Hindi Story Collection : नसीहत – अरुण और संगीता के बीच क्या संबंध था?

Hindi Story Collection  : कालबेल की आवाज सुन कर दीपू ने दरवाजा खोला. दरवाजे पर एक औरत खड़ी थी. उस औरत ने बताया कि वह अरुण से मिलना चाहती है. औरत को वहीं रोक कर दीपू अरुण को बताने चला गया.

‘‘साहब, दरवाजे पर एक औरत खड़ी है, जो आप से मिलना चाहती है,’’ दीपू ने अरुण से कहा.

‘‘कौन है?’’ अरुण ने पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता साहब, लेकिन देखने में भली लगती है,’’ दीपू ने जवाब दिया.

‘‘बुला लो उसे. देखें, किस काम से आई है?’’ अरुण ने कहा.

दीपू उस औरत को अंदर बुला लाया.

अरुण उसे देखते ही हैरत से बोला, ‘‘अरे संगीता, तुम हो. कहो, कैसे आना हुआ? आओ बैठो.’’

संगीता सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘बहुत मुश्किल से तुम्हें ढूंढ़ पाई हूं. एक तुम हो जो इतने दिनों से इस शहर में हो, पर मेरी याद नहीं आई.

‘‘तुम ने कहा था कि जब कानपुर आओगे, तो मुझ से मिलोगे. मगर तुम तो बड़े साहब हो. इन सब बातों के लिए तुम्हारे पास फुरसत ही कहां है?’’

‘‘संगीता, ऐसी बात नहीं है. दरअसल, मैं हाल ही में कानपुर आया हूं. औफिस के काम से फुरसत ही नहीं मिलती. अभी तक तो मैं ने इस शहर को ठीक से देखा भी नहीं है.

‘‘अब छोड़ो इन बातों को. पहले यह बताओ कि मेरे यहां आने की जानकारी तुम्हें कैसे मिली?’’ अरुण ने संगीता से पूछा.

‘‘मेरे पति संतोष से, जो तुम्हारे औफिस में ही काम करते हैं,’’ संगीता ने चहकते हुए बताया.

‘‘तो संतोषजी हैं तुम्हारे पति. मैं तो उन्हें अच्छी तरह जानता हूं. वे मेरे औफिस के अच्छे वर्कर हैं,’’ अरुण ने कहा.

अरुण के औफिस जाने का समय हो चुका था, इसलिए संगीता जल्दी ही अपने घर आने की कह कर लौट गई.

औफिस के कामों से फुरसत पा कर अरुण आराम से बैठा था. उस के मन में अचानक संगीता की बातें आ गईं.

5 साल पहले की बात है. अरुण अपनी दीदी की बीमारी के दौरान उस के घर गया था. वह इंजीनियरिंग का इम्तिहान दे चुका था.

संगीता उस की दीदी की ननद की लड़की थी. उस की उम्र 18 साल की रही होगी. देखने में वह अच्छी थी. किसी तरह वह 10वीं पास कर चुकी थी. पढ़ाई से ज्यादा वह अपनेआप पर ध्यान देती थी.

संगीता दीदी के घर में ही रहती थी. दीदी की लंबी बीमारी के कारण अरुण को वहां तकरीबन एक महीने तक रुकना पड़ा. जीजाजी दिनभर औफिस में रहते थे. घर में दीदी की बूढ़ी सास थी. बुढ़ापे के कारण उन का शरीर तो कमजोर था, पर नजरें काफी पैनी थीं.

अरुण ऊपर के कमरे में रहता था. अरुण को समय पर नाश्ता व खाना देने के साथसाथ उस के ज्यादातर काम संगीता ही करती थी.

संगीता जब भी खाली रहती, तो ज्यादा समय अरुण के पास ही बिताने की कोशिश करती.

संगीता की बातों में कीमती गहने, साडि़यां, अच्छा घर व आधुनिक सामानों को पाने की ख्वाहिश रहती थी. उस के साथ बैठ कर बातें करना अरुण को अच्छा लगता था.

संगीता भी अरुण के करीब आती जा रही थी. वह मन ही मन अरुण को चाहने लगी थी. लेकिन दीदी की सास दोनों की हालत समझ गईं और एक दिन उन्होंने दीदी के सामने ही कहा, ‘अरुण, अभी तुम्हारी उम्र कैरियर बनाने की है. जज्बातों में बह कर अपनी जिंदगी से खेलना तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है.’

दीदी की सास की बातें सुन कर अरुण को अपराधबोध का अहसास हुआ. वह कुछ दिनों बाद ही दीदी के घर से वापस आ गया. तब तक दीदी भी ठीक हो चुकी थीं.

एक साल बाद अरुण गजटेड अफसर बन गया. इस बीच संगीता की शादी तय हो गई थी. जीजाजी शादी का बुलावा देने घर आए थे.

लौटते समय वे शादी के कामों में हाथ बंटाने के लिए अरुण को साथ लेते गए. दीदी के घर में शादी की चहलपहल थी.

एक शाम अरुण घर के पास बाग में यों ही टहल रहा था, तभी अचानक संगीता आई और बोली, ‘अरुण, समय मिल जाए, तो कभी याद कर लेना.’

संगीता की शादी हो गई. वह ससुराल चली गई. अरुण ने भी शादी कर ली.

आज संगीता अरुण के घर आई, तो अरुण ने भी कभी संगीता के घर जाने का इरादा कर लिया. पर औफिस के कामों में बिजी रहने के कारण वह चाह कर भी संगीता के घर नहीं जा सका. मगर संगीता अरुण के घर अब रोज जाने लगी.

कभीकभी संगीता अरुण के साथ उस के लिए शौपिंग करने स्टोर में चली जाती. स्टोर का मालिक अरुण के साथ संगीता को भी खास दर्जा देता था.

एकाध बार तो ऐसा भी होता कि अरुण की गैरहाजिरी में संगीता स्टोर में जा कर अरुण व अपनी जरूरत की चीजें खरीद लाती, जिस का भुगतान अरुण बाद में कर देता.

अरुण संगीता के साथ काफी घुलमिल गया था. संगीता अरुण को खाली समय का अहसास नहीं होने देती थी.

एक दिन संगीता अरुण को साथ ले कर साड़ी की दुकान पर गई. अरुण की पसंद से उस ने 3 साडि़यां पैक कराईं.

काउंटर पर आ कर साड़ी का बिल ले कर अरुण को देती हुई चुपके से बोली, ‘‘अभी तुम भुगतान कर दो, बाद में मैं तुम्हें दे दूंगी.’’

अरुण ने बिल का भुगतान कर दिया और संगीता के साथ आ कर गाड़ी में बैठ गया.

गाड़ी थोड़ी दूर ही चली थी कि संगीता ने कहा, ‘‘जानते हो अरुण, संतोषजी के चाचा की लड़की की शादी है. मेरे पास शादी में पहनने के लिए कोई ढंग की साड़ी नहीं है, इसीलिए मुझे नई साडि़यां लेनी पड़ीं.

‘‘मेरी शादी में मां ने वही पुराने जमाने वाला हार दिया था, जो टूटा पड़ा है. शादी में पहनने के लिए मैं एक अच्छा सा हार लेना चाहती हूं, पर क्या करूं. पैसे की इतनी तंगी है कि चाह कर भी मैं कुछ नहीं कर पाती हूं. मैं चाहती थी कि तुम से पैसा उधार ले कर एक हार ले लूं. बाद में मैं तुम्हें पैसा लौटा दूंगी.’’

अरुण चुपचाप संगीता की बातें सुनता हुआ गाड़ी चलाए जा रहा था.

उसे चुप देख कर संगीता ने पूछा, ‘‘अरुण, तो क्या तुम चल रहे हो ज्वैलरी की दुकान में?’’

‘‘तुम कहती हो, तो चलते हैं,’’ न चाहते हुए भी अरुण ने कहा.

संगीता ने ज्वैलरी की दुकान में 15 हजार का हार पसंद किया.

अरुण ने हार की कीमत का चैक काट कर दुकानदार को दे दिया. फिर दोनों वापस आ गए.

अरुण को संगीता के साथ समय बिताने में एक अनोखा मजा मिलता था.

आज शाम को उस ने रोटरी क्लब जाने का मूड बनाया. वह जाने की तैयारी कर ही रहा था, तभी संगीता आ गई.

संगीता काफी सजीसंवरी थी. उस ने साड़ी से मैच करता हुआ ब्लाउज पहन रखा था. उस ने अपने लंबे बालों को काफी सलीके से सजाया था. उस के होंठों की लिपस्टिक व माथे पर लगी बिंदी ने उस के रूप को काफी निखार दिया था.

देखने से लगता था कि संगीता ने सजने में काफी समय लगाया था. उस के आते ही परफ्यूम की खुशबू ने अरुण को मदहोश कर दिया. वह कुछ पलों तक ठगा सा उसे देखता रहा.

तभी संगीता ने अरुण को फिल्म के 2 टिकट देते हुए कहा, ‘‘अरुण, तुम्हें आज मेरे साथ फिल्म देखने चलना होगा. इस में कोई बहाना नहीं चलेगा.’’

अरुण संगीता की बात को टाल न सका और वह संगीता के साथ फिल्म देखने चला गया.

फिल्म देखते हुए बीचबीच में संगीता अरुण से सट जाती, जिस से उस के उभरे अंग अरुण को छूने लगते.

फिल्म खत्म होने के बाद संगीता ने होटल में चल कर खाना खाने की इच्छा जाहिर की. अरुण मान गया.

खाना खा कर होटल से निकलते समय रात के डेढ़ बज रहे थे. अरुण ने संगीता को उस के घर छोड़ने की बात कही, तो संगीता ने उसे बताया कि चाची की लड़की का तिलक आया है. उस में संतोष भी गए हैं. वह घर में अकेली ही रहेगी. रात काफी हो चुकी है. इतनी रात को गाड़ी से घर जाना ठीक नहीं है. आज रात वह उस के घर पर ही रहेगी.

अरुण संगीता को साथ लिए अपने घर आ गया. वह उस के लिए अपना बैडरूम खाली कर खुद ड्राइंगरूम में सोने चला गया. वह काफी थका हुआ था, इसलिए दीवान पर लुढ़कते ही उसे गहरी नींद आ गई.

रात गहरी हो चुकी थी. अचानक अरुण को अपने ऊपर बोझ का अहसास हुआ. उस की नाक में परफ्यूम की खुशबू भर गई. वह हड़बड़ा कर उठ बैठा. उस ने देखा कि संगीता उस के ऊपर झुकी हुई थी.

उस ने संगीता को हटाया, तो वह उस के बगल में बैठ गई. अरुण ने देखा कि संगीता की आंखों में अजीब सी प्यास थी. मामला समझ कर अरुण दीवान से उठ कर खड़ा हो गया.

बेचैनी की हालत में संगीता अपनी दोनों बांहें फैला कर बोली, ‘‘सालों बाद मैं ने यह मौका पाया है अरुण, मुझे निराश न करो.’’

लेकिन अरुण ने संगीता को लताड़ते हुए कहा, ‘‘लानत है तुम पर संगीता. औरत तो हमेशा पति के प्रति वफादार रहती है और तुम हो, जो संतोष को धोखा देने पर तुली हुई हो.

‘‘तुम ने कैसे समझ लिया कि मेरा चरित्र तिनके का बना है, जो हवा के झोंके से उड़ जाएगा.

‘‘तुम्हें पता होना चाहिए कि मेरा शरीर मेरी बीवी की अमानत है. इस पर केवल उसी का हक बनता है. मैं इसे तुम्हें दे कर उस के साथ धोखा नहीं करूंगा.

‘‘संगीता, होश में आओ. सुनो, औरत जब एक बार गिरती है, तो उस की बरबादी तय हो जाती है,’’ अपनी बात कहते हुए अरुण ने संगीता को अपने कमरे से बाहर कर के दरवाजा बंद कर लिया.

सुबह देर से उठने के बाद अरुण को पता चला कि संगीता तो तड़के ही वहां से चली गई थी.

अरुण ने अपनी समझदारी से खुद को तो गिरने से बचाया ही, संगीता को भी भटकने नहीं दिया.

Hindi Fiction Stories : भरोसेमंद- शर्माजी का कड़वा बोलना लोगों को क्यों पसंद नही आता था?

Hindi Fiction Stories : ‘‘बड़ी खुशी हुई आप से मिल कर. अच्छी बात है वरना अकसर लोग मुझे पसंद

नहीं करते.’’

‘‘अरे, ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?’’

‘‘मैं नहीं कह रहा, सिर्फ बता रहा हूं आप को वह सच जो मैं महसूस करता हूं. अकसर लोग मुझे पसंद नहीं करते. आप भी जल्द ही उन की भाषा बोलने लगेंगे. आइए, हमारे औफिस में आप का स्वागत है.’’

शर्माजी ने मेरा स्वागत करते हुए अपने बारे में भी शायद वह सब बता दिया जिसे वे महसूस करते होंगे या जैसा उन्हें महसूस कराया जाता होगा. मुझे तो पहली ही नजर में बहुत अच्छे लगे थे शर्माजी. उन के हावभाव, उन का मुसकराना, उन का अपनी ही दुनिया में मस्त रहना, किसी के मामले में ज्यादा दखल न देना और हर किसी को पूरापूरा स्पेस भी देना.

हुआ कुछ इस तरह कि मुझे अपनी चचेरी बहन को ले कर डाक्टर के पास जाना पड़ा. संयोग भी ऐसा कि हम लगातार 3 बार गए और तीनों बार ही शर्माजी का मुझ से मिलना हो गया. उन का घर वहीं पास में ही था. हर शाम वे सैर करने जाते हुए मुझ से मिल जाते और औपचारिक लहजे में घर आने को भी कहते. मगर उन्होंने कभी ज्यादा प्रश्न नहीं किए. मुसकरा कर ही निकल जाते. उन्हीं दिनों मुझे एक हफ्ते के लिए टूर पर जाना पड़ा. बहन का कोर्स अभी पूरा नहीं हुआ था. वह अकेली चली तो जाती पर वापसी पर अंधेरा हो जाएगा, यह सोच कर उसे घबराहट होती थी.

‘‘तुम शर्माजी के घर चली जाना. छोटा भाई अपनी ट्यूशन क्लास से वापस आते हुए तुम्हें लेता आएगा. मैं उन का पता ले लूंगा, पास ही में उन का घर है.’’

बहन को समझा दिया मैं ने. शर्माजी से इस बारे में बात भी कर ली. सारी स्थिति उन्हें समझा दी. शर्माजी तुरंत बोले, ‘‘हांहां, क्यों नहीं, जरूर आइए. मेरी बहन घर पर होती है. पत्नी तो औफिस से देर से ही आती हैं लेकिन आप चिंता मत कीजिए. निसंकोच आइए.’’

मेरी समस्या सुलझा दी उन्होंने. हफ्ता बीता और उस के बाद उस की जिम्मेदारी फिर मुझ पर आ गई. पता चला, शर्माजी की बहन तो उसी के कालेज की निकली. इसलिए मेरी बहन का समय अच्छे से बीत गया. मैं ने शर्माजी को धन्यवाद दिया. वे हंसने लगे.

‘‘अरे, इस में धन्यवाद की क्या जरूरत है? यह दुनिया रैनबसेरा है विजय बाबू. न घर तेरा न घर मेरा. जो समय हंसतेखेलते बीत जाए बस, समझ लीजिए वही आप का रहा. मिनी बता रही थी कि आप की बहन तो उसी के कालेज में पढ़ती है.’’

‘‘हां, शर्माजी. अब क्या कहें? फुटबाल की मंझी हुई खिलाड़ी थी मेरी बहन. एक दिन खेलतेखेलते हाथ की हड्डी ऐसी खिसकी कि ठीक ही नहीं हो रही. उसी सिलसिले में तो आप के सैक्टर में जाना पड़ता है उसे डा. मेहता के पास. आप को तो सब बताया ही था.’’

‘‘मुझे कुछ याद नहीं. दरअसल, आप बुरा मत मानना, मैं किसी की व्यक्तिगत जिंदगी में जरा कम ही दिलचस्पी लेता हूं. मैं आप के काम आ सका उस के लिए मैं ही आप का आभारी हूं.’’

भौचक्का रह गया मैं. एक पल को रूखे से लगे मुझे शर्माजी. ऐसी भी क्या आदत जो किसी की समस्या का पता ही न हो.

‘‘सब के जीवन में कोई न कोई समस्या होती है जिसे मनुष्य को स्वयं ही ढोना पड़ता है. किसी को न आप से कुछ लेना है न ही देना है. अपना दिल खोल कर क्यों मजाक का विषय बना जाए. क्योंकि आज कोई भी इतना ईमानदार नहीं जो निष्पक्ष हो कर आप की पीड़ा सुन या समझ सके,’’ शर्माजी बोले.

सुनता रहा मैं. कुछ समझ में आया कुछ नहीं भी आया. अकसर गहरी बातें एक ही बार में समझ में भी तो नहीं आतीं.

‘‘मैं कोशिश करता हूं किसी के साथ ज्यादा घुलनेमिलने से बचूं. समाज में रह कर एकदूसरे के काम आना हमारा कर्तव्य भी है और इंसानियत भी. हम जिंदा हैं उस का प्रमाण तो हमें देना ही चाहिए. प्रकृति तो हर चीज का हिसाब मांगती है. एक हाथ लो तो दूसरे हाथ देना भी तो आना चाहिए,’’ शर्माजी ने कहा.

चश्मे के पार शर्माजी की आंखें डबडबा गई थीं. मेरा कंधा थपथपा कर चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया. मुझे लगा, शर्माजी बहुत रूखे स्वभाव के हैं. थोड़ा तो इंसान को मीठा भी होना चाहिए. याद आया पहली बार मिले तो उन्होंने ही बताया था कि लोग अकसर उन्हें पसंद नहीं करते. शायद यही वजह होगी. रूखा इंसान कैसे सब को पसंद आएगा? घर आ कर पत्नी से बात की. हंस पड़ी वह.

‘‘जरा से उसूली होंगे आप के शर्माजी. नियमों पर चलने वाला इंसान सहज ही सब के गले से नीचे नहीं उतरता. कुछ उन के नियम होंगे और कुछ उन्हें दुनिया ने सिखा दिए होंगे. धीरेधीरे इंसान अपने ही दायरे में सिमट जाता है. जहां तक हो सके किसी और की मदद करने से पीछे नहीं हटता मगर अपनी तरफ से नजदीकी कम से कम ही पसंद करता है. चारू बता रही थी कि हफ्ताभर उन की बहन ने उस का पूरापूरा खयाल रखा. 1 घंटा तो वहां बैठती ही थी वह, शर्माजी ने अपनी बहन को बताया होगा कि उन के सहयोगी की बहन है इसीलिए न. दिल के बहुत अच्छे होते हैं इस तरह के लोग. ज्यादा मीठे लोग तो मुझे वैसे ही अच्छे नहीं लगते,’’ मेरी पत्नी बोली.

फिर बुरा सा मुंह बना कर वह वहां से चली गई. मुझे शर्माजी को समझने का एक नया ही नजरिया मिला. याद आया, उस दिन सब हमारी एक सहयोगी की शादी के लिए तोहफा खरीद रहे थे. तय हुआ था कि सभी 500-500 रुपए एकत्र करें तो औफिस की तरफ से एक अच्छा तोहफा हो जाएगा. जातेजाते सब से पहले शर्माजी 500 रुपए का नोट मेरी मेज पर छोड़ गए थे. किसी के लिए कुछ देने में भी पीछे नहीं थे, मगर आगे आ कर सब की बहस में पड़ने में सब से पीछे थे.

‘‘जिस को जो करना है उसे करने दो, एक बार ठोकर लगेगी दोबारा नहीं करेगा और जिसे एक बार ठोकर लग कर भी समझ में नहीं आता उसे एक और धक्का लगने दो. जो चीज हम मांबाप हो कर अपनी औलाद को नहीं समझा सकते, उसी औलाद को दुनिया बड़ी अच्छी तरह समझा देती है. दुनिया थोड़े न माफ करती है.’’

‘‘बेटी मुंहजोर हो गई है, अपना कमा रही है. उसे लगने लगा है हमसब बेवकूफ हैं. छोटेबड़े का लिहाज ही नहीं रहा, आजाद रहना चाहती है. आज हमारा मान नहीं रखती, कल ससुराल में क्या करेगी? अच्छा रिश्ता हाथ में आया है. शरीफ, संस्कारी परिवार है मगर समझ नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘अपना सिक्का खोटा है तो मान लीजिए साहब, ऐसा न हो कि लड़के वालों का जीना ही हराम कर दे. अपने घर ही इस तरह की बहू चली आई तो बुढ़ापा गया न रसातल में. लड़के वालों पर दया कीजिए. आजकल तो वैसे भी सारे कानून लड़की के हक में हैं.’’

लंचबे्रक में शर्माजी की बातें कानों में पड़ीं. तिवारीजी अपनी परेशानी उन्हें बता रहे थे. बातें निजी थीं मगर सर्वव्यापी थीं. हर घर में बेटी है और बेटा भी. मांबाप हैं और नातेरिश्तेदार भी. उम्मीदें हैं और स्वार्थ भी. तिवारीजी अपना ही पेट नंगा कर के शर्माजी को दिखा रहे थे जबकि सत्य यह है कि अपने पेट की बुराई अकसर नजर नहीं आती. अपनी संतान सही नहीं है, यह किसी और के सामने मान लेना आसान नहीं होता.

‘‘बेटी को समय दीजिए, किसी और का घर न उजड़े, इसलिए समस्या को अपने ही घर तक रखिए. जब तक समझ न आए इंतजार कीजिए. शादी कोई दवा थोड़ी है कि लेते ही बीमारी चली जाएगी. शादी के बाद वापस आ गई तो क्या कर लेंगे आप? आज 25 की है तो क्या हो गया. पढ़नेलिखने वाले बच्चों की इतनी उम्र हो ही जाती है.’’

तर्कसंगत थीं शर्माजी की बातें. यह हर घर की कहानी है. नया क्या था इस में. पिछली मेज पर बैठेबैठे सब  मेरे कानों में पड़ा. तिवारीजी के स्वभाव पर हैरानी हुई. अत्यंत मीठा स्वभाव है उन का और शर्माजी के विषय में उन की राय ज्यादा अच्छी भी नहीं है और वही अपनी ही बच्ची की समस्या उन्हें बता रहे हैं जिन्हें वे ज्यादा अच्छा भी नहीं मानते.

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं, आप को ही कमाती बेटी सहन नहीं हो रही? आप को ही लग रहा हो कि बेटी पर काबू नहीं रहा क्योंकि अब वह आप के सामने हाथ नहीं फैलाती. अपनी तनख्वाह अपने ही तरीके से खर्च करती है. शायद आप चाहते हों, वह पूरी तनख्वाह जमा करती रहे और आप से पहले की तरह बस जरा सा मांग कर गुजारा करती रहे.’’

चुप रहे उत्तर में तिवारीजी. क्योंकि मौन पसर गया था. मेरे कान भी मानो समूल चेतना लिए खड़े हो गए.

‘‘मैं आप की बच्ची को जानता नहीं हूं मगर आप तो उसे जानते हैं न. बच्ची मेधावी होगी तभी तो पढ़लिख कर आज हर महीने 40 हजार रुपए कमाने लगी है. नालायक तो हो ही नहीं सकती और हम ने अपनी नौकरी में अब जा कर 40 हजार रुपए का मुंह देखा है. जो बच्ची रातरात भर जाग कर पढ़ती रही, उसे क्या अपनी कमाई खुद पर खर्च करने का अधिकार नहीं है? क्या खर्च कर लेती होगी भला? महंगे कपड़े खरीद लेती होगी या भाईबहनों पर लुटा देती होगी और कब तक कर लेगी? कल को जब अपनी गृहस्थी होगी तब वही चक्की होगी जिसे आज तक हम भी चला रहे हैं. आज उस के पिता को एतराज है, कल उस के पति को भी होगा. एक मध्यवर्ग की लड़की भला कितना ऊंचा उड़ लेगी? मुड़मुड़ कर नातेरिश्तों को ही पूरा करेगी. उस के पैर जमीन में ही होंगे, ऐसा मैं अनुमान लगा सकता हूं. बच्ची को जरा सा उस के तरीके से भी जी लेने दीजिए. जरा सोचिए तिवारीजी, क्या हम और आप नहीं चाहते,’’ कह कर शर्माजी चुप हो गए.

तिवारीजी उठ कर चले गए और मैं चुपचाप किसी किताब में लीन हो गए शर्माजी को देखने लगा. हैरान था मैं. उस दिन मुझ से कह रहे थे वे कि किसी के निजी मामले में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते और जो अभी सुना वह दिलचस्पी नहीं थी तो क्या था. ऐसी दिलचस्पी जिस में तिवारीजी को भी पूरीपूरी जगह दी गई थी और उन की बच्ची को भी.

‘शर्माजी रूखेरूखे हैं, कड़वा बोलते हैं’, ‘तिवारीजी बड़े मीठे हैं. किसी को नाराज नहीं करते,’ सब को ऐसा लगता है तो फिर अपनी समस्या ले कर तिवारीजी शर्माजी के पास ही क्यों आए? शर्माजी कड़वे हैं, लेकिन उन पर भरोसा किया न तिवारीजी ने. सत्य है, कड़वा इंसान स्पष्ट भी होता है और भरोसे लायक भी. तिवारीजी शर्माजी के बारे में क्या राय रखते हैं, सब को पता है. तिवारीजी सब के चहेते हैं तो अपनी समस्या स्वयं क्यों नहीं सुलझाई और क्यों किसी और से कह कर अपनी समस्या सांझी नहीं की? सब से छिप कर मात्र शर्माजी से ही कही. मैं एक कोने में जरा सी आड़ में बैठा था, तभी उन्हें नजर नहीं आया वरना मुझे कभी भी पता न चलता.

उस शाम जब घर आया तब देर तक शर्माजी के शब्दों को मानसपटल पर दोहराता रहा.  अपने ही तरीके से जरा सा जी लेने की चाहत भला किस में नहीं है. जरा सा अपना चाहा करना, जरा सी अपनी चाही जिंदगी की चाहत हर किसी को होती है.

तिवारीजी की बच्ची को मैं ने देखा नहीं है मगर यही सच होगा जो शर्माजी ने समझा होगा. क्या बच्ची को जरा सा अपने तरीके से खर्च करने का अधिकार नहीं है? क्या तिवारीजी इसी को मुंहजोरी कह रहे थे? सत्य है संस्कार सदा मध्यम वर्ग में ही पनपते हैं. हम बीच के स्तर वाले लोग ही हैं जो न नीचे गिर सकते हैं न हवा में  हमें उड़ना आता है. मध्यम वर्ग ही है जिसे समाज की रीढ़ माना जाता है और मध्यम वर्ग की बच्ची अपनी मेहनत की कमाई पर आत्मसंतोष महसूस करती होगी, गर्व मानती होगी. जहां तक मेरा सवाल है मेरी भी यही सोच है, तिवारीजी की बच्ची मुंहजोर नहीं होगी.

कुछ दिनों बाद तिवारीजी का चेहरा कुछ ज्यादा ही दमकता सा लगा मुझे.

‘‘आज बहुत खिल रहे हैं साहब, क्या बात है?’’

‘‘बेटी की लाई नई महंगी कमीज जो पहनी है आज. कल मेरा जन्मदिन था.’’

सच में तिवारीजी पर अच्छे ब्रांड की कमीज बहुत जंच रही थी. महंगा कपड़ा सौम्यता में चारचांद तो लगाता ही है. उन की बच्ची की पसंद भी बहुत अच्छी थी. शर्माजी मंदमंद मुसकरा रहे थे. मानो तिवारीजी के चेहरे के संतोष में, दमकती चमक में उन का भी योगदान हो क्योंकि तिवारीजी तो अपनी बच्ची को बदतमीज और आजाद मान ही चुके थे. मैं बारीबारी से दोनों का चेहरा पढ़ रहा था.

‘‘आप की बच्ची क्या करती है तिवारीजी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘एमबीए है, एक बड़ी कंपनी में काम करती है. बड़ी होनहार है. खुशनसीब हूं मैं ऐसी औलाद पा कर.’’

बात पूरी तरह बदल चुकी थी. शर्माजी अपने काम में व्यस्त थे, मानो अब उन्हें इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं हो. तिवारीजी संतोष में डूबे अपनी बच्ची की प्रशंसा कर रहे थे, मानो उस दिन की उन की चिंता अब कहीं है ही नहीं.

‘‘अकसर लोग खुश होना भूल जाते हैं विजयजी. खुशी भीतर ही होती है. मगर उसे महसूस ही नहीं कर पाते. जैसे मृग होता है न, जिस की नाभि में कस्तूरी होती है और वह पागलों की तरह जंगलजंगल भटकता है.’’

सच में बहुत खुश थे तिवारीजी. और भी बहुत कुछ कहते रहे. मैं ने नजरें उठा कर शर्माजी को देखा. मुझे उन के पहले कहे शब्द याद आए, ‘अकसर लोगों को मैं पसंद नहीं आता.’

दोटूक बात जो करते हैं, चाशनी में घोल कर विषबाण जो नहीं चलाते, तभी तो भरोसा करते हैं उन पर तिवारीजी जैसे मीठे चापलूस लोग भी. पसंद का क्या है, वह तो बदलती रहती है. शर्माजी पहले दिन भी मुझे अच्छे लगे थे और आज तो और भी ज्यादा अच्छे लगे. एक सच्चा इंसान, जिस पर मैं वक्त आने पर और भी ज्यादा भरोसा कर सकता हूं, ऐसा भरोसा जो पसंद की तरह बदलता नहीं. प्रिय और पसंदीदा बनना आसान है, भरोसेमंद बनना बहुत कठिन है.

Hindi Love Stories : अंधेरे से उजाले की ओर

Hindi Love Stories :  कमरे में प्रवेश करते ही डा. कृपा अपना कोट उतार कर कुरसी पर धड़ाम से बैठ गईं. आज उन्होंने एक बहुत ही मुश्किल आपरेशन निबटाया था.

शाम को जब वे अस्पताल में अपने कक्ष में गईं, तो सिर्फ 2 मरीजों को इंतजार करते हुए पाया. आज उन्होंने कोई अपौइंटमैंट भी नहीं दिया था. इन 2 मरीजों से निबटने के बाद वे जल्द से जल्द घर लौटना चाहती थीं. उन्हें आराम किए हुए एक अरसा हो गया था. वे अपना बैग उठा कर निकलने ही वाली थीं कि अपने नाम की घोषणा सुनी, ‘‘डा. कृपा, कृपया आपरेशन थिएटर की ओर प्रस्थान करें.’’

माइक पर अपने नाम की घोषणा सुन कर उन्हें पता चल गया कि जरूर कोई इमरजैंसी केस आ गया होगा.

मरीज को अंदर पहुंचाया जा चुका था. बाहर मरीज की मां और पत्नी बैठी थीं.

मरीज के इतिहास को जानने के बाद डा. कृपा ने जैसे ही मरीज का नाम पढ़ा तो चौंक गईं. ‘जयंत शुक्ला,’ नाम तो यही लिखा था. फिर उन्होंने अपने मन को समझाया कि नहीं, यह वह जयंत नहीं हो सकता.

लेकिन मरीज को करीब से देखने पर उन्हें विश्वास हो गया कि यह वही जयंत है, उन का सहपाठी. उन्होंने नहीं चाहा था कि जिंदगी में कभी इस व्यक्ति से मुलाकात हो. पर इस वक्त वे एक डाक्टर थीं और सामने वाला एक मरीज. अस्पताल में जब मरीज को लाया गया था तो ड्यूटी पर मौजूद डाक्टरों ने मरीज की प्रारंभिक जांच कर ली थी. जब उन्हें पता चला कि मरीज को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा है तो उन्होंने दौरे का कारण जानने के लिए एंजियोग्राफी की थी, जिस से पता चला कि मरीज की मुख्य रक्तनलिका में बहुत ज्यादा अवरोध है. मरीज का आपरेशन तुरंत होना बहुत जरूरी था. जब मरीज की पत्नी व मां को इस बात की सूचना दी गई तो पहले तो वे बेहद घबरा गईं, फिर मरीज के सहकर्मियों की सलाह पर वे मान गईं. सभी चाहते थे कि उस का आपरेशन डा. कृपा ही करें. इत्तफाक से डा. कृपा अपने कक्ष में ही मौजूद थीं.

मरीज की बीवी से जरूरी कागजों पर हस्ताक्षर लिए गए. करीब 5 घंटे लगे आपरेशन में. आपरेशन सफल रहा. हाथ धो कर जब डा. कृपा आपरेशन थिएटर से बाहर निकलीं तो सभी उन के पास भागेभागे आए.

डा. कृपा ने सब को आश्वासन दिया कि आपरेशन सफल रहा और मरीज अब खतरे से बाहर है. अपने कमरे में पहुंच कर डा. कृपा ने कोट उतार कर एक ओर फेंक दिया और धड़ाम से कुरसी पर बैठ गईं.

आंखें बंद कर आरामकुरसी पर बैठते ही उन्हें अपनी आंखों के सामने अपना बीता कल नजर आने लगा. जिंदगी के पन्ने पलटते चले गए.

उन्हें अपना बचपन याद आने लगा… जयपुर में एक मध्यवर्गीय परिवार में वे पलीबढ़ी थीं. उन का एक बड़ा भाई था, जो मांबाप की आंखों का तारा था. कृपा की एक जुड़वां बहन थी, जिस का नाम रूपा था. नाम के अनुरूप रूपा गोरी और सुंदर थी, अपनी मां की तरह. कृपा शक्लसूरत में अपने पिता पर गई थी. कृपा का रंग अपने पिता की तरह काला था. दोनों बहनों की शक्लसूरत में मीनआसमान का फर्क था. बचपन में जब उन की मां दोनों का हाथ थामे कहीं भी जातीं, तो कृपा की तरफ उंगली दिखा कर सब यही पूछते कि यह कौन है?

उन की मां के मुंह से यह सुन कर कि दोनों उन की जुड़वां बेटियां हैं, लोग आश्चर्य में पड़ जाते. लोग जब हंसते हुए रूपा को गोद में उठा कर प्यार करते तो उस का बालमन बहुत दुखी होता. तब कृपा सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रोती, मचलती.

तब उसे पता नहीं था कि मानवमन तो सुंदरता का पुजारी होता है. तब वह समझ नहीं पाती थी कि लोग क्यों उस के बजाय उस की बहन को ही प्यार करते हैं. एक बार तो उसे इस तरह मचलते देख कर किसी ने उस की मां से कह भी दिया था कि लीला, तुम्हारी इस बेटी में न तो रूप है न गुण.

धीरेधीरे कृपा को समझ में आने लगा अपने और रूपा के बीच का यह फर्क.

मां कृपा को समझातीं कि बेटी, समझदारी का मानदंड रंगरूप नहीं होता. माइकल जैकसन काले थे, पर पूरी दुनिया के चहेते थे. हमारी बेटी तो बहुत होशियार है. पढ़लिख कर उसे मांबाप का नाम रोशन करना है. बस, मां की इसी बात को कृपा ने गांठ बांध लिया. मन लगा कर पढ़ाई करती और कक्षा में हमेशा अव्वल आती.

कृपा जब थोड़ी और बड़ी हुई तो उस ने लड़कों और लड़कियों को एकदूसरे के प्रति आकर्षित होते देखा. उस ने बस, अपने मन में डाक्टर बनने का सपना संजो लिया था. वह जानती थी कि कोई उस की ओर आकर्षित नहीं होगा. यदि मनुष्य अपनी कमजोर रग को पहचान ले और उसे अनदेखा कर के उस क्षेत्र में आगे बढ़े जहां उसे महारत हासिल हो, तो उस की कमजोर रग कभी उस की दुखती रग नहीं बन सकती. इसीलिए जब जयंत ने उस की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने उसे ठुकरा दिया.

कृपा का ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य की ओर था. एक दिन उस ने जयंत को अपने दोस्तों से यह कहते हुए सुना कि मैं कृपा से इसलिए दोस्ती करना चाहता हूं, क्योंकि वह बहुत ईमानदार लड़की है, कितने गुण हैं उस में, हमेशा हर कक्षा में अव्वल आती है, फिर भी जमीन से जुड़ी है.

उस दिन के बाद कृपा का बरताव जयंत के प्रति नरम होता गया. 12वीं कक्षा की परीक्षा में अच्छे नंबर आना बेहद जरूरी था, क्योंकि उन्हीं के आधार पर मैडिकल में दाखिला मिल सकता था. सभी को कृपा से बहुत उम्मीदें थीं.

जयंत बेझिझक कृपा से पढ़ाई में मदद लेने लगा. वह एक मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखता था. खाली समय में ट्यूशन पढ़ाता था ताकि मैडिकल में दाखिला मिलने पर उसे पैसों की दिक्कत न हो.

कृपा लाइब्रेरी में बैठ कर किसी एक विषय पर अलगअलग लेखकों द्वारा लिखित किताबें लेती और नोट्स तैयार करती थी.

पहली बार जब उस ने अपने नोट्स की एक प्रति जयंत को दी तो वह कृतार्थ हो गया. कहने लगा कि तुम ने मेरी जो मदद की है, उसे जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा.

अब जब भी कृपा नोट्स तैयार करती तो उस की एक प्रति जयंत को जरूर देती.

एक दिन जयंत ने कृपा के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि हमारा साथ जीवन भर का हो जाए तो कैसा हो?

कृपा ने मीठी झिड़की दी कि अभी तुम पढ़ाई पर ध्यान दो, मजनू. ये सब तो बहुत बाद की बातें हैं.

कृपा ने झिड़क तो दिया पर मन ही मन वह सपने बुनने लगी थी. जयंत स्कूल से सीधे ट्यूशन पढ़ाने जाता था, इसलिए कृपा रोज जयंत से मिल कर थोड़ी देर बातें करती, फिर जयंत से चाबी ले कर नोट्स उस के कमरे में छोड़ आती. चाबी वहीं छोड़ आती, क्योंकि जयंत का रूममेट तब तक आ जाता था.

एक दिन लाइब्रेरी से बाहर आते समय कृपा ने हमेशा की तरह रुक कर जयंत से बातें कीं. जयंत अपने दोस्तों के साथ खड़ा था, पर जातेजाते वह जयंत से चाबी लेना भूल गई. थोड़ी दूर जाने के बाद अचानक जब उसे याद आया तो वापस आने लगी. वह जयंत के पास पहुंचने ही वाली थी कि अपना नाम सुन कर अचानक रुक गई.

जयंत का दोस्त उस से कह रहा था कि तुम ने उस कुरूपा (कृपा) को अच्छा पटाया. तुम्हारा काम तो आसान हो गया, यार. इस साथी को जीवनसाथी बनाने का इरादा है क्या?

जयंत ने कहा कि दिमाग खराब नहीं हुआ है मेरा. उसे इसी गलतफहमी में रहने दो. बनेबनाए नोट्स मिलते रहें तो मुझे रोजरोज पढ़ाई करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. परीक्षा से कुछ दिन पहले दिनरात एक कर देता हूं. इस बार देखना, उसी के नोट्स पढ़ कर उस से भी अच्छे नंबर लाऊंगा.

जयंत के मुंह से ये सब बातें सुन कर कृपा कांप गई. उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. इतना बड़ा धोखा? वह उलटे पांव लौट गई. भाग कर घर पहुंची तो इतनी देर से दबी रुलाई फूट पड़ी. मां ने उसे चुप कराया. सिसकियों के बीच कृपा ने मां को किसी तरह पूरी बात बताई.

कुछ देर के लिए तो मां भी हैरान रह गईं, पर वे अनुभवी थीं. अत: उन्होंने कृपा को समझाया कि बेटे, अगर कोई यह सोचता है कि किसी सीधेसादे इनसान को धोखा दे कर अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है, तो वह अपनेआप को धोखा देता है. नुकसान तुम्हारा नहीं, उस का हुआ है. व्यवहार बैलेंस शीट की तरह होता है, जिस में जमाघटा बराबर होगा ही. जयंत को अपने किए की सजा जरूर मिलेगी. तुम्हारी मेहनत तुम्हारे साथ है, इसलिए आज तुम चाबी लेना भूल गईं. पढ़ाई में तुम्हारी बराबरी इन में से कोई नहीं कर सकता. प्रकृति ने जिसे जो बनाया उसे मान कर उस पर खुश हो कर फिर से सब कुछ भूल कर पढ़ाई में जुट जाओ.

मां की बातों से कृपा को काफी राहत मिली, पर यह सब भुला पाना इतना आसान नहीं था.

हिम्मत जुटा कर दूसरे दिन हमेशा की तरह कृपा ने जयंत से चाबी ली, पर नोट्स रखने के लिए नहीं, बल्कि आज तक उस ने जो नोट्स दिए थे उन्हें निकालने के लिए. अपने सारे नोट्स ले कर चाबी यथास्थान रख कर कृपा घर की ओर चल पड़ी. 2-4 दिनों में छुट्टियां शुरू होने वाली थीं, उस के बाद इम्तिहान थे. चाबी लेते समय उस ने जयंत से कह दिया था कि अब छुट्टियां शुरू होने के बाद ही उस से मिलेगी, क्योंकि उसे 2-4 दिनों तक कुछ काम है. घर जाने पर उस ने मां से कह दिया कि वह छुट्टियों में मौसी के घर रह कर अपनी पढ़ाई करेगी.

जिस दिन छुट्टियां शुरू हुईं, उस दिन सुबह ही कृपा मौसी के घर की ओर प्रस्थान कर गई. जाने से पहले उस ने एक पत्र जयंत के नाम लिख कर मां को दे दिया.

छुट्टियां शुरू होने के बाद एक दिन जब जयंत ने नोट्स निकालने के लिए दराज खोली तो पाया कि वहां से नोट्स नदारद हैं. उस ने पूरे कमरे को छान मारा, पर नोट्स होते तो मिलते. तुरंत भागाभागा वह कृपा के घर पहुंचा. वहां मां ने उसे कृपा की लिखी चिट्ठी पकड़ा दी.

कृपा ने लिखा था, ‘जयंत, उस दिन मैं ने तुम्हारे दोस्त के साथ हुई तुम्हारी बातचीत को सुन लिया था. मेरे बारे में तुम्हारी राय जानने के बाद मुझे लगा कि मेरे नोट्स का तुम्हारी दराज में होना कोई माने नहीं रखता, इसलिए मैं ने नोट्स वापस ले लिए. मेरे परिवार वालों से मेरा पता मत पूछना, क्योंकि वे तुम्हें बताएंगे नहीं. मेरी तुम से इतनी विनती है कि जो कुछ भी तुम ने मेरे साथ किया है, उस का जिक्र किसी से न करना और न ही किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना वरना लोगों का दोस्ती पर से विश्वास उठ जाएगा. शुभ कामनाओं सहित, कृपा.’

पत्र पढ़ कर जयंत ने माथा पीट लिया. वह अपनेआप को कोसने लगा कि यह कैसी मूर्खता कर बैठा. इस तरह खुल्लमखुल्ला डींगें हांक कर उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली थी. उस के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, न ही इतना वक्त था कि नोट्स तैयार करता.

इम्तिहान से एक दिन पहले कृपा वापस अपने घर आई. दोस्तों से पता चला कि इस बार जयंत परीक्षा में नहीं बैठ रहा है.

उस के बाद कृपा की जिंदगी में जो कुछ भी घटा, सब कुछ सुखद था. पूरे राज्य में अव्वल श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी कृपा. दूरदर्शन, अखबार वालों का तांता लग गया था उस के घर में. सभी बड़े कालेजों ने उसे खुद न्योता दे कर बुलाया था.

मुंबई के एक बड़े कालेज में उस ने दाखिला ले लिया था. एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षाएं दीं. यहां भी वह अव्वल आई. उस ने हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का फैसला लिया. एम.डी. की पढ़ाई करने के बाद उस ने 3 बड़े अस्पतालों में विजिटिंग डाक्टर के रूप में काम करना शुरू किया. समय के साथ उसे काफी प्रसिद्धि मिली.

इधर उस की जुड़वां बहन की पढ़ाई में खास दिलचस्पी नहीं थी. मातापिता ने उस की शादी कर दी. उस का भाई अपनी पत्नी के साथ दिल्ली में रहता था. भाई कभी मातापिता का हालचाल तक नहीं पूछता था. बहू ने दूरी बनाए रखी थी. जब अपना ही सिक्का खोटा था तो दूसरों से क्या उम्मीद की जा सकती थी.

बेटे के इस रवैए ने मांबाप को बहुत पीड़ा पहुंचाई थी. कृपा ने निश्चय कर लिया था कि मातापिता और लोगों की सेवा में अपना जीवन बिता देगी. कृपा ने मुंबई में अपना घर खरीद लिया और मातापिता को भी अपने पास ले गई.

चर्मरोग विशेषज्ञ डा. मनीष से कृपा की अच्छी निभती थी. दोनों डाक्टरी के अलावा दूसरे विषयों पर भी बातें किया करते थे, पर कृपा ने उन से दूरी बनाए रखी. एक दिन डा. मनीष ने डा. कृपा से शादी करने की इच्छा जाहिर की, पर दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है.

डा. कृपा ने दृढ़ता के साथ मना कर दिया. उस के बाद डा. मनीष की हिम्मत नहीं हुई दोबारा पूछने की. मां को जब पता चला तो मां ने कहा, ‘‘बेटे, सभी एक जैसे तो नहीं होते. क्यों न हम डा. मनीष को एक मौका दें.’’

डा. मनीष अपने किसी मरीज के बारे में डा. कृपा से सलाह करना चाहते थे. डा. कृपा का सेलफोन लगातार व्यस्त आ रहा था, तो उन्होंने डा. कृपा के घर फोन किया.

डा. कृपा घर पर भी नहीं थी. उस की मां ने डा. मनीष से बात की और उन्हें दूसरे दिन घर पर खाने पर बुला लिया. मां ने डा. मनीष से खुल कर बातें कीं. 4-5 साल पहले उन की शादी एक सुंदर लड़की से तय हुई थी, पर 2-3 बार मिलने के बाद ही उन्हें पता चल गया कि वे उस के साथ किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बैठा सकते. तब उन्होंने इस शादी से इनकार कर दिया था.

मां की अनुभवी आंखों ने परख लिया था कि डा. मनीष ही डा. कृपा के लिए उपयुक्त वर हैं. अब तक डा. कृपा भी घर लौट चुकी थी. सब ने एकसाथ मिल कर खाना खाया. बाद में मां के बारबार आग्रह करने पर डा. मनीष से बातचीत के लिए तैयार हो गई डा. कृपा. उस ने डा. मनीष से साफसाफ कह दिया कि उस की कुछ शर्तें हैं, जैसे मातापिता की देखभाल की जिम्मेदारी उस की है, इसलिए वह उन के घर के पास ही घर ले कर रहेंगे. वह डा. मनीष के घर वालों की जिम्मेदारी भी लेने को तैयार थी, लेकिन इमरजैंसी के दौरान वक्तबेवक्त घर से जाना पड़ सकता है, तब उस के परिवार वालों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, वगैरह.

डा. मनीष ने उस की सारी शर्तें मान लीं और उन का विवाह हो गया. डा. मनीष जैसे सुलझे हुए व्यक्ति को पा कर कृपा को जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रह गई थी. कुछ साल पहले डा. कृपा अपनेआप को कितनी कोसती थी. लेकिन अब उसे लगने लगा कि उस की जिंदगी में अब कोई अंधेरा नहीं है, बल्कि चारों तरफ उजाला ही उजाला है.

डा. कृपा धीरेधीरे वर्तमान में लौट आई. इस के बाद उस का सामना कई बार जयंत से हुआ. पहली बार होश आने पर जब जयंत ने डा. कृपा को देखा तो चौंकने की बारी उस की थी. कई बार उस ने डा. कृपा से बात करने की कोशिश की, पर डा. कृपा ने एक डाक्टर और मरीज की सीमारेखा से बाहर कोई भी बात करने से मना कर दिया.

डा. कृपा सोचने लगी, आज वह डा. मनीष के साथ कितनी खुश है. जिंदगी में कटु अनुभवों के आधार पर लोगों के बारे में आम राय बना लेना कितनी गलत बात है. कुदरत ने सुख और दुख सब के हिस्से में बराबर मात्रा में दिए हैं. जरूरत है तो दुख में संयम बरतने की और सही समय का इंतजार करने की. किसी की भी जिंदगी में अंधेरा अधिक देर तक नहीं रहता है, उजाला आता ही है.

Best Hindi Stories : दोस्ती – शादी के बाद भी अवकाश से क्यों मिलती थी प्रिया?

Best Hindi Stories : शाम को दोनों भाई-बहन अधिक और आयरा सामने वाले पार्क से खेल कर थोड़ी देर पहले घर आ गये थे. आकर बैठे ही थे कि अचानक दरवाजे की घंटी बजी तो आयरा दौड़कर दरवाजा खोलने गई और दरवाजा खोलते ही सामने किसी अजनबी युवक को देखकर चकित रह गई.

अब तक घंटी की आवाज सुनकर पीछे-पीछे उसकी मां प्रिशा बाहर निकलीं और मुसकराते हुए बेटी से बोलीं, ‘‘बेटी, यह तुम्हारी मम्मा के दोस्त हैं अवकाश अंकल, नमस्ते करो अंकल को.’’

‘‘नमस्ते मम्मा के फ्रैंड अंकल,’’ कह कर हौले से मुसकरा कर वह अपने कमरे में चली आई और बैठ कर कुछ सोचने लगी.

कुछ ही देर में उसका भाई अधिक भी घर लौट आया. अधिक आयरा से 2-3 साल बड़ा था. अधिक को देखते ही आयरा ने सवाल किया, ‘‘भैया आप मम्मा के फ्रैंड से मिले?’’

‘‘हां मिला, काफी यंग और चार्मिंग हैं. वैसे 2 दिन पहले भी आए थे. उस दिन तू कहीं गई हुई थी.’’

‘‘वह सब छोड़ो भैया, आप तो मुझे यह बताओ कि वे मम्मा के बौयफ्रैंड हुए न?’’

‘‘यह क्या कह रही है पगली. वे तो बस फ्रैंड हैं. यह बात अलग है कि आज तक मम्मा की सहेलियां ही घर आती थीं. पहली बार किसी लड़के से दोस्ती की है मम्मा ने.’’

‘‘वही तो मैं कह रही हूं कि यह बौय भी है और मम्मा का फ्रैंड भी यानी बौयफ्रैंड ही तो हुए न?’’ आयरा ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘ज्यादा दिमाग मत दौड़ा, अपनी पढ़ाई कर ले,’’ अधिक ने उस पर धौंस जमाते हुए कहा.

थोड़ी देर में अवकाश चला गया तो प्रिशा की सास अपने कमरे से बाहर आती हुईं थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं, ‘‘बहू क्या बात है, तेरा यह फ्रैंड अब अकसर घर आने लगा है?’’

‘‘अरे नहीं मम्मीजी वह दूसरी बार ही तो आया था और वह औफिस के किसी काम के सिलसिले में.’’

‘‘मगर बहू तू तो कहती थी कि तेरे औफिस में ज्यादातर महिलाएं हैं. अगर पुरुष हैं भी तो वे अधिक उम्र के हैं, जबकि यह लड़का तो तुमसे भी छोटा लग रहा था.’’

‘‘मम्मीजी हम समान उम्र के हैं. अवकाश मुझसे केवल 4 महीने छोटा है. ऐक्चुअली हमारे औफिस में अवकाश का ट्रांसफर हाल में हुआ. पहले उसकी पोस्टिंग हैड औफिस मुंबई में थी. सो उसे प्रैक्टिकल नॉलेज काफी ज्यादा है. कभी भी कुछ मदद की जरूरत होती है तो तुरंत आगे आ जाता है. तभी यह औफिस में बहुत जल्दी सबका दोस्त बन गया है. अच्छा मम्मीजी आप बताइए आज खाने में क्या बनाऊं?’’

‘‘जो दिल करे बना ले बहू. पर देख लड़कों से जरूरत से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना सही नहीं होता. तेरे भले के लिए कह रही हूं बहू.’’

‘‘अरे मम्मीजी आप निश्चिंत रहिए, अवकाश बहुत अच्छा लड़का है,’’ कह कर हंसती हुई प्रिशा अंदर चली गई, मगर सास का चेहरा बना रहा.

रात में प्रिशा का पति आदर्य घर लौटा तो खाने के बाद सास ने उसे कमरे में

बुलाया और धीमी आवाज में उसे अवकाश के बारे में सबकुछ बता दिया.

आदर्य ने मां को समझाने की कोशिश की, ‘‘मां आज के समय में महिलाओं और पुरुषों की दोस्ती आम बात है. वैसे भी आप जानती ही हो प्रिशा समझदार है. आप टैंशन क्यों लेती हो मां.’’

‘‘बेटा मेरी बूढ़ी हड्डियों ने इतनी दुनिया देखी है जितनी तू सोच भी नहीं सकता. स्त्री-पुरुष की दोस्ती यानी आग की दोस्ती. आग पकड़ते समय नहीं लगता बेटे… मेरा फर्ज था तुझे समझाना सो समझा दिया.’’

‘‘डौंट वरी मां ऐसा कुछ नहीं होगा. अच्छा मैं चलता हूं सोने,’’ कह कर आदर्य मां के पास से तो उठ कर चला आया मगर कहीं न कहीं उनकी बातें देर तक उसके जेहन में घूमती रहीं.

आदर्य प्रिशा से बहुत प्यार करता था और उस पर पूरा यकीन भी था. मगर आज जिस तरह मां शक जाहिर कर रही थीं उस बात को वह पूरी तरह इग्नोर भी नहीं कर पा रहा था.

रात में जब घर के सारे काम निबटा कर प्रिशा कमरे में आई तो आदर्य ने उसे छेड़ने के अंदाज में कहा, ‘‘मां कह रही थीं आजकल आपकी किसी लड़के से दोस्ती हो गई है और वह आपके घर भी आता है.’’

पति के भाव समझते हुए प्रिशा ने भी उसी लहजे में जवाब दिया, ‘‘जी हां, आपने सही सुना है. वैसे तो यह भी कह रही होंगी कि कहीं मुझे उससे प्यार न हो जाए और मैं आपको चीट न करने लगूं.’’

‘‘हां मां की सोच तो कुछ ऐसी ही है, मगर मेरी नहीं है. ऑफिस में मुझे भी महिला सहकर्मियों से बातें करनी होती हैं पर इसका मतलब यह तो नहीं है कि मैं कुछ और सोचने लगूं. मैं तो मजाक कर रहा था. आई नो ऐंड आई लव यू.’’

प्रिशा ने प्यार से कहा, ‘‘ओ हो चलो इसी बहाने, ये लफ्ज इतने दिनों बाद सुनने को तो मिल गए.’’

दोनों देर तक प्यार भरी बातें करते रहे. वक्त इसी तरह गुजरने लगा. अवकाश अकसर प्रिशा के घर आ जाता. कभीकभी दोनों बाहर भी निकल जाते. आदर्य को कोई एतराज नहीं था. इसलिए प्रिशा भी इस दोस्ती को ऐंजॉय कर रही थी. साथ ही ऑफिस के काम भी आसानी से निबट रहे थे.

प्रिशा ऑफिस के साथसाथ घर भी बहुत अच्छी तरह से संभालती थी. आदर्य को इस मामले में भी पत्नी से कोई शिकायत नहीं थी. मां अकसर बेटे को टोकतीं, ‘‘यह सही नहीं है आदर्य तुझसे. फिर कह रही हूं कि पत्नी को किसी और के साथ इतना घुलनेमिलने देना उचित नहीं है.’’

‘‘मां ऐक्चुअली प्रिशा ऑफिस के कार्यों में ही अवकाश की मदद लेती है. दोनों एक ही फील्ड में काम कर रहे हैं और एक-दूसरे को अच्छे से समझते हैं. इसलिए स्वाभाविक है कि काम के साथ-साथ थोड़ा समय संग बिता लेते हैं. इसमें कुछ कहना मुझे ठीक नहीं लगता. मां और फिर तुम्हारी बहू इतना कमा भी तो रही है. याद करो मां जब प्रिशा घर पर रहती थी तो कई दफा घर चलाने के लिए हमारा हाथ तंग हो जाता था. आखिर बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सके, इसके लिए प्रिशा का काम करना भी तो जरूरी है न. फिर जब वह घर संभालने के बाद काम करने बाहर जा रही है तो हर बात पर टोका-टाकी भी तो अच्छी नहीं लगती है.’’

‘‘बेटे मैं तेरी बात समझ रही हूं पर तू मेरी बात नहीं समझता. देख थोड़ा नियंत्रण भी जरूरी है बेटे वरना कहीं तुझे बाद में पछताना न पड़े,’’ मां ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘ठीक है मां मैं बात करूंगा,’’ कह कर आदर्य चुप हो गया.

एक ही बात बार-बार कही जाए तो वह कहीं न कहीं दिमाग पर असर करती ही है. ऐसा ही कुछ आदर्य के साथ भी होने लगा था. जब काम के बहाने प्रिशा और अवकाश शहर के बाहर जाते तो आदर्य का दिल बेचैन हो जाता. उसे कई दफा लगता कि प्रिशा को अवकाश के साथ बाहर जाने से रोक ले या डांट लगा दे. मगर वह ऐसा नहीं कर पाता. आखिर उसकी गृहस्थी की गाड़ी यदि सरपट दौड़ रही है तो उसके पीछे कहीं न कहीं प्रिशा की मेहनत ही तो थी.

इधर बेटे पर अपनी बातों का असर पड़ता न देख आदर्य के मां-बाप ने अपने पोते और पोती यानी बच्चों को उकसाना शुरू कर दिया. एक दिन वे दोनों बच्चों को बैठा कर के समझाने लगे, ‘‘देखो बेटे आपकी मम्मा की अवकाश अंकल से दोस्ती ज्यादा ही बढ़ रही है. क्या आप दोनों को नहीं लगता कि मम्मा आपको या पापा को अपना पूरा समय देने के बजाय अवकाश अंकल के साथ घूमने चली जाती है?’’

अधिक ने कहा, ‘‘दादाजी मम्मा घूमने नहीं बल्कि ऑफिस के काम से ही अवकाश अंकल के साथ जाती हैं.’’

‘‘भैया को छोड़ो दादी. पर मुझे भी ऐसा लगता है जैसे मम्मा हमें सच में इग्नोर करने लगी हैं. जब देखो ये अंकल हमारे घर आ जाते हैं या मम्मा को ले जाते हैं. यह सही नहीं है.’’

‘‘हां बेटे इसीलिए मैं कह रही हूं कि थोड़ा ध्यान दो, मम्मा को कहो कि अपने दोस्त के साथ नहीं बल्कि तुम लोगों के साथ समय बिताया करे.’’

उस दिन इतवार था. बच्चों के कहने पर प्रिशा और आदर्य उन्हें लेकर वाटर

पार्क जाने वाले थे. दोपहर की नींद लेकर जैसे ही दोनों बच्चे तैयार होने लगे तो मां को न देखकर दादी के पास पहुंचे. पूछा, ‘‘दादीजी मम्मा कहां हैं. दिख नहीं रहीं?’’

‘‘तुम्हारी मम्मा गई अपने फ्रैंड के साथ. मतलब अवकाश अंकल के साथ.’’

‘‘लेकिन उन्हें तो हमारे साथ जाना था. क्या हम से ज्यादा बॉयफ्रैंड जरूरी हो गया?’’ कहकर आयरा ने मुंह फुला लिया. अधिक भी उदास हो गया.

लोहा गरम देख कर दादीमां ने हथौड़ा मारने की गरज से कहा, ‘‘यही तो मैं कहती आ रही हूं इतने समय से कि प्रिशा के लिए अपने बच्चों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण वह पराया आदमी हो गया है. तुम्हारे बाप को तो कुछ समझ ही नहीं आता.’’

‘‘मां प्लीज ऐसा कुछ नहीं है, कोई जरूरी काम आ गया होगा?’’ आदर्य ने प्रिशा के बचाव में कहा, ‘‘पर पापा हमारा दिल रखने से जरूरी और कौन सा काम हो गया भला?’’ कहकर अधिक गुस्से में उठा और अपने कमरे में चला गया. उसने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. आयरा भी चिढ़कर बोली, ‘‘लगता है मम्मा को हमसे ज्यादा प्यार उस अवकाश अंकल से हो गया है,’’ और फिर वह भी पैर पटकती अपने कमरे में चली गई. शाम को जब प्रिशा लौटी तो घर में सबका मूझ औफ था. प्रिशा ने बच्चों को समझाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे अवकाश अंकल के पैर में गहरी चोट लग गई थी, तभी मैं उन्हें लेकर अस्पताल गई थी.’’

‘‘मम्मा आज हम कोई भी बहाना नहीं सुनने वाले. आपने अपना वादा तोड़ा है और वह भी अवकाश अंकल की खातिर. हमें कोई बात नहीं करनी,’’ कहकर दोनों वहां से उठकर चले गए.

अधिक और आयरा मां की अवकाश से इन नजदीकियों को पसंद नहीं कर रहे थे. वे अपनी ही मां से कटेकटे से रहने लगे. गरमी की छुट्टियों के बाद बच्चों के स्कूल खुल गए और अधिक अपने होस्टल चला गया. इधर प्रिशा के सास-ससुर ने इस दोस्ती का जिक्र उसके मां-बाप से भी कर दिया.

प्रिशा की मां भी इस दोस्ती के खिलाफ थीं. मां ने प्रिशा को समझाया तो पिता ने भी आदर्य को सलाह दी कि उसे इस मामले में प्रिशा पर थोड़ी सख्ती करनी चाहिए और अवकाश के साथ बाहर जाने की इजाजत कतई नहीं देनी चाहिए. इसी बीच आयरा की दोस्ती सोसाइटी के एक लड़के सुजय से हो गई. वह आयरा से 3-4 साल बड़ा था यानी वह अधिक उम्र का था. वह जूडो-कराटे में चैंपियन और फिटनैस फ्रीक लड़का था. आयरा उसकी बाइक रेसिंग से भी बहुत प्रभावित थी. वे दोनों एक ही स्कूल में थे. दोनों साथ स्कूल आने-जाने लगे.

सुजय दूसरे लड़कों की तरह नहीं था. वह आयरा को अच्छी बातें बताता. उसे सैल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देता और स्कूटी चलाना भी सिखाता. सुजय का साथ आयरा को बहुत पसंद आता. एक दिन आयरा सुजय को अपने साथ घर ले आई. प्रिशा ने उसकी अच्छे से आवभगत की. सबको सुजय अच्छा लड़का लगा इसलिए किसी ने आयरा से कोई पूछताछ नहीं की.

अब तो सुजय अकसर ही घर आने लगा. वह आयरा की मैथ की प्रौब्लम भी हल कर देता और जूडो-कराटे भी सिखाता रहता. एक दिन आयरा ने प्रिशा से कहा, ‘‘मम्मा आपको पता है सुजय डांस भी जानता है. वह कह रहा था कि मुझे डांस सिखा देगा.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा है. तुम दोनों बाहर लॉन में फिर अपने कमरे में डांस की प्रैक्टिस कर सकते हो. मम्मा आपको या घर में किसी को ऐतराज तो नहीं होगा.’’

आयरा ने कहा, ‘‘अरे नहीं बेटा, सुजय अच्छा लड़का है. वह तुम्हें अच्छी बातें सिखाता है. तुम दोनों क्वालिटी टाइम स्पैंड करते हो फिर हमें ऐतराज क्यों होगा? बस बेटा यह ध्यान रखना कि सुजय और तुम फालतू बातों में समय मत लगाना, काम की बातें सीखो, खेलो-कूदो, उसमें क्या बुराई है?’’

‘‘ओके थैंक यू मम्मा,’’ कह कर आयरा खुशीखुशी चली गई.

अब सुजय हर संडे आयरा के घर आ जाता और दोनों डांस प्रैक्टिस करते. समय इसी तरह बीतता रहा. एक दिन प्रिशा और आदर्य किसी काम से बाहर गए हुए थे. घर में आयरा दादा-दादी के साथ अकेली थी. किसी काम से सुजय घर आया तो आयरा उससे गणित की प्रॉब्लम हल कराने लगी. आयरा और सुजय दौड़ कर बाथरूम पहुंचे तो देखा दादी फर्श पर बेहोश पड़ी हैं. आयरा के दादा ऊंचा सुनते थे. उनके पैरों में भी तकलीफ रहती थी. वे अपने कमरे में सोए थे. आयरा घबरा कर रोने लगी तब सुजय ने उसे चुप कराया और जल्दी से ऐंबुलेंस वाले को फोन किया. आयरा ने अपने मम्मी-डैडी को भी फोन करके हर बात बता दी.

इसी बीच सुजय जल्दी से दादी को लेकर पास के एक अस्पताल में भागा. उसने पहले ही अपने घर से रुपए मंगा लिए थे. अस्पताल पहुंच कर उसने बहुत समझदारी से दादी को एडमिट करा दिया और प्राथमिक इलाज शुरू कराया. उनको हार्ट अटैक आया था. अब तक आयरा के मां-बाप भी अस्पताल पहुंच गए थे.

डाक्टर ने प्रिशा और आदर्य से सुजय की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘इस लड़के ने जिस फुरती और समझदारी से आपकी मां को हॉस्पिटल पहुंचाया है वह काबिलेतारीफ है. अगर ज्यादा देर हो जाती तो समस्या बढ़ सकती थी. यहां तक कि जान को भी खतरा हो सकता था.’’

प्रिशा ने बढ़ कर सुजय को गले से लगा लिया. आदर्य और उसके पिता ने भी नम आंखों से सुजय का धन्यवाद कहा. सब समझ रहे थे कि बाहर का एक लड़का आज उनके परिवार के लिए कितना बड़ा काम कर गया. हालात सुधरने पर आयरा की दादी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. घर लौटने पर दादी ने सुजय का हाथ पकड़ कर गदगद स्वर में कहा, ‘‘आज मुझे पता चला कि दोस्ती का रिश्ता कितना खूबसूरत होता है. तुमने मेरी जान बचाकर इस बात का एहसास दिला दिया बेटे कि दोस्ती का मतलब क्या है?’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था, दादीजी,?’’ सुजय ने हंस कर कहा.

तब दादी ने प्रिशा की तरफ देखकर ग्लानि भरे स्वर में कहा, ‘‘मुझे माफ कर दे बहू. दोस्ती तो दोस्ती होती है बच्चों की हो या बड़ों की. तेरी और अवकाश की दोस्ती पर शक करके हमने बहुत बड़ी भूल कर दी. आज मैं समझ सकती हूं कि तुम दोनों की दोस्ती कितनी प्यारी होगी. आज तक मैं समझ ही नहीं पाई थी.’’

प्रिशा आगे बढ़ कर सास के गले लगती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी आप बड़ी हैं. आप को मुझसे माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं है. आप अवकाश को जानती नहीं थीं, इसलिए आपके मन में सवाल उठ रहे थे. यह बहुत स्वाभाविक था पर मैं उसे पहचानती हूं. इसलिए बिना कुछ छिपाए उस रिश्ते को आपके सामने लेकर आई थी.’’

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. प्रिशा ने दरवाजा खोला तो सामने हाथों में फल और गुलदस्ता लिए अवकाश खड़ा था. घबराए हुए स्वर में उसने पूछा, ‘‘मैं ने सुना है कि अम्माजी की तबियत खराब हो गई है. अब कैसी हैं ये, बस तुम्हें ही याद कर रही थीं,’’ प्रिशा ने हंसते हुए कहा और फिर अंदर ले आई, जहां सभी एक-साथ दादी के पास बैठे थे. आज सभी को एक-साथ हंसता-खेलता देख दादी का दोस्ती वाला शक मिट चुका था.

Ajay Devgn की हालिया रिलीज फिल्म रेड 2, बासी कड़ी में उबाल

Ajay Devgn : हाल ही में अजय देवगन की फिल्म रेड 2 रिलीज हुई जिसका दर्शकों को बेसब्री से इंतजार था. क्योंकि इसके पहले बनी रेड पार्ट वन, जो काफी अच्छी फिल्म थी. दर्शकों ने इस फिल्म को बहुत सराहा था. लिहाजा दर्शकों को पूरी उम्मीद थी कि अजय देवगन अभिनित रेड 2 भी धमाकेदार फिल्म होगी. ललेकिन ऐसे में कहना गलत ना होगा कि अजय देवगन की फिल्म रेड 2 ने पूरी तरह निराश किया है. रेड 2 लगभग वैसी ही लग रही है जैसे बासी कढ़ी में उबाला.

पता नहीं क्यों लेकिन आज फिल्म मेकर्स फिल्म की मेकिंग पर कम और पब्लिसिटी पर ज्यादा ध्यान देते हैं, जिस वजह से फिल्म का जितना ज्यादा प्रचार होता है, रिलीज के बाद वही फिल्म उतनी ही टाय टाय फीस निकलती है. इस फिल्म में भी ऐसा ही कुछ है, फिल्म की कहानी रेड डालने से शुरू होती है और उसी पर अटकी रहती है, पहली रेड से अगर दूसरी रेड 2 की अगर तुलना करे तो रेड 2 कमतर नजर आती है क्योंकि रेड 2 में कोई नयापन नहीं है. यहां तक कि अजय देवगन खुद दृश्यम की सफलता के बाद से करीबन हर फिल्म में सीधे सादे अंकल टाइप लुक में नजर आए है ..

फिल्म की हीरोइन वाणी कपूर के पास करने लायक कुछ खास नहीं था. तमन्ना भाटिया का जब से स्त्री 2 में आइटम नंबर आज की रात… हिट हुआ है , तब से हिंदी फिल्मों के मेकर तमन्ना का फिल्म में एक आइटम नंबर को फिल्म की सफलता की चाबी मान रहे है ,जिसके चलते रेड 2 में भी तमन्ना भाटिया का आइटम नंबर नशा … जबरदस्ती ठूस दिया गया है,  फिल्म के अगर डायरेक्शन की बात करें तो फिल्म का डायरेक्शन राजकुमार गुप्ता ने किया है जो इंटरवल तक ढीला और नाटकीय लगता है, इंटरवल के बाद डायरेक्शन में पकड़ नजर आती है.

फिल्म की कहानी कमजोर होने की वजह से फिल्म का डायरेक्शन भी ठीकठाक ही लगता है. अगर रेड 2 के आकर्षण की बात करें तो रितेश देशमुख जो विलेन के रोल में है उनका अभिनय दमदार दिखाई देता है. रेड 2 में एक और अच्छा कलाकार है जिसकी एक्टिंग में दम कम नजर आता है वह है सौरभ शुक्ला , लेकिन उनको ज्यादा फुटेज नहीं मिली है जिसमें वह अभिनय का जौहर दिखा सके. रेड 2 के पहले भाग में अजय देवगन के साथ इलियाना डी’क्रूज़ थी , इस बार रेड 2 में इलियाना के जगह वाणी कपूर नजर आई हैं. जिनकी पहले से ही स्टार वैल्यू नहीं है और फिल्म में भी उनका ज्यादा काम नहीं है.

फिल्म का संगीत मधुर है आइटम सॉन्ग नशा लोगों की जुबान पर चढ़ सकता है. ओवर एंड औल अजय देवगन की रेड 2 वो कमाल नहीं दिखा पाई है जो पहली रेड ने किया था . फिल्म में काफी सारी कमियां है जिस वजह से फिल्म दर्शकों के गले नहीं उतर रही, जिस दिन मेकर्स और एक्टर को यह बात समझ आ जाएगी कि आज के समय में फिल्म हीरो या आइटम नंबर के वजह से नहीं बल्कि अच्छे कंटेंट के बाद ही चलती है. उस दिन से बौलीवुड फिल्मों का भविष्य उज्ज्वल होना शुरू हो जाएगा . वरना अगर बड़े कलाकारों से सजी फिल्म की यही हालत रही तो वह दिन दूर नहीं जब दर्शक हिंदी फिल्मों से दूरी बनाने लगेंगे.

Skin Care Tips : क्या फेस सीरम से स्किन जवां होती है?

Skin Care Tips  :  अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल

मैं फेस सीरम के बारे में जानना चाहती हूं. क्या फेस सीरम में ऐंटीएजिंग गुण होते हैं, जो त्वचा को जवां बनाते हैं?

जवाब-

जी हां, सीरम से आप की कई तरह की परेशानियां कम होती हैं और चेहरा खूबसूरत बनता है. फेस सीरम कोलोजन के उत्पादन को बढ़ाता है और त्वचा को जवां और स्वस्थ बनाता है. यह त्वचा पर होने वाले पिंपल्स, घावों, दागों, मुंहासों और इन्फैक्शन को हील करता है. फेस सीरम त्वचा में गहराई तक जा कर उस की समस्याओं को कम करता है. आंखों के नीचे आए डार्कसर्कल्स को कम करने में भी फेस सीरम लाभकारी रहता है. इस से चेहरे की हलके हाथों से मालिश करें.

स्किन सीएम में ऐंटीऔक्सीडैंट्स होते हैं जोकि बाहरी तत्त्वों से त्वचा की रक्षा करते हैं. ये त्वचा की नई कोशिकाएं बनाने में भी मदद करते हैं, जिससे त्वचा की रंगत निखरती है. अगर आप की त्वचा रूखी है तो आप के लिए फेस सीरम लाभकारी होगा.

ये भी पढ़ें- 

अभी तक आपने फेस स्क्रब , मॉइस्चराइजर के बारे में तो खूब सुना ही होगा और इसे आप अपने स्किन केयर रूटीन में इस्तेमाल भी करते होंगे. लेकिन फेस सीरम ज्यादा प्रचलित नहीं होने के कारण या फिर इसके फायदों से अनजान रहने के कारण हम सब इसे अपने मेकअप रूटीन में शामिल करने से डरते हैं , लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये फेस सीरम स्किन के लिए किसी मैजिक से कम नहीं होता है. जो भी लड़की या महिला इसे रोजाना इस्तेमाल करती है , उसकी स्किन ज्यादा यंग व जवां नजर आती है. ऐसे में आपके लिए ये जानना बहुत जरूरी है कि फेस सीरम है क्या और आप किन इंग्रीडिएंट्स से बने फेस सीरम का इस्तेमाल करके अपनी स्किन को फायदा पहुंचा सकती हैं. तो आइए जानते हैं .

फेस सीरम है क्या 

स्किन को जवां बनाए रखने के लिए हम क्या क्या नहीं करते हैं. कभी क्रीम्स बदलते हैं , कभी महंगे ब्यूटी प्रोडक्ट्स का चयन करते हैं तो कभी स्किन ट्रीटमेंट्स का सहारा लेते हैं. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि अगर आप एक बार फेस सीरम को अपने डेली रूटीन में शामिल कर लेंगे फिर तो आपकी स्किन चमक दमक उठेगी. ऐसा ग्लो देखकर हर कोई यही सोचेगा कि आपने फेशियल लिया है. अगर आप भी ऐसा कॉम्प्लिमेंट पाना चाहती हैं तो जरूर ट्राई करें फेस सीरम.

असल में ये वाटर बेस्ड व बहुत ही लाइट वेट होने के कारण स्किन में आसानी से अब्सॉर्ब हो जाता है. साथ ही इसमें इतने ज्यादा एक्टिव इंग्रीडिएंट्स होते हैं , जो स्किन को हाइड्रेट, यंग व उसकी प्रोब्लम्स पर फोकस करके उसमें अलग ही तरह का ग्लो व अट्रैक्शन लाने का काम करते हैं. ये असल में त्वचा में कसाव, चमक व नमी लाकर उसे यंग बनाने का काम करता है. लेकिन तभी जब आपका फेस सीरम बना होगा इन इंग्रीडिएंट्स से.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

Hindi Story Collection : देर से ही सही – क्या अविनाश और सीमा की जिंदगी खुशहाल हो पाई

Hindi Story Collection : सीमा को लगा कि घर में सब लोग चिंता कर रहे होंगे. लेकिन जब वह घर पहुंची तो किसी ने भी उस से कुछ नहीं पूछा, मानो किसी को पता ही नहीं कि आज उसे आने में देर हो गई है. पिताजी और बड़े भैया ड्राइंगरूम में बैठे किसी मुद्दे पर बातचीत कर रहे थे. छोटी बहन रुचि पति रितेश के साथ आई थी. वह भी बड़ी भाभी के कमरे में मां के साथ बड़ी और छोटी दोनों भाभियों के साथ बैठी गप मार रही थी. सीमा ने अपने कमरे में जा कर कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और खुद ही रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. रसोई से आती बरतनों की खटपट सुन कर छोटी भाभी आईं और औपचारिक स्वर में पूछा, ‘‘अरे, सीमा दीदी…आप आ गईं. लाओ, मैं चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, मैं बना लूंगी,’’ सीमा ने ठंडे स्वर में उत्तर दिया तो छोटी भाभी वापस चली गईं.

सीमा एक गहरी सांस ले कर रह गई. कुछ समय पहले तक यही भाभी उस के दफ्तर से आते ही चायनाश्ता ले कर खड़ी रहती थीं. उस के पास बैठ कर उस से दिन भर का हालचाल पूछती थीं और अब…

सीमा के अंदर से हूक सी उठी. वह चाय का कप ले कर अपने कमरे में आ गई. अब चाय के हर घूंट के साथ सीमा को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अकेली, कितनी उपेक्षित सी हो गई है.

चाय पीतेपीते सीमा का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा.

सीमा के पिताजी सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. स्कूल के बाद ट्यूशन आदि कर के उन्होंने अपने चारों बच्चों को जैसेतैसे पढ़ाया और बड़ा किया. चारों बच्चों में सीमा दूसरे नंबर पर थी. उस से बड़ा सुरेश और छोटा राकेश व रुचि थे, क्योंकि एक स्कूल के अध्यापक के लिए 6 लोगों का परिवार पालना और 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना आसान नहीं था अत: बच्चे ट्यूशन कर के अपनी कालिज की फीस और किताबकापियों का खर्च निकाल लेते थे.

सीमा अपने भाईबहनों में सब से तेज दिमाग की थी. वह हमेशा कक्षा में प्रथम आती थी. उस का रिजल्ट देख कर पिताजी यही कहते थे कि सीमा बेटी नहीं बेटा है. देख लेना सीमा की मां, इसे मैं एक दिन प्रशासनिक अधिकारी बनाऊंगा.

अपने पिता की इच्छा को जान कर वह दोगुनी लगन से आगे की पढ़ाई जारी करती. बी.ए. करने के बाद सीमा ने 3 वर्षों के अथक परिश्रम से आखिर अपनी मंजिल पा ही ली. और आज वह महिला एवं बाल विकास विभाग में उच्च पद पर कार्यरत है. सीमा के मातापिता उस की इस सफलता से फूले नहीं समाते.

‘सीमा की मां, अब हमारे बुरे दिन खत्म हो गए. मैं कहता था न कि सीमा बेटी नहीं बेटा है,’ उस की पीठ थपथपाते हुए जब पिताजी ने उस की मां से कहा तो वह गर्व से फूल गई थीं. वह अपना पूरा वेतन मांपिताजी को सौंप देती. अपने ऊपर बहुत कम खर्च करती. मांपिताजी ने बहुत तकलीफें सह कर ही गृहस्थी चलाई थी अत: वह चाहती थी कि अब वे दोनों आराम से रहें, घूमेंफिरें. अकसर वह दफ्तर से मिली गाड़ी में अपने परिवार के साथ बाहर घूमने जाती, उन्हें बाजार ले जाती.

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. सुरेश और राकेश पढ़लिख कर नौकरियों में लग गए थे. उन की नौकरी के लिए भी सीमा को अपने पद, पहचान और पैसे का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ा था. सीमा की सारी सहेलियों की शादी हो गई. जब भी उन में से कोई सीमा से मिलती तो उस का पहला सवाल यही रहता, ‘सीमा, तुम शादी कब कर रही हो? नौकरी तो करती रहोगी लेकिन अब तुम्हें अपना घर जल्दी बसा लेना चाहिए.’

सुरेश का विवाह हुआ फिर कुछ समय बाद राकेश का भी विवाह हुआ. तब भी मांपिताजी ने उस के विवाह की सुध नहीं ली. समाज में और रिश्तेदारों में कानाफूसी होने लगी. रिश्तेदार जो भी रिश्ता सीमा के लिए ले कर आते, मांपिताजी या सुरेश उन सब में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा देते. इसी तरह समय बीतता रहा और घर में रुचि के विवाह की बात चलने लगी, लेकिन बड़ी बहन कुंआरी रहने के कारण छोटी के विवाह में अड़चन आने लगी. तभी सीमा के लिए अविनाश का रिश्ता आया.

अविनाश भी उसी की तरह प्रशासनिक अधिकारी था. उस में ऐसी कोई बात नहीं थी कि सीमा के घर वाले कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा पाते. रिश्तेदारों के दबाव के आगे झुक कर आखिर बेमन से उन्हें सीमा की शादी अविनाश से करनी पड़ी.

दोनों की छोटी सी गृहस्थी मजे से चल रही थी. शादी के बाद भी सीमा अपनी आधी से ज्यादा तनख्वाह अपने मातापिता को दे देती. एक ही शहर में रहने की वजह से अकसर ही वह मायके चली आती. घर में खाना बनाने के लिए रसोइया था ही इसलिए वह अविनाश के लिए ज्यादा चिंता भी नहीं करती थी. पर अविनाश को उस का यों मायके वालों को सारा पैसा दे देना या हर समय वहां चला जाना अच्छा नहीं लगता था. वह अकसर सीमा को समझाता भी था लेकिन वह उस की बातों पर ध्यान नहीं देती थी. आखिरकार, अविनाश ने भी उसे कुछ कहना छोड़ दिया.

अतीत की यादों से सीमा बाहर निकली तो देखा कमरे में अंधेरा हो आया था. पर सीमा ने लाइट नहीं जलाई. अब उसे एहसास हो रहा था कि उस के मातापिता ने अपने स्वार्थ के लिए उस की बसीबसाई गृहस्थी को उजाड़ने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

सीमा के मातापिता को हर समय यही लगता कि आखिर कब तक सीमा उन की जरूरतें पूरी करती रहेगी. कभी तो अविनाश उसे रोक ही देगा. सीमा की मां और भाभियां हमेशा अविनाश के खिलाफ उस के कान भरती रहतीं. उसे कभी घर के छोटेमोटे काम करते देख कहतीं, ‘‘देखो, मायके में तो तुम रानी थीं और यहां आ कर नौकरानी हो गईं. यह क्या गत हो गई है तुम्हारी.’’

मातापिता के दिखावटी प्यार में अंधी सीमा को तब उन का स्वार्थ समझ में नहीं आया था और वह अविनाश को छोड़ कर मायके आ गई. कितना रोया था अविनाश, कितनी मिन्नतें की थीं उस की, कितनी बार उसे आश्वासन दिया था कि वह चाहे उम्र भर अपनी सारी तनख्वाह मायके में देती रहे वह कुछ नहीं बोलेगा. उसे तो बस सीमा चाहिए. लेकिन सीमा ने उस की एक नहीं सुनी और उसे ठुकरा आई.

भाभी के कमरे से अभी भी हंसीठहाकों की आवाजें आ रही थीं. सीमा को याद आया कि जब 4 साल पहले वह अविनाश का घर छोड़ कर हमेशा के लिए मायके आ गई थी तब सब काम उस से पूछ कर किए जाते थे, यहां तक कि खाना भी उस से पूछ कर ही बनाया जाता था.

और अब…अंधेरे में सीमा ने एक गहरी सांस ली. धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. रुचि की शादी हो गई. उस की शादी में भी उस ने अपनी लगभग सारी जमापूंजी पिता को सौंप दी थी. आज वही रुचि मां और भाभियों में ही मगन रहती है. अपने ससुराल के किस्से सुनाती रहती है. दोनों भाभियां, भैया, मां और पिताजी बेटी व दामाद के स्वागत में उन के आगेपीछे घूमते रहते हैं और सीमा अपने कमरे में उपेक्षित सी पड़ी रहती है.

रुचि के नन्हे बच्चे को देखते ही उस के दिल में एक टीस सी उठती. आज उस का भी नन्हा सा बच्चा होता, पति होता, अपना घर होता. सीमा दीवार से सिर टिका कर बैठ गई. तभी मां कमरे में आईं.

‘‘अरे, अंधेरे में क्यों बैठी है?’’ मां ने बत्ती जलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं मां, बस थोड़ा सिर में दर्द है,’’ सीमा ने दूसरी ओर मुंह कर के जल्दी से अपने आंसू पोंछ लिए.

‘‘सुन बेटी, मुझे तुझ से कुछ काम था,’’ मां ने अपने स्वर में मिठास घोलते हुए कहा.

‘‘बोलो मां, क्या काम है?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘रुचि दीवाली पर मायके आई है तो मैं सोच रही थी कि उसे एकाध गहना बनवा दूं. दामाद और नन्हे के लिए भी कपड़े लेने हैं. तुम कल बैंक से 15 हजार रुपए निकलवा लाना. कल शाम को ही बाजार जा कर गहने व कपड़े ले आएंगे.’’

‘‘ठीक है, कल देखेंगे,’’ सीमा ने तल्ख स्वर में कहा.

सीमा ने मां से कह तो दिया पर उस का माथा भन्ना गया. 15 हजार रुपए क्या कम होते हैं. कितने आराम से कह दिया निकलवाने को. इतने सालों से वह अपने पैसों से घरभर की इच्छाओं की पूर्ति करती आ रही है लेकिन आज तक इन लोगों ने उस के लिए एक चुनरी तक नहीं खरीदी. मां को रुचि के लिए गहनेकपड़े खरीदने की चिंता है लेकिन उस के लिए दीवाली पर कुछ भी खरीदना याद नहीं रहता.

दूसरे दिन दफ्तर में सीमा का मन पूरे समय अविनाश के इर्दगिर्द घूमता रहा. उसे अपने किए पर आज पछतावा हो रहा था. लंच में उस की सहेली अनुराधा उस के कमरे में आ बैठी. अकसर दोनों साथसाथ लंच करती थीं.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ अनुराधा ने कहा, ‘‘मैं कुछ दिनों से देख रही हूं कि तू बहुत ज्यादा परेशान लग रही है.’’

अनुराधा ने लंच करते समय जब अपनेपन से पूछा तो सीमा अपनेआप को रोक नहीं पाई. घर वालों के उपेक्षापूर्ण व स्वार्थी रवैए के बारे में उसे सबकुछ बता दिया.

‘‘देख सीमा, मैं ने तो पहले भी तुझे समझाया था कि अविनाश को छोड़ कर तू ने अच्छा नहीं किया पर तू मायके वालों के स्वार्थ को प्यार समझे बैठी थी और मेरी एक नहीं मानी. अब हकीकत का तुझे भी पता चल गया न.’’

‘‘मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है. मेरी आंखें खुल गई हैं,’’ सीमा की आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अब जा कर आंखें खुली हैं तेरी लेकिन जब अविनाश ने तुझे मनाने और घर वापस ले जाने की इतनी बार कोशिशें कीं तब तो…बेचारा मनामना कर थक गया,’’ अनुराधा का स्वर कड़वा सा हो गया.

‘‘मैं अपनी गलती मानती हूं. अब बहुत सजा भुगत चुकी हूं मैं. मेरे पास अपना कहने को कोई नहीं रहा. मैं बिलकुल अकेली रह गई हूं, अनु,’’ इतना कह सीमा फफक पड़ी.

सीमा को रोते देख अनुराधा का मन पिघल गया. उसे चुप कराते हुए वह बोली, ‘‘देख, सीमा, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. हां, देर तो हो गई है लेकिन इस के पहले कि और देर हो जाए तू अविनाश के पास वापस चली जा. तेरा पति होगा, अपना घर, अपना बच्चा, अपना परिवार होगा,’’ अनुराधा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाया.

‘‘लेकिन क्या अविनाश मुझे माफ कर के फिर से अपना लेगा?’’ सीमा ने सुबकते हुए पूछा.

‘‘वह करे या न करे पर तुझे अपनी ओर से पहल तो करनी ही चाहिए और जहां तक मैं अविनाश को जानती हूं वह तुझे दिल से अपना लेगा, क्योंकि यह तो तुम भी जानती हो कि उस ने अब तक शादी नहीं की है,’’ अनुराधा ने कहा.

सीमा ने आंसू पोंछ लिए. आखिरी बार जब अविनाश उसे समझाने आया था तब जातेजाते उस ने सीमा से यही कहा था कि मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे और मैं जिंदगी भर तुम्हारा इंतजार करूंगा.

अनुराधा ने सीमा के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘जा, खुशीखुशी जा, बिना संकोच के अपने घर वापस चली जा. बाकी तेरी बहन की शादी हो चुकी है, भाई कमाने लगे हैं, पिताजी को पेंशन मिलती है. उन लोगों को अपना घर चलाने दे, तू जा कर अपना घर संभाल. एक नई जिंदगी तेरी राह देख रही है.’’

क्या करे क्या न करे? इसी ऊहापोह में दीवाली बीत गई. त्योहार पर घर वालों के व्यवहार ने सीमा के निर्णय को और अधिक दृढ़ कर दिया.

छुट्टियां बीत जाने के बाद जब सीमा आफिस गई तो मन ही मन उस ने अपने फैसले को पक्का किया. अपने जो भी जरूरी कागजात व अन्य सामान था उसे सीमा ने आफिस के अपने बैग में डाला और आफिस चली गई. आफिस में अनुराधा से पता चला कि अविनाश शहर में ही है टूर पर नहीं गया है. शाम को घर पर ही मिलेगा.

शाम को आफिस से निकलने के बाद सीमा ने ड्राइवर को अविनाश के घर चलने के लिए कहा. हर मोड़ पर उस का दिल धड़क उठता कि पता नहीं क्या होगा. सारे रास्ते सीमा सुख और दुख की मिलीजुली स्थिति के बीच झूलती रही. 10 मिनट का रास्ता उसे 10 साल लंबा लगा था. गाड़ी अविनाश के घर के सामने जा रुकी. धड़कते दिल से सीमा ने गेट खोला और कांपते हाथों से दरवाजे की घंटी बजाई. थोड़ी देर बाद ही अविनाश ने दरवाजा खोला.

‘‘सीमा, तुम…आज अचानक. आओआओ, अंदर आओ,’’ अविनाश सीमा को देखते ही खुशी से कांपते स्वर में बोला. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि सीमा को देख कर वह कितना खुश है.

‘‘मुझे माफ कर दो, अविनाश. घर वालों के झूठे मोह में पड़ कर मैं ने तुम्हें बहुत तकलीफ पहुंचाई है, बहुत दुख दिए हैं, पत्नी होने का कभी कोई फर्ज नहीं निभाया मैं ने, लेकिन आज मेरी आंखें खुल गई हैं. क्या तुम मुझे फिर से…’’ सीमा ने अपना बैग नीचे रखते हुए पूछा तो आगे के शब्द आंसुओं की वजह से गले में ही फंस गए.

‘‘नहींनहीं, सीमा, गलती सभी से हो जाती है. जो बीत गया उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ. यह घर और मैं आज भी तुम्हारे ही हैं. देखो, तुम्हारा घर आज भी वैसे का वैसा ही है,’’ अविनाश ने सीमा को अपने सीने से लगा लिया.

सीमा का जब सारा गुबार आंसुओं में बह गया तो वह अविनाश से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने मायके वालों के प्रति अपना आखिरी कर्तव्य पूरा कर आती हूं.’’

‘‘वह क्या, सीमा?’’ अविनाश ने आश्चर्य और आशंका से पूछा.

‘‘उन्हें फोन तो कर दूं कि मैं अपने घर आ गई हूं, वे मेरी चिंता न करें,’’ सीमा ने हंसते हुए कहा तो अविनाश भी हंसने लगा.

‘‘हैलो, कौन…मां?’’ सीमा ने मायके फोन लगाया तो उधर से मां ने फोन उठाया.

‘‘हां, सीमा, तुम कहां हो…अभी तक घर क्यों नहीं पहुंचीं?’’

‘‘मां, मैं घर पहुंच गई हूं, अपने घर…अविनाश के पास.’’

‘‘यह क्या पागलपन है, सीमा,’’ यह सुनते ही सीमा की मां बौखला गईं, ‘‘इस तरह से अचानक ही तुम…’’

मां और कुछ कहतीं इस से पहले ही सीमा ने फोन काट दिया. अपने नए जीवन की शुरुआत में वह किसी से उलटासीधा सुन कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहती थी. उसे प्यास लगी थी. पानी पीने के लिए सीमा रसोई में गई तो देखा एक थाली में अविनाश दीपक सजा रहा है.

‘‘यह क्या कर रहे हो, अविनाश?’’ सीमा ने कौतूहल से पूछा.

‘‘दीये सजा रहा हूं.’’ अविनाश ने उत्तर दिया.

‘‘लेकिन दीवाली तो बीत चुकी है.’’

‘‘हां, लेकिन मेरे घर की लक्ष्मी तो आज आई है, तो मेरी दीवाली तो आज ही है. इसलिए उस के स्वागत में ये दीये जला रहा हूं,’’ अविनाश ने सीमा की तरफ प्यार से देखते हुए कहा तो सीमा का मन भर आया.

अब वह पतिपत्नी के इस अटूट स्नेह संबंध को हमेशा हृदय से लगा कर रखेगी, यह सोच कर वह भी दीये सजाने में अविनाश की मदद करने लगी. देर से ही सही लेकिन आज उन के जीवन में प्यार और खुशहाली के दीये झिलमिला रहे थे.

Hindi Kahaniyan : उस मुलाकात के बाद

Hindi Kahaniyan : शादी के बाद महिला मित्र रखने की कल्पना निहायत सोशल मीडियाई चीज है. मगर चाह हम सब पतियों में होती है. अनेक छिप कर ऐसा करने में कामयाब भी हो जाते हैं. अमूमन अपनी पत्नी को उस के द्वारा ही सताए जाने की पीड़ा का एहसास करा कर. खैर, यह किस्सा ऐसे ही एक हब्बी का है.

सहूलत के लिए मान लीजिए उस का नाम आनंद है. अब साहब आनंद को 4 साल की डेटिंग और शादी के 9 साल बाद जो मिली, वह न तो कुंआरी थी और न ब्याहता और न ही डाइवोर्सी उस का पति एक रात गौतम बुद्ध की तरह उसे सोता छोड़ कर चला गया था. उस समय वह सो तो नहीं रही थी और यह भी यह सोच कर उस के दर से उठा था कि वह रोक लेगी, मना लेगी उसे पर वह बेचारा फिल्मी तर्ज पर बढ़ता दूसरे शहर जा पहुंचा जहां उस ने एक नई नौकरी तलाशी, एक नया मकान किराए पर लिया.

अब जब आनंद एक दफ्तर में मुंह बनाए इस चौराहे पर देवी से मिला तो उसे एक पुरुष की तलाश थी, जो सहारा तो बने, पर कहे नहीं कि वह सहारा है. आप समझे कि नहीं. मतलब दे, पर ले नहीं. एहसान करे, जताए नहीं. जब बुलाए आए, जब कहे जा तो जाए. घूमने, पब या बार में जाने और खाना खाने के लिए वह अकेली थी, पर वैसे जमाने के लिए शादीशुदा.

खैर, आनंद भी अपनी पत्नी के भरपूर सताए जाने के बाद भी उसे छोड़ने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था. छोड़ भी दे तो दोबारा शादी करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था. लिहाजा, उसे भी यह स्थिति बड़ी सहज लग रही थी. वह भी चाहता था कि कोई उसे पत्नी का सुख दे, पर उस पर पत्नी बन कर लदे नहीं. दोनों तरफ से बराबर का मुकाबला था. वे लोग आहिस्ताआहिस्ता एकदूसरे की तरफ बढ़ रहे थे. देखतेदेखते 1 साल गुजर गया. दोनों एकदूसरे के दफ्तर में बेमतलब के काम निकाल कर आतेजाते रहते.

एक दिन वह बोली, ‘‘एक काम करोगे?’’

‘‘और सालभर से क्या रह रहा हूं,’’ वह बोला.

‘‘मैं अपने उस से मिलना चाहती हूं. मुझे मिलवाने चलो.’’

‘‘कहां?’’

‘‘वहीं जहां वह रहता है.’’

‘‘मिल कर क्या करोगी?’’

‘‘दोदो हाथ.’’

‘‘और मैं?’’

‘‘तुम बस वापस ले आना,’’ वह बोली.

मतलब साफ था. वह अपने उस से समझौता करना चाहती थी और अब आनंद को स्टैपिनी की तरह इस्तेमाल कर रही थी. आनंद को ऐसी चुहलबाजी में काफी मजा आता था. बहरहाल, पिया के शहर का सफर शुरू हुआ. उस ने अपनी गाड़ी उठाई और उसे बराबर की सीट पर बैठा कर उसे ले चला.

रास्तेभर वह रिहर्सल करती रही. ‘वह यह कहेगा तो मैं यह कहूंगी. पहली बार हम कहां मिले थे. आखिरी बार क्या बातें हुई थीं?’

आनंद की तसल्ली के लिए वह उस से भी पूछती रहती थी कि तुम पहली बार अपनी वाली से कहां मिले थे? तुम उस की जगह होते तो क्या कहते, क्या करते?

बड़ी हिम्मत कर के बीच आधे सफर में आनंद ने पूछा, ‘‘तुम लोगों का मिलन हो गया तो मेरा क्या होगा?’’

‘‘होना क्या है, हम लोग ऐसे ही मिलते रहेंगे. अरे, तुम देख लेना समझौता मेरी शर्तों पर होगा… तुम उसे जानते नहीं हो. वह इतने छोटे दिल वाला नहीं है. अरे, शादी से पहले और शादी के बाद मेरे दोस्त अकसर घर आते थे,’’ वह तन कर बोली.

‘‘क्या उस की महिला दोस्त भी?’’

‘‘नहीं, वह नहीं. पर मुझे कोई एतराज

नहीं होता.’’

‘‘पर कहीं तुम्हारी शादी इस वजह से तो नहीं टूटी कि तुम्हारे मेल फ्रैंड्स थे?’’

‘‘नहीं, मुझे तो नहीं लगता.’’

ऐसी सब बातों के बीच सफर किसी तरह खत्म हुआ. अब हम दोनों एक होटल में थे. उस ने सूटकेस से बढि़या साड़ी निकाल कर पहनी. एक पार्लर से फेशियल करवाया. सैंट छिड़का और आनंद को छोड़ कर वह अपने खोए पति को फिर पाने के लिए उस के घर की ओर चल दी. मेरी गाड़ी ही चला कर.

2 घंटे का वादा कर के गई थी. मगर जब 5 घंटे बाद तक नहीं लौटी तो आनंद समझ गया कि उन का घर फिर बस गया. उसे अचानक अपने बीवीबच्चों की याद आ गई. उस ने नींद की 2 गोलियां खाईं और सो गया कि अगले दिन वापस चलने की तैयारी की जाए.

आधी रात के बाद दरवाजे पर हलकी सी दस्तक हुई. आनंद हड़बड़ा कर उठा पर ठिठका कि कहीं वह साथ में तो नहीं आया. हो सकता है भावुकता में उस ने सबकुछ मान लिया हो. पर तभी उसे याद आया कि वह ऐसी नहीं है.

वही थी. जीवन में फिर बहार थी. मुसकान लौट आई थी. बिंदी अपनी जगह से फैल गई थी. बाल बिखरे थे, होंठों की गहरी लिपस्टिक हट चुकी थी. शायद उस के मुंह में जा चुकी थी.

‘‘मुबारक हो.’’

‘‘ओह, छोड़ो यार,’’ उस ने आनंद को पहली बार यार कहा था, ‘‘हो गया.’’

‘‘होना क्या था? तुम सब आदमी सिर्फ औरत को झुकाना जानते हो,’’ वह काफी उत्तेजित थी.

मैं ने छेड़ना ठीक नहीं सम. वह कुछ देर रोती रही. फिर हंसने लगी. फिर पता नहीं कब हम दोनों सो गए.

सुबह चाय पर बात हुई. फैसला यह हुआ था कि  लड़ कर उस ने उसे निकाला था, वह पहल नहीं करेगा. अगर वह चाहे तो लड़के के जीवन में अपने लिए जगह तलाश कर सकती है.

मैं ने कहा, ‘‘हिंदी की ठोस कविता बंद करो. साफसाफ बताओ उस ने तुम्हें छुआ?’’

‘‘हां. बस बात बन गई.’’

‘‘अब घर चलें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं, अभी मिलना है. आज भी और

कल भी.’’

‘‘तो मिलो. दिक्कत क्या है.’’

‘‘और तुम?’’

‘‘मैं भी मिल लेता हूं,’’ मैं ने हिचकते हुए कहा.

‘‘गड़गड़ मत करो. देखो, बात बड़ी साफ है. हमारे बीच जो गुजर गया वह लौट नहीं सकता. यह तो जमाने के तानों से बचने के लिए मैं ने पहल ही है वरना न मुझे उस की जरूरत है और न उसे मेरी. वह अलग शहर में रहेगा, मैं अलग. उस के पास मुझे पालने के लिए पैसे नहीं हैं. शादी से पहले के रोमानी खयाल अब पीले पड़ चुके हैं. जिंदगी की हकीकत में अब इश्क नहीं नाटक होगा,’’ वह सीरियस हो कर बोली.

‘‘मेरा क्या होगा जानेमन?’’

‘‘तुम तो शादी के लिए पहले भी तैयार नहीं थे. लिहाजा, वही होगा जो अब तक होता रहा है. हम लोग अच्छे दोस्त हैं और रहेंगे. पर अब तो तुम लोग एक मुलाकात और नजदीक आ गए हो. जब की तब देखी जाएगी,’’ उस के पास मानो जवाब तैयार था.

दोनों वापस अपने शहर लौट आए. इस बीच आनंद की बीवी को पता लग गया कि वह 2 रोज क्या करता रहा है.

शहर पहुंचने के अगले दिन आनंद दफ्तर आया तो उस के गालों और गले पर नाखूनों के गहरे निशान थे. रात को जम कर लड़ाई हुई लगता है.

अब निष्कर्ष यही है कि आनंद भी पत्नी को सोता छोड़ दूसरे शहर जा कर रहेगा.

कहानी का मोरल यही है कि किसी की सुताई हुई, छोड़ी हुई का खयाल रखना गरम रौड पर हाथ रखना होता है. छोड़ी हुई के मन को समझना आसान नहीं है.

Hasya Vyangya : गौसिप सर्विस

Hasya Vyangya : रचना का अति कोमल मन अपने घर में न जाने क्यों झुंझलाया सा रहता था. उस की हालत ऐसी होती थी जैसे रेस के घोड़े को खूंटे से बांध दिया गया होपरवह रस्सी तुड़ा कर मैदान में दौड़ने को उतावला हो रहा हो.

हर काम को जल्दी से जल्दी निबटाने की चेष्टा में रचना बेहाल रहती. वह एक हाथ से कंप्यूटर पर डेटा ऐंट्री कर रही होती तो दूसरे से मोबाइल पर व्हाट्सऐप और फेसबुक देखती. जो इक्कादुक्का कागज उस की मेज पर पहुंच जाते उन्हें जल्दीजल्दी लिबटा कर आधे कमेंट्स के साथ, ईमेलों में बिना पढ़े आई ऐग्री, मे बी, ओके करती जाती.

हर समय अपने काम में ही उलझे रहो, यह भी कोई जीना है भला? दिनभर में 2-4 बार दूसरों के डैस्कों का चक्कर लगाए बिना रचना का हाजमा गड़बड़ा जाता.

कभी रामेश्वरी के छोटेछोटे बच्चों में से कोई बीमार पड़ जाए तो तुरंत इंटरनैट से ही सूप और दलिया आदि की रैसिपी के प्रिंट आउट दे देती. उस का ड्रिंक्स का कुछ ज्यादा आदी पति तो कुछ ध्यान रखने से रहा. जितनी देर वह सूप आदि बनाने की रैसिपी बताएगी, उस के मोबाइल से सूप और्डर कर के उसी के घर पहुंचा न दे, उसे चैन नहीं मिलता. उस दौरान दुखियारी दूसरे डैस्कों पर काम में बिजी रामेश्वरी के दिल का कितना सारा बोझ उस की जबान से बाहर उगलवा कर अपने मन पर लाद लाएगी. कोई मिला तो थोड़ा बांट भी लेगी.

पहले इस तरह के चिंता के गट्ठरों को संभालने का कार्य घरेलू औरतें करती थीं. बात से बात निकलती थी और कई घरों के निरीक्षणपरीक्षण हो जाया करते थे. जवान लोग तो उन की अनुभव की पिटारियों से निकले अजूबों पर केवल हंसतेखिलखिलाते ही थे, पर रचना तो आज के जमाने की है. हर व्यक्ति इंटरनैट के रौकेट की रफ्तार से बात कर रहा है. फिर भला वह इतने महान कार्यों को घरेलू औरतों पर कैसे छोड़ सकती थी. फिर बड़े लोग भी तो कह गए हैं कि डू नाऊ, व्हाट यू कैन डू टुमारो. आज की गौसिप आज ही फैलाने में ऐक्सपर्ट थी रचना.

रचना इस बात का पालन करने में तनिक भी कंजूसी नहीं बरतना चाहती. आखिर जीवन के 29 बर्थडे मना लिए. अब अपने अनुभव और ज्ञान का सार औरों को भी बांट कर सब का उपकार करना ही तो ह्यूमन सर्विस है. वह इस का अक्षरश: पालन कर रही है.

अकसर वाणी सुब्रामणियम को घर जा कर रचना दक्षिण भारतीय रेस्तरां में डोसा, इडली, पोंगल की प्रेज करती.

एक दिन कौफी पीते हुए बोली, ‘‘वाणी, आप के होते हुए भी हम लोग डोसा और इडली उस छोटे ढाबे में खाएं. यह तो दुख की बात है. एक दिन सब को अपने घर बना कर औफिस में ला कर साउथ इंडियन डिशेज खिला.’’

‘‘क्यों नहीं रचना, तुम जब कहो मैं तैयार हूं,’’ वाणी अपनी साउथ इंडियन डिशेज की प्रशंसा से अभिभूत हो कर बोली.

रचना गदगद हो सैकड़ों थैंक्स दे कौफी का अंतिम घूंट गटक कर उमा और नीता के पास पहुंच गई.

फाइल में कार्य कर रही नीता की फाइल बंद कर उसे घसीट लाई. उमा के दराज में अपने हाथ से ताला लगा औफिस में बने इटिंग कौर्नर में औनलाइन डिलिवरी का इंतजार करती सब को विवश कर अपनी तारीफ के पुल बांधने लगी, ‘‘देखो भई, मुझे तुम लोगों का कितना

ध्यान रहता है. वाणी को तुम सब कंजूस कहती थीं पर पीठ ठोको मेरी, सब की दावत का प्रबंध कर के आ रही हूं,’’ और फिर उन्हें सारी बात बता दी.

‘‘मान गए रचना तुम्हें,’’ कह उमा ने उसे गुब्बारे सा फुला दिया, ‘‘वैसे तो हमें भी सब आता है बनाना खाने वाला उंगली चाटता रह जाए पर वाणी से मंगवा लेने वाले खाने का आग्रह तो पूरा करना था न.’’

कभीकभी ऐसे अवसरों पर रचना को कलीग्स की मीठीमीठी चोट से भी दोचार होना पड़ता था पर वह वार फ्रंट में साहसपूर्वक डटी रहती थी.

उमा की अन्य सहेली बोली, ‘‘भई रचना, तुम्हारी मां के हाथ के गुलाबजामुन और दहीवड़े खाए अरसा हो गया. हमारी मां लाख कोशिश करें, वैसा बना ही नहीं पातीं.’’

अंदर ही अंदर रचना चिहुंक उठी पर अधरों पर राजसी मुसकराहट तैरने लगी. फिर बोली कि शीघ्र ही मां से कह कर जल्दी ही घर में चाय पार्टी करूंगी. फिर वहां से चली गई. राह में हैरत से सोचती रही कि यह उमा वगैरह तो बड़ी तेज होती जा रही हैं.

फिर भी रचना की सेवाभावना में कोई अंतर नहीं आता. सुमिता की बेटी सुनीता को कोई लड़का उन के घर देखने आने वाला था. रचना ने पहले ही कह दिया, ‘‘सुमिता, मैं तेरी छोटी बहन के समान ही हूं. कोई संकोच मत करना. सर्व करने और सुनीता को तैयार करने का जिम्मा तुम मुझ पर छोड़ दे.’’

लड़के के मिलने के अगले दिन सहेलियों के साथ कहीं बैठक जम गई. सुमिता उस में नहीं थी. एक सहेली ने पूछा, ‘‘कहो रचना, कल तो तुम खूब बिजी रही होगी. तुम ही कल की मुख्य अतिथि बनी रही होगी हुआ क्या?’’

‘‘अरे, रहने भी दो,’’ रचना मुंह चिढ़ाने का अभिनय करती. बोली, ‘‘क्या करूं, किसी की हैल्प करना मुझे अच्छा लगता है. सुमिता के होश तो लड़के के आने के नाम से ही गुम हो जाते हैं. मैं ने कहा कि चलो सहेली है सपोर्ट करने में हरज नहीं. मेरे अलावा और तो किसी को बुलाया तक नहीं था उस ने.’’

‘‘सामान क्याक्या आया, यह तो बताओ? सारी सहेलियां सुमिता की गैरमौजूदगी में उस के मुंह से रनिंग कमैंटरी सुनने को बेचैन हो उठीं.’’

रचना ने बिदक कर मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘न ही पूछो तो अच्छा है,’’ सनसनी फैला कर रचना ने सब के हावभाव देखे, फिर बोली, ‘‘अपनी फ्रैंड की इज्जत रखने के लिए मैं ज्यादा तो नहीं बता सकती पर लड़के के साथ भाभी, मां, बाप, छोटी बहन आई थी. एक कोई बूआ टाइप भी थी. अच्छी बरात थी.’’

थोड़ी देर चुक रह रचना ने फिर जोड़ा, ‘‘वह तो मैं ने संभाल लिया वरना सुमिता अकेले इतनों को कैसे हैंडल कर पाती.’’

‘‘छोड़ो मैं सब जानती हूं. यह बताओं कि सुनीता ने लड़के से बात की भी या नहीं? क्या वह राजी हो गई,’’ एक सहेली ने पूछा.

रचना अब सतर्क हो कर मुसकरा उठी, ‘‘तुम भी नीता सारी बातें कहलवा कर ही रहोगी. ऐसे में लोग कहते तो यही हैं न कि लड़की तो पसंद है, पर सोच कर बताएंगे. बाद में पता चला कि सुनीता ने खुद ही मां को मना कर दिया.

किसी की खुशी में सम्मिलित होने में रचना सदा तत्परता दिखाती थी. उसे डिस्टैंस की चिंता रहती थी और न बारिश का डर.

वंदना का नाम विशेष योग्यता की सूची में आ गया तो रचना बारिश में भाग कर बधाई दे आई.

अगली सुबह वाणी ने पूछा, ‘‘कल तुम बारिश में भाग कर कहां जा रही थी?’’

‘‘तुझे पता नहीं? वंदना का नाम विशेष योग्यता की सूची में आ गया है?’’

‘‘वह तो शुरू से ही बहुत होशियार है.’’

‘‘वाणी, क्या तुम होशियार नहीं हो? बस तुम वंदना की तरह रातदिन रटती नहीं रहती हो.’’

दरअसल, वाणी 1-2 ऐग्जाम्स में अव्वल आने से रह गई थी.

वाणी उस का आशय समझने की चेष्टा किए बिना पूछ बैठी, ‘‘हां रचना तुम

भी तो कहीं इंटरव्यू दे कर आई थी. क्या हुआ उस का?’’

रचना ने मुसकरा कर लापरवाही से बात बदल दी.

शीला उन की अच्छी सहेली है. एक बार वह बीमार पड़ गई. अब उस की अस्वस्थता की बात सुनते ही रचना शाम को रोज वहां पहुंचने लगी. उस के घर में इस तरह जाने को वह न जाने कब से तरस रही थी पर ‘जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ.’

रचना रोज पनीरपकोड़े और चौकलेटपेस्ट्री उड़ाती रही. अनुभव के मोती बटोरती रही. फिर एक दिन पुरानी बैठक में अपनी प्रशंसा सुन कर गदगद होती बोल उठी, ‘‘क्या करूं, जाना ही पड़ा. उस बेचारी को पूछने वाला कौन है? घर में सिर्फ उस का हसबैंड ही है न पर वह तो पक्का फ्लर्ट लगा मुझे.

‘‘क्योंक्यों?’’ उत्सुक आवाजों ने रचना को घेर लिया.

‘‘देखो भई, मेरी शिकायत मत कर देना पर अपनी आंखों से अब तो देख लिया. शीला के हब्बी की पीए क्या पटाखा चीज है. वह भी हर रोज शीला को देखने आती और पूरी किचन संभालती रही.’’

‘‘हाय सच? कैसी है? वह शीला के सामने कैसे आ गई?’’ सहेलियों की बढ़ती उत्सुकता से रचनाका चेहरा विजयी पताका सा फहराने लगा.

‘‘न पूछो बाबा, शीला के हब्बी ने मेरे सामने ही उस बीमार से जिस तरह लड़ाई की उस से दिल दहल गया.’’

‘‘पर पूरा किस्सा तो सुनाओ,’’ उमा ने रचना को टोका तो वह चिहुंक उठी, ‘‘न बाबा, कल यह बात फैलेगी तो मेरा ही नाम बदनाम होगा,’’ वह रंग फैला कर कदम बचाने लगी.

‘‘लेकिन तुम बहुत तेज हो रचना,’’ उमा ने हंस कर कहा, ‘‘सेवा कर के मजे से पूरा सीन देख आई. हम लोग तो खाली हवा में ही सुनीसुनाई अटकलें लगाया करते थे.’’

‘‘यह लो, एक तो किसी के काम आओ ऊपर से बातें सुनो,’’ रचना बिदक उठी.

‘‘भई, तुम्हारे जैसी सहेली भी अगर यों बुरा मानेगी तो हम मजाक किस से करेंगे?’’ उमा ने बात पलट कर कहा.

रचना उठते हुए सोचने लगी कि यह उमा तो शतरंज की गोटियों की तरह शह और मात देने लगी है. फिर हंसने का उपक्रम करती हुई बोली, ‘‘मुझे क्या अपना कोई काम नहीं है? तुम लोगों ने तो मुझे फालतू ही समझ लिया है,’’ और वह चली गई.

तब रचना की अंतरंग सहेलियों की खिलखिलाहट के मध्य एक नवपरिचिता बोली, ‘‘इन का हब्बी तो कालेज में पढ़ाता है न?’’

‘‘हां,’’ नीता ने जवाब दिया.

‘‘कितनी सिगरेट पीता है भई और जब देखो तब एमए की स्टूडैंट्स से घिरा रहता है. एक दिन तो मैं ने पिक्चरहौल में देखा था.’’

रचना की अंतरंग सहेलियां आंखों ही आंखों में मुसकरा पड़ीं.

‘‘बेचारी ने बचत करने के लिए मेड भी फुलटाइम नहीं लगा रखी है,’’ एक अन्य स्वर फूटा तो रचना का भेद देने वाली नवपरिचिता ने फिर बातों की कड़ी संभाल ली.

आवाजों के घेरे से दूर तेज कदमों से चलती हुई रचना घर पहुंची. ताला खोल कर घर में बिखरी चीजों को समेटते हुए सोचने लगी कि अपना घर छोड़ कर इन लोगों के लिए दिनरात भागती रहती हूं, पर सब ऐसी ही हैं और फिर गुस्से में उस ने उन के पास फिर कभी न जाने तक की बात सोच ली.

अगली सुबह फिर सूरज उगा. रोशनी के फैलते सागर में रचना का मन हुलसने लगा. हाथ फिर तीव्र गति से काम निबटाने में जुट गए. गौसिप की रोशनी को तो हर डैस्क में बिना बुलाए फैलना ही है. भला सहेलियों का क्या बुरा मानना, जब सेवा ही अपना परपज हो.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें