नयी और पुरानी पीढ़ियों के बीच उम्र का ही नहीं, बल्कि विचारों में भी बहुत ज्यादा अंतर होता है. जब ये दोनों पीढियां एक ही छत के नीचे एक साथ रहती हैं तो धीरे-धीरे उनके दिल कैसे एक दूसरे से दूर हो जाते हैं. इन बातों को “आपला मानुस” फिल्म में दिखाने का प्रयास किया गया है. यह फिल्म विवेक बेले लिखित ‘काटकोन त्रिकोण’ नाटक पर आधारित है.
फिल्म की कहानी की शुरुआत कड़कती बिजली और मूसलाधार बारिश के साथ होती है. एक ऊंची ईमारत के कंपाउंड में अचानक से जोर की एक आवाज आती है. वाचमैन छाता लेकर आवाज की दिशा में जाता है. वहां जाकर देखता है तो आबा (नाना पाटेकर) अपने घर की गैलरी से गिर कर बेहोश पड़े मिलते हैं. प्रथम दृष्टि से यह एक आत्महत्या लगती है.
आबा का बेटा राहुल (सुमित राघवन) और बहू भक्ति (इरावती हर्षे) के घर पर रहते हुए ही यह घटना घटती है. इस वजह से क्राइम ब्रांच के अधिकारी मारुती नागरगोजे (नाना पाटेकर) को राहुल और भक्ति पर शक होता है. उनका मानना होता है कि भक्ति ने पहले इन्सुलिन का एक्स्ट्रा डोज देकर आबा को मारा है, फिर गैलरी से धकेल दिया है. लेकिन थोड़ी देर बाद खुद को ही गलत ठहराते हुए उनका शक राहुल पर जाता है और उस पर आबा को धकेलने का आरोप लगाते हैं. इतना ही नहीं, सबूत के साथ सिद्ध भी करते हैं. मारुती ऐसा इसलिए कर पाते हैं, क्योंकि भक्ति और आबा के बीच कभी नहीं बनती थी. भक्ति नौकरी करती है जिसके वजह से घर पर ध्यान नहीं दे पाती है और राहुल को सारा काम करना पड़ता है, ऐसा आबा का मानना होता है. इसी बात को लेकर घर में वाद विवाद का माहौल बना रहता है. दोनों के इस झगड़े में राहुल पीसता है. इसी वजह से गुस्से में आकर राहुल ने इस काम को अंजाम दिया है. इस आरोप के साथ उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है.
कुछ देर बाद जमानत लेकर राहुल घर आ जाता है. इतने में एक पत्र आता है, जो आबा ने आत्महत्या का प्रयास करने के पहले लिखा था और उसे देर से मिलने का इन्तजाम किया था. पत्र में लिखा होता है कि उन्होंने अकेलेपन से तंग आकर आत्महत्या करने की कोशिश की है. इस दौरान आबा कोमा में रहते हैं. होश आने के बाद उस घटना की रात में क्या घटा था, विस्तार से बताते हैं. यह आबा के हत्या का प्रयास था, आत्महत्या की कोशिश थी या फिर महज एक दुर्घटना, इसका वो खुलासा करते हैं.
‘क्या घटता है’ के बजाय ‘क्यों घटता है?’ इस प्रश्न पर फिल्म में ज्यादा जोर दिया गया है.
आज की पीढ़ी, पिछली पीढ़ी को नहीं समझ पाती है, उन्हें समय नहीं देती है. जिसके वजह से रिश्तों में दूरियां बढ़ने लगती है. यही फिल्म के निष्कर्ष के रूप में दिखाया गया है. लेखक की ‘जनरेशन गैप’ की कल्पना को देखने समझने का नजरिया एकतरफा और भावुक है.
किसी भी महिला को यदि कोई भी उसकी नौकरी को लेकर ताने मारता है, तो उससे समझदारी की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. पुरानी पीढ़ी के लिए उनका संस्कार भूलना कठिन होता है, ये समझा जा सकता है. लेकिन हर व्यक्ति की सहनशीलता का एक अंत होता है. इसलिए यहां नयी पीढ़ी की भावनाएं भी समझने की जरूरत है.
पुराने और नए पीढ़ी के बीच सम्बन्ध पर टिप्पणी करने के लिए बीच का रास्ता अपनाने की आवश्यकता थी. लेकिन ऐसा ना करते हुए फिल्म में नए पीढ़ी को गलत ठहराकर हार मानने पर मजबूर किया गया है.
इरावती हर्षे और सुमित राघवन का अभिनय उत्तम है. आबा और इंस्पेक्टर नागरगोजे की दोहरी भूमिका में नाना पाटेकर हमेशा की तरह दर्शकों के उम्मीदों पर खरे उतरते हैं. निर्देशन के तौर पर सतीश राजवाड़े कुछ हद तक सफल हुए हैं. लेकिन कुछ जगहों पर गलती कर बैठे हैं जिसकी उम्मीद नहीं थी. फिल्म में आबा के केस को क्राइम ब्रांच तक ले जाने के लिए कोई ठोस कारण नहीं बताया गया है. खोजबीन के जरिये रोमांच पैदा करने की कोशिश अच्छी है. लेकिन अंत में सवाल उठता है कि इतना तामझाम किसलिए? ‘रिश्तों का महत्त्व समझाने के लिए’ ये जवाब इतना प्रभावी नहीं है. कहानी बेवजह खींचती गई है और अंत में उबाऊं हो जाती है, लेकिन फिल्म के संवाद काफी अच्छे हैं. कुल मिलाकर फिल्म ‘आपला मानुस’ ठीकठाक है, जिसे एक बार देखने में कोई बुराई नहीं है.