Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 5

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

राघव एकदम से उछल कर बैठ गया जैसे प्रसन्नता का कोई करंट उसे लग गया हो लेकिन तुरंत ही कुछ सोच कर उस के चेहरे पर उदासी छा गई और मेरी बगल में धीरे से फिर लेटते हुए बोला, ‘‘लेकिन पैरों के बारे जान कर वे शायद ही राजी हों?’’

राघव ने यह कहा तो मैं ने सारी परिस्थितियों पर विचार करते हुए कहा, ‘‘राघव, कल तुम बस, इतना करो कि शोभा के जितने भी फोटो तुम्हारे मोबाइल में हैं उन्हें किसी बहाने भाईसाहब को दिखाओ. बाकी सब मुझ पर छोड़ दो.’’

राघव किसी सोच में डूब गया. उसे सोच में डूबा देख कर मैं ने उठ कर कमरेदरवाजे की सांकल को चैक किया. वे बंद थीं. फिर कमरे की सारी बत्तियां बुझा कर राघव की आगोश में आ कर लेट गई. राघव ने मुझे चूमना शुरू कर दिया.

सवेरे मेरी आंख जल्दी ही खुल गई थी. सास ने कहा था कि कल जल्दी उठ जाना क्योंकि लेडीज संगीत में महल्ले की सभी आमंत्रित महिलाएं आएंगी तो घर थोड़ा व्यवस्थित और सजासंवरा दिखना चाहिए.

इसलिए मैं राघव को सोता छोड़ कर नहाईधोई, फिर तैयार हो कर नीचे पहुंच गई. जेठजी के कमरे का दरवाजा बंद था. मैं ने अनुमान लगा लिया कि वे अभी उठे नहीं थे.

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दीदी के साथ मिल कर घर को खूब सुसज्जित कर के जब खाली हुई तो सास ने अपने कमरे में ले जा कर मुझे एक बहुत ही सुंदर जौर्जेट की साड़ी ब्लाउज पेटीकोट के साथ देते हुए कहा, ‘‘लेडीज संगीत में तुम्हें यह नई साड़ी ही पहन कर बैठना है. ब्लाउज मैं ने तुम्हारे पुराने नाप से थोड़ा बीस सिलवा लिया था. मुझे उम्मीद है ठीक आएगा.’’

सास द्वारा प्यार से दी गई उस लाल बौर्डर वाली सुनहरी साड़ी पहन कर मैं बहुत खुश थी तथा सुंदर और आकर्षक दिख रही थी और अब मेरे पास भाईसाहब की उस साड़ी को न पहनने का ठोस बहाना था.

नीचे दीदी के कमरे में ही मैं सास वाली साड़ी पहन कर तैयार हो गई थी. खूब जम कर लेडीज संगीत हुआ. ढोलक पर खूब बन्ने गाए गए. ढोलक बजाने में सास को महारत हासिल थी. मुझ से भी विवाह के गीत सुने गए.

जलपान के साथ मिठाई का डब्बा दे कर सब मेहमानों को जब हम ने विदा कर दिया तब मैं ऊपर आई.

राघव भाईसाहब के कमरे में बैठ अपने मोबाइल से उन्हें शोभा की उन तसवीरों को दिखा रहा था जो शोभा की अकेले की भी थीं और राघव के साथ की भी.

मैं राघव को उस कमरे में देख कर दरवाजे पर ही ठिठक कर रुक गई तो राघव बोला, ‘‘आओ, अंदर आओ प्रशोभा. खत्म हो गया तुम लोगों का संगीत कार्यक्रम?’’

भाईसाहब, जो मोबाइल की फोटोज देखने में मशगूल थे, मुझे सुंदर सी साड़ी पहने देख कर देखते ही रह गए, फिर बोल पड़े, ‘‘राघव, वास्तव में बहुत खुश हो क्योंकि प्रशोभा जितनी सुंदर प्रत्यक्ष दिखती है, उस से ज्यादा इन फोटोज में. वास्तव में तुम दोनों की जोड़ी बहुत अच्छी लगती है.’’

मुझे भी दीदी ने मिठाई का डब्बा  पकड़ा दिया था जिसे हाथ में लिए हुए मैं राघव के पास रखी कुरसी पर आ कर बैठ गई और मिठाई भाईसाहब की तरफ बढ़ाते हुए बोली, ‘‘भाईसाहब, आप मिठाई खाइए. फिर मुझ से आप अपनी कसम तोड़ने का वादा करें तो मैं आप की भी अपने से बढि़या जोड़ी बनवा सकती हूं.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता प्रशोभा, क्योंकि मुझे अपने जीवन में कंचन के बाद कोई अच्छा लगा तो वह तुम और तुम मेरे प्रिय भाई राघव की जीवनसंगिनी हो. तो अब मेरा जीवन ऐसे ही बीत जाएगा,’’ यह कह कर भाईसाहब फिर मोबाइल की फोटोज को देखने लगे.

मैं ने राघव की तरफ देख कर इशारे से उन फोटोज की सचाई बताने की इजाजत ली. फिर भाईसाहब से पूछा, ‘‘अच्छा भाईसाहब, एक बात बताइए, राघव के साथ जिस की फोटोज आप देख रहे हैं, यह आप को मिल जाए तो आप अपनी शादी न करने वाली हठ छोड़ देंगे?’’

‘‘राघव देख रहे हो प्रशोभा को. मजाक करने के लिए ये जेठ ही  मिले थे.’’

‘‘भाईसाहब, प्रशोभा सच कह रही है, मेरे साथ इन फोटो में जो लड़की है, वह आप को मिल सकती है. बस, आप को अपनी हठ छोड़नी होगी.’’

‘‘तो क्या तुम मेरे लिए इस को छोड़ दोगे?’’

‘‘मैं अपनी प्यारी प्रशोभा को क्यों छोड़ दूंगा, यह मुझे ब्याही है और मेरी  ही रहेगी.’’

‘‘तो फिर कैसे?’’ भाईसाहब परेशान थे और मुझे तथा राघव को मजा आ रहा था. मैं ने उन से कहा, ‘‘भाईसाहब, आप पहले मुझ से वादा तो करें. मैं आप की बात इस फोटो वाली लड़की से व्हाट्सऐप वीडियो कौल के जरिए अभी करा सकती हूं लेकिन उस से पहले आप को स्पष्ट रूप से मेरे और राघव के सामने कहना होगा कि हां, मैं इस लड़की से शादी करने को राजी हूं.’’

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‘‘ठीक है, मैं इस लड़की से शादी करने को राजी हूं.’’

‘‘पक्का?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां भई, बिलकुल पक्का.’’

‘‘तो भाईसाहब, सचाई यह है कि यह मेरी हमशक्ल बड़ी बहन है शोभा. राघव की साली. और सही मानो में मुझ से भी ज्यादा सुंदर है. यह पढ़ने में बहुत मेधावी रही है. बीए, बीएड कर के केंद्रीय विद्यालय में टीचर है.’’

‘‘भाईसाहब, प्रशोभा सच कह रही है. यह शोभा है, प्रशोभा की बड़ी बहन. बहुत ही सुशील और सुंदर. लेकिन मेरा रिश्ता होने से पहले जरा सी बात के कारण कई लड़कों ने उस से शादी करने से इनकार  कर दिया और इस ने भी आप की तरह कसम खा ली कि आजीवन शादी नहीं करेगी.’’

‘‘किस बात के कारण?’’

‘‘भाईसाहब, आप अगर 1-2 फोटो में गौर से उस के पैरों को देखेंगे तो एक जूते का तल्ला 2 इंच मोटा है क्योंकि उस का एक पैर दूसरे से 2 इंच छोटा है. साड़ी पहनती है तो छिप जाता है.’’

‘‘ओह, आश्चर्य…’’ भाईसाहब के मुंह से निकला. तभी मैं ने अपने मोबाइल में शोभा को व्हाट्सऐप की वीडियो कौल लगा दी और कमरे से बाहर आ कर पहले उस को सब बता कर जेठजी से बात करने को राजी कर लिया. फिर उन के पास आ कर मोबाइल पकड़ाती हुई बोली, ‘‘लीजिए भाईसाहब, आप शोभा से बात कर लीजिए.’’

भाईसाहब कुछ सैकंड तक तो मोबाइल में लाइव शोभा को देख कर उस के चेहरे से मेरे चेहरे का मिलान करते रहे, फिर कमरे से निकल कर 15 मिनट तक उस से बतियाते रहे.

जब कमरे में आए तो मोबाइल राघव को पकड़ा दिया और बोले, ‘‘वास्तव में प्रशोभा से कितनी शक्ल मिलतीजुलती है, मैं तो समझ रहा था तुम दोनों मजाक कर रहे हो.’’

राघव अपनी जगह पर बैठे हुए ही मोबाइल अपने हाथ में ले कर स्क्रीन पर शोभा को देख कर हंसते हुए बोला, ‘‘शोभा, ये मेरे बड़े भाई हैं, कैसे लगे?’’

उधर से शोभा ने बिना बोले शायद राघव से कुछ इशारों में कहा होगा क्योंकि मैं ने गौर किया कि राघव ने हाथ हिला कर मुसकराते हुए मोबाइल डिस्कनैक्ट कर दिया.

तभी भाईसाहब हम दोनों को देखते हुए बोल पड़े, ‘‘मैं अपनी जिद छोड़ता हूं और माधव की शादी के बाद तुम दोनों के साथ अपनी कार से इलाहाबाद चलता हूं. अब मैं शोभा से कोर्ट मैरिज करूंगा. बरात लाने व ले जाने के चोंचले में नहीं पड़ूंगा. पिताजी को सीधे अपनी बहू ला कर दिखा दूंगा. तब तक तुम दोनों किसी को कुछ न बताना.’’

माधव की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न हुई. दिव्या खुशमिजाज थी और उस के व्यवहार से मैं समझ गई थी कि वह माधव के साथ खुश रहेगी.

राघव की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं लेकिन जब भाईसाहब ने अपनी कार से हमारे साथ चलने का मन बनाया तो राघव ने फोन कर के 3 दिनों की छुट्टी बढ़ा ली.

मैं ने और राघव ने इस बीच शोभा से मोबाइल पर बात कर ली थी. वह भी शादी के लिए राजी थी. मेरे मम्मीपापा तो यह बात सुन कर ही खुश हो गए थे और भाई ने हमारे स्वागत की सारी व्यवस्थाएं कर रखी थीं.

जैसा जेठ भाईसाहब ने सोचा हुआ था, इलाहाबाद की कोर्ट में उन की मैरिज संपन्न हुई. एक होटल में हम सब ने डिनर किया. मेरे मम्मीपापा उसी रात वापस भैया के साथ सिराथू चले गए. मेरे 2 कमरों वाले नैनी कैमिकल फैक्ट्री के क्वार्टर के एक कमरे में जेठजी की सुहागरात मनी और अगले सवेरे भाईसाहब अपनी दुलहन को उसी साड़ी में हमारे पास से विदा करा, कार में बिठा कर कानपुर चले गए.

चलते समय मैं ने जेठजी को भाईसाहब न कह कर कहा, ‘‘जीजाजी, अब तो मेरे और आप के 2 पक्के रिश्ते हो गए. अब आप मेरे जेठ भी हुए और जीजाजी भी. आप इस में किस रिश्ते को ज्यादा पसंद करेंगे?’’ मैं ने चुहुल करते हुए पूछा.

‘‘तुम जिसे अच्छा समझो?’’ वे हंसते हुए बोले तो मैं ने भी खिलखिलाते हुए कहा, ‘‘आप मुझे जो भी पुकारें पर मैं तो आज और अभी से आप का नामकरण करती हूं, जेठ-जीजाजी.’’

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मैं ने यह कहा तो राघव, शोभा और भाईसाहब के साथ मैं भी हंस पड़ी. कार फैक्ट्री कैंपस से बाहर जा चुकी थी.

मेरी खुशी का कोई ठिकाना न था. राघव से मेरी खुशी छिपी न थी. उसे मुझ पर गुमान भी हो रहा था और प्यार भी आ रहा था. आखिरकार मैं ने वह कर दिखाया था जिस के लिए सब ने हार मान ली थी.

Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 2

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

दरवाजे पर से जेठजी के हटते ही सास बोलीं, ‘‘जा पहले कुछ खा ले. राघव भी तेरा इंतजार कर रहा होगा. मु झे पता है अपने पिता के पास ही वह रुक गया होगा. जाने कब से उस का इंतजार कर रहे थे वे, कह रहे थे कि राघव आ जाए तो उसे शादी की जिम्मेदारियां दे कर निश्ंिचत हो जाऊंगा,’’ सास की बातों से लग रहा था जैसे ऊधव पर उन्हें बिलकुल भरोसा नहीं हो.

सास के कहने पर मैं वहां से उठ कर आंगन पार करती हुई सामने बाहरी बैठक की ओर इस आशय से जा ही रही थी कि राघव अभी बाबूजी के पास ही बैठा होगा, तभी दाहिनी तरफ बने कमरों के बाहर कवर्ड बरामदे में पड़ी बड़ी डाइनिंग टेबल के चारों ओर पड़ी 8 कुरसियों

में से एक पर बैठे जेठजी की आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘अरे प्रशोभा,

इधर आओ.’’

मेरी नजर उधर गई तो देखा राघव भी वहीं बैठे हैं और मेज पर ताजी बनी नमकअजवायन की पूरियां, उबले आलू की सूखी सब्जी, अन्य प्लेटों में मठरियां, बालूशाही, बेसन के सेव और शकरपारे सजे रखे थे.

मैं भी जा कर वहीं बैठ गई. तभी किरण दीदी अपने 4 साल के बच्चे नितिन का हाथ पकड़े उसी बरामदे के पास बने एक कमरे से निकल कर आईं. मैं जब 2 साल पहले शादी हो कर इस घर में आई थी तो उसी कमरे में मेरी सुहागरात मनी थी और किरण दीदी को जीजाजी तथा दोनों छोटे बच्चों के साथ ऊपर वाले कमरे में टिकाया गया था. मां के कमरे को मिला कर 3 कमरे नीचे बने थे और 2 ऊपर. डाइंगरूम बाहर की तरफ अलग था.

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दीदी ने कुरसी पर बैठते हुए मु झ से पूछा, ‘‘प्रशोभा, इलाहाबाद में भी ऐसी ही गरमी पड़ रही है या कुछ राहत है? यहां तो जब से आई हूं, बुरा हाल है, कूलर की हवा भी बेकार है.’’

तभी मेज पर काकी चाय भरी केतली रख गईं. मैं ने उन्हें गौर से देखा तो जेठ बोल पड़े, ‘‘शादी के घर में मैं ने उन्हीं काकी को लगा लिया जो तुम्हारी शादी में लगी थीं. बहुत बढि़या खाना, नाश्ता आदि बनाती हैं.’’

अपनी प्लेट में नाश्ता ले कर भाईसाहब इस इंतजार में बैठे थे कि मैं भी परोस लूं तो वे खाना शुरू करें.

तभी राघव ने अपनी प्लेट में सब्जीपूरी स्वयं परोसते हुए किरण दीदी से पूछा, ‘‘दीदी, जीजाजी साथ नहीं आए?’’

दीदी कुछ उत्तर देने जा ही रही थीं कि मेरी चिंता करते हुए जेठजी बोल पड़े, ‘‘अरे प्रशोभा, तुम भी कुछ लो न. इन दोनों को बस बातें करने को मिल जाएं तो यह भी नहीं देखेंगे कि दूसरा कुछ खा भी रहा है या नहीं.’’

‘‘भाईसाहब, मैं सब ले लूंगी, आप परेशान न हों,’’ मैं ने कहा तो भाईसाहब किरण की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘पता नहीं इस का ध्यान कहां रहता है. घर की बड़ी है, तो इस का भी कुछ कर्तव्य…’’

तभी  राघव बोल पड़े, ‘‘प्रशोभा, तुम अपनी प्लेट में जो भी मन करे, ले लो.’’

मैं ने अपनी प्लेट में नाश्ता ले कर खाना शुरू कर दिया. डाइनिंग टेबल के आसपास कुछ देर को चुप्पी छा गई, जिसे भंग करते हुए मैं ने भी दीदी से पूछा, ‘‘दीदी, आप ने बताया नहीं कि जीजाजी साथ क्यों नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारे जीजाजी अपने बैंक का औडिट करवाने में फंसे थे, उन्हें छुट्टी न मिली तो मु झे पहले भेज दिया. अब वे शादी से एक दिन पहले ही आ पाएंगे.’’

दीदी की बातें सुनते हुए मैं ने 1-2 बार जेठ की तरफ देखा, वे नाश्ता तो कर रहे थे पर उन का पूरा ध्यान मु झ पर था. अपनी तरफ से उन का ध्यान हटाने के लिए मैं ने उन की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘भाईसाहब, माधव भैया नाश्ता नहीं कर रहे हैं, कहां हैं वे?’’

‘‘अरे, वह अपनी दुनिया में व्यस्त होगा, जब से शादी तय हुई है, बस, दिव्या से चैट करने में ही लगा रहता है.’’

‘‘तो इस में क्या बुराई है. यही तो दिन होते हैं जब चैटिंग का अलग ही मजा होता है,’’ किरण दीदी बोल पड़ीं तो जेठजी से बरदाश्त न हुआ. खी झते हुए वे बोले, ‘‘ऐसा भी क्या मजा जो सारी बातें शादी होने से पहले ही  कर डालो?’’

‘‘तुम नहीं सम झोगे इन बातों को क्योंकि तुम इस दौर से नहीं गुजर पाए.’’

‘‘अरे, वह तो तू आड़े आ गई और पिताजी अड़ गए कि घर में बड़ी बहन बैठी है, इसलिए तेरी शादी मैं उस से पहले नहीं कर सकता.’’

‘‘तो ऊधव, इस में पिताजी ने क्या बुरा सोचा. एक बार को मान लो, मैं उन को इस बात के लिए मना भी लेती कि मेरी शादी से पहले वे तुम्हारी शादी कर दें लेकिन तब तक तुम्हारी नौकरी भी तो नहीं लगी थी और तुम शादी की जिद पकड़ कर बैठ गए थे. फिर मु झे तो कभी ऐसा नहीं लगा कि कंचन तुम से उतना प्यार करती थी जितना तुम उस के दीवाने हो गए थे,’’ दीदी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा.

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उन दोनों की बहस बढ़ती देख कर राघव बोल पड़ा, ‘‘दीदी, इस बहस का अब क्या मतलब है. अब तो उस की शादी हुए भी कई साल हो गए हैं.’’

‘‘राघव, अब तुम्हीं बताओ, क्या दुनिया में लड़कियों की कमी है, लेकिन पिता से ऐंठ और खुद से प्रण करे बैठे हैं कि मु झे शादी नहीं करनी है. यह भी कोई प्रण हुआ, यह तो मांबाप को दुख देना हुआ.’’

शायद किरण दीदी की यह बात भाईसाहब को चुभ गई थी. इसलिए वे उठे और उसी बरामदे से ऊपर जाने वाली सीढि़यों से चढ़ कर अपने कमरे में चले गए.

नाश्ता कर के मैं और राघव मां के पास जा कर बैठ गए. दीदी, नितिन को ले कर अपने कमरे में चली गई थीं.

मां राघव को देखते ही खुश हो गईं. मां के पैर छू कर जैसे ही राघव उन के पास बैठा, वे बोल पड़ीं, ‘‘अब मैं निश्ंिचत हो गई हूं. बहू मेहमानों को संभाल लेगी और तू बरातियों के ठहरने व उन की आवभगत की व्यवस्था संभाल लेगा.’’

‘‘हां मां, मैं बड़े भैया के साथ मिल कर सब संभाल लूंगा. तुम चिंता  मत करो.’’

‘‘तुम अपने बड़े भैया के चक्कर में न रहना. बातें ज्यादा करता है, काम कम. वह तो माधव ने कानपुर में नवीन मार्केट के पास 2 अलगअलग होटलों में समय रहते कमरे बुक न करा लिए होते तो इस समय हम परेशान हो जाते,’’ मां ने बताया.

‘‘ठीक है मां, पर बरात कन्नौज जाती तो ज्यादा मजा आता.’’ मैं ने अपने मन की बात कही तो सास बोलीं, ‘‘अरे बेटी, सब तेरे पिताजी की तरह नहीं सोचते हैं कि लड़की की बरात द्वारे आनी चाहिए. अब उन्होंने रोका के समय रुपए हमें पकड़ा दिए और जनवासा, बैंड, घोड़ी, कैटरिंग आदि की सब व्यवस्था कह कर कानपुर से ही शादी करने को कह दिया.

‘‘राघव के पिताजी ने भी उन की बात मान ली और बोले, ‘‘ठीक है फिर हम भी शादी से 2 दिनों पहले कानपुर के होटल में शिफ्ट हो जाएंगे.’’

अपनी बातें पूरी कर के सास चुप हुईं. तो राघव ने मां को तसल्ली दी, ‘‘ठीक है मां, अच्छा ही हुआ. भोगनीपुर में कानपुर जैसी व्यवस्था हो भी नहीं पाती. पिताजी ने ठीक ही किया. अब मैं आ गया हूं, कल माधव के साथ कानपुर जा कर सारी व्यवस्था सम झ लेता हूं.’’

फिर राघव मु झे बहू के नए सूटकेस में साडि़यां जमाते देख कर बोला, ‘‘अरे प्रशोभा, मां को कांजीवरम की वह साड़ी भी तो ला कर दिखाओ जो हम दिव्या को देने जा रहे हैं और चांदी की करधनी भी लेती आना.’’

राघव ने कहा तो मैं उठ कर ऊपर चली गई जहां हमारा सामान रखवा दिया गया था. ऊपर पहुंच कर मैं जेठ के कमरे के सामने से गुजरती हुई अपने कमरे की ओर बढ़ ही रही थी कि मेरे पैरों से चलने के कारण बजने वाली पायल की आवाज सुन कर जेठजी ने कमरे के भीतर से पुकारा, ‘‘अरे, प्रशोभा, इधर आओ, तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है.’’

मैं उन के कमरे के दरवाजे पर खड़ी हो कर बोली, ‘‘कैसा सरप्राइज भाईसाहब?’’

‘‘अरे अंदर तो आओ,’’ कह कर वे पलंग से उठ कर खड़े हुए और अपनी वार्डरोब से एक पैकेट निकाल कर मु झे देते हुए बोले, ‘‘यह बनारसी साड़ी है और इस के साथ पेटीकोट व ब्लाउज भी है. शायद यह तुम्हारे लिए ही अब तक रखी है. इसे शादी वाले दिन जब तुम पहनोगी तो शायद ही पूरी बरात में तुम से सुंदर कोई और दिखाई दे. और वैसे भी, कंचन के बाद अगर कोई मु झे अच्छा लगा तो वह तुम ही हो.’’

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‘‘लेकिन भाईसाहब, राघव ने मु झे इलाहाबाद से मेरी पसंद का बहुत ही सुंदर लंहगाचोली सैट दिलवाया है, मैं तो बरात वाले दिन वही पहनूंगी.’’

मैं ने यह कहा तो उन के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे. वार्डरोब बंद कर के मेरी ओर बढ़ते हुए बोले, ‘‘ठीक है इसे परसों लेडीज संगीत वाले दिन पहन लेना कितने प्यार से मैं ने अब तक इसे संभाले रखा है. अब मेरी तो दुलहन आने से रही, तुम्हीं इसे पहन लो.’’

भावनाओं में बहकते हुए वे मेरी ओर साड़ी का पैकेट लिए बढ़ते चले आ रहे थे.      -क्रमश:

Serial Story: जेठ जीजाजी – भाग 1

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

सवेरे जब मैं उठी तो राघव सो रहा था. मैं ने उसे उठाना चाहा पर रुक गई. एक ही तो बाथरूम था, उसे उठा दूंगी तो  फिर वह मु झे भीतर नहीं जाने देगा और खुद अंदर घुस गया तो निकलने में घंटों लगा देगा. पता नहीं उसे नहानेधोने व फ्रैश होने में इतनी देर क्यों लगती है.

कल सवेरे फैक्ट्री जाने से पहले राघव ने अपने छोटे भाई माधव की शादी में एक हफ्ता पहले पहुंचने की प्लानिंग की थी और मेरे लिए शादी के बाद अपनी ससुराल जाने का पहला मौका था. शादी होते ही राघव मु झे अपने साथ ही यहां ले आया था. तब से एक साल बीत चुका था और हम कानपुर नहीं जा पाए थे. जबकि, मायके तो राघव को ले कर मैं शादी के बाद इन सालों में कई बार हो आई थी. राघव मु झे वहां 1-2 दिन रहने के लिए छोड़ भी देता था.

मु झे मायके जल्दीजल्दी मिला लाने के पीछे उस की एक लालसा थी, अपनी एकमात्र और मु झ से 2 साल बड़ी अविवाहित साली से चुहलबाजी करने का अवसर मिलना.

मेरी बड़ी बहन शोभा की शक्लसूरत बहुतकुछ मु झ से मिलती थी. पर बचपन से ही एक पैर दूसरे पैर के मुकाबले 2 इंच छोटा होने के कारण स्पैशल जूते या चप्पल पहनने के बाद ही यह ऐब छिप पाता था. लेकिन चाल में हलकी लंगड़ाहट नहीं छिप पाती थी.

शोभा पढ़ने में बहुत तेज थी. बीए व बीएड करने के बाद उस की केंद्रीय विद्यालय में टीचिंग जौब लग गई थी. लेकिन शादी करने के बहुत प्रयत्न करने के बाद मेरे मातापिता निराश हो कर बैठ गए थे.

फिर जब मैं ने साइकोलौजी से एमए कर लिया तो जो रिश्ता आता उन लोगों का पिताजी से यही जवाब होता, ‘देखिए, आप की बड़ी बेटी यों तो छोटी से सुंदर बहुत है पर उस के पैर के दोष के कारण हम अपने लड़के से उस की शादी करने में असमर्थ हैं. हां, अगर आप चाहें तो हम आप की छोटी बेटी को बहू बनाने को तैयार हैं.

इस का असर यह हुआ कि शोभा ने अपने दिल से शादी का खयाल निकाल दिया और मातापिताजी से स्पष्ट कह दिया, ‘आप लोग मेरी शादी के लिए परेशान न हों और प्रशोभा की शादी कर दीजिए.’

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फिर पिताजी भी चाहते थे कि सेवानिवृत्ति से पहले कम से कम एक लड़की की शादी तो कर ही दें.

रिश्ते बहुत से आए पर अब शोभा ने लड़के वालों के सामने आने से ही मना करना शुरू कर दिया और जब राघव का रिश्ता आया तो उस ने मु झे अपने कमरे में बुलाया और कहा, ‘प्रशोभा, मेरे कारण तू अपनी उम्र के सुंदर वर्ष क्यों खराब किए जा रही है. देख, यह लड़का नैनी कैमिकल फैक्ट्री में कैमिकल इंजीनीयर है और सुंदर भी है. तु झे मेरी कसम जो मेरे कारण तू ने इस रिश्ते से इनकार किया.’

और मेरी शादी राघव से हो गई. राघव दिल का बहुत अच्छा था. जब उसे मैं ने शोभा के बारे में बताया तो वह उस के प्रति आदर व सम्मान के भावों से भर गया और पहली बार में ही शोभा से ऐसी दोस्ती कर ली कि दोनों  खूब बतियाते.

मैं शोभा को हंसतेखिलखिलाते देख कर इसलिए खुश हो जाती कि कम से कम राघव से मिल कर उस के चेहरे पर ऐसी प्रसन्नता तो दिखती जिस का उस के जीवन में अकाल पड़ चुका था.

राघव के साथ वह अपने को बहुत ही सहज पाती थी, इसलिए अपने मोबाइल कैमरे से जब मैं उन दोनों की फोटो खींच कर उसे दिखाती तो वह बहुत खुश हो जाती.

ससुराल के मुकाबले मायका इलाहाबाद से करीब भी था. सिराथू, इलाहाबाद से 63 किलोमीटर दूर, कानपुर रूट पर था.

राघव के साथ बाइक पर पीछे बैठ कर हम 2 घंटे में सिराथू पहुंच जाते थे. जबकि, कानपुर के पास भोगनीपुर तहसील में ससुराल था जहां पहुंचने के लिए कानपुर तक ट्रेन से जाना उचित रहता था.

हमें सवेरे 7 बजे इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से ट्रेन पकड़नी थी, क्योंकि राघव की एक हफ्ते की छुट्टी स्वीकृत हो गई थी.

इसलिए सवेरे मैं जब उठ गई तो चाय की चिंता छोड़ कर अपने कपड़े ले कर बाथरूम में घुस गई. यह नैनी में स्थापित कैमिकल फैक्ट्री से मिला हुआ 2 छोटे कमरे, एक ड्राइंगरूम, किचन और एक बाथरूम वाला आवंटित फ्लैट था.

बाथरूम के साथ ही अटैच्ड टौयलेट था. मैं ने घड़ी देखी, 5.30 बज रहे थे. फटाफट फ्रैश हो कर नहाईधोई और तैयार हो कर राघव को जगाया. बस, बाल काढ़ने रह गए थे. मु झे पता था कि जब तक वह बाथरूम से निकलेगा, मेरे बाल भी कढ़ जाएंगे और चायनाश्ता भी तैयार हो जाएगा.

अटैची और बैग तो मैं ने कल रात ही तैयार कर लिए थे.

सोते हुए राघव को मैं ने तेजी से हिला कर जगाया, ‘सोते रहोगे क्या? उठो, ट्रेन पकड़नी है, समय हो रहा है.’

वह कुनमुना कर उठ बैठा. उसे उठता देख कर मैं ने पलट कर वापस ड्रैसिंग टेबल की तरफ बाल संवारने हेतु कदम बढ़ाया ही था कि उस ने मेरा हाथ पकड़ कर मु झे बिस्तर पर खींच लिया और दबोच कर 4-5 चुंबन ले डाले.

‘अरे, यह भी कोई समय है यह सब करने का. जल्दी से उठो और तैयार हो जाओ वरना ट्रेन छूट जाएगी,’ मैं उठ कर साड़ी ठीक करते हुए बोली.

‘मन तो नहीं कर रहा है उठने का पर तुम कहती हो तो उठना ही पड़ेगा,’ कहते हुए वह पलंग से उतरा, जम्हाई लेते हुए दोनों हाथ ऊपर कर के एक अंगड़ाई ली और समय देखता हुआ बाथरूम में घुस गया.

रोज के मुकाबले आज राघव बाथरूम से थोड़ा जल्दी निकल आया और तुरंत कपड़े पहन कर तैयार हुआ.

नाश्ता कर के हम ने घर लौक किया और औटो कर के सामान समेत समय से थोड़ा पहले स्टेशन पहुंच कर ट्रेन में बैठ गए.

शाम को समय से 45 मिनट लेट ट्रेन कानपुर पहुंची. वहां उतर कर हम टैम्पो कर के भोगनीपुर पहुंचे.

मेरे जेठ ऊधव और देवर माधव दोनों हमें देखते ही प्रसन्न होते हुए घर से बाहर निकल आए. जेठ पर नजर पड़ते ही मैं ने दुपट्टा सिर पर डाला और उन के पैर छूने को  झुकी तो पीछे हटते हुए उन्होंने हाथ बढ़ा कर मु झे रोकते हुए कहा, प्रशोभा, ‘‘तुम तो मु झे नमस्ते या फिर हैलोहाय ही किया करो. ये पैरवैर छूना मु झे ओल्ड फैशन लगता है. अब यह इंटरनैट, मोबाइल, व्हाट्सऐप, फेसबुक और यूट्यूब का जमाना है.’’

‘‘राघव पैर छुए और मैं हैलोहाय करूं, यह शोभा नहीं देता भाईसाहब,’’ कहते हुए मैं फिर उन के पैर छूने के लिए बढ़ी तो उन्होंने तेजी से कहा, ‘‘मु झे अपने पैर नहीं छुआने हैं.’’

‘‘तो फिर राघव से क्यों छुआए?’’

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‘‘उस की बात अलग है. अच्छा, अब घर के अंदर चलो,’’ कहते हुए वे माधव को हमारा सामान ऊपर उन के कमरे के बगल वाले कमरे में रखवाने का निर्देश देते हुए घर के अंदर चले गए.

राघव से 5 साल बड़े जेठ ऊधव ने पिता के आड़े आ जाने के कारण अपनी प्रेमिका से शादी न हो पाने की खुन्नस में आजीवन कुंआरा रहने का प्रण ले लिया था.

देवर माधव कंप्यूटर साइंस से बीई करने के बाद कानपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण में डाटा औपरेटर था.

माधव की शादी कन्नौज के इत्र व्यापारी की लड़की दिव्या से तय हो गई थी और लड़की वाले कानपुर आ कर ही शादी कर रहे थे.

माधव ने हमारा सामान ऊपर वाले कमरे में पहुंचवा दिया. यह ससुर को विरासत में मिला 5 कमरों और एक ड्राइंगरूम तथा बीच में आंगन व बरामदे वाला बड़ा सा पैतृक मकान था.

मैं ने बाहरी बैठक के कोने में पड़े एक बड़े से मोटे गद्दे और सुंदर से कालीन बिछे दीवान पर बैठे अपने ससुर के पास राघव के साथ जा कर उन के पांव छुए और फिर सास से मिलने अंदर कमरे में पहुंची तो वे अपनी बड़ी बेटी के साथ नई बहू का संदूक तैयार करने में जुटी हुई थीं.

मैं ने ननद के भी पैर छुए और फिर सास के पास जैसे ही बैठी, उन्होंने मेरा हालचाल पूछने के बाद कहा, ‘‘बड़ा अच्छा हुआ तू आ गई. मैं और किरण नई बहू की अटैची तैयार करने में जुटे थे, तेरे आ जाने से मेरा काम अब आसान हो जाएगा.’’

मां की बात खत्म होते ही ननद किरण, ‘‘मां, मैं अभी आई’’ कह कर कमरे से बाहर चली गई. उन के जाते ही मैं मां के साथ अटैची सजाने में जुट गई.

सास ने बताना शुरू किया, ‘‘प्रशोभा, मैं ने सोने के आभूषण जितने तु झे चढ़ाए थे उतने ही माधव की बहू दिव्या को भी चढ़ा रही हूं. उस की मेकअप किट भी तु झे ही सजानी है…’’

सास ये सब बातें कर ही रही थीं कि जेठ उसी कमरे में आ कर मां से बोले, ‘‘क्या मां, प्रशोभा को आते ही आप ने काम पर लगा दिया. उस ने चाय नहीं पी, हाथमुंह तक नहीं धोया…’’

मैं ने उन की बात काटते हुए कहा, ‘‘भाईसाहब, मैं इलाहाबाद से नहाधो कर चली थी.’’

इस पर वे बोले, ‘‘हांहां प्रशोभा, जानता हूं नहा कर ही चली होगी लेकिन सफर कर के आ रही हो, इसलिए पहले कुछ खापी लो, फिर काम में जुटना. हमेशा याद रखो, पहले पेटपूजा फिर काम दूजा.’’

इतना कह कर वे बहुत धीरे से बड़बड़ाए, ‘यह किरण तो शादी के बाद इतनी कामचोर हो गई है कि थोड़ी देर और मां के पास नहीं बैठ सकती थी. जैसे ही देखा, प्रशोभा आ गई है, बस, मां के पास से भाग ली.’

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जारी है सजा: पति की हरकतों से कैसे टूट गई श्रीमती गोयल

Serial Story: जारी है सजा– भाग 1

मजदूर सारा सामान उतार कर जा चुके थे. बिखरा सामान रेलवे प्लेटफार्म का सा दृश्य पेश कर रहा था. अब शुरू कहां से करूं, यही समझ नहीं पा रही थी मैं. बच्चे साथ होते तो काफी बोझ अब तक घट भी गया होता. पूरी उम्र जो काम आसान लगता रहा था, अब वही पहाड़ जैसा भारीभरकम और मुश्किल लगने लगा है. 50 के आसपास पहुंचा मेरा शरीर अब भला 30-35 की चुस्ती कहां से ले आता. अपनी हालत पर रोनी सूरत बन चुकी थी मेरी.

‘‘कोई मजदूर ले आऊं, जो सामान इधरउधर करवा दे?’’ पति का परामर्श कांटे सा चुभ गया.

‘‘अब रसोई का सामान मजदूरों से लगवाऊंगी मैं, अलमारियों में कपड़े और बिस्तर कोई मजदूर रखेगा…आप ही क्योें नहीं हाथ बंटाते.’’

‘‘मेरा हाथ बंटाना भी तो तुम्हें नहीं सुहाता, फिर कहोगी पता नहीं कहां का सामान कहां रख दिया.’’

‘‘तो जब आप का सामान रखना मुझे नहीं सुहाता तो कोई मजदूर कैसे…’’

झगड़ पड़े थे हम. हर 3 साल के बाद तबादला हो जाता है. 4-5 हफ्ते तो कभी नहीं लगे थे नई जगह में सामान जमाने में मगर इस घर में काफी समय लग गया. एक तो घर छोटा था उस पर बारबार नई व्यवस्था करनी पड़ रही थी.

यों भी पूरी उम्र बीत गई है तरहतरह के घरों में स्वयं को ढालने में. इस का हमें फर्क ही नहीं पड़ता. पिछले घर का सुख नए घर में नहीं होता फिर भी नए घर में कुछ ऐसा जरूर मिल जाता है जो पिछले घर में नहीं होता.

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नया घर छोटा है…बाकी घर इतने पासपास हैं कि साथ के घर में हंसतेबोलते लोग इतना एहसास अवश्य दिला जाते हैं कि आप अकेली नहीं हैं.

घर के बाहर आतेजाते, सब्जी बेचने वाले से सब्जी खरीदते चेहरे जानेपहचाने लगने लगे हैं. सामने सुंदर पार्क है. बेटी की शादी हो चुकी है और बेटा बाहर पढ़ता है. पति की नौकरी ऐसी है कि रात को 8 बजे से पहले वे कभी नहीं आते.

पुरानी जगह पर थे तब बड़ा घर मुसीबत लगता था, बाई न आए तो साफसफाई ही मुश्किल हो जाती थी. बड़े घर में रहने का शौक पूरा हो गया था. इतना बड़ा घर भी किस काम का जो भुतहा महल जैसा लगे.

धीरधीरे आसपड़ोस में एकदो परिवारों से जानपहचान हो गई. बगल के परिवार के छोटेछोटे बच्चे अति स्नेह देने लगे. अब दादीनानी बनने की उम्र है न मेरी, बहुत अच्छा लगता है जब छोटेछोटे बच्चे आगेपीछे घूमें.

घर के बिलकुल सामने एक बुजुर्ग दंपती नजर आते हैं. उन का घर अकसर बंद ही रहता, सुबह जब बाई काम करने आती तभी वह गेट खुलता. सामने नजर आती है बड़ी सी महंगी गाड़ी और बड़ा सा सुंदर गमला जिस में रंगबिरंगे फूल नजर आते हैं. इस से आगे कभी मेरी नजर ही न जाती.

घर की मालकिन का स्वभाव मुझे यहीं से समझ में आता है. शौकीन तबीयत और साफसुथरा मिजाज अवश्य ही इस महिला के चरित्र का अभिन्न अंग होगा. पता चला कि इन के बच्चे अच्छे हैं, ऊंचे ओहदों पर हैं और मांबाप का बहुत खयाल रखते हैं. कभीकभार उन की गाड़ी बाहर निकलती तो लगभग 75 साल की उम्र में भी इस महिला का बननासंवरना उस की जिंदा- दिली दर्शा जाता.

‘‘देखा न, इसे कहते हैं जीना. मैं बाल काले करता हूं तो तुम मना करती हो.’’

‘‘आंखों पर केमिकल्स का असर होता है इसलिए मना करती हूं.’’

‘‘तुम अभी से अपने को बूढ़ी मानती हो…वह देखो, इन के पोतेपोती भी सुना है कालेज में पढ़ते हैं…तुम तो अभी न दादी बनी हो न नानी और इतने हलके रंग के कपड़े पहनती हो.’’

‘‘बस, मुझे किसी से मत मिलाओ. वो वो हैं और मैं मैं.’’

पति हाथ हिला कर नहाने चले गए. सुबहसुबह और बहस करने का न मेरे पास समय था और न ही इन के पास. मगर यह सत्य है कि इन का बाल काले करना मुझे पसंद नहीं.

सर्दी से पहले दीवाली पर बेटा घर आया तो दीवान गेट के पास सजा कर धूप की व्यवस्था कर गया. सर्दी बढ़ने लगी और धीरधीरे मेरा समय दीवान पर ही बीतने लगा.

एक रात सहसा किसी के झगड़े से नींद खुली. कोई भद्दीभद्दी गालियां दे रहा था. घड़ी देखी तो रात के 2 बजे थे. कौन हो सकता है. नींद ऐसी उखड़ी कि फिर देर तक सो ही नहीं पाए हम. दूसरे दिन अपने नन्हेमुन्ने मित्रों की मां से बात की. हाथ हिला कर हंस दी वह.

‘‘अरे दीदी, वह सामने वाला जोड़ा है. हां, इस बार दौरा जरा देर से पड़ा है इसलिए आप को पता नहीं चला वरना तो ये दोनों रोज ही महल्ले भर का मनोरंजन करते हैं. दरअसल, महीने भर से अंकल घूमनेफिरने बाहर गए थे, सो शांति से वक्त बीत गया.’’

अवाक् सी मैं बीना से बोली, ‘‘75-80 साल का जोड़ा जिस की एक टांग कब्र में है और दूसरी इस जहान में, क्या वह इतनी बेशर्मी से लड़ता है.’’

‘‘अरे दीदी, पिछले कई वर्षों से हम इन्हें इसी तरह लड़तेझगड़ते देख रहे हैं. जब मैं शादी कर के आई थी तभी से इन का तमाशा देख रही हूं. अब तो आसपास वालों को भी आदत सी हो गई है. कोई भी गंभीरता से नहीं लेता इन्हें.’’

‘‘लेकिन लड़ाई की वजह क्या है?’’ मैं ने कहा, ‘‘इन के पास सबकुछ तो है.’’

?‘‘खाली दिमाग शैतान का घर होता है दीदी, कहते हैं न जब शरीर की ताकत का उचित उपयोग न हो सके तो वह ताकत गलत कामों में खर्च होने लगती है.’’

बीना कालेज में मनोविज्ञान की प्राध्यापिका है. उम्र में मुझ से 15-16 साल छोटी होगी लेकिन बात इतनी गहराई से समझाने लगी कि मानना ही पड़ा मुझे.

‘‘3 बेटे हैं इन के. एक तो शहर का मशहूर डाक्टर है, दूसरा अमेरिका में और तीसरा मनोविज्ञान का प्रोफेसर है. 2 बेटे इसी शहर में हैं. प्रोफेसर बेटा तो मेरा ही वरिष्ठ सहयोगी है. अकसर मेरी उन से बात होती रहती है. इन दोनों का हालचाल मैं उन्हें बताती रहती हूं.’’

‘‘बच्चे मांबाप के साथ क्यों नहीं रहते?’’

‘‘उन के बड़े होते बच्चे हैं दीदी, दादादादी का झगड़ा उन का दिमाग खराब कर देगा.’’

‘‘अरे, झगड़ा किस घर में नहीं होता. मेरे पति और मैं भी दिन में एक बार उलझ ही जाते हैं.’’

‘‘आप की उलझन का कारण कोई बाहर की औरतें तो नहीं होंगी न.’’

‘‘तुम्हारा मतलब इस उम्र में अंकल का कहीं बाहर…’’

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‘‘जी हां, कोई पुराना रिश्ता उम्र भर साथ चलता रहे तो भी समझ में आता है कि पुरुष जबान का पक्का है. प्यार को भी दरबदर नहीं कर रहा, बीवी को भी निभा रहा है और सारी तोहमतें सिर पर ले कर भी प्रेमिका का हाथ नहीं छोड़ा. सभ्य समाज में खुलेआम इसे भी स्वीकारा नहीं जाता फिर भी एक पुरुष का चरित्र जरा सा तो समझ में आता है न. कहीं वह जुड़ा है, किसी के साथ तो बंधा है, मरेगा तो आंसू बहाने वाली 1 नहीं 2 होंगी. इन महाशय की तरह तो नहीं होगा कि मरेंगे और घर वाले शुक्र मनाएंगे. हजारों गोपियां हैं इन की. कौनकौन रोएंगी? जो सब का हो कर जीता है वह वास्तव में किसी का नहीं होता.’’

शाम को पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी और बोले, ‘‘मैं ने भी कुछ ऐसी ही कहानियां सुनी हैं इन के बारे में, जहां इन के बेटे का नाम आता है वहीं इस नालायक पिता के बारे में बताने से भी लोग नहीं चूकते. मुझे भी आज ही पता चला है कि मशहूर डाक्टर विजय गोयल इन्हीं का बेटा है.’’

‘‘क्या? वही जिसे आप अपनी बीमारी दिखाने गए थे?’’

कुछ दिन पहले पति की कमर में अकड़न सी थी जिसे वह हड्डी विशेषज्ञ को दिखाने गए थे. बेटा संसार भर की हड्डियां ठीक करता है और कितनी बड़ी विडंबना है कि अपने ही घर की रीढ़ की हड्डी का इलाज नहीं कर सकता.

जब कभी भी श्रीमती गोयल भीनी सुगंध महकाती गाड़ी में बैठ कर निकलती हैं तो मन होता कि उन से मिलूं और पूछूं कि कैसे जीती हैं वे जिन का पति परिवार का मानसम्मान गंदी नाली में डाल अपना और परिवार का सर्वनाश कर रहा है.

एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि उन से मुलाकात हो गई. उन के घर की बिजली गुल हो गई थी. वे मेरे घर पूछने आई थीं कि क्या मेरी भी बिजली नहीं है या सिर्फ उन की ही गुल है.

‘‘आइए न श्रीमती गोयल, कृपया अंदर आइए,’’ यह कहते हुए उन का हाथ पकड़ कर मैं उन्हें कमरे में ले आई थी. मेरी मां की उम्र की हैं, लेकिन रखरखाव और वेशभूषा वास्तव में इतनी अच्छी थी कि मैं उन के सामने फीकी लगूं.

‘‘हम नए आए हैं न महल्ले में, बहुत इच्छा थी कि आप से मिलूं. पड़ोस में दोस्ती होनी चाहिए न. रिश्तेदारों से पहले तो पड़ोसी ही काम आते हैं.’’

‘‘हां, हां, बेटा, क्यों नहीं. तुम्हीं आ जातीं. चाय साथसाथ पीते. मैं भी तुम से मिलना चाहती थी. अकसर छत से तुम्हें अचार का मर्तबान कभी धूप में तो कभी छाया में रखते देखती हूं.’’

‘‘जी, कुछ बेटी के घर भेजूंगी, कुछ आप को भी दूंगी. कौन सा अचार पसंद है आप को.’’

अचार का सिरा पकड़ जो बात शुरू हुई तो सीधी श्रीमती गोयल तक जा पहुंची. बातचीत का दौर चला तो सारी परतें खुलती चली गईं. कुछ ही दिन में मेरी मां की उम्र की महिला मेरी अंतरंग दोस्त बन गईर्ं. वे अकसर मेरे साथ ही धूप सेंकतीं और मन की पीड़ा बांटतीं.

‘‘शर्म आती थी पहले घर से बाहर निकलते हुए. सोचती थी लोग क्या कहेंगे. घर के अंदर तो पतिपत्नी कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते हैं और जब पत्नी सजसंवर कर बाहर निकलती है तो किस नजर से सब से नजर मिलाती है. यह तो भला हो मेरे बेटों का जिन्होंने मुझे जिंदा रखा वरना इस आदमी की वजह से कब की मर गई होती मैं.’’

‘‘क्या गोयल साहब सदा से इसी चरित्र के हैं?’’

‘‘हां, वे सदा से औरतबाज हैं…सच पूछो तो इस सीमा तक बेशर्म भी कि अपनी रासलीला चटकारे लेले कर मुझे ही सुनाते रहते हैं…उस पर दलील यह कि मैं उन का साथ नहीं दे पाती, इसीलिए जरूरत पूरी करने के लिए बाहर जाते हैं.’’

‘‘80 साल की उम्र में भी उन की जरूरत क्या इतनी तीव्र है कि मानमर्यादा सब ताक पर रख कर वे बाहर जाते हैं?’’

मां समान औरत से ऐसा प्रश्न पूछना मैं चाहती तो नहीं थी पर एक लेखिका होने के नाते मैं इस लोभ से उठ नहीं पाई कि जान पाऊं उस महिला की मानसिक स्थिति, जिस का पति ऐसा बदचलन है और जिस के सामने यह प्रश्न कोई माने नहीं रखता कि कोई उस के बारे में क्या सोचता है. समाज का डर ही तो है, जो इनसान को मर्यादा में बांधता है.

‘‘80 साल के तो वे अब हैं, जब 30 साल के थे तब तो मैं साथ देती ही थी न. तब भी तो बाहर का स्वाद उन के लिए सर्वोपरि था.’’

उन की आंखें भर आई थीं. फूटफूट कर रो पड़ी थीं वे. मेरा मन भी भर आया था उन की हालत पर.

‘‘सदा पति की रंगबिरंगी प्रेम कहानियां ही सुनती रही मैं. मेरी अपनी तो कोई प्रेम कहानी बनी ही नहीं, पति के साथ भी मैं इसी तरह जीती रही जैसे कोई पड़ोसी हो… ऐसा बदचलन पड़ोसी जो जब जी चाहे दीवार फांद कर आए और मेरा इस्तेमाल कर चलता बने.’’

‘‘तब तलाक का फैशन कहां था जो छोड़ कर ही चली जाती. 3-3 बच्चों के साथ कहां जा कर रहती. यह तो अच्छा हुआ जो मेरे घर बेटी न हुई. बेटी हो जाती तो कौन स्वीकारता उसे? जिस का ऐसा पिता हो उस से कौन इज्जतदार नाता बांधता.’’ आंखें पोंछ ली थीं श्रीमती गोयल ने.

‘‘कहते हैं न जीवन में सब का अपनाअपना हिस्सा होता है. शायद ऐसा पति ही मेरा हिस्सा था. जैसा मिला उसी को निभा रही हूं. बस, प्रकृति की आभारी हूं जो बेटे चरित्रवान और मेधावी निकल गए वरना मेरा बुढ़ापा भी जवानी की तरह ही रोतेपीटते निकल जाता. जो सुख मुझे अपने पति से मिलना चाहिए था वह मेरी बहुएं और मेरे बच्चे मुझे देते हैं.’’

‘‘मेरी मां समझाया करती थीं कि सदा बनसंवर कर रहा करूं ताकि पति पल्लू से बंधा रहे. वैसा ही आज तक कर रही हूं…पर जिस को नहीं बंधना होता वह कभी नहीं बंध सकता. घाटघाट का पानी ही जिसे तृप्ति दे उसे एक ही बरतन का जल कभी संतुष्ट नहीं कर सकता.’’

‘‘अंकल के पास इतने पैसे कहां से आते हैं. क्या बाहर का शरीरसुख मुफ्त में मिल जाता है और फिर इस उम्र में आदमी रुपए ही तो लुटाएगा, जवानी और खूबसूरती उन के पास है कहां, जिस पर कोई कम उम्र की लड़की फिसले.’’

‘‘भविष्यनिधि की अपनी सारी रकम लगा कर उन्होंने एक अलग घर बनाया है. ज्यादा समय तो वे वहीं गुजारते हैं. घर आते हैं तो वही गालीगलौज.’’

‘‘गालीगलौज की वजह क्या है?’’

‘‘वजह यह है कि मैं जिंदा क्यों हूं. मर जाऊं तो वे बाहरवालियों के साथ चैन से इस घर में रह सकते हैं न…अब मैं मर कैसे जाऊं, तुम्हीं बताओ. पहले ही इतना संताप सह रही हूं, पता नहीं वह मेरे किस दुष्कर्म का फल है. अब आत्महत्या कर के पाप का बोझ क्या और बढ़ा लूं? एकदो बार तो वे मुझे मारने की कोशिश भी कर चुके हैं. मगर मैं हूं ही इतनी सख्तजान कि मेरी जान नहीं निकलती.’’

इतना कह कर श्रीमती गोयल फिर रोने लगी थीं.

– क्रमश:

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Serial Story: जारी है सजा– भाग 2

पूर्व कथा

श्रीमान गोयल की रंगीनमिजाजी के चलते उन के बेटेबहुएं साथ नहीं रहते. पति से बहुत ही लगाव रखती व उन की खूब इज्जत करती श्रीमती गोयल के पास पति की गलत आदतोंबातों को सहने के अलावा चारा न था, जबकि उन के बच्चे पिता की गंदी हरकतों से बेहद क्रोधित रहते थे. उन के अपने बच्चों पर श्रीमान गोयल की छाया न पड़े, इसलिए वे मातापिता से अलग रहते हैं. लेकिन उन में मां की ममता में कोई कमी न थी. वे मां को बराबर पैसे भेजते रहते हैं ताकि उन के पिता, उन की मां को तंग न करें. उधर, श्रीमती गोयल का अपनी नई पड़ोसन शुभा से संपर्क हुआ तो उन्हें लगा कि गैरों में भी अपनत्व होता है. जबतब दोनों में मुलाकातें होती रहतीं और श्रीमती गोयल उन्हें पति का दुखड़ा सुना कर संतुष्ट हो लेतीं. शुभा के पूछने पर श्रीमती गोयल ने बताया, ‘‘गोयल साहब औरतबाज हैं, इस सीमा तक बेशर्म भी कि बाजारू औरतों के साथ मनाई अपनी रासलीला को चटकारे लेले कर मुझे ही सुनाते रहते हैं,’’ श्रीमती गोयल पति के साथ इस तरह जीती रहीं जैसे पड़ोसी. ऐसा बदचलन पड़ोसी जो जब जी चाहे, दीवार फांद कर आए और उन का इस्तेमाल कर चलता बने. श्रीमती गोयल सोचती हैं कि शायद ऐसा पति ही उन के जीवन का हिस्सा था, जैसा मिला है उसी को निभाना है. श्रीमती गोयल न जाने कौन सा संताप सहती रहीं जबकि उन का पति क्षणिक मौजमस्ती में मस्त रहा. कुछ भी गलत न करने की कैसी सजा वे भोग रही हैं वहीं, कुकर्म करकर के भी श्रीमान गोयल बिंदास घूम रहे हैं. लेकिन…

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अब आगे…

बातों का सिलसिला चल निकलता तो उन का रोना भी जारी रहता और हंसना भी.

‘‘आप के घर का खर्च कैसे चलता है?’’

‘‘मेरे बच्चे मुझे हर महीने खर्च भेजते हैं. बाप को अलग से देते हैं ताकि वे मुझे तंग न करें और जितना चाहें घर से बाहर लुटाएं.’’

मैं स्तब्ध थी. ऐसे दुराचारी पिता को बच्चे पाल रहे हैं और उस की ऐयाशी का खर्च भी दे रहे हैं.

अपने बच्चों के मुंह से निवाला छीन कर कौन इनसान ऐसे बाप का पेट भरता होगा जिस का पेट सुरसा के मुंह की तरह फैलता ही जा रहा है.

‘‘आप लोग इतना सब बरदाश्त कैसे करते हैं?’’

‘‘तो क्या करें हम. बच्चे औलाद होने की सजा भोग रहे हैं और मैं पत्नी होने की. कहां जाएं? किस के पास जा कर रोएं…जब तक मेरी सांस की डोर टूट न जाए, यही हमारी नियति है.’’

मैं श्रीमती गोयल से जबजब मिलती, मेरे मानस पटल पर उन की पीड़ा और गहरी छाप छोड़ती जाती. सच ही तो कह रही थीं श्रीमती गोयल. इनसान रिश्तों की इस लक्ष्मण रेखा से बाहर जाए भी तो कहां? किस के पास जा कर रोए? अपना ही अपना न हो तो इनसान किस के पास जाए और अपनत्व तलाश करे. मेकअप की परत के नीचे वे क्याक्या छिपाए रखने का प्रयास करती हैं, मैं सहज ही समझ सकती थी. जरूरी नहीं है कि जो आंखें नम न हों उन में कोई दर्द न हो, अकसर जो लोग दुनिया के सामने सुखी होने का नाटक करते हैं ज्यादातर वही लोग भीतर से खोखले होते हैं.

इसी तरह कुछ समय बीत गया. मुझ से बात कर वे अपना मन हलका कर लेती थीं.

उन्हीं दिनों एक शादी में शामिल होने को मुझे कुल्लू जाना पड़ा. जाने से पहले श्रीमती गोयल ने मुझे 5 हजार रुपए शाल लाने के लिए दिए थे. मैं और मेरे पति लंबी छुट्टी पर निकल पड़े. लगभग 10 दिन के बाद हम वापस आए.

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रात देर से पहुंचे थे इसलिए खाना खाया और सो गए. अगले दिन सुबह उठे तो 10 दिन का छोड़ा घर व्यवस्थित करतेकरते ही शाम हो गई. चलतेफिरते मेरी नजर श्रीमती गोयल के घर पर पड़ जाती तो मन में खयाल आता कि आई क्यों नहीं आंटी. जब हम गए थे तो उन्होंने सफर के लिए गोभी के परांठे साथ बांध दिए थे. गरमगरम चाय और अचार के साथ उन परांठों का स्वाद अभी तक मुंह में है. शाम के बाद रात और फिर दूसरा दिन भी आ गया, मैं ने ही उन की शाल अटैची से निकाली और देने चली गई, लेकिन गेट पर लटका ताला देख मुझे लौटना पड़ा.

अभी वापस आई ही थी कि पति का फोन आ गया, ‘‘शुभा, तुम कहां गई थीं, अभी मैं ने फोन किया था?’’

‘‘हां, मैं थोड़ी देर पहले सामने आंटी को शाल देने गई थी, मगर वे मिलीं नहीं.’’

वे बात करतेकरते तनिक रुक गए थे, फिर धीरे से बोले, ‘‘गोयल आंटी का इंतकाल हुए आज 12 दिन हो गए हैं शुभा, मुझे भी अभी पता चला है.’’

मेरी तो मानो चीख ही निकल गई. फोन के उस तरफ पति बात भी कर रहे थे और डर भी रहे थे.

‘‘शुभा, तुम सुन रही हो न…’’

ढेर सारा आवेग मेरे कंठ को अवरुद्ध कर गया. मेरे हाथ में उन की शाल थी जिसे ले कर मैं क्षण भर पहले ही यह सोच रही थी कि पता नहीं उन्हें पसंद भी आएगी या नहीं.

‘‘वे रात में सोईं और सुबह उठी ही नहीं. लोग तो कहते हैं उन के पति ने ही उन्हें मार डाला है. शहर भर में इसी बात की चर्चा है.’’

धम्म से वहीं बैठ गई मैं, पड़ोस की बीना भी इस समय घर नहीं होगी…किस से बात करूं? किस से पूछूं अपनी सखी के बारे में. भाग कर मैं बाहर गई और एक बार फिर से ताले को खींच कर देखने लगी. तभी उधर से गुजरती हुई एक काम वाली मुझे देख कर रुक गई. बांह पकड़ कर फूटफूट कर रोने लगी. याद आया, यही बाई तो श्रीमती गोयल के घर काम करती थी.

‘‘क्या हुआ था आंटी को?’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछा.

‘‘बीबीजी, जिस दिन सुबह आप गईं उसी रात बाबूजी ने सिर में कुछ मार कर बीबीजी को मार डाला. शाम को मैं आई थी बरतन धोने तो बीबीजी उदास सी बैठी थीं. आप के बारे में बात करने लगीं. कह रही थीं, ‘मन नहीं लग रहा शुभा के बिना.’ ’’

आंटी का सुंदर चेहरा मेरी आंखों के सामने कौंध गया. बेचारी तमाम उम्र अपनेआप को सजासंवार कर रखती रहीं. चेहरा संवारती रहीं जिस का अंत इस तरह हुआ. रो पड़ी मैं, सत्या भी जोर से रोने लगी. कोई रिश्ता नहीं था हम तीनों का आपस में. मरने वाली के अपने कहां थे हम. पराए रो रहे थे और अपने ने तो जान ही ले ली थी.

दोपहर को बीना आई तो सीधी मेरे पास चली आई.

‘‘दीदी, आप कब आईं? देखिए न, आप के पीछे कैसा अनर्थ हो गया.’’

रोने लगी थी बीना भी. सदमे में लगभग सारा महल्ला था. पता चला श्रीमान गोयलजी तभी से गायब हैं. डाक्टर बेटा आ कर मां का शव ले गया था. बाकी अंतिम रस्में उसी के घर पर हुईं.

‘‘तुम गई थीं क्या?’’

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‘‘हां, अमेरिका वाला बेटा भी आजकल यहीं है. तीनों बेटे इतना बिलख रहे थे कि  क्या बताऊं आप को दीदी. गोयल अंकल ने यह अच्छा नहीं किया. गुल्लू तो कह रहा था कि बाप को फांसी चढ़ाए बिना नहीं मानेगा लेकिन बड़े दोनों भाई उसे समझाबुझा कर शांत करने का प्रयास कर रहे हैं.’’

गुल्लू अमेरिका में जा कर बस जाना ज्यादा बेहतर समझता था, इसीलिए साथ ले जाने को मां के कागजपत्र सब तैयार किए बैठा था. वह नहीं चाहता था कि मां इस गंदगी में रहें. घर का सारा वैभव, सारी सुंदरता इसी गुल्लू की दी हुई थी. सब से छोटा था और मां का लाड़ला भी.

आगे पढें- आंखें पोंछती हुई बीना चली गई. दिल…

Serial Story: जारी है सजा– भाग 3

हर सुबह मां से बात करना उस का नियम था. आंटी की बातों में भी गुल्लू का जिक्र ज्यादा होता था.

‘‘तुम चलोगी मेरे साथ बीना, मैं उन के घर जा कर उन से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘इसीलिए तो आई हूं. आज तेरहवीं है. शाम 4 बजे उठाला हो जाएगा. आप तैयार रहना.’’

आंखें पोंछती हुई बीना चली गई. दिल जैसे किसी ने मुट्ठी में बांध रखा था मेरा. नाश्ता वैसे ही बना पड़ा था जिसे मैं छू भी नहीं पाई थी. संवेदनशील मन समझ ही नहीं पा रहा था कि आखिर आंटी का कुसूर क्या था, पूरी उम्र जो औरत मेहनत कर बच्चों को पढ़ातीलिखाती रही, पति की मार सहती रही, क्या उसे इसी तरह मरना चाहिए था. ऐसा दर्दनाक अंत उस औरत का, जो अकेली रह कर सब सहती रही.

‘एक आदमी जरा सा नंगा हो रहा हो तो हम उसे किसी तरह ढकने का प्रयास कर सकते हैं शुभा, लेकिन उसे कैसे ढकें जो अपने सारे कपड़े उतार चौराहे पर जा कर बैठ जाए, उसे कहांकहां से ढकें…इस आदमी को मैं कहांकहां से ढांपने की कोशिश करूं, बेटी. मुझे नजर आ रहा है इस का अंत बहुत बुरा होने वाला है. मेरे बेटे सिर्फ इसलिए इसे पैसे देते हैं कि यह मुझे तंग न करे. जिस दिन मुझे कुछ हो गया, इस का अंत हो जाएगा. बच्चे इसे भूखों मार देंगे…बहुत नफरत करते हैं वे अपने पिता से.’

गोयल आंटी के कहे शब्द मेरे कानों में बजने लगे. पुन: मेरी नजर घर पर पड़ी. यह घर भी गोयल साहब कब का बेच देते अगर उन के नाम पर होता. वह तो भला हो आंटी के ससुर का जो मरतेमरते घर की रजिस्ट्री बहू के नाम कर गए थे.

शाम 4 बजे बीना के साथ मैं डा. विजय गोयल के घर पहुंची. वहां पर भीड़ देख कर लगा मानो सारा शहर ही उमड़ पड़ा हो. अच्छी साख है उन की शहर में. इज्जत के साथसाथ दुआएं भी खूब बटोरी हैं आंटी के उस बेटे ने.

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तेरहवीं हो गई. धीरेधीरे सारी भीड़ घट गई. आंटी की शाल मेरे हाथ में कसमसा रही थी. जरा सा एकांत मिला तो बीना ने गुल्लू से मेरा परिचय कराया. गुल्लू धीरे से उठा और मेरे पास आ कर बैठ गया. सहसा मेरा हाथ पकड़ा और अपने हाथ में ले कर चीखचीख कर रोने लगा.

‘‘मैं अपनी मां की रक्षा नहीं कर पाया, शुभाजी. पिछले कुछ हफ्तों से मां की बातों में सिर्फ आप का ही जिक्र रहता था. मां कहती थीं, आप उन्हें बहुत सहारा देती रही हैं. आप वह सब करती रहीं जो हमें करना चाहिए था.’’

‘‘जिस सुबह आप कुल्लू जाने वाली थीं उसी सुबह जब मैं ने मां से बात की तो उन्होंने बताया कि बड़ी घबराहट हो रही है. आप के जाने के बाद वे अकेली पड़ जाएंगी. ऐसा हो जाएगा शायद मां को आभास हो गया था. हमारा बाप ऐसा कर देगा किसी दिन हमें डर तो था लेकिन कर चुका है विश्वास नहीं होता.’’

दोनों बेटे भी मेरे पास सिमट आए थे. तीनों की पत्नियां और पोतेपोतियां भी. रो रही थी मैं भी. डा. विजय हाथ जोड़ रहे थे मेरे सामने.

‘‘आप ने एक बेटी की तरह हमारी मां को सहारा दिया, जो हम नहीं कर पाए वह आप करती रहीं. हम आप का एहसान कभी नहीं भूल सकते.’’

क्या उत्तर था मेरे पास. स्नेह से मैं ने गुल्लू का माथा सहला दिया.

सभी तनिक संभले तो मैं ने वह शाल गुल्लू को थमा दी.

‘‘श्रीमती गोयल ने मुझे 5 हजार रुपए दिए थे. कह रही थीं कि कुल्लू से उन के लिए शाल लेती आऊं. कृपया आप इसे रख लीजिए.’’

पुन: रोने लगा था गुल्लू. क्या कहे वह और क्या कहे परिवार का कोई अन्य सदस्य.

‘‘आप की मां की सजा पूरी हो गई. मां की कमी तो सदा रहेगी आप सब को, लेकिन इस बात का संतोष भी तो है कि वे इस नरक से छूट गईं. उन की तपस्या सफल हुई. वे आप सब को एक चरित्रवान इनसान बना पाईं, यही उन की जीत है. आप अपने पिता को भी माफ कर दें. भूल जाइए उन्हें, उन के किए कर्म ही उन की सजा है. आज के बाद आप उन्हें उन के हाल पर छोड़ दीजिए. समयचक्र कभी क्षमा नहीं करता.’’

‘‘समयचक्र ने हमारी मां को किस कर्म की सजा दी? हमारी मां उस आदमी की इतनी सेवा करती रहीं. उसे खिला कर ही खाती रहीं सदा, उस इनसान का इंतजार करती रहीं, जो उस का कभी हुआ ही नहीं. वे बीमार होती रहीं तो पड़ोसी उन का हालचाल पूछते रहे. भूखी रहतीं तो आप उसे खिलाती रहीं. हमारा बाप सिर पर चोट मारता रहा और दवा आप लगाती रहीं…आप क्या थीं और हम क्या थे. हमारे ही सुख के लिए वे हम से अलग रहीं सारी उम्र और हम क्या करते रहे उन के लिए. एक जरा सा सहारा भी नहीं दे पाए. इंतजार ही करते रहे कि कब वह राक्षस उन्हें मार डाले और हम उठा कर जला दें.’’

गुल्लू का रुदन सब को रुलाए जा रहा था.

‘‘कुछ नहीं दिया कालचक्र ने हमारी मां को. पति भी राक्षस दिया और बेटे भी दानव. बेनाम ही मर गईं बेचारी. कोई उस के काम नहीं आया. किसी ने मेरी मां को नहीं बचाया.’’

‘‘ऐसा मत सोचो बेटा, तुम्हारी मां तो हर पल यही कहती रहीं कि उन के  बेटे ही उन के जीने का सहारा हैं. आप सब भी अपने पिता जैसे निकल जाते तो वे क्या कर लेतीं. आप चरित्रवान हैं, अच्छे हैं, यही उन के जीवन की जीत रही. बेनाम नहीं मरीं आप की मां. आप सब हैं न उन का नाम लेने वाले. शांत हो जाओ. अपना मन मैला मत करो.

‘‘आप की मां आप सब की तरफ से जरा सी भी दुखी नहीं थीं. अपनी बहुओं की भी आभारी थीं वे, अपने पोतेपोतियों के नाम भी सदा उन के होंठों पर होते थे. आप सब ने ही उन्हें इतने सालों तक जिंदा रखा, वे ऐसा ही सोचती थीं और यह सच भी है. ऐसा पति मिलना उन का दुर्भाग्य था लेकिन आप जैसी संतान मिल जाना सौभाग्य भी है न. लेखाजोखा करने बैठो तो सौदा बराबर रहा. प्रकृति ने जो उन के हिस्से में लिखा था वही उन्हें मिल गया. उन्हें जो मिला उस का वे सदा संतोष मनाती थीं. सदा दुआएं देती थीं आप सब को. तुम अपना मन छोटा मत करो… विश्वास करो मेरा…’’

मेरे हाथों को पकड़ पुन: चीखचीख कर रो पड़ा था गुल्लू और पूरा परिवार उस की हालत पर.

समय सब से बड़ा मरहम है. एक बुरे सपने की तरह देर तक श्रीमती गोयल की कहानी रुलाती भी रही और डराती भी रही. कुछ दिनों बाद उन के बेटों ने उस घर को बेच दिया जिस में वे रहती थीं.

श्रीमान गोयल के बारे में भी बीना से पता चलता है. बच्चों ने वास्तव में पिता को माफ कर दिया, क्या करते.

उड़तीउड़ती खबरें मिलती रहीं कि श्रीमान गोयल का दिमाग अब ठीक नहीं रहा. बाहर वालियों ने उन का घर भी बिकवा दिया है. बेघर हो गया है वह पुरुष जिस ने कभी अपने घर को घर नहीं समझा. पता नहीं कहां रहता है वह इनसान जिस का अब न कोई घर है न ठिकाना. अपने बच्चों के मुंह का निवाला जो इनसान वेश्याओं को खिलाता रहा उस का अंत भला और कैसा होता.

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एक रात पुन: गली में चीखपुकार हुई. श्रीमान गोयल अपने घर के बाहर खड़े पत्नी को गालियां दे रहे थे. भद्दीगंदी गालियां. दरवाजा जो नहीं खोल रही थीं वे, शायद पागलपन में वे भूल चुके थे कि न यह घर अब उन का है और न ही उन्हें सहन करने वाली पत्नी ही जिंदा है.

चौकीदार ने उन्हें खदेड़ दिया. हर रोज चौकीदार उन्हें दूर तक छोड़ कर आता, लेकिन रोज का यही क्रम महल्ले भर को परेशान करने लगा. बच्चों को खबर की गई तो उन्होंने साफ कह दिया कि वे किसी श्रीमान गोयल को नहीं जानते हैं. कोई जो भी सुलूक चाहे उन के साथ कर सकता है. किसी ने पागलखाने में खबर की. हर रात  का तमाशा सब के लिए असहनीय होता जा रहा था. एक रात गाड़ी आई और उन्हें ले गई. मेरे पति सब देख कर आए थे. मन भर आया था उन का.

‘‘वह आंटीजी कैसे सजासंवार कर रखती थीं इस आदमी को. आज गंदगी का बोरा लग रहा था…बदबू आ रही थी.’’

आंखें भर आईं मेरी. सच ही कहा है कहने वालों ने कि काफी हद तक अपने जीवन के सुख या दुख का निर्धारण मनुष्य अपने ही अच्छेबुरे कर्मों से करता है. श्रीमती गोयल तो अपनी सजा भोग चुकीं, श्रीमान गोयल की सजा अब भी जारी है.

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Serial Story: क्या आप का बिल चुका सकती हूं- भाग 2

मैं हथेलियों पर अपना चेहरा ले कर कुहनियों के बल मेज पर झुकी रही.

‘‘कुछ लोग बाहर से भी और भीतर से भी इतने सुंदर क्यों होते हैं…और साथ में इतने अद्भुत कि हर पल उन का ही ध्यान रहता है? और इतने अपवाद क्यों?…कि या तो किताबों में मिलें या ख्वाबों में…या मिल ही जाएं तो बिछड़ जाने को ही मिलें?’’ वह बोला.

मैं उस की आंखों में उभरती तरलता को देखती रही. वह कहता रहा…

‘‘हम जब किसी से मिलते हैं तो उस मिलन की उमंग को धीरेधीरे फीका क्यों कर देते हैं? जिंदा रहते भी उसे मार क्यों देते हैं?’’

‘‘अधिक निकटता और अधिक दूरी हमें एकदूसरे को समझने नहीं देती…’’ मैं उस से एक गहरा संवाद करने के मूड में आ गई, ‘‘हमें एक ऐसा रास्ता बने रहने देना होता है, जो खत्म नहीं होता, वरना उस के खत्म होते ही हम भी खत्म हो जाते हैं और हमारा वहम टूट जाता है.’’

उस ने मेरी आंखों में देखा और कहना शुरू किया, ‘‘जिन्हें जीना आता है वे किसी रास्ते के खत्म होने से नहीं डरते, बल्कि उस के सीमांत के पार के लिए रोमांचित रहते हैं. भ्रम तब तक बना रहता है जब तक हम आगे के दृश्यों से बचना चाहते हैं…सच तो यह है कि रास्ते कभी खत्म नहीं होते…न ही भ्रम…अनदेखे सच तक जाने के लिए भ्रम ही तो बनते हैं. किश्तियों के डूबने से पता नहीं हम डरते क्यों हैं?’’

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मैं उसे ध्यान से सुनने लगी.

‘‘सुखी, संतुष्ट बने रहने के लिए हम औसत व्यक्ति बन जाते हैं, जबकि चाहतें अनंत हैं…दूरदूर तक.’’

‘‘कभीकभी हम सहमत हो कर भी अलग तलों पर नजर आते हैं…मैं तुम्हारी इस बात को शह दूं तो कहूंगी कि मैं वहां खत्म नहीं होना चाहती जहां मैं ‘मुझ’ से ही मिल कर रह जाऊं…मुझे अपनी हर हद से आगे जाना है. अपने कदमों को नया जोखिम देने के लिए अपनी हर पिछली पगडंडी तोड़नी है…’’

वह हंसा. कहने लगा, ‘‘पर इस लड़खड़ाती खानाबदोशी में हम जल्दबाज हो कर अपने को ही चूक जाते हैं. इसी में हमारी बेचैनियां आगे दौड़ने की लत पाल लेती हैं. क्या ऐसा नहीं?’’

मैं सोचने लगी कि अब हम एकदूसरे के साथ भी हैं और नहीं भी.

मुझे चुप देख कर उस ने पूछा, ‘‘विवाह को आप कैसे देखती हैं?’’

‘‘अनचाही चीज का पल्ले पड़ जाने वाली एक वाहियात रस्म.’’

वह फिर हंस कर बोला, ‘‘विवाहित या अविवाहित होना मुझे बाहर की नहीं, भीतर की घटना लगती है. जीना नहीं आता हो तो सारी इच्छाएं पूरी हो जाने पर भी बेमतलब के साथ से हम नहीं बच पाते. ज्यादातर लोग विवाहित हो कर ही इस से बच सकते हैं…या दूसरे को बचा सकते हैं, ऐसे ही किसी संबंध में आ कर. हालांकि मैं नहीं मानता कि मनुष्य नामक स्थिति की अभी रचना हो भी सकी है…मनुष्य जिसे कहा जाता है वह शायद भविष्य के गर्भ में है, वरना विवाह की या किसी भी स्थापित संबंध की जरूरत कहां है? हम अकसर अपने से ही संबंधित हो कर आकाश खोजते रह जाते हैं…’’

फिर हम झील में बदलते नजारों में डूबने का अभिनय सा करते रहे.

चुप्पी लंबी हो गई तो मैं ने कहा, ‘‘उस रोज तुम ने मेरी पुकार नहीं सुनी और चले गए…मुझ से बचना चाहा तुम ने…मगर आज क्यों तुम ने मुझे पुकारा?’’

वह मेरे चेहरे को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘आप अकेली बैठी थीं. कितनी ही देर से आप के चेहरे पर अकेलेपन की मायूसी देखता रहा, कैसे न पुकारता? पुकारने से बचना और किसी मायूस से बच कर भागना एक ही बात है. कैसी विडंबना है…अब सोच रहा हूं, आप से यह भी नहीं पूछा कि आप करती क्या हैं?’’

मैं यह सोच कर हंसी कि फंस गए बच्चू, इस दुनिया में बहुत कुछ तय नहीं किया जा सकता. अगर किया भी जा सके तो अगले ही पल वह होता है जिस की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

वह चुप रहा. काफी देर के बाद उस ने पूछा, ‘‘घर से निकलते वक्त आप के मन में क्या होता है?’’

‘‘अज्ञात ऐडवैंचर. मैं लगातार घूमती हूं. अपना खुद का तकिया और चादर भी साथ रखती हूं, ताकि देह जहां तक हो, बनी रहे लेकिन जानती हूं कि मेरे हाथ में कल नहीं है.’’

वह मुसकराया, ‘‘इस क्षण मेरे लिए क्या सोचती हैं आप?’’

मैं हंसी, ‘‘इतना तो तय हो ही सकता है कि मैं अपने खाएपिए के अपने हिस्से का हिसाब चुकता करूं…तुम्हें ‘आप’ कह कर तुम से मिला हुआ परिचय तुम्हें लौटाऊं और हम अपनाअपना रास्ता लें.’’

‘‘ऐसा रास्ता है क्या, जिस पर सामने ठिठक जाने वाले लोग मिलते ही नहीं? ऐसा परिचय होता है क्या जिसे समूचा पोंछा जा सके? और अनाम रिश्तों में ‘तुम’ से ‘आप’ हो जाने से क्या होता है?’’

‘‘बातें तो बहुत बड़ीबड़ी कर रहे हो…तुम्हारी उम्र क्या है?’’

‘‘दुनिया से दफा हो जाने तक की तो नहीं जानता, पर अगली 1 जून को 30 का हो रहा हूं.’’

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मैं चौंकी, ‘‘तुम तो मुझ से बड़े निकले… लगते तो छोटे हो.’’

‘‘हां, अकसर इसी धोखे में बच्चा ही बना रह जाता हूं बड़ों में…’’

‘‘जैसा दिखते हो वैसा स्वभाव भी है तुम्हारा…इसे चलनेफलने दो.’’

‘‘ऐसा मैं भी सोचता रहा, पर…’’

‘‘पर क्या?’’ मैं बीच में बोल पड़ी, ‘‘यही न कि अगर मेरे जैसी कोई तुम्हें पसंद आए तो तुम ज्यादा बचाव न कर उस पर हक जमा सको.’’

‘‘नहीं…ऐसा तो नहीं, क्योंकि मैं स्वयं नहीं चाहता अपने पर किसी का ऐसा अधिकार…फिर जो भीतरबाहर से सुंदर और बहुत हट कर होते हैं, उन का मेरे जैसे घुमक्कड़ व्यक्ति के लिए सुलभ रहना संभव नहीं है.’’

‘‘अगर तुम्हें पता चले कि राशा कुछ महीने की मेहमान है तो?’’

‘‘मुझे ऐसा मजाक पसंद नहीं.’’

‘‘लेकिन मौत ऐसे मजाक पसंद करती है.’’

‘‘क्या राशा को कुछ हुआ है?’’

‘‘किस को कब क्या नहीं हो सकता? मैं इतना जानती हूं कि अगर अभी राशा को यह पता चल जाए कि तुम मेरे साथ हो तो वह हमें अपने पास बुला लेगी या खुद यहां चली आएगी.’’

‘‘मिलन को बुनती ज्यादातर बातें सच तो होती हैं पर झूठ हो जाने के लिए ही. सच तभी बनता है जब किसी आकस्मिक घटना पर सहसा हम कुछ करने को बेचैन हो उठते हैं. जैसे कि हमारा उस रोज का मिलना और अचानक आज मिलना…आप जिंदगी को वाक्यसूत्रों में नहीं पिरो सकतीं.’’

‘‘ओह…मैं भूल ही गई थी…मुझे जल्दी होटल पहुंचना है…’’ कह कर मैं काउंटर पर बिल देने के लिए जाने लगी तो वह मुझे रोक कर बोला, ‘‘आज का दिन मेरा है. प्लीज, यह बिल भी मुझे चुकाने दीजिए न.’’

‘‘किसी पर अधिकार जताने के मौके हमारे हाथ कितनी खूबसूरती से लग जाते हैं,’’ मेरे मुंह से निकला और हम दोनों हंस पड़े.

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Serial Story: क्या आप का बिल चुका सकती हूं- भाग 1

नीलगिरी की गोद में बसे ऊटी में राशा के साथ मैं झील के एक छोर पर एकांत में बैठी थी. ‘‘तुम्हारा चेहरा आज ज्यादा लाल हो रहा है,’’ राशा ने मेरी नाक को पकड़ कर हिलाया और बोली, ‘‘कुछ लाली मुझे दे दो और घूरने वालों को कुछ मुझ पर भी नजरें इनायत करने दो.’’

इतना कह कर राशा मेरी जांघ पर सिर रख कर लेट गई और मैं ने उस के गाल पर चिकोटी काट ली तो वह जोर से चिल्लाई थी.

‘‘मेरी आंखों में अपना चौखटा देख. एक चिकोटी में तेरे गाल लाल हो गए, दोचार में लालमलाल हो जाएंगे और तब बंदरिया का तमाशा देखने के लिए भीड़ लग जाएगी,’’ मैं ने मजाक करते हुए कहा.

उस ने मेरी जांघ पर जरा सा काट लिया तो मैं उस से भी ज्यादा जोर से चीखी. सहसा बगल के पौधों की ओट से एक चेहरा गरदन आगे कर के हमें देखने को बढ़ा. मेरी नजर उस पर पड़ी तो राशा ने भी उस ओर देखा.

‘‘मैं सोच रही थी कि ऊटी में पता नहीं ऊंट होते भी हैं कि नहीं,’’ राशा के मुंह से निकला.

‘‘चुप,’’ मैं ने उसे रोका.

मेरी नजरों का सामना होते ही वह चेहरा संकोच में पड़ता दिखाई दिया. उस ने आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए कहा, ‘‘आई एम सौरी…मुझे मालूम नहीं था कि आप लोग यहां हैं…दरअसल, मैं सो रहा था.’’

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फिर मैं ने उसे खड़ा हो कर अपने कपड़ों को सलीके से झाड़ते हुए देखा. एक युवा, साधारण पैंटशर्ट. गेहुंए चेहरे पर मासूमियत, शिष्टता और कुछ असमंजस. हाथ में कोई मोटी किताब. शायद यहां के कालेज का कोई पढ़ाकू लड़का होगा.

‘‘सौरी…हम ने आप के एकांत और नींद में खलल डाला…और आप को…’’

‘‘और मैं ने आप को ऊंट कहा,’’ राशा ने दो कदम उस की ओर बढ़ कर कहा, ‘‘रियली, आई एम वैरी सौरी.’’

वह सहज ढंग से हंसा और बोला, ‘‘मैं ने तो सुना नहीं…वैसे लंबा तो हूं ही…फिर ऊटी में ऊंट होने में क्या बुराई है? थैंक्स…आप दोनों बहुत अच्छी हैं…मैं ने बुरा नहीं माना…इस तरह की बातें हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा होती हैं. अच्छा…गुड बाय…’’

मैं हक्कीबक्की जब तक कुछ कहती वह जा चुका था.

‘‘अब तुम बिना चिकोटी के लाल हो रही हो,’’ मैं ने राशा के गाल थपथपाए.

‘‘अच्छा नहीं हुआ, यार…’’ वह बोली.

‘‘प्यारा लड़का है, कोई शाप नहीं देगा,’’ मैं ने मजाक में कहा.

अगले दिन जब राशा अपने मांबाप के साथ बस में बैठी थी और बस चलने लगी तो स्टैंड की ढलान वाले मोड़ पर बस के मुड़ते ही हम ने राशा की एक लंबी चीख सुनी, ‘‘जोया…इधर आओ…’’

ड्राइवर ने डर कर सहसा बे्रक लगाए. मैं भाग कर राशा वाली खिड़की पर पहुंची. वह मुझे देखते ही बेसाख्ता बोली, ‘‘जोया, वह देखो…’’

मैं ने सामने की ढलान की ऊपरी पगडंडी पर नजर दौड़ाई. वही लड़का पेड़ों के पीछे ओझल होतेहोते मुझे दिख गया.

‘‘तुम उस से मिलना और मेरा पता देना,’’ राशा बोली.

उस के मांबाप दूसरी सवारियों के साथसाथ हैरान थे.

‘‘अब चलो भी…’’ बस में कोई चिल्लाया तो बस चली.

मैं ने इस घटना के बारे में जब अपनी टोली के लड़कों को बताया तो वे मुझ से उस लड़के के बारे में पूछने लगे. तभी रोहित बोला, ‘‘बस, इतनी सी बात? राशा इतनी भावुक तो है नहीं…मुझे लगता है, कोई खास ही बात नजर आई है उसे उस लड़के में…’’

मेरे मुंह से निकला, ‘‘खास नहीं, मुझे तो वह अलग तरह का लड़का लगा…सिर्फ उस का व्यवहार ही नहीं, चेहरे की मासूम सजगता भी… कुछ अलग ही थी.’’

‘‘तुम्हें भी?’’ नीलेश हंसी, ‘‘खुदा खैर करे, हम सब उस की तलाश में तुम्हारी मदद करेंगे.’’

मैं ने सब की हंसी में हंसना ही ठीक समझा.

‘‘ऐ प्यार, तेरी पहली नजर को सलाम,’’ सब एक नाजुक भावना का तमाशा बनाते हुए गाने लगे. राशा का जाना मेरे लिए अकेलेपन में भटकने का सबब बन गया.

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एक रोज ऊपर से झील को देखतेदेखते नीचे उस के किनारे पहुंची. खुले आंगन वाले उस रेस्तरां में कोने के पेड़ के नीचे जा बैठी. आसपास की मेजें भरने लगी थीं. मैं ने वेटर से खाने का बिल लाने को कहा. वह सामने दूसरी मेज पर बिल देने जा रहा था.

सहसा वहां से एक सहमती आवाज आई, ‘‘क्या आप का बिल चुका सकता हूं?’’

मैं चौंकी. फिर पहचाना… ‘‘ओ…यू…’’ मैं चहक उठी और उस की ओर लपकी. वह उठा तो मैं ने उस की ओर हाथ बढ़ाया, ‘‘आई एम जोया…द डिस्टर्बिंग गर्ल…’’

‘‘मी…शेषांत…द ऊंट.’’

सहसा हम दोनों ने उस नौजवान वेटर को मुसकरा कर देखा जो हमारी उमंग को दबी मुसकान में अदब से देख रहा था. मन हुआ उसे भी साथ बिठा लूं.

शेषांत ने अच्छी टिप के साथ बिल चुकाया. मैं उसे देखती रही. उस ने उठते हुए सौंफ की तश्तरी मेरी ओर बढ़ाई और पूछा, ‘‘वाई आर यू सो ऐलोन?’’

‘‘दिस इज माई च्वाइस. अकेलेपन की उदासी अकसर बहुत करीबी दोस्त होती है हमारी. हां, राशा तो वहां से अगले दिन घर लौट गई थी. हमारी एक सैलानी टोली है, पर मैं उन के शोर में ज्यादा देर नहीं टिक पाती.’’

हम दोनों कोने में लगी बेंच पर जा बैठे. झील में परछाइयां फैल रही थीं.

मैं ने उस दिन राशा की विदाई वाला किस्सा उसे सुनाया तो वह संजीदा हो उठा, ‘‘आप लोग बड़ी हैं तो भी इतना सम्मान देती हैं…वरना मैं तो बहुत मामूली व्यक्ति हूं.’’

‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं कि आप करते क्या हैं?’’ ‘‘इस तरह की जगहों के बारे में लिखता हूं और उस से कुछ कमा कर अपने घूमने का शौक पूरा करता हूं. कभीकभी आप जैसे अद्भुत लोग मिल जाते हैं तो सैलानी सी कहानी भी कागज पर रवानी पा लेती है.’’

‘‘वंडरफुल.’’

मैंने उसे राशा का पता नोट करने को कहा तो वह बोला, ‘‘उस से क्या होगा? लेट द थिंग्स गो फ्री…’’ मैं चुप रह गई.

‘‘पता छिपाने में मेरी रुचि नहीं है…’’ वह बोला, ‘‘फिर मैं तो एक लेखक हूं जिस का पता चल ही जाता है.’’

‘‘फिर…पता देने में क्या हर्ज है?’’

‘‘बंधन और रिश्ते के फैलाव से डरता हूं… निकट आ कर सब दूर हो जाते हैं…अकसर तड़पा देने वाली दूरी को जन्म दे कर…’’

‘‘उस रोज भी शायद तुम डरे थे और जल्दी से भाग निकले थे.’’

‘‘हां, आप के कारण.’’

मैं बुरी तरह चौंकी.

‘‘उस रोज आप को देखा तो किसी की याद आ गई.’’

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‘‘किस की?’’

‘‘थी कोई…मेरे दिल व दिमाग के बहुत करीब…दूरदूर से ही उसे देखता रहा और उस के प्रभामंडल को…’’ कहतेकहते वह कहीं खो गया.

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Serial Story: क्या आप का बिल चुका सकती हूं- भाग 3

वह काउंटर पर जा कर लौटा तो मैं ने उस की तरफ हाथ बढ़ा कर कहा, ‘‘चलती हूं…कभी सहसा संयोग बना तो फिर मिलेंगे…बहुत अच्छे हो तुम…अच्छे यानी जैसे भी हो…’’

उस ने मेरे बढ़े हुए हाथ को देखा… मुसकरा कर हाथ जोड़े और बोला, ‘‘हाथ नहीं मिलाऊंगा.’’

उस ने मेरे लौटते हुए हाथ को अपने हाथ में सहेज लिया और मेरे साथ चल पड़ा. हम आगे तक निकल गए.

‘‘क्या करती हैं आप?’’ बहुत देर बाद मेरा हाथ छोड़ कर उस ने पूछा.

‘‘गलती से साइकिएट्रिस्ट हूं. मनोविद या मनोचिकित्सक कहलाना बहुत आसान है. इस दुनिया में जीने के लिए फलसफे और मन के विज्ञान नहीं, अनाम प्रेम चाहिए…या मजबूरी में कोई मौलिक जुगाड़.’’

वह मेरे होटल तक आया और चुपचाप खड़ा हो गया. मैं सहसा हंस पड़ी. वह भी हंसा.

‘‘अब क्या करें?’’ मेरे मुंह से निकला.

‘‘अलविदा और क्या?’’ उस ने हाथ बढ़ाया.

‘‘मैं मन में उस लड़की की तसवीर बनाने की कोशिश करूंगी, जिसे उस रोज मुझे देख कर तुम ने याद किया था…’’ मैं ने उस का हाथ बहुत आहिस्ता से छोड़ते हुए कहा.

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‘‘कोई जरूरत नहीं…तिल भर का भी फर्क नहीं है. आप के पास आईना नहीं है क्या?’’ कह कर वह चला गया.

मैं देर तक ठगी सी खड़ी रह गई.

5 साल बीते होंगे अस्पताल की तीसरी मंजिल पर अपने दफ्तर में बैठी थी. दूसरे एक विभाग की इंचार्ज डा. सविता मेरे साथ थी. तभी उस की एक सहयोगी आ कर बोली, ‘‘डाक्टर…आप की वह 14 नंबर की मरीज…उसे आज डिस्चार्ज करना है, मगर उस के बिल अभी तक जमा नहीं हुए…आपरेशन के बाद से अब तक 25 हजार की पेमेंट बकाया है.’’

‘‘ओह, इतनी नहीं होनी चाहिए. 30 हजार रुपए तो जमा कर चुके हैं बेचारे. बड़ा नाम सुन कर आए थे इस अस्पताल का…और ये लोग मजबूर मरीजों को लूट रहे हैं. उस का पति क्या कहता है?’’

‘‘कह रहा है कि उस ने अपनी जानपहचान वालों को फोन किए हैं…शायद कुछ उपाय हो जाएगा.’’

‘‘अभी कहां है?’’

‘‘बीवी के लिए फल लेने बाजार गया है…कुछ देर पहले उस से गजल सुन रहा था…’’

‘‘गजल?’’ मैं ने हैरत से पूछा.

‘‘हां…’’ डा. सविता बोली, ‘‘वह लड़की बंद आंखों में लेटेलेटे बहुत प्यारी गजलें गुनगुनाती रहती है. शायद अपने पति की लाचारी को व्यक्त करती है… और क्या तो गजब की किताबें पढ़ती है. चलो, देखते हैं…उस की फाइनल रिपोर्ट भी डा. प्रिया से साइन करानी है…’’

उन दोनों के साथ मैं भी नीचे आ गई. फिर हम सामने की बड़ी इमारत की ओर बढ़ीं और वहां एक अधबने कमरे में पहुंचीं.

देखा, एक युवती बेहद कमजोर हालत में बेड पर पड़ी छत की ओर देख रही है. कमजोरी में भी वह सुंदर लग रही थी. हमें देख कर वह किसी तरह उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी.

‘‘लेटी रहो,’’ मैं ने उस के सिरहाने बैठते हुए कहा और पास रखी ‘बुक औफ द हिडन लाइफ’ को हाथ में ले कर पलटने लगी. जीवन और मौत के रिश्ते को अटूट बताने वाली अनोखी किताब.

मैं उस से बतियाने लगी. थकी हुई सांसों के बीच उस ने बताया कि साल भर पहले एक हादसे में उस के घर के सब लोग मारे गए थे और उस के बचपन के एक साथी ने उस से शादी कर ली… ‘‘तभी पता चला कि मेरे अंदर तो भयंकर रोग पल रहा है…अगर मुझे पता होता तो मैं कभी उस से शादी न करती…बेचारा तब से जाने कहांकहां दौड़भाग कर के मेरा इलाज करा रहा है…साल होने को आया…’’

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‘‘अब तुम रोग मुक्त हो,’’ मैं ने उस के सिर पर हाथ रखा, ‘‘सब ठीक हो जाएगा.’’

उस ने कातरता से मुझे देखा और आंखें बंद कर लीं. इसी में उस की आंखों में से कुछ बूंदें बाहर निकल आईं और कुछ शब्द भी… ‘‘हां, होता तो सब ठीक ही होगा…पर मुझे अपना जिंदा रहना ठीक नहीं लगता…हालांकि दिमागी तौर पर बिलकुल तंदुरुस्त हूं…जीना भी चाहती हूं…’’

डा. सविता उस की जांच कर के जा चुकी थीं. उसे स्पर्श की एक और तसल्ली दे कर मैं भी उठी. अभी कुछ ही कदम आगे निकली थी कि मेरे कानों में एक गुनगुनाहट पहुंची. देखा, वह आंखें बंद कर के गा रही है :

‘धुआं बना के फिजा में उड़ा दिया मुझ को,

मैं जल रहा था, किसी ने बुझा दिया मुझ को…

खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए,

सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को…’

मैं खड़ी रही. उस की गुनगुनाहट धीमी होती चली गई और फिर उसे नींद आ गई. मुझे वे दिन याद आए जब मां के न रहने पर मैं बहुत अकेली पड़ गई थी और नींद में उतरने के लिए इसी तरह अपने दर्द को लोरी बना लेती थी.

रिसेप्शन पर पहुंची. वहां से अस्पताल के प्रबंध निदेशक को फोन कर के बिल के पेमेंट का जिम्मा लिया और लौट आई.

देखा, उस के सिरहाने बैठा एक युवक सेब काट कर प्लेट में रख रहा है. पुरानी पैंटशर्ट के भीतर एक दुबली काया. सिर पर उलझे हुए बाल. युवती शायद सो रही थी.मैं धीमे कदमों से उस के निकट पहुंची.

वह युवक कह रहा था, ‘‘अब दोबारा मत कहना कि तुम से शादी कर के मैं बरबाद हो गया. नाउ यू आर ओ.के. …मेरे लिए तुम्हारा ठीक होना ही महत्त्वपूर्ण है…पैसों का इंतजाम नहीं हुआ…बट आई एम ट्राइंग माई बेस्ट…’’ उस की आवाज में पस्ती भी थी और उम्मीद भी.

मैं ने देखा, आंखें बंद किए पड़ी वह युवती उस की बात पर धीरेधीरे सिर हिला रही थी. अचानक मेरा हाथ उस युवक की ओर बढ़ा और उस के कंधे पर चला गया. इसी के साथ मेरे मुंह से निकला :

‘‘कैन आइ पे फौर यू?…आप का बिल चुका सकती हूं मैं?’’

वह चौंक कर पलटा और खड़ा हो गया, ‘‘आप?’’

अब मैं ने उस का चेहरा देखा… ‘‘ओह…शेषांत…तुम?’’

एक तूफान उमड़ा और उस ने हमें अपने में ले लिया.

मेरे कंधे से लगा वह सिसकता रहा और मेरे हाथ उस के सिर और पीठ पर कांपते रहे. मेरी आंखें सामने उस लड़की की आंखों से झरते आनंद को देखती रहीं. पता नहीं, कब से चट्टान हो चुकी मेरी आंखों में से कुछ बाहर आने को मचलने लगा.

‘‘राशा…ये हैं…जोया…’’ शेषांत ने मेरे कंधे से हट कर चश्मा उतारते हुए उस से कहा तो मैं चौंकी, ‘‘राशा?’’

वह लड़की अपनी खुशी को समेटती हुई बोली, ‘‘मेरा नाम राशि है…इन्होंने आप लोगों के बारे में बताया था तो मैं ने जिद की थी कि मुझे राशा ही कहा करें.’’

मैं चुप रही…सोचती रही…‘राशा तो अब नहीं है…पर तुम दोनों ने उसे सहेज लिया…बहुत अच्छे हो तुम दोनों.’

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हम तीनों अपनीअपनी आंखें पोंछ रहे थे कि सामने से एक नर्स आई. उस ने हंस कर मेरे हाथ में बिलों के भुगतान की रसीद और राशि के डिस्चार्ज की मंजूरी थमाई और चली गई.

मेरी राशा तो खो गई थी पर उस बिल की रसीद के साथ एक और राशा मिल गई. लगा कि जिंदगी अब इतनी वीरान, अकेली न रहेगी. राशा, शेषांत और मैं…एक पूरा परिवार…

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