हर इंसान लोभी होता है. इंसान के इसी लोभ और प्राचीन मिथक का ऐतिहासिक पीरियड हौरर फिल्म ‘‘तुम्बाड़’’ में बहुत बेहतरीन चित्रण है. फिल्म में कल्पनाओं व लोककथा के मिश्रण के साथ बहुत सुंदर दृश्यों को पेश किया गया है.

मराठी भाषी उपन्यासकार श्रीपाद नारायण पेंडसे के उपन्यास ‘‘तुम्बाड़चे खोट’’ पर आधारित  फिल्म  ‘‘तुम्बाड़’’ की कहानी तीन अलग काल में विभाजित है. जिसकी शुरुआत होती है 1918 से. जहां महाराष्ट्र  के तुम्बाड़ नामक गांव में विनायक राव (सोहम शाह) अपनी मां और भाई के साथ रहते हैं. वहां के बाड़े में एक खजाने के छिपे होने की चर्चा होती है, जिसकी तलाश विनायक के साथ साथ उसकी मां को भी है.

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मगर कुछ घटनाक्रम ऐसे घटित होते हैं, जिसके चलते विनायक की मां उसे लेकर पुणे आ जाती है. 15 वर्ष बाद विनायक पुनः तुम्बाड़ जाकर खजाने की तलाश करता है. इस बीच उसकी शादी और बच्चे भी हो जाते हैं. लेकिन खजाने का लोभ उसे बार बार अनंत विनाश वाले गांव तुम्बाड़ जाने पर विवश करता रहता है.

एक बेहतरीन पटकथा पर बनी निर्देशक राही अनिल बर्वे के निर्देशन की तारीफ करनी पड़ेगी. उन्होंने  इंसान के लालच की कहानी बयां करने के साथ ही इस बात का बाखूबी चित्रण किया है कि किस तहर लालच इंसान को राक्षस बना देता है. लोकेशन कमाल की है. पार्श्व संगीत उत्तम है. कैमरामैन पंकज कुमार की भी तारीफ करनी पड़ेगी.

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जहां तक अभिनय का सवाल है तो सोहम शाह की जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है. उन्होंने विनायक के जीवन भर के संघर्ष को चुनौती के साथ स्वीकार कर इतनी सहजता से निभाया है कि दर्शक उन पर यकीन करने लगता है. उनकी आंखों में लोभ व वासना का भाव बड़ी सहजता से नजर आता है. वह कमाल के कलाकार हैं.

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