परिवार एकदूसरे पर निर्भर हैं. आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए ये आजीविका का एक जरीया हैं. कुछ लोग तो चाहते हैं कि उन की मेड काम पर लौटे, पर सोसाइटी के प्रबंधक इस बात के लिए अब भी तैयार नहीं हैं, क्योंकि कोरोना के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं. लौकडाउन के बाद दीपा ने अपनी बाई को बुला तो लिया काम पर, पर कुछ दिन बाद फिर निकाल दिया यह बोल कर कि कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, अभी मत आओ.

एक सर्वे के अनुसार, 80% लोगों ने कहा कि घरेलू हैल्पर पर फिलहाल रोक रहे. सिर्फ 10% लोगों ने उन के आने का समर्थन किया.

एक अपार्टमैंट के मैनेजर का कहना है कि ज्यादातर घरेलू हैल्पर छोटी बस्तियों से आते हैं और वहां कोरोना के मामले ज्यादा पाए जाते हैं, इसलिए अभी इन्हें नहीं आने देना ही सही है. हालात सुधरेंगे तो फिर बुला लेंगे. लेकिन अगर हैल्पर 24 घंटे घर में ही रहने को तैयार हैं, तो उन्हें मनाही नहीं है.

भेदभाव की शिकार

मुंबई के चार बंगला इलाके की नीता कहती है कि जिन घरों में वह काम करने जाती है, कोरोना उन लोगों से नीता को भी तो हो सकता है. बाहर तो वे लोग भी जाते हैं. हमें भी डर है कि हमें उन से कोरोना हो जाएगा और यह सही है कि हमारी वजह  से उन को भी हो सकता है. यह तो किसी को किस से भी हो सकता है. फिर हमारे साथ ही भेदभाव क्यों?

नीता आगे कहती है कि मालिकों का कहना है कि अगर बाई काम करने आएगी, तो सब से पहले उसे बाथरूम में जाना होगा. वहीं साफ कपड़े रखने होंगे ताकि नहा कर उन्हें पहना जा सके. फिर गलव्स, मास्क लगा कर सेफ्टी से कामकाज शुरू करना होगा. कई घरों में हम सालों से काम कर रहे हैं. क्या उन्हें नहीं पता कि हम साफसुथरे हैं. रोज नहा कर उन के घर काम करने आते हैं और आते ही सब से पहले साबुन से हाथ धोते हैं.

ये भी पढ़ें- देश के करोड़ों बधिरों की मांग, आईएसएल बनें देश की 23वीं संवैधानिक भाषा

घरेलू कामगार संगठन की राष्ट्रीय संयोजक क्रिस्ट्री मैरी कहती हैं कि कई मेड को उन लोगों से कोरोना हुआ, जहां वे काम करने जाती थी. कुछ घरेलू कामगारों की ऐसे में जान भी गई है. फिर भी वे काम पर जाने को तैयार हैं. वे हर तरह के सुरक्षा उपाय करने को तैयार हैं, फिर भी हाउसिंग सोसाइटी के दरवाजे उन के लिए खोले नहीं जा रहे हैं. काम पर न लौट पाने की वजह से घरेलू कामगार मुश्किल आर्थिक स्थिति से गुजर रहे हैं. उन के पास किराया देने के पैसे नहीं हैं, घर में राशन नहीं है, बच्चों की फीस भरने के लिए पैसे नहीं हैं.

कौन सुनेगा दर्द

पश्चिमी मुंबई के जोगेश्वरी इलाके में रहने वाली अमीना कहती है कि वह 3 घरों में काम करती थी. कोरोना की वजह से उस का काम रुक गया. 2 महीने से पगार नहीं मिली. सिर्फ एक घर से पगार मिली. उसी से जैसेतैसे घर चला रही है. घर में 3 बच्चे हैं और पति का 3 साल पहले इंतकाल हो गया था. उस के साथ कई महिलाओं को कहीं से भी पगार नहीं मिली.

उस की एक सहेली अंधेरी का ही एक सोसाइटी में काम करती थी. काम बंद हुआ तो पगार रुक गई. बस्ती में बंटने वाला राशन भी उसे नहीं मिला. उस के बाद उस की सहेली ने अपने बच्चों के साथ फांसी लगा ली.

हालांकि, कई मेड को यह उम्मीद है कि उन्हें काम पर बुला लिया जाएगा. गाजियाबाद की एक सोसाइटी में काम करने वाली कमलेश कहती है कि 10-15 दिन और देखते हैं, नहीं तो वह अपने गांव लौट जाएगी, क्योंकि कब तक ऐसे चलता रहेगा.

बता दें कि देशभर में घरेलू कामगारों की संख्या 50 लाख से भी ज्यादा है. इस साल संसद के शीतकालीन सत्र में केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने लोकसभा में बताया था कि केंद्र सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है. हालांकि, उन्होंने एनएसएसओ (2011-12) के सर्वेक्षण के हवाले से बताया था कि निजी परिवारों में काम करने वाले घरेलू कामगारों की संख्या  39 लाख है, जिन में 26 लाख महिला कामगार हैं.

अधिकतर घरेलू कामगार, गांवदेहातों से या छोटे शहरों से यहां काम करने आते हैं, जो ज्यादातर अशिक्षित या कम पढ़ेलिखे होते हैं. ये 4-5 घरों में काम कर के महीने के 8-10 हजार रुपए कमा लेते हैं. इन घरेलू कामगारों की सब से बड़ी संख्या निजी घरों में काम करने वालों की है जो संगठित रूप से अच्छे वेतन की मांग नहीं कर पाई हैं और न ही श्रम कानून का उपयोग कर पाते हैं.

लौकडाउन की घोषणा के बाद केंद्र सरकार ने राहत पैकेज के तहत महिलाओं के जनधन खातों में 3 महीने तक 500 रुपए दिए जाने की घोषणा की थी. लेकिन यह पैसा कितनों को मिला नहीं पता, क्योंकि एक गरीब महिला का कहना है कि उसे भी सरकार की तरफ से कोई पैसा नहीं मिला है.

महाराष्ट्र के श्रम आयुक्त पंकज कुमार बताते हैं कि राज्य में करीब साढ़े चार लाख घरेलू कामगारों की संख्या रजिस्टर्ड की गई. लौकडाउन के कारण उन्हें आर्थिक तौर पर होने वाले नुकसान के बारे में सरकार सजग है. वित्तीय मदद देने के लिए राज्य सरकार ने एक समिति भी बनाई है. समिति की सिफारिश आने के बाद ही शासन स्तर पर कोई निर्णय लिया जा सकता है. घरेलू कामगारों की आर्थिक सहायता को ध्यान में रखते हुए सरकार जो निर्णय लेगी उसे अच्छी तरह से लागू कराया जाएगा. हालांकि , यह भी सच है कि राज्य में घरेलू कामगारों के कल्याण के लिए एक कानून के अस्तित्व में होने के बावजूद सरकार ने अभी तक उन्हें ऐसी आपात स्थितियों में कोई राहत नहीं दी है.

मुंबई और पुणे जैसे महानगरों में महिला कामगारों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो आवास परिसर में कपड़े व बरतन धोने और फ्लैट या बंगले आदि में साफसफाई कर के अपना तथा अपने परिवार का जीवनयापन करता है, लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता वाल्मीकि निकालजे का कहना है कि लौकडाउन और आम जनता में व्याप्त कोरोना संक्रमण के बढ़ते खतरे के कारण पिछले महीनों में इन कामगारों को बड़ी संख्या में रोजमर्रा के कामों से हाथ धोना पड़ा है. मगर सरकार की तरफ से इस तबके को ध्यान में रखते हुए अब तक राहत पैकेज को ले कर कोई घोषणा नहीं हुई.

16 जून को दुनियाभर में घरेलू कामगारों द्वारा मनाए जाने वाले ‘घरेलू कामगार दिवस’ के एक दिन बाद भारत के राष्ट्रीय नियंत्रण (एनसीडीसी) ने कोविड-19 के घरेलू कामगारों को नौकरी देने के मद्देनजर शहरी मलिन बस्तियों के लिए एक एडवाइजरी जारी की जो कहती है कि नियोक्ताओं को घरेलू कामगारों को दो हफ्ते की छुट्टी देनी चाहिए ताकि नियोक्ता और घरेलू कामगार दोनों कोरोना वायरस के संक्रमण से बचें. यह एडवाइजरी कोविड-19 के मद्देनजर झुग्गीझोपड़ी क्लस्टर/मलिन बस्तियों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह के मद्देनजर जारी की गई थी.

ये भी पढ़ें- आत्महत्या कर लूंगा, तुम मायके मत जइयो!

न वेतन न सुविधा

घरेलू कामगार एक्शन (मार्था फैरेल फाउंडेशन की एक पहल) के नेतृत्व में कोविड-19 के प्रभाव पर दिल्ली और हरियाणा में घरेलू कामगारों ने पाया कि बड़ी संख्या में घरेलू कामगारों को मार्च, अप्रैल और मई में उन का वेतन नहीं मिला. यह पाया गया कि कई घरेलू कामगारों ने अपनी नौकरी खो दी, लौकडाउन के शुरुआत में बहुतों को अपने परिवार को छोड़ कर नियोक्ता के घर में रहने को मजबूर किया जा रहा था और जो लोग घर छोड़ कर वापस जाना चाहते थे, वे पर्याप्त संसाधन न होने की वजह से मजबूर थे. दिल्ली और हरियाणा की घरेलू कामगार महिलाओं ने मिल कर एक घोषणा पत्र की रूपरेखा तैयार की, जिस में कोविड-19 की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए सुरक्षित और गरिमामय कार्य के लिए शर्तों को परिभाषित किया गया.

हैदराबाद से ज्योतिप्रिया, (बदला हुआ नाम) ने घरेलू कामगारों के लिए एक और दबाव वाले मुद्दे पर प्रकाश डालते हुए बताया कि तेलंगाना जैसे कुछ राज्यों ने काम पर लौटने में सक्षम होने के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) का देना अनिवार्य कर दिया है. लेकिन घरेलू कामगार कोविड-19 परीक्षण के लिए भुगतान कैसे कर सकते हैं? इस की कीमत करीब 2,500 रुपए है. अगर हमारे नियोक्ता इस की मांग कर सकते हैं, तो क्या उन्हें भी अपने ठीक होने का प्रमाण पत्र नहीं देना चाहिए?

अनलौक के बाद भी घरेलू कामगारों की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है. आज भी कई ऐसे परिवार हैं जो दानेदाने को मुहताज हैं, क्योंकि वे बेकार हैं, काम नहीं है उन के पास, तो रोटी कहां से आए. लोगों को यही लगता है कि अगर वे उन के घर काम करने आएंगे, तो साथ में कोरोना ले कर आएंगे, इसलिए उन्हें नहीं बुलाना ही बेहतर है.

सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि भारतीय घरेलू कामगार की हालत विदेशों में भी बहुत खराब है. वे सड़कों पर दरिद्र, परेशान और चिंतित घूम रहे हैं, क्योंकि उन्हें कोरोना की शुरुआत में ही अपने नियोक्ताओं का घर छोड़ने के लिए बोल दिया गया था मगर टिकट के पैसे न होने की वजह से वे भारत आने में असमर्थ हैं.

हाल ही में, कैंट वाटर प्यूरिफायर ब्रैंड ने अपने एक विज्ञापन में कहा कि क्या आप अपनी नौकरानी के हाथों को आटा गूंधने की अनुमति देंगे? उस के हाथ संक्रमित हो सकते हैं. कई लोग ऐसा ही सोचते हैं. क्योंकि जब उन के घरेलू कामगार काम पर आते हैं तो मालिक लोग खुद को एक कमरे के अंदर बंद कर देते हैं, जो अपनेआप में कितना असंवेदनशील और जलालत भरा कदम है. जिस तरह से घरेलू कामगारों के साथ व्यवहार होता है, उस से उन के प्रति जलालत और घृणा स्पष्ट दिखाई देती है. लेकिन लोग यह क्यों नहीं समझते कि यह वायरस विदेश से वापस आने वाली मैडम और साहब की देन है, न कि घरेलू कामगारों की. यह वायरस झुग्गीझोपडि़यों से नहीं, बल्कि हवाईजहाज से उड़ कर यहां आया है.

लौकडाउन की घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री ने कहा था कि कोई भी कंपनी या संस्था इस दौरान अपने कर्मचारियों को न निकाले, लेकिन सैकड़ों कंपनियों में लोगों की छटनी भी हुई और उन के वेतन में कटौती भी की गई. इस परिस्थिति में घरेलू कामगार अपनेआप को और अधिक असहाय समझने लगे, क्योंकि उन के पास सामाजिक सुरक्षा जैसी कोई चीज नहीं है. जिन लोगों ने दोबारा काम शुरू किया, वे पहले की कमाई की तुलना में 70 फीसदी से भी कम पर गुजारा करने को मजबूर हैं.

पिछले साल संसद में केंद्र सरकार ने बताया था कि घरेलू कामगारों के अधिकार की रक्षा करने के लिए कोई अलग कानून नहीं बनाया गया है. केंद्र सरकार ने पिछले साल उन के लिए न्यूनतम मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा प्राप्त करने, दुर्व्यवहार रोकने, खुद की यूनियन का निर्माण करने, उत्पीड़न और हिंसा से संरक्षण का अधिकार सहित उन से जुड़े कई पहलुओं पर एक राष्ट्रीय नीति बनाने का मसौदा जरूर तैयार किया था, लेकिन अभी तक उस पर अमल नहीं हो पाया है.

इस से पहले भी घरेलू कामगारों को ले कर कई विधेयक संसद में आए, लेकिन कभी कानून नहीं बन पाया. 2010-11 में यूपीए सरकार ने भी घरेलू कामगारों के लिए राष्ट्रीय नीति का ड्राफ तैयार किया था, लेकिन वह भी कामयाब नहीं हो पाया.

फेल हो गई सरकार

घरेलू सहायिकाओं समेत असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के कल्याण के लिए देश में पिछले 48 सालों से काम कर रहे ‘सैल्फ इम्प्लायड वूमंस ऐसोसिएशन’ (सेवा) की दिल्ली इकाई की सहायक समन्वयक सुमन वर्मा ने बताया कि वर्तमान और भविष्य दोनों की चिंता इन महिलाओं को परेशान कर रही है. कमाई का जरीया नहीं होना, कई मामलों में पति की बेरोजगारी या शराब की लत और बच्चों के भविष्य की चिंता से ये मानसिक अवसाद से भी घिरती जा रही हैं लेकिन इन की परवाह करने वाला है कौन?

घरेलू सहायिकाओं के अधिकारों के लिए काम कर रहे संगठन ‘निर्माण’ के डाइरैक्टर औपरेशंस रिचर्ड सुंदरम ने कहा कि यह चिंतनीय है कि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के उस कन्वैंशन पर अभी तक सहमति नहीं जताई, जो ‘घरेलू कामगारों को सम्माननीय काम’ के उद्देश्य से आयोजित किया गया था.

शिक्षित बेरोजगार-न कमाई न सुकून

राहुल एक एंड्रॉयड डेवलपर है और एक अमेरिका की कंपनी में काम करता है, जिसका हेड ऑफिस सेन फ्रांसिस्को में है. साल में तीन-चार बार वहां उसका चक्कर लगता ही था, क्योंकि वह उनके अच्छे एंप्लाई में से एक है और 15 लोगों की एक टीम भी भारत से हेड करता है. बैंगलुरू में कंपनी का ऑफिस है. 4 मार्च को ही वह वहां से भारत लौटा था. 1 अप्रैल को कंपनी के सीईओ की मेल आई कि उसकी टीम के सारे लोगों को जो अमेरिका में हैं, निकाल दिया गया है. वजह कोरोना के इस संकटग्रस्त समय में मंदी ही थी. राहुल परेशान है, क्योंकि उसे नहीं पता कि उसे भी कब नौकरी से हाथ धोना पड़े.

कोरोना वायरस के कारण करने पड़े लॉकडाउन का असर हर क्षेत्र में पड़ा है, जिसकी वजह बेरोजगारी की समस्या और उससे जुड़ी आर्थिक मंदी ने युवाओं के जीवन को अस्तव्यस्त कर दिया है. उनके पास डिग्रियां हैं, योग्यता है, पर नौकरी नहीं है. प्राइवेट संस्थानों से महंगी शिक्षा प्राप्त करने के पीछे युवाओं का उद्देश्य केवल मोटे वेतन वाली नौकरियां पाना होता है, जिसके लिए वे कर्ज लेते हैं. लेकिन लॉकडाउन से सारी स्थिति ही उलट गई. वे घर बैठे हैं और कर्ज चुकाना तो दूर, उस पर लगने वाला ब्याज देना भी भारी हो गया है.

बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़े

वायरस के लगातार बढ़ते मामले किस ऊंचाई पर पहुंचकर कम होंगे,  इसका अभी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, लेकिन लॉकडाउन ने  नौकरियों का कितना नुकसान किया है. यह स्पष्ट रूप से दिख रहा है. नौकरियों के नुकसान के आंकड़े बड़े भयावह हैं. रोजगार के मोर्चे पर अनिश्चितता झेल रहे लोगों की तादाद आज भारत में रुस की आबादी जितनी हो सकती है.लॉकडाउन से पहले 3.4 करोड़ लोग बेरोजगार थे. लॉकडाउन के बाद नौकरी गंवाने वाले 12 करोड़ लोगों में इस संख्या को जोड़ दीजिए तो आंकड़ा 15 करोड़ तक पहुंच जाता है. लेकिन इन युवाओं का आंकड़ा अभी स्पष्ट नहीं है, जो पढ़ाई करने के बाद नौकरी पाने की ओर अग्रसर थे ही कि लॉकडाउन हो गया और अर्थव्यवस्था ठप्प हो गई.

एक चौंकाने वाली रिपोर्ट आई है कि देश में 2.70 करोड़ युवा जिनकी उम्र 20 से 30 साल के बीच हैं, वे अप्रैल महीने में बेरोजगार हो गए हैं. बड़े शहरों में लॉकडाउन के कारण कई कंपनियों के दफ्तर बंद हो गए या फिर वहां वर्क फ्रॉम होम का नियम अपनाया जा रहा है.

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी सीएमआईई के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल में मासिक बेरोजगारी दर 24 प्रतिशत दर्ज की गई जबकि यह मार्च में 8.74 प्रतिशत थी. 3 मई को समाप्त हुए सप्ताह में बेरोजगारी दर 27 फीसदी थी. आंकड़े बताते हैं कि देश में फिलहाल 11 करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार हैं. सीएमआईई के उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वे के डाटा के मुताबिक नौकरियां गंवाने वाले लोगों में 20 से 24 साल की उम्र के युवाओं की संख्या 11 फीसदी है. सीएमआईई के मुताबिक 2019-20 में देश में कुल 3.42 करोड़ युवा काम कर रहे थे जो अप्रैल में 2.9 करोड़ रह गए. इसी तरह से 25 से 29 साल की उम्र वाले 1.4 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई. 2019-20 में इस वर्ग के पास कुल रोजगार का 11.1 फीसदी हिस्सा था लेकिन नौकरी जाने का प्रतिशत 11.5 फीसदी रहा. अप्रैल में 3.3 करोड़ पुरुष और महिलाओं की नौकरी चली गई. इसमें से 86 फीसदी नौकरियां पुरुषों की गईं.

एक खबर के मुताबिक बेरोजगारी दर, भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर देखने को मिल रही है. अप्रैल के महीने में अमेरिका में करीब 1 करोड़ लोग बेरोजगार हुए. पढ़ाई पूरी कर निकले युवा तो नौकरी पाने की बात सोच भी नहीं रहे हैं.

ये भी पढ़ें- औरतें सजावटी गुड़िया नहीं

महंगी पढ़ाई और ऊंचे सपने

लेकिन ये तो उन युवाओं की बात है जो नौकरी कर रहे थे, और लॉकडाउन के कारण जिनकी नौकरियां चली गईं, पर उनका क्या जिन्होंनेअच्छे प्राइवेट कॉलेजों से पढ़ाई करने के लिए ऊंची रकम इस आशा से चुकाई थी कि वहां से निकलते ही उन्हें मोटे वेतन वाली नौकरियां मिल जाएंगी. दिल्ली,मुंबई,चेन्नई,कोलकाता जैसे महानगरों में कई ऐसे सेक्टर में नौकरी पाने के लिए डिप्लोमा कोर्स कराने वाली संस्थाएं मौजूद हैं,जो एक साल से लेकर दो साल तक का कोर्स कराकर नौकरी देने का ऑफर करती हैं.

एमबीए, इंजीनियरिंग और कानून की महंगी पढ़ाई जहां एक तरफ ऊंचे सपने दिखाती है, वहीं उसके लिए लोन भी इसी उम्मीद से लिया जाता है कि नौकरी मिलने के बाद उसे चुकाना कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन उनकी उम्मीद पर तब पानी फिर गया जब नौकरी मिलने के बजाय अचानक लॉकडाउन हो जाने से वे बेरोजगारों की कतार में आ खड़े हुए और लोन पर चढ़ने वाले ब्याज को चुकाने की चिंता उन पर सवार हो गई। अपनी महंगी पढ़ाई उन्हें आज चुभ रही है और कहीं न कहीं उन्हें लग रहा है कि अशिक्षित होते तो कम से कम उन्हें सरकार या गैर-सरकारी संगठनों से आर्थिक मदद तो मिल ही जाती। नौकरी जाना ना केवल युवाओं के लिए इस समय चिंता की बात है, बल्कि नई नौकरी तलाशना भी चुनौती भरा काम है.

भारत में इस साल मार्च में नौकरी पर रखने के आंकड़ों में 18 फीसदी की गिरावट आई. नौकरी डॉट डॉम के मुताबिक ट्रैवेल,एविएशन, रिटेल और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर में नौकरी पर रखने के मामलों में सबसे ज्यादा 56 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.भारतीय अर्थव्यवस्था का जायजा लेने वाली एजेंसी सीएमआईई की भी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि मार्च,2020 में भारत में बेरोजगारी दर 8.7% रही,जो कि पिछले 43 महीनों में सबसे अधिक है. और इस समय भारत में बेरोजगारी की दर 23 फीसदी से ऊपर पहुंच गई है.

कहां से जुटाए धन

जयपुर में रहने वाले मयंक ने कानून की पढ़ाई करने के लिए बैंक से करीब 5 लाख का एजुकेशन लोन लिया. अच्छे अंकों से पास होकर वह इस क्षेत्र में कदम रखने ही वाला था कि लॉकडाउन हो गया और उसे घर पर ही बैठना पड़ा. उसे समझ नहीं आ रहा कि वह बैंक का कर्ज कैसे चुकाएगा, क्योंकि निकट भविष्य में लॉकडाउन के खुलने के बाद भी तुरंत नौकरी मिल पाना उसे सपना ही लग रहा है. उसे अपनी डिग्री मुंह चिढ़ाती प्रतीत होती है और वह कुछ भी काम करने को तैयार है, जिससे कुछ तो कमाई हो सके.

दिल्ली की दीपा ने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए जब कर्ज लिया था तो उसे यकीन था कि वह नौकरी मिलते ही उसे चुकाना शुरू कर देगी. लेकिन आज वह घर में बैठी है. निराशा उस पर हावी है और अगर यही हाल रहा तो मां के गहने बेचकर उसे कर्ज चुकाना पड़ेगा.

बिहार में मधुबनी के अश्विनी कुमार ने पंजाब नेशनल बैंक से साढ़े करीब 10 लाख रुपये का लोन लेकर जयपुर के एक निजी संस्‍थान से एमबीए किया। उसने सोचा था कि दिल्ली में अपने कैरियर की शुरुआत करेगा और मोटा वेतन लेकर सारे सपने पूरे करेगा. उसके पिता के खेत हैं. वह नहीं जानता कि आज के हालातों में उसे कब नौकरी मिलेगी और वह कैसे कर्ज चुकाएगा.

यह उच्च शिक्षित प्राप्त युवा अब क्या करे? एक तरफ तो उसके पास कमाई का कोई साधन नहीं है, दूसरी तरफ पढ़ाई के लिए लिया लोन भी उसे चुकाना ही है. बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों में नौकरी पाने का सपना तो चूर-चूर हो गया है, उस पर से उनके लिए करने को कोई काम नहीं है, क्योंकि सारे ही क्षेत्रों के हालात बुरे हैं और व्यापार से लेकर हर काम ठप्प हो चुके हैं. सरकार लोन चुकाने के लिए बेशक कुछ मोहलत दे रही है, पर वह स्थायी समाधान नहीं है, क्योंकि नौकरी तो जरूरी है. शिक्षित युवा हताश है क्योंकि उनकी डिग्रियां आज रद्दी हो गई हैं.

देश में तकनीकी शिक्षा में 70 फीसदी हिस्सेदारी इंजीनि‌यरिंग कॉलेजों की हैं. बाकी 30 फीसदी में एमबीए,फार्मा,आर्किटेक्चर जैसे सारे कोर्स आते हैं. इंजीनियरिंग और एमबीए का क्रेज हमेशा से युवाओं में रहा है, क्योंकि उन्हें लगता है अच्छी नौकरी और बेहतर भविष्य की गारंटी यही दे सकते हैं. फिर चाहे इनकी पढ़ाई करने के लिए कर्ज ही क्यों न लेना पड़े. महंगी शिक्षा के कारण लोन लेना भी एक आम बात हो गई है. कर्ज लो, और अपनी कमाई से उसे चुकाते रहो, ताकि मां-बाप भी बोझ न पड़े.

अवसाद घेर रहा है

इस समय इस उच्च शिक्षित पीढ़ी के सामने अगर एक तरफ बेरोजगारी सिर उठाए खड़ी है तो दूसरी ओर कर्ज चुकाने की समस्या इन्हें आत्महत्या व अवसाद की ओर धकेल रही है. गौरव ने तकरीबन छह महीने पहले अपनी इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की. 10 लाख रुपए कर्ज लिया, इस उम्मीद से कि डिग्री मिलने के बाद वह इंडस्ट्रियल ऑटोमेशन में करियर बना लेगा, लेकिन वह सपना पूरा नहीं हुआ तो उसने एक दुकान में मिक्सर, पंखे जैसी घरेलू चीजों को सुधारने का काम करने की नौकरी कर ली, जो इस समय बंद पड़ी है. जो लोन लिया था, उसे चुकाना तो उसने शुरू नहीं किया है और पता भी नहीं कि कब वह इसे चुका भी पाएगा कि नहीं.

ये भी पढ़ें- दिमाग को कुंद करने की मंशा

इस समय हजारों ऐसे युवा हैं तो महंगी शिक्षा की डिग्री थामे नौकरियों के लिए दर-दर भटक रहे हैं. सिविल इंजीनियरिंग से लेकर कंप्यूटर कोडिंग की पढ़ाई करने वाले छात्रों को न केवल नौकरी की चिंता है. लोन चुकाना भी किसी मानसिक तनाव से कम नहीं है. यह चिंता उन्हें किस ओर ले जाएगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर यह तो तय है कि इस कोरोना वायरस की वजह से न सिर्फ मंदी का दौर दुबारा लौट आया है, वरन तनाव, अवसाद, आशंका और भय भी हर चेहरे पर दिख रहा है.

#lockdown: जानलेवा बेरोजगारी

भारत की सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए पेश किया गया केंद्र सरकार का आर्थिक पैकेज बेरोज़गारी दूर नहीं कर सकेगा. देश में बेकारी की समस्या जानलेवा बीमारी जैसी हो चुकी है.

हालत यह है कि करोड़ों परिवारों के पास इतना भी पैसा नहीं है कि वे हफ्तेभर की जरूरी चीजें खरीद सकें. लोग कम खाना खा रहे हैं. यहां उनकी बात नहीं की जा रही जो बेघर हैं और भूखे रहते हैं. बात उनकी है जो कुछ काम करते थे, सरकार की भेदभावपूर्ण नीतियों के शिकार होकर बेरोज़गार हो गए.

जानकारों की मानें तो लंबे समय तक नौकरी न मिल पाने की समस्या को वक़्त रहते नहीं सुलझाया गया तो देश में सामाजिक अशांति बढ़ेगी. मारकाट होगी, लोगों की जानें जाएंगी.

दरअसल, जब देश में कार्य करने वाली जनशक्ति अधिक होती है किंतु काम करने के लिए राजी होते हुए भी उसको प्रचलित मजदूरी पर काम नहीं मिलता, तो उस विशेष अवस्था को ‘बेरोजगारी’ की संज्ञा दी जाती है.

लौकडाउन की वजह से देश में लगभग सभी व्यापारिक गतिविधियां रुकी हुई हैं. अधिकांश ग़ैरसरकारी दफ़्तर बंद हैं और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लाखों लोगों का काम ठप हो चुका है. इस दौरान 67 फ़ीसदी लोगों का रोज़गार छिन गया है. अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा सिविल सोसाइटी की 10 संस्थाओं के साथ किए गए सर्वे में यह जानकारी सामने आई है.

आर्थिक मामलों पर गहन शोध करने के लिए जानी जाने वाली संस्था सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी यानी सीएमआईई का अनुमान है कि तालाबंदी की वजह से भारत में अब तक 12 करोड़ लोग अपनी नौकरी गंवां चुके हैं. आज खाद्य सामग्री और दूसरी ज़रूरी वस्तुओं की मांग में आई गिरावट यह बताती है कि देश के सामान्य आदमी और ग़रीब की ख़र्च करने की क्षमता कम हुई है.

अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन यानी इंटरनेशनल लेबर और्गेनाइजेशन के अनुसार, यह गिरावट बहुत गंभीर होने वाली है. आईएलओ का अनुमान है कि भारत के असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले क़रीब 400 करोड़ लोग पहले की तुलना में और ग़रीब हो जाएंगे.

ये भी पढ़ें- डेढ़ साल चरमपंथियों की कैद सिल्विया रोमानो की जबानी

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी और सिविल सोसाइटी की 10 संस्थाओं के साझा सर्वे के मुताबिक़, शहरी क्षेत्र में 10 में से 8 और गांवों में 10 में से 6 लोगों को रोज़गार खोना पड़ा है. सर्वे में आंध्रप्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल के लोगों से बातचीत की गई. उनसे लौकडाउन के कारण रोज़गार, आजीविका पर पड़े असर और सरकार की राहत योजनाओं तक उनकी पहुंच को लेकर सवाल पूछे गए.

सर्वे से पता चला है कि शहरी इलाक़ों में स्वरोज़गार करने वालों में से 84 फ़ीसदी लोगों का रोज़गार छिन गया है. इसके अलावा वेतन पाने वाले 76 फ़ीसदी कर्मचारी और 81 फ़ीसदी कैजुअल वर्करों का भी रोज़गार चला गया है. ग्रामीण इलाक़ों में 66 फ़ीसदी कैजुअल वर्करों को रोज़गार खोना पड़ा है जबकि वेतन पाने वाले ऐसे कर्मचारी 62 फ़ीसदी हैं.

सर्वे के मुताबिक़, ग़ैरकृषि आधारित काम करने वाले लोगों पर भी लौकडाउन की जोरदार मार पड़ी है. इनकी कमाई में 90 फ़ीसदी की कमी आई है. पहले ये सप्ताह में 2,240 रुपए कमाते थे, अब इनकी कमाई सिर्फ़ 218 रुपए रह गई है.

सैलरी पाने वालों में से 51 फ़ीसदी कर्मचारियों की या तो सैलरी कटी है या फिर उन्हें सैलरी मिली ही नहीं है. इसके अलावा, यह भी जानकारी सामने आई है कि 49 फ़ीसदी घरों की ओर से कहा गया है कि उनके पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि वे एक हफ़्ते का ज़रूरी सामान ख़रीद सकें. शहरी इलाक़ों में रहने वाले 80 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले 70 फ़ीसदी घरों की ओर से कहा गया है कि वे पहले से कम खाना खा रहे हैं.

टाटा इंस्टिट्यूट औफ़ सोशल साइंसेज़ के चेयरप्रोफ़ैसर आर रामाकुमार कहते हैं, “भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2018 की तुलना में पहले ही धीमी थी जबकि असमानता की दर असामान्य रूप से बढ़ी हुई थी. 2011-12 और 2017-18 के नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक बेरोज़गारी ऐतिहासिक रूप से बढ़ी हुई थी और ग्रामीण ग़रीबों द्वारा खाद्य सामग्री पर कम ख़र्च किया जा रहा था.

औब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वरिष्ठ सदस्य और इकोनौमी ऐंड ग्रोथ प्रोग्राम के प्रमुख मिहिर स्वरूप शर्मा ने एक न्यूज पोर्टल से बातचीत में कहा, “युवा भारतीयों के सबसे आकांक्षात्मक खंड पर महामारी की वजह से जो अभूतपूर्व आर्थिक तनाव पड़ेगा, वह उनमें एक बड़े असंतोष को जन्म देगा. और घोर चिंताजनक बात यह है कि इससे अल्पसंख्यकों व दूसरे कमज़ोर वर्गों को लक्षितहिंसा का सामना करना पड़ सकता है, ख़ासकर, अगर महामारी का सांप्रदायीकरण जारी रहता है.”

गौरतलब है कि सरकार के कई मंत्री, सत्ताधारी दल भाजपा के नेता, आरएसएस से जुड़े संगठन, भाजपा का आईटी सैल और गोदी मीडिया देश में सांप्रदायिक नफरत फ़ैलाने में जुटे हैं. वे वायरसी महामारी के फैलने का ठीकरा संप्रदायविशेष पर फोड़ने में भी लगे हैं.

ये भी पढ़ें- #coronavirus: ‘अलिखित कानून’ को नजरअंदाज कर टैक्नोलौजी खरीद  

ऐसे में सरकार, जो धर्मों से हटकर सभी देशवासियों के लिए होती है, का दायित्व बनता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि मौजूदा घोर आर्थिक संकट का ख़मियाज़ा सिर्फ़ ग़रीबों को ही न उठाना पड़े. हालांकि, 6 वर्षों के मोदी सरकार के प्रदर्शन पर नजर डालें, तो यही समझ आता है कि वह अमीरों की हिमायती है.

अब तो प्रकृति के साथ जीना पड़ेगा

अब एक सवाल हरेक के मन में उठने लगा है कि लौकडाउन को हटाने के बाद क्या होगा? क्या दुनिया लौकडाउन से पहले की तरह पटरी पर आ जाएगी और यह ?कोरोना वायरस एक बुरे सपने की तरह दिमाग के किसी कोने में बैठा रहेगा जो आज के बाद पैदा होने वाले बच्चों को बताने के काम आएगा या उस का दूरगामी असर होगा?

इस का असर होगा. यह असर भारत में हुई नोटबंदी में दिखा. यह असर इराक में सद्दाम हुसैन की सत्ता हटाने के बाद दिखा. यह असर उस से पहले मिखाइल गोरवाचोव के सोवियत यूनियन में आए सुधारों के प्रयासों में दिखा. छोटे कदमों का असर गहरा पड़ा.भारत में नोटबंदी से कोरोना से पहले टी उद्योग व व्यापार कराह रहे थे.

ये  भी पढ़ें- #coronavirus: पाकिस्तान के इमेज बिल्डिंग का हवाई रूट

नोटबंदी में लाइनें सिर्फ 2 माह तक लगीं और इन दोनों महीनों में लगभग सारे पुराने नोट बैंकों में चले गए थे पर देशभर का खुदरा नक्दी पर चलने वाला व्यापार वापस नहीं लौटा. व्यापारियों के पास बचा सारा पैसा या तो बैंकों में फंस गया या नोट बदलने के लिए दी गई कमीशनों में लग गया. नतीजा यह था जहां 2012 में घरेलू बचत आमदनी की 34.6% हुआ करती थी, नोटबंदी के बाद 30% रह गई. यह 4.6% का अंतर बड़ा है और इसी कमी के कारण बैंकों का व्यापार ठप्प हुआ.अब लौकडाउन के कारण 2-3 महीने कोई नया उत्पादन नहीं होगा, वेतन नहीं मिलेगा, महीनों तक कच्चा माल फैक्टरियों तक नहीं पहुंचेगा.

घरों को कम में काम चलाना होगा जैसे आज लौकडाउन के दिनों में चलाना पड़ रहा.शहरों से लाखों मजदूर अपने गांवों की ओर चल पड़े हैं. बीच में स्वास्थ्य कारणों से उन्हें रोक भी लिया गया तो लौकडाउन के बाद वे हो सकता है शहरों में न लौटें. शहरी लाइफस्टाइल बदल सकता है, क्योंकि घरेलू हैल्प अब शायद मिले ही नहीं.अभी महीनों तक भीड़ को कम करने की कोशिश करनी होगी, क्योंकि कोरोना वायरस कोविड-19 अभी मरा नहीं है, उस की वैक्सिन नहीं बनी है, बस उसे एक से दूसरे तक जाने भर रोका गया है. इस का मतलब है कि बहुत से व्यापार बंद हो जाएंगे और उन से जुड़े घरों के सामने नई चुनौतियां खड़ी हो जाएंगी.

किस घर पर गाज गिरेगी अभी पता नहीं और न ही अंदाजा लगाया जा सकता है पर कुछ फर्क जरूर पड़ेगा.कुछ अच्छे प्रभाव भी पड़ सकते हैं. हो सकता है लोग एक छत के नीचे रहने वालों के साथ ही सुखी रहने के नए फौर्मूले सीख लें. जो लोग अपने ही घरों के सदस्यों से कटे रहते थे, नए तरह के संबंध जीना सीख लें. हो सकता है कि बहुमंजिले मकानों में रहने वाले एकदूसरे को जानने लगें, जो उन्हें अब तक अनजाने ही लगते थे. कितने ही मकानों में आपसी लेनदेन बालकनियों से होने लगा है जिन में पहले सिर्फ रस्मी हैलोहाय होती थी.

ये भी पढ़ें- जब एक बिल्ली बीमार बच्चे को लेकर अस्पताल जा पहुंची

इन दिनों सारे शहरों की हवा एकदम साफ हो गई है. हो सकता है कि अब उस की कीमत पता चल जाए. प्रकृति के साथ जीने के नए गुर सीख जाएं. 40 या ज्यादा दिन का यह एकांतवास परिवारों को बहुत कुछ सिखा सकता है. आधुनिक चमकदमक के खिलाफ ऐसा संदेश दे सकता है जो बड़ेबड़े विज्ञापनों से नहीं मिला और न दिखने वाले पर बेहद ढीठ विषाणु ने दे दिया. किताबों की बातों कोन मानने वालों को एक नया गुरू मिला है और लौकडाउन के बाद भी वह यहीं कहीं रहेगा, छिपा हुआ, कभी भी फटकार लगाने के लिए आने को तैयार.

 

ज्यादा आफत के दिन तो अब शुरू होंगे

लौकडाउन के बाद देश पर बड़ी आफत आ सकती है. पहले से ही लड़खड़ाते बाजारों, व्यापारों, उद्योगों, बैंकों को 40 दिन बंद रहने के बाद घरघर तक पैसा पहुंचाना बहुत मुश्किल होगा. इन दिनों जो उत्पादन बंद हुआ वह तो एक बात है, इस से बड़ी बात यह है कि सप्लाई चेन टूट गई है.

उद्योगों में मशीनें बंद रहीं और जब खुलेंगी तो कई दिन तो साफसफाई और मरम्मत में चले जाएंगे. उस के बाद कच्चा माल आना शुरू होगा. जब तक गोदामों में है कुछ काम चलेगा पर उस के बाद उस की पूर्ति हो पाएगी मुश्किल लगता है.अंदाजा है कि लाखों नहीं करोड़ों की नौकरियां जा सकती हैं. हम जब नौकरी का नाम लेते हैं, लगता है कि कोई चीज पक्की है, आप की है पर यह केवल सरकारी नौकरियों के साथ है. देश के 3 करोड़ लोग ही सरकारी या अर्धसरकारी नौकरी करते हैं.

ये भी पढ़ें- #coronavirus: अब मौडर्न स्लेवरी का वायरस

इस के अलावा सब की नौकरी उस कंपनी के जिंदा रहने पर निर्भर है जिस में वे काम कर रहे हैं. 40 दिन काम पर न जाने के कारण जो उत्पादन को हानि हुई उस से करोड़ों की आय बंद हो जाएगी. अभी तक तो घरों की बचत से काम चला लिया है पर बाद में हरेक बचा भुगतान करना होगा, स्कूलों की फीस देनी होगी, किराया देना होगा, ब्याज देना होगा, बिजली का बिल भरना होगा, पानी का बिल देना होगा. ये सब खर्च एकसाथ आएंगे और आमदनी होगी नहीं.

हर घरवाली के लिए लौकडाउन खुलने के बाद बुरे दिन शुरू होंगे जब पुराने खर्चे वहीं के वहीं रहेंगे और नए अपना सिर उठाने लगेंगे. ऊपर से आमदनी का भरोसा नहीं होगा. व्यापारों को हुए नुकसान का खमियाजा हर घर को उठाना होगा. सरकारी नौकरियों में भी ऊपरी कमाई कम हो जाएगी, लोगों के पास पैसा होगा ही नहीं.इस का उपाय है.

सरकार नोट छाप कर उद्योगों और व्यापारों को आर्थिक सहायता दे कर उत्पादन बदल सकती है और मांग पैदा कर सकती है. घरवालियों के हाथों में पैसा आए इस के लिए सरकार नए नोट छाप कर इस लौकडाउन के दौरान हुए नुकसान को पूरा कर सकती है. इस से महंगाई बढ़ेगी पर मांग भी बढ़ेगी.भारत सरकार फिलहाल अपना निकम्मापन दिखाने के लिए जनता पर सीधे या परोक्ष रूप से टैक्स लगा रही है.

ये  भी पढ़ें- #lockdown: घरेलू हिंसा की बढ़ती समस्या

कच्चे तेल के दाम कम हो गए हैं पर जनता को लाभ नहीं दे रही, क्योंकि सरकार को पैसे की सख्त जरूरत है. उसे यह चिंता नहीं कि आम घरवाली अपना बजट पूरा कैसे करेगी.कठिनाई यह है कि सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है कि एक आम घर सरकार की आर्थिक नीतियों से बुरी तरह कैसे आहत हो रहा है. उद्योग व्यापारों का टैंपरेचर तो स्टौक मार्केट से पता चल जाता है पर घरेलू टैंपरेचर केवल घर वालों को सहना पड़ा है. सरकार ऐसे समय धर्म या देशभक्ति के मुद्दों के झुनझुने पकड़ाती है ताकि रोते बच्चे चुप हो जाएं.

क्या पूरा देश एक लावे पर बैठा है

बेकारी और आर्थिक कठिनाइयों में परिवारों का क्या होगा इस पर सोचने का समय अभी शायद न हो पर यह समझ लें कि पूरा देश एक लावे पर बैठा है, जिस में भयंकर भूख, बेकारी, बिगड़ती अर्थव्यवस्था के साथसाथ टूटतेबिखरते परिवार भी होंगे. यह समस्या आज लौकडाउन की वजह से बीमारों और मरने वालों के मोटे होते कारपैटों के नीचे छिपी है पर समाज का निस्संदेह दीमक की तरह खा रही है.

आज हजारों परिवार ऐसे हैं, जिन में पति कहीं है, पत्नी कहीं है. इन में बच्चों वाले भी हैं, बिना बच्चों वाले भी. पति की कमाई का ठिकाना नहीं तो पत्नी और बच्चों को कैसे पालेगा, इस का भरोसा नहीं. यह गुस्सा चीन से आए कोरोना पर उतारना चाहिए पर उतरेगा पति पर. हर पत्नी यह मान कर चलती है कि उस की जिम्मेदारी पति की है.

हर पतिपत्नी जो एक छत के नीचे रह रहे हैं या दूरदूर हैं, बेहद तनाव में हैं. सामाजिक मेलजोल के खत्म होने, बोरियत होने, एक सा खाना 3 बार खाने से जो भड़ास पैदा हो रही है, वह एकदूसरे पर उतर रही है, अगर आज साथ रह रहे हैं तो तब उभरेगी, जब भी और मिलेंगे.

ये भी पढ़ें- Lockdown Effect: करोड़ों की रोज़ी स्वाहा

यह न सोचें कि इन में गरीब मजदूर ही हैं जो बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के गांवों से बड़े शहरों में आए थे. इन में वे भी हैं जो अच्छे वेतन की खातिर देश या विदेश में फंसे हैं और सिवा फोनों के बात नहीं कर सकते. जो लोग कुछ दिन के लिए गए थे और लौकडाउन के थोड़े दिन पहले ही गए थे और भी ज्यादा तनाव में होंगे.

मनोवैज्ञानिक डा. डोन्नर वापटीस्टे जो नौर्थवैस्ट यूनिवर्सिटी में क्लीनिकल मनोविज्ञान पढ़ाती हैं, कहती हैं कि जबरन अलग होना भावनात्मक असुरक्षा और भविष्य के प्रति भ्रम पैदा कर देता है. इस में एकदूसरे पर विश्वास कम हो जाता है. प्यार की जगह धोखे का डर बस जाता है. यह तड़प अकसर उन जोड़ों में देखी जाती है, जिन्हें सेना की नौकरी, दूसरे देश में वीसा की कठिनाइयों के कारण अलगाव झेलना पड़ता है. सैक्स का अभाव एक अलग गुस्सा पैदा करता है.

ये भी पढ़ें- #coronavirus: भारत में संक्रमित संख्या 56 हजार पार

जो जोड़े साथ रहते हैं और बहुत ज्यादा सैक्स करने लगते हैं कि समय बिताना है, उन में तो सैक्स के प्रति वैसी ही वितृष्णा पैदा हो जाती है जैसी वेश्याओं में होती है जो किसी सैक्स संबंध का आनंद नहीं ले पातीं.

इस की वजह चाहे सरकार न हो पर जनता को भुगतना होगा. मध्य आयु के जोड़े तो इस तनाव को झेल जाएंगे पर युवा जोड़ों में 6 माह बाद तलाक की मांग होने लगे तो आश्चर्य न करें.

#lockdown: कई खिलाड़ियों के करियर पर लटक रही है कोरोना की तलवार

कोरोना के कहर ने पूरी दुनिया की तमाम खेल गतिविधियों पर विराम लगा दिया है. दुनिया के 90 फीसदी से ज्यादा खिलाड़ी इस समय अपने घरों में कैद हैं. ओलंपिक 2020 पहले ही एक साल आगे खिसक चुके हैं और अब जापान ओलंपिक समिति के मुखिया साफ साफ कह रहे हैं कि गारंटी से नहीं कहा जा सकता था कि जुलाई 2021 में भी ओलंपिक खेल हो पाएंगे या नहीं. सिर्फ ओलंपिक ही नहीं करीब करीब सभी खेल प्रतिस्पर्धाओं के बारे में यही कहा जा सकता है. भारत में बहुचर्चित क्रिकेट लीग आईपीएल 29 मार्च 2020 से शुरु होनी थी, लेकिन कोरोना के कहर को देखते हुए इसे 15 अप्रैल 2020 तक के लिए स्थगित कर दिया गया है और इस समय जब ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं, लगता नहीं है कि 15 अप्रैल के बाद भी इंडियन प्रीमियर लीग का आयोजन संभव हो पायेगा. अगर किसी वजह से इस आयोजन को संभव भी किया गया, तो मैच दर्शक रहित मैदानों में होंगे, जिससे कारोबारी हित तो किसी हद तक पूरे हो सकते हैं, मगर दर्शकों की अनुपस्थिति में खेले गये कोई भी खेल किसी जीवनरहित मशीनी गतिविधि जैसे ही होंगे.

सवाल है खेलों की तमाम प्रतिस्पर्धाओं पर विराम लग जाने या उनकी तारीख आगे बढ़ जाने से सबसे ज्यादा नुकसान किसको होगा? निःसंदेह इसमें भावनात्मक रूप से तो खेल प्रेमियों का नुकसान होगा; क्योंकि उन्हें घर में बैठे यानी फुर्सत में होने के बावजूद भी खेलों के रोमांच का आनंद नहीं मिलेगा. लेकिन अगर कॅरियर के लिहाज से देखें तो इसमें सबसे ज्यादा नुकसान ऐसे खिलाड़ियों का होगा, जो कोरोना के चलते कहीं अपने कॅरियर से ही हाथ न धो बैठें. इसमें दो तरह के खिलाड़ी हैं एक वो जो अपने खेल और उम्र की ढलान पर हैं और वे व्यवस्थित ढंग से अपने हिस्से के आखिरी प्रतिस्पर्धाओं में उतरने की योजना बना रहे थे ताकि सकून से सन्यास ले सकें. कहीं ऐसा न हो कि कोरोना के कारण अब उन्हें यह मौका ही नहीं मिले और उन्हें अपने कॅरियर को अलविदा कहना पड़े.

ये भी पढ़ें- Lockdown 2.0: लॉकडाउन के साइड इफैक्ट्स, चौपट अर्थव्यवस्था

ऐसी आशंकाओं के दायरे में भारतीय टीम के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी और मुक्केबाज मैग्नीफिसेंट मैरी काॅम भी शामिल हैं. गौरतलब है कि महेंद्र सिंह धोनी एक दिवसीय आईसीसी विश्वकप 2019 के बाद से क्रिकेट से दूर हैं. उनको ही नहीं उनके प्रशंसकों तक को और आम हिंदुस्तानियों को भी यह उम्मीद थी कि 29 मार्च से शुरु होने वाले आईपीएल में धोनी अपना जलवा दिखाएंगे और इस तरह वे एक बार फिर से भारतीय टीम में लौट आएंगे. लेकिन अब जिस तरह की स्थितियां बन गई दिख रही हैं, उससे लगता नहीं है कि आईपीएल का आयोजन संभव हो सकेगा और अगर आईपीएल का आयोजन संभव न हुआ तो 38 वर्षीय महेंद्र सिंह धोनी की इंटरनेशनल क्रिकेट में वापसी नामुमकिन होगी. यह बात सिर्फ धोनी के आलोचक ही नहीं, उनके प्रशंसक भी कह रहे हैं.

हालांकि यह बात भी सही है कि धोनी के अंदर अभी तक कितना क्रिकेट बचा हुआ है, इसे लेकर दुनिया के तमाम बड़े क्रिकेटर दो फाड़ हो गये हैं. एक धड़ा यह कह रहा है कि धोनी अपने हिस्से का क्रिकेट खेल चुके हैं तो दूसरी तरफ एक धड़ा ऐसा भी है जो मान रहा है कि धोनी में अभी बहुत क्रिकेट बची हुई है. भारतीय टीम के पूर्व कप्तान के.श्रीकांत साफ तौरपर कहते हैं कि अगर 15 अप्रैल के बाद भी आईपीएल नहीं हुआ तो धोनी का कॅरियर समाप्त है. इसके पहले यह बात कभी भारतीय टीम के विस्फोटक ओपनर रहे वीरेंद्र सहवाग भी कह चुके हैं. इसके अलावा और भी कई वरिष्ठ क्रिकेटर ऐसी ही राय व्यक्त कर चुके हैं. लेकिन इंग्लैंड के कप्तान नासिर हुसैन से लेकर बीसीसीआई के मौजूदा अध्यक्ष सौरव गांगुली तक यह कहते और संकेत देते रहे हैं कि धोनी के अंदर अभी क्रिकेट बाकी है और उन्हें मौका भी मिलेगा.

पिछले दिनों एक पत्रकार वार्ता में सौरव गांगुली ने साफ शब्दों में कहा था धोनी दुर्लभ खिलाड़ी हैं, सम्मान के साथ विदाई उनका हक है. अपनी इस प्रतिक्रिया का अंतिम शब्द जो उन्होंने बोला, वह धोनी के लिए बहुत उम्मीदें जगाने वाला शब्द था. मसलन गांगुली ने कहा, ‘आप जानते हैं कि चैंपियंस जल्द खत्म नहीं होते. धोनी की अगुवाई में भारत ने टी-20 विश्वकप 2007 और एक दिवसीय विश्वकप 2011 जीते हैं.’ इसका साफ इशारा था कि धोनी को अभी मौका मिलेगा. लेकिन कोरोना के चलते जिस तरह से आईपीएल ही नहीं, आने वाले दिनों की कई दूसरी सीरीज भी स्थगित होने की तरफ बढ़ रही हैं, उससे धोनी के कॅरियर पर अनचाहे विराम की तलवार लटक चुकी है.

सिर्फ धोनी ही नहीं कई और महान व दिग्गज खिलाड़ी हैं, कोरोना ने जिनके कॅरियर पर सवालियां निशान लगा दिये हैं. मसलन मुक्केबाजी की एवरग्रीन क्वीन समझी जाने वाली मैग्नीफिसेंट मैरी काॅम के कॅरियर पर भी खात्मे की तलवार लटक रही है. गौरतलब है कि इस साल मार्च में 6 बार की विश्व चैंपियन एमसी मैरी काॅम ने टोक्यो ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया था. लेकिन अब जबकि टोक्यो ओलंपिक एक साल के लिए स्थगित हो गये हैं और यह नहीं पता कि अगले साल भी वो होंगे या नहीं होंगे, ऐसे में 38 वर्ष की हो रहीं मैरी काॅम का कॅरियर समाप्ति की ओर बढ़ चला है. दरअसल मैरी काॅम ने जिस 51 किलो भार वर्ग में क्वालीफाई किया है, उस स्तर पर उनका वेट बना रहना संभव नहीं है और न ही लगातार ट्रेनिंग मोड में रहना संभव है. पहले से ही उनकी जगह लेने के लिए हिंदुस्तान में कई दूसरी महिला मुक्केबाज मौजूद हैं.

ये भी पढ़ें- सावधान! किराना स्टोर बन सकते हैं कोरोना कहर के सारथी

यही हाल कुछ वैश्विक खिलाड़ियों का भी है. अपने जीवन के 40वें साल में चल रहे दुनिया के अभूतपूर्व टेनिस खिलाड़ी रोजर फेडरर जिन्हें दुनिया एक चमत्कार की तरह देखती है और उन्होंने अपने चाहने वालों को 20 गैंडस्लैम सहित 101 टेनिस के अंतर्राष्ट्रीय खिताब जीतकर बार बार यह धारणा बनाने का मौका भी दिया है. शायद इस कोरोना कहर के बाद उनकी भी बिना किसी समारोह विदाई हो जाए. यही नहीं अगर इसी क्रम में 15 गैंडस्लैम जीत चुके नोवाक जोकोविच और 18 गैंडस्लैम सहित 82 खिताब जीत चुके राफेल नाडाल का कॅरियर भी कोरोना के कहर का शिकार हो जाए तो किसी को बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए. हिंदुस्तान में सानिया मिर्जा और सानिया नेहवाल दोनो के कॅरियर पर भी कोरोना का कहर टूट सकता है. इसी तरह क्रिकेटरों में इशांत शर्मा भी अगर कोरोना के बाद अपनी तेजरफ्तार गेंदों के साथ न दिखें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. कुल मिलाकर कहने की बात यह है कि तमाम सीनियर खिलाड़ियों के सिर पर कोरोना ने रिटायरमेंट की तलवार लटका दी है, भले वे इस कोरोना के पहले तक अपनी शानदार लय में रहे हों.

बेरोजगारी जिंदाबाद

जनवरी में जारी सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकौनोमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट के अनुसार 2013-14 से बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है और 2018 में इस बढ़ोतरी में और तेजी आई है. इस रिपोर्ट के अनुसार 2018 में 1 करोड़ 90 लाख लोगों को नौकरियों से हाथ धोने पड़े. पिछले आम चुनावों में रोजगार को मुख्य मुद्दा बनाने वाली भाजपा सरकार इन 5 सालों में देश के बेरोजगारों को कितना रोजगार दे पाई, जान कर हैरान रह जाएंगे आप…

2014में हुए आम चुनावों में प्रचार के वक्त नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी ने रोजगार को मुद्दा बनाया था. हर साल 2 करोड़ से अधिक रोजगार के अवसरों के निर्माण के वादे के तहत प्रधानमंत्री ने पिछले 4 वर्षों में कई योजनाओं और कार्यक्रमों की शुरुआत की. पिछले साल अगस्त में मोदी ने दावा किया था कि बीते वित्त वर्ष में औपचारिक क्षेत्र में 70 लाख रोजगार का निर्माण हुआ. मगर जनवरी में जारी सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकौनोमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट के अनुसार 2013-14 से बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है और 2018 में इस बढ़ोतरी में और तेजी आई है.

राजनीति में महिलाएं आज भी हाशिए पर

इस रिपोर्ट के अनुसार 2018 में 1 करोड़ 90 लाख लोगों को नौकरियों से हाथ धोने पड़े. मोदी ने 2016 में प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना की शुरुआत की थी. इस योजना के तहत 15,000 रुपए से कम वेतन पर रखे जाने वाले नए कर्मचारियों का 12% भविष्य निधि अनुदान (ईपीएफ) केंद्र सरकार वहन करेगी. औल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के सचिव तपन सेन ने बताया कि देशभर में कम से कम 40% योग्य कर्मचारी इस योजना के दायरे से बाहर हैं. टिकाऊ रोजगार नहीं अप्रैल, 2015 को सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) मंत्रालय ने प्रधानमंत्री मुद्रा योजना की घोषणा की. इस के तहत लक्षित 10 लाख उद्यमों को कर्ज दिया जाना था. लेकिन सार्वजनिक क्षेत्रों के आंकड़ों के अनुसार इस योजना के तहत दिया गया अधिकांश कर्ज डूब गया है.

बोल्ड अवतार कहां तक सही

इस योजना के तहत हाल तक 3 करोड़ रुपए से अधिक कर्ज दिया गया है. इस का आधा कर्ज तो केवल 2018 में दिया गया. लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में वित्त राज्यमंत्री शिव प्रताप शुक्ला ने बताया कि मुद्रा योजना के तहत डूबा कर्ज 2018 में बढ़ कर 7,200 करोड़ रुपए हो गया है. महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों से मिली रिपोर्ट के अनुसार मुद्रा योजना के तहत दिया जाने वाला औसत कर्ज 30,000 रुपए है, जो इन व्यवसायों को टिकाने के लिए काफी नहीं है.

इसी प्रकार प्रधानमंत्री रोजगार निर्माण के तहत दिए गए कर्ज ने भी रोजगार के टिकाऊ अवसर बनाने में मदद नहीं की है. इस योजना के तहत यूनिटों को 25 लाख रुपए और व्यवसाय या सेवा उद्यमों को 10 लाख रुपए का कर्ज दिया जाता है. बैंगलुरु स्थिति अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के टिकाऊ रोजगार केंद्र के निदेशक अमित बसोले का कहना है, ‘‘इन योजनाओं का ज्यादातर ध्यान एकदम छोटे कारखानों पर रहा. ये छोटे कर्ज हैं और इन पैसों से लगाए जाने वाले रोजाना का खर्च निकाल सकते हैं लेकिन टिकाऊ रोजगार का निर्माण नहीं कर सकते.

स्मार्ट वाइफ : सफल बनाए लाइफ

‘‘भारत के बेरोजगारी संकट के लिए इस योजना के तहत स्वरोजगार को प्रोत्साहन देना पर्याप्त नहीं है. हमें कुछ बड़ा करने की आवश्यकता है. बड़े कर्ज और बड़े उद्योगों में पैसा लगाने की जरूरत है जो विस्तार और अधिक संख्या में कर्मचारियों को रखने में सक्षम हैं. शहरी और राज्य स्तर पर स्थानीय सरकारें जब तक आधारभूत संरचना और सुविधाओं का निर्माण नहीं करतीं तब तक केंद्रीय योजनाएं प्रभावकारी नहीं हो पाएंगी.’’

बढ़ती बेरोजगारी देश में अपना धंधा चलाने वाले दूसरों के लिए रोजगार का इंतजार नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे 80 फीसदी लोग खुद मासिक तौर पर 10,000 रुपए से कम कमाई कर रहे हैं. ये लोग दूसरों को रोजगार कैसे दे सकते हैं? 2015-16 के श्रम विभाग के रोजगार बेरोजगारी सर्वे के अनुसार देश के लगभग आधे मजदूर अपना रोजगार अकेले ही कर रहे हैं. भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध शोध परिषद की फैलो राधिका कपूर के अनुसार भारतीय संदर्भ में स्वरोजगार चिंताजनक बात है. स्वेच्छा से स्वरोजगार करना और मजबूरन करने में बहुत अंतर है और भारत में अधिकांश लोग मजबूरन ऐसा कर रहे हैं.

बेटों से आगे निकलती बेटियां

भारत में बहुत सा स्वरोजगार संकटकालीन रोजगार है. मोदी के उस दावे के संदर्भ में जिस में उन्होंने कहा था कि पकौड़े तलने वाला एक आदमी दिन में 200 रुपए से अधिक की कमाई करता है और इसलिए वह बेरोजगार नहीं है, ऐसे में कपूर की बात बहुत स्पष्ट हो जाती है. मोदी के इस दावे के जवाब में पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने पूछा था कि इस लिहाज से तो भीख मांगना भी एक काम है. मोदी ने 200 रुपए तो गिन लिए पर जिस दिन ग्राहक न आएं या बारिश, आंधी आ जाए या फिर वह खुद बीमार हो जाए तो क्या होगा नहीं गिना.

जुलाई 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की कि 2022 तक ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना’ यानी स्किल इंडिया के तहत 40 करोड़ लोगों को प्रशिक्षण दिया जाएगा. लेकिन संसद की श्रम मामलों की स्थाई समिति की मार्च, 2018 की रिपोर्ट के अनुसार फरवरी, 2016 में इस योजना के आरंभ से ले कर नवंबर 2018 तक योजना के तहत 33 लाख 93 हजार लोगों को प्रमाणपत्र दिए गए, जिन में से सिर्फ 10 लाख 9 हजार लोगों को काम मिला. विकास दर कम हुई कौशल विकास मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के मुताबिक मार्च, 2018 से कुशल उम्मीदवारों की प्लेसमैंट दर 15% है, जो बेहद कम है.

ऐसी खबरें भी हैं कि सरकारी सब्सीडी प्राप्त करने के लिए इस योजना के लोग बोगस प्लेसमैंट कर रहे हैं. स्किल इंडिया के डेटा पर भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन को जांचने की कोई प्रामाणिक प्रक्रिया नहीं है और ये कौशल विकास केंद्रों द्वारा उपलब्ध आंकड़े हैं. नाम न बताने की शर्त पर एक अधिकारी ने बताया, ‘‘ऐसी भी व्यवस्था नहीं है जिस से जाना जा सके कि प्रशिक्षण दिया भी जा रहा है या नहीं.’’ मोदी की कर्णधार योजना के तहत लक्षित क्षेत्रों में हाल के दिनों में बेरोजगारी में बढ़ोतरी देखी गई है.

मोदी ने 2014 में ‘मेक इन इंडिया’ का आरंभ भारत को वैश्विक डिजाइन और विनिर्माण का केंद्र बनाने के उद्देश्य से किया था. मगर पिछले 4 सालों में इस क्षेत्र ने कोई विकास नहीं किया है. श्रम ब्यूरो सर्वे के अनुसार अप्रैल और जून 2017 की तिमाही में इस क्षेत्र में 87,000 नौकरियां खत्म हो गईं. एमएसएमई मंत्रालय के अनुसार कर्ज योजना के अंतर्गत रोजगार और लाभ में 2014 से कमी आई है. उत्पादन और निर्यात में 24 से 35% की गिरावट पिछले 4 सालों में रिकौर्ड की गई है.

हाशिए पर रोजगार गारंटी कानून उत्पादन क्षेत्र में कागजी खानापूर्ति, इंस्पैक्टर राज, नियमों, कानूनों के पचड़ों का समाधान न कर सकने के चलते मेक इन इंडिया फेल हो गया. दुनिया का बाजार अभी मंदी से बाहर नहीं निकला है, इसलिए भारतीय निर्यात भी हद से आगे नहीं जा सकता. हमें घरेलू बाजार पर ध्यान देना चाहिए. सीएमआईई की रिपोर्ट में महिला मजदूरों की घटती तादाद पर चिंता जताई गई है. इस रिपोर्ट के अनुसार 2018 में ज्यादातर महिलाओं ने खासकर 40 से कम या 60 से अधिक आयु की दिहाड़ी और खेतों में मजदूरी करने वाली ग्रामीण महिलाओं ने काम खोया.

उद्यमशीलता और स्वरोजगार पर जोर देने के चलते महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून हाशिए पर चला गया जो एक ऐसा सरकारी कार्यक्रम था, जिस में बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी थी. स्वरोजगार मनरेगा योजना की कीमत पर कतई नहीं होना चाहिए. -निलीना एम एस द्य

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें