कहने को हम 21वीं सदी में हैं मगर समाज में फैले अंधविश्वास, पूजापाठ, धर्म के वशीभूत इतने धर्मांध कि इन के मायाजाल में उलझ कर धन और समय दोनों का नाश कर डालते हैं.
अब जरा सोचिए, सड़क पर चलते काली बिल्ली रास्ता काट दे तो अपशगुन माना जाता है और कार सड़क के किनारे लगा कर किसी दूसरी कार के वहां से गुजर जाने का इंतजार करते हैं कि इस से अपशगुन कट जाएगा। यह अंधविश्वास नहीं तो और क्या है? क्या किसी जानवर के सड़क पार करने से किसी का काम बिगड़ जाएगा? यह रुढ़िवादी सोच नहीं तो और क्या है?
ऐसा नहीं है कि यह एक इकलौता अंधविश्वास है, जो हमारे समाज को खोखला कर रहा है. ऐसे हजारों अंधविश्वासों की पोटलियां पंडितपुजारियों और धर्मप्रवर्तकों ने आम जनता को थमा रखी हैं जिन की चिकनीचुपङी बातों में आ कर लोग अपनी मोटी बुद्धि का परिचय समयसमय पर देते रहते हैं.
अंधविश्वास किस कदर लोगों की जिंदगी में समा चुका है, इस का एक उदाहरण राजस्थान के गंगापुर शहर में देखने को मिला. यहां एक ही परिवार के 8 सदस्यों ने जहर खा कर जान देने की कोशिश की। 5 मौके पर मर गए मगर 3 को बाद में पड़ोसियों की मदद से बचा लिया गया.

क्या है पूरा मामला

पूरा मामला यह है कि यह एक परिवार टीवी शो 'देवों के देव महादेव' देखा करता था. एक दिन पूरा परिवार बैठ कर इस शो को देख रहा था. जब शो खत्म हुआ तो वे सभी शिव की अराधना में लग गए और उन के आने का इंतजार करने लगे. जब शाम तक कोई नहीं आया, तो पूरे परिवार ने खुद शिव से मिलने की ठानी और स्वर्ग जाने की बात करते हुए जहर खा कर जान दे दी.
यह घटना अपनेआप में यह बताने के लिए काफी है कि समाज में पहले से जड़ें जमा चुके अंधविश्वासों के बीच कोई टीवी सीरियल किस कदर सोचनेसमझने की क्षमता को खत्म कर डालता है.

वैज्ञानिक बदलाव और अंधविश्वास

21वीं सदी के दूसरे दशक में जब देश और दुनिया के वैज्ञानिक ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों को खोजने में रोज नईनई ऊंचाइयों को छू रहे हैं, जब एआई जैसी तकनीकें अपना पैर पसार रही हैं, जब बिना पायलट व ड्राइवर के प्लेन और ट्रेनें चल रही हैं, जब औटोमैटिक कारों ने सड़कों को घेर लिया है, उस दौर में टीवी सीरियल्स के जरीए हर रोज दर्जनों तरह के अंधविश्वास घरों में परोसना कहां की तरक्की है? यह सरासर लोगों के दिलोदिमाग से अंधविश्वास हटाने की बजाय उस का दायरा बढ़ाने की घनघोर साजिश है.
एक तरफ जहां टैलीविजन विज्ञान की देन है और विज्ञान की बुनियाद वैज्ञानिक सोच है, इसलिए विज्ञान के साधनों से यह उम्मीद रहती है कि वह अंधविश्वासों का परदा उठा कर इस का खात्मा करेंगे. लेकिन हो इस के उलट रहा है. विज्ञान के साधनों का ही इस्तेमाल अंधविश्वासों और फर्जी पारलौकिक अवधारणाओं को और ज्यादा फैलाने के लिए किया जा रहा है.

वजह क्या है

कहते हैं, जो दिखता है वही बिकता है। मेकर्स भी यही फौरमूला अपना रहे हैं. आस्था के नाम पर टीवी प्रोड्यूसर कुछ भी बना और बेच रहे हैं. वहीं दर्शक अंधभक्त हो कर न सिर्फ उन का गल्ला भर रहे हैं बल्कि अंधविश्वास की राह पर बढ़े चले जा रहे हैं.
जबकि होना यह चाहिए कि निर्मातानिर्देशकों को अंधविश्वास, बुद्धु बक्से की रणनीति और अपने फायदे को दरकिनार कर समाज में फैले अंधविश्वासों के जाल को उखाड़ कर फेंक देने वाले न सिर्फ कार्यक्रम बनाने चाहिए बल्कि समाज को एक नई और अंधविश्वास से मुक्त सोच की ओर बढ़ाना भी चाहिए.

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