जिंदगी ट्रेन के सफर की तरह है, जिस में न जाने कितने मुसाफिर मिलते हैं और फिर अपना स्टेशन आते ही उतर जाते हैं. बस हमारी यादों में उन का आना और जाना रहता है, उन का चेहरा नहीं. लेकिन कोई सहयात्री ऐसा भी होता है, जो अपने गंतव्य पर उतर तो जाता है, पर हम उस का चेहरा, उस की हर याद अपने मन में संजो लेते हैं और अपने गंतव्य की तरफ बढ़ते रहते हैं. वह साथ न हो कर भी साथ रहता है.
ऐसा ही एक हमराही मुझे भी मिला. उस का नाम है- संपदा. कल रात की फ्लाइट से न्यूयौर्क जा रही है. पता नहीं अब कब मिलेगी, मिलेगी भी या नहीं. मैं नहीं चाहता कि वह जाए. मुझे पूरा यकीन है कि वह भी जाना नहीं चाहती. लेकिन अपनी बेटी की वजह से जाना ही है उसे. संपदा ने कहा था कि पृथक, अकेले अभिभावक की यही समस्या होती है. फिर टिनी तो मेरी इकलौती संतान है. हम एकदूसरे के बिना नहीं रह सकते. हां, एक वक्त के बाद वह अकेले रहना सीख जाएगी. इधर वह कुछ ज्यादा ही असुरक्षित महसूस करने लगी है. पिछले 2-3 सालों में उस में बहुत बदलाव आया है. यह बदलाव उम्र का भी है. फिर भी मैं यह नहीं चाहती कि वह कुछ ऐसा सोचे या समझे, जो हम तीनों के लिए तकलीफदेह हो.
मैं उसे देखता रहा. पिछले 2 सालों से उस में बदलाव आया है यानी जब से मैं संपदा से मिला हूं. हो सकता है कि उस की बात का मतलब यह न हो, पर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा, दुख हुआ.
संपदा ने मेरा चेहरा पढ़ लिया, ‘‘पृथक, तुम्हें छोड़ कर जाने से मैं बिलकुल अकेली हो जाऊंगी, इस का दुख मुझे भी है पर अब मेरे लिए टिनी का भविष्य ज्यादा जरूरी है.’’
‘‘टिनी होस्टल में भी रह सकती है… तुम्हारा जाना जरूरी है?’’ मैं ने संपदा का हाथ पकड़ते हुए कहा था. उस की भी आंखें देख कर मुझे खुद पर गुस्सा आ गया था. मनुष्य का मन चुंबक के समान है और वह अपनी इच्छित वस्तु को अपनी ओर आकर्षित कर उसे प्राप्त कर लेना चाहता है. परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों.
मैं कितना स्वार्थी हो गया हूं. वैसे भी मैं उसे किस हक से रोक सकता हूं? सब कुछ होते हुए भी वह मेरी क्या है? आज समझ में आ रहा है. हमदोनों की एकदूसरे की जिंदगी में क्या जगह है? दोनों के रिश्ते का दुनिया की नजर में कोई नाम भी नहीं है. समाज को भी रिश्तों में खून का रंग ज्यादा भाता है. अनाम रिश्तों में प्रेम के छींटे समाज नहीं देख पाता. अगर मेरी बेटी को जाना होता पढ़ने, तो मैं क्या करता? मैं उसे आसपास के शहर में भी नहीं भेज पाता.
मुझे चुप देख कर संपदा ने नर्म स्वर में कहा, ‘‘हमें अच्छे और प्यारे दोस्तों की तरह अलग होना चाहिए. इन 2 सालों में तुम ने बहुत कुछ किया है मेरे लिए… तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता है. तुम समझ सकते हो मुझे कैसा लग रहा होगा… तुम भी ऐसे उदास हो जाओगे…’’ उस के चेहरे पर उदासी छा गई.
कितनी जल्दी रंग बदलती है उस के चेहरे की धूप… रंग ही बदलती है, साथ नहीं छोड़ती. अंधेरे को नहीं आने देती अपनी जगह.
मैं उसे उदास नहीं देख पाता. अत: मुसकराते हुए कहा, ‘‘दरअसल, बहुत प्यार करता हूं न तुम्हें… इसीलिए पजैसिव हो गया हूं और कुछ नहीं. तुम ने बिलकुल ठीक फैसला किया है. मैं तुम्हें जाने से रोक नहीं रहा. पर इस फैसले से खुश भी कैसे हो सकता हूं,’’ यह कह कर मैं एकदम से उठ कर अपने चैंबर में आ गया. अपने इस बरताव पर मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आया कि मुझे उसे दुखी नहीं करना चाहिए.
यह वही संपदा है, जिस ने अपनी प्रमोशन पिछली बार सिर्फ इसलिए छोड़ दी थी कि उसे मुझे से दूर दूसरे शहर में जाना पड़ रहा था और वह मुझे छोड़ कर नहीं जाना चाहती. तब मैं उसे जाने के लिए कहता रहा था. तब उस ने कहा था कि तुम्हें कहां पाऊंगी वहां?
जब मैं अपनी कंपनी की इस ब्रांच में आया था अच्छाभला था. अपने काम और परिवार में मस्त. घर में सारी सुखसुविधाएं, बीवी और 2 बच्चों का परिवार, जो अमूमन सुखी कहलाता है… सुखी ही था. मेरी कसबाई तौरतरीकों वाली बीवी, जो शादी के बाद से ही खुद को बदलने में लगी है, पता नहीं यह प्रक्रिया कब खत्म होगी? शायद कभी नहीं. बच्चे हर लिहाज से एक उच्च अधिकारी के बच्चे दिखते हैं. मानसिकता तो मेरी भी पूर्वाग्रहों से मुक्त न थी.
एक दिन आपस में लंच टाइम में बैठे न जाने क्यों एक लैक्चर सा दे दिया. स्त्रीपुरुष के विकास की चर्चा सुन कर मुझ से संपदा ने जो कहा उस ने मुझे काफी हद तक बदल दिया था.
उस ने कहा था, ‘‘विकास के नियम स्त्रीपुरुष दोनों के लिए अलग नहीं हैं. किंतु पुरुष अविकसित पत्नी के होते हुए भी अपना विकास कर लेता है. लेकिन अविकसित पति के संग रह कर स्त्री अपना विकास असंभव पाती है, क्योंकि वह उस की प्रतिभा को पहचान नहीं पाता और व्यर्थ की रोकटोक लगाता है, जिस से स्त्री का विकास बाधित होता है. कम विकसित व्यक्तित्व वाली स्त्री जब अधिक विकसित परिवार में जाती है, तो वह अनुकूल विवाह है यह व्यावहारिक है, क्योंकि वहां उस के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध नहीं होता. लेकिन ऐसा परिवार जो उस के व्यक्तित्व की अपेक्षा कम विकसित है, उस परिवेश में उस का व्यक्तिगत विकास अधिक संभव नहीं होता तो यह अनुकूल विवाह नहीं है. वहां स्त्री का दम घुट जाएगा. विकास से मेरा तात्पर्य बौद्धिक, मानसिक, आत्मिक विकास से है. यह आर्थिक विकास नहीं है. ज्यादातर आर्थिक समृद्धि के साथ आत्मिक पतन आता है. स्त्री शक्ति है. वह सृष्टि है, यदि उसे संचालित करने वाला व्यक्ति योग्य है. वह विनाश है, यदि उसे संचालित करने वाला व्यक्ति अयोग्य है. इसीलिए जो मनुष्य स्त्री से भय खाता है वह अयोग्य है या कायर और दोनों ही व्यक्ति पूर्ण नहीं हैं…’’
मैं उस का मुंह देखता रह गया. मैं ने तो बड़े जोर से उसे इंप्रैस करने के लिए बोलना शुरू किया था पर उस के अकाट्य तर्कसंगत सत्य ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था. वह बिलकुल ठीक थी. कितनी अलग लगी थी संपदा ऐसी बातें करते हुए? पहले मैं क्याक्या सोचता था उस के बारे में.
इस औफिस में पहले दिन संपदा को देखा तो आंखों में चमक आ गई थी. चलो रौनक तो है. तनमन दोनों की सेहत ठीक रहेगी. पहले दिन तो उस ने देखा तक नहीं. बुझ सा गया मैं. फिर ऐसी भी क्या जल्दी है सोच कर तसल्ली दी खुद को. उस के अगले दिन फौर्मल इंट्रोडक्शन के बीच हाथ मिलाते हुए बड़ी प्यारी मुसकान आई थी उस के होंठों पर. देखता रह गया मैं. कुल मिला कर इस नतीजे पर पहुंचा कि मस्ती करने के लिए बढि़या चीज है. औफिस में खासकर मर्दों में भी उस के लिए कोई बहुत अच्छी राय नहीं थी. वह उन्हें झटक जो देती थी अपने माथे पर आए हुए बालों की तरह. खैर, कभीकभी की हायहैलो गुड मौर्निंग में बदली.