फ्लौपी – भाग 3

मेरी बात सुन कर बबल सहम गया. पर उस के सहज होने के नाटक से मैं ताड़ गई कि कोई न कोई बात जरूर है जो मुझ से छिपाई जा रही है. चुपके से जा कर मैं ने विकी के कमरे का दरवाजा सरकाया तो दंग रह गई. हाल ही में खरीदे गए गद्दे पर विकी सफाई से पैबंद लगा रहा था. ‘‘तो यह बात है. 400 रुपए का नया गद्दा है मेरा. इस मुसीबत के कारण तो सारे घर की शांति भंग हो गई है,’’ मैं ने दोचार करारे थप्पड़ उस बेजबान के मुख पर जड़ दिए, ‘‘तू है ही नालायक.’’

रोजरोज घर की शांति भंग होने लगी. शेष बची चीजों को मैं संभालती ताकि कंबल, साडि़यां आदि पर वह अपने दांत न आजमाए. अब उस ने हमारे एक कीमती गलीचे को अपना शिकार बनाया और हमारे बारबार मना करने पर भी वह नजर चुरा कर उसे पेशाब और मल से गंदा कर देता. दिल चाहा कि फ्लौपी के टुकड़े कर दिए जाएं और बच्चों की भी जम कर पिटाई की जाए, जो उसे घर में लाने के जिम्मेदार थे.

एक रात को तो हद हो गई. रात के 3 बजे थे. यह दौरे पर थे. मेरी तबीयत खराब थी. फ्लौपी ने मुझे पांव मार कर जगाया कि उसे नीचे जाना है. मैं ने बबल को आवाज दी, ‘‘रात का समय है, मेरे साथ नीचे चलो.’’ बेचारा झट उठ खड़ा हुआ. बाहर बरामदे में जा कर देखा तो लिफ्ट काम नहीं कर रही थी. अब एक ही चारा था कि सीढि़यों से नीचे उतरा जाए. बेचारा जानवर अपनेआप को कब तक रोकता. उस ने सीढि़यों में ही ‘गंदा’ कर दिया.

मिंटो पार्क कलकत्ता की एक बेहद आधुनिक जगह है. कागज का एक टुकड़ा भी सारे अहाते में दिखाई दे जाए तो बहुत बड़ी बात है. सवेरा होते मैं डर ही रही थी कि यहां के प्रभारी आ धमके, ‘‘सुनिए, या तो आप अपने कुत्ते को पैंट पहनाइए या फिर किसी नीचे रहने वाले निवासी को सौंप दीजिए. यही मेरी राय है.’’

उस दिन से हम एक ऐसे अदद परिवार की तलाश करने लगे जो फ्लौपी को उस की शैतानियों के साथ स्वीकार कर सके. हमारे घर विधान नामक एक युवक दूध देने आता था. वह फ्लौपी को बहुत प्यार करता था. हमारी समस्या से वह कुछकुछ वाकिफ हो गया. एक रोज साहस कर के बोला, ‘‘मेमसाहब, नीचे वाला दरबान बोल रहा है कि आप फ्लौपी किसी को दे रहे हैं.’’

‘‘हां, हमारा ऊपर का फ्लैट है न, इसलिए कुछ मुश्किल हो रही है.’’ ‘‘मेमसाहब, हमारा घर तो नीचे का है. हमें दे दीजिए न फ्लौपी को.’’

‘‘पूरे 800 रुपए का कुत्ता है, भैया,’’ पास खड़ी मंगला ने रोबदार आवाज में कहा. ‘‘नहींनहीं, हमें इसे बेचना नहीं है. देंगे तो वैसे ही. जो भी इसे प्यार से, ठीक से रख सके.’’

‘‘हम तो इसे बहुत प्यार से रखेंगे,’’ विधान बोला. ‘‘पर तुम तो काम करते हो. घर पर इस की देखभाल कौन करेगा,’’ मैं ने पूछा.

‘‘घर में मां, बहन और एक छोटा भाई है.’’ ‘‘इस का खर्चा बहुत है, कर सकोगे?’’

‘‘दूध तो अपने पास बहुत है और मीट भी हम खाते ही हैं.’’ ‘‘इस की दवाइयों और डाक्टर का खर्चा?’’

‘‘आप चिंता न करें,’’ विधान ने मुसकराते हुए कहा. हम दोनों की बातें सुन कर विकी अपने कमरे से भागा आया, ‘‘मां, वह प्यार से फ्लौपी को मांग रहा है. मेरी बात मानो, दे दो इसे. मुझे घर की शांति ज्यादा प्यारी है.’’

सचमुच उस ने फ्लौपी को दोनों हाथों से उठा कर विधान के हाथों में दे दिया. मैं हतप्रभ सी खड़ी बबल के चेहरे पर उतरतेचढ़ते भावों को पढ़ कर बोली, ‘‘विधान, तुम इसे कुछ रोज अपने पास रखो, फिर मैं सोचूंगी.’’

फ्लौपी चला गया तो ऐसा लगा कि घर में कुछ विशेष काम ही नहीं. ‘चलो मुसीबत टली,’ मैं ने सोचा. पर 2 दिन पश्चात ही महसूस होने लगा कि घर का सारा माहौल ही कसैला हो गया है. बच्चे स्कूल से लौटते तो चुपचाप अपनेअपने कमरों में दुबक जाते. न कोई हंसी न खेल. 2 रोज पहले तो फ्लौपी था. बच्चों की आहट पाते ही भौंभौं कर के झूमझूम जाता था और बदले में विकी और बबल के प्रेमरस से सराबोर फिकरे सुनने को मिलते.

उल्लासरहित वातावरण मन को अखरने लगा. जब खाने की मेज पर बच्चे बैठते तो बारबार उस कोने को देख कर ठंडी आहें भरते जहां वह बंधा रहता था. मन एक तीव्र उदासी से लबालब हो उठा. अगली सुबह जब विधान दूध देने आया तो मैं ने फ्लौपी के बारे में पूछताछ की. ‘‘बहुत खुश है, मेमसाहब. मेरी बहन उसे बहुत प्यार करती है,’’ विधान ने बताया.

‘‘कल शाम को उसे मिलाने के लिए जरूर लाना. बच्चे उसे बहुत याद करते हैं.’’ ‘‘अच्छा मेमसाहब, कल शाम 4 बजे उसे जरूर लाऊंगा,’’ वह कुछ सोच कर बोला.

दूसरे दिन 3 बजते ही बच्चे फ्लौपी का बेसब्री से इंतजार करने लगे थे. इतने उत्साहित थे कि अपने मित्रों के साथ नीचे खेलने भी न गए. जरा सी आहट पाते ही मंगला बारबार दरवाजा खोल कर देखती. पहले 4 बजे, फिर 5 बज गए, पर फ्लौपी न आया और न विधान ही दिखाई दिया. हम सब का धैर्य जवाब देने लगा. बबल उदास स्वर में बोला, ‘‘अब वह लड़का फ्लौपी को कभी नहीं लाएगा.’’ ‘‘क्यों?’’ मैं हैरान हो कर बोली.

‘‘उस ने उस पर अपना हक जमा लिया है.’’ ‘‘तो क्या, 2 रोज में ही फ्लौपी विधान का हो गया. मैं कल ही उस से बात करूंगा,’’ विकी क्रोध में बोला.

‘‘कितना महंगा कुत्ता है. कहीं उस ने बेच न दिया हो, मेमसाहब,’’ मंगला ने अपनी शंका व्यक्त की. ‘‘बेच कर तो देखे. हम उस की पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे,’’ विकी ने ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘ऐसा करो बबल, जा कर देख आओ कि सब ठीक है न,’’ इन्हीं बातों में शाम बीत गई पर विधान न आया. ‘‘मां, एक बात कहूं पर डर लगता है,’’ विकी बोला.

‘‘क्या बात है?’’ ‘‘कहीं फ्लौपी का एक्सीडेंट तो नहीं हो गया,’’ उस की बात सुन कर मेरा कलेजा धक से रह गया कि कहीं माशा वाले अंत की पुनरावृत्ति न हो जाए. मुझे तो विधान से यह भी पूछना याद नहीं रहा कि कहीं उस का घर सड़क के किनारे तो नहीं.

अज्ञात आशंका के कारण सारा उत्साह भय में तबदील हो गया. मन एक तीव्र अपराधबोध से भर उठा. एक घुटन सी मेरे भीतर गूंजने लगी. सोचा, जल्दबाजी में सब गड़बड़ हो गया. कुछ दिनों में फ्लौपी अपनेआप ठीक हो जाता. सवेरा होते ही मैं दरवाजे पर टकटकी लगाए विधान की राह देखने लगी. जैसे ही लिफ्ट की आहट हुई, मैं ने झट से किवाड़ खोला, उसे अकेला आया देख कर एक बार तो संशय तनमन को झकझोरने लगा.

‘‘फ्लौपी को क्यों नहीं लाए? सब ठीक तो है न?’’ मैं एकसाथ कई प्रश्न कर उठी. ‘‘कल कुछ मेहमान आ गए थे, मेमसाहब. इसलिए नहीं आ सका. वैसे वह ठीक है.’’

विधान की बात सुन कर मैं एक सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो कर बोली, ‘‘देखो, आज शाम को फ्लौपी को जरूर लाना वरना बच्चे बहुत नाराज होंगे.’’

शाम को 3 बजे जैसे ही बाहर की घंटी बजी, बच्चों ने लपक कर दरवाजा खोला. फ्लौपी हम सब को देखते ही विधान की बांहों से छूट कर मेरी गोद में आ गया. मुख चाटचाट कर, दुम हिलाहिला कर और झूमझूम कर वह अपनी खुशी प्रकट करने लगा. बच्चों का उत्साह से नाचना और खिलखिलाना मुझे बड़ा भला लगा. एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि दीर्घकाल से बिछुड़ा मेरा तीसरा बच्चा मिल गया हो और हमारी ममता भरी छाया में पहुंच गया हो. आधे घंटे बाद जब विधान पुन: फ्लौपी को लेने के लिए आया तो मेरे मुख से बस इतना ही निकला, ‘‘विधान, अब फ्लौपी को यहीं रहने दो, हमारा मन नहीं मानता.’’

Serial Story: रुपहली चमक- भाग 4

तब मैं ने उस की आंखों में गहरी नजर से झांकते हुए पूछा, ‘‘क्या मैं तुम्हारी इस परम सखी पामेला से मिल सकता हूं?’’

अब चौंकने व स्तब्ध रह जाने की बारी सुकेशनी की थी. वह चकित स्वर में बोली, ‘‘तुम क्यों उस से मिलना चाहते हो?’’

‘‘इसलिए कि मेरी अपेक्षा उस के सान्निध्य में तुम अधिक खुश रहती हो और यह मैं स्वयं अपनी आंखों से देख चुका हूं,’’ मैं ने संयत स्वर में कहा.

ऐसा लगा कि उस पर किसी ने घड़ों पानी एकसाथ उड़ेल दिया हो, पर एका- एक उस ने शर्म को उतार कर बेशर्मी का बाना पहन लिया और बोली, ‘‘ओह, तो तुम्हें पता लग गया है, पर इस से क्या…मैं और पाल अच्छे मित्र हैं.’’

अब मैं चीख पड़ा, ‘‘मत बतलाओ मुझे कि वह तुम्हारा मित्र है. मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि इस देश में पले लोगों के मित्र की परिभाषा क्या होती है? यदि ऐसा ही था तो तुम ने कभी उसे घर क्यों नहीं बुलाया? मुझ से क्यों नहीं मिलवाया? मुझे पता है क्योंकि तुम्हारे मन में चोर था, तभी तो उस के साथ सारा दिन स्कूल में व्यतीत करने के पश्चात तुम्हें सप्ताह में 3-4 दिन उस के घर भी मिलने जाना पड़ता था. तुम और पाल अमेरिका जा कर मौज करो और मैं तुम्हारा नाममात्र का पति अपनी नौकरी के साथ इन बच्चों का पालनपोषण करूं. शायद ही इस दुनिया में कोई ऐसा बेगैरत पति होगा जो ऐसा करेगा.’’

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कुछ क्षण ठहर कर मैं फिर बोला था, ‘‘तुम्हें पाल अच्छा लगता है न? तो ठीक है, तुम्हें तुम्हारा पाल, तुम्हारा देश, तुम्हारा सुख मुबारक हो, तुम उस के साथ अमेरिका खुशीखुशी जा सकती हो. पर एक बात ध्यान से सुन लो, हमारे विवाह में तुम्हारे मातापिता ने कन्यादान कर के तुम्हारा दायित्व मुझे सौंपा था.

‘‘यदि तुम मुझ से संतुष्ट व खुश नहीं हो तो मैं तुम्हें मुक्त कर दूंगा. पर इस के पहले तुम पाल के पास जाओ, तुम उसे चाहती हो न? और वह भी तुम्हें चाहता है…तो जाओ और जा कर उस से पूछो कि वह तुम से विवाह करेगा? यदि करेगा तो मैं तुम्हें तलाक दे कर इन बच्चों के साथ सदा के लिए भारत चला जाऊंगा. मैं अपने बच्चों को यहां के खुले व बेशर्म वातावरण में खराब नहीं होने दूंगा. मैं तुम से वादा करता हूं कि भविष्य में मैं कभी भी तुम्हारे रास्ते में नहीं आऊंगा.’’

सुकेशनी मुझे आंखें फाड़े देखती रही. ऐसा लगा कि उसे मुंहमांगी मुराद मिल गई हो. वह भौचक्के स्वर में बोली, ‘‘तो तुम्हें कोई एतराज नहीं है?’’

मैं शांत पर खीजे स्वर में बोला, ‘‘नहीं, 10 लोगों से तुम्हारे बारे में तरह- तरह के किस्से सुनने से तो यही अच्छा होगा कि तुम पाल से विवाह कर लो.’’

सुकेशनी उसी समय पर्स उठा कर बाहर चली गई. उस की आधी बची चाय में से अभी तक थोड़ीथोड़ी भाप निकल रही थी. मेरे संतप्त हृदय का भी यही हाल था. मैं समझ गया कि वह पाल के घर गई है. मैं दोनों बच्चों को साथ ले कर पार्क में चला गया.

मुझे सुखसुविधाओं से संपन्न इस घर से विरक्ति सी हो रही थी. विरक्ति से उत्पन्न घुटन मुझे सांस नहीं लेने दे रही थी. मैं रोना चाहता था, पर बच्चों के सामने रो भी नहीं सकता था. पार्क में ठंडी हवा में टहलने से मन कुछ शांत हुआ. हाथ में हाथ डाले अनेक जोड़े वहां टहल रहे थे, उन्हें देख कर मैं और भी उदास हो गया. तभी एहसास हुआ कि रात घिर आई है और मैं बच्चों को ले कर घर आ गया.

लगभग 10-15 मिनट के बाद ही सुकेशनी के आने की आहट हुई.

मैं सोचने लगा कि वह आ कर खिले हुए मुख से मुझे एक और खुश- खबरी सुनाएगी. मैं उदास व खोयाखोया सा बैठा रहा. वह कमरे में आई, पर उदास, निढाल व थकीथकी सी. मैं अभी भी चुप रहा.

उस चुप्पी को भंग करते हुए सुकेशनी बोली, ‘‘विशेष, मुझे क्षमा कर दो, मैं तुम्हारी अपराधी हूं. मैं तुम से दंड चाहती हूं…वह यह कि तुम मुझे जिंदगी भर के लिए अपने हृदयरूपी पिंजरे में कैद कर लो. पाल मुझे खिलौना समझ कर मुझ से खेल रहा था. विवाह की बात सुनते ही वह साफ इनकार कर गया और बोला, ‘मैं ने तुम से विवाह करने की बात तो कभी सोची भी नहीं, यह बात तुम्हारे दिमाग में आई कैसे? क्या तुम अपने पति व बच्चों को जरा भी नहीं चाहती हो? कैसी औरत हो तुम? जब तुम उन से प्यार नहीं कर सकीं तो मुझ से क्या कर पाओगी?’

‘‘विशेष, मुझे अपनी भयंकर भूल का उसी समय एहसास हो गया. मैं तुम से वादा करती हूं कि ऐसी भूल मैं भविष्य में कभी भी नहीं दोहराऊंगी. मुझे एक और अवसर दे दो, विशेष. मैं ने सोच लिया है कि उस स्कूल से अपना तबादला करवा लूंगी. आज से मैं तुम्हारे व बच्चों के प्रति अपने सभी उत्तरदायित्व पूरी ईमानदारी के साथ निभाऊंगी,’’ कहतेकहते वह हिचकियां ले कर रोते हुए मेरे पैरों पर गिर पड़ी.

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मैं ने उसे बांहों से पकड़ कर उठाते हुए कहा, ‘‘सुकु, तुम एक भयंकर भूल कर रही थीं, पर तुम्हें सही समय पर ही अपनी भूल का एहसास हो गया, यह अच्छी बात है. मैं संकीर्ण विचारधारा का नहीं हूं, पर मेरा यह दृष्टिकोण है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मर्यादा व सीमाओं में रहना चाहिए. फिर भी मैं तुम्हें क्षमा कर रहा हूं और तुम्हारे लिए तुम्हारे द्वारा मांगा दंड ही निर्धारित कर रहा हूं अर्थात जीवन भर तुम्हें अपने हृदयरूपी पिंजरे में कैद रखूंगा. तुम्हारे लिए यह अंतिम अवसर है और मुझे विश्वास है कि तुम अपनी कही बातों का पालन करोगी.’’

दोनों बच्चे वहीं आ गए थे, जिन्हें सुकु ने अपनी बांहों में समेट लिया. आंसू उस की आंखों में झिलमिला रहे थे. बच्चों के चेहरों को देख कर ऐसा लगा कि उन्हें वर्षों बाद अपनी मां मिली हो और मुझे भी एक तरह से उसी दिन अपनी पत्नी मिली थी क्योंकि सुकु की आंखों में बहते हुए आंसुओं में उस का मिथ्या- भिमान, जिद, अहं मुझे साफ बहते दिखाई दे रहे थे.

उसी रात हम दोनों ने यह निर्णय लिया कि अपने मतभेदों को बजाय झगड़ा कर के और बढ़ाने के, बच्चों की अनुपस्थिति में एकसाथ बैठ कर सुलझाएंगे. तभी सुकु ने अनुप्रिया व अनन्य का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो बच्चो, तुम्हें कल स्कूल भी तो जाना है.’’

मैं ने प्रश्नसूचक दृष्टि से सुकु की ओर देखा तो वह बोली, ‘‘विशेष, मैं एक माह की छुट्टी ले लूंगी. मुझे वर्षों से बिखरा घर सहेजना है.’’

मैं कुछ न बोल कर मुसकराता रहा. दोनों बच्चे मेरे दोनों गालों पर स्नेहचिह्न अंकित कर अपनी मां का हाथ पकड़े खुशीखुशी सोने के कमरे में चले गए.

मुझे गहन काले बादलों में रुपहली चमक दृष्टिगोचर हो रही थी. ऐसी चमक, जो सूर्योदय की प्रतीक थी.

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Serial Story: रुपहली चमक- भाग 3

कुछ ही दिनों बाद सुकु को एक स्कूल में नौकरी मिल गई. तब तक मैं शिशुसदन की तलाश भी कर चुका था. मैं और सुकु दोनों बच्चों के साथ वहां पहुंचे. वहां की संचालिका करीब 35 वर्षीय एक अंगरेज स्त्री थी. उस ने कहा कि वह 25 पौंड प्रति सप्ताह लेगी. हम ने उसे अपने बच्चों के बारे में संक्षेप में सबकुछ बताया और यह निश्चित किया कि अगले दिन से साढ़े 8 बजे हम दोनों बच्चों को वहां पहुंचा दिया करेंगे और शाम को वापस ले जाया करेंगे.

घर आ कर सुकु ने दोनों बच्चों की विभिन्न आवश्यकताओं व अनुप्रिया की पसंदनापसंद चीजों की सूची बनाई. बच्चों के सारे सामान के बैग के साथ हम ने बच्चों को दूसरे दिन शिशुसदन पहुंचा दिया. इस प्रकार बच्चों की समस्या का समाधान हो गया था.

सुकु साढ़े 8 बजे दोनों बच्चों को शिशुसदन छोड़ती हुई स्कूल चली जाती थी और लौटते समय उन्हें लेते हुए घर चली आती थी. कुछ माह यों ही व्यतीत हो गए. अनुप्रिया कुछ दुबली लगने लगी थी लेकिन अनन्य का स्वास्थ्य ठीक था.

एक दिन सुकु की अनुपस्थिति में मैं ने अनु से पूछा, ‘‘बेटे अनु, तुम्हें शिशुसदन में रहना अच्छा नहीं लगता है क्या?’’

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वह पलकें झपकाते हुए मासूमियत भरे स्वर में बोली, ‘‘पिताजी, यदि मैं कहूं कि मुझे वहां अच्छा नहीं लगता तो क्या मां नौकरी छोड़ देंगी?’’

छोटी सी बच्ची की इस तर्कसंगत बात को सुन कर मैं खामोश हो गया. उस दिन मैं ने मन में सोचा कि जो उम्र बच्चों को मां के साथ अपने परिवार में गुजारनी चाहिए, वह उम्र उन्हें एक नितांत ही अनजान स्त्री व परिवार के साथ व्यतीत करनी पड़ रही है.

परंतु सुकु के पास यह सब सोचने- समझने का समय नहीं था. वह तो स्वयं को शतप्रतिशत सही समझती थी. शीघ्र ही उस ने कार ले ली. मैं अब भी बस से फैक्टरी जाता था.

देखतेदेखते 3 वर्ष व्यतीत हो गए. इस अंतराल में हमारे मध्य सैकड़ों बार झगड़े हुए थे. अनु अब प्राथमिक स्कूल व अनन्य नर्सरी स्कूल में जाता था. अब दोनों बच्चों को हम दूसरे शिशुसदन में भेजने लगे थे.

जब से बच्चे नए शिशुसदन में जाने लगे थे तब से सुकु के आने के समय में मैं ने आधे घंटे का अंतर लक्ष्य करना आरंभ किया था. एक दिन मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम आजकल समय से नहीं आती हो, कहां रह जाती हो?’’

उस ने उत्तर दिया, ‘‘कभीकभी स्कूल के पास रहने वाली पामेला के घर चली जाती हूं. वह मेरी अच्छी मित्र है, चाय के लिए खींच कर ले जाती है.’’

उस समय तो मैं कुछ न बोला पर मेरे चेहरे के भाव छिप न सके थे. परंतु मुझे सप्ताह में कभी 2 तो कभी 3 दिन उस का देर से आना जरा भी न भाया था. मैं झगड़े की वजह से चुप था क्योंकि बच्चे भी समझदार हो चले थे और मैं नहीं चाहता था कि वे मातापिता के झगड़ों के प्रत्यक्ष गवाह बनें. अत: मैं खून के घूंट पी कर रह जाता.

एक दिन मेरे एक भारतीय मित्र अभिन्न ने बताया, ‘‘विशेष, तुम्हारी पत्नी तो मेरी गली में रहने वाले पाल के घर अकसर ही आती है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘भई, मैं भाभीजी व कार दोनों को ही पहचानता हूं,’’ वह धीरे से बोला.

फिर मैं ने स्वयं को सांत्वना देते हुए सोचा कि पामेला शायद पाल की पत्नी होगी. पर नहीं, मेरा यह अनुमान भी गलत निकला. मेरे उसी मित्र ने फिर बताया कि पाल अविवाहित है. अब मेरे लिए काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई. किसी पति के लिए इस से अधिक शर्मनाक बात भला और क्या होगी कि उसे अपनी पत्नी के गलत आचरण की सूचना किसी तीसरे से मिले.

दूसरे दिन मैं रोज की तरह फैक्टरी गया, पर काम में मन नहीं लगा. अत: 11 बजे मैं ने अपने मैनेजर से अस्वस्थ होने की बात कह कर उस दिन का अवकाश मांगा और सीधे सुकु के स्कूल में पहुंचा. मैं पहली बार वहां गया था. अत: पहचाने जाने का भय भी नहीं था. मैं ने एक कर्मचारी से पाल के बारे में पूछा तो उस ने कैंटीन की ओर इशारा किया. मैं वहां पहुंचा तो देखा कि पाल और सुकेशनी अगलबगल बैठे हुए कौफी की चुसकियां ले रहे हैं और जोरजोर से हंस रहे हैं.

लंबे कद का गोल चेहरे व नीली आंखों वाला लगभग 35 वर्षीय अंगरेज युवक पाल ठहाके लगाता हुआ बीचबीच में सुकु के कंधों को दबाना नहीं भूलता था, ‘जब यहां अर्थात सार्वजनिक स्थल पर यह हाल है तो अपने घर पर न जाने क्या करता होगा?’ यह सोचते ही सुकेशनी के प्रति इतनी घृणा हुई कि इच्छा हुई, उसी क्षण अपनी दुश्चरित्र पत्नी के मुंह पर थूक दूं. परंतु वहां पर मैं ने कोई दृश्य उपस्थित करना उचित न समझा और सीधे घर लौट आया.

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उस दिन प्रथम बार मुझे विदेश आने पर पछतावा हो रहा था. इस इच्छा के कारण मैं ने अपने मातापिता के अनमोल प्यार को धूल बराबर भी महत्त्व नहीं दिया था. संभवत: इसी का दंड मुझे मिल रहा था. मेरे हिस्से का प्यार किसी और को मिल रहा था. मेरी पत्नी ने मुझे तो निरा बेवकूफ समझा था. मैं विश्वास की डोर थामे न जाने कब तक बैठा रहता यदि मेरे मित्र अभिन्न ने मेरे हाथ से वह डोर झटक कर यथार्थ का दर्शन न कराया होता.

आज मैं अपना मनोविश्लेषण कर रहा था, सोच रहा था कि मनुष्य कभीकभी अपनी अदम्य आकांक्षाओं के समक्ष किस हद तक स्वार्थी व लोभी हो जाता है. मैं विदेश आना चाहता था. यह जानते हुए भी कि मैं अपने मातापिता की एकमात्र संतान हूं और मेरे विदेश जाने से ये लोग कितने अकेले पड़ जाएंगे, उन्हें संतान सुख से वंचित हो जाना पड़ेगा. फिर भी मैं ने आगापीछा सोचे बगैर विदेश गमन की इस अदम्य लालसा के समक्ष स्वयं को इस तरह समर्पित कर दिया, जैसे मातापिता से कभी मेरा कोई संबंध ही न रहा हो. यह क्या मेरी भयंकर भूल न थी?

मेरे पिता इतने अच्छे पद पर कार्यरत थे. क्या मेरे लिए योग्य लड़की खोजना उन के लिए असंभव था? मेरे मातापिता अपने पोतापोती का मुंह देखने को तरस गए और मैं ने कुछ फोटो भेज कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली. उस दिन पहली बार मेरे अंतर्मन ने मुझे अपने मातापिता का अपराधी सिद्ध कर दिया. उस ने मुझे बारबार धिक्कारा.

मेरे मातापिता ने मुझे भलीभांति पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि मैं अपने जीवन से उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की भांति निकाल फेंकूं? उस दिन मुझे उन के दुख का अनुमान हो रहा था, वह भी इसलिए कि मुझे भी मेरी पत्नी ने दूध में पड़ी मक्खी की भांति अपने जीवन से निकाल बाहर फेंका था. दूसरे की स्थिति का भान तो तभी होता है, जब स्वयं उस स्थिति को भोगना पड़े.

शाम को बच्चों को ले कर सुकेशनी घर आई. कपड़े बदल कर अनु व अनन्य टेलीविजन देखने लगे. मैं वहीं बैठा रहा. तभी सुकु भी कपड़े बदल कर आई व चाय के लिए पूछने लगी, ‘नहीं’ का संक्षिप्त उत्तर पा कर वह स्वयं के लिए चाय बनाने चली गई.

थोड़ी देर बाद चाय का प्याला हाथ में लिए हुए वह आई और बोली, ‘‘विशेष, बढि़या खबर सुनो, मैं स्कूल की ओर से 2 वर्ष के प्रशिक्षण हेतु अमेरिका जा रही हूं.’’ मैं समझ गया कि मुझ से पूछा नहीं बल्कि बताया जा रहा है.

मैं ने पूछा, ‘‘और बच्चों का क्या होगा?’’

‘‘बच्चे केवल मेरे नहीं, तुम्हारे भी हैं और उन्हें साथ ले जाने का कोई औचित्य भी नहीं है.’’

तब मैं ने शांत स्वर में ही पूछा, ‘‘तुम्हारे साथ और कौनकौन जा रहा है?’’

‘‘मेरे ही स्कूल के कुछ लोग.’’

‘‘अच्छा…तो एक बात बताओ, उन कुछ लोगों में पामेला भी है?’’

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एक क्षण के लिए सुकेशनी का चेहरा फक पड़ गया. ऐसा प्रतीत हुआ कि उसे आभास हो गया है कि मुझे उस की तथाकथित सखी पामेला के विषय में सबकुछ ज्ञात हो गया है. फिर भी वह सकपकाए स्वर में बोली, ‘‘हां.’’

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Serial Story: रुपहली चमक- भाग 2

देखतेदेखते 1 वर्ष बीत गया था. एकाएक ऐसा लगा जैसे मुझे किसी ने खाई में गिराना चाहा हो. हड़बड़ा कर मैं ने देखा, सामने सुकु खड़ी थी. वह मुझे हिलाहिला कर पूछ रही थी, ‘‘विशेष, कहां खो गए?’’

एकाएक मैं अतीत से वर्तमान में आ गया.

‘‘विशेष, तुम्हें पिताजी बुला रहे हैं,’’ मैं सुकु के साथ ही उस के पिता के अध्ययन कक्ष में पहुंचा तो वे बोले, ‘‘बेटा विशेष, मैं ने तुम्हारे लिए बरमिंघम शहर में एक नौकरी का प्रबंध किया है, तुम्हें साक्षात्कार हेतु बुलाया गया है.’’

मैं ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया, ‘‘पर पिताजी, मैं तो अभी आगे पढ़ना चाहता हूं…’’

वे बात काटते हुए बोले, ‘‘बेटे, यहां के हालात दिनप्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं. यहां पर काम मिलना मुश्किल होता जा रहा है. वह तो कहो कि उस फैक्टरी के मालिक मेरे मित्र हैं. अत: तुम्हें बगैर किसी अनुभव के ही काम मिल रहा है. मेरा कहा मानो, तुम बरमिंघम जा कर साक्षात्कार दे ही डालो. रही पढ़ाई की बात, तो बेटे, तुम्हारे सामने अभी पूरा जीवन पड़ा है. पढ़ लेना, जितना चाहो.’’

मुझे उन की बात में तर्क व अनुभव दोनों ही दृष्टिगोचर हुए. अत: मैं उन की बात मानते हुए निश्चित दिन साक्षात्कार हेतु बरमिंघम चला गया.

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यह डब्बाबंद खाद्य पदार्थ बनाने वाली एक बड़ी फैक्टरी थी. साक्षात्कार के बाद ही मुझे पता चल गया कि मुझे यहां नौकरी मिल गई है. मैं प्रसन्न मन से लंदन पहुंचा व सब को यह खुशखबरी बता डाली.

सुकु के मातापिता निश्चिंत हो गए कि दामाद आत्मनिर्भर होने जा रहा है और सुकु इस बात से बड़ी प्रसन्न हुई कि अन्य लड़कियों की भांति वह भी अब अपना अलग घर बनाने व सजाने जा रही है. ससुरजी ने हमारे साथ जा कर किराए के फ्लैट व अन्य आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध कर दिया. हम फ्लैट में रहने के लिए भी आ गए. हमें व्यवस्थित होता देख कर मेरे ससुर एक हफ्ते के पश्चात लंदन वापस चले गए.

हम दोनों बड़े ही उत्साहित और खुश थे. सुकु घर को सजाने की नवीन योजनाएं बनाने लगी. पर उन योजनाओं में मां बनने की योजना भी सम्मिलित रही, यह मुझे बाद में पता चला. 9 माह के पश्चात मैं एक फूल सी कोमल व अत्यंत सुंदर बच्ची का पिता बन गया.

सुकु की मां 2 माह पूर्व ही सब संभालने आ गई थीं. इधर मैं ने भी कार चलाना सीखना आरंभ किया हुआ था. आशा थी कि ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त होते ही कोई बढि़या हालत की पुरानी कार खरीद लूंगा. पर बच्ची के आ जाने से खर्चे कुछ ऐसे बढ़े कि मुझे कार खरीदने की बात को फिलहाल कुछ समय तक भूल जाना पड़ा. बच्ची का नाम हम ने अनुप्रिया रखा था.

समय अपनी गति से बीतता जा रहा था. अनुप्रिया के प्रथम जन्मदिन पर मैं ने ढाई हजार पौंड की एक पुरानी कार खरीद ली थी. 2-3 माह बाद ही एक दिन सुकु ने अपने दोबारा गर्भवती होने की सूचना मुझे दी तो मैं अचंभित रह गया. परंतु सुकु ने समझाया, ‘‘देखो, यदि परिवार जल्दी ही पूर्ण हो जाए तो बुराई क्या है? 2 बच्चे हो जाएं तो मैं भी जल्दी मुक्त हो जाऊंगी व नौकरी कर सकूंगी.’’

मैं पुन: अपने कार्यों में व्यस्त हो गया. कहना आवश्यक न होगा कि मुझे घर के सभी कार्यों में सुकु की सहायता अंगरेज पतियों की भांति करनी पड़ती थी. यहां तक तो ठीक था, पर मुझे एक बात बहुत खलती थी और वह थी सुकु की तेज जबान व दबंग स्वभाव. मुझ से दबने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, इस के विपरीत वह मुझ पर पूर्ण रूप से हावी हो जाना चाहती थी. यहां पर मैं समझौता करने को तैयार न था. फलस्वरूप घर में झगड़े होते रहते थे.

इन्हीं झगड़ों के मध्य सुकु ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया. मेरी सास इस बार भी यहीं पर थीं. नाती पा कर वह निहाल हो गई थीं. मैं ने अपने घर के लिए अनुप्रिया के साथ अनन्य की फोटो खींच कर पत्र व फोटो अपने मातापिता को भेज दी थी कि वे भी अपने पोते की खबर से खुश होंगे.

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2 बच्चों की वजह से हमारे खर्चे बहुत बढ़ रहे थे. इस देश में जहां आमदनी अच्छी थी, वहां महंगाई भी बहुत अधिक थी. बच्चों का पालनपोषण यहां बहुत महंगा पड़ता है. अत: मैं ने कार पर होने वाले खर्चे को बचाने के लिए अपनी कार 2 हजार पौंड में बेच दी. यह बात सुकु को बहुत बुरी लगी क्योंकि उसे अब खरीदारी करने के लिए टैक्सी और बसों पर निर्भर रहना पड़ता था. कार बिकने के परिणामस्वरूप प्राप्त 2 हजार पौंड को मैं ने बैंक में जमा कर दिया था. मैं फैक्टरी बस से चला जाता था. कार के रखरखाव व पैट्रोल पर होने वाले खर्चे अब बचने लगे थे.

अनुप्रिया ढाई वर्ष की तथा अनन्य 3 माह का हो चला था कि मुझे पता चला कि सुकु नौकरी की तलाश कर रही है. मैं ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा, ‘‘तुम नौकरी करोगी तो बच्चों को कौन संभालेगा?’’

वह चिढ़े हुए स्वर में फुफकारते हुए बोली, ‘‘अच्छा…तो तुम चाहते हो कि इन बच्चों को संभालने के लिए मैं दिनरात घर में ही घुसी रहूं? इन के लिए तुम्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है, किसी अच्छे शिशुसदन में इन का प्रबंध भी हो जाएगा.’’

मैं ने उत्तेजित हो कर पूछा, ‘‘तो क्या तुम दृढ़ निश्चय कर चुकी हो कि नौकरी अवश्य करोगी?’’

तब वह धीरे से बोली, ‘‘हां, विशेष, हमें कार की आवश्यकता है, उस के बिना हमारा काम कैसे चलेगा?’’

तब मैं ने कहा, ‘‘हमारा न कह कर केवल ‘अपना’ काम कहो. बच्चों की देखभाल का उत्तरदायित्व तुम्हें बोझ लग रहा है. कार की आवश्यकता के आगे तुम बच्चों की आवश्यकताओं के महत्त्व को नकार रही हो. यदि ऐसा ही था तो मां बनने का शौक क्यों पाला था?’’

पर मेरी इन बातों को अनसुनी सी करती हुई वह ऊपर सोने के कमरे में चली गई और मैं सोचता रहा, यह कैसी नारी है जो भौतिक साधनों के समक्ष अपने ही बच्चों की उपेक्षा कर रही है.

अनन्य सिर्फ 3 माह का है, उसे मां की आवश्यकता है. यह उसे शिशुसदन के भरोसे छोड़ कर नौकरी करना चाहती है. क्या 2-3 वर्ष और प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी?

अंत में सुकु की अनुपस्थिति में मैं ने उस के पिता को फोन किया व परिस्थितियों से अवगत करा दिया. सुन कर वे बोले, ‘‘विशेष, सुकेशनी तो आरंभ से ही बहुत जिद्दी है, वह सदा से मनमानी करती आई है. यदि उस ने अपने मन में नौकरी करने की ठान ली है तो वह नौकरी कर के ही मानेगी. अत: बजाय घर में झगड़ा कर के घर का वातावरण विषमय बनाओ, अच्छा यह होगा कि अभी से किसी अच्छे शिशुसदन की तलाश जारी कर दो.’’

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मैं सुकु के पिता की बहुत इज्जत करता था. अत: उन की बात को मान कर किसी अच्छे शिशुसदन की तलाश में लग गया.

आगे पढ़ें- कुछ ही दिनों बाद सुकु को…

Serial Story: रुपहली चमक- भाग 1

उस दिन सुबह से ही आसमान पर बादल छाए हुए थे और सदा की भांति मुझे उदास कर गए थे, न जाने क्यों ये बादल मेरे मन के अंधेरों को और भी अधिक गहन कर देते हैं और तब आरंभ हो जाता है मेरे भीतर का द्वंद्व. इस अंतर्द्वंद्व में मैं कभी विजयी हुआ हूं तो कभी बुरी तरह पराजित भी हुआ हूं.

मैं आत्मविश्लेषण करते हुए कभी तो स्वयं को दोषी पाता हूं तो कभी बिलकुल निर्दोष. सोचता हूं, दुनिया में और भी तो लोग हैं. सब के सब बड़े संतुष्ट प्रतीत होते हैं या फिर यह मेरा भ्रम मात्र है अर्थात सब मेरी ही तरह सुखी होने का ढोंग रचाते होंगे. खैर, जो भी हो, मैं उस दिन उदास था. उस उदासी के दौर में मुझे अपनी ममताभरी मां बहुत याद आईं.

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में मेरे घर में सभी सुखसुविधाएं मौजूद थीं. पिता अच्छे पद पर कार्यरत थे. मैं अपने मातापिता की एकमात्र संतान था. न जाने क्यों, कब और कैसे विदेश देखने तथा वहीं बसने की इच्छा मन में उत्पन्न हो गई. मित्रों के मुख से जब कभी अमेरिका, इंगलैंड में बसे हुए उन के संबंधियों के बारे में सुनता तो मेरी यह इच्छा प्रबल हो उठती थी. मां तो कभी भी नहीं चाहती थीं कि मैं विदेश जाऊं क्योंकि लेदे कर उन का एकमात्र चिराग मैं ही तो था.

एक दिन कालेज में मेरे साथ बी.एससी. में पढ़ने वाले मित्र सुरेश ने मुझे बताया कि उस के इंगलैंड में बसे हुए मौसाजी का पत्र आया है. वे अपनी एकमात्र पुत्री सुकेशनी के लिए भारत के किसी पढ़ेलिखे लड़के को इंगलैंड बुलाना चाहते हैं. वहां और मित्र भी बैठे हुए थे. मैं ने बात ही बात में पूछ लिया, ‘‘सुरेश, तुम्हारी बहन सुकेशनी है कैसी?’’

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सुनते ही सुरेश ठहाका लगाते हुए बोला, ‘‘क्यों, तू शादी करेगा उस से?’’

उस का यह कहना था कि सभी मित्र खिलखिला कर हंस पड़े. मैं झेंप कर पुस्तकालय की ओर बढ़ गया. उन सब के ठहाके वहां तक भी मेरा पीछा करते रहे.

उस के कुछ दिन पश्चात मैं किसी आवश्यक काम से सुरेश के घर गया हुआ था. उस के मातापिता भी घर पर थे. हम सभी ने एकसाथ चाय पी. तभी सुरेश के पिता ने पूछा, ‘‘विशेष, तुम बी.एससी. के बाद क्या रोगे?’’

‘‘जी, चाचाजी, मैं एम.एससी. में प्रवेश लूंगा. मेरे मातापिता भी यही चाहते हैं.’’

तभी सुरेश की मां ने मुसकराते हुए पूछ लिया, ‘‘सुरेश कह रहा था कि तुम विदेश जाने के बड़े इच्छुक हो. अपनी बहन की लड़की के लिए हमें अच्छा पढ़ालिखा लड़का चाहिए. तुम्हें व तुम्हारे परिवार को हम लोग भलीभांति जानते हैं, कहो तो तुम्हारे लिए बात चलाएं?’’

मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘जी, आप मेरे मातापिता से बात कर लें,’’ मैं उन्हें नमस्ते कह कर बाहर निकल गया.

अगले रविवार को सुरेश के माता- पिता हमारे घर आए. मैं ने मां को पहले ही सब बता दिया था. मां तो वैसे भी मेरी इस इच्छा को मेरा पागलपन ही समझती थीं लेकिन इस रिश्ते की बात सुन कर वे बौखला सी गईं जबकि पिताजी तटस्थ थे. न जाने क्यों? यह मुझे ज्ञात नहीं था. परंतु मां पर तो मानो वज्र ही गिर पड़ा. हम सभी ने एकसाथ नाश्ता किया. उन लोगों ने अपना प्रस्ताव रख दिया था.

सुन कर मां बोलीं, ‘‘बहनजी, एक ही तो बेटा है हमारा, वह भी हम से दूर चला जाएगा तो यह हम कैसे सह पाएंगे?’’

सुरेश की मां बोलीं, ‘‘बहनजी, सहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. भाई साहब की अवकाशप्राप्ति के पश्चात आप लोग भी वहीं बस जाइएगा.’’

मैं ने पिताजी के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुसकराहट सहज ही देख ली थी. वे बोले, ‘‘बहनजी, आप हमारी चिंता छोड़ दीजिए. आप बात चलाइए, मैं विशेष की एक फोटो आप को दे रहा हूं.’’

फोटो की बात चलने पर सुरेश की मां ने भी सुकेशनी की एक रंगीन फोटो हमारे सामने रख दी. लड़की बहुत सुंदर तो नहीं थी पर ऐसी अनाकर्षक भी नहीं थी. फिर मैं ने भला कब अपने लिए अद्वितीय सुंदरी की कामना की थी. मेरे लिए तो यह साधारण सी लड़की ही विश्वसुंदरी से कम न थी क्योंकि इसी की बदौलत तो मेरी वर्षों से सहेजी मनोकामना पूर्ण होने जा रही थी.

बात चलाई गई और सुरेश के मौसामौसी अपनी पुत्री सहित एक माह के उपरांत ही भारत आ गए. मुझे तो उन लोगों ने फोटो देख कर ही पसंद कर लिया था.

बड़ी धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. सुकेशनी फोटो की अपेक्षा कुछ अच्छी थी, पर रिश्तेदार दबी जबान से कहते सुने गए कि राजकुमार जैसा सुंदर लड़का अपने जोड़ की पत्नी न पा सका.

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पिताजी ने मेरा पारपत्र दौड़धूप कर के बनवा लिया था व वीजा के लिए प्रयत्न सुकेशनी के पिता अर्थात मेरे ससुर कर रहे थे. चूंकि सुकेशनी इंगलैंड में ही जन्मी थी, अत: वीजा मिलने में भी अधिक परेशानी नहीं हुई. शादी के 1 माह पश्चात ही मुझे सदा के लिए अपनी पत्नी के घर जाने हेतु विदा हो जाना था. लोग तो बेटी की विदाई पर आंसू बहाए जा रहे थे. मां बराबर रोए जा रही थीं परंतु अपनी जननी के आंसू भी मुझे विचलित न कर सके. निश्चित दिन मैं भारत से इंगलैंड के लिए रवाना हुआ.

हवाई जहाज में मेरे समीप बैठी मेरी पत्नी शरमाईसकुचाई ही रही परंतु जब हम लंदन स्थित अपने घर पहुंचे तो सुकेशनी ने साड़ी ऐसे उतार फेंकी, जैसे लोग केले का छिलका फेंकते हैं. मैं क्षण भर के लिए हतप्रभ रह गया. उस ने चिपकी हुई जींस व बिना बांहों वाला ब्लाउज पहना तो ऐसा लगा कि अब वह अपने वास्तविक रूप में वापस आई है, मानो अभी तक तो वह अभिनय ही कर रही थी. एक क्षण के लिए मेरे मन के अंदर यह विचार कौंध गया कि कहीं इस ने शादी को भी अभिनय ही तो नहीं समझ लिया है. पर बाद में लगा कि 22 वर्षीय युवती शादी को मजाक तो कदापि न समझेगी.

कान्वेंट स्कूल में आरंभ से ही पढ़े होने के कारण भाषा की समस्या तो मेरे लिए बिलकुल ही न थी. भारत में अटकअटक कर हिंदी बोलने वाली सुकेशनी, जिसे मैं प्यार से सुकू कहने लगा था, केवल अंगरेजी ही बोलती थी. यहां पर आधुनिक सुखसुविधाओं से संपन्न घर मुझे कुछ दिनों तक तो असीम सुख का एहसास दिलाता रहा. सुकु जब फर्राटेदार अंगरेजी बोलती हुई मेरे कंधों पर हाथ मारते हुए बेशरमी से हंसती तो मेरे सासससुर मानो निहाल हो जाते. परंतु मैं आखिरकार था तो भारतीय सभ्यता व संस्कृति की मिट्टी में ही उपजा पौधा, इसलिए मुझे यह सब बड़ा अजीब सा लगता था, पर विदेश में बसने की इच्छा के समक्ष मैं ने इन बातों को अधिक महत्त्व देना उचित न समझा.

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Women’s Day Special: जरूरी हैं दूरियां, पास आने के लिए

लेखिका- डा. मंजरी चतुर्वेदी

फ्लाइट बैंगलुरु पहुंचने ही वाली थी, विहान पूरे रास्ते किसी कठिन फैसले को लेने में उलझा हुआ था, इसी बीच मोबाइल पर आते उस नंबर को भी वह लगातार इग्नोर करता रहा.

अब नहीं सींच सकता था वो प्यार के उस पौधे को, उस का मुरझा जाना ही बेहतर है. इसलिए जितना मुमकिन हो सका, उस ने मिशिका को अपनी फोन मैमोरी से रिमूव कर दिया. मुमकिन नहीं था यादों को मिटाना, नहीं तो आज वो उसे दिल की मैमोरी से भी डिलीट कर देता सदा के लिए.

‘‘सदा के लिए… नहींनहीं… हमेशा के लिए नहीं, मैं मिशी को एक मौका और दूंगा,‘‘ विहान मिशी के दूर होने के खयाल से ही डर गया.

‘‘शायद, ये दूरियां ही हमें पास ले आएं,‘‘ बस यही सोच कर उस ने मिशी की लास्ट फोटो भी डिलीट कर दी.

इधर मिशिका परेशान हो गई थी, 5 दिन से विहान से कोई कौंटेक्ट नहीं हुआ था.

‘‘हैलो दी, विहान से बात हुई क्या? उस का ना मोबाइल फोन लग रहा है और ना ही कोई मैसेज पहुंच रहा है. औफिस में एक दिक्कत आ गई है. जरूरी बात करनी है,‘‘ मिशी बिना रुके बोलती गई.

‘‘नहीं, मेरी कोई बात नहीं हुई, और दिक्कत को खुद ही सुलटाना सीखो,‘‘ पूजा ने इतना कह कर फोन काट दिया.

मिशी को दी का ये रवैया अच्छा नहीं लगा, पर वह बेपरवाह सी तो हमेशा से ही थीं तो उस ने दी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.

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मिशिका (मिशी) मुंबई में एक कंपनी में जौब करती है. उस की बड़ी बहन है पूजा, जो अपने मौमडैड के साथ रहते हुए कालेज में पढ़ाती है. विहान ने अभी बैंगलुरु में नई मल्टीनेशनल कंपनी ज्वाइन की है, उस की बहन संजना अभी स्टडी कर रही है. मिशी और विहान के परिवारों में बड़ा प्रेम है. वे पड़ोसी थे. विहान का घर मिशी के घर से कुछ ही दूरी पर था. दो परिवार होते हुए भी वे एक परिवार जैसे ही थे. चारों बच्चे साथसाथ बड़े हुए.

गुजरते दिनों के साथ मिशी की बेपरवाही कम होने लगी थी. विहान से बात न हुए आज पूरे 3 महीने बीत गए थे. मिशी को खालीपन लगने लगा था. बचपन से अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. जब पास थे तो वे दिन में कितनी ही बार मिलते थे, और जब जौब के कारण दूर हुए तो फोन और चैट का हिसाब लगाना भी आसान काम न था.

2-3 महीने गुजरने के बाद मिशी को विहान की बहुत याद सताने लगी थी. वह जब भी घर पर फोन करती, तो मम्मीपापा, दीदी सभी से विहान के बारे में पूछती, आंटीअंकल से बात होती, तब भी… जवाब एक ही मिलता…वह तो ठीक है, पर तुम दोनों की बात नहीं हुई, ये कैसे मुमकिन है. अकसर जब मिशी कहती कि महीनों से बात नहीं हुई, तो सब झूठ ही समझते थे.

दशहरा आ रहा था, मिशी जितनी खुश घर जाने को थी, उस से कहीं ज्यादा खुश यह सोच कर थी कि अब विहान से मुलाकात होगी. इन छुट्टियों में वह भी तो आएगा.

‘‘बहुत झगड़ा करूंगी, पूछूंगी उस से, ये क्या बचपना है, अच्छी खबर लूंगी, क्या समझता है अपनेआप को… ऐसे कोई करता है क्या?‘‘ ऐसे ही अनगिनत बातों को दिल में समेटे वह घर पहुंची. त्योहार की रौनक मिशी की उदासी कम ना कर सकी. छुट्टियां खत्म हो गईं. वापसी का समय आ गया, पर नहीं आया तो वह, जिस का मिशी बेसब्री से इंतजार कर रही थी. दोनों घरों की दूरियां नापते मिशी को दिल की दूरियों का अहसास होने लगा था. अब इंतजार के अलावा उस के पास कोई रास्ता नहीं था.

मिशी दीवाली की शाम ही घर पहुंच पाई थी. लक्ष्मी पूजन के बाद डिनर की तैयारियां चल रही थीं. त्योहारों पर दोनों फैमिली साथ ही समय बिताती गपशप, मस्ती, खाना, सब खूब ऐंजौय करते थे.

आज विहान की फैमिली आने वाली थी. मिशी खुशी से झूम उठी थी. आज तो विहान से बात हो ही जाएगी. पर उस रात जो हुआ उस का मिशी को अंदाजा भी नहीं था. दोनों परिवारों ने सहमति से पूजा और विहान का रिश्ता तय कर दिया. मिशी को छोड़ सभी बहुत खुश थे.

‘‘पर, मैं खुश क्यों नहीं हूं, क्या मैं विहान से प्यार… नहींनहीं, हम तो बस बचपन के साथी हैं. इस से ज््यादा तो कुछ नहीं है, फिर मैं आजकल विहान को ले कर इतना क्यों परेशान रहती हूं. उस से बात न होने से मुझे ये क्या हो रहा है? क्या मैं अपनी ही फीलिंग्स समझ नहीं पा रही हूं…?‘‘

इसी उधेड़बुन में रात आंखों में ही बीत गई थी. किसी से कुछ शेयर किए बिना ही वह वापस मुंबई लौट गई.

दिन यों ही बीत रहे थे, पूजा की शादी के बारे में न घर वालों ने आगे कुछ बताया और न ही मिशी ने पूछा.
एक दिन दोपहर को मिशी को काल आया, ‘‘घर की लोकेशन भेजो, डिनर साथ ही करेंगे.‘‘

मिशी ‘करती हूं’ के अलावा कुछ ना बोल सकी. उस के चेहरे पर मुसकान बिखर गई थी, उस रोज वह औफिस से जल्दी घर पहुंची, खाना बना कर, घर संवारा और खुद को संवारने में जुट गई, ‘‘मैं विहान के लिए ऐसे क्यों संवर रही हूं, इस से पहले तो कभी मैं ने इस तरह नहीं सोचा… ‘‘ उस को खुद पर हंसी आ गई, अपने ही सिर पर धीरे से चपत लगा कर वह विहान के इंतजार में भीतरबाहर होने लगी. उसे लग रहा था, जैसे वक्त थम गया हो, वक्त काटना मुश्किल हो रहा था.

शाम के लगभग 8 बजे बेल बजी. मिशी की सांसें ऊपरनीचे हो गईं. शरीर ठंडा सा लगने लगा. होंठों पर मुसकराहट तैर गई. दरवाजा खोला, पूरे 10 महीने बाद विहान उस के सामने था. एक पल को वह उसे देखती ही रही, दिल की बेचैनी आंखों से निकलने को उतावली हो उठी.

विहान भी लंबे समय बाद अपनी मिशी से मिल उसे देखता ही रह गया.फिर मिशी ने ही किसी तरह संभलते हुए विहान को अंदर आने के लिए कहा. मिशी की आवाज सुन विहान अपनी सुध में वापस आया. दोनों देर तक चुप बैठे, छुपछुप कर एकदूसरे को देख लेते, नजरें मिल जाने पर यहांवहां देखने लगते. दोनों ही कोशिश में थे कि उन की चोरी पकड़ी न जाए.

डिनर करने के बाद जल्दी ही फिर मिलने की कह कर विहान वापस चला गया.

उस रात वह विहान से कोई सवाल नहीं कर सकी थी, जितना विहान पूछता रहा, वह उतना ही जवाब देती गई. वह खोई रही, विहान को इतने दिनों बाद अपने करीब पा कर, जैसे जी उठी थी वह उस रात…

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विहान एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था… 15 दिन बीत चुके थे, इन 15 दिनों में विहान और मिशी दो ही बार मिले.

विहान का काम पूरा हो चुका था, 1 दिन बाद उस को निकलना था. मिशी विहान को ले कर बहुत परेशान थी. आखिर उस ने निर्णय लिया कि विहान के जाने के पहले वह उस से बात करेंगी… पूछेगी उस की बेरुखी की वजह… मिशी अभी उधेड़बुन में थी, तभी मोबाइल बज उठा… विहान का था…
‘‘हेलो, मिशी औफिस के बाद तैयार रहना… बाहर चलना है, तुम्हें किसी से मिलवाना है.‘‘

‘‘किस से मिलवाना है, विहान.‘‘

‘‘शाम होने तो दो, पता चल जाएगा.‘‘

‘‘बताओ तो…‘‘

‘‘समझ लो, मेरी गर्लफ्रैंड है.‘‘

इतना सुनते ही मिशी चुप हो गई. 6 बजे विहान ने उसे पिक किया. मिशी बहुत उदास थी. दिल में हजारों सवाल उमड़घुमड़ रहे थे. वह कहना चाहती थी, विहान तुम्हारी शादी पूजा दी से होने वाली है, ये क्या तमाशा है. पर नहीं कह सकी, चुपचाप बैठी रही.

‘‘पूछोगी नहीं, कौन है?’’ विहान ने कहा.

‘‘पूछ कर क्या करना है? मिल ही लूंगी कुछ देर में,‘‘ मिशी ने धीरे से कहा.
थोड़ी देर बाद वे समुद्र किनारे पहंुचे. विहान ने मिशी को एक जगह इंतजार करने को कहा, ‘‘ तुम यहां रुको, मैं उस को ले कर आता हूं.‘‘

आसमान झिलमिलाते तारों की सुंदर बूटियों से सजा था. समुद्र की लहरें प्रकृति का मनभावन संगीत फिजाओं में घोल रही थीं. हवा मंथर गति से बह रही थी, फिर भी मिशिका का मन उदासी के भंवर में फंसा जा रहा था.

‘‘विहान मुझ से दूर हो जाएगा, मेरा विहान,‘‘ सोचतेसोचते उस की उंगलियां खुद बा खुद रेत पर विहान का नाम उकेरने लगीं.

‘‘विहान… मेरा नाम इस से पहले इतना अच्छा कभी नहीं लगा,‘‘ विहान पीछे से खड़ेखड़े ही बोला.

मिशी ने हड़बड़ाहट में नाम पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कहां…. है, कब आए तुम… कहां है वह?‘‘

मिशी की आंखें उस लड़की को ढूंढ़ रही थीं, जिसे मिलवाने के लिए विहान उसे यहां ले कर आया था.

‘‘नाराज हो कर चली गई वह,‘‘ मिशी के पास बैठते हुए विहान ने कहा.

‘‘नाराज हो गई, पर क्यों?‘‘ मिशी ने पूछा.

‘‘अरे वाह, मैं जिसे प्रपोज करने वाला हूं, वह लड़की अगर देखे कि मेरे बचपन की दोस्त रेत पर इस कदर प्यार से उस के बौयफ्रैंड का नाम लिख रही है, तो गुस्सा नहीं आएगा उसे,‘‘ विहान ने पूरे नाटकीय अंदाज में कहा.

‘‘मैं ने… मैं ने कब लिखा तुम्हारा नाम,‘‘ मिशी सकपका कर बोली.

‘‘जो अभी अपनेआप रेत पर उभर आया था, उस नाम की बात कर रहा हूं.‘‘

यह सुन कर उस ने अपनी नजरें झुका लीं, उस की चोरी जो पकड़ी गई थी, फिर भी मिशी बोली, ‘‘मैं ने… मैं ने तो कोई नाम नहीं लिखा.‘‘

‘‘अच्छा बाबा… नहीं लिखा,‘‘ विहान ने मुसकरा कर कहा.

मिशी समझ ही नहीं पा रही थी कि ये हो क्या रहा है…

‘‘और… और वह लड़की, जिस से मिलवाने के लिए तुम मुझे यहां ले कर आए थे. सच बताओ ना विहान…‘‘

‘‘कोई लड़कीवड़की नहीं है, मैं अभी जिस के करीब बैठा हूं, बस वही है,’’ उस ने मिशी की आंखों में देखते हुए कहा. नजरें मिलते ही मिशी भी नजरें चुराने लगी.

‘‘मिशी, मत छुपाओ, आज कह दो जो भी दिल में हो.’’

मिशी की जबान खामोश थी, पर आंखों में विहान के लिए प्यार साफ नजर आ रहा था, जिसे विहान ने पहले ही महसूस कर लिया था, पर वह ये सब मिशी से जानना चाहता था.

मिशी कुछ देर चुप रही. दूर समंदर में उठती लहरों के ज्वार को देखती रही, ऐसा ही भावनाओं का ज्वार अभी उस के दिल में मचल रहा था. फिर उस ने हिम्मत बटोर कर बोलने की कोशिश की, पर उस की आंखों में जज्बातों का समंदर तैर गया. कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘कहां चले गए थे विहान, मैं… मैं… तुम को कितना मिस कर रही थी.’’
इतना कह कर वह फिर शून्य में देखने लगी…
‘‘मिशी… आज भी चुप रहोगी… बह जाने दो अपने जज्बातों को… जो भी दिल में है कहो… तुम नहीं जानती कि मैं ने इस दिन का कितना इंतजार किया है…

‘‘मिशी बताओ… प्यार करती हो मुझ से…’’

मिशी विहान की तरफ मुड़ी. उस के इमोशंस उस की आंखों में साफ नजर आ रहे थे… होंठ कंपकंपा रहे थे…
‘‘विहान, तुम जब नहीं थे, तब जाना कि मेरे जीवन में तुम क्या हो, तुम्हारे बिना जीना, सिर्फ सांस लेना भर है. तुम्हें अंदाजा भी नहीं है कि मैं किस दौर से गुजरी हूं. मेरी उदासी का थोड़ा भी खयाल नहीं आया तुम को,‘‘ कहतेकहते मिशी रो पड़ी.

विहान ने उस के आंसू पोंछे और मुसकराने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘मिशी, तुम ने तो सिर्फ 10 महीने इंतजार किया… मैं ने वर्षों किया है… जिस तड़प से तुम कुछ दिन गुजरी हो… वह मैं ने आज तक सही है…

‘‘मिशी, तुम मेरे लिए तब से खास हो, जब मैं प्यार का मतलब भी नहीं समझता था. बचपन में खेलने के बाद जब तुम्हारे घर जाने का समय आता था, तब अकसर तुम्हारी चप्पल कहीं खो जाती थी, तुम देर तक ढूंढ़ने के बाद मुझ से ही शिकायत करतीं और हम दोनों मिल कर अपने साथियों पर ही बरस पड़ते.
‘‘पर मिशी, वह मैं ही होता था… हर बार जो तुम्हें रोकने के लिए ये सब करता था… तुम कभी जान ही नहीं पाई,‘‘ कहतेकहते विहान यादों में खो गया.

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‘‘जानती हो… जब हम साथ पढ़ाई करते थे, तब भी मैं टौपिक समझ ना आने के बहाने से देर तक बैठा रहता, तुम मुझे बारबार समझाती, पर मैं नादान बना बैठा रहता सिर्फ तुम्हारा साथ पाने की चाह में…

‘‘जब छुट्टियों में बच्चे बाहर अलगअलग ऐक्टिविटी करते, तब भी मैं तुम्हारी पसंद के हिसाब से काम करता था, ताकि तुम्हारा साथ रहे.’’

‘‘विहान… तुम,’’ मिशी ने अचरज से कहा.

‘‘अभी तुम बस सुनो… मुझे और मेरे दिल की आवाज को… याद है मिशी, जब हम 12जी में थे, तुम मुझे कहती.. क्यों विहान गर्लफ्रैंड नहीं बनाई.. मेरी तो सब सहेलियों के बौयफ्रैंड हैं.. मंर पूछता तो तुम्हारा भी है… तुम हंस देती… हट पागल, मुझे तो पढ़ाई करनी है… फिर मस्त जौब… पर, विहान तुम्हारी गर्लफ्रैंड होनी चाहिए…’’ इतना कह कर तुम मुझे अपनी कुछ सहेलियों की खूबियां गिनवाने लगतीं. मेरा मन करता कि तुम्हें झकझोर कर कहूं कि तुम हो तो… पर नहीं कह सका.

‘‘और तुम्हें जो अपने हर बर्थडे पर जिस सरप्राइज का सब से ज्यादा इंतजार होता है … वो देने वाला मैं ही था… बचपन में जब तुम्हारी फेवरेट टौफी तुम्हारे पंेसिल बौक्स में मिलती, तो तुम बेहद खुश हुई थीं…

‘‘अगली बार भी जब मैं ने तुम को सरप्राइज किया, तब तुम ने कहा था, ‘‘विहान, पता नहीं कौन है… मौमडैड, दी या मेरी कोई फ्रैंड, पर मेरी इच्छा है कि मुझे हमेशा ये सरप्राइज गिफ्ट मिले. तुम ने सब के नाम लिए, पर मेरा नहीं,‘‘ कहतेकहते विहान की आवाज लड़खड़ा सी गई, फिर भर आए गले को साफ कर वह आगे बोला, ‘‘तब से हर बार मैं ये करता गया… पहले पेंसिल बौक्स था, फिर बैग… फिर तुम्हारा पर्स… और अब कुरियर.‘‘

सच जान कर मिशी जैसे सुन्न हो गई… वह हर बात विहान से शेयर करती थी. पर, कभी ये नहीं सोचा था कि विहान भी तो वह शख्स हो सकता है. उसे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था.

रात गहरा चुकी थी, चांद… स्याह रात के माथे पर बिंदी बन कर चमक रहा था. तेज हवा और लहरों के शोर में मिशी के जोर से धड़कते दिल की आवाज भी मिल रही थी. विहान आज वर्षों से छुपे प्रेम की परतें खोल रहा था.

वह आगे बोला, ‘‘मिशी, उस दिन तो जैसे मैं हार गया था, जब मैं ने तुम से कहा कि मुझे एक लड़की पसंद है… मैं ने बहुत हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार करने के लिए यह प्लान बनाया था… मैं ने धड़कते दिल से कहा… दिखाऊं फोटो… तो तुम ने झट से मेरा मोबाइल छीना… और जैसे ही फोटो देखा, तुम्हार रिएक्शन देख कर मैं ठगा सा रह गया… लगा, यहां मेरा कुछ नहीं होने वाला… पगली से प्यार कर बैठा.’’

इतना कह कर उस ने मिशी से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें याद है, उस दिन तुम ने क्या किया था?‘‘

‘‘हां… हां, तुम्हारे मोबाइल में मुझे अपना फोटो दिखा, तो मैं ने कहा… कब लिया ये फोटो… बहुत प्यारा है…‘‘ और मैं उस पिक में खो गई, सोशल मीडिया पर शेयर करने लगी. तुम्हारी गर्लफ्रैंड वाली बात तो मेरे दिमाग से गायब ही हो गई थी.
‘‘जी मैडम… जी… मैं तुम्हारी लाइफ में इस हद तक जुड़ा रहा कि तुम मुझे कभी अलग से फील कर ही नहीं पाई.’’
‘‘ऐसा कितनी बार हुआ, पर तुम अपनेआप में थी, अपने सपनों में, किसी और बात के लिए शायद तुम्हारे पास टाइम ही नहीं था, यहां तक कि अपने जज्बातों को समझने के लिए भी नही…‘‘ विहान कहता जा रहा था.
मिशी जोर से अपनी मुट्ठियाँ भींचती हुई अपनी बेवकूफियों का हिसाब लगा रही थी.

इस तरह विहान ना जाने कितनी छोटीबड़ी बातें बताता रहा और मिशी सिर झुकाए सुनती रही..

मिशी का गला रुंध गया… विहान इतना प्यार कोई किसी से कैसे कर सकता है…. और तब तो बिलकुल नहीं… जब उसे कोई समझने वाला ही ना हो… कितना कुछ दबा रखा है तुम ने…. मेरे साथ की छोटी से छोटी बातें कितनी सिद्दत से सहेज कर रखी हैं तुम ने ‘‘

‘‘अरे… पागल.. रोते नहीं… और ये किस ने कहा कि तुम मुझे समझती नहीं थी… मैं तो हमेशा तुम्हारा सब से करीबी रहा… इसलिए प्यार का अहसास कहीं गुम हो गया था.‘‘

‘‘और इस हकीकत को सामने लाने के लिए…. मैं ने खुद को तुम से दूर करने का फैसला किया… कई बार दूरियां नजदीकियों के लिए बहुत जरूरी हो जाती हैं. मुझे लगा कि मेरा प्यार सच्चा होगा, तो तुम तक मेरी ‘सदा‘ जरूर पहुंचेगी, नहीं तो मुझे आगे बढ़ना होगा… तुम को छोड़ कर.‘‘
‘‘मैं कितनी मतलबी थी…’’
‘‘ना बाबा… ना, तुम बहुत प्यारी हो, तब भी थीं और अब भी हो.’’

मिशी के रोते चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई… वह धीरे से विहान के कंधे पर अपना सिर टिकाने को बढ़ ही रही थी कि अचानक उसे कुछ याद आया… वह एकदम उठ खड़ी हुई…

‘‘क्या हुआ… मिशी?’’

‘‘ये सब गलत है…’’

‘‘क्यों गलत है?’’

‘‘तुम और पूजा दी…?’’

‘‘मैं और पूजा…’’ कह कर विहान हंस पड़ा.

‘‘तुम हंस क्यों रहे हो?’’

‘‘मिशी, मेरी प्यारी मिशी….. मुझे जैसे ही पूजा और मेरी शादी की बात पता चली, तो मैं पूजा से मिला और तुम्हारे बारे में बताया…’’ सुन कर पूजा भी खुश हुई. उस का कहना था कि विहान हो या कोई और उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता…. मम्मीपापा जहां चाहेंगे, वह खुशीखुशी वहां शादी कर लेगी… फिर हम दोनों ने सारी बात घर पर बता दी… किसी को कोई दिक्कत नहीं है… अब इंतजार है तो तुम्हारे जवाब का…

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इतना सुनते ही मिशी को तो जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ. उस के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई… अब ना कोई शिकायत बची थी… ना सवाल…

‘‘बोलो मिशी… मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहा हूं,‘‘ विहान ने बेचैनी से कहा.

‘‘मेरे चेहरे पर बिखरी खुशी देखने के बाद भी तुम को जवाब चाहिए,‘‘ मिशी ने नजरें झुका कर बड़े ही भोलेपन से कहा.

‘‘नहीं मिशी, जवाब तो मुझे उसी दिन मिल गया था.. जब मैं तुम्हारे घर आया था. पहले वाली मिशी होती तो बोलबोल कर, सवाल पूछपूछ कर… झगड़ा कर के मुझे भूखा ही भगा देती…’’ कह कर विहान जोर से हंस पड़ा.

‘‘अच्छा… मैं इतनी बकबक करती हूं,‘‘मिशी ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘हां… पर, न तुम झगड़ीं और न ही कुछ बोलीं… बस, देखती रही मुझे… ख्वाब बुनती रहीं… मेरे वजूद को महसूस करती रही… उसी दिन मैं समझ गया था कि जिस मिशी को पाने के लिए मैं ने उसे खोने का गम सहा, ये वही है… मेरी मिशी… सिर्फ मेरी मिशी,‘‘ विहान ने मिशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

मिशी ने भी विहान का हाथ जोर से थाम लिया, हमेशा के लिए. वे हाथों में हाथ लिए चल दिए… जिंदगी के नए सफर पर साथसाथ… कभी जुदा ना होने के लिए… आसमां, चांदतारे और चांदनी के प्रेम में सराबोर लहलहाता समुद्र उन के प्रेम के साक्षी बन गए थे…

कहीं दूर से हवा में संगीत की धुन उन के प्रेम की दास्तां बयां कर रही थी,
‘‘हमसफर… मेरे हमसफर,
हमें साथ चलना है उम्रभर…’’

Serial Story: चलो एक बार फिर से… – भाग 3

काव्या अब संतुष्ट थी कि उस ने मनन को पूरी तरह से पा लिया है. झूम उठती थी वह जब मनन उसे प्यार से सिरफिरी कहता था. मगर उस का यह खुमार भी जल्द ही उतर गया. 2-3 साल तो मनन के मन का भौंरा काव्या के तन के पराग पर मंडराता रहा, मगर फिर वही ढाक के तीन पात… मनन फिर से अपने काम की तरफ झुकने लगा और काव्या को नजरअंदाज करने लगा. अब काव्या के पास भी समर्पण के लिए कुछ नहीं बचा था. वह परेशानी में और भी अधिक दीवानी होने लगी. कहते हैं न कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपता… उन का रिश्ता भी पूरे विभाग में चर्चा का विषय बन गया. लोग सामने तो मनन की गरिमा का खयाल कर लेते थे, मगर पीठ पीछे उसे काव्या का भविष्य बरबाद करने के लिए जिम्मेदार ठहराते थे. हालांकि मनन तो अपनी तरफ से इस रिश्ते को नकारने की बहुत कोशिश करता था, मगर काव्या का दीवानापन उन के रिश्ते की हकीकत को बयां कर ही देता था, बल्कि वह तो खुद चाहती थी कि लोग उसे मनन के नाम से जानें.

बात उड़तेउड़ते दोनों के घर तक पहुंच गई. जहां काव्या की मां उस की शादी पर

जोर देने लगीं, वहीं प्रिया ने भी मनन से इस रिश्ते की सचाई के बारे में सवाल किए. प्रिया को तो मनन ने अपने शब्दों के जाल में उलझा लिया था, मगर विहान और विवान के सवालों के जवाब थे उन के पास… एक पिता भला अपने बच्चों से यह कैसे कह सकता है कि उन की मां की नाराजगी का कारण उस के नाजायज संबंध हैं. मनन काव्या से प्यार तो करता था, मगर एक पिता की जिम्मेदारियां भी बखूबी समझाता था. वह बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहता था.

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इधर काव्या की दीवानगी भी मनन के लिए परेशानी का कारण बनने लगी थी. एक दिन काव्या ने मनन को अकेले में मिलने के लिए बुलाया. मनन को उस दिन प्रिया के साथ बच्चों के स्कूल पेरैंटटीचर मीटिंग में जाना था, इसलिए उस ने मना कर दिया. यही बात काव्या को नागवार गुजरी. वह लगातार मनन को फोन करने लगी, मगर मनन उस की मानसिकता अच्छी तरह समझता था. उस ने अपने मोबाइल को साइलैंट मोड पर डाल दिया. मीटिंग से फ्री हो कर मनन ने फोन देखा तो काव्या की 20 मिस्ड कौल देख कर उस का सिर चकरा गया. एक मैसेज भी था कि अगर मुझ से मिलने नहीं आए तो मुझे हमेशा के लिए खो दोगे. ‘‘सिरफिरी है, कुछ भी कर सकती है,’’ सोचते हुए मनन ने उसे फोन लगाया. सारी बात समझाने पर काव्या ने उसे घर आ कर सौरी बोलने की शर्त पर माफ किया. इतने दिनों बाद एकांत मिलने पर दोनों का बहकना तो स्वाभाविक ही था.

ज्वार उतरने के बाद काव्या ने कहा, ‘‘मनन, हमारे रिश्ते का भविष्य क्या है? सब लोग मुझ पर शादी करने का दबाव बना रहे हैं.’’ ‘‘सही ही तो कर रहे हैं सब. अब तुम्हें भी इस बारे में सोचना चाहिए,’’ मनन ने कपड़े पहनते हुए कहा.

‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें मुझ से ऐसी बात करते हुए… क्या तुम मेरे साथ बिस्तर पर किसी और की कल्पना कर सकते हो?’’ काव्या तड़प उठी. ‘‘नहीं कर सकता… मगर हकीकत यही है कि मैं तुम्हें प्यार तो कर सकता हूं और करता भी हूं, मगर एक सुरक्षित भविष्य नहीं दे सकता,’’ मनन ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मगर तुम्हारे बिना तो मेरा कोई भविष्य ही नहीं है,’’ काव्या के आंसू बहने लगे. मनन समझ नहीं पा रहा था कि इस सिरफिरी को कैसे समझाए. तभी मनन का कोई जरूरी कौल आ गई और वह काव्या को हैरानपरेशान छोड़ चला गया. काव्या ने अपनेआप से प्रश्न किया कि क्या मनन उस का इस्तेमाल कर रहा है… उसे धोखा दे रहा है?

नहीं, बिलकुल नहीं… मनन ने कभी उस से शादी का कोई झूठा वादा नहीं किया, बल्कि पहले दिन से ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी. प्यार की पहल खुद उसी ने की थी… उसी ने मनन को निमंत्रण दिया था अपने पास आने का…’’ काव्या को जवाब मिला. तो फिर क्यों वह मनन को जवाबदेह बनाना चाह रही है… क्यों वह अपनी इस स्थिति के लिए उसे जिम्मेदार ठहरा रही है… काव्या दोराहे पर खड़ी थी. एक तरफ मनन का प्यार था, मगर उस पर अधिकार नहीं था और दूसरी तरफ ऐसा भविष्य था जिस के सुखी होने की कोई गारंटी नहीं थी. क्या करे, क्या न करे… कहीं और शादी कर भी ले तो क्या मनन को भुला पाएगी? उस के इतना पास रह कर क्या किसी और को अपनी बगल में जगह दे पाएगी? प्रश्न बहुत से थे, मगर जवाब कहीं नहीं थे. इसी कशमकश में काव्या अपने लिए आने वाले हर रिश्ते को नकारती जा रही थी.

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इसी बीच प्रमोशन के साथ ही मनन का ट्रांसफर दूसरे सैक्शन में हो गया. अब काव्या के लिए मनन को रोज देखना भी मुश्किल हो गया था. प्रमोशन के साथ ही उस की जिम्मेदारियां भी पहले से काफी बढ़ गई थीं. इधर विहान और विवान भी स्कूल से कालेज में आ गए थे. मनन को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का भी ध्यान रखना पड़ता था. इस तरह काव्या से उस का संपर्क कम से कमतर होता गया. मनन की बेरुखी से काव्या डिप्रैशन में रहने लगी. वह दिन देखती न रात… बारबार मनन को फोन, मैसेज करने लगी तो मनन ने उस का मोबाइल नंबर ब्लौक कर दिया. एक दिन काव्या को कहीं से खबर मिली कि मनन विभाग की तरफ से किसी ट्रेनिंग के लिए चेन्नई जा रहा है और फिर वहीं 3 साल के लिए प्रतिनियुक्ति पर रहेगा. काव्या को सदमा सा लगा. वह सुबहसुबह उस के औफिस में पहुंच गई. मनन अभी तक आया नहीं था. वह वहीं बैठ कर उस का इंतजार करने लगी. जैसे ही मनन चैंबर में घुसा काव्या फूटफूट कर रोने लगी. रोतेरोते बोली, ‘‘इतनी बड़ी बात हो गई और तुम ने मुझे बताने लायक भी नहीं समझा?’’

मनन घबरा गया. उस ने फौरन चैंबर का गेट बंद किया और काव्या को पानी का गिलास थमाया. वह कुछ शांत हुई तो मनन बोला, ‘‘बता देता तो क्या तुम मुझे जाने देतीं?’’ ‘‘इतना अधिकार तो तुम ने मुझे कभी दिया ही नहीं कि मैं तुम्हें रोक सकूं,’’ काव्या ने गहरी निराशा से कहा.

‘‘काव्या, मैं जानबूझ कर तुम से दूर जाना चाहता हूं ताकि तुम अपने भविष्य के बारे में सोच सको, क्योंकि मैं जानता हूं कि जब तक मैं तुम्हारे आसपास हूं, तुम मेरे अलावा कुछ और सोच ही नहीं सकती. मैं इतना प्यार देने के लिए हमेशा तुम्हारा शुक्रगुजार रहूंगा…’’ ‘‘मैं अपने स्वार्थ की खातिर तुम्हारी जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता. मुझे लगता है कि हमें अपने रिश्ते को यही छोड़ कर आगे बढ़ना चहिए. मैं ने तुम्हें हमेशा बिना शर्त प्यार किया है और करता रहूंगा. मगर मैं इसे सामाजिक मान्यता नहीं दे सकता… काश, तुम ने मुझे प्यार न किया होता… मैं तुम्हें प्यार करता हूं, इसीलिए चाहता हूं कि तुम हमेशा खुश रहो… हम चाहे कहीं भी रहें, तुम मेरे दिल में हमेशा रहोगी…’’

सुन कर काव्या को सदमा तो लगा, मगर मनन सच ही कह रहा था. अंधेरे में भटकने से बेहतर है कि उसे अब नया चिराग जला कर आगे बढ़ जाना चाहिए. काव्या ने अपने आंसू पोंछ, फिर से मुसकराई, फिर उठते हुए मनन से हाथ मिलाते हुए बोली, ‘‘नए प्रोजैक्ट के लिए औल द बैस्ट… चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाएं हम दोनों… और हां, मुझे पहले प्यार की अनुभूति देने के लिए शुक्रिया…’’ और फिर आत्मविश्वास के साथ चैंबर से बाहर निकल गई.

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Serial Story: चलो एक बार फिर से… – भाग 2

दोपहर में नमनजी ने एक मेल दिखाते हुए काव्या से उस का रिप्लाई बनाने को कहा. कंपनी सैक्रेटरी ने आज ही औफिस स्टाफ की कंप्लीट डिटेल मंगवाई थी. रिपोर्ट बनाते समय अचानक काव्या मुसकरा उठी जब मनन की डिटेल बनाते समय उसे पता चला कि अगले महीने ही मनन का जन्मदिन है. मन ही मन उस ने मनन के लिए सरप्राइज प्लान कर लिया. जन्मदिन वाले दिन सुबहसुबह काव्या ने मनन को फोन किया, ‘‘हैप्पी बर्थडे सर.’’

‘‘थैंकयू सो मच. मगर तुम्हें कैसे पता?’’ मनन ने पूछा. ‘‘यही तो अपनी खास बात है सर… जिसे यादों में रखते हैं उस की हर बात याद रखते हैं,’’ काव्या ने शायराना अंदाज में इठलाते हुए कहा.

मनन उस के बचपने पर मुसकरा उठा. ‘‘सिर्फ थैंकयू से काम नहीं चलेगा… ट्रीट तो बनती है…’’ काव्या ने अगला तीर छोड़ा.

‘‘औफकोर्स… बोलो कहां लोगी?’’ ‘‘जहां आप ले चलो… आप साथ होंगे तो कहीं भी चलेगा…’’ काव्या धीरेधीरे मुद्दे की तरफ आ रही थी. अंत में तय हुआ कि मनन उसे मैटिनी शो में फिल्म दिखाएगा. मनन के साथ 3 घंटे उस की बगल में बैठने की कल्पना कर के ही काव्या हवा में उड़ रही थी. उस ने मनन से कहा कि फिल्म के टिकट वह औनलाइन बुक करवा लेगी. अच्छी तरह चैक कर के काव्या ने लास्ट रौ की 2 कौर्नर सीट बुक करवा ली. अपनी पहली जीत पर उत्साह से भरी वह आधा घंटा पहले ही पहुंच कर हौल के बाहर मनन का इंतजार करने लगी. मगर मनन फिल्म शुरू होने पर ही आ पाया. उसे देखते ही काव्या ने मुसकरा कर एक बार फिर उसे बर्थडे विश किया और दोनों हौल में चले गए. चूंकि फिल्म स्टार्ट हो चुकी थी और हौल में अंधेरा था इसलिए काव्या ने धीरे से मनन का हाथ थाम लिया.

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फिल्म बहुत ही कौमेडी थी. काव्या हर पंच पर हंसहंस के दोहरी हुई जा रही थी. 1-2 बार तो वह मनन के कंधे से ही सट गई. इंटरवल के बाद एक डरावने से सीन को देख कर उस ने मनन का हाथ कस कर थाम लिया. एक बार हाथ थामा तो फिर उस ने पूरी फिल्म में उसे पकड़े रखा. मनन ने भी हाथ छुड़ाने की ज्यादा कोशिश नहीं की. फिल्म खत्म होते ही हौल खाली होने लगा. काव्या ने कहा, ‘‘2 मिनट रुक जाते हैं. अभी भीड़ बहुत है,’’ फिर अपने पर्स में कुछ टटोलने का नाटक करते हुए बोली, ‘‘यह लो… आप से ट्रीट तो ले ली और बर्थडे गिफ्ट दिया ही नहीं… आप अपनी आंखें बंद कीजिए…’’

मनन ने जैसे ही अपनी आंखें बंद कीं, काव्या ने एक गहरा चुंबन उस के होंठों पर जड़ दिया. मनन ने ऐसे सरप्राइज गिफ्ट की कोई कल्पना नहीं की थी. उस का दिल तेजी से धड़कने लगा और अनजाने ही उस के हाथ काव्या के इर्दगिर्द लिपट गए. काव्या के लिए यह एकदम अनछुआ एहसास था. उस का रोमरोम भीग गया. वह मनन के कान में धीरे से बुदबुदाई, ‘‘यह जन्मदिन आप को जिंदगी भर याद रहेगा.’’

मनन अभी भी असमंजस में था कि इस राह पर कदम आगे बढ़ाए या फिर यहीं रुक जाए… हिचकोले खाता यह रिश्ता धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था. जब भी काव्या मनन के साथ होती तो मनन उसे एक समर्पित प्रेमी सा लगता और जब वह उस से दूर होती तो उसे यह महसूस होता जैसे कि मनन से उस का रिश्ता ही नहीं है… जहां काव्या हर वक्त उसी के खयालों में खोई रहती, वहीं मनन के लिए उस का काम उस की पहली प्राथमिकता थी और उस के बाद उस के बच्चे. कव्या औफिस से जाने के बाद भी मनन के संपर्क में रहना चाहती थी, मगर मनन औफिस के बाद न तो उस का फोन उठाता था और न ही किसी मैसेज का जवाब देता था. कुल मिला कर काव्या उस के लिए दीवानी हो चुकी थी. मगर मनन शायद अभी भी इस रिश्ते को ले कर गंभीर नहीं था.

एक दिन सुबहसुबह मनन ने काव्या को चैंबर में बुला कर कहा, ‘‘काव्या, मुझे घर पर मैसेज मत किया करो… घर जाने के बाद बच्चे मेरे मोबाइल में गेम खेलने लगते हैं… ऐसे में कभी तुम्हारा कोई मैसेज किसी के हाथ लग गया तो बवाल मच जाएगा.’’ ‘‘क्यों? क्या तुम डरते हो?’’ काव्या ने

उसे ललकारा. ‘‘बात डरने की नहीं है… यह हम दोनों का निजी रिश्ता है. इसे सार्वजनिक कर के इस का अपमान नहीं करना चाहिए… कहते हैं न कि खूबसूरती की लोगों की बुरी नजर लग जाती और मैं नहीं चाहता कि हमारे इस खूबसूरत रिश्ते को किसी की नजर लगे,’’ मनन ने काव्या को बातों के जाल में उलझा दिया, क्योंकि वह जानता था कि प्यार से न समझाया गया तो काव्या अभी यही रोनाधोना शुरू कर देगी.

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अपने पूरे समर्पण के बाद भी काव्या मनन को अपने लिए दीवाना नहीं बना पा रही थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा क्या करे जिस से मनन सिर्फ उस का हो कर रहे. वह मनन को कैसे जताए कि वह उस से कितना प्यार करती हैं… उस के लिए किस हद से गुजर सकती है… किसी से भी बगावत कर सकती है. आखिर काव्या को एक तरीका सूझ ही गया.

मनन अभी औफिस के लिए घर से निकला ही था कि काव्या का फोन आया. बेहद कमजोर सी आवाज में उस ने कहा, ‘‘मनन, मुझे तेज बुखार है और मां भी 2 दिन से नानी के घर गई हुई हैं. प्लीज, मुझे कोई दवा ला दो और हां मैं आज औफिस नहीं आ सकूंगी.’’

ममन ने घड़ी देखी. अभी आधा घंटा था उस के पास… उस ने रास्ते में एक मैडिकल स्टोर से बुखार की दवा ली और काव्या के घर पहुंचा. डोरबैल बजाई तो अंदर से आवाज आई, ‘‘दरवाला खुला है, आ जाओ.’’

मनन अंदर आ गया. आज पहली बार वह काव्या के घर आया था. काव्या बिस्तर पर लेटी हुई थी. मनन ने इधरउधर देखा, घर में उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. मनन ने प्यार से काव्या के सिर पर हाथ रखा तो चौंक उठा. बोला, ‘‘अरे, तुम्हें तो बुखार है ही नहीं.’’

वह उस से लिपट कर सिसक उठी. रोतेरोते बोली, ‘‘मनन, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती… मैं नहीं जानती कि मैं क्या करूं… तुम्हें कैसे अपने प्यार की गहराई दिखाऊं… तुम्हीं बताओ कि मैं ऐसा क्या करूं जिस से तुम्हें बांध सकूं… हमेशा के लिए अपना बना सकूं…’’ ‘‘मैं तो तुम्हारा ही हूं पगली… क्या तुम्हें अपने प्यार पर भरोसा नहीं है?’’ मनन ने उस के आंसू पोंछते हुए कहा.

‘‘भरोसा तो मुझे तुम पर अपनेआप से भी ज्यादा है,’’ कह कर काव्या उस से और भी कस कर लिपट गई. ‘‘बिलकुल सिरफिरी हो तुम,’’ कह कर मनन उस के बालों को सहलातासहलाता उस के आंसुओं के साथ बहने लगा. तनहाइयों ने उन का भरपूर साथ दिया और दोनों एकदूसरे में खोते चले गए. अपना मन तो काव्या पहले ही उसे दे चुकी थी आज अपना तन भी उस ने अपने प्रिय को सौंप दिया था. शादीशुदा मनन के लिए यह कोई अनोखी बात नहीं थी, मगर काव्या का कुंआरा तन पहली बार प्यार की सतरंगी फुहारों से तरबतर हुआ था. आज उस ने पहली बार कायनात का सब से वर्जित फल चखा था.

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Serial Story: चलो एक बार फिर से… – भाग 1

‘‘काव्या,कल जो लैटर्स तुम्हें ड्राफ्टिंग के लिए दिए थे, वे हो गया क्या?’’ औफिस सुपरिंटेंडैंट नमनजी की आवाज सुन कर मोबाइल पर चैट करती काव्या की उंगलियां थम गईं. उस ने नमनजी को ‘गुड मौर्निंग’ कहा और फिर अपनी टेबल की दराज से कुछ रफ पेपर निकाल कर उन की तरफ बढ़ा दिए. देखते ही नमनजी का पारा चढ़ गया.

बोले, ‘‘यह क्या है? न तो इंग्लिश में स्पैलिंग सही हैं और न हिंदी में मात्राएं… यह होती है क्या ड्राफ्टिंग? आजकल तुम्हारा ध्यान काम पर

नहीं है.’’ ‘‘सर, आप चिंता न करें, कंप्यूटर सारी मिस्टेक्स सही कर देगा,’’ काव्या ने लापरवाही से कहा. नमनजी कुछ तीखा कहते उस से पहले ही काव्या का मोबाइल बज उठा. वह ‘ऐक्सक्यूज मी’ कहती हुई अपना मोबाइल ले कर रूम से बाहर निकल गई. आधा घंटा बतियाने के बाद चहकती हुई काव्या वापस आई तो देखा नमनजी कंप्यूटर पर उन्हीं लैटर्स को टाइप कर रहे थे. वह जानती है कि इन्हें कंप्यूटर पर काम करना नहीं आता. नमनजी को परेशान होता देख उसे कुछ अपराधबोध हुआ. मगर काव्या भी क्या करे? मनन का फोन या मैसेज देखते ही बावली सी हो उठती है. फिर उसे कुछ और दिखाई या सुनाई ही नहीं देता.

‘‘आप रहने दीजिए सर. मैं टाइप कर देती हूं,’’ काव्या ने उन के पास जा कर कहा. ‘‘साहब आते ही होंगे… लैटर्स तैयार नहीं मिले तो गुस्सा करेंगे…’’ नमनजी ने अपनी नाराजगी को पीते हुए कहा.

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‘‘सर तो आज लंच के बाद आएंगे… बिग बौस के साथ मीटिंग में जा रहे हैं,’’ काव्या बोली. ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘यों ही… वह कल सर फोन पर बिग बौस से बात कर रहे थे. तब मैं ने सुना था,’’ काव्या को लगा मानो उस की चोरी पकड़ी गई हो. वह सकपका गई और फिर नमनजी से लैटर्स ले कर चुपचाप टाइप करने लगी. काव्या को इस औफिस में जौइन किए लगभग 4 साल हो गए थे. अपने पापा की मृत्यु के बाद सरकारी नियमानुसार उसे यहां क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. नमनजी ने ही उसे औफिस का सारा काम सिखाया था. चूंकि वे काव्या के पापा के सहकर्मी थे, इस नाते भी वह उन्हें पिता सा सम्मान देती थी. शुरूशुरू में जब उस ने जौइन किया था तो कितना उत्साह था उस में हर नए काम को सीखने का. मगर जब से ये नए बौस मनन आए हैं, काव्या का मन तो बस उन के इर्दगिर्द ही घूमता रहता है.

काव्या का कुंआरा मन मनन को देखते ही दीवाना सा हो गया था. 5 फुट 8 इंच हाइट, हलका सांवला रंग और एकदम परफैक्ट कदकाठी… और बातचीत का अंदाज तो इतना लुभावना कि उसे शब्दों का जादूगर ही कहने का मन करता था. असंभव शब्द तो जैसे नैपोलियन की तरह उस की डिक्शनरी में भी नहीं था. हर मुश्किल का हल था उस के पास… काव्या को लगता था कि बस वे बोलते ही रहें और वह सुनती रहे… ऐसे ही जीवनसाथी की तो कल्पना की थी उस ने अपने लिए. मनन नई विचारधारा का हाईटैक औफिसर था. वह पेपरलैस वर्क का पक्षधर था. औफिस के सारे काम कंप्यूटर और मेल से करने पर जोर देता था. उस ने नमनजी जैसे रिटायरमैंट के करीब व्यक्ति को भी जब मेल करना सिखा दिया तो काव्या उस की फैन हो गई. सिर्फ काव्या ही नहीं, बल्कि औफिस का सारा स्टाफ ही मनन के व्यवहार का कायल था. वह अपने औफिस को भी परिवार ही समझता था. स्टाफ के हर सदस्य में पर्सनल टच रखता था. उस का मानना था कि हम दिन का एक अहम हिस्सा जिन के साथ बिताते हैं, उन के बारे में हमें पूरी जानकारी होनी चाहिए और उन से जुड़ी हर अच्छी और बुरी बात में हमें उन के साथ खड़े रहना चाहिए.

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अपनी इस नीति के तहत हर दिन किसी एक व्यक्ति को अपने चैंबर में बुला कर चाय की चुसकियों के साथ मनन उन से व्यक्तिगत स्तर पर ढेर सी बातें करता था. इसी सिलसिले में काव्या को भी अपने साथ चाय पीने के लिए आमंत्रित करता था.

जिस दिन मनन के साथ काव्या की औफिस डेट होती थी, वह बड़े ही मन से तैयार हो कर आती थी. कभीकभी अपने हाथ से बने स्नैक्स भी मनन को खिलाती थी. अपने स्वभाव के अनुसार वह उस की हर बात की तारीफ करती थी. काव्या को लगता था जैसे वह हर डेट के बाद मनन के और भी करीब आ जाती है. पता नहीं क्या था मनन की गहरी आंखों में कि उस ने एक बार झांका तो बस उन में डूबती ही चली गई.

मनन को शायद काव्या की मनोदशा का कुछकुछ अंदाजा हो गया था, इसलिए वह अब काव्या को अपने चैंबर में अकेले कम ही बुलाता था. एक बार बातोंबातों में मनन ने उस से अपनी पत्नी प्रिया और 2 बच्चों विहान और विवान का जिक्र भी किया था. बच्चों में तो काव्या ने दिलचस्पी दिखाई थी, मगर पत्नी का जिक्र आते ही उस का मुंह उतर गया, जिसे मनन की अनुभवी आंखों ने फौरन ताड़ लिया. पिछले साल मनन अपने बच्चों की गरमी की छुट्टियों में परिवार सहित शिमला घूमने गया था. उस की गैरमौजूदगी में काव्या को पहली बार यह एहसास हुआ कि मनन उस के लिए कितना जरूरी हो गया है. मनन का खाली चैंबर उसे काटने को दौड़ता था. दिल के हाथों मजबूर हो कर तीसरे दिन काव्या ने हिम्मत जुटा कर मनन को फोन लगाया. पूरा दिन उस का फोन नौट रीचेबल आता रहा. शायद पहाड़ी इलाके में नैटवर्क कमजोर था. आखिरकार उस ने व्हाट्सऐप पर मैसेज छोड़ दिया-

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‘‘मिसिंग यू… कम सून.’’ देर रात मैसेज देखने के बाद मनन ने रिप्लाई में सिर्फ 2 स्माइली भेजीं. मगर वे भी काव्या

के लिए अमृत की बूंदों के समान थीं. 1 हफ्ते बाद जब मनन औफिस आया तो उसे देखते ही काव्या खिल उठी. उस ने थोड़ी देर तो मनन के बुलावे का इंतजार किया, फिर खुद ही उस के चैंबर में जा कर उस के ट्रिप के बारे में पूछने लगी. मनन ने भी उत्साह से उसे अपने सारे अनुभव बताए. मनन महसूस कर रहा था कि जबजब भी प्रिया का जिक्र आता, काव्या कुछ बुझ सी जाती. कई दिनों के बाद दोनों ने साथ चाय पी थी. आज काव्या बहुत खुश थी.

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Mother’s Day Special: मुक्ति-भाग 2

और उस के बाद तो अनेक परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया था. उधर, सुनील फोन पर लगातार हिदायतों पर हिदायतें देता जा रहा था और इधर शिवानी पर शामत आ रही थी. अपने पति पर घर छोड़ कर और एंबुलैंस पर मां को अकेले अपने दम पर पटना ले जाना, किसी विशेषज्ञ जिस का नाम सुनील ने ही बताया था उस से संपर्क करना और प्राइवेट वार्ड में रख कर मां का औपरेशन करवाना, नर्स के रहते भी दिनरात उन की सेवा करते रहना इत्यादि कितनी ही जहमतों का काम वह 3 हफ्तों तक करती रही थी. इस का एकमात्र पुरस्कार शिवानी को यह मिला था कि मां का प्यार उस के प्रति बढ़ गया था और अब वे उसी का नाम जपने लगी थीं.

सुनील के न चाहने पर भी मोबाइल की घंटी फिर बज उठी. एक झिझक के साथ सुनील ने मोबाइल उठाया. उधर शिवानी ही थी, जोर से बोल उठी, ‘‘अंकल, मैं शिवानी बोल रही हूं.’’

शिवानी के मुंह से अंकल शब्द सुन कर सुनील को ऐसा लगता था जैसे वह उस के कानों पर पत्थर मार रही हो. लाख याद दिलाने पर भी कि वह उस का मामा है, शिवानी उसे अंकल ही कहती थी. स्पष्ट था कि यह संबोधन उसे एक व्यावसायिक संबंध की ही याद दिलाता था, रिश्ते की नहीं.

‘‘हां, हां, मैं समझ गया, बोलो.’’

‘‘प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो, बोलो, क्या बात है?’’

‘‘आप लोग कैसे हैं, अंकल?’’

सुनील जल्दी में था, इसलिए खीझ गया पर शांत स्वर में ही बोला, ‘‘हम लोग सब ठीक हैं, पर तुम बताओ मां कैसी हैं?’’

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‘‘नानीजी ने तो खानापीना सब छोड़ रखा है,’’ सुनील को लगा जैसे उस की छाती पर किसी ने हथौड़ा चला दिया हो. उसे चिंता हुई, ‘‘कब से?’’

‘‘कल रात से. कल रात कुछ नहीं खाया, आज भी न नाश्ता लिया और न दोपहर का खाना ही खाया.’’

‘‘अब रात का खाना उन्हें अवश्य खिलाओ. जो उन को पसंद आए वही बना कर दो. खाना थोड़ा गला कर देना ताकि उसे वे आसानी से निगल सकें. निगलने में दिक्कत होने से भी वे नहीं खाती होंगी.’’

‘‘हम ने तो कल खिचड़ी दी थी.’’

‘‘उसे भी जरा पतला कर के दो और घी वगैरह मिला दिया करो. मां को खिचड़ी अच्छी लगती है.’’

‘‘इसीलिए तो अंकल, लेकिन कहती हैं कि भूख नहीं है.’’

‘‘डाक्टर से पूछ कर देखो. भूख न लगने का भी इलाज हो सकता है.’’

‘‘वे कहती हैं, खाने की रुचि ही खत्म हो गई है. इस का क्या इलाज है? शायद मेरे हाथ से खाना ही नहीं चाहतीं.’’

उस लड़की की बात में सुनील को साफ व्यंग्य झलकता दिखाई पड़ा. ‘‘फिर भी, तुम डाक्टर से पूछो,’’ वह शांत स्वर में ही बोला.

‘‘जी अच्छा, अंकल.’’

‘‘फिर जैसा हो बताना. तुम चाहो तो व्हाट्सऐप कौल कर सकती हो.’’

‘‘नहीं अंकल, अब तो अमेरिका फोन करना सस्ता हो गया है. कोई बात नहीं. रात में फिर से कोशिश कर के देखती हूं.’’ वास्तव में शिवानी के पास पैसे की कोई कमी तो थी नहीं, फिर भी, उस की उदारता की उस ने जिस तरह उपेक्षा कर दी वह उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘जरूर.’’

‘‘अंकल, वहां अभी क्या समय हो रहा है?’’

‘‘यहां सुबह के 7 बज रहे हैं.’’

‘‘अच्छा, प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो.’’

शिवानी सुनील के दूर के रिश्ते की बहन की बेटी थी. उस का घर तो भरापूरा था, उस का पति, 3 बेटे और 2 बेटियां. पर आय सीमित थी. हाईस्कूल कर के उस का पति किसी तरह कोई सिफारिश पहुंचा कर रांची के एंप्लौयमैंट एक्सचेंज औफिस में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गया था.

सुनील जब किसी तरह मां को  अपने साथ अमेरिका में नहीं रख  सका तो वह भारत में एक ऐसा परिवार ढूंढ़ने लगा जो मां को अपने साथ रखे तथा उन की देखभाल करे, खर्च चाहे जो लगे. पर उसे ऐसा कोई परिवार जल्दी नहीं मिला. कोई इस तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता था. नजदीकी रिश्तेदारी में तो कोई मिला ही नहीं. किसी तरह उसे शिवानी का पता चला.

शिवानी को उस ने पहले देखा भी नहीं था, पर इस पारस्परिक रिश्ते को वे दोनों जानते थे. इस में संदेह नहीं था कि शिवानी को लगा कि सुनील की मां, जिसे वह नानी कहती थी, को रखने से उस की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाएगा. सुनील ने शुरू में ही उसे सबकुछ समझा दिया था. हफ्तों खोज करने के बाद उसे यह परिवार मिला था. सो वह उन पर ज्यादा ही निर्भर हो गया था. शिवानी को उस की मां को केवल पनाह देनी थी. काम करने के लिए उस ने अलग से एक नर्स रखने की अनुमति दे रखी थी. खर्च के लिए पैसे देने में उस ने कंजूसी नहीं की. मां को समझा दिया कि शिवानी के यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी.

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चलते समय मां की आंखें उसे वैसी ही लगीं जैसा बचपन में वह अपनी गाय को बछड़े से बिछुड़ते हुए देखा करता था. दुखभरी आवाज में मां ने पूछा, ‘आते तो रहोगे न, बेटा?’

सुनील ने तपाक से उत्तर दिया था, ‘जरूर मां, कुछ ही महीनों में यहां फिर आना है. और फिर मोबाइल तो है ही, मोबाइल पर जब कभी भी बात हो जाया करेगी.’

‘बेटा, मैं तो बहरी हो गई हूं, फोन पर क्या बात कर सकूंगी?’

‘मां, तुम नहीं, शिवानी तुम्हारा समाचार देती रहेगी. यह भी तो नतिनी ही हुई तुम्हारी. तुम्हें यह बहुत अच्छी तरह रखेगी.’

‘यह क्या रखेगी, तुम्हारा पैसा रखाएगा,’ मां ने धीरे से कहा.

बेटे ने चलते समय मां के पैर छुए, तो मां ने कहा, ‘जुगजुग जियो. अब हमारे लिए एक तुम्हीं रह गए हो, बेटा.’

सुनील अपनी सफाई में किसी तरह यही बोल पाया, ‘मां, अगर मैं तुम्हें अमेरिका में रख पाता तो जरूर रखता. तुम्हें कई बार बता चुका हूं. मैं तो वहां तुम्हारा इलाज भी नहीं करा सकता.’

‘तुम ने तो कहा था कि साल दो साल में तुम रिटायरमैंट ले लोगे और फिर भारत वापस आ जाओगे.’

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सुनील की जैसे चोरी पकड़ी गई. इस बात की तसल्ली उस ने मां को बारबार दी थी कि वह उन्हें शिवानी के पास अधिक से अधिक 2 साल के लिए रख रहा था, जैसे ही वह रिटायर होगा, भारत आ जाएगा और उन्हें साथ रखेगा. उस घटना को 5 साल बीत गए थे. पर सुनील नहीं जा पाया था मां से मिलने.

आगे पढ़ें- कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की…

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