बत कुछ समय पहले की है. मैं एक मित्र की शादी में गया था. विदाई का समय था. एक तरफ हम बराती नाच रहे थे तो दूसरी ओर वधू पक्ष वालों की आंखें नम थीं. दुलहन भी रो रही थी. जैसे ही मेरे मित्र के पिता की नजर एक ट्रक पर पड़ी तो उन्होंने तुरंत उस के बारे में अपने समधी से पूछा.
समधी बोले, ‘‘यह हमारी तरफ से वरवधू के लिए कुछ सामान है. नई गृहस्थी बसाने में काम आएगा.’’
मेरे मित्र के पिता ने यह सुन कर सारा सामान उतरवा दिया और अपने समधी से बोले, ‘‘हम यहां दहेज के लिए नहीं आए हैं. हम तो संबंध बनाने आए हैं. हमें बेटी चाहिए थी वह हमें मिल गई. आप की बेटी को नई गृहस्थी नहीं बसानी है. उस का असली घर उस का इंतजार कर रहा है.’’
वधू के पिता ने मेरे मित्र के पिता को गले से लगाते हुए कहा, ‘‘मैं अपने बेटे की शादी में आप की बातें याद रखूंगा.’’
उन भावुक क्षणों में मुझे अपनी शादी की याद आ गई, क्योंकि मैं ने भी बिना दहेज के शादी की थी.
- आर.के. वशिष्ठ
बात मेरे मौसेरे भाई के मित्र की शादी की है. मेरे मौसेरे भाई अपने मित्र की शादी में लखनऊ गए हुए थे. वहां उन्हें अपने मित्र सुधीर से बातोंबातों में पता चला कि दुलहन की बड़ी बहन से उस की शादी
की बात चली थी. पर बचपन में पैर में चोट लगने के बाद वह लंगड़ा कर चलती है, अत: उन्होंने उस रिश्ते से इनकार कर दिया और उस की छोटी बहन से शादी के लिए हां कह दी.