Moral Stories in Hindi : बेघर – क्या रुचि ने धोखा दिया था मानसी बूआ को

Moral Stories in Hindi :  भाभी ने आखिर मेरी बात मान ही ली. जब से मैं उन के पास आई थी यही एक रट लगा रखी थी, ‘भाभी, आप रुचि को मेरे साथ भेज दो न. अर्पिता के होस्टल चले जाने के बाद मुझे अकेलापन बुरी तरह सताने लगा है और फिर रुचि का भी मन वहीं से एम.बी.ए. करने का है, यहां तो उसे प्रवेश मिला नहीं है.’

‘‘देखो, मानसी,’’ भाभी ने गंभीर हो कर कहा था, ‘‘वैसे रुचि को साथ ले जाने में कोई हर्ज नहीं है पर याद रखना यह अपनी बड़ी बहन शुचि की तरह सीधी, शांत नहीं है. रुचि की अभी चंचल प्रकृति बनी हुई है, महाविद्यालय में लड़कों के साथ पढ़ना…’’

मानसी ने उन की बात बीच में ही काट कर कहा, ‘‘ओफो, भाभी, तुम भी किस जमाने की बातें ले कर बैठ गईं. अरे, लड़कियां पढ़ेंगी, आगे बढ़ेंगी तभी तो सब के साथ मिल कर काम करेंगी. अब मैं नहीं इतने सालों से बैंक में काम कर रही हूं.’’

भाभी निरुत्तर हो गई थीं और रुचि सुनते ही चहक पड़ी थी, ‘‘बूआ, मुझे अपने साथ ले चलो न. वहां मुझे आसानी से कालिज में प्रवेश मिल जाएगा. और फिर आप के यहां मेरी पढ़ाई भी ढंग से हो जाएगी…’’

रुचि ने उसी दिन अपना सामान बांध लिया था और हम लोग दूसरे दिन चल दिए थे.

मेरे पति हर्ष को भी रुचि का आना अच्छा लगा था.

‘‘चलो मनु,’’ वह बोले थे, ‘‘अब तुम्हें अकेलापन नहीं खलेगा.’’

‘‘आजकल मेरे बैंक का काम काफी बढ़ गया है…’’ मैं अभी इतना ही कह पाई थी कि हर्ष बात को बीच में काट कर बोले थे, ‘‘और कुछ काम तुम ने जानबूझ कर ओढ़ लिए हैं. पैसा जोड़ना है, मकान जो बन रहा है…’’

मैं कुछ और कहती कि तभी रुचि आ गई और बोली, ‘‘बूआ, मैं ने टेलीफोन पर सब पता कर लिया है. बस, कल कालिज जा कर फार्म भरना है. कोई दिक्कत नहीं आएगी एडमिशन में. फूफाजी आप चलेंगे न मेरे साथ कालिज, बूआ तो 9 बजे ही बैंक चली जाती हैं.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. चलो, अब इसी खुशी में चाय पिलाओ,’’ हर्ष ने उस की पीठ ठोकते हुए कहा था.

रुचि दूसरे ही क्षण उछलती हुई किचन में दौड़ गई थी.

‘‘इतनी बड़ी हो गई पर बच्ची की तरह कूदती रहती है,’’ मुझे भी हंसी आ गई थी.

चाय के साथ बड़े करीने से रुचि बिस्कुट, नमकीन और मठरी की प्लेटें सजा कर लाई थी. उस की सुघड़ता से मैं और हर्ष दोनों ही प्रभावित हुए थे.

‘‘वाह, मजा आ गया,’’ चाय का पहला घूंट लेते ही हर्ष ने कहा, ‘‘चलो रुचि, तुम पहली परीक्षा में तो पास हो गई.’’

दूसरे दिन हर्ष के साथ स्कूटर पर जा कर रुचि अपना प्रवेशफार्म भर आई थी. मैं सोच रही थी कि शुरू में यहां रुचि  को अकेलापन लगेगा. कालिज से आ कर दिन भर घर में अकेली रहेगी. मैं और हर्ष दोनों ही देर से घर लौट पाते हैं पर रुचि ने अपनी ज्ंिदादिली और दोस्ताना लहजे से आसपास कई घरों में दोस्ती कर ली थी.

‘‘बूआ, आप तो जानती ही नहीं कि आप के साथ वाली कल्पना आंटी कितनी अच्छी हैं. आज मुझे बुला कर उन्होंने डोसे खिलाए. मैं डोसे बनाना सीख भी आई हूं.’’

फिर एक दिन रुचि ने कहा, ‘‘बूआ, आज तो मजा आ गया. पीछे वाली लेन में मुझे अपने कालिज के 2 दोस्त मिल गए, रंजना और उस का भाई रितेश. कल से मैं भी उन के साथ पास के क्लब में बैडमिंटन खेलने जाया करूंगी.’’

हर्ष को अजीब लगा था. वह बोले थे, ‘‘देखो, पराई लड़की है और तुम इस की जिम्मेदारी ले कर आई हो. ठीक से पता करो कि किस से दोस्ती कर रही है.’’

हर्ष की इस संकीर्ण मानसिकता पर मुझे रोष आ गया था.

‘‘तुम भी कभीकभी पता नहीं किस सदी की बातें करने लगते हो. अरे, इतनी बड़ी लड़की है, अपना भलाबुरा तो समझती ही होगी. अब हर समय तो हम उस की चौकसी नहीं कर सकते हैं.’’

हर्ष चुप रह गए थे.

आजकल हर्ष के आफिस में भी काम बढ़ गया था. मैं बैंक से सीधे घर न आ कर वहां चली जाती थी जहां मकान बन रहा था. ठेकेदार को निर्देश देना, काम देखना फिर घर आतेआते काफी देर हो जाती थी. मैं सोच रही थी कि मकान पूरा होते ही गृहप्रवेश कर लेंगे. बेटी भी छुट्टियों में आने वाली थी, फिर भैया, भाभी भी इस मौके पर आ जाएंगे. पर मकान का काम ही ऐसा था कि जल्दी खत्म होने के बजाय और बढ़ता ही जा रहा था.

रुचि ने घर का काम संभाल रखा था, इसलिए मुझे कुछ सुविधा हो गई थी. हर्ष के लिए चायनाश्ता बनाना, लंच तैयार करना सब आजकल रुचि के ही जिम्मे था. वैसे नौकरानी मदद के लिए थी फिर भी काम तो बढ़ ही गया था. घर आते ही रुचि मेरे लिए चायनाश्ता ले आती. घर भी साफसुथरा व्यवस्थित दिखता तो मुझे और खुशी होती.

‘‘बेटे, यहां आ कर तुम्हारा काम तो बढ़ गया है पर ध्यान रखना कि पढ़ाई में रुकावट न आने पाए.’’

‘‘कैसी बातें करती हो बूआ, कालिज से आ कर खूब समय मिल जाता है पढ़ाई के लिए, फिर लीलाबाई तो दिन भर रहती ही है, उस से काम कराती रहती हूं,’’ रुचि उत्साह से बताती.

इस बार कई सप्ताह की भागदौड़ के बाद मुझे इतवार की छुट्टी मिली थी. मैं मन ही मन सोच रही थी कि इस इतवार को दिन भर सब के साथ गपशप करूंगी, खूब आराम करूंगी, पर रुचि ने तो सुबहसुबह ही घोषणा कर दी थी, ‘‘बूआ, आज हम सब लोग फिल्म देखने चलेंगे. मैं एडवांस टिकट के लिए बोल दूं.’’

‘‘फिल्म…न बाबा, आज इतने दिनों के बाद तो घर पर रहने को मिला है और आज भी कहीं चल दें.’’

‘‘बूआ, आप भी हद करती हैं. इतने दिन हो गए मैं ने आज तक इस शहर में कुछ भी नहीं देखा.’’

‘‘हां, यह भी ठीक है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे इतने दोस्त हैं, जिन के बारे में तुम बताया करती हो, उन के साथ जा कर फिल्म देख आओ.’’

मेरे इस प्रस्ताव पर रुचि चिढ़ गई थी अत: उस का मन रखने के लिए मैं ने हर्ष से कहा, ‘‘देखो, आप इसे कहीं घुमा लाओ, मैं तो आज घर पर ही रह कर आराम करूंगी.’’

‘‘अच्छा, तो मैं अब इस के साथ फिल्म देखने जाऊं.’’

‘‘अरे बाबा, फिल्म न सही और कहीं घूम आना, अर्पिता के साथ भी तो तुम जाते थे न.’’

हर्ष और रुचि के जाने के बाद मैं ने घर थोड़ा ठीकठाक किया फिर देर तक नहाती रही. खाना तो नौकरानी आज सुबह ही बना कर रख गई थी. सोचा बाहर का लौन संभाल दूं पर बाहर आते ही रंजना दिख गई थी.

‘‘आंटी, रुचि आजकल कालिज नहीं आ रही है,’’ मुझे देखते ही उस ने पूछा था.

सुनते ही मेरा माथा ठनका. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘कालिज तो वह रोज जाती है.’’

‘‘नहीं आंटी, परसों टेस्ट था, वह भी नहीं दिया उस ने.’’

मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. अंदर आ कर मुझे खुद पर ही झुंझलाहट हुई कि मैं भी कैसी पागल हूं. लड़की को यहां पढ़ाने लाई थी और उसे घर के कामों में लगा दिया. अब इस से घर का काम नहीं करवाना है और कल ही इस के कालिज जा कर इस की पढ़ाई के बारे में पता करूंगी.

‘‘मेम साहब, कपड़े.’’

धोबी की आवाज पर मेरा ध्यान टूटा. कपड़े देने लगी तो ध्यान आया कि जेबें देख लूं. कई बार हर्ष का पर्स जेब में ही रह जाता है. कमीज उठाई तो रुचि की जीन्स हाथ में आ गई. कुछ खरखराहट सी हुई. अरे, ये तो दवाई की गोलियां हैं, पर रुचि को क्या हुआ?

रैपर देखते ही मेरे हाथ से पैकेट छूट गया था, गर्भ निरोधक गोलियां… रुचि की जेब में…

मेरा तो दिमाग ही चकरा गया था. जैसेतैसे कपड़े दिए फिर आ कर पलंग पर पसर गई थी.

कालिज के अपने सहपाठियों के किस्से तो बड़े चाव से सुनाती रहती थी और मैं व हर्ष हंसहंस कर उस की बातों का मजा लेते थे पर यह सब…मुझे पहले ही चेक करना था. कहीं कुछ ऊंचनीच हो गई तो भैयाभाभी को मैं क्या मुंह दिखाऊंगी.

मन में उठते तूफान को शांत करने के लिए मैं ने फैसला लिया कि कल ही इस के कालिज जा कर पता करूंगी कि इस की दोस्ती किन लोगों से है. हर्ष से भी बात करनी होगी कि लड़की को थोड़े अनुशासन में रखना है, यह अर्पिता की तरह सीधीसादी नहीं है.

हर्ष और रुचि देर से लौटे थे. दोनों सुनाते रहे कि कहांकहां घूमे, क्याक्या खाया.

‘‘ठीक है, अब सो जाओ, रात काफी हो गई है.’’

मैं ने सोचा कि रुचि को बिना बताए ही कल इस के कालिज जाऊंगी और हर्ष को आफिस से ही साथ ले लूंगी, तभी बात होगी.

सुबह रोज की तरह 8 बजे ही निकलना था पर आज आफिस में जरा भी मन नहीं लगा. लंच के बाद हर्ष को आफिस से ले कर रुचि के कालिज जाऊंगी, यही विचार था पर बाद में ध्यान आया कि पर्स तो घर पर ही रह गया है और आज ठेकेदार को कुछ पेमेंट भी करनी है. ठीक है, पहले घर ही चलती हूं.

घर पहुंची तो कोई आहट नहीं, सोचा, क्या रुचि कालिज से नहीं आई पर अपना बेडरूम अंदर से बंद देख कर मेरे दिमाग में हजारों कीड़े एकसाथ कुलबुलाने लगे. फिर खिड़की की ओर से जो कुछ देखा उसे देख कर तो मैं गश खातेखाते बची थी.

हर्ष और रुचि को पलंग पर उस मुद्रा में देख कर एक बार तो मन हुआ कि जोर से चीख पड़ूं पर पता नहीं वह कौन सी शक्ति थी जिस ने मुझे रोक दिया था. मन में उठा, नहीं, पहले मुझे इस लड़की को ही संभालना होगा. इसे वापस इस के घर भेजना होगा. मैं इसे अब और यहां नहीं सह पाऊंगी.

मैं लड़खड़ाते कदमों से पास के टेलीफोन बूथ पर पहुंची. फोन लगाया तो भाभी ने ही फोन उठाया था.

बिना किसी भूमिका के मैं ने कहा, ‘‘भाभी रुचि का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा है, और तो और बुरी सोहबत में भी पड़ गई है.’’

‘‘देखो मनु, मैं ने तो पहले ही कहा था कि लड़की का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, तुम्हारी ही जिद थी, पर ऐसा करो उसे वापस भेज दो. तुम तो वैसे ही व्यस्त रहती हो, कहां ध्यान दे पाओगी और इस का मन होगा तो यहीं कोई कोर्स कर लेगी…’’

भाभी कुछ और भी कहना चाह रही थीं पर मैं ने ही फोन रख दिया. देर तक पास के एक रेस्तरां में वैसे ही बैठी रही.

हर्ष यह सब करेंगे मेरे विश्वास से परे था पर सबकुछ मेरी आंखों ने देखा थीं. ठीक है, पिछले कई दिनों से मैं घर पर ध्यान नहीं दे पाई, अपनी नौकरी और मकान के चक्कर में उलझी रही, रात को इतना थक जाती थी कि नींद के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था, पर इस का दुष्परिणाम सामने आएगा, इस की तो सपने में भी मैं ने कल्पना नहीं की थी.

कुछ भी हो रुचि को तो वापस भेजना ही होगा. घंटे भर के बाद मैं घर पहुंची तो हर्ष जा चुके थे. रुचि टेलीविजन देख रही थी. मुझे देखते ही चौंकी.

‘‘बूआ, आप इस समय, क्या तबीयत खराब है? पानी लाऊं?’’

मन तो हुआ कि खींच कर एक थप्पड़ मारूं पर किसी तरह अपने को शांत रखा.

‘‘रुचि, आफिस में भैया का फोन आया था, भाभी सीढि़यों से गिर गई हैं, चोट काफी आई है, तुम्हें इसी समय बुलाया है, मैं भी 2-4 दिन बाद जाऊंगी.’’

‘‘क्या हुआ मम्मी को?’’

रुचि घबरा गई थी.

‘‘वह तो तुम्हें वहां जा कर ही पता लगेगा पर अभी चलो, डीलक्स बस मिल जाएगी. मैं तुम्हें छोड़ देती हूं, थोड़ाबहुत सामान ले लो.’’

आधे घंटे के अंदर मैं ने पास के बस स्टैंड से रुचि को बस में बैठा दिया था.

भाभी को फोन किया कि रुचि जा रही है. हो सके तो मुझे माफ कर देना क्योंकि मैं ने उस से आप की बीमारी का झूठा बहाना बनाया है.

‘‘कैसी बातें कर रही है. ठीक है, अब मैं सब संभाल लूंगी, तू च्ंिता मत कर. और हां, नए फ्लैट का क्या हुआ? कब है गृहप्रवेश?’’ भाभी पूछ रही थीं और मैं चुप थी.

क्या कहती उन से, कौन सा घर, कैसा गृहप्रवेश. यहां तो मेरा बरसों का बसाया नीड़ ही मेरे सामने उजड़ गया थीं. तिनके इधरउधर उड़ रहे थे और मैं बेबस अपने ही घर से ‘बेघर’ होती जा रही थी.

Hindi Kahaniyan : अनुगामिनी

Hindi Kahaniyan :  जिलाधीश राहुल की कार झांसी शहर की गलियों को पार करते हुए शहर के बाहर एक पुराने मंदिर के पास जा कर रुक गई. जिलाधीश की मां कार से उतर कर मंदिर की सीढि़यां चढ़ने लगीं.

‘‘मां, तेरा सुहाग बना रहे,’’ पहली सीढ़ी पर बैठे हुए भिखारी ने कहा.

सरिता की आंखों में आंसू आ गए. उस ने 1 रुपए का सिक्का उस के कटोरे में डाला और सोचने लगी, कहां होगा सदाशिव?

सरिता को 15 साल पहले की अपनी जिंदगी का वह सब से कलुषित दिन याद आ गया जब दोनों बच्चे राशि व राहुल 8वीं9वीं में पढ़ते थे और वह खुद एक निजी स्कूल में पढ़ाती थी. पति सदाशिव एक फैक्टरी में भंडार प्रभारी थे. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. एक दिन वह स्कूल से घर आई तो बच्चे उदास बैठे थे.

‘क्या हुआ बेटा?’

‘मां, पिताजी अभी तक नहीं आए.’

सरिता ने बच्चों को ढाढ़स बंधाया कि पिताजी किसी जरूरी काम की वजह से रुक गए होंगे. जब एकडेढ़ घंटा गुजर गया और सदाशिव नहीं आए तो उस ने राशि को घनश्याम अंकल के घर पता करने भेजा. घनश्याम सदाशिव की फैक्टरी में ही काम करते थे.

कुछ समय बाद राशि वापस आई तो उस का चेहरा उतरा हुआ था. उस ने आते ही कहा, ‘मां, पिताजी को आज चोरी के अपराध में फैक्टरी से निकाल दिया गया है.’

‘यह सच नहीं हो सकता. तुम्हारे पिता को फंसाया गया है.’

‘घनश्याम चाचा भी यही कह रहे थे. परंतु पिताजी घर क्यों नहीं आए?’ राशि ने कहा.

रात भर पूरा परिवार जागता रहा. दूसरे दिन बच्चों को स्कूल भेजने के बाद सरिता सदाशिव की फैक्टरी पहुंची तो उसे हर जगह अपमान का घूंट ही पीना पड़ा. वहां जा कर सिर्फ इतना पता चल सका कि भंडार से काफी सामान गायब पाया गया है. भंडार प्रभारी होने के नाते सदाशिव को दोषी करार दिया गया और उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया.

सरिता घर आ कर सदाशिव का इंतजार करने लगी. दिन भर इंतजार के बाद उस ने शाम को पुलिस में रिपोर्र्ट लिखवा दी.

अगले दिन पुलिस तफतीश के लिए घर आई तो पूरे महल्ले में खबर फैल गई कि सदाशिव फैक्टरी से चोरी कर के भाग गया है और पुलिस उसे ढूंढ़ रही है. इस खबर के बाद तो पूरा परिवार आतेजाते लोगों के हास्य का पात्र बन कर रह गया.

सरिता ने सारे रिश्तेदारों को पत्र भेजा कि सदाशिव के बारे में कोई जानकारी हो तो तुरंत सूचित करें. अखबार में फोटो के साथ विज्ञापन भी निकलवा दिया.

इस मुसीबत ने राहुल और राशि को समय से पहले ही वयस्क बना दिया था. वह अब आपस में बिलकुल नहीं लड़ते थे. दोनों ने स्कूल के प्राचार्य से अपनी परिस्थितियों के बारे में बात की तो उन्होंने उन की फीस माफ कर दी.

राशि ने शाम को बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. राहुल ने स्कूल जाने से पहले अखबार बांटने शुरू कर दिए. सरिता की तनख्वाह और बच्चों की इस छोटी सी कमाई से घर का खर्च किसी तरह से चलने लगा.

इनसान के मन में जब किसी वस्तु या व्यक्ति विशेष को पाने की आकांक्षा बहुत बढ़ जाती है तब उस का मन कमजोर हो जाता है और इसी कमजोरी का लाभ दूसरे लोग उठा लेते हैं.

सरिता इसी कमजोरी में तांत्रिकों के चक्कर में पड़ गई थी. उन की बताई हुई पूजा के लिए कुछ गहने भी बेच डाले. अंत में एक दिन राशि ने मां को समझाया तब सरिता ने तांत्रिकों से मिलना बंद किया.

कुछ माह के बाद ही सरिता अचानक बीमार पड़ गई. अस्पताल जाने पर पता चला कि उसे टायफाइड हुआ है. बताया डाक्टरों ने कि इलाज लंबा चलेगा. यह राशि और राहुल की परीक्षा की घड़ी थी.

ट्यूशन पढ़ाने के साथसाथ राशि लिफाफा बनाने का काम भी करने लगी. उधर राहुल ने अखबार बांटने के अलावा बरात में सिर पर ट्यूबलाइट ले कर चलने वाले लड़कों के साथ भी मजदूरी की. सिनेमा की टिकटें भी ब्लैक में बेचीं. दोनों के कमाए ये सारे पैसे मां की दवाई के काम आए.

‘तुम्हें यह सब करते हुए गलत नहीं लगा?’ सरिता ने ठीक होने पर दोनों बच्चों से पूछा.

‘नहीं मां, बल्कि मुझे जिंदगी का एक नया नजरिया मिला,’ राहुल बोला, ‘मैं ने देखा कि मेरे जैसे कई लोग आंखों में भविष्य का सपना लिए परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे हैं.’

दोनों बच्चों को वार्षिक परीक्षा में स्कूल में प्रथम आने पर अगले साल से छात्रवृत्ति मिलने लगी थी. घर थोड़ा सुचारु रूप से चलने लगा था.

सरिता को विश्वास था कि एक दिन सदाशिव जरूर आएगा. हर शाम वह अपने पति के इंतजार में खिड़की के पास बैठ कर आनेजाने वालों को देखा करती और अंधेरा होने पर एक ठंडी सांस छोड़ कर खाना बनाना शुरू करती.

इस तरह साल दर साल गुजरते चले गए. राशि और राहुल अपनी मेहनत से अच्छी नौकरी पर लग गए. राशि मुंबई में नौकरी करने लगी है. उस की शादी को 3 साल गुजर गए. राहुल भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर झांसी में जिलाधीश बन गया. 1 साल पहले उस ने भी अपने दफ्तर की एक अधिकारी सीमा से शादी कर ली.

सरिता की तंद्रा भंग हुई. वह वर्तमान में वापस आ गई. उस ने देखा कि बाहर काफी अंधेरा हो गया है. हमेशा की तरह उस ने सदाशिव के लिए प्रार्थना की और घर के लिए रवाना हो गई.

‘‘मां, बहुत देर कर दी,’’ राहुल ने कहा.

सरिता ने राहुल और सीमा को देखा और उन का आशय समझ कर चुपचाप खाना खाने लगी.

‘‘बेटा, यहां से कुछ लोग जयपुर जा रहे हैं. एक पूरी बस कर ली है. सोचती हूं कि मैं भी उन के साथ हो आऊं.’’

‘‘मां, अब आप एक जिलाधीश की भी मां हो. क्या आप का उन के साथ इस तरह जाना ठीक रहेगा?’’ सीमा ने कहा.

सरिता ने सीमा से बहस करने के बजाय, प्रश्न भरी नजरों से राहुल की ओर देखा.

‘‘मां, सीमा ठीक कहती है. अगले माह हम सब कार से अजमेर और फिर जयपुर जाएंगे. रास्ते में मथुरा पड़ता है, वहां भी घूम लेंगे.’’

अगले महीने वे लोग भ्रमण के लिए निकल पड़े. राहुल की कार ने मथुरा में प्रवेश किया. मथुरा के जिलाधीश ने उन के ठहरने का पूरा इंतजाम कर के रखा था. खाना खाने के बाद सब लोग दिल्ली के लिए रवाना हो गए. थोड़ी दूर चलने पर कार को रोकना पड़ा क्योंकि सामने से एक जुलूस आ रहा था.

‘‘इस देश में लोगों के पास बहुत समय है. किसी भी छोटी सी बात पर आंदोलन शुरू हो जाता है या फिर जुलूस निकल जाता है,’’ सीमा ने कहा.

राहुल हंस दिया.

सरिता खिड़की के बाहर आतेजाते लोगों को देखने लगी. उस की नजर सड़क के किनारे चाय पीते हुए एक आदमी पर पड़ गई. उसे लगा जैसे उस की सांस रुक गई हो.

वही तो है. सरिता ने अपने मन से खुद ही सवाल किया. वही टेढ़ी गरदन कर के चाय पीना…वही जोर से चुस्की लेना…सरिता ने कई बार सदाशिव को इस बात पर डांटा भी था कि सभ्य इनसानों की तरह चाय पिया करो.

चाय पीतेपीते उस व्यक्ति की निगाह भी कार की खिड़की पर पड़ी. शायद उसे एहसास हुआ कि कार में बैठी महिला उसे घूर रही है. सरिता को देख कर उस के हाथ से प्याली छूट गई. वह उठा और भीड़ में गायब हो गया.

उसी समय जुलूस आगे बढ़ गया और कार पूरी रफ्तार से दिल्ली की ओर दौड़ पड़ी. सरिता अचानक सदाशिव की इस हरकत से हतप्रभ सी रह गई और कुछ बोल भी नहीं पाई.

दिल्ली में वे लोग राहुल के एक मित्र के घर पर रुके.

रात को सरिता ने राहुल से कहा, ‘‘बेटा, मैं जयपुर नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों, मां?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्या मेरा जयपुर जाना बहुत जरूरी है?’’

‘‘हम आप के लिए ही आए हैं. आप की इच्छा जयपुर जाने की थी. अब क्या हुआ? आप क्या झांसी वापस जाना चाहती हैं.’’

‘‘झांसी नहीं, मैं मथुरा जाना चाहती हूं.’’

‘‘मथुरा क्यों?’’

‘‘मुझे लगता है कि जुलूस वाले स्थान पर मैं ने तेरे पिताजी को देखा है.’’

‘‘क्या कर रहे थे वह वहां पर?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं ने उन्हें सड़क के किनारे बैठे देखा था. मुझे देख कर वह भीड़ में गायब हो गए,’’ सरिता ने कहा.

‘‘मां, यह आप की आंखों का धोखा है. यदि यह सच भी है तो भी मुझे उन से नफरत है. उन के कारण ही मेरा बचपन बरबाद हो गया.’’

‘‘मैं जयपुर नहीं मथुरा जाना चाहती हूं. मैं तुम्हारे पिताजी से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, मैं आप के मन को दुखाना नहीं चाहता पर आप उस आदमी को मेरा पिता मत कहो. रही मथुरा जाने की बात तो हम जयपुर का मन बना कर निकले हैं. लौटते समय आप मथुरा रुक जाना.’’

सरिता कुछ नहीं बोली.

सदाशिव अपनी कोठरी में लेटे हुए पुराने दिनों को याद कर रहा था.

3 दिन पहले कार में सरिता थी या कोई और? यह प्रश्न उस के मन में बारबार आता था. और दूसरे लोग कौन थे?

आखिर उस की क्या गलती थी जो उसे अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ कर एक गुमनाम जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा. बस, इतना ही न कि वह इस सच को साबित नहीं कर सका कि चोरी उस ने नहीं की थी. वह मन से एक कमजोर इनसान है, तभी तो बीवी व बच्चों को उन के हाल पर छोड़ कर भाग खड़ा हुआ था. अब क्या रखा है इस जिंदगी में?

खट् खट् खट्, किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

सदाशिव ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने सरिता खड़ी थी. कुछ देर दोनों एक दूसरे को चुपचाप देखते रहे.

‘‘अंदर आने को नहीं कहोगे? बड़ी मुश्किलों से ढूंढ़ते हुए यहां तक पहुंच सकी हूं,’’ सरिता ने कहा.

‘‘आओ,’’ सरिता को अंदर कर के सदाशिव ने दरवाजा बंद कर दिया.

सरिता ने देखा कि कोठरी में एक चारपाई पर बिस्तर बिछा है. चादर फट चुकी है और गंदी है. एक रस्सी पर तौलिया, पाजामा और कमीज टंगी है. एक कोने में पानी का घड़ा और बालटी है. दूसरे कोने में एक स्टोव और कुछ खाने के बरतन रखे हैं.

सरिता चारपाई पर बैठ गई.

‘‘कैसे हो?’’ धीरे से पूछा.

‘‘कैसा लगता हूं तुम्हें?’’ उदास स्वर में सदाशिव ने कहा.

सरिता कुछ न बोली.

‘‘क्या करते हो?’’ थोड़ी देर के बाद सरिता ने पूछा.

‘‘इस शरीर को जिंदा रखने के लिए दो रोटियां चाहिए. वह कुछ भी करने से मिल जाती हैं. वैसे नुक्कड़ पर एक चाय की दुकान है. मुझे तो कुछ नहीं चाहिए. हां, 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकल आता है.’’

‘‘बच्चे?’’ सरिता के स्वर में आश्चर्य था.

‘‘हां, अनाथ बच्चे हैं,’’ उन की पढ़ाई की जिम्मेदारी मैं ने ले रखी है. सोचता हूं कि अपने बच्चों की पढ़ाई में कोई योगदान नहीं कर पाया तो इन अनाथ बच्चों की मदद कर दूं.’’

‘‘घर से निकल कर सीधे…’’ सरिता पूछतेपूछते रुक गई.

‘‘नहीं, मैं कई जगह घूमा. कई बार घर आने का फैसला भी किया पर जो दाग मैं दे कर आया था उस की याद ने हर बार कदम रोक लिए. रोज तुम्हें और बच्चों को याद करता रहा. शायद इस से ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता था. पिछले 5 सालों से मथुरा में हूं.’’

‘‘अब तो घर चल सकते हो. राशि अब मुंबई में है. नौकरी करती है. वहीं शादी कर ली है. राहुल झांसी में जिलाधीश है. मुझे सिर्फ तुम्हारी कमी है. क्या तुम मेरे साथ चल कर मेरी जिंदगी की कमी पूरी करोगे?’’ कहतेकहते सरिता की आंखों में आंसू आ गए.

सदाशिव ने सरिता को उठा कर गले से लगा लिया और बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है. यदि तुम्हारे साथ जा कर मेरे रहने से तुम खुश रह सकती हो तो मैं तैयार हूं. पर क्या इतने दिनों बाद राहुल मुझे पिता के रूप में स्वीकार करेगा? मेरे जाने से उस के सुखी जीवन में कलह तो पैदा नहीं होगी? क्या मैं अपना स्वाभिमान बचा सकूंगा?’’

‘‘तुम क्या चाहते हो कि मैं तुम से दूर रहूं,’’ सरिता ने रो कर कहा और सदाशिव के सीने में सिर छिपा लिया.

‘‘नहीं, मैं चाहता हूं कि तुम झांसी जाओ और वहां ठंडे दिल से सोच कर फैसला करो. तुम्हारा निर्णय मुझे स्वीकार्य होगा. मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करूंगा.’’

सरिता उसी दिन झांसी वापस आ गई. शाम को जब राहुल और सीमा साथ बैठे थे तो उन्हें सारी बात बताते हुए बोली, ‘‘मैं अब अपने पति के साथ रहना चाहती हूं. तुम लोग क्या चाहते हो?’’

‘‘एक चाय वाला और जिलाधीश साहब का पिता? लोग क्या कहेंगे?’’ सीमा के स्वर में व्यंग्य था.

‘‘बहू, किसी आदमी को उस की दौलत या ओहदे से मत नापो. यह सब आनीजानी है.’’

‘‘मां, वह कमजोर आदमी मेरा…’’

‘‘बस, बहुत हो गया, राहुल,’’ सरिता बेटे की बात बीच में ही काटते हुए उत्तेजित स्वर में बोली.

राहुल चुप हो गया.

‘‘मैं अपने पति के बारे में कुछ भी गलत सुनना नहीं चाहती. क्या तुम लोगों से अलग हो कर वह सुख से रहे? उन के प्यार और त्याग को तुम कभी नहीं समझ सकोगे.’’

‘‘मां, हम आप की खुशी के लिए उन्हें स्वीकार सकते हैं. आप जा कर उन्हें ले आइए,’’ राहुल ने कहा.

‘‘नहीं, बेटा, मैं अपने पति की अनुगामिनी हूं. मैं ऐसी जगह न तो खुद रहूंगी और न अपने पति को रहने दूंगी जहां उन को अपना स्वाभिमान खोना पड़े.’’

सरिता रात को सोतेसोते उठ गई. पैर के पास गीलागीला क्या है? देखा तो सीमा उस का पैर पकड़ कर रो रही थी.

‘‘मां, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप का कई बार दिल दुखाया है. आज आप ने मेरी आंखें खोल दीं. मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं भी आप के समान अपने पति के स्वाभिमान की रक्षा कर सकूं.’’

सरिता ने भीगी आंखों से सीमा का माथा चूमा और उस के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा.’’

भोर की पहली किरण फूट पड़ी. जिलाधीश के बंगले में सन्नाटा था. सरिता एक झोले में दो जोड़े कपड़े ले कर रिकशे पर बैठ कर स्टेशन की ओर चल दी. उसे मथुरा के लिए पहली ट्रेन पकड़नी थी.

Hindi Stories Online : मैं पुरुष हूं – क्यों माधवी को छोड़ना चाहता था तरुण

Hindi Stories Online :  मिसेज मेहता 20 साल की बेटी आलिया के साथ व्यस्त थीं. वे आज अपनी साड़ियों को अलमारी से बाहर निकाल रही थीं. साड़ियों को एक बार धूप में सुखाने का इरादा था उन का.

““क्या मम्मी, आप ने तो सारा घर ही कबाड़ कर रखा है,”” मिसेज मेहता का 24-वर्षीय बेटा तरुण बोला.

““अरे बेटे, मैं अपनी अलमारी सही कर रही हूं. मेरी इतनी महंगीमहंगी साड़ियां हैं, इन्हें भी तो देखरेख चाहिए.””

““ये इतनी भारी साड़ियां आप लोग कैसे संभाल लेती हो भला?”” तरुण ने कहा.

““यह सब हमारी संस्कृति की निशानी है,” मिसेज मेहता ने इठलाते हुए कहा.

““अब भला साड़ियों से हमारी संस्कृति का क्या लेनादेना मां? एक बदन ढकने के लिए 5 मीटर लंबी साड़ी लपेटने में भला कौन सी संस्कृति साबित होती है?”” तरुण ने चिढ़ते हु

““अब तुम्हारे मुंह कौन लगे. जब तेरी घरवाली आएगी तब बात करूंगी तुझ से,” ”मां ने हंसते हुए कहा.

तरुण बैंक में कैशियर के पद पर काम कर रहा था और अपनी सहकर्मी माधवी से प्यार करता था. दोनों ने साथ जीनेमरने की कसमें भी खा ली थीं. पर माधवी से शादी को ले कर तरूण हमेशा ही शंकालु रहता था क्योंकि माधवी नए जमाने की लड़की थी जो बिंदास अंदाज में जीती थी. उसे मोटरसाइकिल चलाना पसंद था और अपनी आवाज को बुलंद करना भी उसे अच्छी तरह आता था. उस की यही बात तरुण को संशय में डालती थी कि हो सकता है कि माधवी मां की पसंद पर खरी न उतरे.

“आजकल की लड़कियों को देखो, टौप के अंदर से ब्रा की पट्टी दिखाने से उन्हें कोई परहेज नहीं है. हमारे समय में तो मजाल है कि कोई जान भी पाता कि हम ने अंदर क्या पहन रखा है.”

मां की इस तरह की बातें सुन कर तो तरुण का मन और भी फीका हो जाता था.

माधवी के पापा को लास्ट स्टेज का कैंसर था, इसलिए वे माधवी की शादी जल्द से जल्द कर देना चाहते थे. माधवी भी तरुण पर दबाव बना रही थी कि वह भी घर में अपनी शादी की बात चलाए.

माधवी के बारबार कहने पर एक दिन तरुण ने मां को माधवी के बारे में बताया और माधवी का फोटो भी दिखा दिया.

फोटो देख कर तो मां ने कुछ नहीं कहा पर ऐसा लगा कि माधवी जैसी मौडर्न लड़की को वे अपनी बहू नहीं बनाना चाहती हैं.

““मां, वैसे माधवी घरेलू लड़की ही है. हां, उस के नैननक्श जरूर ऐसे हैं जिन से वह मौडर्न और अकड़ू टाइप की लगती है,”” माधवी की तारीफ का समा बांध दिया था तरुण ने.

तरुण के पिता तो बचपन में ही गुजर गए थे. तब से ले कर आज तक मिसेज मेहता अपना जीवन आलिया और तरुण के लिए ही तो गुजार रही हैं.

तरुण की मां उस की हर पसंद व नापसंद का ध्यान रखती थीं. जवान होते बच्चों की भावनाएं बहुत तीव्र होती हैं और अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए वे कोई भी कदम उठाने से पीछे नहीं हटते.

मां ने आलिया से सवालिया नजरों में ही पूछ लिया कि “यह लड़की तेरी भाभी के रूप में कैसी लगेगी?” आलिया ने भी इशारों में ही बता दिया. आलिया के इस खामोश जवाब का मतलब मां अच्छी तरह समझ गई थीं.

आलिया वैसे भी अकसर खामोश ही रहती थी. उस की इस खामोशी को लोग घमंडी की उपमा देते थे.

आलिया की सहज और मूक स्वीकृति पा कर मां ने भी माधवी से तरुण की शादी करने की इच्छा जाहिर की.

तरुण खुशीखुशी 2 दिनों बाद ही माधवी को घर ले आया. माधवी आज पीले रंग के सलवार सूट में थी. उस ने अपने बालों को खुला छोड़ा हुआ था जो बारबार उस के माथे पर गिर जाते थे और जिन्हें बड़ी अदा से सही करती थी वह.

माधवी से मां ने दोचार सवालजवाब किए और उस के घरेलू हालात के बारे में जानकारी हासिल की. माधवी ने उन्हें बताया कि घर में उस के मांबाप और माधवी ही रहते हैं और पापा कैंसर से पीड़ित हैं, इसलिए घर चलाने का जिम्मा भी उसी पर आ पड़ा है.

इसी प्रकार की औपचारिक बातों के बाद माधवी ने मां और आलिया से विदा ली.

माधवी के जाने के बाद तरुण अपनी मां का निर्णय जानने के लिए मचला जा रहा था. मां ने इस सस्पैंस को थोड़ी देर बनाए रखना उचित समझा. लेकिन तरुण की हालत देख कर उन्होंने हंसते हुए इस रिश्ते के लिए हामी भर दी थी.

तरुण ने तुरंत ही माधवी के मोबाइल पर व्हाट्सऐप मैसेज कर दिया कि मां शादी के लिए तैयार हो गई हैं. अब, बस, जल्दी से तारीख तय कर लेते हैं. मैसेज देख कर माधवी भी खुशी से फूले नहीं समा रही थी. उस की शादी से उस के मांबाप के मन से एक बोझ भी हट जाने वाला था.

अगले दिन बैंक से निकलने के बाद तरुण और माधवी कैफे में गए और अपने भविष्य की तमाम योजनाओं पर विचार करने लगे. दोनों की आंखों में रोमांस और रोमांच का सागर लहरा रहा था.

वापसी में शाम ज्यादा हो गई थी और अंधेरा घिर आया था. तरुण ने माधवी को खुद ही उस के घर तक छोड़ने का मन बनाया और अपनी बाइक पर उस को बैठा कर चल दिया.

बैंक से माधवी के घर की ओर जाते हुए एक पुलिया पड़ती थी जहां पर आवागमन कुछ कम हो जाता था. वहां पर पहुंचते ही तरुण की बाइक पंक्चर हो गई.

“शिट मैन…..पंक्चर हो गई. मेकैनिक देखना पड़ेगा.” इधरउधर नजर दौड़ाने लगा था तरुण. ठीक उसी समय वहां पर 3-4 मुस्टंडे कहीं से प्रकट हो गए. वे सब शराब के नशे में थे. तरुण चौकन्ना हो गया था कि तभी उस के सिर के पीछे किसी ने डंडे से वार किया. बेहोश होने लगा था तरुण. इसी बीच, बाकी के 2 मुस्टंडों ने माधवी को पकड़ लिया और सड़क के किनारे खड़ी एक कार में ले जा कर जबरन उस के साथ बारीबारी मुंह काला करने लगे.

तरुण बेहोश था. माधवी उन गुंडों की हवस का शिकार बनती रही और उस के बाद वे गुंडे उन दोनों को उसी अवस्था में सड़क के किनारे छोड़ कर चले गए. जब उसे होश आया, तब तक माधवी का सबकुछ लुट चुका था. आतेजाते लोगों ने उन दोनों पर नजर डाली. कुछ ने उन के वीडियो भी बनाए. पर मदद किसी ने भी नहीं की. उन्हें मदद तब ही मिल पाई जब पुलिस की पैट्रोलिंग जीप वहां से गुजरी.

तमाम सवालात के बाद पुलिस ने माधवी को अस्पताल में भरती कराया और तरुण को प्राथमिक उपचार के बाद घर जाने दिया गया.

तरुण के दिलोदिमाग पर जोरदार झटका लगा था पर 10 दिनों तक घर में रुकने के बाद उस ने पहले की तरह ही अपने काम पर जाना शुरू कर दिया. पर उस ने माधवी की खोजखबर लेना उचित नहीं समझा.

माधवी सदमे में थी. पर घर की जिम्मेदारियां निभाने के लिए वह बैंक भी आने लगी और पहले की तरह ही काम भी संभाल लिया. माधवी ने जिंदगी की पुरानी लय पाने की दिशा में कदम बढ़ाने शुरू कर दिए. पर इस सफर में उसे अब तरुण का साथ नहीं मिल पा रहा था. वह माधवी की तरफ देखता भी नहीं था, बात करना तो बहुत दूर की बात थी.

माधवी के स्त्रीमन ने बहुत जल्दी ताड़ लिया कि तरुण उस के साथ ऐसा रूखा व्यवहार क्यों कर रहा है, पर बेचारी कर क्या सकती थी. वह अब एक बलात्कार पीड़िता थी. चुपचाप अपने को काम में बिजी कर लिया था माधवी ने.

कुछ समय बीता, तो मां ने तरुण से माधवी के बारे में पूछा, ““आजकल तू माधवी की बात नहीं करता. तुम लोगों ने शादी की तारीख फाइनल की या नहीं?””

““कैसी बातें करती हो मां. अब क्या मैं उस के साथ शादी करूंगा? मेरा मतलब है कि उस का बलात्कार हो चुका है. बलात्कार पीड़िता से कहीं कोई शादी भी करता है भला? म….मैं समाज से कुछ अलग तो नहीं? ”

मां के चेहरे पर कई रंग आनेजाने लगे. उन की आंखों में कई सवाल उमड़ आए थे.

“लगता है मेरी परवरिश में ही कुछ कमी रह गई. ”मन ही मन बुदबुदा उठी थी मां. उन की आंखों की कोर नम हो चली थी जिसे उन्होंने तरुण से बड़ी सफाई से छिपा लिया और बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गईं.

“बलात्कार किसी के भी साथ हो सकता है मेरे साथ, आलिया के साथ… तो क्या तब भी तरुण उसे ऐसे ही त्याग देगा जैसे उस ने माधवी को छोड़ दिया है? हां, एक पुरुष ही तो है वह, जो हमेशा ही दूध का धुला होता है.”

कई तरह के सवाल मां के जेहन में उमड़ आए और कुछ कसैली यादें उन के मन को खट्टा करने लगीं.

5 साल पहले की ही तो बात है. उन दिनों तरुण ट्रेनिंग करने के लिए शहर से बाहर गया हुआ था. आलिया को अचानक बुखार आ गया था. डाक्टर को दिखा कर दवा तो ले आई थीं मिसेज मेहता पर आज सुबह से फिर बुखार तेज हो गया था. डाक्टर से फोन पर उन्होंने संपर्क किया तो उस ने एक दूसरी टेबलेट का नाम बताते हुए कहा कि यह टेबलेट आसपास के मैडिकल स्टोर से ले कर खिला दीजिए, आराम मिल जाएगा.

वे नुक्कड़ वाले मैडिकल स्टोर पर दवाई लेने ही तो गई थीं कि पीछे से किसी ने आलिया के कमरे का दरवाजा खटकाया था. आलिया ने अनमने मन से दरवाजा खोला, तो सामने बगल में रहने वाले 55 साल के अंकल थे. अंकल को यह पता था कि आलिया घर में अकेली है और इसी का लाभ उस ने उठाया, बुखार में तप रही आलिया का बलात्कार कर दिया. जब वे घर पहुंचीं तो आलिया फर्श पर पड़ी हुई थी. बड़ी मुश्किल से ही अपने ऊपर हुए अत्याचार को कह पाई थी आलिया. उन्होंने उसे सीने से लगा लिया और वे दोनों सुबकते रहे थे. पूरे 3 दिन तक फ्लैट का दरवाजा तक नहीं खुला. बदनामी के डर से पुलिस में भी रिपोर्ट नहीं लिखवाई. तरुण से भी नहीं बताया और आननफानन दूसरा फ्लैट तलाश कर लिया था और बगैर तरुण के आने का इंतजार किए ही फ्लैट बदल भी लिया था.

इस राज को अपने सीने में हमेशा के लिए दफन कर लिया था मिसेज मेहता ने. पर आज, तरुण की बातें सुन कर उन के घाव हरे हो गए थे और दर्द भी उभर आया था. पर वे चुप नहीं रहेंगी. उन्होंने आंसू पोछे और तरूण के सामने जा कर खड़ी हो गईं.

““अगर माधवी का रेप हो गया तो क्या वह जूठी हो गई? क्या वह अब माधवी नहीं रही?” मां तेज सांसें ले रही थीं.

““हां मां, भला मैं अपनेआप को ही किसी की जूठन क्यों खिलाऊं?” लापरवाही दिखा रहा था तरुण.

““पर भला इस में माधवी का क्या दोष है?”

““हो सकता है मां. पर ये सब बातें फिल्मों में ही अच्छी लगती हैं. मैं जानबूझ कर तो मक्खी नहीं निगल सकता न.””

““पर दोष तो उन लोगों का है जो इस घृणित कृत्य के लिए जिम्मेदार हैं, न कि माधवी का.””

मां और तरुण में बहस जारी थी. मां लगातार तरूण को समझाने की कोशिश कर रही थीं. पर तरुण की अपनी ही दलीलें थीं. काफी देर बाद भी जब तरुण टस से मस न हुआ तब मां ने उसे वह राज बताना जरूरी समझ लिया था जो अभी तक छिपाए रखा था.

““और अगर किसी ने तेरी बहन आलिया का बलात्कार किया हो तो क्या तब भी तेरी बातों में ऐसी ही कड़वाहट रहेगी? ”

““क्या मतलब है आप का, मां?”

““मतलब साफ है. आलिया का रेप हमारे फ्लैट के पड़ोस में रहने वाले उस 55 साल के बूढ़े ने किया और तब से आलिया किसी के साथ भी सहज नहीं हो पाती और गुमसुम रहती है. तुम्हें समझ नहीं आता वह इतनी चुप क्यों रहती है? अब क्या इस में आलिया का दोष था? क्या हम आलिया को सिर्फ इस बात के लिए छोड़ दें कि वह किसी पुरुष की वहशी मानसिकता का शिकार हो चुकी है?” ”मां लगातार बोलते जा रही थीं. इस समय वे सिर्फ तरुण की मां नहीं थीं बल्कि उन तमाम औरतों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं जो बलात्कार का शिकार होती हैं.

तरुण कोने में खड़ी आलिया की तरफ बढ़ा. आलिया की आंखों से आंसू बह रहे थे. तरुण को आता देख वह झट से कमरे में घुस गई और भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया.

तरुण कभी रोती हुई मां की तरफ देखता, तो कभी आलिया के कमरे के बंद दरवाजे की तरफ. उस के दिमाग में माधवी का चेहरा घूमने लगा था.

अगले दिन शाम को बैंक से तरुण का फोन आया, ““मां मुझे आने में देर हो जाएगी. आज मैं और माधवी मैरिज प्लानर के पास जा रहे हैं अपनी शादी की तैयारी के लिए.

Best Hindi Stories : अहसास – डांसर भाग्यवती को क्या मिला रामनाथ का साथ

Best Hindi Stories :  31 दिसंबर की रात को प्रेम पैलेस लौज का बीयर बार लोगों से खचाखच भरा हुआ था. गीत ‘कांटा लगा….’ के रीमिक्स पर बारबाला डांसर भाग्यवती ने जैसे ही लहरा कर डांस शुरू किया, तो वहां बैठे लोगों की वाहवाही व तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हाल गूंज उठा. लोग अपनीअपनी कुरसी पर बैठे अलगअलग ब्रांड की महंगी से महंगी शराब पीने का लुत्फ उठा रहे थे और लहरातीबलखाती हसीनाओं का आंखों से मजा ले रहे थे. पूरा बीयरबार रंगबिरंगी हलकी रोशनी में डूबा हुआ था. रामनाथ पुलिसिया अंदाज में उस बार में दबंगता से दाखिल हुए. उन्होंने एक निगाह खुफिया तौर पर पूरे बार व वहां बैठे लोगों पर दौड़ाई. उन्हें सूचना मिली थी कि वहां आतंकवादियों को आना है, लेकिन उन्हें कोई नजर नहीं आया.

रामनाथ सीआईडी इंस्पैक्टर थे. किसी ने उन्हें पहचाना नहीं था, क्योंकि वे सादा कपड़ों में थे. जब कोई संदिग्ध नजर नहीं आया, तो रामनाथ बेफिक्र हो कर एक ओर कोने में रखी खाली कुरसी पर बैठ गए और बैरे को एक ठंडी बीयर लाने का और्डर दिया. वे भी औरों की तरह बार डांसर भाग्यवती को घूर कर देखने लगे. बार डांसर भाग्यवती खूबसूरत तो यकीनन थी, तभी तो सभी उस की देह पर लट्टू थे. एक मंत्री, जो बार में आला जगह पर बैठे थे, टकटकी लगाए भाग्यवती के बदन के साथ ऐश करना चाहते थे. वह भी चंद नोटों के बदले आसानी से मुहैया थी. मंत्री महोदय भाग्यवती की जवानी और लचकती कमर पर पागल हुए जा रहे थे, मगर वहां एक सच्चा मर्द ऐसा भी था, जिसे भाग्यवती की यह बेहूदगी पसंद नहीं थी.

रामनाथ का न जाने क्यों जी चाह रहा था कि वह उसे 2 तमाचे जड़ कर कह दे कि बंद करो यह गंदा नाच. पर वे ऐसा नहीं कर सकते थे. आखिर किस हक से उसे डांटते? वे तो अपने केस के सिलसिले में यहां आए थे. शायद यह सवाल उन के दिमाग में दौड़ गया और वे गंभीरता से सोचने लगे कि जिस लड़की के सैक्सी डांस व अदाओं पर पूरा बार झूम रहा है, उस की अदाएं उन्हें क्यों इतनी बुरी लग रही थीं? तभी बैरा रामनाथ के और्डर के मुताबिक चीजें ले आया. उन्होंने बीयर का एक घूंट लिया और फिर भाग्यवती को ताकने लगे.

भाग्यवती का मासूम चेहरा रामनाथ के दिलोदिमाग में उतरता जा रहा था. उन्होंने कयास लगाया कि हो न हो, यह लड़की मुसीबत की मारी है. बार डांसर रेखा रामनाथ को बहुत देर से देख रही थी. कूल्हे मटका कर उस ने रामनाथ की ओर इशारा करते हुए भाग्यवती से कहा, ‘‘देख, तेरा नया मजनू आ गया. वह जाम पी रहा है. तुझ पर उस की निगाहें काफी देर से टिकी हैं. कहीं ले न उड़े… दाम अच्छे लेना, नया बकरा है.’’

‘‘पता है…’’ मुसकरा कर भाग्यवती ने कहा.

भाग्यवती थिरकथिरक कर रामनाथ की ओर कनखियों से देखे जा रही थी कि तभी रामनाथ के सामने वाले आदमी ने कुछ नोटों को हाथ में निकाल कर भाग्यवती की ओर इशारा किया. भाग्यवती इठलातेइतराते हुए उस कालेकलूटे मोटे आदमी के करीब जा कर खड़ी हो गई और मुसकरा कर नोट लेने लगी.

इस दौरान रामनाथ ने कई बार भाग्यवती को देखा. दोनों की निगाहें टकराईं, फिर रामनाथ ने भाग्यवती की बेशर्मी को देख कर सिर झुका लिया. वह मोटा भद्दी शक्लसूरत वाला आदमी सफेदपोश नेता था. वह नई जवां लड़कियों का शौकीन था. उस के आसपास ही उस का पीए, 2-4 चमचे जीहुजूरी में वहां हाजिर थे. मंत्री धीरेधीरे भाग्यवती को नोट थमाता रहा. जब वह अपने हाथ का आखिरी नोट उसे पकड़ाने लगा, तो शराब के नशे में उस का हाथ भी पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया. उस की छातियों पर हाथ फेरा, गालों को चूमा और बोला, ‘‘तुझे मेरे प्राइवेट बंगले पर आना है. बाहर सरकारी गाड़ी खड़ी है. उस में बैठ कर आ जाना. मेरे आदमी सारा इंतजाम कर देंगे. मगर हां, एक बात का ध्यान रखना कि इस बात का पता किसी को न लगे.’’

भाग्यवती मंत्री को हां बोल कर वहां से हट गई. यह देख कर रामनाथ के तनबदन में आग लग गई और वे अपने घर आ गए. उन की आंखों में भाग्यवती का मासूम चेहरा छा गया और वे तरहतरह के खयालों में डूब गए. दूसरे दिन डांस शुरू होने के पहले कमरे में बैठी रेखा भाग्यवती से बोली, ‘‘तेरा मजनू तो एकदम भिखारी निकला. उस की जेब से एक रुपया भी नहीं निकला.’’ भाग्यवती ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो बस उसी का चेहरा देख रही थी. जब वह मंत्री मुझे नोट दे रहा था, तब वह एकदम सिटपिटा सा गया था.’’

बार डांसर रेखा बोली, ‘‘शायद तू ने एक चीज नहीं देखी. जब तू उस मंत्री की गोद में बैठी थी और वह तेरी छातियों की नापतोल कर रहा था, तब उस के चेहरे का रंग ही बदल गया था. देखना, आज फिर वह आएगा. हमें तो सिर्फ पैसा चाहिए, अपने खूबसूरत बदन को नुचवाने का.’’ तभी डांस का समय हो गया. वे दोनों बीयर बार में आ कर गीत ‘अंगूर का दाना हूं….’ पर थिरकने लगी थीं.

रामनाथ अभी तक बार में नहीं आए थे. भाग्यवती की निगाहें बेताबी से उन्हें ढूंढ़ रही थीं. नए ग्राहक जो थे, उन से मोटी रकम लेनी थी. कुछ देर बाद जब रामनाथ आए, तो उन्हें देख कर भाग्यवती को अजीब सी खुशी का अहसास हुआ, पर जब वे खापी कर चलते बने, तो वह सोच में पड़ गई कि यह तो बड़ा अजीब आदमी है… आज भी एक रुपया नहीं लुटाया उस पर. भाग्यवती का दिमाग रामनाथ के बारे में सोचतेसोचते दुखने लगा. वह उन्हें जाननेसमझने के लिए बेचैन हो उठी. जब वे तीसरेचौथे दिन नहीं आए, तो परेशान हो गई.

एक दिन अचानक ही एक पैट्रोल पंप के पास वाली गली के कोने पर खड़ी भाग्यवती पर रामनाथ की नजर पड़ी. कार में बैठा एक आदमी भाग्यवती से कह रहा था, ‘‘चल. जल्दी चल. मंत्रीजी के पास भोपाल. ये ले 10 हजार रुपए. कार में जल्दी से बैठ जा.’’ भाग्यवती ने पूछा, ‘‘मुझे वहां कितने दिन तक रहना पड़ेगा?’’

‘‘कम से कम 4-5 दिन.’’

‘‘मुझे उस के पास मत भेज. वह मेरे साथ जानवरों जैसा सुलूक करता है,’’ गिड़गिड़ाते हुए भाग्यवती बोली. इस पर वह आदमी एकदम भड़क कर कहने लगा, ‘‘तो क्या हुआ, पैसा भी तो अच्छा देता है,’’ और वह डांट कर वहां से चलता बना. इस भरोसे पर कि मंत्री को खुश करने वह भोपाल जरूर जाएगी. यह सारा तमाशा रामनाथ चुपचाप खड़े देख रहे थे. वे जल्दी से भाग्यवती के पीछे लपक कर गए और बोले ‘‘सुनो, रुकना तो…’’ भाग्यवती ने पीछे मुड़ कर देखा और रामनाथ को पहचानते हुए बोली, ‘‘अरे आप… आप तो बार में आए ही नहीं…’’

‘‘वह आदमी कौन था?’’ रामनाथ ने भाग्यवती के सवाल को अनसुना करते हुए सवाल किया.

‘‘क्या बताऊं साहब, मंत्री का खास आदमी था. बार मालिक का हुक्म था कि मैं भोपाल में मंत्रीजी के प्राइवेट बंगले पर जाऊं,’’ भाग्यवती ने रामनाथ से कहा.

‘‘तुम छोड़ क्यों नहीं देती हो ऐसे धंधे को?’’ रामनाथ ने सवाल किया.

‘‘छोड़ने को मैं छोड़ देती साहब… उन को मेरे जैसी और लड़कियां मिल जाएंगी, पर मुझे सहारा कौन देगा? मुझ जैसी बदनाम औरत के बदन से खेलने वाले तो बहुत हैं साहब, पर अपनाने वाला कोई नहीं,’’ कह कर वह रामनाथ के चेहरे की तरफ देखने लगी. रामनाथ पलभर को न जाने क्या सोचते रहे. समाज में उन के काम से कैसा संदेश जाएगा. एक कालगर्ल ही मिली उन को? लेकिन पुलिस महकमा तो तारीफ करेगा. समाज के लोग एक मिसाल मानेंगे. भाग्यवती थी तो एक मजबूर गरीब लड़की. उस को सामाजिक इज्जत देना एक महान काम है. रामनाथ ने भाग्यवती से गंभीरता से पूछा, ‘‘तुम्हें सहारा चाहिए? चलो, मेरे साथ. मैं तुम्हें सहारा दूंगा.’’ भाग्यवती हां में सिर हिला कर रामनाथ के साथ ऐसे चल पड़ी, जैसे वह इस बात के लिए पहले से ही तैयार थी. वह रामनाथ के साथ उन की मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर चुपचाप जा कर बैठ गई.

रामनाथ के घर वालों ने भाग्यवती का स्वागत किया. खुशीखुशी गृह प्रवेश कराया. उस का अलग कमरा दिखाया. इसी बीच भाग्यवती पर मानो वज्रपात हुआ. टेबल पर रखी रामनाथ की एक तसवीर देख कर वह घबरा गई, ‘‘साहब, आप पुलिस वाले हैं? मैं ने तो सोचा भी नहीं था.’’ ‘‘हां, मैं सीबीआई इंस्पैक्टर रामनाथ हूं,’’ उन्होंने गंभीरता से जवाब दिया, ‘‘क्यों, क्या हुआ? पुलिस वाले इनसान नहीं होते हैं क्या?’’ ‘‘जी, कुछ नहीं, ऐसा तो नहीं है,’’ वह बोल कर चुप हो गई और सोचने लगी कि पता नहीं अब क्या होगा?

‘‘भाग्यवती, तुम कुछ सोचो मत. आज से यह घर तुम्हारा है और तुम मेरी पत्नी हो.’’

‘‘क्या,’’ हैरान हो कर अपने खयालों से जागते हुए भाग्यवती हैरत से बोली.

‘‘हां भाग्यवती, क्या तुम्हें मैं पसंद नहीं हूं?’’ उसे हैरान देख कर रामनाथ ने पूछा.

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. आप मुझे बहुत पसंद हैं. मैं सोच रही थी कि हमारी शादी… न कोई रस्मोरिवाज…’’ भाग्यवती बोली. ‘‘देखो भाग्यवती, मैं नहीं मानता ऐसे ढकोसलों को. जब लोग शादी के बाद अपनी बीवी को छोड़ सकते हैं, जला सकते हैं, मार सकते हैं, उस से गिरा हुआ काम करा सकते हैं, तो फिर ऐसे रिवाजों का क्या फायदा? ‘‘मैं ने तुम्हें तुम्हारी सारी बुराइयों को दरकिनार करते हुए सच्चे मन से अपनी पत्नी माना है. तुम चाहो तो मुझे अपना पति मान कर मेरे साथ इज्जत की जिंदगी गुजार सकती हो,’’ रामनाथ ने जज्बाती होते हुए कहा. यह सुन कर भाग्यवती खुशी से हैरान रह गई. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस जिंदगी में उसे सामाजिक इज्जत मिलेगी. अगले दिन जब रामनाथ के आला पुलिस अफसरों ने आ कर भाग्यवती को शादी की बधाइयां दीं व भेंट दीं, तो उस की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. भाग्यवती को उस नरक जैसी जिंदगी से बाहर निकाल कर रामनाथ ने उसे दूसरी जिंदगी दी थी. प्यार के इस खूबसूरत अहसास से वे दोनों बहुत खुश थे.

लेखक- डा. राम सिंह यादव

Short Stories in Hindi : स्नेह की डोर – कौनसी उड़ी थी अफवाह

Short Stories in Hindi :  संजय  से हमारी मुलाकात बड़ी ही दर्दनाक परिस्थितियों में हुई थी. दीवाली आने वाली थी. बाजार की सजावट और खरीदारों की गहमागहमी देखते ही बनती थी. मैं भी दीवाली से संबंधित सामान खरीदने के लिए बाजार गई थी लेकिन जब होश आया तो मैं ने स्वयं को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. मेरे आसपास कई घायल बुरी तरह कराह रहे थे. चारों तरफ अफरातफरी मची थी. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. क्या हुआ, कैसे हुआ, मैं वहां कैसे पहुंची, कुछ भी याद नहीं आ रहा था.

मेरे शरीर पर कई जगह चोट के निशान थे लेकिन वे ज्यादा गहरी नहीं लग रही थीं. मुझे होश में आया देख कर एक नौजवान मेरे पास आया और बड़ी ही आत्मीयता से बोला, ‘‘आप कैसी हैं? शुक्र है आप को होश आ गया.’’

अजनबियों की भीड़ में एक अजनबी को अपने लिए इतना परेशान देख कर अच्छा तो लगा, हैरानी भी हुई.

‘‘मैं यहां कैसे पहुंची? क्या हुआ था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बाजार में बम फटा है, कई लोग…’’ वह बहुत कुछ बता रहा था और मैं जैसे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. मेरे दिलोदिमाग पर फिर, बेहोशी छाने लगी. मैं अपनी पूरी ताकत लगा कर अपने को होश में रखने की कोशिश करने लगी. घर में निखिल को खबर करने या अपने इलाज के बारे में जानने के लिए मेरा होश में आना जरूरी था.

उस युवक ने मेरे करीब आ कर कहा, ‘‘आप संभालिए अपनेआप को. आप उस धमाके वाली जगह से काफी दूर थीं. शायद धमाके की जोरदार आवाज सुन कर बेहोश हो कर गिर गई थीं. इसी से ये चोटें आई हैं.’’

शायद वह ठीक कह रहा था. मेरे साथ ऐसा ही हुआ होगा, तभी तो मैं दूसरे घायलों की तरह गंभीर रूप से जख्मी और खून से लथपथ नहीं थी.

‘‘मैं यहां कैसे पहुंची?’’

उस ने बताया कि वह पास ही रहता है. धमाके के बाद पूरे बाजार में कोहराम मच गया था. इस से पहले कि पुलिस या ऐंबुलैंस आती, लोग घायलों की मदद के लिए दौड़ पड़े थे. उसी ने मुझे अस्पताल पहुंचाया था.

‘‘मेरा नाम संजय है,’’ कहते हुए उस ने तकिए के नीचे से मेरा पर्स निकाल कर दिया और फिर बोला, ‘‘यह आप का पर्स, वहीं आप के पास ही मिला था. इस में मोबाइल देख कर मैं ने आखिरी डायल्ड कौल मिलाई तो वह चांस से आप के पति का ही नंबर था, वे आते ही होंगे.’’

उस के इतना कहते ही मैं ने सामने दरवाजे से निखिल को अंदर आते देखा. वे बहुत घबराए हुए थे. आते ही उन्होंने मेरे माथे और हाथपैरों पर लगी चोटों का जायजा लिया. मैं ने उन्हें संजय से मिलवाया. उन्होंने संजय का धन्यवाद किया जो मैं ने अब तक नहीं किया था.

इतने में डाक्टरों की टीम वहां आ पहुंची. अभी भी अस्पताल में घायलों और उन के अपनों का आनाजाना जारी था. चारों तरफ चीखपुकार, शोर, आहेंकराहें सुनाई दे रही थीं. उस माहौल को देख कर मैं ने घर जाने की इच्छा व्यक्त की. डाक्टरों ने भी देखा कि मुझे कोई ऐसी गंभीर चोटें नहीं हैं, तो उन्होंने मुझे साथ वाले वार्ड में जा कर मरहमपट्टी करवा कर घर जाने की आज्ञा दे दी.

मैं निखिल का सहारा ले कर साथ वाले वार्ड में पहुंची. संजय हमारे साथ ही था. लेकिन मुझे उस से बात करने का कोई अवसर ही नहीं मिला. मैं अपना दर्द उस के चेहरे पर साफ देख रही थी. निखिल ने वहां से लौटते हुए उस का एक बार फिर से धन्यवाद किया और उसे दीवाली के दिन घर आने का न्योता दे दिया.

दीवाली वाले दिन संजय हमारे घर आया. मिठाई के डब्बे के साथ बहुत ही सुंदर दीयों का उपहार भी था. मेरे दरवाजा खोलते ही उस ने आगे बढ़ कर मेरे पैर छुए और दीवाली की शुभकामनाएं भी दीं. मैं ठिठकी सी खड़ी रह गई, तभी वह निखिल के पैर छूने के लिए आगे बढ़ गया. उन्होंने उसे दोनों हाथों से थाम कर गले लगा लिया, ‘‘अरे यार, ऐसे नहीं, गले मिल कर दीवाली की शुभकामनाएं देते हैं. हम अभी इतने भी बुजुर्ग नहीं हुए हैं.’’

हमारा बेटा, सारांश उस से ज्यादा देर तक दूर नहीं रह पाया. दोनों में झट से दोस्ती हो गई. थोड़ी ही देर में दोनों बमपटाखों, फुलझडि़यों को चलाने में खो गए. निखिल उन दोनों का साथ देते रहे लेकिन मैं तो कभी रसोई तो कभी फोन पर शुभकामनाएं देने वालों और घरबाहर दीए जलाने में ही उलझी रही. हालांकि वह रात का खाना खा कर गया लेकिन मुझे उस से उस दिन भी बात करने का अवसर नहीं मिला.

निखिल ने मुझे बताया कि वह मथुरा का रहने वाला है और यहां रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है. यहां पास ही ए ब्लौक में दोस्तों के साथ कमरा किराए पर ले कर रहता है. ऐसे में दूसरों की मदद करने के लिए इस तरह आगे आना यह बताता है कि वह जरूर अच्छे संस्कारी परिवार का बच्चा है. निखिल ने तो उसे यहां तक कह दिया था कि जब कभी किसी चीज की जरूरत हो तो वह बेझिझक हम से कह सकता है.

संजय अब अकसर हमारे घर आने लगा था. हर बार आने का वह बड़ा ही मासूम सा कारण बता देता. कभी कहता इधर से निकल रहा था, सोचा आप का हालचाल पूछता चलूं. कभी कहता, सारांश की बहुत याद आ रही थी, सोचा थोड़ी देर उस के साथ खेल कर फ्रैश हो जाऊंगा तो पढ़ूंगा. कभी कहता, सभी दोस्त घर चले गए हैं, मैं अकेला बैठा बोर हो रहा था, सोचा आप सब को मिल आता हूं.

वह जब भी आता, घंटों चुपचाप बैठा रहता. बोलता बहुत कम. पूछने पर भी सवालों का जवाब टाल जाता. बहुत आग्रह करने पर ही वह कुछ खाने को तैयार होता. बहुत ही भावुक स्वभाव का था, बातबात पर उस की आंखें भीग जातीं. मुझे लगता, वह अपने परिवार से बहुत जुड़ाव रखता होगा. तभी अनजान शहर में अपनों से दूर उसे अपनत्व महसूस होता है इसलिए यहां आ जाता है.

सारांश को तो संजय के रूप में एक बड़ा भाई, एक अच्छा दोस्त मिल गया था. हालांकि दोनों की उम्र में लगभग 10 साल का अंतर था फिर भी दोनों की खूब पटती. पढ़ाईलिखाई की या खेलकूद की, कोई भी चीज चाहिए हो वह संजय के साथ बाजार जा कर ले आता. अब उस की छोटीछोटी जरूरतों के लिए मुझे बाजार नहीं भागना पड़ता. इतना ही नहीं, संजय पढ़ाई में भी सारांश की मदद करने लगा था. सारांश भी अब पढ़ाई की समस्याएं ले कर मेरे पास नहीं आता बल्कि संजय के आने का इंतजार करता.

संजय का आना हम सब को अच्छा लगता. उस का व्यवहार, उस की शालीनता, उस का अपनापन हम सब के दिल में उतर गया था. उस एक दिन की घटना में कोई अजनबी इतना करीब आ जाएगा, सोचा न था. फिर भी उस को ले कर एक प्रश्न मन को निरंतर परेशान करता कि उस दिन मुझे घायल देख कर वह इतना परेशान क्यों था? वह मुझे इतना सम्मान क्यों देता है?

दीवाली वाले दिन भी उस ने आदर से मेरे पांव छू कर मुझे शुभकामनाएं दी थीं. अब भी वह जब मिलता है मेरे पैरों की तरफ ही बढ़ता है, वह तो मैं ही उसे हर बार रोक देती हूं. मैं ने तय कर लिया कि एक दिन इस बारे में उस से विस्तार से बात करूंगी.

जल्दी ही वह अवसर भी मिल गया. एक दिन वह घर आया तो बहुत ही उदास था. सुबह 11 बजे का समय था. निखिल औफिस जा चुके थे और सारांश भी स्कूल में था. आज तक संजय जब कभी भी आया, शाम को ही आया था. निखिल भले औफिस से नहीं लौटे होते थे लेकिन सारांश घर पर ही होता था.

उसे इतना उदास देख कर मैं ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है न, आज कालेज नहीं गए?’’

वह कुछ नहीं बोला, बस चुपचाप अंदर आ कर बैठ गया.

‘‘नाश्ता किया है कि नहीं?’’

‘‘भूख नहीं है,’’ कहते हुए उस की आंखें भीग गईं.

‘‘घर पर सब ठीक है न? कोई दिक्कत हो तो कहो,’’ मैं सवाल पर सवाल किए जा रही थी लेकिन वह खामोश बैठा टुकुरटुकुर मुझे देख रहा था. शायद वह कुछ कहना चाहता था लेकिन शब्द नहीं जुटा पा रहा था. मुझे लगा उसे पैसों की जरूरत है जो वह कहने से झिझक रहा है. घर से पैसे आने में देर हो गई है, इसीलिए कुछ खायापिया भी नहीं है और परेशान है. उस का मुरझाया चेहरा देख कर मैं अंदर से कुछ खाने की चीजें ले कर आई. मेरे बारबार आग्रह करने पर वह रोंआसे स्वर में बोला, ‘‘आज मेरी मां की बरसी है.’’

‘‘क्या?’’ सुनते ही मैं एकदम चौंक उठी. लेकिन उस का अगला वाक्य मुझे और भी चौंका गया. वह बोला, ‘‘आप की शक्ल एकदम मेरी मां से मिलती है. उस दिन पहली बार आप को देखते ही मैं स्वयं को रोक नहीं पाया था.’’

यह सब जान कर मेरे मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला. मैं एकटक उसे देखती रह गई. थोड़ी देर यों ही खामोश बैठे रहने के बाद उस ने बताया कि उस की मां को गुजरे कई साल हो गए हैं. तब वह 7वीं में पढ़ता था. उस की मां उसे बहुत प्यार करती थी. वह मां को याद कर के अकसर अकेले में रोया करता था. बड़ी बहन ने उसे मां का प्यार दिया, उस के आंसू पोंछे, कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी लेकिन 2 साल हो गए, बहन की भी शादी हो गई और वह भी ससुराल चली गई.

मेरे मन में उस बिन मां के बच्चे के लिए ममता तो बहुत उमड़ी लेकिन वह मुझे मां कह सकता है, ऐसा मैं उसे नहीं कह पाई.

संजय में अब मुझे अपना बेटा ही नजर आने लगा था. सारांश का बड़ा भाई नजर आने लगा था. घर में कुछ भी विशेष बनाती तो चाहती कि वह भी आ जाए. बाजार जाती तो सारांश के साथसाथ उस के लिए भी कुछ न कुछ खरीदने को मन चाहता. हम दोनों के बीच स्नेह के तार जुड़ गए थे. मैं सारांश की ही भांति उस के भी खाने का खयाल रखने लगी थी, उस की फिक्र करने लगी थी.

संजय भी हम सब से बहुत घुलमिल गया था. अपनी हर छोटीबड़ी बात, अपनी हर समस्या मुझे ऐसे ही बताता जैसे वह अपनी मां से बात कर रहा हो. यह बात अलग है कि उम्र में इतने कम अंतर के कारण वह भी मुझे मां कहने से झिझकता था.

कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही हूं कि जैसेजैसे संजय के साथ जुड़ा रिश्ता मजबूत होता जा रहा था वैसेवैसे निखिल और सारांश का रवैया कुछ बदलता जा रहा था. सारांश अब पहले की तरह उसे घर आया देख कर खुश नहीं होता और निखिल के चेहरे पर भी कोई ज्यादा खुशी के भाव अब नजर नहीं आते. अब वे उस से न ज्यादा बात करते हैं न ही उस से बैठने या कुछ खाने आदि के लिए आग्रह ही करते हैं.

सारांश तो बच्चा है. उस के व्यवहार, उस की बेवजह की जिद और शिकायतों से मुझे अंदाजा होने लगा था कि वह मेरा प्यार बंटता हुआ नहीं देख पा रहा है. मेरे समय, मेरे प्यार, मेरे दुलार, सब पर सिर्फ उसी का अधिकार है. इस सब का अंश मात्र भी वह किसी से बांटना नहीं चाहता. लेकिन निखिल को क्या हुआ है?

मैं कुछ समय से नोट कर रही हूं कि संजय को घर पर आया देख कर निखिल बेवजह छोटीछोटी बात पर चिल्लाने लगते हैं. अलग से बैडरूम में जा कर बैठ जाते हैं. बातोंबातों में संजय का जिक्र आते ही या तो उसे अनसुना कर देते हैं या झट से बातचीत का विषय ही बदल देते हैं. उन के ऐसे व्यवहार से मैं बहुत आहत हो जाती, तनाव में आ जाती.

एक दिन मैं ने निखिल से पूछ ही लिया कि आखिर बात क्या है? उन्हें संजय की कौन सी बात बुरी लग गई है? उन का व्यवहार संजय के प्रति इतना बदल क्यों गया है? निखिल ने भी कुछ नहीं छिपाया. उन्होंने जो कुछ कहा, सुन कर मैं सन्न रह गई.

निखिल का कहना था कि मुझे इस तरह संजय की बातों में आ कर भावनाओं में नहीं बहना चाहिए. इतने बड़े नौजवान को इस उम्र में मां के प्यार की नहीं, एक अच्छे दोस्त की जरूरत होती है. वह यदि अपनी भावनाओं को ठीक से समझ नहीं पा रहा है तो मुझे तो समझदारी से काम लेना चाहिए. संजय का इस तरह अकसर घर आना अफवाहों को हवा दे रहा है. बाहर दुनिया न जाने क्याक्या बातें बना रही होगी.

यह सब सुन कर मैं ने कई दिनों तक इस विषय पर बहुत मंथन किया. निखिल ऐसे नहीं हैं, न ही उन की सोच इतनी कुंठित है. ऐसा होता तो वह पहले ही दिन से संजय के साथ इतने घुलमिल न गए होते. वे मेरे बारे में भी कोई शकशुबहा नहीं रखते हैं. जरूर आसपड़ोस से ही उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना होगा जो उन्हें अच्छा नहीं लगा.

अब कहने वालों का मुंह तो बंद किया नहीं जा सकता, स्वयं को ही सुधारा जा सकता है कि किसी को कुछ कहने का अवसर ही न मिले. लोगों का क्या है, वे तो धुएं की लकीर देखते ही चिनगारियां ढूंढ़ने निकल पड़ते हैं. मैं ने निखिल को कोई सफाई नहीं दी. न ही मैं उन्हें यह बता पाई कि मैं तो संजय में अपने सारांश का भविष्य देखने लग गई हूं. संजय को देखती हूं तो सोचती हूं कि एक दिन हमारा सारांश भी इसी तरह बड़ा होगा. पढ़लिख कर इंजीनियर बनेगा. उसी तरह हमारा सम्मान करेगा, हमारा खयाल रखेगा.

मैं ने महसूस किया है कि अपने इस बदले हुए व्यवहार से निखिल भी सहज नहीं हैं. वे संजय से नाराज भी नहीं हैं. अगर उन्हें संजय का घर आना बुरा लगता होता तो वे उसे साफ शब्दों में मना कर देते. वे बहुत ही स्पष्टवादी हैं, मैं जानती हूं.

लेकिन मैं क्या करूं? संजय से क्या कहूं? उसे घर आने से कैसे रोकूं? वह तो टूट ही जाएगा. जब से उस ने घर आना शुरू किया है वह कितना खुश रहता है.

पढ़ाई में भी बहुत अच्छा कर रहा है. उस का इंजीनियरिंग का यह अंतिम वर्ष है. क्या दुनिया के डर से मैं उस का सुनहरा भविष्य चौपट कर दूं? उस ने तो कितने पवित्र रिश्ते की डोर थाम कर मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया है. मैं एक औरत, एक मां हो कर उस बिन मां के बच्चे का हाथ झटक दूं?

अभी पिछले दिनों ही तो मदर्स डे के दिन कितने मन से मेरे लिए फूल, कार्ड और मेरी पसंद की मिठाई लाया था. कह रहा था, जिस दिन उस की नौकरी लग जाएगी वह मेरे लिए एक अच्छी सी साड़ी लाएगा. उस की इस पवित्र भावना को मैं दुनिया की बुरी नजर से कैसे बचाऊं?

मैं ने संजय के व्यवहार को बहुत बारीकी से जांचापरखा है लेकिन कहीं कुछ गलत नहीं पाया. उस की भावनाओं में कहीं कोई खोट नहीं है. फिर भी अब न चाहते हुए भी उस के घर आने पर मेरा व्यवहार बड़ा ही असहज हो उठता. पता नहीं आसपड़ोस वालों की गलत सोच मुझ पर हावी हो जाती या निखिल का व्यवहार या सारांश की बिना कारण चिड़चिड़ाहट और जिद मुझ से यह सब करवाती.

इधर संजय ने भी घर आना कम कर दिया है. पता नहीं हम सब के व्यवहार को देख कर यह फैसला किया है या उस ने भी लोगों की बातें सुन लीं या वास्तव में वह परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था, जैसा कि उस ने बताया था. मुझे उस की बहुत याद आती. उस की चिंता भी रहती लेकिन मैं किसी से कुछ न कहती, न ही उसे बुलाती.

निखिल औफिस के काम से 10 दिनों के लिए ताइवान गए हुए थे. कल सुबह उन की वापसी थी. मैं और सारांश बहुत बेसब्री से उन के लौटने की राह देख रहे थे. सुबह से मेरी तबीयत भी कुछ ठीक नहीं लग रही थी. शाम होतेहोते अचानक जोरदार कंपकंपाहट के साथ मुझे तेज बुखार आ गया. घर में रखी बुखार की गोली खा ली है. लिहाफकंबल सभी कुछ ओढ़ने के बाद भी मैं कांपती ही जा रही थी. बुखार बढ़ता ही जा रहा था. मैं कब बेहोश हो गई, मुझे कुछ पता ही नहीं लगा.

अगले दिन सुबह जब ठीक से होश आया तो परेशान, दुखी, घबराया हुआ संजय मेरे सामने खड़ा था. उस की उंगली थामे साथ में सारांश भी खड़ा था. मुझे होश में आया देख कर सारांश आंखों में आंसू भर कर मम्मीमम्मी कहता हुआ मुझ से लिपट गया. भाव तो संजय के भी कुछ ऐसे ही थे. आंखें उस की भी सजल हो उठी थीं लेकिन वह अपनी जगह स्थिर खड़ा रहा. तभी निखिल भी आ पहुंचे.

तब हम ने जाना कि मेरी हालत देख कर सारांश पड़ोस की वीना आंटी को बुलाने दौड़ा तो वे लोग घर पर ही नहीं थे. तभी उस ने घबरा कर संजय को फोन कर दिया था. संजय डाक्टर को ले कर पहुंच गया. डाक्टर ने तुरंत मलेरिया का इलाज शुरू कर दिया और खून की जांच करवाने के लिए कहा. उस समय 104 डिगरी बुखार था. डाक्टर के कहे अनुसार संजय रात भर मेरे सिर पर पानी की पट्टियां रखता रहा और दवा देता रहा था. इतना ही नहीं, उस ने सारांश की भी देखभाल की थी.

‘‘तुम ने दूसरी बार मेरी पत्नी की जान बचाई है. मेरी गृहस्थी उजड़ने से बचाई है. मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूं,’’ कहते हुए निखिल ने संजय को गले से लगा लिया. निखिल बहुत भावुक हो उठे थे. मैं जानती हूं, वे मुझ से बहुत प्यार करते हैं. मेरी जरा सी परेशानी उन्हें झकझोर देती है.

‘‘यह तो मेरा फर्ज था. मैं एक बार अपनी मां को खो चुका हूं, दोबारा…’’ संजय के जो आंसू अभी तक पलकों में छिपे हुए थे, बह निकले. आंसू तो निखिल की भी आंखों में थे, पता नहीं मेरे ठीक होने की खुशी के थे या संजय के प्रति अपने व्यवहार के पश्चात्ताप के लिए थे.

‘‘तुम दोनों बैठो अपनी मां के पास, मैं नाश्ते का प्रबंध करता हूं. मैं भी रातभर सफर में था और लगता है तुम लोगों ने भी कल रात से कुछ नहीं खाया है,’’ कहते हुए निखिल जल्दी से बाहर चले गए.

मैं जान गई हूं कि अब निखिल को दुनिया की कोई परवा नहीं, उन्होंने मेरे और संजय के रिश्ते की पवित्रता को दिल से स्वीकार कर लिया था.

Famous Hindi Stories : शादी का जख्म – क्या सच्चा था नौशाद का प्यार

Famous Hindi Stories : मारिया की ड्यूटी आईसीयू में थी. जब वह बैड नंबर 5 के पास पहुंची तो सुन्न रह गई. उस के पांव जैसे जमीन ने जकड़ लिए. बैड पर नौशाद था, वही चौड़ी पेशानी, गोरा रंग, घुंघराले बाल. उस का रंग पीला हो रहा था. गुलाबी होंठों पर शानदार मूंछें, बड़ीबड़ी आंखें बंद थीं. वह नींद के इंजैक्शन के असर में था.

मारिया ने खुद को संभाला. एक नजर उस पर डाली. सब ठीक था. वैसे वह उस के ड्यूटीचार्ट में न था. बोझिल कदमों से वह अपनी सीट पर आ गई. मरीजों के चार्ट भरने लगी. उस के दिलोदिमाग में एक तूफान बरपा था. जहां वह काम करती थी वहां जज्बात नहीं, फर्ज का महत्त्व था. वह मुस्तैदी से मरीज अटैंड करती रही.

काम खत्म कर अपने क्वार्टर पर पहुंची तो उस के सब्र का बांध जैसे टूट गया. आंसुओं का सैलाब बह निकला. रोने के बाद दिल को थोड़ा सुकून मिल गया. उस ने एक कप कौफी बनाई. मग ले कर छोटे से गार्डन में बैठ गई. फूलों की खुशबू और ठंडी हवा ने अच्छा असर किया. उस की तबीयत बहाल हो गई. खुशबू का सफर कब यादों की वादियों में ले गया, पता ही नहीं चला.

मारिया ने नर्सिंग का कोर्स पूरा कर लिया तो उसे एक अच्छे नर्सिंगहोम में जौब मिली. अपनी मेहनत व लगन से वह जल्द ही अच्छी व टैलेंटेड नर्सों में गिनी जाने लगी. वह पेशेंट्स से बड़े प्यार से पेश आती. उन का बहुत खयाल रखती. व्यवहार में जितनी विनम्र, सूरत में उतनी ही खूबसूरत, गंदमी रंगत, बड़ीबड़ी आंखें, गुलाबी होंठ. जो उसे देखता, देखता ही रह जाता. होंठों पर हमेशा मुसकान.

उन्हीं दिनों नर्सिंगहोम में एक पेशेंट भरती हुआ. उस का टायफायड बिगड़ गया था. वह लापरवाह था. परहेज भी नहीं करता था. उस की मां ने परेशान हो कर नर्सिंगहोम में भरती कर दिया. उस के रूम में मारिया की ड्यूटी थी. अपने अच्छे व्यवहार और मीठी जबान से जल्द ही उस ने मरीज और मर्ज दोनों पर काबू पा लिया.

मारिया के समझाने से वह वक्त पर दवाई लेता और परहेज भी करता. एक हफ्ते में उस की तबीयत करीबकरीब ठीक हो गईर्. नौशाद की अम्मा बहुत खुश हुई. बेटे के जल्दी ठीक होने में वह मारिया का हाथ मानती. वह बारबार उस के एहसान का शुक्रिया अदा करती. मारिया को पता ही नहीं चला कब उस ने नौशाद के दिल पर सेंध लगा दी.

अब नौशाद उस से अकसर मिलने आ जाता. शुक्रिया कहने के बहाने एक बार कीमती गिफ्ट भी ले आया. मारिया ने सख्ती से इनकार कर दिया और गिफ्ट नहीं लिया. धीरेधीरे अपने प्यारभरे व्यवहार और शालीन तरीके से नौशाद ने मारिया के दिल को मोम कर दिया. अगर रस्सी पत्थर पर बारबार घिसी जाए तो पत्थर पर भी निशान बन जाता है, वह तो फिर एक लड़की का नाजुक दिल था. वैसे भी, मारिया प्यार की प्यासी और रिश्तों को तरसी हुई थी.

मारिया ने जब मैट्रिक किया, उसी वक्त उस के मम्मीपापा एक ऐक्सिडैंट में चल बसे थे. करीबी कोई रिश्तेदार न था. रिश्ते के एक चाचा मारिया को अपने साथ ले आए. अच्छा पैसा मिलने की उम्मीद थी. चाचा के 5 बच्चे थे, मुश्किल से गुजरबसर होती थी.

मारिया के पापा के पैसों के लिए दौड़धूप की, उसे समझा कर पैसा अपने अकाउंट में डाल लिया. अच्छीखासी रकम थी. चाचा ने इतना किया कि मारिया की आगे की पढ़ाई अच्छे से करवाई. वह पढ़ने में तेज भी थी. अच्छे इंस्टिट्यूट से उसे नर्सिंग की डिगरी दिलवाई. उस की सारी सहूलियतों का खयाल रखा. जैसे ही उस का नर्सिंग का कोर्स पूरा हुआ, उसे एक अच्छे नर्सिंगहोम में जौब मिल गई.

जौब मिलते ही चाचा ने हाथ खड़े कर दिए और कहा, ‘हम ने अपना फर्ज पूरा कर दिया. अब तुम अपने पैरों पर खड़ी हो गई हो. तुम्हें दूसरे शहर में जौब मिल गई. तुम्हारे पापा का पैसा भी खत्म हो गया. इस से ज्यादा हम कुछ नहीं कर सकते हैं. हमारे सामने हमारे 5 बच्चे भी हैं.’

चाची तो वैसे ही उस से खार खाती थी, जल्दी से बोल पड़ी, ‘हम से जो बना, कर दिया. आगे हम से कोईर् उम्मीद न रखना. अपनी सैलरी जमा कर के शादीब्याह की तैयारी करना. हमें हमारी

3 लड़कियों को ठिकाने लगाना है. वहां इज्जत से नौकरी करना, हमारा नाम खराब मत करना. अगर कोई गलत काम करोगी तो हमारी लड़कियों की शादी होनी मुश्किल हो जाएगी.’

सारी नसीहतें सुन कर मारिया नई नौकरी पर रवाना हुई. वह जानती थी कि उस के पापा के काफी पैसे बचे हैं. पर बहस करने से या मांगने से कोई फायदा न था. चाचा सारे जहां के खर्चे गिना देते. उस का पैकेज अच्छा था. अस्पताल में नर्सों के लिए बढि़या होस्टल था. मारिया जल्द ही सब से ऐडजस्ट हो गई. अपने मिलनसार व्यवहार से जल्द ही वह पौपुलर हो गई.

एना से उस की अच्छी दोस्ती हो गई. वह उस के साथ काम करती थी. एना अपने पेरैंटस के साथ रहती थी. उस के डैडी माजिद अली शहर के मशहूर एडवोकेट थे. जिंदगी चैन से गुजर रही थी कि नौशाद से मुलाकात हो गई. नौशाद की मोहब्बत के जादू से वह लाख चाह कर भी बच न सकी. एना उस की राजदार भी थी. मारिया ने नौशाद के प्रपोजल के बारे में एना को बताया.

एना ने कहा, ‘हमें यह बात डैडी को

बतानी चाहिए. उन दोनों ने नौशाद

के प्रस्ताव की बात माजिद अली को बताई. माजिद अली ने कहा, ‘मारिया बेटा, मैं 8-10 दिनों में नौशाद के बारे में पूरी मालूमात कर के तुम्हें बताऊंगा. उस के बाद ही तुम कोई फैसला करना.’

कुछ दिनों बाद माजिद साहब ने बताया, ‘नौशाद एक अच्छा कारोबारी आदमी है. इनकम काफी अच्छी है. लेदर की फैक्टरी है. सोसायटी में नाम व इज्जत है. परिवार भी छोटा है. पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं. एक बहन आस्ट्रेलिया में है. शादी के बाद वह वहीं सैटल हो गई है. घर में बस मां है. नौशाद घुड़सवारी व घोड़ों का शौकीन है. स्थानीय क्लब का मैंबर है. पर एक बुरी लत है कि शराब पीता है. वैसे, आजकल हाई सोसायटी में शराब पीना आम बात है. ये सब बातें देखते हुए तुम खुद सोचसमझ कर फैसला करो. मुझे तो रिश्ता अच्छा लग रहा है. बाकी तुम देख लो बेटा.’ मारिया ने खूब सोचसमझ कर रिश्ते के लिए हां कर दी.

शादी का सारा इंतजाम माजिद साहब ने किया. शादी में चाचाचाची के अलावा उस की सहेलियां व माजिद साहब के कुछ दोस्त शामिल हुए. बरात में कम ही लोग थे. नौशाद के बहनबहनोई और कुछ रिश्तेदार व दोस्त. शादी में चाचा ने एक चेन व लौकेट दिए.

मारिया शादी के बाद नौशाद के शानदार बंगले में आ गई. अम्मा ने उस का शानदार स्वागत किया. धीरेधीरे सब मेहमान चले गए. अब घर पर अम्मा और मारिया व एक पुरानी बूआ थीं. सर्वेंट क्वार्टर में चौकीदार व उस की फैमिली रहती थी. अम्मा बेहद प्यार से पेश आतीं. वे दोनों हनीमून पर हिमाचल प्रदेश गए. 2-3 महीने नौशाद की जनूनी मोहब्बत में कैसे गुजर गए, पता नहीं चला.

जिंदगी ऐश से गुजर रही थी. धीरेधीरे सामान्य जीवन शुरू हो गया. मारिया ने नर्सिंगहोम जाना शुरू कर दिया. घर का सारा काम बूआ करतीं. कभीकभार मारिया शौक से कुछ पका लेती. सास बिलकुल मां की तरह चाहती थीं.

मारिया अपनी ड्यूटी के साथसाथ नौशाद व अम्मा का भी खूब खयाल रखती. सुखभरे दिन बड़ी तेजी से गुजर रहे थे. सुखों की भी अपनी एक मियाद होती है. अब नौशाद के सिर से मारिया की मोहब्बत का नशा उतर रहा था.

अकसर ही नौशाद पी कर घर आता. मारिया ने प्यार व गुस्से से उसे समझाने की बहुत कोशिश की. पर उस पर कुछ असर न हुआ. ऐसे जनूनी लोग जब कुछ पाने की तमन्ना करते हैं तो उस के पीछे पागल हो जाते हैं और जब पा लेते हैं तो वह चाहत, वह जनून कम हो जाता है.

एक दिन करीब आधी रात को नौशाद नशे में धुत आया. मारिया ने बुराभला कहना शुरू किया. नौशाद भड़क उठा. जम कर तकरार हुई. नशे में नौशाद ने मारिया को धक्का दिया. वह गिर पड़ी. गुस्से में उस ने उसे 2-3 लातें जमा दीं. चीख सुन कर अम्मा आ गईं. जबरदस्ती नौशाद को हटाया. उसे बहुत बुराभला कहा. पर उसे होश कहां था. वह वहीं बिस्तर पर ढेर हो गया. अम्मा मारिया को अपने साथ ले गईं. बाम लगा कर सिंकाई की. उसे बहुत समझाया, बहुत प्यार किया.

दूसरे दिन मारिया कमरे से बाहर न निकली, न अस्पताल गई. नौशाद 1-2 बार कमरे में आया पर मारिया ने मुंह फेर लिया. 2 दिनों तक ऐसे ही चलता रहा. तीसरे दिन शाम को नौशाद जल्दी आ गया, साथ में फूलों का गजरा लाया. मारिया से खूब माफी मांगी. बहुत मिन्नत की और वादा किया कि अब ऐसा नहीं होगा. मारिया के पास माफ करने के अलावा और कोई रास्ता न था. नौशाद पीता तो अभी भी था पर घर जल्दी आ जाता था. मारिया हालात से समझौता करने पर मजबूर थी. वैसे भी, नर्सों के बारे में गलत बातें मशहूर हैं. सब उस पर ही इलजाम लगाते.

उस दिन मारिया के अस्पताल में कार्यक्रम था. एक बच्ची खुशी का बर्थडे था. उस की मां बच्ची को जन्म देते ही चल बसी. पति उसे छोड़ चुका था. एक विडो नर्स ने सारी कार्यवाही पूरी कर के उसे बेटी बना लिया.

अस्पताल का सारा स्टाफ उसे बेटी की तरह प्यार करता था. उस का बर्थडे अस्पताल में शानदार तरीके से मनाया जाता था. मारिया उस बर्थडे में शामिल होने के लिए घर से अच्छी साड़ी ले कर गई थी. अम्मा को बता दिया था कि आने में उसे देर होगी. प्रोग्राम खत्म होतेहोते रात हो गई. उस के सहयोगी डाक्टर राय उसे छोड़ने आए थे. नौशाद घर आ चुका था.

सजीसंवरी मारिया घर में दाखिल हुई. वह अम्मा को प्रोग्राम के बारे में बता रही थी कि कमरे से नौशाद निकला. वह गुस्से से तप रहा था, चिल्ला कर बोला, ‘इतना सजधज कर किस के साथ घूम रही हो? कौन तुम्हें ले कर आया है? शुरू कर दीं अपनी आवारागर्दियां? तुम लोग कभी सुधर नहीं सकते.’

वह गुस्से से उफन रहा था. उस के मुंह से फेन निकल रहा था. उस ने जोर से मारिया को एक थप्पड़ मारा. मारिया जमीन पर गिर गई. उस ने झल्ला कर एक लात जमाई.

अम्मा ने धक्का मार कर उसे दूर किया. अम्मा के गले लग कर मारिया देर रात तक रोती रही. बर्थडे की सारी खुशी मटियामेट हो गई. 2-3 दिनों तक वह घर में रही. पूरे घर का माहौल खराब हो गया. मारिया ने उस से बात करनी छोड़ दी.

ऐसे कब तक चलता. फिर से नौशाद ने खूब मनाया, बहुत शर्मिंदा हुआ, बहुत माफी मांगी, ढेरों वादे किए. न चाहते हुए भी मारिया को झुकना पड़ा. पर इस बार उसे बड़ी चोट पहुंची थी. उस ने एक बड़ा फैसला किया, नौकरी से इस्तीफा दे दिया. उसे घर बचाना था. उसे घर या नौकरी में से किसी एक को चुनना था. उस ने घरगृहस्थी चुनी. अब घर में सुकून हो गया. जिंदगी अपनी डगर पर चल पड़ी. फिर भी नौशाद कभी ज्यादा पी कर आता, तो हाथ उठा देता. मारिया हालात से समझौता करने को मजबूर थी.

शादी को 2 साल हो गए. उस के दिल में औलाद की आरजू पल रही थी. अम्मा ने खुले शब्दों में औलाद की फरमाइश कर दी थी. उस की आरजू पूरी हुई. मारिया ने अम्मा को खुशखबरी सुनाई. अम्मा बहुत खुश हुईं. उन्होंने मारिया को पूरी तरह आराम करने की हिदायत दे दी. नौशाद ने कोई खास खुशी का इजहार नहीं किया. अम्मा उस का खूब खयाल रखतीं. दिन अच्छे गुजर रहे थे.

उस दिन नौशाद जल्दी आ गया था. मारिया जब कमरे में गई तो वह पैग बना रहा था. मारिया खामोश ही रही. कुछ कहने का मतलब एक हंगामा खड़ा करना. नौशाद कहने लगा, ‘मारिया, तुम अपने अस्पताल में तो अल्ट्रासाउंड करवा सकती हो, ताकि पता चल जाए लड़का है या लड़की. मुझे तो बेटा चाहिए.’

मारिया ने अल्ट्रासाउंड कराने से साफ इनकार करते हुए कहा, ‘मुझे नहीं जानना है कि लड़की है या लड़का. जो भी होगा, उसे मैं सिरआंखों पर रखूंगी. मैं तुम्हारी कोई शर्त नहीं सुनूंगी. मैं मां हूं, मुझे हक है बच्चे को जन्म देने का चाहे वह लड़का हो या लड़की.’

बात बढ़ती गई. नौशाद को उस का इनकार सुन कर गुस्सा आ गया. फिर नशा भी चढ़ रहा था. मारिया पलंग पर लेटी थी. उस ने मारना शुरू कर दिया. एक लात उस के पेट पर मारी. मारिया बुरी तरह तड़प रही थी. पेट पकड़ कर रो रही थी. चीख रही थी. अम्मा व बूआ ने फौरन सहारा दे कर मारिया को उठाया. उसे अस्पताल ले गईं. वहां फौरन ही उस का इलाज शुरू हो गया. कुछ देर बाद डाक्टर ने आ कर बताया कि मारिया का अबौर्शन करना पड़ा. उस की हालत सीरियस है.

अम्मा और बूआ पूरी रात रोती रहीं. दूसरे दिन मारिया की हालत थोड़ी संभली. नौशाद आया तो अम्मा ने उसे खूब डांटा, मना करती थी मत मार बीवी को लातें. उस की कोख में तेरा बच्चा पल रहा है, तेरे खानदान का नाम लेवा. पर तुझे अपने गुस्से पर काबू कब रहता है? नशे में पागल हो जाता है. अब सिर पकड़ कर रो, बच्चा पेट में ही मर गया.

एना और माजिद साहब भी आ गए. वे लोग रोज आते रहे. मारिया की देखरेख करते रहे. नौशाद की मारिया के सामने जाने की हिम्मत नहीं हुई. हिम्मत कर के गया तो मारिया ने न तो आंखें खोलीं, न उस से बात की. उस का सदमा बहुत बड़ा था. मारिया जब अस्पताल से डिस्चार्ज हुई तो उस ने अम्मा से साफ कह दिया कि वह नौशाद के साथ नहीं रह सकती.

मारिया एना व माजिद साहब के साथ उन के घर चली गई. नौशाद ने मिलने की, मनाने की बहुत कोशिश की, पर मारिया नहीं मिली. अब माजिद साहब एक मजबूत दीवार बन कर खड़े हो गए थे.

नौशाद फिर आया तो मारिया ने तलाक की मांग रख दी. नौशाद ने खूब माफी मांगी, मिन्नतें कीं पर इस बार मारिया के मातृत्व पर लात पड़ी थी, वह बरदाश्त न कर सकी, तलाक पर अड़ गई. नौशाद ने साफ इनकार कर दिया. मारिया ने माजिद साहब से कहा, ‘‘अगर नौशाद तलाक देने पर नहीं राजी है तो आप उसे खुला (खुला जब पत्नी पति से अलग होना चाहती है, इस में उसे खर्चा व मेहर नहीं मिलता) का नोटिस दे दें.’’

माजिद साहब की कोशिश से उसे जल्दी खुला मिल गया. एना और उस की अम्मी ने खूब खयाल रखा. अम्मा 2-3 बार आईं. मारिया को समझाने व मनाने की बहुत कोशिश की. पर मारिया अलग होने का फैसला कर चुकी थी. धीरेधीरे उस के जिस्म के साथसाथ दिल के जख्म भी भरने लगे. 3 महीने बाद उसे इस अस्पताल में जौब मिल गई. यहां स्टाफक्वार्टर भी थे. वह उस में शिफ्ट हो गई.

माजिद साहब और एना ने बहुत चाहा कि वह उन के घर में ही रहे, पर वह न मानी. उस ने स्टाफक्वार्टर में रहना ही मुनासिब समझा. माजिद साहब और उन की पत्नी बराबर आते और उस की खोजखबर लेते रहे.

एना की शादी पर वह पूरा एक  हफ्ता उस के यहां रही. शादी का काफी काम उस ने संभाल लिया. शादी में इरशाद, माजिद साहब का भतीजा, दुबई से आया था. काफी स्मार्ट और अच्छी नौकरी पर था. पर मनपसंद लड़की की तलाश में अभी तक शादी न की थी. उसे मारिया बहुत पसंद आई. माजिद साहब से उस ने कहा कि उस की शादी की बात चलाएं. माजिद साहब ने उसे मारिया की जिंदगी की दर्दभरी दास्तान सुना दी. सबकुछ जान कर भी इरशाद मारिया से ही शादी करना चाहता था.

माजिद साहब ने जब मारिया से इस बारे में बात की तो उस ने साफ इनकार करते हुए कहा, ‘‘अंकल, मैं ने एक शादी में इतना कुछ भुगत लिया है. अब तो शादी के नाम से मुझे कंपकंपी होती है. आप उन्हें मना कर दें. अभी तो मैं सोच भी नहीं सकती.’’

माजिद साहब ने इरशाद को मारिया के इनकार के बारे में बता दिया. पर उस ने उम्मीद न छोड़ी.

डेढ़ साल बाद आज नौशाद को आईसीयू में यों पड़ा देख कर मारिया के पुराने जख्म ताजा हो गए. दर्द फिर आंखों से बह निकला. दूसरे दिन वह अस्पताल गई तो अम्मा बाहर ही मिल गईं. उसे गले लगा कर सिसक पड़ीं.

जबरदस्ती उसे नौशाद के पास ले गईं और कहा, ‘‘देखो, तुम पर जुल्म करने वाले को कैसी सजा मिली है.’’ यह कह कर उन्होंने चादर हटा दी. नौशाद का एक पांव घुटने के पास से कटा हुआ था. मारिया देख कर सहम गई. अम्मा रोते हुए बोलने लगीं, ‘‘वह इन्हीं पैरों से तुम्हें मारता था न, इसी लात ने तुम्हारी कोख उजाड़ी थी. देखो, उस का क्या अंजाम हुआ. नशे में बड़ा ऐक्सिडैंट कर बैठा.’’

नौशाद ने टूटेफूटे शब्दों में माफी मांगी. मारिया की मिन्नतें करने लगा. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. मारिया का दिल भर आया. वह आईसीयू से बाहर आ गई. अम्मा ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘बेटा, मेरा बच्चा अपने किए को भुगत रहा है. बहुत पछता रहा है. तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी अहमियत का अंदाजा हुआ उसे. बहुत परेशान था. पर अब रोने से क्या हासिल था? मारिया, मेरी तुम से गुजारिश है, एक बार फिर उसे सहारा दे दो. तुम्हारे सिवा उसे कोई नहीं संभाल सकता. मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ती हूं. तुम लौट आओ. तुम्हारे बिना हम सब बरबाद हैं.’’

मारिया ने अम्मा के आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘अम्मा, अब यह नामुमकिन है. मैं किसी कीमत पर उस राह पर वापस नहीं पलट सकती. जो कुछ मुझ पर गुजरी है उस ने मेरे जिस्म ही नहीं, जिंदगी को भी तारतार कर दिया है. मैं अब उस के साथ एक पल गुजारने की सोच भी नहीं सकती. आप से अपील है आप अपने दिल में भी इस बात का खयाल न लाएं. आप उस की दूसरी जगह शादी कर दें.’’

मारिया घर लौट कर उस बारे में ही सोचती रही. उसे लगा, अम्मा के आंसू और मिन्नतें वह कब तक टालेगी? इस का कोई स्थायी हल निकालना जरूरी है. कुछ देर में उस के दिमाग ने फैसला सुना दिया. मारिया ने माजिद साहब को फोन लगाया और कहा, ‘‘अंकल, मैं इरशाद से शादी करने के लिए तैयार हूं. आप उन्हें हां कर दें.’’ अब किसी नए इम्तिहान में पड़ने का उस का कोई इरादा न था, नौशाद से बचने का सही हल इरशाद से शादी करना था.

आज उस ने दिल से नहीं, दिमाग से फैसला लिया था. दिल से फैसले का अंजाम वह देख चुकी थी.

लेखक- शकीला एस हुसैन

Hindi Kahaniyan : तितली रंगबिरंगी: गायत्री का क्या था फैसला

Hindi Kahaniyan : रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मी और पापा के आपसी झगड़ों की कड़वी आवाज़ों से हुई . सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी ,चिकचिक सुनकर उसने चादर सर से ओढ़ ली ,आवाज़ पहले से कम तो हुई पर अब भी कानो से टकरा रही थी .

सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गयी थी पास में पड़े मोबाइल को टटोलकर उसमें एयरफोन लगाकर बड्स को कानो में कसकर ठूंस लिया और वॉल्यूम को फुल कर दिया .

अट्ठारह वर्षीय सियाली के लिए ये कोई नयी बात नहीं थी ,उसके माँबाप आये दिन ही झगड़ते रहते थे जिसका सीधा कारण था  उन दोनों के संबंधों में खटास का होना  …..ऐसी खटास जो एक बार जीवन में आ जाये तो आपसी रिश्तों की परिणिति उनका खात्मा ही होती है .

सियाली के माँबाप प्रकाश यादव और निहारिका यादव के संबंधों में ये खटास कोई एक दिन में नहीं आई बल्कि ये तो एक मध्यमवर्गीय परिवार के कामकाजी दम्पत्ति के आपसी सामंजस्य  बिगड़ने के कारण धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी   .

सियाली का पिता अपनी पत्नी के चरित्र पर शक करता था उसका शक करना भी एकदम जायज था क्योंकि निहारिका का अपने आफिसकर्मी के साथ संबंध चल रहा था ,पतिपत्नी के हिंसा और शक समानुपाती थे ,जितना शक गहरा हुआ उतना ही प्रकाश की हिंसा बढ़ती गई और जिसका परिणाम परपुरुष के साथ निहारिका का प्रेम बढ़ता गया .

“जब दोनो साथ नहीं रह सकते तो तलाक क्यों नहीं दे देते … एक दूसरे को ”सियाली बिस्तर से उठते हुए झुंझुलाते हुए बोली

सियाली जब अपने कमरे से बाहर आई तो  दोनो काफी हद तक शांत हो चुके थे, शायद वे किसी निर्णय तक पहुच गए थे.

“तो ठीक है मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूँ …..पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?” प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए कहा

“मैं समझती हूं ….सियाली को तुम मुझसे बेहतर सम्भाल सकते हो” निहारिका ने कहा ,उसकी इस बात पर प्रकाश भड़क सा गया

“हाँ …तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना ही चाहती हो ताकि तुम अपने उस ऑफिस वाले के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं एक जवान लड़की के चारो तरफ एक गार्ड बनकर घूमता रहूँ ”

प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा कि “मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक माँ की ही होती है ?”

निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली

“हाँ …वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है ….एकदो दिन मेरे साथ रहेगी तो मुझे भी ऐतराज़ नहीं होगा ”निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था

सियाली कभी माँ की तरफ देख रही थी तो कभी अपनी पिता की तरफ ,उससे कुछ कहते न बना पर इतना समझ गयी थी कि माँबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उसका अस्तित्व एक पेंडुलम से अधिक नहीं है  जो दोनो के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है  .

माँबाप के बीच इस रोज़रोज़ के झगड़े ने एक अजीब से विषाद से भर दिया था सियाली को  और इस विषाद का अंत शायद तलाक जैसी चीज से ही सम्भव था इसलिए सियाली के मन में कहीं न कहीं चैन की सांस ने प्रवेश किया कि चलो आपस की कहा सुनी अब खत्म हुई और अब सबके रास्ते अलगअलग है .

शाम को कॉलेज से लौटी तो घर में एक अलग सी शांति थी ,पापा भी सोफे में धंसे हुए चाय पी रहे थे ,चाय जो उन्होंने खुद ही बनाई थी ,उनके चेहरे पर कई महीनों से बनी रहने वाली तनाव की वो शिकन गायब थी ,सियाली को देखकर उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश भी करी

“देख ले…. तेरे लिए चाय बची होगी ….ले ले मेरे पास आकर बैठकर पी ”

सियाली पापा के पास आकर बैठी तो पापा ने अपनी सफाई में काफी कुछ कहना शुरू किया. “मैं बुरा आदमी नहीं हूँ पर तेरी मम्मी ने भी तो गलत किया था उसके कर्म  ही ऐसे थे कि मुझे उसे देखकर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी माँ ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी  ”

पापा की बातें सुनकर सियाली से भी नहीं रहा गया. “मैं नहीं जानती कि आप दोनो में से कौन सही है और कौन गलत पर इतना ज़रूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाये तो आपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है ” दोनो बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुलकर बात करी थी ,पापा की बातों में माँ के प्रति नफरत और द्वेष ही छलक रहा था जिसे चुपचाप सुनती रही थी सियाली .

अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर माँ का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना एड्रेस देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को माँ के पास जाने की सूचना भी उसने अपने पापा को दे दी जिस पर पापा को भी कोई ऐतराज नहीं हुआ .

शाम को “शालीमार अपार्टमेंट” में पहुच गई थी सियाली ,पता नहीं क्या सोचकर उसने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था ,फ्लैट नंबर एक सौ ग्यारह में सियाली पहुच गई थी.

कॉलबेल बजाई ,दरवाज़ा माँ ने  खोला था , अब चौकने की बारी सियाली की थी माँ गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थी ,माँग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर तिलक की शक्ल में लगाई हुई बिंदी ,सियाली को याद नहीं कि उसने माँ को कब इतनी अच्छी तरह से श्रंगार किये हुए देखा था ,हमेशा सादे वेश में ही रहती थी माँ और टोकने पर दलील देती

“अरे हम कोई ब्राह्मणठाकुर तो है नहीं जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें ….हम पिछड़ी जाति वालों के लिए सिंपल रहना ही अच्छा है ”

तो फिर आज माँ को ये क्या हो गया ?

उनकी सिम्पलीसिटी आज श्रंगार में कैसे परिवर्तित हो गई थी और क्यों वो जाति की दलीलें देकर सही बात को छुपाना चाह रही थी .

सियाली ने बुके माँ को दे दिये ,माँ ने बहुत उत्साह से बुके ले लिए और कोने की मेज पर सज़ा दिए .

“अरे अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से “माँ के पीछे से आवाज़ आई ,आवाज़ की दिशा में नज़र उठाई तो देखा कि सफेद कुर्ता और पाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा था ,सियाली उसे पहचान गई ये माँ का सहकर्मी देशवीर था ,माँ इसे पहले भी घर भी ला चुकी थी .

माँ ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया जिसपर सियाली ने कहा, “जानती हूँ माँ ….पहले भी तुम इनसे मिला चुकी हो मुझे ”

“पर पहले जब मिलवाया था तब ये सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे  पर आज मेरे सब कुछ हैं….हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक का फैसला होते ही शादी भी कर लेंगे  ”

मुस्कुराकर रह गयी थी सियाली

सबने एक साथ खाना खाया , डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था ,माँ के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी और ये चमक कृत्रिम या किसी फेशियल की नहीं थी ,उनके मन की खुशी उनके चेहरे पर झलक रही थी .

सियाली रात में माँ के साथ ही सो गई और सुबह वहीँ से कॉलेज के लिए निकल गयी ,चलते समय माँ ने उसे दो हज़ार रुपये देते हुए कहा

“रख ले…घर जाकर पिज़्ज़ा आर्डर कर देना  ”

कल से लेकर आज तक माँ ने सियाली के सामने एक आदर्श माँ होने के कई उदाहरण प्रस्तुत किये थे पर सियाली को ये सब नहीं भा रहा था और न ही उसे समझ में आ रहा था कि ये माँ का कैसा प्यार है जो उसके पिता से अलग होने के बाद और भी अधिक छलक रहा है.

फिलहाल तो वो अपनी ज़िंदगी खुलकर जीना चाहती थी इसलिए माँ के दिए गए पैसों से सियाली  उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गयी .

“पर सियाली आज तू ये किस खुशी में पार्टी दे रही है ?”महक ने पूछा

“बस यूँ समझो …आज़ादी की ”मुस्कुरा दी थी सियाली.

सच तो ये था कि माँबाप के अलगाव के बाद सियाली भी बहुत रिलेक्स महसूस कर रही थी ,रोज़रोज़ की टोकाटाकी से अब उसे मुक्ति मिल चुकी थी और सियाली अब अपनी ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी इसीलिए उसने अपने दोस्तों से  अपनी एक इच्छा बताई .

“यार मैं एक डांस ट्रूप (नृत्य मंडली ) जॉइन करना चाहती हूं ताकि मैं अपने जज़्बातों को डांस के द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं ”सियाली ने कहा जिसपर उसके दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए जिनसे वो अपने आपको व्यक्त कर सकती थी जैसे ड्राइंग,सिंगिंग,मिट्टी के बर्तन बनाना पर सियाली तो मज़े और मौजमस्ती के लिए डांस ट्रूप जॉइन करना चाहती थी इसलिए उसे  बाकी के ऑप्शन नहीं अच्छे लगे .

अपने शहर के डांस ट्रूप “गूगल” पर खंगाले तो  “डिवाइन डांसर” नामक एक डांस ट्रूप ठीक लगा जिसमे चार मेंबर लड़के  थे और एक लड़की थी  ,सियाली ने तुरंत ही वह ट्रूप जॉइन कर लिया और अगले दिन से ही डांस प्रेक्टिस के लिए जाने लगी ,सियाली अपना सारा तनाव अब डांस के द्वारा भूलने लगी और इस नई चीज का मज़ा भी लेने लगी .

डिवाइन डांसर नाम के इस ट्रूप को परफॉर्म करने का मौका भी मिलता तो सियाली भी साथ में जाती और स्टेज पर सभी परफॉर्मेंस देते जिसके  बदले सियाली को भी ठीकठाक पैसे मिलने लगे ,इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था ,वह निरंकुश हो चुकी थी न माँबाप का डर और न ही कोई टोकाटोकी करने वाला ,जब चाहती घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला नहीं था उसके माँबाप  का तलाक क्या हुआ सियाली तो एक आज़ाद चिड़िया हो गई जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आज़ाद थी .

सियाली का फोन बज उठा था ,ये पापा का फोन था .

“सियाली….कई दिन से घर नहीं आई तुम…क्या बात है?…..हो कहां तुम?”

“पापा मैं ठीक हूँ…..और डांस सीख रही हूँ”

“पर तुमने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो ”

“ज़रूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं …..आप लोग अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं इसलिए मैं भी अब अपने हिसांब से ही जियूंगी”

फोन काट दिया था सियाली ने,पर उसका मन एक अजीब सी खटास से भर गया था .

डांस ट्रूप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी पर पराग नाम के लड़के से उसकी कुछ ज्यादा ही पटने लगी .

पराग स्मार्ट भी था और पैसे वाला भी ,वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और ख़िलातापिलाता ,उसकी संगत में सिहाली को भी सुरक्षा का अहसास होता था.

एक दिन पराग और सियाली एक रेस्तराँ में गए ,पराग ने अपने लिए एक बियर मंगाई

“तुम तो सॉफ्ट ड्रिंक लोगी सियाली ”पराग ने पूछा

“खुद तो बियर पियोगे और मुझे बच्चों वाली ड्रिंक …..मैं भी बियर पियूंगी ”एक अजीब सी शोखी सियाली के चेहरे पर उतर आई थी .

सियाली की इस अदा पर पराग भी बिना मुस्कुराए न रह सका और उसने एक और बियर आर्डर कर दी .

सियाली ने बियर से शुरुआत जरूर करी थी पर उसका ये शौक धीरेधीरे व्हिस्की तक पहुच गया था .

अगले दिन डांस क्लास में जब दोनो मिले तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया

“सियाली मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ”घुटनो को मोड़कर ज़मीन पर बैठते हुए पराग ने कहा  सभी लड़के लड़कियाँ इस बात पर तालियाँ बजाने लगे.

सियाली ने भी मुस्कुराकर गुलाब पराग के हाथों से ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, “लेकिन मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज़ के बंधन में नहीं बढ़ना चाहती …..शादी एक सामाजिक तरीका है दो लोगों को एक दूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए  जीवन बिताने का पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं ?”सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुनकर डांस ट्रूप के लड़केलड़कियाँ शांत से दिख रहे थे.

सियाली ने रुककर कहना शुरू किया, “मैने अपनी माँबाप को उसके  शादीशुदा जीवन में हमेशा ही लड़ते हुए देखा है जिसकी परिणिति तलाक के रूप में हुई और अब मेरी माँ अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रहीं है और पहले से कहीं अधिक खुश है  ”

पराग ये बात सुनकर तपाक से बोला कि वो भी सियाली के साथ लिवइन में रहने को तैयार है अगर सियाली को मंज़ूर हो तो,पराग की बात सुनकर उसके साथ लिवइन के रिश्ते को झट से स्वीकार कर लिया था सियाली ने.

और कुछ दिनों बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे ,जहां पर दोनो जी भरकर अपने जीवन का आनंद ले रहे थे ,पराग के पास आय के स्रोत के रूप में एक बड़ा जिम था, जिससे पैसे की कोई समस्या नहीं आई

पराग और सियाली ने अब भी डांस ट्रूप को जॉइन कर रखा था और लगभग हर दूसरे दिन ही दोनो क्लासेज के लिए जाते और जी भरकर नाचते .

इसी डांस ट्रूप में गायत्री नाम की लड़की थी उसने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया

“सियाली ….तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है ….और इतनी जल्दी किसी के साथ …..आई मीन….लिवइन में रहना ….कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हे ?”

सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कुराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए फिर सियाली ने अपने आपको संयत करते हुए कहा

“जब मेरे माँबाप ने सिर्फ अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवाह नहीं करी तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूँ……और…गायत्री  ….ज़िन्दगी मस्ती करने के लिए बनी है इसे न किसी रिश्ते में बांधने की ज़रूरत है और न ही रोरोकर गुज़ारने की ….और मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूँ ….और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ…..  उम्र का तो सोचो ही मत ….इनजॉय योर लाइफ यार…”

सियाली ये कहते हुए वहां से चली गयी थी जबकि गायत्री  अवाक सी खड़ी हुई थी .

तितलियाँ कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठी ,वे कभी एक फूल के पराग पर बैठती है तो कभी दूसरे फूल के पराग पर….और तभी तो इतनी चंचल होती है और इतनी खुश रहती है तितली …रंगबिरंगी तितली ….जीवन से भरपूर तितली.

Latest Hindi Stories : आहटें

Latest Hindi Stories : पड़ोस के घर की घंटी की आवाज सुनते ही शिखा लगभग दौड़ती हुई दरवाजे के पास गई और फिर परदे की ओट कर बाहर झांकने लगी. अपने हिसाबकिताब में व्यस्त सुधीर को शिखा की यह हरकत बड़ी शर्मनाक लगी. वह पहले भी कई बार शिखा को उस की इसी आदत पर टोक चुका है, लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आती.  ज्यों ही आसपास के किसी के घर की घंटी बजती शिखा के कान खड़े हो जाते. कौन किस से मिलजुल रहा है, किस पतिपत्नी में कैसा बरताव चल रहा है, इस की पूरी जानकारी रखने का मानो शिखा ने ठेका ले रखा हो.

सुधीर ने कभी ऐसी मनोवृत्ति वाली पत्नी की कामना नहीं की थी. अपना दर्द किस से कहे वह… कभी प्रेम से, कभी तलखी से झिड़कता जरूर है, ‘‘क्या शिखा, तुम भी हमेशा पासपड़ोसियों के घरों की आहटें लेने में लगी रहती हो… अपने घर में दिलचस्पी रखो जरा ताकि घर घर जैसा लगे…’’  सुधीर की लाई तमाम पत्रपत्रिकाएं मेज पर पड़ी शिखा का मुंह ताकती रहतीं.. शिखा अपनी आंखें ताकझांक में ही गड़ाए रखती.

मगर आज तो सुधीर शिखा की इस हरकत पर आगबबूला हो उठा और फिर परदा इतनी जोर से खींचा कि रौड सहित गिर गया.  ‘‘लो, अब ज्यादा साफ नजर आएगा,’’ सुधीर गुस्से से बोला.

शिखा अचकचा कर द्वार से हट गई. देखना तो दूर वह तो अनुमान भी न लगा पाई कि जतिन के घर कौन आया और क्योंकर आया.  सुधीर के क्रोध से कुछ सहमी जरूर, पर झेंप मिटाने हेतु मुसकराने लगी. सुधीर का मूड उखड़ चुका था. उस ने अपने कागज समेट कर अलमारी में रखे और तैयार होने लगा.

शिखा उसे तैयार होते देख चुप न रह सकी. पूछा, ‘‘अब इस वक्त कहां जा रहे हो? शाम को मूवी देखने चलना है या नहीं?’’

‘‘तुम तैयार रहना… मैं आ जाऊंगा वक्त पर,’’ कह कर सुधीर कहां जा रहा है, बताए बिना गाड़ी स्टार्ट कर निकल गया.

गुस्से से भरा कुछ देर तो सुधीर यों ही सड़क पर गाड़ी दौड़ाता रहा. वह मानता है कि थोड़ीबहुत ताकझांक की आदत प्राय: प्रत्येक व्यक्ति में होती है पर शिखा ने तो हद कर रखी है. 1-2 बार उसे ताना भी मारा कि इतनी मुस्तैदी से अगर किसी अखबार में न्यूज देती तो प्रतिष्ठित संवाददाता बन जाती. लेकिन शिखा पर किसी शिक्षा का असर ही नहीं पड़ता था.  पिछले हफ्ते की ही बात है. वह शाम को औफिस से काफी देर से लौटा था. वह ज्यों ही घर में घुसा कि कुछ देर में ही शिखा का रिकौर्ड शुरू हो गया. बच्चों को पुलाव खिला कर सुला चुकी थी. उस के सामने भी दही, अचार, पुलाव रख शुरू कर दिया राग, ‘‘आजकल अमनजी औफिस से 1-2 घंटे पहले ही घर आ जाते हैं. मेरा ध्यान तो काफी पहले चला गया था इस बात पर… इधर उन की माताजी प्रवचन सुनने गईं और उधर से उन की गाड़ी गेट में घुसती. दोनों लड़कियां तो स्कूल से सीधे कोचिंग चली जाती हैं और 7 बजे तक लौटती हैं… अमनजी के घर में घुसते ही दरवाजेखिड़कियां बंद…’’

‘‘अरे बाबा मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है दूसरों के दरवाजों में… तुम पापड़ तल कर दे सको तो दे दो.’’  सुधीर की नाराजगी देख शिखा को चुप हो जाना पड़ा वरना वह आगे भी बोलती.

खाना खा कर सुधीर टीवी देखने लगा. शिखा रसोई निबटा कर उस के पास आ कर बैठी तो सुधीर को बड़ा सुखकर लगा. छोटी सी गृहस्थी जोड़ ली है उस ने… शिखा भी पढ़ीलिखी है. अगर यह भी अपने समय का सदुपयोग करना शुरू कर दे तो घर में अतिरिक्त आय तो होगी ही खाली समय में इधरउधर ताकनेझांकने की आदत भी छूट जाएगी.  ‘धीरेधीरे स्वयं समझ जाएगी,’ सोचते हुए सुधीर भावुकता में शिखा को गले लगाने के लिए उठा ही था कि शिखा चहक उठी, ‘‘अरे यार, वह अमनजी का किस्सा तो अधूरा ही रह गया… मैं समझ तो गई थी पर आज पूरा राज खुल गया… खुद उन की पत्नी आशा ने बताया नेहा को कि लड़कियां बड़ी हो गई हैं… तो एकांत पाने का यह उपाय खोजा है अमनजी ने…’’ कह कर शिखा ने ऐसी विजयी मुसकान फेंकी मानो किला जीत लिया हो.

किंतु सुन कर सुधीर ने तो सिर थाम लिया अपना. उस ने ऐसी पत्नी की भी कल्पना नहीं की थी. वह तो आज भी यही चाहता है उस की शिखा परिवार के प्रति समर्पण भाव रखते हुए पासपड़ोसियों का भी खयाल रखे, उन के सुखदुख में शामिल हो. पर यह नामुमकिन था.  नामुमकिन शब्द सुधीर को हथौड़े सा लगा. ‘भरपूर प्रयास करने  पर तो हर समस्या का हल निकल आता है,’ सोच कर सुधीर को कुछ राहत मिली. उस ने घड़ी देखी. शो का वक्त हो चुका था, मगर आज शिखा के नाम से चिढ़ा था…  सुधीर घर न जा कर एक महंगे रेस्तरां में अकेला जा बैठा. रविवार होने की वजह से ज्यादातर लोग बीवीबच्चों के संग थे… उसे अपना अकेलापन कांटे सा चुभा… बैठे या निकल ले सोच ही रहा था कि नजरें कोने की टेबल पर पड़ते ही सकपका गया. उस के पड़ोसी दस्तूर अपनी पत्नी और बेटी के संग बैठे खानेपीने में मशगूल थे. सुधीर तृषित नजरों से क्षण भर उस परिवार को देखता रह गया.

सुधीर और दस्तूर एक ही संस्थान में तो हैं, साथ में पड़ोसी होने की वजह से बातचीत, आनाजाना भी है. मगर शिखा को दस्तूर परिवार फूटी आंख नहीं सुहाता है. दस्तूर की पत्नी अर्चना से तो ढेरों शिकायतें हैं उसे कि क्या पता दिन भर घर में घुसेघुसे क्या करती रहती है… औरतों से भी मिलेगी तब भी एकदम औपचारिक… मजाल उस के अंतरंग क्षणों का एक भी किस्सा कोई उगलवा सके… ऐसी बातों पर एकदम चुप.

इस के विपरीत सुधीर अर्चना का काफी सम्मान करता है. विवाह से पूर्व वे शिक्षिका थीं और आज एक सफल गृहिणी हैं. लेकिन शिखा ने उन्हें भी नहीं छोड़ा. शिखा के खाली और शैतानी दिमाग से सुधीर भीतर ही भीतर कुंठित हो चला था. इसीलिए दस्तूर दंपती से नजरें चुराता वह रेस्तरां से बाहर निकल आया. रात के 9 बज रहे थे पर उस का मन घर जाने को नहीं कर रहा था. करीब 11 बजे घर पहुंचा ही था कि घंटी बजाते ही शिखा ने द्वार खोल प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

सुधीर आज कुछ तय कर के ही लौटा था. अत: चुपचाप कपड़े बदलता रहा. शिखा परेशान सी उस के आगेपीछे घूम रही थी, ‘‘जब कोई और प्रोग्राम था तो मुझे क्यों बहलाया कि शाम को पिक्चर चलेंगे… किस के साथ थे पूरी शाम?’’

‘‘बस यों समझ लो कि अर्चनाजी के संग था पूरी शाम.’’

शिखा उसे अवाक देखती रह गई. सुधीर भी देख रहा था. वह अभी तक सजीसंवरी कीमती साड़ी में ही थी. सुधीर को अच्छा लगा उसे यों तैयार देख कर, पर स्वयं पर नियंत्रण रख वह सोफे पर बैठा रहा.

‘‘शिखा, तुम ने ही तो अर्चना के बारे में इतनी बातें बताईं कि उन्हें पास से देखने का… यानी तुम्हारे मुताबिक उन के लटकेझटके देखने का कई दिनों से बड़ा मन होने लगा था… आज मौका मिल गया तो क्यों छोड़ता. वे सब भी उसी रेस्तरां में थे… वाकई मैं तो उन की सुखी व शालीनता भरी आंखों में खो गया… इतनी देर मैं उन्हीं के सामने की मेज पर बैठा रहा, पर उन्हें अपने पति व बेटी से फुरसत ही नहीं मिली, अगलबगल ताकनेझांकने की… मुझे ही क्या उन्होंने तो किसी को भी नजर उठा कर नहीं देखा… अपने में ही मस्तव्यस्त… मुझे तो बड़ा अजीब लगा. अरे, कम से कम मुझे अकेला बैठा देख पूछतीं तो कि मैं अकेला क्यों? पर मेरी तरफ ध्यान ही नहीं… पर मैं ने खूब ध्यान से देखा उन्हें… अर्चना साड़ी बड़ी खूबसूरती से बांधती हैं… और साड़ी में लग भी बहुत अच्छी रही थीं.’’

सुधीर की बातें सुन शिखा का मन रोने को हो आया. वह दूसरे कमरे में जाने लगी तो सुधीर भी चल पड़ा, ‘‘अब एकाध दिन आशा… शैली… नेहा… इन सब को भी नजदीक से देखना है.’’ जब शिखा की बरदाश्त से बाहर हो गया तो उस ने रोना शुरू कर दिया. उस ने तो कभी सोचा ही नहीं था कि नितांत एकांत क्षणों में उस के साथ होने के बावजूद सुधीर पराई स्त्रियों के रूपशृंगार की बात कर सकता है. दूसरों के घरों की आहटें लेने में वह इतनी तल्लीन थी कि उसे खयाल ही नहीं रहा कि उस की इस हरकत पर कभी उस के ही घर में इतना बड़ा धमाका हो सकता है. आहटों से अनुमान लगाने में माहिर शिखा फूटफूट कर रो रही थी.

‘‘अब रोगा कर क्या पासपड़ोस को इकट्ठा करोगी… अर्चना से कुछ सबक लो…

उन्हें तो उस रात दस्तूर ने कई चांटे मारे थे फिर भी उफ न की थी उन्होंने,’’ सुधीर ने शिखा को मनाने के बजाय उसी का सुनाया किस्सा उसे याद दिला दिया.

उस रोज तो वह बिस्तर में ही था कि शिखा ने उसे यह खबर दी थी गुड मौर्निंग न्यूज की भांति. सुधीर जानता था कि आज भी दस्तूर को डीजल शेड नाइट इंसपैक्शन जाना है, मगर शिखा यों बता रही थी जैसे वही सब कुछ जानती हो, ‘‘तुम सोते रहो… पता भी है कल रात को क्या हुआ? दस्तूर साहब इंसपैक्शन कर के करीब 2 बजे रात को लौटे. मेरी नींद तो उन की गाड़ी रुकते ही खुल गई… बेचारे खूब हौर्न बजाते रहे… मगर घर में सन्नाटा. फिर देर तक घंटी बजाते रहे… मुझे तो लगता है मेरी क्या पूरे महल्ले की नींद खुल गई होगी, पर तुम्हारी अर्चना पता नहीं कितनी गहरी नींद में थी… क्या कर रही थी? बड़ी देर बाद दरवाजा खोला… मैं ने दरार में से झांक कर देखा था. दस्तूर साहब दरवाजे में ही खूब नाराज हो रहे थे. फिर जब कुछ देर बाद मैं ने अपने बैडरूम की खिड़की से उन के बैडरूम की आहट ली तो दस्तूर साहब के जोरजोर से बड़बड़ाने की आवाजें आ रही थीं और फिर चाटें मारने की आवाजें भी आईं…’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो सुबहसुबह…’’

सुधीर की बात काटते हुए शिखा और ढिठाई से बोली, ‘‘मैं ने खुद अपने कानों से चांटे की स्पष्ट आवाजें सुनी हैं… खुल गई न पोल तुम्हारी अर्चना की… बड़े फिदा हो न उस के सलीके, सुघड़ता और शालीनता पर…’’

सुधीर उस रोज वाकई स्तब्ध रह गया था. यों वह शिखा की बातें कभी गंभीरता से नहीं लेता था पर उस रोज मामला दस्तूर दंपती का था. दस्तूर दंपती जिन्हें वह काफी मानसम्मान देता है उन लोगों के बीच हाथापाई हो जाए चौंकाने वाली बात है. कोई भी सुसंस्कृत, सभ्य पुरुष अपनी पत्नी पर हाथ उठाए… ऐसा कभी हो सकता है और फिर दस्तूर साहब तो अपनी पत्नी व बेटी पर निछावर हैं. उस रोज इसी खलबली में औफिस पहुंचते ही मौका पा कर सुधीर दस्तूरजी के पास जा बैठा. चूंकि एकदम व्यक्तिगत प्रश्न तो किया नहीं जा सकता था, इसलिए औफिस… मौसम आदि की बातें करते हुए गरमी की परेशानी का जिक्र निकाल भेद लेने का पहला प्रयास किया, ‘‘एक बात है दस्तूर साहब… गरमी में नाइट ड्यूटी बढि़या रहती है… मस्त ठंडक… कूलकूल.’’

‘‘नाइट ड्यूटी… अरे नहीं भाई खुद की नींद खराब… फैमिली की नींद हराम… कल रात घर पहुंचा… परेशान हो गया.’’

दस्तूर की बात सुनते ही सुधीर उछल पड़ा, ‘‘क्यों क्या भाभीजी ने घर में नहीं घुसने दिया?’’

‘‘ऐसा होता तो मुझे मंजूर था पर वह भलीमानस एकडेढ़ बजे रात तक मेरा इंतजार करते पढ़ती रही. थक कर उस की झपकी लगी ही होगी कि मैं पहुंचा. दरवाजा देर से खुला तो घबरा ही गया था, क्योंकि बीपी की वजह से आजकल ज्यादा ही परेशान है. उसे सहीसलामत देख कर जान में जान आई.

‘‘खुशीखुशी बैडरूम में पहुंचा तो वहां का नजारा देख बहुत गुस्सा आया मांबेटी पर… बगैर मच्छरदानी लगाए दोनों सोतेजागते मेरी राह देख रही थीं. 10 मिनट तो कमरे में मच्छर मारने पड़े चटाचट… भई बीवीबच्चों को मच्छर काटें… ऐसी ठंडक में काम करने से तो गरमीउमस ही भली…’’

दस्तूर साहब की बातें सुन सुधीर पर घड़ों पानी पड़ गया. शिखा की सोच और अनुमान के आधार पर गढ़े किस्से पर उसे शर्मिंदगी महसूस होनी ही थी. शिखा से वह इतना विरक्त हो चला था कि औफिस से आ कर उस ने बताई तक नहीं यह बात… पर आज बताना ही पड़ा उस चटाचट का रहस्य.

सुन कर शिखा हतप्रभ सी सुधीर को देखती रह गई. वह क्या जवाब देती और किस मुंह से देती? सुधीर एक ही प्रश्न बारबार दोहराए जा रहा था, ‘‘अरे, जो आदमी अपनी पत्नी और बिटिया को मच्छर का काटना बरदाश्त नहीं कर सकता वह अपने हाथों से उन्हें चांटे मारेगा? बोलो शिखा मार सकता है?’’

शिखा अवाक थी. पूरे वातावरण में सन्नाटा पसर गया. दूरदूर तक उसे कोई  आहट सुनाई नहीं दे रही थी. उसे पति द्वारा दिखाए गए आईने में अपनी छवि देख वास्तव में शर्मिंदगी महसूस हो रही थी. उस ने मन ही मन ठान लिया कि अब वह पासपड़ोस की ताकझांक छोड़ कर अपने घर की साजसंभाल पर ही ध्यान देगी.  कुछ दिन तक तो शिखा अपने मन को मारने में कामयाब रही, पर फिर पुन: उसी राह पर चल पड़ी. ज्यों ही पति एवं बच्चे घर से निकलते, वह उन्हें गेट तक छोड़ने जाने के बहाने एक सरसरी निगाह कालोनी के छोर तक डाल ही लेती.

उस की ताकझांक की आदत को इस दीवाली पर एक और सुविधा भी मिल गई. दीवाली पर इस बार उन्हें दोगुना बोनस मिलने से खरीदारी का जोश भी ज्यादा था.  सुधीर और शिखा दोनों ने जम कर खरीदारी की. ड्राइंगरूम की सजावट पर उन्होंने विशेष ध्यान दिया. सोफा कवर, कुशन, बैडशीट्स तो नए खरीदे ही, शिखा ने स्टोर पर जैसे ही नैट के परदे देखे वह लुभावने परदों पर मर मिटी और परदों का पूरा सैट ले आई. दीवाली पर जिस ने उस के घर की सजावट देखी, तारीफ की. शिखा तो तारीफ सुन कर 7वें आसमान पर थी. एक खासीयत यह थी कि अब शिखा को सड़क का नजारा या पड़ोसियों के गेट की आहट लेने के लिए दरवाजेखिड़की की आड़ में छिपछिप कर उचकउचक कर देखने की मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी, क्योंकि अब खिड़कीदरवाजों पर जालीदार परदे जो डले थे. इन परदों के पीछे खड़े हो कर वह आराम से बाहर देख सकती थी, किंतु बाहर के व्यक्ति को भनक भी नहीं मिल पाती कि परदे की आड़ में खड़ा कोई उन पर निगरानी कर रहा है.

हां, शिखा को इन परदों से रात को थोड़ी असुविधा होती थी, क्योंकि शाम को लाइट जलते ही बाहर से उस के घर के अंदर का दृश्य स्पष्ट हो जाता था. इसीलिए शाम होते ही वह लाइनिंग के परदे भी सरका लेती.  शाम को उसे ताकझांक की फुरसत कम ही मिल पाती. खाना पकाना, बच्चे और सुधीर उसे पूरी तरह व्यस्त कर देते. मगर सुबह होते ही वही दिनचर्या. घर के काम को ब्रेक दे कर कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, सारी जानकारी से अपडेट रहती.  कल ही शिखा मेथी साफ करने के बहाने खिड़की के सामने रखी कुरसी पर बैठी बाहर भी नजर डालती जा रही थी. तभी उस का ध्यान एक कर्कश से हौर्न से भंग हुआ. चौकन्नी तो वह तब हुई जब उसे अनंत साहब के घर का गेट खुलने की आवाज आई.

शिखा तुरंत खड़ी हो कर झांकने लगी कि इतनी दुपहरी में ऐसी खटारा मोटरसाइकिल से कौन आया है?  शिखा ने देखा 3 नवयुवक गेट खुला छोड़ कर बजाय कालबैल बजाने के अनंत साहब के कमरे की खुली खिड़की की तरफ आए और देखते ही देखते खिड़की पर चढ़े और अंदर कमरे में कूद गए.  दृश्य देख कर शिखा के हाथपैर फूल गए. पल भर में अखबार, टीवी में पढ़ीदेखी लूट की सैकड़ों वारदातें उस के दिमाग में घूम गईं.  शिखा अच्छी तरह जानती थी कि इस वक्त रुचि घर में बिलकुल अकेली होती है. अनंत साहब तो बैंक से प्राय: लेट आते हैं. दोनों बेटे होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहे हैं. ये सब सोचने में शिखा को क्षण भर लगा.  अगले ही पल अगलबगल 2-4 घरों में मोबाइल पर जानकारी देते हुए दरवाजे पर ताला मार वह अनंत साहब के घर की ओर दौड़ी.

शिखा का अनुमान सच निकला. रुचि के चीखने की आवाजें बाहर तक आ रही थीं. शिखा ने उन के द्वार पर लगी कालबैल लगातार बजानी शुरू कर दी. तब तक पासपड़ोस के काफी लोग जमा हो चुके थे.  किसी ने पुलिस को भी खबर कर दी थी. मगर पुलिस के आने से पूर्व ही लोगों ने खिड़की फांद कर भागते चोरों को धर दबोचा. भीड़ ने उन की मोटरसाइकिल भी गिरा दी और उस पर कब्जा कर लिया.   रुचि ने दरवाजा खोला. तीनों लड़के उन से चाबियां  मांगते हुए जान से मारने की धमकी दे रहे थे. तीनों के पास चाकू थे और उन्हें घर के बारे में पूरी जानकारी थी.

‘‘शिखा, आज तुम ने मेरा घर लुटने से बचा लिया. ये लुटेरे तो मुझे मार ही डालते,’’ कहते हुए रुचि फूटफूट कर रोने लगी.

पूरी कालोनी के लोग शिखा की प्रशंसा कर रहे थे. आहट से अनुमान लगाने की जिस आदत पर वह कई बार सुधीर से डांट खा कर अपमानित हो चुकी थी, आज उस की इसी आदत ने अनंत साहब का परिवार बचा लिया था.  महिला इंस्पैक्टर ने भी शिखा को शाबाशी देते हुए सभी महिलाओं से अपील की, ‘‘यह बहुत अच्छी बात है कि महिलाएं जागरूक रह कर न सिर्फ अपने घर का, बल्कि अपने पासपड़ोस का भी खयाल रखें और जब भी किसी संदिग्ध व्यक्ति को देखें, उस पर कड़ी नजर रख कर उचित कदम उठाने से न घबराएं. एकदूसरे को जानकारी जरूर दें.’’  शाम को घर आने से पूर्व ही सुधीर को बाहर ही शिखा की बहादुरी एवं समझबूझ का किस्सा सुनने को मिल गया.

सुधीर मुसकराते हुए घर में आया और आते ही शिखा को गले से गा लिया, ‘‘शिखा, आहटों से अनुमान लगाने की तुम्हारी इस विशेषता का तो आज मैं भी कायल हो गया.’’

सुन कर शिखा छिटक गई. रोंआसी हो कर बोली, ‘‘आज भी मेरा मजाक उड़ा रहे हैं न?’’

‘‘नहीं, आज मुझे वाकई तुम्हारी इस आदत से खुशी मिली. लेकिन भविष्य की सोच कर चिंतित हूं कि अब तो तुम रोज ही नया किस्सा सुनाओगी तो भी मैं उफ नहीं कर सकूंगा. अब तुम्हारी विशेषता की धाक जो जम गई है,’’ कहते हुए सुधीर ने शिखा को फिर से गले लगा लिया.

शिखा के होंठों पर भी मुसकान खिल उठी.

Hindi Folk Tales : बुजदिल – कलावती का कैसे फायदा उठाया

Hindi Folk Tales : सुंदर के मन में ऐसी कशमकश पहले शायद कभी भी नहीं हुई थी. वह अपने ही खयालों में उलझ कर रह गया था.

सुंदर बचपन से ही यह सुनता आ रहा था कि औरत घर की लक्ष्मी होती है. जब वह पत्नी बन कर किसी मर्द की जिंदगी में आती है, तो उस मर्द की किस्मत ही बदल जाती है.

सुंदर सोचता था कि क्या उस के साथ भी ऐसा ही हुआ था? कलावती के पत्नी बन कर उस की जिंदगी में आने के बाद क्या उस की किस्मत ने भी करवट ली थी या सचाई कुछ और ही थी?

खूब गोरीचिट्टी, तीखे नाकनक्श और देह के मामले में खूब गदराई कलावती से शादी करने के बाद सुंदर की जिंदगी में जबरदस्त बदलाव आया था. पर इस बदलाव के अंदर कोई ऐसी गांठ थी, जिस को खोलने की कोशिश में सुंदर हमेशा बेचैन हो जाता था.

एक फैक्टरी में क्लर्क के रूप में 8 हजार रुपए महीने की नौकरी करने वाला सुंदर अपनी माली हालत की वजह से खातेपीते दोस्तों से काफी दूर रहता था

सुंदर अपने दोस्तों की महफिल में बैठने से कतराता था. उस के कतराने की वजह थी पैसों के मामले में उस की हलकी जेब. सुंदर की जेब में आमतौर पर इतने पैसे ही नहीं होते थे कि वह दोस्तों के साथ बैठ कर किसी रैस्टोरैंट का मोटा बिल चुका सके.

लेकिन शादी हो जाने के बाद एकाएक ही सबकुछ बदल गया था. सुंदर की अहमियत उस के दोस्तों में बहुत बढ़ गई थी. बड़ीबड़ी महंगी पार्टियों से उस को न्योते आने लगे थे. बात दूरी की हो, तो एकाएक ही सुंदर पर बहुत मेहरबान हुए अमीर दोस्त उस को लाने के लिए अपनी चमचमाती गाड़ी भेज देते थे.

पर किसी भी दोस्त के यहां से आने वाला न्योता अकेले सुंदर के लिए कभी भी नहीं होता था. उस को पत्नी कलावती के साथ ही आने के लिए जोर दिया जाता था.

कई दोस्त तो बहाने से सुंदर के घर तक आने लगे थे और कलावती के हाथ की गरमागरम चाय पीने की फरमाइश भी कर देते थे. चाय पीने के बाद दोस्त कलावती की जम कर तारीफ करना नहीं भूलते थे.

एक दोस्त ने तो कलावती के हाथ की बनी चाय की तारीफ में यहां तक कह डाला था, ‘‘कमाल दूध, चीनी या पत्ती में नहीं, भाभीजी के हाथों में है.’’

कम पढ़ीलिखी और बड़े ही साधारण परिवार से आई कलावती अपनी तारीफ से फूली नहीं समाती थी. उस के गोरे गाल लाल हो जाते थे और जोश में वह तारीफ करने वाले दोस्त को फिर से चाय पीने के लिए आने का न्योता दे देती थी.

सुंदर अपने दोस्तों को घर आने के लिए मना भी नहीं कर सकता था. आखिर दोस्ती का मामला जो था. लेकिन वह उन दोस्तों से इतना तंग होने लगा था कि उसे अजीब सी घुटन महसूस होने लगती थी.

सुंदर का एक दोस्त हरीश विदेशी चीजों का कारोबार करता था. वह कारोबार के सिलसिले में अकसर दिल्ली और मुंबई जाता रहता था. वह उम्र में सुंदर से ज्यादा होने के बावजूद अभी भी कुंआरा था.

हरीश काफी शौकीन किस्म का इनसान था. दोस्तों की मंडली में सब से ज्यादा रुपए खर्च करने वाला भी.

हरीश जब कभी सुंदर के घर उस से मिलने जाता था, तो कलावती के लिए विदेशी चीजें तोहफे में ले जाता था. हरीश के लाए तोहफों में महंगे परफ्यूम और लिपस्टिक शामिल रहती थीं.

ऐसे तोहफों को देख कर कलावती खिल जाती थी. इस तरह की चीजें औरतों की कमजोरी होती हैं और इस कमजोरी को हरीश पहचानता था.

सुंदर को अपनी बीवी कलावती पर हरीश की मेहरबानी और दरियादिली अखरती थी. वैसे तो शादी के बाद सभी दोस्त ही सुंदर पर मेहरबान नजर आने लगे थे, मगर हरीश की मेहरबानी जैसे एक खुली गुस्ताखी में बदल रही थी.

सुंदर को उस वक्त हरीश उस की मर्दानगी को ही चुनौती देता नजर आता, जब वह विदेशी लिपस्टिक कलावती को ताहफे में देते हुए साथ में एक गहरी मुसकराहट से कहता, ‘‘मैं शर्त के साथ कहता हूं भाभीजी कि इस लिपस्टिक का रंग आप की पर्सनैलिटी से गजब का मैच करेगा.’’

हरीश के तोहफे से खुश कलावती ‘थैंक्यू’ कह कर जब उस को स्वीकार करती, तो सुंदर को ऐसा लगता जैसे वह उस के हाथों से फिसलती जा रही है.

हरीश के पास अपनी गाड़ी भी थी. उस की गाड़ी में बैठते हुए कलावती की गरदन जैसे शान से तन जाती थी. कलावती को गाड़ी में ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठना अच्छा लगता था, इसलिए वह गाड़ी की अगली सीट पर हरीश के पास ही बैठती थी. मजबूरन सुंदर को गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ कर संतोष करना पड़ता था.

शहर में जब कोई नई फिल्म लगती थी, तो हरीश सुंदर से पूछे बिना ही 3 टिकटें ले आता था, इसलिए मना करने की गुंजाइश ही नहीं रहती थी.

जब कलावती फिल्म देखने के लिए तैयार होती थी, तो मेकअप के लिए उन्हीं चीजों को खासतौर पर इस्तेमाल करती, जो हरीश उसे तोहफे में देता रहता था.

सिनेमा जाने के लिए जब कलावती सजधज कर तैयार हो जाती, तो बड़े बिंदास अंदाज में हरीश उस की तारीफ करना नहीं भूलता था. वह कलावती के होंठों पर पुती लिपस्टिक के रंग की खासतौर पर तारीफ करता था.

यह देख कर सुंदर एक बार तो जैसे अंदर से उबल पड़ता था. मगर यह उबाल बासी कढ़ी में आए उबाल की ही तरह होता था.

सिनेमाघर में कलावती सुंदर और हरीश के बीच वाली सीट पर बैठती थी. उस के बदन में से निकलने वाली परफ्यूम की तीखी और मादक गंध दोनों के ही नथुनों में बराबर पहुंचती थी.

परफ्यूम की गंध ही क्यों, बाकी सारे एहसास भी बराबर ही होते थे. अंधेरे सिनेमाघर में अगर कलावती की एक मरमरी नंगी बांह रहरह कर सुंदर को छूती थी, तो वह इस खयाल से बेचैन हो जाता था कि कलावती की दूसरी मरमरी बांह हरीश की बांह को छू रही होगी.

सिनेमाघर में हरीश दूसरी गुस्ताखियों से भी बाज नहीं आता था. सुंदर से कानाफूसी के अंदाज में बात करने के लिए वह इतना आगे को झुक जाता था कि उस का चेहरा कलावती के उभारों को छू लेता था.

जब सुंदर उस दौर से गुजरता, तब मन में इरादा करता कि वह खुले शब्दों में हरीश को अपने यहां आने से मना करेगा, पर बाद में वह ऐसा कर नहीं पाता था. शायद उस में ऐसा करने की हिम्मत नहीं थी. वह शायद बुजदिल था.

हरीश की हिम्मत और बेबाकी लगातार बढ़ती गई. पहले तो सुंदर की मौजूदगी में ही वह उस के घर आता था, मगर अब वह उस की गैरमौजूदगी में भी आनेजाने लगा था.

कई बार सुंदर काम से घर वापस आता, तो हरीश उस को घर में कलावती के साथ चाय की चुसकियां भरते हुए मिलता.

हरीश को देख सुंदर कुछ कह नहीं पाता था, मगर गुस्से के मारे ऐंठ जाता. सुंदर को देख हरीश बेशर्मी से कहता, ‘‘इधर से गुजर रहा था, सोचा कि तुम से मिलता चलूं. तुम घर में नहीं थे. मैं वापस जाने ही वाला था कि भाभीजी ने जबरदस्ती चाय के लिए रोक लिया.’’

सुंदर जानता था कि हरीश सरासर झूठ बोल रहा था, मगर वह कुछ भी कर नहीं पाता. जो चीज अब सुंदर को ज्यादा डराने लगी थी, वह थी कलावती का हाथों से फिसल कर दूर होने का एहसास.

कुछ दिन तक सुंदर के अंदर विचारों की अजीब सी उथलपुथल चलती रही, पर हालात के साथ समझौता करने के अलावा उस को कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा था.

सुंदर को मालूम था कि उस जैसे साधारण आदमी की सोसाइटी में जो शान एकाएक बनी थी, वह उस की हसीन बीवी के चलते ही बनी थी, वरना पांचसितारा होटलों, फार्महाउसों की महंगी पार्टियों में शिरकत करना उस के लिए एक हसरत ही रहती.

एक सच यह भी था कि पिछले कुछ महीनों से सुंदर को इन सब चीजों से जैसे एक लगाव हो गया था. यह लगाव ही जैसे कहीं न कहीं उसे उस की मर्दानगी को पलीता लगाता था.

कलावती भी जैसे अपने रूपरंग की ताकत को पहचानने लगी थी, तभी तो सुंदर के हरीश सरीखे दोस्तों से कई फरमाइश करने से वह कभी झिझकती नहीं थी. देखा जाए, तो शादी के बाद कलावती की ख्वाहिशें सुंदर की जेब से नहीं, बल्कि उस के दोस्तों की जेब से पूरी हो रही थीं.

सुंदर को यह भी एहसास हो रहा था कि झूठी मर्दानगी में खुद को धोखा देने से कोई फायदा नहीं. अगर उस का कोई दोस्त उस की बीवी के होंठों के लिए लिपस्टिक का रंग पसंद करता था, तो उस के असली माने क्या हो सकते थे?

अपनी खूबसूरत बीवी के खोने का डर सुंदर को लगातार सता रहा था. इस डर के बीच कई तरह की बातें सुंदर के मन में अचानक ही उठने लगी थीं. पति की जगह एक लालची इनसान उस के विचारों पर हावी होने लगा.

सुंदर को लगने लगा था कि उस की बीवी वास्तव में खूबसूरत थी और उस के यारदोस्त काफी सस्ते में ही उस को इस्तेमाल कर रहे थे. अगर उस की खूबसूरत बीवी अमीर दोस्तों की कमजोरी थी, तो उन की इस कमजोरी का फायदा वह अपने लिए क्यों नहीं उठाता था?

इस बात में कोई शक नहीं कि हरीश जैसे अमीर और रंगीनमिजाज दोस्त कलावती के कहने पर उस के लिए कुछ भी कर सकते थे.

सुंदर की सोच बदली, तो उस की वह तकलीफ भी कम हुई, जो दोस्तों के अपनी बीवी से रिश्तों को ले कर उस के मन में बनी हुई थी.

शर्म और मर्दानगी से किनारा कर के सुंदर ने मौका पा कर कलावती से कहा, ‘‘क्या तुम को नहीं लगता कि हमारे पास भी रहने के लिए एक अच्छा घर और सवारी के लिए अपनी कार होनी चाहिए?’’

इस पर कलावती के होंठों पर एक अजीब तरह की मुसकराहट फैल गई. उस ने जवाब में कहा, ‘‘तुम्हारी 8 हजार रुपए की तनख्वाह को देखते हुए मैं इन चीजों के सपने कैसे देख सकती हूं?’’

‘‘कुछ कोशिश करने से सबकुछ हासिल हो सकता है.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘अगर हमारी आमदनी का कोई ऐक्स्ट्रा जरीया बन जाए, तो कुछ दिनों में ही हमारे दिन भी बदल सकते हैं.’’

‘‘मगर, ऐसा कोई जरीया बनेगा कैसे?’’ कलावती ने पूछा.

‘‘हरीश का काफी अच्छा कारोबार है. अगर वह चाहे तो बड़ी आसानी से हमारे लिए भी कोई आमदनी का अच्छा सा जरीया बन सकता है,’’ एक बेशर्म और लालच से भरी मुसकराहट होंठों पर लाते हुए सुंदर ने कहा.

सुंदर की बात पर कलावती की आंखें थोड़ी सिकुड़ गईं. पति उस से जो कहने के लिए भूमिका तैयार कर रहा था, उसे वह समझ गई थी.

जिस दिन सुंदर ने कलावती से आमदनी का अच्छा जरीया वाली बात की, उसी दिन कलावती काफी रात हुए घर आई. हरीश उस को अपनी गाड़ी से घर के बाहर तक छोड़ने आया था.

यह शायद पहला मौका था, जब हरीश घर के अंदर नहीं आया था.

कलावती अकेले ही अंदर आई थी. उस के होंठों की फीकी पड़ी लिपस्टिक और बिखरेबिखरे बाल जैसे खुद ही कोई कहानी बयान कर रहे थे.

सबकुछ समझते हुए भी सुंदर आज उसे अनदेखा करने के मूड में था. कलावती ने सुंदर को कुछ कहने या सवाल करने का मौका ही नहीं दिया.

होंठों के एक कोर पर फैली लिपस्टिक को हाथ के अंगूठे से साफ करते हुए कलावती ने कहा, ‘‘मैं ने हरीश से बात की है. वह बिना किसी इंवैस्टमैंट के ही हमें अपने काम में 10 फीसदी की पार्टनरशिप देने को तैयार है. इस के लिए मुझे उस के दफ्तर में बैठ कर ही कामकाज में उस का हाथ बंटाना होगा.

‘‘हरीश जो भी सामान बेचता है, वह सब औरतों के इस्तेमाल में आने वाला है, इसलिए उस को लगता है कि एक औरत होने के नाते मैं उस के कारोबार को बेहतर तरीके से देख सकती हूं. जब ऐक्स्ट्रा आमदनी रैगुलर आमदनी की शक्ल ले लेगी, तो मैं बेशक नौकरी छोड़ दूंगी. तुम को मेरे इस फैसले पर कोई एतराज तो नहीं…?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं,’’ सुंदर ने उतावलेपन से कहा.

इस के बाद कलावती हरीश के दफ्तर में जाने लगी. कई बार कलावती खुद चली जाती और कभी उस को लेने के लिए हरीश की गाड़ी आ जाती. रात को कलावती अकसर 9-10 बजे से पहले घर नहीं आती थी. कभी रात को हरीश का ड्राइवर घर पर उसे छोड़ने आता था और कभी हरीश खुद.

कलावती अकसर खाना भी खा कर ही आती थी. अगर वह खाना खा कर नहीं आती, तो घर पर नहीं बनाती थी. सुंदर किसी ढाबे या होटल से खाना ले आता और दोनों मिल कर खा लेते थे.

कलावती के रंगढंग और तेवर लगातार बदल रहे थे. कई बार तो वह रात को घर आती, तो उस के मुंह से तीखी गंध आ रही होती थी. यह तीखी गंध शराब की होती थी.

कलावती के बेतरतीब कपड़ों और बिगड़ा हुआ मेकअप भी खामोश जबान में बहुतकुछ कहता था.

मगर सुंदर ने इन सब चीजों की तरफ से जैसे आंखें मूंद ली थीं. उस का खून अब जोश नहीं मारता था.

जो दोस्त कभी सुंदर को घास नहीं डालते थे, वे अपनी की गई मेहरबानियों की कीमत वसूले बिना कैसे रह सकते थे?

अब तो सारा खेल जैसे खुला ही था. एक मर्द अपनी बीवी का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर रहा था और बीवी सबकुछ समझते हुए भी अपनी खुशी से इस्तेमाल हो रही थी.

इस सारे खेल में हरीश भी खुद को एक बड़े और चतुर खिलाड़ी के रूप में ही देखता था. कारोबार में 10 फीसदी की साझेदारी का दांव खेल कर उस ने अपने दोस्त की खूबसूरत बीवी पर एक तरह से कब्जा ही कर लिया था. अब उस को कई बहाने से दोस्त के घर जाने की जरूरत नहीं रह गई थी. वह पति की रजामंदी से खुद ही उस के पास जो आ गई थी.

जल्दी ही कलावती अपने बैग में नोटों की गड्डियां भर कर लाने लगी थी. कहने को तो नोटों की ये गड्डियां साझेदारी में 10 फीसदी हिस्सा थीं, मगर असलियत में वह कलावती के जिस्म की कीमत थी.

दिन बदलने लगे. केवल एक साल में ही किराए के घर को छोड़ कर सुंदर और कलावती अपने खरीदे हुए नए मकान में आ गए. नया खरीदा मकान जल्दी ही टैलीविजन, वाशिंग मशीन, फ्रिज और एयरकंडीशन से सज भी गया.

दूसरे साल में उन के घर के बाहर एक कार भी सवारी के लिए नजर आने लगी.

लेकिन, इस के साथ ही साथ कलावती जैसे नाम की ही सुंदर की पत्नी रह गई थी. कलावती में घरेलू औरतों वाली कोई भी बात नहीं रह गई थी. अपने पति के कहने पर ही वह पैसा बनाने वाली एक मांसल मशीन बन गई थी.

लोग सुंदर के बारे में तरहतरह की बातें करने लगे थे. कुछ लोग तो पीठ पीछे यह भी कहने लगे थे कि कलावती बीवी तो थी सुंदर की, मगर सोती थी उस के दोस्त हरीश के साथ.

10 फीसदी की मुंहजबानी साझेदारी के नाम पर अगर हरीश उन को कुछ दे रहा था, तो बदले में पूरी शिद्दत से वसूल भी कर रहा था. कलावती के मांसल जिस्म को उस ने ताश के पत्तों के तरह फेंट डाला था.

सुंदर जब लोगों का सामना करता था, तो उन की शरारत से चमकती हुई आंखों में बहुतकुछ होता था. कुछ लोग तो इशारों ही इशारों में कलावती को ले कर सुंदर से बहुतकुछ कह भी देते थे, मगर इस से न ही तो अब सुंदर की मर्दानगी को चोट लगती थी और न ही उस का खून खौलता था. उस की सोच मानो बेशर्म हो गई थी.

हरीश जैसे रंगीनमिजाज रईस मर्दों और कलावती जैसी शादीशुदा औरतों के संबंध ज्यादा दिनों तक टिकते नहीं हैं और न ही इस की उम्र ज्यादा लंबी होती है.

हरीश का मन भी कलावती से भरने लगा था. उस ने कलावती से छुटकारा पाने के लिए उस के प्रति बेरुखी दिखानी शुरू कर दी थी.

कलावती ने उस की बदली हुई नजरों को पहचान लिया, मगर उस को इस की कोई परवाह नहीं थी. हरीश से साफतौर पर कलावती के लेनदेन वाले संबंध थे और वह काफी हद तक इन संबंधों को कैश कर भी चुकी थी. मकान, घर का सारा कीमती सामान और गाड़ी हरीश की बदौलत ही तो थी.

वैसे, कलावती की नजरों में भी हरीश बेकार होने लगा था. उस को और निचोड़ना मुश्किल था.

हरीश ने साफ शब्दों में कलावती से छुटकारा मांगा. इस के बदले में कलावती ने भी एक बड़ी रकम मांगी. हरीश ने वह मांगी रकम दे दी.

हरीश से संबंध खत्म करने पर सुंदर ने कलावती से कहा, ‘‘हमारे पास अब सबकुछ है, इसलिए हमें पतिपत्नी के रूप में अपनी पुरानी जिंदगी में लौट आना चाहिए.’’

सुंदर की बात पर कलावती खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘मुझ को नहीं लगता कि अब ऐसा हो सकता है. पतिपत्नी का रिश्ता तो इस मकान की बुनियाद में कहीं दफन हो चुका है. क्या तुम को नहीं लगता कि पति बनने के बजाय तुम केवल अपनी बीवी के दलाल बन कर ही रह गए? ऐसे में मुझ से दोबारा कोई सती सावित्री बनने की उम्मीद तुम कैसे कर सकते हो?’’

कलावती के जवाब से सुंदर का चेहरा जैसे सफेद पड़ गया. कलावती ने जैसे उस को आईना दिखा दिया था.

कलावती वह औरत नहीं रह गई थी, जो अब घर की चारदीवारी में बंद हो कर रह पाती.

सुंदर भी जान गया था कि उस ने अपनी बीवी को दोस्तों के सामने चारे के रूप में इस्तेमाल कर के हासिल तो बहुतकुछ कर लिया था, मगर अपने जमीर और मर्दानगी दोनों को ही गंवा दिया था.

हरीश को छोड़ने के बाद कलावती ने सुंदर के एक और अमीर दोस्त दिनेश से संबंध बना लिए.

उधर कलावती बाहर मौजमस्ती कर रही थी, इधर सुंदर ने खूब शराब पीनी शुरू कर दी. कभीकभी शराब पी कर सुंदर इतना बहक जाता कि गलीमहल्ले के बच्चे उस का मजाक उड़ाते और उस पर कई तरह की फब्तियां भी कसते.

कुछ फब्तियां तो ऐसी कड़वी और धारदार होतीं कि नशे में होने के बावजूद सुंदर खड़ेखड़े ही जैसे सौ बार मर जाता.

जैसे शराब के नशे में एक बार जब सुंदर लड़खड़ा कर गली में गंदी नाली के पास गिर पड़ा, तो वहां खेल रहे कुछ लड़के खेलना छोड़ उसे उठाने के लिए लपकने को हुए, तो उन में से एक लड़के ने उन को रोक लिया और बोला, ‘‘रहने दो, मेरा बापू कहता है कि यह अपनी औरत की घटिया कमाई खाने वाला एक गंदा इनसान है. इज्जतदार और शरीफ लोगों को इस से दूर रहना चाहिए.’’

एक लड़के का इतना ही कहना था कि बाकी लड़कों के कदम वहीं रुक गए. शराब के नशे में लड़खड़ा कर सुंदर गिर जरूर गया था, मगर बेहोश नहीं था. लड़के के कहे हुए शब्द गरम लावे की तरह उस के कानों में उतर गए.

अपनी बुजदिली और लालच के चलते आज सुंदर कितना नीचे गिर चुका था, इस का सही एहसास गली में खेलने वाले लड़के के मुंह से निकले शब्दों से उसे हो रहा था.

Hindi Story Collection : शिलाखंड

Hindi Story Collection : शोभना की नींद खुली तो उस ने देखा कि किताबें, कागज, पेन, पैंसिल लैपटौप, चार्जर सब सिरहाने वैसे ही तकिए के नीचे दबे पड़े हैं, जैसे रात छोड़े थे. उस ने उठ कर घड़ी देखी. सुबह

के 5 बजे थे. दिल्ली की दिसंबर की ठंड, उस पर 2 दिन से बारिश लगी थी. उस का मन हुआ कि फिर से रजाई में दुबक कर सो जाए और फिर गहरी नींद में डूब गई शोभना.

‘‘लो, चाय पी लो,’’ आवाज सुन कर शोभना चौंकी. अरे, यह तो तरुणाजी की आवाज है. वही स्नेह और अपनत्व से पूर्ण स्वर. बड़ी हिचक और शर्म के साथ शोभना उठ बैठी. साथ की मेज पर गरम चाय रखी थी. बहुत चाह कर भी शोभना बैड टी लेने की आदी नहीं हो पाई थी. सुबह की चाय पीने से पहले हाथमुंह जरूर धो लेती है, कुल्ला कर लेती है.

शोभना गुसलखाने से निकली तो देखा कि तरुणाजी उस के सामान को समेट कर करीने से रख रही है. सिमटी हुई चादर भी सीधी कर दी थी. इस अपनेपन के बो?ा से दबी शोभना इतना ही बोली, ‘‘क्यों शर्मिंदा करती हो भाभीजी? आप तो मेरी आदत ही खराब किए दे रही हैं.’’

तरुणा भाभी हंस कर कुछ कहना चाहती थी किंतु मेड के आने की आहट सुन उठ कर चली गई.

शोभना अपने डाक्टरी पेशे में व्यस्त रहने के बाद भी इस क्षेत्र में आगे शोध के लिए इच्छुक थी. वह जयपुर के एक बड़े नर्सिंगहोम में सहचिकित्सक के रूप में पिछले 10 वर्षों से काम कर रही थी. उस के पति तथा दोनों बच्चे कभी स्थाई रूप से साथ नहीं रह पाए. दादी को

व्यस्त बहू पर अपने एकमात्र बेटे की दोनों संतानों का दायित्व डालना शायद ममतावश सहन नहीं होता था, इसलिए उन के पति व बच्चे आगरा में ही रहते थे. छुट्टियों में कभी बच्चे साथ रहने आ जाते, कभी स्वयं शोभना कुछ

दिनों के लिए आगरा चली जाती. पति सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, निजी इंजीनियरिंग के व्यवसाय में व्यस्त.

दिल्ली में डाक्टर प्रशांत को एक विख्यात डाक्टर के रूप में जाना जाता था. इन के मार्गदर्शन में अध्ययन करने पर संभव था कि उसे बच्चों

के रोगों के विषय में ऐसी जानकारी हासिल हो जाती, जिस के बारे में वह जिज्ञासु रही थी. साथ ही वह ‘बालरोग एवं उन के उपचार’ नामक लेख को तैयार कर सकती थी, जिसे वह ‘ब्रिटिश मैडिकल जर्नल’ में भेजने के लिए इच्छुक थी. शोभना के गुरु डाक्टर नमन ने ही डाक्टर प्रशांत का पता दिया था.

फिर एक दिन दोपहर को अपना थोड़ा सा आवश्यक सामान और अध्ययन लेखन की सामग्री लिए शोभना बड़े संकोच के साथ डाक्टर प्रशांत के घर आ गई थी. पर उस के संकोच के ठीक विपरीत तरुणा ने बड़े प्यार से शोभना को ड्राइंगरूम में बैठा कर कहा, ‘‘डाक्टर नमन का मैसेज परसों मिला था जब डाक्टर साहब मीटिंग में गए हुए थे. आज ही लौटे हैं. अभी नहा कर निकलते ही होंगे. तब तक आप हाथमुंह धो लीजिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

शोभना बड़े ध्यान से तरुणा को देख रही थी. वह सोच रही थी कि यह कितनी सरलहृदया, आकर्षक और मृदुभाषिणी है, पूरा घर बड़े सलीके से और रूचि के साथ सजाया हुआ था.

चाय पीतेपीते तरुणा ने बताया, ‘‘बेटी बीए औनर्स में पढ़ रही है और बेटा इसी साल एमबीबीएस में आया है,’’ उन का बेटा शायद शोभना के बेटे का ही समवयस्क हो क्योंकि बब्बू का भी इसी साल बीएससी कर के इंजीनियरिंग में दाखिल हुआ है. डाक्टर प्रशांत का बेटा सौमित्र लखनऊ मैडिकल कालेज में पढ़ रहा है, यह तो शोभना जानती थी. बेटी भी ननिहाल यानी लखनऊ में ही पढ़ रही थी. शायद स्वभाव से ही शांत और संकोची डाक्टर प्रशांत को दिल्ली की मशीनी जिंदगी और महानगरीय कोलाहल से चिढ़ थी या लखनऊ से पुराना मोह, जिस वजह से उन्होंने बच्चों को बाहर अध्ययन के लिए भेज दिया था.

शोभना जब तक कुछ सहज हुई, डाक्टर साहब नहा कर निकल चुके थे. उन के होंठों पर किसी गीत की धीमी गुनगुनाहट थी, जिस से वातावरण मधुर हो गया था. कुछ ही देर में डाक्टर प्रशांत ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. लंबा, पुष्ट शरीर, गेहुआं रंग, चेहरे पर शांति और सौम्यता का भाव. उन्होंने बड़ी आत्मीयता भरी मुसकराहट के साथ शोभना से यात्रा के बारे में पूछा, फिर घर तक  पहुंचने के बारे में. उस के बाद अध्ययन के विषय पर आ गए. इसी बीच तरुणा फिर आ कर बैठ गई थी.

शोभना नहाधो कर छत की बालकनी पर आई तो देखा, डाक्टर प्रशांत बड़े स्नेह और प्यार के साथ तरुणा के जूड़े में फूल लगा रहे थे. ठिठक कर शोभना लौटने लगी पर तभी उसे डाक्टर प्रशांत की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे शोभना, अब जब आप गुरुबहन हो कर आई हैं तो आप से क्या छिपाना? यों उम्र में भी आप में और तरुणा में ज्यादा अंतर नहीं होगा. यह ‘ड्यूटी’ तो मंडल में भांवरों के समय ही सौंप दी गई थी और कहा गया था कि अपनी पत्नी के अलावा मैं और किसी को फूल न लगाऊं,’’ और फिर एक खुला हुआ अट्टाहास.

तरुणा एक नवयौवना सी शरमा गई. 2 घंटे पहले अतिथि रूप में आई शोभना ऐसा महसूस कर रही थी जैसे वह अपने घर लखनऊ के आंगन में खड़ी हो और उस के भैयाभाभी एकदूसरे को चिढ़ा रहे हों.

डाक्टर प्रशांत ने अध्ययन का समय रात 10 बजे से दो बजे तक तय किया था. दोपहर में खाना खाने से पहले तक शोभना ने बहुत कुछ लेखन सामग्री तैयार कर ली थी. धीमी गुनगुनाहट के साथ तरुणा रसोई में खाना बना रही थी. इसी बीच एक तरफ कौफी चुपचाप उस के पास रख गई थी. जब डाक्टर प्रशांत दोपहर के भोजन के लिए आए तब तक शोभना व तरुणा एकदूसरे से काफी बातचीत कर चुकी थीं. तरुणा भी यह जान गई थी कि  शोभना के पति कितने सुल?ो हुए, सरल एवं उदार व्यक्ति हैं. वे मां के वात्सल्य को नहीं ठुकरा सकते और पत्नी के प्रति अपनी आत्मीयता और प्यार आज शादी के 22 वर्षों के बाद भी वैसा ही बना हुआ है.

शादी से पहले उस के पति सोमेश इंजीनियर ही थे, पर रोजरोज वरिष्ठ अफसरों के रोब को सहना और अनावश्यक रूप से उन्हें प्रसन्न रखने के प्रयास करना सोमेश के स्वभाव के विपरीत था. शोभना ने अपने उदार और मेधावी पति के सामने एक ही बात रखी थी कि वह डाक्टर है और अपना यह काम वह शादी के बाद भी जारी रखेगी. सोमेश ने बड़ी सहृदयता से उस के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था.

विवाह के समय शोभना की 2 छोटी ननदें थीं. दोनों देवर क्रमश: एमएससी तथा बीए में पढ़ रहे थे. ससुर नहर विभाग में इंजीनियर थे, पर विवाह के कुछ साल बाद ही एक जीप दुर्घटना में उन की मृत्यु हो गई थी. शादी के 4 वर्ष बाद ही शोभना ने अपनी सास, ननदों और दोनों देवरों का जो दायित्व संभाला, उसे वह आज तक निभा रही थी. अब उस के दोनों देवर अच्छे पदों पर हैं तथा ननदें अच्छे घरों में विवाह के बाद सुखी हैं. सास को जो आदरमान शोभना ने पहले दिन दिया वही आज भी उस के और सोमेश के मन में है. बच्चे तो बिना दादीमां के रह ही नहीं सकते.

आगरा और जयपुर की दूरी इतनी कम है कि पिछले 6 सालों से शोभना हर 15-20 दिन बाद अपने पति से मिल लेती है. देवरों के अध्ययन एवं विवाह के लिए लिया गया ऋण कब और कैसे सोमेश व शोभना ने लौटा दिया, यह अम्माजी जान भी न पाई थीं. हालांकि, शोभना को लगता है कि  अम्माजी का स्नेहिल चेहरा सदैव उसे एवं उस के परिवार को आशीष देता रहता है.

पिछले 3 दिनों से शोभना डाक्टर प्रशांत के साथ रात 2 बजे तक काम करती रही. घंटेभर बाद ही डाक्टर प्रशांत स्वयं उठ कर कौफी बनाते और 1 कप शोभना को पकड़ा कर कहते, ‘‘लीजिए, थोड़ी देर दिमाग को आराम दीजिए,’’ फिर अनायास ही कुछ याद करते से उठते और बैडरूम की ओर चले जाते. आ कर कहते, ‘‘तरुणा जब थक कर चूर हो जाती है तब सोते समय उसे होश नहीं रहता कि रजाई कहां जा रही है. दवाई कभी मैं ही पिलाऊं तो ले लेगी, अपनेआप नहीं ले सकती. मैं तो मरीजों में या फिर शोध लेखन में ही व्यस्त रहता हूं. किंतु यह कभी शिकायत नहीं करती. न जाने किस चीज की बनी है, हर बात में संतोष, हर परिस्थिति से सम?ौता.’’

शोभना डाक्टर प्रशांत के गरिमामय व्यक्तित्व, ज्ञान तथा शालीनता से प्रभावित होती चली गई. 1 हफ्ते तक पढ़ाई का यही क्रम चलता रहा. उस के लेख और शोधपत्र को न जाने कितनी बार डाक्टर प्रशांत ने सुधारा. पर बड़ा आश्चर्य था कि तरुणा ने उस के रात ढाईतीन बजे तक डाक्टर प्रशांत के साथ बैठ कर पढ़नेलिखने, बात करने पर कभी कोई संदेह व्यक्त नहीं किया.

दिसंबर की रात्रि के एकांत क्षणों में स्त्रीपुरुष का यों साथ बैठ कर बातें करना, किसी विषय पर देर तक तर्कवितर्क करना, कौफी, चाय आदि पीना किसी भी महिला के ईर्ष्या का विषय हो सकता है. पर तरुणा भाभी के प्रशांत गंभीर हृदय में कौन सा ऐसा स्नेहिल ठोस हिमखंड है, जो धीरेधीरे पिघल कर अपनी उदारता एवं स्नेह की अमृतधारा में शोभना को डुबोता चला जा रहा है, यह स्वयं शोभना भी सम?ा नहीं पाती.

कल रात बहुत देर तक शोभना को नींद नहीं आई. वह अपने सरल हृदय पति के बार में ही सोचती रही. वे कितने उदार हैं. पर रंजना ने जब फैक्टरी में 3 महीने तक रिसैपशनिस्ट का काम किया था तब शोभना जैसी सुल?ा हुई पत्नी के मन में भी ईर्ष्या और संदेह की भावना जड़ पकड़ने लगी थी. वह कभी 15 दिन से ज्यादा छुट्टी नहीं लेती, पर उस बार 1 महीना आगरा रह गई थी. शायद उस के पति सोमेश ने भी उस के मन के संदेह को भांप लिया था.

महीने में 1-2 बार किसी काम से फैक्टरी जाने वाली शोभना अब रोज किसी न किसी बहाने सोमेश के दफ्तर में पहुंचने लगी. वह रंजना को ऊपर से नीचे तक आलोचक निगाहों से देखती. अकारण ही सोमेश के कोट के कालर पर कभी लिपस्टिक के दाग ढूंढ़ती और कभी रंजना द्वारा प्रयुक्त सैंट की खुशबू पहचानती, पर सोमेश उस की इन बातों को जान कर भी नजरअंदाज करते रहे.

शोभना को याद आया कि उस के बड़े बेटे की सालगिरह थी. सभी तैयारियां हो चुकी थीं. तभी सोमेश का फोन आया कि वह पार्टी में शरीक नहीं हो सकेगा. उस ने कहा कि रंजना की बेटी की हालत बहुत खराब हो गई है और उसे ले कर मैडिकल कालेज जाना है. शोभना के संशय ने अब विकृत रूप ले लिया और वह भूल गई कि पति के अभाव में रंजना को अपने बच्चों की पूरी जिम्मेदारी पिता के ढंग से भी निभानी होती है.

सुंदर, आकर्षक पर पति द्वारा परित्यक्ता रंजना एक संभ्रांत परिवार की सुशील, शिक्षित महिला थी. मगर शोभना ने उस दिन सोमेश के वापस आने पर उस से बात तक नहीं की. उस ने भद्दे शब्दों में रंजना पर लांछन लगा दिए.

सोमेश ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘इतनी पिड़ली बातें करते तुम्हें शर्म नहीं आती? रंजना की बेटी की  हालत खराब देख कर अगर मैं ने अपनी गाड़ी में बैठा कर उन दोनों को ले जाने का, बच्ची को अस्पताल में दाखिल कराने का काम कर दिया तो कौन सा पहाड़ टूट गया. लानत है तुम्हारी पढ़ाई और काबिलीयत पर. इतने सालों से तुम नौकरी कर रही हो, सब तरह के डाक्टरों और मरीजों से पाला पड़ता है पर मैं ने तो कभी तुम्हें कुछ नहीं कहा. तुम नहीं जानतीं कि रंजना कितनी शरीफ और काबिल है. मेरी सम?ा में नहीं आता कि औरतआदमी का रिश्ता इतना सस्ता क्यों होता जा रहा है? क्या हम एकदूसरे के लिए सहकर्मी, मित्र, सहायक या हमदर्द नहीं हो सकते?’’

पता नहीं क्यों शोभना तब कुछ बोल नहीं सकी. पार्टी के बरतन उठाते हुए फैक्टरी के नौकर शंभू ने शायद ये सभी बातें सुनी थीं. दूसरे दिन रंजना शाम को अपना त्यागपत्र ले कर आई. शोभना उस से आंखें न मिला सकी थी. सोमेश ने चुपचाप वह त्यागपत्र रख लिया. सोमेश की यह खामोशी उसे अंदर ही अंदर सालती रही.

अब तरुणा को देख कर उसे अपने ऊपर ग्लानि होती जा रही थी. कहने को शोभना एक पढ़ीलिखी डाक्टर है पर मात्र बीए पास तरुणा के मन की महत्ता और गहराई की तुलना में वह अपनेआप को एक हलका तिनका ही पाती रही. मन के विश्वास के शिलाखंड के सामने वह अपनेआप को बड़ा बौना महसूस कर रही थी.

परसों शोभना को वापस जाना है. यहां रहते हुए उस ने काफी शोधकार्य कर लिया है. अपने व्यवसाय के क्षेत्र में वह बच्चों के अनेक रोगों के बारे में बहुत सी उपयोगी सामग्री इकट्ठा कर चुकी है. जो पेपर वह ‘ब्रिटिश मैडिकल जर्नल’ में भेजना चाहती थी वह भी बहुत सी काटछांट व बदलाव के बाद डाक्टर प्रशांत के निरीक्षण में पूरा हो चुका था. साथ ही आगरा में अपने पति के साथ रहने के प्रयास में वह डाक्टर प्रशांत व उन के सहयोगियों से पर्याप्त मदद भी ले चुकी थी. संभव है कि उस की नियुक्ति राजस्थान की गुलाबी नगरी से हट कर मुगल शहनशाहों के प्रिय क्षेत्र में हो ही जाए. कई पड़ोसियों से भी शोभना का परिचय तरुणा करवा चुकी थी.

डाक्टर प्रशांत को उस ने बहुत करीब से देखा है. कहीं मन में कोई कुंठा नहीं. मरीजों, दवाइयों और किताबों में डूबे प्रशांत उसे गुरु जैसे लगते. पर कुछ ही समय बाद वह देखती कि अपनी पत्नी तरुणा के साथ लान में टहलतेटहलते वे हलके ढंग से कुछ गुनगुनाने लगते और तरुणा का हाथ पकड़ कर जब वह उसे क्यारी पार करवाने लगते और उस की पीठ पर एक धौल लगा देते तब शोभना अपने कमरे की जालीदार खिड़की के पीछे खड़ी देखती रह जाती. दोनों के मन में कितना विश्वासपूर्ण प्यार है. शायद तभी अत्यधिक व्यस्त 24 घंटों में से 24 मिनट का समय निकाल कर वे दोनों सहज स्वाभाविक रूप से जीना नहीं भूलते.

शोभना को याद आता है कि पिछले ही वर्ष उस की सहकर्मी डाक्टर सुल?ा ने अपने पति से तलाक लिया था. कारण मात्र यह था कि जरमनी से लौटने के बाद उन्होंने अपने विभाग में वहीं के विश्वविद्यालय की एक मेधावी छात्रा को अपने निरीक्षण में रिसर्च फैलोशिप दे दी थी. वह दिनभर व्यस्त रहने लगे थे. सदैव से सीधे और सरल तथा पत्नी का अत्यधिक खयाल रखने वाले डाक्टर मनोज से मात्र इसी आधार पर उन की पत्नी ने तलाक लिया था कि वे जरमन छात्रा के शोध कार्य में अधिक समय देने लगे थे. उन की पत्नी ने डाक्टर मनोज के इस तथ्य को बिलकुल नहीं माना था कि विदेशी छात्रा होने के नाते उस के पास समय कम था और उसे भारत में चल रहे अपने शोध कार्य की मासिक प्रगति भी अपने देश भेजनी पड़ी है.

डाक्टर प्रशांत के घर आ कर शायद शोभना की मनोचिकित्सा सी होती  जा रही थी. लगातार 3 दिन वह घर से 14 किलोमीटर दूर डाक्टर प्रशांत के साथ मैडिकल इंस्टिट्यूट जाती रही. कितने प्यार से तरुणा उसे टिफिन में नाश्ता रख कर पकड़ाती, ‘‘इसे रख लीजिए. यह दिल्ली है, यहां यह नहीं कि 1-2 किलोमीटर चले आए और खाना खा लिया. फिर बाजार का खाना भी ठीक नहीं रहता. मैं ने 4 परांठे और भुना मीट रख दिया है. आप और डाक्टर साहब खा लीजिएगा. हां, कौफी का जिम्मा आप के डाक्टर साहब का है.’’

शोभना अपनी आंखें उस निश्छल उदार हृदय की स्वामिनी तरुणा के चेहरे पर गड़ा देती थी. जी चाहता था कि उस से लिपट कर प्यार से पूछे, ‘‘किस धातु की बनी हो तरुणा तुम? कहां से आया इतना विश्वास? तुम्हारे पति के साथ रोज रात 2-2 बजे तक काम करती हूं. उन की कार की अगली सीट पर बैठ कर जाती हूं. कभी शक नहीं किया, कुछ नहीं पूछा.’’

मैं ने तो सुना है कि यहां महिलाएं आती रहती हैं, कभी स्थानीय तो कभी बाहरी. सभी डाक्टर प्रशांत के ज्ञान, अनुभव व यश से कुछ लाभ उठाने व सीखने आती हैं. यह नहीं कि

कोई कुछ कहता नहीं है. यही दिल्ली की एक लेडी डाक्टर ने मात्र 2 दिन के परिचय के बाद ही शोभना से मजाक में कहा था, ‘‘अच्छा,

आप डाक्टर प्रशांत के यहां रुकी हैं, अरे भई, डाक्टर प्रशांत तो एकाध ऐक्स्ट्रा के बिना रह ही नहीं सकते. चलिए, बढि़या कटती होगी. सुना है पत्नी उपेक्षित रहती है. मु?ो उस पर बड़ी दया आती है.’’

शोभना का मन हुआ कि अपना पर्स खींच कर उस लेडी डाक्टर के मुंह पर दे मारे और उस से कहे कि क्यों अपने से सब को तौलती हो? देखने में तो पढ़ीलिखी औरत हो, पर मन से तो तुम एक अनपढ़, गंवार से भी बदतर हो. तुम्हें क्या मालूम डाक्टर प्रशांत किस पुण्य गंगा के कमल हैं और उन की पत्नी तरुणा उस कमल पर पड़ी शीतल ओस की बूंद है.

मगर शोभना ने अपने मन के आवेश पर काबू किया और इतना ही बोली, ‘‘जरा संभल

कर बोलो. किसी को कुछ कहने से पहले

अगर इनसान अपनी बात को मन में दोहरा ले तो शायद किसी महान व्यक्ति के लिए इतने छिछले शब्द मुंह से न निकलें,’’ और वह लेडी डाक्टर शोभना को जलती हुई नजरों से घूरती हुई वहां से चली गई.

आज शोभना को वापस आगरा जाना है. इस बीच वह अकसर पति तथा बच्चों से फोन पर बात करती रही थी, पर आज जा कर उन से मिलेगी. दिनभर तरुणा बारबार दोबारा दिल्ली आने का आग्रह करती रही. दोनों बाजार से घर लौटीं तो देखा कि फाटक पर ही सुशीला मिल गई.

तरुणा शोभना की ओर संकेत करती हुई बोली, ‘‘आज विक्की की बूआ वापस जा रही है आगरा, इसलिए हम लोग बाजार खरीदारी के लिए निकल गए थे.’’

‘बूआ… हां बूआ… मात्र शब्द ही नहीं, उस में उस शब्द के स्नेहिल, अपनत्वपूर्ण प्यार भरे परिचय से शोभना का मन हुआ कि वह पैर छू ले तरुणा के. उस की आंखें भर आईं. ऐसा लगा कि उस ने अपने अम्मांपिताजी का ही प्यार भाभी के दुलार भरे शब्दों में पा लिया हो.

घर आते ही वे तरुणा का हाथ थाम कर वहीं दालान में पड़े सोफे पर बैठ गई और बोली, ‘‘भाभी, आप ने कहां से पाया है इतना उदार और निच्छल मन? इतने दिन से आप के पास हूं. आप के समान ही उम्र मेरी भी होगी. आप रसोई में बैठ कर नौकरों और गृहस्थी में उल?ा रहती हैं. मैं घंटों डाक्टर साहब के कमरे में बैठ कर उन से पढ़तीलिखती हूं और बातें करती हूं. पूरापूरा बाहर रहती हूं, कभी शक नहीं आया आप के मन में?’’

तरुणा हंस कर हलके से दुलारती हुई बोली, ‘‘शोभना, तुम मुझ से कहीं ज्यादा पढ़ीलिखी हो. पर शायद अनुभव और व्यवहार की जितनी कसौटियों पर मैं ने अपनेआप को परखा है, उतना तुम ने नहीं. मैं इतनी ज्ञानी और बुजुर्ग तो नहीं कि तुम्हें भाषण दूं या समझाऊं. एक बहन की सी सलाह दे रही हूं कि निरर्थक शक या संदेह पतिपत्नी को ही नहीं, मांबाप से बेटीबेटे को तथा भाई से बहन को अलग कर देता.

‘‘कभीकभी बात कुछ भी नहीं होती, पर हम एक छोटे से कारण को तूल बना देते हैं. युवा होते बेटाबेटी दिए गए समय से आधापौन घंटे लेट हो गए कि बस आफत खड़ी कर दी कि कहां थे? क्यों देर लगाई? कौन साथ था? मैं फोन कर के पूछूं तेरे दोस्त के घर? यही जहर बिंधे शब्द बच्चों को विद्रोही बना देते हैं.

‘‘शोभना, यह तो बच्चों की बात है. आज जिस अवस्था में मैं और मेरे पति डाक्टर प्रशांत

या तुम और तुम्हारे पति खड़े हैं, वहां इन छोटीछोटी बातों को ले कर यदि शक और अकारण संदेह को मन में जगह दी तो हमारे पारस्परिक प्यार और विश्वास की नींव ही ढह जाएगी. फिर पति और पत्नी का संबंध बच्चों का बालू का घरौंदा तो नहीं, जो जरा सी ठोकर मारने से ढह जाए. तुम जो जानती हो, उमड़ती वेगवान नदियों के बीच भी शिलाखंड अडिग, स्थिर, शान से खड़े रहते हैं. वही हैं मेरे और डाक्टर प्रशांत के संबंधों के प्रतीक.

‘‘अपने पति के बड़प्पन को मैं ने जितना पहचाना है, उतना कोई क्या जानेगा? प्रशांत मुझे आज भी उतना ही प्यार देते हैं क्योंकि मैं ने उन पर कभी संदेह नहीं किया, अपने विश्वास और स्नेह को शिलाखंड सा अडिग बनाए रखा. फिर अनेक छिछले व्यक्तित्व के पुरुषों की भांति उन के व्यक्तित्व में आज तक कहीं कोई ऐसा अशोभनीय रूप न देख पाई जो मैं आमतौर से लोगों से सुनती हूं. शोभना, जिंदगी को अच्छा व सुंदर बनाना बहुत कुछ अपने हाथ में होता है.’’

शोभना शायद एक नई शोभना बन कर अपने घर जा रही थी. वह जानती थी कि तरुणा ने जिस शिलाखंड की ओर संकेत किया है वह सिर्फ उन का ही नहीं है, किसी का भी हो सकता है. हां, उस का भी.

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