गार्गी भी ऊपर अपने कमरे में आराम करने चली गई. कब उस की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला. सुबह की खटपट से उस की आंख खुली. बच्चे स्कूल के लिए तैयार हो रहे थे, निन्नी काम के लिए.
सुबह से शाम तक टैलीविजन देखना गार्गी की दिनचर्या में आ गया था. निन्नी कब घर वापस आई, कब गई, उसे पता ही नहीं चलता.
शाम को काम निबटा कर दोनों मांबेटी बैठी थीं. बच्चे स्कूल का काम कर रहे थे. गार्गी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘निन्नी, आज कमरे की खिड़कियां बंद करते समय मेरी निगाह पूरण की अलमारी पर पड़ी. बेटा, तुम क्यों नहीं उस का सामान समेट देतीं. सुनो, यह कुरसी भी हटा दो यहां से. इसे देख कर अकसर तुम उदास हो जाती हो.’’
इतना सुनते ही निन्नी तिलमिला उठी, ‘‘मां, बात यहीं समाप्त कर दीजिए. यह पूरण का घर है. हम उस की ही छत के नीचे खड़े हैं. उस की मिट्टी को मत कुरेदो. मर चुका है वह. नहीं आएगा अब वापस. कभी नहीं आएगा. बहुत कोस चुकी हैं आप उसे, अब बंद करो कोसना. मैं ने पति को और मेरे बच्चों ने पिता को खोया है. मां, आप के आगे हाथ जोड़ती हूं, मुझे जबानदराजगी के लिए मजबूर मत करो. पूरण की चीजें आसपास होने से मुझे उस के होने का एहसास होता है. उस के कपड़ों में से उस की महक आती है. मेरे उदास, कमजोर क्षणों में उस की चीजें मरहम का काम करती हैं. मेरा यही तरीका है अपने दुख से निबटने का. कई बार तो ऐसा लगता है, अगर कहीं वह लौट आया तो उसे क्या उत्तर दूंगी,’’ इतना कहते ही वह फूटफूट कर रोने लगी.
रोतेरोते कहती रही, ‘‘बचपन से ही आप के मुख से यह सुनती आई थी, उस की नाक पकौड़ा है, चीनी लगता है, वह टुंडा है, उस के चुंदीचुंदी आंखें हैं. बड़ी अकड़ से आप ने उसे चुनौती दी थी. वह भी शतप्रतिशत खरा उतरा था आप की चुनौती पर. इतना बड़ा घर, रुतबा इज्जत सभी कुछ तो प्राप्त किया था उस ने.’’
कहतेकहते वह फिर सुबकसुबक कर रोने लगी.
‘‘गलत ही क्या कहा है मैं ने? 2 बेटों की जिम्मेदारी छोड़ गया है. मुझे यहां और नहीं रहना. टिकट कटा दे मेरा वापसी का,’’ गार्गी ने झुंझला कर कहा.
‘‘बस, यही औजार रह गया है आप के पास?’’
एकाएक कमरे में बोझिल सा सन्नाटा छा गया. निन्नी और गार्गी के बीच चुप्पी की दीवार खड़ी हो गई थी. गार्गी ने अपना मुंह बंद रखने की ठान ली. समय कब पतझड़ व गरमियों का घेरा पार कर सर्दी की गोद में सिमट गया, पता ही नहीं चला. सर्दी बढ़ती जा रही थी. बर्फ, कोहरा, सर्द हवाओं ने अपना काम शुरू कर दिया था.
सुबह के 9 बजने को थे. अभी तक कोहरे की धुंध नहीं छटी थी. सूरज उगा या नहीं इस का अनुमान लगाना कठिन था. प्रतिदिन घर से सब के चले जाने के बाद गार्गी टैलीविजन में लीन रहती.
स्कूल से घर आते ही आज दोनों नाती चिल्लाने लगे, ‘‘नानी, भूख लगी है.’’
‘‘थोड़ा सा इंतजार करो. अभी तुम्हारी मम्मी आ जाएंगी,’’ इतना कह कर गार्गी फिर टीवी सीरियल में लीन होे गई.
सड़कों पर बर्फ पड़ने के कारण निन्नी को घर पहुंचने में देर हो गई. घर पहुंचते ही बच्चे बोले, ‘‘मम्मी, देर से क्यों आई हैं आप? भूख के मारे दम निकल रहा है.’’
‘‘नानी से क्यों नहीं कहा?’’ निन्नी ने झुंझलाते हुए कहा.
‘‘कहा था, नानी ने कहा कि मम्मी आने वाली हैं.’’
निन्नी ने चायनाश्ता बना कर सब को परोसा. रात के खाने के बाद बच्चे अपने कमरे में चले गए.
‘‘निन्नी, जब से आई हूं तब से तुम से कह रही हूं कि अपने कमल चाचा को चाची के पूरे होने पर शोक प्रकट कर दो,’’ गार्गी ने कहा.
निन्नी बोली, ‘‘मां, मैं हर रोज देखती हूं कि जब मैं काम से घर आती हूं, आप टीवी में इतनी मगन होती हैं कि मेरी उपस्थिति का भी एहसास नहीं होता आप को, क्यों? क्योंकि मैं भैया नहीं हूं. यों कहूं तो ज्यादा ठीक होगा, लड़का जो नहीं हूं.
‘‘मुझे याद है, जब भी भैया के काम से घर आने का समय होता तो भाभी के होते हुए भी आप समय से पहले ही उन के लिए चायपकौड़े या समोसे मेज पर तैयार रखतीं और बच्चों से कहतीं, ‘पापा से दूर रहना, तुम्हारे पापा काम से हारेथके आए हैं.’ यही नहीं, उन के हाथमुंह धोने के लिए तौलियापानी सबकुछ तैयार रहता. अगर गरमी होती तो आप उन्हें पंखा भी झलतीं. ठीक कह रही हूं न? जवाब दो? यहां मैं भी तो नौकरी करती हूं. घर चला रही हूं. मां के कर्तव्यों के संग पिता की भूमिका भी निभा रही हूं. मुझे तो चाय का प्याला क्या देना, मुझी से सभी अपेक्षाएं करते हैं. आप एक औरत होते हुए भी आखिर क्यों औरत को उस की अहमियत से दूर कर रही हैं? क्यों उसे बारबार याद दिलाती हैं कि वह अस्तित्वहीन है? इतना भेदभाव क्यों, मां?
‘‘आप अपनी अहमियत जतलाने से कभी नहीं चूकतीं कि मैं मां हूं. यहां तक कि जब कोई पूरण का शोक प्रकट करने आता है, आप उस के सामने अपनी समस्याएं रख कर उसे अपने बखेड़ों में उलझा लेती हैं. आप क्यों भूल जाती हैं कि आप मेरे पति की मृत्यु पर शोक प्रकट करने व बेटी को सहारा देने आई हैं. छुट्टियां मनाने नहीं.’’
गार्गी ने बेटी के सवालों का उत्तर न देने की मंशा से गूंगेबहरे सी नीति अपना ली.
मांबेटी में परस्पर विरोधी विचारों का युद्ध चलता रहा. विचारों का अथाह समुद्र फैल गया जिस की तूफानी लहरों ने दोनों के दिलोदिमाग को अशांत कर दिया.
गार्गी अपने सोने के कमरे में चली गई. उस का सिर चकरा रहा था. कमरे में रात का धुंधलका चुपके से घिर आया था. मानो कनपटियों से धुएं की 2 लकीरें ऊपर उठती हुई सिर के बीचोंबीच मिलने की चेष्टा कर रही हों. उस के सीने में बेचैनी उतर आई थी. निन्नी ने उस की जंग लगी सोच का बटन दबा दिया था. उस के मस्तिष्क में उथलपुथल होने लगी, गार्गी नाराज नहीं थी. सोच रही थी, निन्नी ठीक कहती है. अपने ममत्व का गला घोंटते समय उसे यह एहसास क्यों नहीं हुआ. वह भी बहनभाइयों में पली है?
वह स्वयं के ही प्रश्नों में उलझ गई. क्या सचमुच अनपढ़ होने से मेरी सोच की सूई में विराम लग गया है? छिछिछि… शर्मिंदा थी वह अपने व्यवहार से, सोच से. माफी की सोचते ही उस का अहं आड़े आ जाता. सोचने लगती, क्या मां होने के नाते सभी अधिकार उसी के हैं. मां जो थी, गलत कैसे हो सकती थी? उस रात निन्नी की बातें उस के जेहन में उमड़तीघुमड़ती रहीं. एक शब्द ‘भेदभाव’ उस के जेहन में घर कर गया. गार्गी की वह रात बहुत भारी गुजरी. उसे ऐसा लगा, धरती से आकाश तक गहरी धुंध भर आई हो. गार्गी अपनी सोच का मातम मनाती रही.