रीतेश अपनी क्लास का मेधावी छात्र था. पर पिछले दिनों उस का नर्वस ब्रेक डाउन हो गया. इस से उस की योग्यता का ग्राफ तो गिरा ही दिनप्रतिदिन के व्यवहार पर भी बहुत असर पड़ा. खासतौर पर मां और भाई के प्रति उस का आक्रामक व्यवहार इतना बढ़ गया कि उसे मनोचिकित्सालय में भरती कराना पड़ा. उस के साथसाथ घर वालों की भी पर्याप्त काउंसलिंग की गई. तब 3 महीने बाद यह मनोरोगी फिर ठीक हुआ. उस के मांबाप को बच्चों के साथ बराबर का व्यवहार करने की राय दी गई.

  1. क्यों पड़ी यह जरूरत

डा. विकास कुमार कहते हैं, दरअसल किसी भी मनोरोग की जड़ हमेशा रोगी के मनमस्तिष्क में नहीं होती. परिवार, परिवेश और परिचित से भी उस का जुड़ाव होता है, उस का असर अच्छेभले लोगों पर पड़ता है. हम औरों की दृष्टि से नहीं सोच पाते.

अकसर मनोचिकित्सकों के पास ऐसे केस आते रहते हैं. ‘सिबलिंग राइवलरी’ बहुत कौमन है. ऐसा छोटेछोटे बच्चों में भी होता है, जिन बच्चों में उम्र का अंतर कम होता है उन में खासतौर पर. यदि मांबाप वैचारिक या अधिकार अथवा व्यवहार में बच्चों में ज्यादा भेद करें तो भाईबहनों में यह प्रवृत्ति आ जाती है.

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  1. मां-बाप हैं इस की जड़

छोटेछोटे बच्चे छोटे होने के बावजूद भाईबहनों को स्वाभाविक रूप से प्यार करते हैं. अकेला बच्चा मांबाप से पूछता है, औरों के भाईबहन हैं पर उस के नहीं. उस को भाई या बहन कब मिलेंगे? बच्चा बहुत निर्मल मन से उन का स्वागत करता है पर धीरेधीरे वह देखता है कि उस के भाईबहन को ज्यादा लाड़प्यार दिया जा रहा है, ज्यादा अटैंशन दी जा रही है तो अनजाने ही वह पहले उस बच्चे को और फिर मांबाप को अपना शत्रु समझने लगता है. फिर अपनी बुद्धि के अनुसार बदला लेने लगता है.

रिलेशनशिप काउंसलर निशा खन्ना कहती हैं, ‘‘अकसर मांबाप बच्चों को चीजें बराबर दिलाते हैं, खिलातेपिलाते एकजैसा हैं पर वे मन के स्तर पर एकरूपता नहीं रख पाते. जैसे किसी बच्चे की ज्यादा प्रशंसा करेंगे, उसे भविष्य की आशा बताएंगे, अपने सपनों को साकार करने वाला बताएंगे. वे यह भूल जाते हैं कि हर एक बच्चे का बौद्धिक व भावनात्मक स्तर भिन्न होता है. इसलिए मांबाप को चाहिए कि वे बच्चों के साथ डेटूडे व्यवहार में चौकस रहें. उन से बराबरी का व्यवहार करें वरना एक बच्चा कुंठित, झगड़ालू, ईर्ष्यालु और हिंसक तक हो सकता है. इस के दुष्परिणाम हत्या, आत्महत्या, तोड़फोड़ मनोरुग्णता जैसे कई रूपों में हो सकते हैं.’’

  1. पेरैंटिंग सब से बड़ी चुनौती

गृहिणी राजू कहती हैं, ‘‘बच्चों को पैदा करने से ज्यादा मुश्किल है प्रौपर पेरैंटिंग. यह आज की सब से बड़ी चुनौती है. पहले बच्चा संयुक्त परिवार में पलता था, उस की भीतरी, आंतरिक और भावनात्मक शेयरिंग के लिए दादादादी, बूआ, चाचाताऊ आदि थे. उन के पास बच्चों के लिए अवसर था. फिर अभाव भी थे तो बच्चे थोड़े में संतुष्ट थे परंतु आज का बच्चा जागरूक है. मीडिया के माध्यम से सबकुछ घर में देखता है, इसलिए वह मांबाप से अपने अधिकार चाहता है. वह तर्कवितर्क करता है, बहस में जरा भी संकोच नहीं करता. ऐसे में मांबाप को चाहिए कि वे सजग हो कर पेरैंटिंग करें. पैसा खर्च कर के कर्तव्य की इतिश्री न करें.’’

मांबाप अकसर बच्चों के प्रति सोचविचार कर व्यवहार नहीं करते. किशोर बबली कहती है, ‘‘मेरे मांबाप मेरी टौपर बहन पर जान छिड़कते हैं. मैं घर के सारे काम करती हूं, दादी का ध्यान रखती हूं. उन्हें इस से कोई मतलब नहीं. दीदी तो पानी तक हाथ से ले कर नहीं पीतीं. ऐसे में मैं टौपर बनूं तो कैसे?’’

दादी उस के मनोभावों का उद्वेलन शांत करती हैं पर मांबाप की ओर से वह खास संतुष्ट नहीं है. वह उन से अपने काम का रिटर्न और प्यार चाहती है.

  1. शेयरिंग है जरूरी

रमन मल्टीनैशनल कंपनी में ऊंचे ओहदे पर हैं. मांबाप का खूब खयाल रखते हैं. उन की बैंक मैनेजर पत्नी भी पूरा ध्यान रखती है. पर उन को यह बड़ा ही शौकिंग लगा जब माता-पिता ने छोटे बेटे के साथ रहने का निर्णय लिया. छोटा बेटा मांबाप पर खास ध्यान भी नहीं देता, न ही उस के बच्चे. उस की घरेलू पत्नी भी अपने में ही मगन थी. मांबाप के इस निर्णय पर रमन व उन की पत्नी बहुत नाराज हो गए. फूटफूट कर रोए. एक पड़ोसिन ने रमन के मांबाप को यह बात बताई तो मांबाप को लगा सचमुच उन से गलती हो गई.

वे रमन और उन की पत्नी को अपनी ओर से श्रीनगर घुमाने ले गए. वहां उन्होंने बताया कि छोटा लड़का कम कमाता है. उस की बीवी भी नौकरी नहीं करती. दोनों के बच्चे भी आज्ञाकारी नहीं हैं. ऐसे में वे साथ रहेंगे तो उन्हें कुछ आर्थिक मदद भी मिल जाएगी और बच्चों की पढ़ाईलिखाई व पालनपोषण भी अच्छा रहेगा. भले ही उन्हें रमन के साथ सुख ज्यादा है पर 8-10 साल भी हम जी गए तो उस की गृहस्थी निभ जाएगी वरना रोज की चिकचिक से मामला बिगड़ जाएगा.

रमन व उन की पत्नी ने काफी हलका महसूस किया, साथ ही हकीकत जान कर उन का छोटे भाई के प्रति नजरिया भी बदला. उन्होंने भी आर्थिक स्तर के चलते जो दूरियां आने लगी थीं उन्हें समय रहते पाट दिया.

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  1. पैसा ही सबकुछ नहीं

डा. जय अपने माता-पिता को हर माह खर्च के लिए अच्छी राशि देते हैं पर उन्हें लगता है कि उन के मांबाप रिश्तेदारों में छोटे भाई का गुणगान ज्यादा करते हैं जिस ने कभी उन की हथेली पर कुछ नहीं रखा. इस के चलते परिवार में 2 गुट होने लगे. तब जय के माता-पिता ने स्पष्ट किया कि बेटा, पैसे की मदद बहुत बड़ी है पर तुम्हारे छोटे भाई का पूरा परिवार भी कम मदद नहीं करता, राशनपानी लाना, कहीं लाना, ले जाना, छोड़ना, सामाजिकता निभाने में मदद करना. अगर हम इन्हीं कामों को पैसे से तौलें तो तुम्हारे पैसे से ज्यादा ही रहेगी यह मदद. कोई नापने में समझता है तो कोई तौलने में. डा. जय को भी लगा कि यह बात तो सही है कि पैसे देने के बाद वे माता-पिता की खैरखबर नहीं ले पाते. उन को पिता के हार्टअटैक के समय छोटे भाई के ससुराल वालों की दौड़भाग भी याद आई.

  1. नजरिए का विस्तार

सुरंजय और संजय मांबाप से खूब लड़ते हैं. उन के मंझले भाई अजय इन दोनों से अलग हैं. अजय शराब नहीं छूते. वे आज्ञाकारी व मांबाप के सहायक हैं. फिर भी मांबाप उन दोनों को भी बराबर प्यार देते हैं. उस के अच्छे होने का फायदा ही क्या? अजय के इस कौन्फ्लिक्ट पर मांबाप ने समझाया, ‘शरीर का कोई अंग जब तक ठीक होने लायक हो तब तक उस की पूरी परवा की जाती है. उन की संगत ठीक नहीं थी, हमारे प्यार से वह सुधरी, आगे और भी सुधार संभव है. तुम पर जो नाजविश्वास हमें है, उस का तो कहना ही क्या पर हम इन दोनों को नजरअंदाज नहीं कर सकते तुम्हारी मांग जायज होने के बावजूद. अजय की शिकायत काफी कम हो गई. वे समझ सके कि सब को बराबर प्यार देना मांबाप की जिम्मेदारी है. यही उन के भाइयों को भी करना चाहिए पर वे अपरिपक्व हैं.

  1. कमजोर बच्चे की ओर झुकाव

मांबाप का मन अकसर छोटे और कमजोर बच्चों की ओर ज्यादा रहता है. वे सब बच्चों को समान व स्तरीय देखना चाहते हैं. ऐसे में कभीकभी भेदभाव जैसा व्यवहार लगता है पर असल में उन का भाव वैसा नहीं होता. बड़े बच्चों के साथ मांबाप दोस्ताना होते हैं. वे उन्हें जिम्मेदार समझ कर उन से उम्मीद करते हैं कि वे छोटे भाईबहनों का भी ध्यान रखें.

  1. सही सलाह भी जरूरी

प्रकाश वैसे आईआईटी का छात्र है पर उसे लगता है कि उस के विकलांग भाई के पीछे मांबाप पागल हैं. अगर उस पर इस से आधा भी प्यार लुटाते तो वह 2 चांस नहीं गंवाता. उसे उस के दोस्तों ने समझाया, ‘तुम समर्थ हो, सबल हो. तुम्हारा बड़ा भाई हर काम के लिए उन पर निर्भर है. इसलिए अगर वे राधूराधू करें तो तुम परेशान मत हुआ करो. तुम्हारे पास बाहर की पूरी दुनिया है. राधू के पास व्हीलचेयर, किताबें, टीवी और इक्कादुक्का लोगों के अलावा कौन है? इतने पराधीन जीवन में मांबाप ही उस का साथ नहीं देंगे तो वह जी ही नहीं पाएगा.’ प्रकाश को लगा कि उस की सोच भी दोस्तों जैसी परिपक्व व सकारात्मक होनी चाहिए.

  1. देने-लेने में फर्क

चाहे किसी के पास कितना ही धन हो पर अधिकार की प्राप्ति सब बराबर चाहते हैं. एक प्रोफैसर मां कहती हैं, मेरे बेटे का 5 लाख रुपए महीने का पैकेज है पर फिर भी वह छोटीछोटी बातों पर लड़ता है. उस के भाई को 20 हजार रुपए मिलते हैं. दो पैसा उसे दे दूं तो रूठ कर मेरी चीज मेरे सामने ही रख जाता है. तब मेरी सखी ने समझाया, ‘इस व्यवहार से तुम बेटेबहू दोनों खो दोगी.’ तब मैं ने समझा पैसे से भी ज्यादा जरूरी है भावनात्मकता व्यक्त करना. अब से मैं होलीदीवाली सब को बराबर देती हूं. भाईभाई आपस में कन्सर्न रख कर अब कुछ तरक्की पर हैं. बड़े भाई ने छोटे भाई के बिजनैस को प्रौफिटेबल बनाने में भी मदद की. होड़ और ईर्ष्या की जगह अच्छे अनुकरण ने ली.

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बलवीर कहते हैं, ‘‘मेरे बड़े बेटे के पास अकूत दौलत है. मैं ने अपनी प्रौपर्टी बांटी तो हिस्सा उस के हाथ से कराया. उस ने यादगार के तौर पर मामूली चीजें लीं बाकी भाईबहनों को दे दीं. उन सब में प्रेम भी खूब है. छोटा बेटा नशे का शिकार था उसे भी संभाला.’’ मनोचिकित्सक डा. विकास कहते हैं, ‘‘एकजैसी परवरिश पाने पर लगभग सब बच्चे एकजैसे योग्य निकल सकते हैं. उन में 19-20 का अंतर होता है. यह नैचुरल व ऐक्सेप्टेबल होता है.’’

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