फिल्म ‘प्यासा‘ के दृश्य पर अगर आप ने गौर किया हो तो… उस दृश्य में नायिका वहीदा रहमान छत पर खड़ी हैं. नायक गुरुदत्त नीचे खड़े हैं. बरसात हो रही है. नायिका नायक को आकर्षित करने के लिए गाना गा रही है. उस ने बेहद साधारण साड़ी पहनी है, लेकिन उस के चेहरे, खासतौर से आंखों में गजब का आकर्षण है. वह अपनी आंखों की भंगिमाओं और चेहरे के भावों से नायक को रिझाने की कोशिश करती है.
कमाल की बात है कि बिना नायक के पास आए, बिना उसे छुए नायिका इस कोशिश में कामयाब भी हो जाती है. न सिर्फ इतना बल्कि यह भी कि नायिका की अदाएं और नायक की भावनाएं परदे के उस पार बैठे दर्शकों के मन में भी रोमानियत या मादकता की सिहरन बड़ी आसानी से पैदा कर देती हैं.
यह कामुकता है, जिसे एक निर्देशक ने अपनी कला से गढ़ा है. जिस में भावना है, इच्छा है, कामना है, बड़ी खामोशी से पूरी बात कह लेने का जादू है. यह श्वेतश्याम सिनेमा की रोमानियत परोसने की भाषा और शैली थी. तब फिल्म ‘मुगले आजम‘ में दिलीप कुमार के मधुबाला के जिस्म पर पंख फेरने भर से दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाते थे. फिर फिल्मों में रंग आए. तब हमारा सिनेमा थोड़ा बोल्ड हुआ.
राज कपूर का समय आया. अब हीरोइन की साड़ी सिमटने लगी. फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में जीनत अमान और ‘राम तेरी गंगा मैली’ में मंदाकिनी ने इस की मिसाल पेश की. इन फिल्मों में हीरोइन के अंग प्रदर्शन के जरिए दर्शकों में सिहरन पैदा करने की कोशिश की गई, जिस की निंदा हुई. इस पर तीखी टिप्पणियां और गंभीर आलोचनाएं की गईं, लेकिन यह सिलसिला रुका नहीं बल्कि बढ़ता गया. परदे पर परवीन बौबी और डिंपल कपाडि़या के नाम पर ऐसी नायिकाओं का उदय हुआ, जिन के पसंदीदा परिधान बिकनी और समुद्र में नहाना खास शौक था. अब बात सिर्फ अंग प्रदर्शन तक ही नहीं सिमटी थी बल्कि अंतरंग दृश्यों का तड़का भी फिल्मों में लगने लगा था. फिल्म ‘सागर’ और ‘बौबी’ युवा दर्शकों ने बारबार देखीं. फिल्म ‘सागर’ में समुद्र किनारे पारदर्शी साड़ी में डिंपल कपाडि़या और ऋषि कपूर पर फिल्माया गया गाना सिहरन पैदा करने के लिए पर्याप्त था. आलोचकों के लिए बहुत कुछ कहने की गुंजाइश थी, लेकिन सिनेमा के जानकारों को यह सब बहुत नहीं अखरा था. कारण साफ था, चाहे जीनत और मंदाकिनी का बिकनी पहनना हो या डिंपल के अंतरंग दृश्य, इन सब में एक सिनेमाई सौंदर्य बोध था. कहानी के साथ खपने की क्षमता थी इसलिए थोड़ेबहुत विरोध के बाद इन्हें मान्यता मिली.
फिर एक समय आया जब कामुकता की इस कड़ी में गीत भी शामिल हो गए. 90 के दशक में आई फिल्म ‘खलनायक’ का गीत ‘चोली के पीछे क्या है…’ और फिल्म ‘करण अर्जुन’ का गीत ‘राणाजी माफ करना…’ इसी कड़ी का हिस्सा थे. ‘चोली के पीछे…’ को तो लंबे समय तक रेडियो और टीवी ने प्रतिबंधित रखा. हालांकि आज ये गीत बेहत सामान्य लगते हैं. दरअसल, इस समय तक फिल्मों में ऐसे दृश्य या गीत एकाध होते थे जो बस फिल्म को लोकप्रियता दिलाने का काम करते थे.
फिल्म ‘मर्डर’ और ‘ख्वाहिश’ में भारी संख्या में चुंबन और कामुकता दर्शाते दृश्यों का इस्तेमाल किया गया. ऐसा नहीं था कि पहले की फिल्मों में इस तरह के दृश्य नहीं होते थे. फिल्म ‘थोड़ा प्यार और थोड़ा मैजिक’ में सैफ अली खान और अमीषा पटेल के पानी के अंदर चुंबन के दृश्य थे या फिर ‘राजा हिंदुस्तानी’ में करिश्मा कपूर और आमिर खान के भीगते हुए चुंबन दृश्य को याद किया जा सकता है, लेकिन ये पूरी फिल्म पर हावी नहीं थे, जबकि ‘मर्डर’ और ‘ख्वाहिश’ जैसी फिल्मों ने नया चलन शुरू किया, सैक्स का बाजार बनाने का चलन.
इन से पहले फिल्में कहानीप्रधान थीं और सैक्स उन में बस खाने में नमक के बराबर होता था, लेकिन इन फिल्मों में कहानी और सैक्स का प्रतिशत 50-50 का था. यहां तक कि गंभीर विषयों पर फिल्म बनाने वाले निर्देशक सुधीर मिश्रा को भी इस का सहारा लेना पड़ा. उन की फिल्म ‘यह साली जिंदगी’ इस की मिसाल है. इस फिल्म में कहानी थी, नाटकीयता थी, ऐक्शन था और कौमेडी थी. इन तमाम चीजों के बावजूद फिल्म में अरुणोदय सिंह और अदिति राव हैदरी के दर्जनों सैक्स व किसिंग सीन थे, जो कहीं भी कहानी की जरूरत नहीं लगते बल्कि ये साफ इशारा करते हैं कि इन्हें महज दर्शकों को आकर्षित करने के लिए फिल्म में ठूंसा गया है.
सुधीर की फिल्मों में ऐसे दृश्यों की भरमार का सीधा अर्थ है कि सैक्स आज के बाजार की जरूरत बन गया है इसलिए हर निर्देशक इसे सीधेसीधे परोस रहा है. मिसाल के तौर पर फिल्म ‘फैशन’ और ‘सात खून माफ’ में प्रियंका चोपड़ा के कई अंतरंग दृश्य थे, लेकिन वे कहानी के साथ पूरी तरह से मेल खा रहे थे या कम से कम कहानी का हिस्सा लग रहे थे, इसलिए वे उतने अखरे नहीं.
आज तो हालात यह हो गई है कि ‘मर्डर 3’ और ‘जिस्म 2’ जैसी फिल्में बन रही हैं, जिन का पूरा तानाबाना ही सैक्स को केंद्र में रख कर बुना गया था यानी सैक्स दिखाना निर्देशक की पहली प्राथमिकता रही और उसे पूरा करने के लिए एक कहानी का सहारा लिया गया.
सीधा सा अर्थ है कि कभी वहीदा रहमान और वैजयंती माला के जरिए ढकेछिपे अंदाज में जिस कामुकता को परोसने की कोशिश की जाती थी. अब उस की जगह मल्लिका शेरावत की स्पष्टवादिता हावी हो रही है. छिपाने की अदा कम है और दिखाने की बेचैनी ज्यादा. हो भी क्यों न, आज यह वह समय है जब पहली बार किसी पौर्न स्टार को बतौर हीरोइन पेश किया गया है. आज के निर्देशक कामुकता की जगह सीधेसीधे सैक्स परोसने में विश्वास करते हैं. कभी रोमांस दिखाने के लिए सैक्सुअल सीन डाले जाते थे लेकिन आज सीधेसीधे बेहद बेबाक अंदाज में सैक्सुअल सीन डाले जाते हैं.
सैक्स सीन जो जरूरी थे
इंसाफ का तराजू : बी आर चोपड़ा की इस फिल्म में 2 बार बलात्कार के दृश्य दिखाए गए. एक बार फिल्म की प्रमुख नायिका जीनत अमान इस घटना की शिकार बनती है और दूसरी बार फिल्म में उन की किशोरी बहन का किरदार निभा रही पद्मिनी कोल्हापुरे. दृश्य बोल्ड थे मगर यह फिल्म ही बलात्कार के मुद्दे पर बनी थी इसलिए ये दृश्य गैरजरूरी नहीं लगते.
सत्यम शिवम सुंदरम : राज कपूर की इस फिल्म में जीनत अमान एक आदिवासी महिला की भूमिका में थीं इसलिए उन की वेशभूषा पर उठाए गए सवाल गैर वाजिब लगते हैं.
फायर : दीपा मेहता ने यह फिल्म लेस्बियन रिलेशनशिप पर बनाई थी. शबाना आजमी और नंदिता दास प्रमुख भूमिका में थीं. दोनों के अंतरंग दृश्य फिल्म में दिखाए गए हैं. संभवतया, पहली बार एक औरत के दूसरी औरत के साथ शारीरिक संबंध होते किसी फिल्म में दिखाया गया था. मगर यह सीन फिल्म के लिए जरूरी थे, इसलिए सैंसर ने इसे रिलीज करने की अनुमति दे दी.
बैंडिट क्वीन : शेखर कपूर की इस फिल्म की नायिका सीमा बिस्वास थीं. वे दस्यु सुंदरी फूलन देवी का किरदार निभा रही थीं. फिल्म में उन के साथ कई बार बलात्कार होते हुए दिखाया गया. ये काफी बोल्ड दृश्य थे, लेकिन ऐसा लगता है कि अगर ये दृश्य न होते तो उस किरदार की पीड़ा का अंदाजा दर्शक कभी न लगा पाते.
सात खून माफ : विशाल भारद्वाज की इस फिल्म में प्रियंका चोपड़ा और अनु कपूर के कुछ बैडरूम सीन हैं जो थोड़े अखरते हैं, मगर चूंकि यह फिल्म एक औरत की 7 शादियों और उस के रिश्तों पर आधारित है, इसलिए इन्हें गैर जरूरी नहीं माना जा सकता.