अटूट बंधन: भाग-1

विशू  देर तक सोया पड़ा था. वैसे तो जल्दी ही उठ जाता है वह या कहें कि उठना पड़ता है. विश्वनाथ तिवारी, डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर एक मल्टीनैशनल कंपनी में रोबदाब के साथ 13 साल से काम कर रहा है. वह कंपनी के मालिक जालान का दाहिना हाथ है. आकाश चूमता वेतन,  साथ में अन्य सुविधाएं जैसे ड्राइवर, पैट्रोल समेत गाड़ी, फुल फर्निश्ड फ्लैट, मैडिकल और बच्चों की पढ़ाई का पैसा, साल में एक बार देश या विदेश में घूमने का खर्चा और पूरे विश्व में औफिशियल टूर का अलग पैसा. जब  इतनी सारी सुविधाएं देती है कंपनी तो काम भी दबा कर लेती है.

सच तो यह है कि उसी ने ही कंपनी को सफलता की चोटी पर बैठाया है. इस की टक्कर की जो दूसरी कंपनी हैं वे उस पर नजर लगाए हैं कि कब विश्वनाथ का जालान से मतभेद हो और कब वे उसे चारा फेंक, अपनी कंपनी में खींच लें. हां, तो यह भोर की नींद उसे बचपन से लुभाती है.

उस के पिता एक निष्ठावान ब्राह्मण पंडित केशवदास थे. गांव के छोटे से प्राइमरी स्कूल के हैडमास्टर, वेतन अनियमित. पहली पत्नी डेढ़ साल के विश्वनाथ को छोड़ कर दुनिया से चल बसी तो विशू की देखभाल के लिए ही गरीब ब्राह्मण कन्या निर्मला को ब्याह लाए थे वे. उस से 2 बच्चे, बेटा दीनानाथ और बेटी सुलक्षणा हैं. अपनी आय में गृहस्थी नहीं चलती पर 5 बीघा जमीन थी उन के पास. उसी से रोटीकपड़ा चल जाता. मिट्टी का कच्चा घर तो अपना था ही. पर उन के पास सब से बड़ी संपत्ति थी पूरे गांव का आदरसम्मान. भोर में 4 बजे वे उठ जाते. अपने साथ ही वे विशू को जगा कर पढ़ने बैठा देते. कहते, ‘‘ऊषाकाल का अध्ययन सब से श्रेष्ठ होता है, सूर्योदय तक बिस्तर पर रहना चांडालों का काम है.’’

बेचारा विशू, बचपन से ही भोर की मीठी नींद से वंचित रह गया. विद्यार्थी जीवन समाप्त होते ही कंधों पर आ बैठा ऊंचे पद का दायित्व. भोर की तो क्या रात की नींद भी छिन रही थी. पर रविवार के दिन विशू देर तक सोता है, रीमा भी नहीं जगाती, उलटे बच्चों को हल्लागुल्ला करने से रोकती है.

आज रविवार नहीं सोमवार है. हफ्तेभर काम करने का पहला दिन. विशू गहरी नींद में सो रहा था. इतनी निश्चिंत शांति की नींद वह वर्षों से नहीं सोया. बच्चे कब स्कूल चले गए, पता नहीं चला. पहली चाय रोज की तरह सिरहाने रख कर कब नौकर भी चला गया उस का भी पता नहीं चला. रीमा के जोरदार झकझोरने से उठा. हड़बड़ा कर देखा खिड़की के परदे हटा दिए गए हैं. फर्श पर धूप, सामने रीमा हाउसकोट पहने खड़ी हंस रही है.

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‘‘उठिए साहब, पता है 8 बज गए. आज आस्ट्रेलिया की पार्टी से मीटिंग है न?’’

‘‘धत, नींद खराब कर दी मेरी.’’ रीमा बिस्तर पर बैठी प्यार से उस के बिखरे बालों को संवार रही थी और हंस रही थी.

‘‘बच्चों से कम नहीं हो तुम. वे भी तैयार हो, स्कूल चले गए. चलो, उठो.’’

वह फिर लुढ़कने को तैयार.

‘‘सोने दो मुझे.’’

‘‘अरे अरे, ठीक 11 बजे मीटिंग है तुम्हारी.’’

‘‘भाड़ में जाए मीटिंग. जालान का बच्चा संभाले अपनेआप.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’

‘‘ठीक ही कह रहा हूं. शनिवार को ही मैं रैजिगनेशन लैटर उस के मुंह पर मार आया हूं. आजाद हूं अब मैं.’’

‘‘क्या?’’

रीमा इस तरह छिटक कर खड़ी हो गई मानो हजार वोल्ट का झटका लगा हो.

‘‘नौकरी छोड़ दी तुम ने?’’

‘‘हां.’’

‘‘इतना बड़ा फैसला तुम ने मुझ से पूछे बिना लिया कैसे?’’

विशू ने देखा, एक क्षण पहले की रोमांसभरी मधुर मुसकान उस के मुख से गायब थी. अब वहां क्रोध की ज्वाला थी.

‘‘क्या? तुम से पूछता? यह तो मेरा व्यक्तिगत मामला है. मैं नौकरी करूंगा या नहीं, यह मेरा फैसला है.’’

गुस्से में हांफ रही थी रीमा, ‘‘तुम्हारा फैसला? वाह, बहुत बढि़या. अब तुम्हारा व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है जो अपनी मरजी से चलोगे. घरपरिवार वाले हो. तुम्हारे सबकुछ पर हमारा अधिकार है. तुम बिना पूछे इतना बड़ा फैसला कैसे ले सकते हो? सोने की खान जैसी नौकरी, जिस ने तुम को झोंपड़े से उठा कर राजमहल में बैठा दिया. समाज की सर्वोच्च सोसाइटी में तुम को पहचान दी, तुम उसी नौकरी को मिजाज दिखा छोड़ आए.’’

‘‘ऐ, हैलो, यह सब जो तुम मुझे गिना रही हो वह सब खैरात में नहीं दिया है किसी ने मुझे. अपनी योग्यता और ईमानदारी की बदौलत हासिल किया था मैं ने यह मुकाम. कैंपस सिलैक्शन में टौप किया था. एक पिछड़ी कंपनी को कहां से कहां पहुंचा दिया इन 13 वर्षों में. खरबों का मुनाफा कमा कर दिया कंपनी को, नहीं तो बड़ीबड़ी कंपनियों के सामने तिनके की तरह बह जाता जालान का बच्चा.’’

‘‘अपने मुंह मियांमिट्ठू तो बनो मत. तुम जैसे एमबीए आजकल क्लर्क का काम कर रहे हैं.’’

‘‘हां, कर रहे हैं पर 13 वर्ष पहले आज की तरह छवड़ा भरभर एमबीए नहीं निकलते थे प्रति वर्ष.’’

थोड़ी नरम दिखाई दी रीमा, ‘‘देखो, आपस में लड़ाई करने से किसी समस्या का समाधान नहीं होता. जालान साहब इतनी बड़ी कंपनी के मालिक हैं, कोई मूर्ख तो हैं नहीं. तुम से कंपनी को कितना फायदा है, यह वे भी समझते हैं. तुम इतने वर्षों से इस कंपनी के प्रतिनिधि हो. बहुत से देशों के लोग तुम को ही जानते हैं इस कंपनी के नाम से. तुम्हारे न रहने का मतलब है कंपनी का बहुत नुकसान हो सकता है. बहुत सारे बाहर के कस्टमर तुम्हारी जगह नया आदमी देख डील ही न करें. इस बात को जालान साहब भी जानते हैं.’’

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विशू अवाक हो रीमा को देख रहा था. वह भी एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर कार्यरत है. 50 हजार रुपए से ऊपर ही वेतन लेती है. उस में इतनी प्रैक्टिकल समझ, व्यावसायिक बुद्धि है, यह तो उस ने सोचा ही नहीं था और ऐसा दांवपेंच तो इतने बड़ेबड़े डील कर के भी उस के मस्तिष्क में नहीं आया.

‘‘देखो, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा. जालान साहब मंजे हुए व्यापारी हैं. अपना फायदा अच्छी तरह समझते हैं. तुम्हारी जगह नए आदमी को ले कर उसे अपने हिसाब से तैयार करने में उन को वर्षों लग जाएंगे. कंपनी को बहुत नुकसान होगा. चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं. वे मुझे बेटी मानते हैं. तुम माफी मांग कर रैजिगनेशन वापस ले लो. आज की आस्ट्रेलिया वाली डील में सफल हो जाओगे तो वे औैर भी खुश हो जाएंगे. चलो, उठो, मैं भी तैयार होती हूं. तुम्हारी समस्या का समाधान कर मैं अपने औफिस चली जाऊंगी.’’

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शह और मात: भाग-3

उस की इच्छाओं की पूर्ति करतेकरते भी उस से गालियां सुनती है, मार खाती है. पल्लवी उन मूर्खों में से थी जिस ने खुद अपना पैर कुल्हाड़ी पर दे मारा था. अपनी गलतियों के कारण वह संजीव की बिछाई शतरंज की बिसात पर सिर्फ एक मुहरा बन कर रह गई थी. पल्लवी ने आंसू पोंछे और मन मार कर संजीव को खाना परोसने चली गई.

इस के बाद कुछ दिनों तक तो संजीव शांत रहा, लेकिन वह ₹10 हजार रुपयों पर आखिर कितने दिन ऐश करता? उस ने पल्लवी को शरद से ₹1 लाख निकलवाने के लिए कहा और इस के लिए योजना भी समझा दी.

पल्लवी ने संजीव के कहे अनुसार अभिनय करना शुरू कर दिया. एक दोपहर शरद के साथ खाना खाते समय उस ने अपनी छोटी बहन से फोन पर बात करने का नाटक किया और रोने लगी. पल्लवी को इस तरह रोता देख कर शरद परेशान हो गया.

“पल्लवी तुम इस तरह क्यों रो रही हो? घर पर सब ठीक है न?” शरद ने पूछा.

“शरद मेरी मां की तबीयत बहुत खराब है. मुझे उन के औपरेशन के लिए ₹1 लाख का इंतजाम करना होगा और वह भी 2 दिनों के अंदर. मैं इतनी जल्दी इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगी?” पल्लवी ने परेशान होने का नाटक किया.

“तुम फिक्र मत करो पल्लवी. कोई न कोई इंतजाम हो जाएगा,” शरद ने उसे हौसला बंधाते हुए कहा.

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“कैसे फिक्र न करूं शरद. मेरा बैंक अकाउंट संजीव खाली कर चुका है. जो थोड़ेबहुत गहने थे वे मैंने कर्ज उतारने के लिए बेच दिए थे. अभी कुछ दिन पहले मेरे पास घर का किराया देने के लिए एक फूटी कौड़ी तक नहीं थी. उस वक्त तुम ने मेरी मदद की थी. अब मैं किस के आगे हाथ फैलाऊं?” पल्लवी अपने चेहरे को हथेलियों के पीछे छिपा कर रो पड़ी.

शरद अपनी कुरसी खींच कर पल्लवी के पास ले आया और उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा,“पल्लवी ‌सब ठीक हो जाएगा, पहले तुम रोना बंद करो प्लीज.”

शरद को पिघलता देख कर पल्लवी ने उस की बांह को कस कर पकड़ लिया और अपना सिर उस के कंधे पर टिका दिया और रोते हुए कहा, “अगर मां को कुछ हो गया तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी. मैं क्या करूं मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है. मैं बहुत अकेली हो गई हूं शरद.”

“तुम अकेली नहीं हो पल्लवी. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं,” शरद ने पल्लवी के हाथ पर अपना हाथ रखा. वह उस के चेहरे पर उभरती कुटिल मुसकान से बेखबर था.

अगले दिन औफिस पहुंचने से पहले ही पल्लवी को मालूम था कि शरद ने रुपयों का इंतजाम कर लिया होगा. आखिर उस ने अभिनय भी तो कमाल का किया था.

पल्लवी का अंदाजा बिलकुल सही निकला. शरद ने लंच ब्रैक के समय उस के हाथ में ₹1 लाख थमा दिए.

“थैंक यू सो मच शरद. मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलूंगी. मैं जल्द से जल्द तुम्हारे सारे रुपए लौटा दूंगी,” पल्लवी ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा.

“कैसी बातें करती हो पल्लवी, क्या मेरा सब कुछ तुम्हारा नहीं है? अब बातें करने में समय बरबाद मत करो. जाओ और अपनी बहन को यह रुपए दे दो,” शरद ने मुसकरा कर उस का माथा चूम लिया.

पल्लवी ने एक बार फिर से शरद को धन्यवाद कहा और रुपए ले कर अपने घर आ गई. ₹1 लाख देख कर संजीव खुशी से उछल पड़ा और एक पल गंवाए बिना पल्लवी के हाथ से नोट झपट लिए, “अरे वाह पल्लवी, आज तो तुम ने कमाल ही कर दिया. अच्छा यह बताओ शरद को तुम पर शक तो नहीं हुआ?”

“नहीं…”

“वैरी गुड… अब अगली बार ₹2 लाख से कम मत मांगना,” संजीव ने हिदायत दी.

“लेकिन संजीव, इस तरह बारबार बहाने कर के ज्यादा रुपए मांगूगी तो शरद को मुझ पर शक हो जाएगा,” पल्लवी ने तर्क दिया.

“पल्लवी, तुम अपने छोटे से दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालो. यह शरद तुम पर पूरी तरह से लट्टू हो चुका है. इस का जितना फायदा उठा सकती हो उठा लो. फिर कोई नया बकरा फंसा लेना,” संजीव ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा और चलता बना.

संजीव के जाने के बाद पल्लवी का हाथ अनायास ही अपने माथे पर चला गया. जब शरद ने उस के माथे को चूमा था तो उसे अजीब सी सुखद अनुभूति हुई थी. शरद ने उसे भीतर तक छू लिया था. आज से पहले उस ने न जाने कितने लोगों के साथ प्यार का नाटक किया था मगर उसे ऐसा तो कभी महसूस नहीं हुआ. सिर्फ यही नहीं, शरद के रुपए संजीव को देते समय उसे ग्लानि हो रही थी. वह संजीव के पूछने पर इनकार कर देती थी लेकिन सच तो यह था कि उसे शरद का साथ अच्छा लगने लगा था.

पल्लवी को आभास हुआ कि उस का मन भटक रहा है. वह शादीशुदा होते हुए भी पता नहीं क्याक्या सोचने लगी थी. उसने मन ही मन खुद को फटकारा और अपना ध्यान बंटाने के लिए घर के काम में व्यस्त हो गई.

₹1 लाख रुपए मिलने के बाद भी संजीव का पेट नहीं भरा. उस;ने जल्द ही सारे रुपए उड़ा दिए और पल्लवी को शरद से दोबारा रुपए मांगने के लिए मजबूर करने लगा. इस बार उस:के लालच के साथ रुपयों की मांग भी बड़ी थी. पल्लवी के इनकार करने पर वह उसे प्रताड़ित करने लगा.

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इधर औफिस में पल्लवी और शरद के बीच नजदीकियां बढ़ती जा रहीं थीं. संजीव का बुरा बरताव आग में घी का काम कर रहा था. संजीव के दिए जख्मों को शरद के प्रेम का मरहम भरने लगा था. पल्लवी के प्रति शरद की परवाह उसे शरद की तरफ खींचती चली जा रही थी. जब पल्लवी शरद के करीब होती तो खुद को बेहद सुरक्षित महसूस करती थी. उसे लगता था कि शरद की बांहों में ही उस का घर है. पल्लवी के लिए प्यार का नाटक धीरेधीरे सच होता चला गया. उस ने बहुत कोशिश की मगर वह खुद को शरद से प्यार करने से नहीं रोक पाई. पल्लवी ने निश्चय कर लिया था कि अब चाहे जो हो जाए, वह शरद से कभी रुपयों की मांग नहीं करेगी.

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तालमेल: भाग-1

‘‘गोपाल जीजाजी सुनिए,’’ अचानक अपने लिए जीजाजी का संबोधन सुन कर विधुर गोपाल चौंक पड़ा. उस ने मुड़ कर देखा, ऋतु एक सुदर्शन युवक के साथ खड़ी मुसकरा रही थी. चंडीगढ़ में उस के परिवार के साथ गोपाल और उस की पत्नी रचना का दिनरात का उठनाबैठना था.

‘‘अरे, साली साहिबा आप? अरे, शादी कर ली और मुझे बताया तक नहीं?’’

‘‘आप का कोई अतापता होता तो शादी में बुलाती,’’ ऋतु ने शिकायत भरे स्वर में कहा और फिर युवक की ओर मुड़ कर बोली, ‘‘राहुल, यह गोपाल जीजाजी हैं.’’

‘‘मुझे मालूम है. जब पहली बार तुम्हारे घर आया था तो अलबम में इन की कई तसवीरें देखी थीं. पापा ने बताया था कि ये भी कभी परिवार के ही सदस्य थे. दिल्ली ट्रांसफर होने के बाद भी संपर्क रहा था. फिर पत्नी के आकस्मिक निधन के बाद न जाने कहां गायब हो गए,’’ राहुल बीच ही में बोल उठा.

‘‘रचना के निधन के बाद मनु को अकेले संभालना मुश्किल था, इसलिए उसे देहरादून में एक होस्टल में डाल दिया. यहां से देहरादून नजदीक है, इसलिए अपना ट्रांसफर भी यहीं करवा लिया. अकसर आप लोगों से संपर्क करने की सोचता था, मगर व्यस्तता के चलते टाल जाता था.’’

गोपाल ने जैसे सफाई दी, ‘‘चलो, सामने रेस्तरां में बैठ कर इतमीनान से बातें करते हैं. अकेले रहता हूं, इसलिए घर तो ले जा नहीं सकता.’’

‘‘तो हमारे घर चलिए न जीजाजी,’’ राहुल ने आग्रह किया.

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‘‘तुम्हारे घर जाने और वहां खाना बनने में देर लगेगी और मुझे बहुत भूख लगी है. मैं रेस्तरां में खाना खाने जा रहा हूं, तुम भी मेरे साथ खाना खाओ. अब मुलाकात हो गई है तो घर आनाजाना तो होता ही रहेगा.’’

रेस्तरां में खाना और्डर करने के बाद गोपाल ने ऋतु से उस के परिवार का हालचाल पूछा और फिर राहुल से उस के बारे में. राहुल ने बताया कि वह एक फैक्टरी में इंजीनियर है.

‘‘नया प्लांट लगाने की जिम्मेदारी मुझ पर है, इसलिए बहुत व्यस्त रहता हूं. घर वालों से बहुत कहा था कि फिलहाल मेरे पास घरगृहस्थी के लिए बिलकुल समय नहीं होगा. अत: शादी स्थगित कर दें. मगर कोई माना ही नहीं और उस की सजा भुगतनी पड़ ही है बेचारी ऋतु को. खैर, अब आप मिल गए हैं तो मेरी चिंता दूर हो गई. अब आप इसे संभालिए और मैं अपनी नौकरी को समय देता हूं. अगर मैं यह प्रोजैक्ट समय पर यानी अगले 3 महीने में सफलतापूर्वक पूरा नहीं कर सका तो मेरी यह नौकरी ही नहीं पूरा भविष्य ही खतरे में पड़ जाएगा जीजाजी,’’ राहुल ने बताया.

‘‘दायित्व वाली नौकरी में तो ऐसे तनाव और दबाव रहते ही हैं. खैर, अब साली साहिबा की फिक्र छोड़ कर तुम अपने प्रोजैक्ट पर ध्यान दो और फिलहाल खाने का मजा लो, अच्छा लग रहा है न?’’

‘‘हां, क्या आप रोज यहीं खाना खाते हैं?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘अकसर सुबह नौकरानी नाश्ता और साथ ले जाने के लिए लंच बना देती है, शाम को यहीं कहीं खा लेता हूं.’’

‘‘अब आप इधरउधर नहीं हमारे साथ खाना खाया करेंगे जीजाजी. ऋतु बढि़या खाना बनाती है.’’

‘‘जीजाजी को मालूम है, मैं ने रचना दीदी से ही तो तरहतरह का खाना बनाना सीखा है,’’ ऋतु बोली.

‘‘तब तो तुम्हें जीजा को क्याक्या पसंद है, यह भी मालूम होगा?’’ राहुल ने पूछा, तो ऋतु ने सहमति में सिर हिला दिया.

‘‘तो फिर कल रात का डिनर जीजाजी की पसंद का बनेगा,’’ राहुल ने कहा, ‘‘मना न करिएगा जीजाजी.’’

‘‘जीजाजी को अपने घर का पता तो बताओ,’’ ऋतु बोली.

‘‘आप के पास व्हीकल है न जीजाजी?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘हां, मोटरसाइकिल है.’’

‘‘तो फिर पता क्या बताना तुम घर ही दिखा दो न. मैं यहां से सीधा फैक्टरी के लिए निकल जाता हूं. तुम जीजाजी के साथ घर जाओ, मैं एक राउंड लगा कर आता हूं. तब तक आप लोग बरसों की जमा की हुई बातें कर लेना.’’

‘‘कमाल के आदमी हो यार… कुछ देर पहले मिले अजनबी के भरोसे बीवी को छोड़ कर जा रहे हो.’’

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं जीजाजी, ऋतु के घर में आप की भी वही इज्जत है, जो ललित जीजाजी की,’’ राहुल ने उठते हुए कहा.

गोपाल अभिभूत हो गया. ललित ऋतु की बड़ी बहन लतिका का पति था. मोटरसाइकिल पर ऋतु उस से सट कर बैठी. एक अरसे के बाद नारीदेह के स्पर्श से शरीर में एक अजीब सी अनुभूति का एहसास हुआ. लेकिन अगले ही पल उस ने उस एहसास को झटक दिया कि ऐसा सोचना भी राहुल और ऋतु के परिवार के साथ विश्वासघात है. बातों में समय कब बीत गया पता ही नहीं चला. राहुल के लौटने के बाद वह चलने के लिए उठ खड़ा हुआ.

‘‘आप कल जरूर आना जीजाजी,’’ राहुल ने याद दिलाया.

‘कल नहीं, आज शाम

को कहो, 12 बज चुके हैं बरखुरदार. वैसे भी शाम को मुझे औफिस में देर हो जाएगी, इसलिए फिर कभी आऊंगा.’’

‘‘देरसवेर से अपने यहां कुछ फर्क नहीं पड़ता जीजाजी और फिर देर तक काम करने के बाद तो घर का बना खाना ही खाना चाहिए,’’ राहुल ने जोड़ा.

‘‘लेकिन हलका, दावत वाला नहीं,’’ गोपाल ने हथियार डाल दिए.

‘‘हलका यानी दालचावल बना लूंगी, मगर आप को आना जरूर है,’’ ऋतु ठुनकी.

शाम को जब गोपाल ऋतु के घर पहुंचा तो राहुल तब तक नहीं आया था.

‘‘हो सकता है 10 मिनट में आ जाएं और यह भी हो सकता है कि 10 बजे तक भी न आएं… फोन कर बता देती हूं कि आप आ गए हैं,’’ ऋतु ने मोबाइल उठाते हुए कहा.

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‘‘ठीक है, मैं खाना पैक कर देती हूं. आप ड्राइवर को आने के लिए कह दीजिए,’’ कह कर ऋतु ने मोबाइल रख दिया. बोली, ‘‘कहते हैं आने में देर हो जाएगी, ड्राइवर को खाना लाने भेज रहे हैं. आप टीवी देखिए जीजाजी, मैं अभी इन का टिफिन पैक कर के आती हूं.’’

‘‘मुझे फोन दो पूछता हूं कि यह कहां की शराफत है कि मुझे घर बुला कर खुद औफिस

में खाना खा रहा है,’’ गोपाल की बात सुन

कर ऋतु ने नंबर मिला कर मोबाइल उसे पकड़ा दिया.

‘‘आप घर पर हैं, इसलिए मैं भी समय पर घर का खाना खा लूंगा जीजाजी वरना

अकेली ऋतु के पास तो ड्राइवर को घर पर खाना लाने नहीं भेज सकता ना,’’ गोपाल की शिकायत सुन कर राहुल ने कहा, ‘‘आप के साथ ऋतु भी खा लेगी वरना भूखी ही सो जाती है.

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Serial Story: उड़ान (भाग-3)

आखिर एक दिन उस का मन इतना विरक्त हुआ कि उस ने तय कर लिया कि वह अपने केश उतरवा देगी.

घर में उत्सव जैसा माहौल था. नाई आया. आंगन में एक पीढ़े पर वह बैठी. नाई ने अपना उस्तरा तेज किया और उस के सिर पर फेरना शुरू किया. केशगुच्छ जमीन पर गिरते गए. नाई के जाने के बाद घर की बड़ीबूढि़यां आईं और बोलीं, ‘‘चलो बेटी, अब नहा लो.’’

अरुणा उठ खड़ी हुई. नहा कर उस ने एक कोरी रेशम की साड़ी पहनी जो विधवाओं का लिबास था. अब उस की दिनचर्या बिलकुल बदल गई थी. उस के हिस्से में आए जप, तप, पूजापाठ, व्रतउपवास और संयमी जीवन.

उस के गांव से कुछ स्त्रियां तीर्थयात्रा पर जा रही थीं. अरुणा भी उन के साथ हो ली.

घर लौटी तो हमेशा की तरह उस के भाई उसे बसस्टैंड पर लेने आए थे.

‘‘कहो अक्का, तुम्हारी यात्रा सुखद रही न?’’ केशव ने पूछा.

‘‘हां,’’ वह बताने लगी, ‘‘मैं ने चारों धाम के दर्शन कर लिए. मेरा जीवन सार्थक हो गया.’’

उस ने देखा राघव कुछ अनमना सा था.

‘‘क्या बात है राघव, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, अक्का.’’

नागमणि द्वार पर खड़ी उस का रास्ता देख रही थी.

‘‘भाभी, मैं तुम सब के लिए उपहार लाई हूं,’’ अरुणा बोली, ‘‘तुम्हारे और जया के लिए चंदेरी साडि़यां…’’

कहतेकहते उस की निगाह अंदर सहन में झूले पर बैठी जया पर पड़ी तो वह ठिठक गई.

‘‘अरे, यह क्या?’’ उस के मुंह से निकला.

जया का गला व माथा सूना था. सारे सुहाग के चिह्न नदारद. एक मैली सी साड़ी लपेटे वह शून्य में ताकती अनमनी सी बैठी थी.

‘‘भाभी,’’ अरुणा ने अस्फुट चीत्कार किया, ‘‘यह क्या देख रही हूं मैं? यह कब और कैसे हुआ?’’

नागमणि ने रोरो कर बताया कि जया का पति उसे मायके छोड़ने आया था. सुबह नदी में नहाने गया. हेमावती नदी में बाढ़ आई हुई थी. सुरेश तैरते हुए एक भंवर में फंस गया और तुरंत डूब गया.

‘‘ओह, इतना बड़ा हादसा हो गया और आप लोगों ने मुझे खबर तक न की.’’

‘‘यही नहीं,’’ नागमणि रो कर बोली, ‘‘पति की मृत्यु की खबर से जया को इतना गहरा सदमा लगा कि उसी शाम उसे प्रसव वेदना हुई और एक सतमासा बच्चा पैदा हुआ, वह भी मरा हुआ. इस दोहरे आघात से लड़की एकदम विक्षिप्त सी हो गई है. न किसी से बोलतीचालती है न ठीक से खातीपीती है. बस, दिनभर गुमसुम सी इस झूले पर बैठी रहती है.’’

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‘‘लेकिन आप लोगों ने इस के गहने क्यों उतरवा दिए? यह तो बड़ी ज्यादती है.’’

‘‘हम ने नहीं, इस ने खुद उतार फेंके हैं. मुझे तो डर है कि यह कहीं दुख से पागल न हो जाए.’’

‘‘ओह,’’ अरुणा ने ठंडा निश्वास छोड़ा. इस भतीजी से उसे बहुत लगाव था. पलभर में उस का सुखी संसार उजड़ गया था.

कुछ दिन बाद बैठक में भाई राघव, भाभी नागमणि, भतीजे श्रीधर और भतीजी जया के साथ अरुणा बैठी हुई थी. अचानक भाई ने प्रसंग छेड़ा.

‘‘स्वामीजी ने कहा था कि जया मांगलिक है इसलिए उस का एक वटवृक्ष से गठबंधन करा कर बाद में उस का विवाह करना चाहिए. हम ने वह भी किया. फिर भी पता नहीं क्यों यह हादसा हो गया? स्वामीजी के अनुसार तो यदि एक नवग्रह जाप करा कर ग्रहशांति के लिए एक छोटा सा यज्ञ करा दिया गया होता तो यह अनर्थ न होता.’’

‘‘उन की छोड़ो, आगे की सोचो. अब जया के बारे में क्या इरादा है?’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘उसे यों मझधार में तो छोड़ा नहीं जा सकता. तुम लोग उस की दूसरी शादी क्यों नहीं कर देते?’’

‘‘दूसरी शादी?’’

नागमणि भौचक उस का मुंह ताकने लगी. उस के होंठ कांपे और आंखों से आंसू ढुलकने लगे, ‘‘अक्का, क्या यह संभव है?’’

‘‘क्यों नहीं.’’

‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? समाज इस की अनुमति देगा?’’ राघव ने टोका.

‘‘राघव, तुम किस समाज की बात कर रहे हो? हम लोग भी तो समाज का अंग हैं और तुम तो गांव के मुखिया हो. सब के अगुआ हो. तुम्हें यह क्रांतिकारी कदम उठाना ही होगा. तुम्हें एक दृष्टांत कायम करना होगा. आखिर किसी को तो पहल करनी चाहिए तभी तो इन कुरीतियों का अंत होगा.’’

‘‘लेकिन बिरादरी वाले हमें जीने नहीं देंगे.’’

‘‘न सही, पर बेटी पहले है या बिरादरी? जरा सोचो, जया के पति की अकाल मृत्यु हुई है, पर तुम लोग जया को जीतेजी मार रहे हो. क्षति उस की हुई और सजा भी वही भुगते. यह कहां का न्याय है?’’

‘‘अक्का ठीक कह रही हैं,’’ केशव ने कहा.

‘‘लेकिन मेरा मन इस की गवाही नहीं देता. हमारे हिंदू धर्म में विधवा विवाह वर्जित है.’’

‘‘अन्य धर्मों में विधवा विवाह की छूट है. मुसलमानों और ईसाइयों में विधवा विवाह होते रहते हैं. पता नहीं, हम हिंदू ही नारी के प्रति इतने बर्बर क्यों हैं? पुरुष एक छोड़ दस शादियां कर सकता है. एक पत्नी के मरने पर दोबारा कुंआरी कन्या से विवाह कर सकता है. ये सारे कायदेकानून, सारे प्रतिबंध स्त्रियों के लिए ही हैं. क्यों न हों, ये नियम पुरुषों ने ही तो बनाए हैं. लेकिन अब सारे देश में बदलाव की लहर बह रही है.

‘‘स्त्रियों के हित में नित नए कानून बन रहे हैं. स्त्रियां अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं. वे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठा रही हैं, पर अफसोस, हमारा गांव वहीं का वहीं है. वही संकीर्ण मानसिकता, वही पिछड़ापन. कुप्रथाओं के मकड़जाल में फंसा, तंत्रमंत्र, छुआछूत, टोनाटोटका, झाड़फूंक और अंधविश्वासों से घिरा है हमारा ग्रामीण समाज. ऊपर से हमारे धर्म के ठेकेदार हमें धर्म की दुहाई दे कर तिगनी का नाच नचाते रहते हैं. मैं यह सब इसलिए कह रही हूं कि हमें जया को आजीवन रोने व कलपने के लिए नहीं छोड़ना चाहिए. उस का भविष्य संवारने के लिए कोई ठोस कदम उठाना चाहिए.’’

‘‘मैं अक्का से सहमत हूं,’’ केशव बोला, ‘‘हमें जया की दूसरी शादी कर देनी चाहिए. मेरी नजर में एक अति उत्तम लड़का है. वह सुलझे विचारों वाला है. उस की सोच नई है. मैं उस से बात करूंगा.’’

‘‘ठीक है, पर एक बात, जातपांत को ले कर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए. जया को इस माहौल से निकालो. उसे शहर भेजो. वहां के उन्मुक्त वातावरण में उसे सांस लेने दो. उस के पंख मत कतरो. उस पर अंकुश मत लगाओ. उसे उड़ान भरने दो. उसे स्वच्छंद विचरने दो. उस के  व्यक्तित्व को विकसित होने दो.’’

‘‘अक्का, तुम ने भी तो कम उम्र में अपने पति को गंवाया था. तुम ने भी तो सारी उम्र निष्ठा से वैधव्य धर्म का पालन किया.’’

‘‘राघव, उस समय मेरे सामने और कोई विकल्प नहीं था. मुझ में मातापिता के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं थी. लेकिन यह जरूरी नहीं कि जया का हश्र मेरे जैसा हो. उस में और मुझ में एक पीढ़ी का फर्क है. हमारे समय में लड़कियों को पढ़ायालिखाया नहीं जाता था. उसे पहले पिता फिर पति और फिर पुत्र का आश्रित हो कर रहना पड़ता था. विधवा होना तो उस के लिए एक बड़ा अभिशाप था.

अपनी इच्छाओं का दमन कर, रूखासूखा खा कर, मोटाझोटा पहन कर वह एक उपेक्षित की जिंदगी गुजारती थी. उसे मनहूस, कुलच्छिनी माना जाता था और उस की दशा जानवरों से भी बदतर होती थी. तुम तो जानते हो कि हमारी तमिल भाषा में ‘मुंडे’ यानी ‘विधवा’ गाली है. ‘मुंडेदे’ यानी विधवा की अवैध संतान भी एक गाली है. लेकिन अब हम विधवा के प्रति सदय हैं. हम में जागरूकता आई है. हम ने कई पुरानी कुप्रथाओं का त्याग किया है. एक समय था कि हमारे देश में सती का चलन था. बालविवाह और देवदासी की प्रथा थी. हमारे दक्षिण भारत के गांवों में नवजात बच्चियों को दूध के गागर में डुबो कर मार दिया जाता था. अब जमाना बदल रहा है. हमें जमाने के साथ चलना चाहिए. जया पढ़ीलिखी है, सबल है, सक्षम है. उसे स्वावलंबी बनने दो. उसे नया जीवनदान दो.’’

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नागमणि अरुणा के पैरों पर गिर पड़ी, ‘‘अक्का, मुझे क्षमा कर दो. मैं ने आप को बहुत जलीकटी सुनाई है. आप को बहुत दुख पहुंचाया है.’’

‘‘वह सब भूल जाओ. अब हमारे सामने जया की ज्वलंत समस्या है. इस का समाधान ढूंढ़ना है. जिंदगी जीने के लिए है, घुटघुट कर मरने के लिए नहीं.’’

वह उठ कर जया की बगल में जा बैठी. उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए उस ने कहा, ‘‘क्यों बिटिया, मैं ने ठीक कहा न?’’

जया के निस्पंद शरीर में तनिक हरकत हुई. उस ने सिर घुमा कर अरुणा को देखा और बिना कुछ बोल अपना सिर उस के कंधे पर टिका दिया.

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-3

विहाग ने एक बार फिर अपनी तरफ से क्वार्टर पाने की मुहिम तेज करते हुए पीडब्लूआई के सीनियर सिविल इंजीनियर के आगे अर्जी ले कर हाजरी दी.

बहुत व्यस्त इंसान, एक तरफ सरकार के घर कोई काम होता दूसरी ओर उन के घर में कोई नया वैभवविलास जुड़ जाता. यों करतेकरते एक मंजिल मकान अंदरूनी ठाठ के साथ तीन मंजिला विशाल बंगला तो बन ही चुका था, शहर के अंदरबाहर कई मालिकाना हस्ताक्षर थे उन के नाम. यानी बीसियों जगह उन की संपत्ति बिखरी पड़ी थी, तो स्वाभाविक ही था ऐसा इंसान उन्हें संभालने में व्यस्त रहेगा ही हरदम. खातेपीते चर्बी का प्रोडक्शन हाउस था उन का शरीर.

विहाग को इंजीनियर साहब ने बड़़े गौर से परखा. अनुभवी आंखों से कुछ क्षण स्कैन होता रहा विहाग का सर्वांग चेहरे से ले कर चप्पल तक. लड़का उन के हिसाब से जरा कम समझदार है. बोले, ‘‘तुम मेरे घर आओ, यहां बात नहीं हो सकती.’’

दूसरे दिन शाम को विहाग ने अपनी ड्यूटी का समय किसी दूसरे से बदल कर, ज्यादा दुरुस्त हो कर इंजीनियर साहब से कहे जाने वाले वाक्यों के विन्यासों पर मन ही मन नजर फरमा कर दरख्वास्त के कागजों के साथ उन के घर पहुंचा.

इंजीनियर उसे अपने आधुनिक सुसज्जित ड्राईंगरूम के गद्देदार सोफे पर बिठा कर अंदर चले गए. विहाग साभार धन्यवाद करते हुए कागजात की फाइल ले कर बैठा सामने दीवार पर टंगी घड़ी की सुई गिनने लगा. कभी सायास, कभी अनायास.

घड़ी दो घड़ी का कांटा जब घंटा भरभर का होने लगा और इंतजार नामुमकिन सा हो कर विहाग को बेबस करने लगा तब अंदर से परदा हटा कर एक गोरी सुंदर बहुत ही ज्यादा गोलमटोल मलाई में चुपड़ी सी मालपूए की काया वाली लगभग 30 वर्षीया बाला का पदार्पण हुआ. हाथ में उस के बड़ा सा ट्रे था जिस में सजे थे मनलुभावन मिठाइयां, नमकीन और शर्बत. विहाग सारे माजरे को भांप अंदर ही अंदर पसीने से तरबतर होने लगा.

क्वार्टर रिपेयर की बात कब होगी, कब रिपेयर शुरू होगा, कब वह शिफ्ट होगा और यह सब पिता द्वारा दी गई वैवाहिक वचन के रस्म के साथ कैसे तालमेल में सही बैठेगा.

इस बीच उस लड़की को फोन आया, उस ने ‘हां, हूं’ की और विहाग से लग कर बैठ गई. मनुहार के साथ उस की ओर मिठाईनमकीन की तश्तरियां एकएक कर आगे बढ़ाती रही.

इस कठपुतली नाच की डोर इंजीनियर साहब के उंगलियों में थी इस में अब विहाग कोे कोई शक नहीं था. वह सोफे के एक किनारे धंसा सा महसूस कर रहा था. जरा सी भी नानुकर से क्वार्टर का काम धरा रह जाएगा. इंजीनियर साहब न मुयायने के लिए कर्मचारी भेजेंगे, न रुपया सैंक्शन होगा, न मिस्त्री लगेंगे. फिर या तो अकेले खुद अपने हाथ से काई छीलो या फिर किराए के मकान में बीबी को ले कर बारबार उखड़ो और बसो. पौकेट पर वजन जो अलग आएगा उस का हिसाब तो कनाडा जाने वाले मांबाप को रखना नहीं है.

धर्मसंकट की घड़ी थी. बेमतलब बेवजह विहाग उस बाला से सवाल करता रहा ताकि अजीब सा लगने वाला यह वक्त कटे.

आखिर इंजीनियर साहब आए. इस हाथ ले, उस हाथ दे वाली मुखमुद्रा

बना कर सामने वाले सोफे पर धंस गए. बाला

की ओर उन्होंने देखा नहीं कि वह उठ कर खड़ी हो गई और जिधर से आई थी उधर ही विलीन

हो गई.

‘‘विहाग बाबू, इकलौती कन्या है, पढ़नेलिखने में मन नहीं था, मां इस की चल बसी थी, क्या कहें, सौतली मां से भी उसे सुख नहीं मिला, डिप्रैशन में रहती थी, ज्यादा ही खा पी गई.

लाडप्यार अब जो मैं ने दी तो घर का काम भी क्या करती, फिर मैं तो हीरे के सिंहासन में बिठा कर भेजूंगा उसे और आप जैसे हीरे के साथ रह कर बाकी तो सीख ही जाएगी. उम्र कुछ ज्यादा है, 30 की होने वाली है, लेकिन आप लोग इस जमाने के मौर्डन लड़के आप के लिए इन सब बातों का क्या मोल, तो मालिनी से आप की बात पक्की समझें?’’

‘‘सर मेरी अर्जी, वो क्वार्टर?’’ विहाग को बुक्का फाड़ कर रोने का मन हो रहा था, विहाग सा लड़का जिसे चाहिए एक आधुनिक सोच वाली धरती से जुड़ी लड़की, पढ़ीलिखी लेकिन गृहस्थी में रचीबसी बिलकुल तैयार गृहिणी. वह कल्पना के पंख से उड़े और जिंदगी को जोड़ने वाले तिनके दबा कर वापस आए, घर जोड़े, मन जोड़े, सप्रयास. यह मालपूए सी मालिनी जो हीरे के सिंहासन पर बैठ कर उस के घर (जो अब तक उखड़े प्लास्टर और काईयों का संगम ही था) आएगी और इस चर्बी के प्रोडक्शन हाउस के जरिए कठपुतली नाच नाचेगी. उस की बीबी बनेगी?

इंजीनियर ने दंभ से मुसकराते हुए कहा, ‘‘जिस घर में मेरी मालिनी जाएगी वह तुम्हारा जर्जर क्वार्टर नहीं होगा? तब तो मैं खुद उसे आलीशान घर दूंगा, जिस में तुम भी ऐश करोगे.’’

मुंह पर साफ कहने की आदत वाले विहाग की जबान ठिठक गई, गरम दिमाग विहाग को लगा कि एक चांटा रसीद दे उसे. जिस के लिए विलासिता के आगे मनुष्यता का पैमाना इतना छोटा है. लेकिन वक्त की कठिनाई उसे संयत रहने का हुनर सिखा रही थी.

‘‘सर, मैं वापस जा कर अपने पापा से बात करता हूं, उन्होंने एक जगह मेरी बात पक्की कर दी है, उन लोगों से भी बात करनी पड़ेगी. तब तक क्या मैं अपनी फाइल आप को दे जाऊं?’’

‘‘सीधी सी बात है, आप पापा से बात कर लें, और तब तक अपना कागज मेरे दफ्तर में फाइल की लाइन में लगा दें, जब इस शादी को हां हो जाए तो मुझे बता दीजिएगा, कोई कमी नहीं रहेगी, इतना कह सकता हूं.’’

सरकारी नियम कुछ भी हो, कुछ बातें विहाग के अख्तियार में तो नहीं थीं.

विहाग ने वापसी की. अब भी वह समझदार नहीं हुआ था, लेकिन समझ ही गया था. हफ्तेभर की नाइट ड्यूटी और कई दफा दिन की खलल वाली नींद के बाद वह एक मजदूर को ले कर क्वार्टर पर पहुंचा. इरादा था मजदूर के संग मिल कर क्वार्टर को घर बनाने की दिशा में कुछ कदम बढ़ाना, मसलन काइयों और झड़े प्लास्टर के साथ मकड़जाल की सफाई. यानी अपने खुद के ठिकाने की तरफ एक कदम.

बरामदे में पहुंचते ही चौंकने की बारी थी, अंदर कोलाहल सा था, दरवाजा अधखुला. बैडरूम से ठहाकों और अश्लील गालीगलौज की आवाजें आ रही थीं. जुए की बाजी बिछाए 30 के आसपास के 4 पुरुष और 2 बार गर्ल की वेशभूषा में इन चारों के साथ चिपकी बैठी शातिराना मुसकान बिखेर रही 20-22 साल की लड़कियां.

विहाग के तनबदन में आग लग गई, परेशान हो कर पूछा, ‘‘भाई लोग आप सब यहां कैसे?’’

तुरंत बात खींच ली हो जैसे, उन में से

एक आदमी ने छूटते ही कहा, ‘‘बाबू चाबी सिर्फ आप के पास ही नहीं थी, एक चाबी अभी भी सरकारी दराज में थी,’’ सभी भौंड़े तरीके से

हंसने लगे.

‘‘क्या मतलब?’’विहाग क्रोधित भी था और भौंचक भी. तुरंत एक कारिंदे ने कहा, ‘‘ए लिली, जा बाबू को मतलब समझा.’’

आगे पढ़ें- लड़कियां फुर्ती से आ कर विहाग से…

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-1

फौरीतौर पर देखा जाए तो मुझ जैसी स्टाइलिश लड़की के लिए वह बंदा इतना भी दिलचस्प नहीं था कि मैं खयालों के दीए गढूं और उन्हें अपने दिल में जलाए फिरूं. मगर जिंदगी बड़ी दिलचस्प चीज है. हम एक पल जिसे झुठलाते हैं, उसे ही दूसरे पल कबूलते हैं.

 

2 साल पहले की बात है मेरे पापा होमियोपैथी की प्रैक्टिस करते थे. अब तो उन की सेहत साथ नहीं देती, मगर एक समय था जब शहर में उन का बड़ा नाम था. रोज मरीज की लाइन लगी रहती थी. उस दिन मरीजों की कतार में एक दुबलापतला, लंबे कद वाला गेहूंए रंग का 26 वर्ष का लड़का बैठा था. हमारे 2 मंजिल के मकान के ऊपरी हिस्से में हमारा निवास था और नीचे पापा का क्लीनिक.

 

मैं उन दिनों एमबीए कर रही थी. उस दिन मुझे कालेज के लिए निकलना था. मैं ऊपर से नीचे आई. उसे मरीजों की लाइन में बैठा देखा. खैर, मैं अंदर पापा से कुछ कहने चली गई.

 

अभी मैं पापा से बात कर ही रही थी कि ये जनाब अंदर आए. पापा ने उसे कुछ ज्यादा ही इज्जत से बिठाया और मुझे रोक लिया. ‘‘देविका, ये विहाग हैं. हमारे यहां के नए स्टेशन मास्टर. पहली पोस्टिंग है. घरपरिवार से दूर हैं. अकेले हैं. तुम इन का साथ देना.’’

 

‘‘जी पापा.’’

 

‘‘तुम तो ट्रेन से कालेज जाती हो, इन से मिल कर मंथली पास बनवा लेना. मेरी इन से बात हो गई है.’’

 

‘‘जी पापा.’’

 

इस बीच उस ने अपनी बड़ीबड़ी आंखें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं. उस की आंखों में एक अजीब सी खुमारी थी और होंठों पर लरजती सी मुसकान. मेरी सारी स्मार्टनैस गायब हो गई, ‘‘जी, जी’’ करती मैं बुत सी बनी रह गई.

 

अचानक बंदे ने पापा की ओर देख कर कहा, ‘‘सर कई दिनों से मुझे सर्दी है, रात को बंद नाक के मारे सो नहीं पाता. काफी कफ जमा है सीने में. हमेशा घरघर की आवाजें आती हैं.’’

 

मेरे पापा को शायद यह उम्मीद नहीं थी कि एक 23 साल की सुंदर, आकर्षक लड़की के सामने वह सर्दी और सीने में जमे कफ की बात करेगा. उन्हें आशा थी कि अपनी बीमारी की बात करने पापा ने जैसे ही दवा लिखने के लिए पैन उठाया मैं चुपचाप वहां से निकल आई. मेरे मन की तितलियों के पंख उस की सर्दी में लिपपुत कर औंधे मुंह गिर पड़े थे.

 

हां, मगर न, न कर के भी एक बात स्वीकार करती हूं. मैं उसे जबजब सोचती, होंठों पर खुद ही मुसकान आ जाती डायरी में कुछ लिखने की कोशिश करती, लेकिन, उफ, उस का चेहरा याद आते ही सर्दी की याद आ जाती. उस की घनी मूंछों की जब भी याद आती बंद नाक भी साथ सामने आ जाता. उस के शर्ट के जरा से खुले हुए बटन के नीचे से झांकता घना रेशमी जंगल मेरे दिल को ज्यों धड़काने को होता सीने में जमा उस का कफ मेरे इरादों को तहसनहस कर देता. मैं डायरी के हर पन्ने पर तारीख लिखती, आड़ीतिरछी रेखाएं बना कर डायरी बंद कर देतीं. रेखाएं थीं बेजुबान, वरना न जाने क्याक्या कह देती मेरे बारे में.

 

 

मेरे मन में उस की चाह ऐसी थी जैसे कोई पपीहा सूने और घने वन की किसी डाली

 

की एक अकेली सी फुनगी पर बैठ राग अलाप कर उड़ जाता हो और पीछे रह जाती हो बीहड़ की निस्तब्धता.

 

दिन बीते, मैं ने उसे भुलाने की कोशिश की. वैसे उस का आना भी अब काफी कम हो गया था. शायद उस की तबीयत अब ठीक थी.

 

मेरी शादी की बात अब जोर पकड़ने वाली थी, क्योंकि मुंबई से मुझे जौब औफर था. 30 साल की मेरी दीदी जिन्हें शादी से परहेज था, मां की मृत्यु के बाद हमारी मां बनी रहती और हमारे साथ रह कर ही नौकरी करती थी, मेरे मन की टोह लेने में लगी थी.

 

आखिर न, न करते मेरे चेहरे के भाव ने बड़ी रुखाई से बिना मेरी राय की परवाह किए मेरे दिल को साझा करने की गुस्ताखी कर ही डाली. दीदी ने मेरे मन की बात पापा तक पहुंचा दी थी.

 

अब विहाग की उपस्थिति सीधे हमारे डाइनिंग में दर्ज होने लगी. पापा की यही मर्जी थी. हर बार वह आता, मुसकरा कर बात करता और खापी कर चला जाता.

 

दिन निकल रहे थे, मेरे मुंबई जाने का दिन नजदीक आ रहा था, लेकिन इस शर्मीले मगर नीरस युवक से हम दिल की बात नहीं कह पाए. अंतत: पापा को कमर कसनी पड़ी और उन्होंने सीधे ही उस से मेरी शादी की बात पूछ ली.

 

मेरे खयाल से अन्य कोई भी युवक होता तो इतनी बार हमारे साथ डाइनिंग साझा करने के बाद मना करने में ठिठक जाता, कुछ सोचता और बाद में जवाब देने की बात कह कर महीनों टालता. हम इंतजार करते और वह मुंह छिपाने की कोशिश करता. मगर यह था ही अलग. कहा न, बंदे ने दिलचस्पी जगा दी थी.

 

खाना खा कर जाते वक्त पापा ने ज्यों ही पूछा तुरंत उस ने जवाब दे दिया. वह यहां शादी नहीं कर सकता था. वह ऐसी जगह शादी नहीं करेगा जहां उस का ससुराल नजदीक हो, ससुराल वालों के अत्यधिक संपर्क में रहना पसंद नहीं था उसे.

 

मैं डायरी को अपने कमरे के सब से ऊपरी ताक पर सीलन के हवाले कर मुंबई रवाना हो गई.

 

सालभर बाद मैं घर वापस आई. कुछ वजहों ने बहाने दिए और मेरी खामोश डायरी फिर ताक से उतर कर बोल पड़ी.

 

विहाग इस मध्यम आकार के शहर में स्टेशन मास्टर था. उस के मातापिता उज्जैन में रहते थे.

 

2 बहनें थीं जिन की शादी हो गई थी. ये छोटे थे और आत्मनिर्भर भी. 26 वर्षीय विहाग जब स्टेशन मास्टर के रूप में पदस्थापित हो कर आया तो उस ने इस छोटे से स्टेशन के सामने बने छोटेछोटे लेकिन सामान्य सुविधा युक्त एक कमरे, एक हौल वाले क्वार्टरों में से एक के लिए आवेदन दिया. क्वार्टर तो नहीं मिल पाया मगर वह शादीशुदा नहीं था तो एक सहकर्मी के सा िकिराये का मकान साझा कर रहने लगा.

 

यह साल 2013 था और नए नियुक्त इन लड़कों की तनख्वाह कुल मिला कर 25 हजार के आसपास थी. स्टेशन मास्टर की ड्यूटी अगर छोटे या मध्यम आकार के स्टेशन में होती तो स्टाफ की कमी की वजह से उन्हें 12 घंटे की ड्यूटी अकसर ही करनी पड़ती है. नाइट ड्यूटी तो आए दिन की आम बात थी. स्टाफ की कमी के कारण सप्ताह की एक छुट्टी भी मुश्किल थी. बारिश का मौसम हो, हाड़ कंपाती ठंड की रात बिना नागा ड्यूटी पर हाजिर होना ही पड़ता. छुट्टी की गुंजाइश तभी थी जब इंसान बीमार पड़ कर बिस्तर पकड़ ले.

 

आगे पढ़ें- बारिश और जाड़े की रात बाइक से भीगभीग कर…

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-4

उन की तरफ के सारे लोग बेहूदगी से हंस पड़े और 2 लड़कियां फुर्ती से आ कर विहाग से लिपट गईं. तुरंत उन में से किसी ने छोटा सा कैमरा निकाल लड़कियों के साथ विहाग की तसवीरें लेने की कोशिश की. विहाग ने बिना वक्त गंवाए उस के हाथ से कैमरा झपट कर जमीन पर दे पटका. चारों तैश में आ गए. मिल कर उन्होंने विहाग को उठा लिया और बरामदे से नीचे घास की तीखी झाडि़यों में फेंक दिया. विहाग सा सख्त जान अब कमजोर पड़ने लगा था. बाकायदा आंसू आ गए थे उस की आंखों

में. उठ कर सामने अपने स्टेशन के प्लेटफौर्म के एक किनारे लगे पेड़ के नीचे बेंच पर बैठ गया. थोड़ी देर आंखें बंद किए बैठा रहा, अंदरूनी कोलाहल ने उस की विचारने की शक्ति छीन

ली थी.

अचानक आंखें खुली तो सामने मुझे बैठ उसे अपलक निहारता देख वह दंग रह गया, ‘‘सोचा भी नहीं था न. मुंबई वाली नौकरी छोड़ अब पापा के पास ही आ गई हूं. दीदी के औफिस से उसे जापान भेजा गया है, लगभग 3 साल उसे वहां रहना है. पापा अकेले न पड़ें इसलिए मैं वापस आई. 4 स्टेशन बाद एक जगह नौकरी करती हूं. अभी ही ट्रेन से उतर कर तुम्हें यों बेहाल बैठा देख…’’

विहाग मेरे सानिध्य में जाने कैसे अपनी तकलीफ और चिंताएं भूलने सा लगा. कहीं सच के संदूक में अगर वह ताकझांक कर लेता तो अपने मन को वह पहले ही जान पाता.

‘‘क्या हुआ? क्यों उदास से अमावस के चांद बने बैठे हो?’’

विहाग असमंजस में था. एक ओर सुंदर शालीन उस के सामने देविका यानी मैं और मेरा प्रफुल्लित करने वाला सरल सानिध्य, तो दूसरी ओर जिंदगी की कशमकश.

इतने दिनों बाद मुझे देख कर विहाग को अच्छा ही नहीं, बल्कि काफी सुकून सा महसूस हुआ लेकिन तब भी विहाग तो विहाग ही था.

मुझ पर सामान्य सी नजर डालते हुए वह उठ खड़ा हुआ और जाने की रुत में खड़ाखड़ा पूछा, ‘‘और कैसी हो? शादी नहीं की अब तक?’’

‘‘नहीं, अरे कहां चले?’’

‘‘चलूंगा देविका आता हूं.’’

सचमुच यह आदमी, मैं भी भुनभुनाती हुई उठ खड़ी हुई.

किराए के कमरे में वापस आ कर वह सूनी आंखों से सूने छत की ओर

ताकता बिस्तर पर पड़ा रहा बेचैन. अचानक उस ने अपनी जरूरी नंबरों की डायरी निकाली, रोज के कुछेक संपर्क नंबर ही उस के हैंडसेट में रहते थे, जिस संपर्क की उसे तलाश थी उसे उस के बाबूजी ने तब दिया था जब उन्होंने उस की क्वार्टर की समस्या से पल्ला झाड़ कर उसे‘‘ससुराल वालों से बुझ लाइयो’’ के अंदाज में टरकाया था. धकधकाती सी छाती लिए उस ने फोन मिला लिया, तैयारी यह थी कि फोन पर जो भी मिलेगा उसे उस के मंगेतर रेवती से बात करवाने की अपील करेगा.

रिंग जाती रही, किसी ने उठाया नहीं. हार कर विहाग ने अपना सोचा हुआ त्याग दिया.

दूसरे दिन जब वह स्टेशन में ड्यूटी पर था टिकट काउंटर पर मैं पहुंची. विहाग को ड्यूटी पर देख पहले तो मैं बड़ी खुश हुई, पल में ही विहाग की मेरे प्रति विरक्ति की बात सोच उदास भी हो गई.

‘‘अभी तक मंथली पास नहीं बनवाया? रोजरोज किराया भरती हो?’’ मदद की इच्छा मन में दबाए विहाग ने अपना काम निबटाते हुए कहा.

‘‘इसी महीने से आनाजाना कर रही हूं

न,’’ विहाग की मेरे प्रति रुचि देख मुझे बड़ी तसल्ली हुई.

‘‘ये फार्म ले जाओ, वापसी में मेरी ड्यूटी तो खत्म हो जाएगी, तुम मेरा घर आ कर फार्म देना चाहो तो दे सकती हो, मेरे घर वैसे तुम्हारे घर से नजदीक ही पड़ेगा. मेरा फोन नंबर ले लो.’’

ढेर सारी कोयल की कूंकें मेरे सीने की अनजानी कंदराओं में चहचहा उठीं. बड़ी सी उम्मीद भरी मुसकान लिए मैं ने कहा, ‘‘नजदीक न भी होता तब भी देने आ जाती.’’ उस ने मेरी ओर एक नजर देख, बिना किसी प्रतिक्रिया के अपना काम देखने लगा. बुझी सी मैं फिर भी उस के चेहरे पर एक रोशनी देख रही थी. शाम 6 बजे तक मैं विहाग के कमरे में थी. कुछ देर पहले ही विहाग भी औफिस से लौटा था और सांझ वाली रसोई में अपनी चाय बना रहा था. इसी बीच मैं आ पहुंची और उस के बैडरूम में रखी कुरसी पर अपना आसन जमा लिया. चाय बनाते हुए ही वह रसोई से ही बात भी करने लगा और मुझे कमरे में ही बैठने को कहा. बात मसलन ऐसी हो रही थी कि यहां 5 कमरे हैं, जिन में 2-2 लोग कमरे साझा कर के रहते हैं. विहाग के कमरे का किराया कुछ ज्यादा है मगर अकेले रहने की सहूलियत पाने के लिए इतना सा ज्यादा देना वह पसंद करता है. पर अभी भी समस्या साझा रसोई की है ही, इतने लोगों के बीच 2 ही रसोई अनगिनत समझौतों की मुश्किलें पैदा करती है.

विहाग 2 कप चाय और प्लेट में नाश्ता रख जब तक रसोई से कमरे में मेरे पास आता कमरे में रखा विहाग का फोन बजा. स्क्रीन पर नंबर था, नाम नहीं. मैं ने फोन उठा कर ‘हैलो’ कहा ही था कि फोन कट गया.

‘‘कौन था?’’

‘‘पता नहीं, फोन उठते ही तो काट दिया.’’

विहाग ने नंबर देखा, रेवती या होने वाले ससुराल से था. विहाग इस वक्त शायद वहां फोन करना नहीं चाहता था. उस ने मुझ से ही धीरेधीरे बात करना जारी रखा. ‘‘एक बड़ी समस्या है. मुझे रेलवे क्वार्टर तो मिला है लेकिन रिपेयर करवाने की बड़ी समस्या आ गई है और अब तो गुंडों का भी कब्जा हो गया है, मेरे साथ बदसुलूकी भी की उन्होंने अब.’’

‘‘ओह, क्या तुम मुझे अपना क्वार्टर नंबर बता पाओगे? मैं कुछ कोशिश कर सकती हूं.’’

‘‘अच्छा? क्वार्टर रिपेयर का बहुत सा काम पड़ा है, अब मेरी तनख्वाह इतनी भी नहीं कि

मन पसंद रिपेयर करवा सकूं. बाहर किराए पर मकान लूं तो बारबार घर बदलने की उठापटक.

इसी वजह पीडब्लूआई के इंजीनियर के पास

गया था, लेकिन उस ने पहले तो अपनी बेटी मालिनी को मेरे सिर मढ़ने की कई तिकड़मे की, और बाद में क्वार्टर में गुंडे बिठा दिए. इधर

नौकरी की परेशानियां और अब तक रहने का सही इंतजाम नहीं.’’

मैं ने जरा टोह ली तो मालिनी से ही ब्याह… ‘‘मेरे इतना भर कहने से ही वह परेशान सा इधरउधर देखता बात घुमाने की कोशिश सी

करने लगा कि अचानक जैसे उस का मेरी कही बात पर ध्यान गया हो. चौंक कर पूछा, ‘‘तुम कुछ कर पाओगी?’’

मैं समझ गई महाशय बड़े मासूम से टैक्निकल हैं, इन का रोमांस जीने की जुगत से शुरू हो कर इसी में खत्म हो जाता है. अगर मैं उस की जिंदगी में आ पाई तो तेलनून में ही फूलों की खुशबू पैदा कर दूंगी.

मन की प्रसन्नता को छिपाते हुए और विहाग की सकारात्मकता को भांपते हुए मैं ने

कहा, ‘‘यह मेरे लिए आसान है, तुम मुझ पर

छोड़ दो.’’

‘‘क्या तुम्हारी कोई जानपहचान है? गुंडों को हटाना क्या आसान होगा?’’

‘‘तुम एक बार चाबी दे दो न, कोशिश

तो करूं.’’

‘‘समझा, लेकिन यह सरकारी काम है. विभाग से ही होना चाहिए थे, लेकिन फाइल तो कतार में लगी है, सब की अपनीअपनी भूख.’’

‘‘फाइलें कतार में पड़ी रहें तो क्या हम भी ऐसे ही पड़े रहें. इतनी बंदिशों में रहोगे तो समस्या से मुक्ति कैसे मिलेगी? थोड़ा और प्रैक्टिकल सोचो विहाग, बल्कि सोचना ही काफी नहीं जब तक किसी समस्या का समाधान हमें न मिले प्रयास करते ही रहना चाहिए.’’

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मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-2

ऐसी जद्दोजहद वाली ड्यूटी में स्टेशन से निवास स्थान की दूरी भी अच्छीखासी

परेशानी बन गई थी विहाग के लिए. बारिश और जाड़े की रात बाइक से भीगभीग कर ड्यूटी जाने के कारण छोटी सी सर्दी भी दमा बन जाती थी. वापस आ कर खाना बनाओ, घर के काम भी संभालो और परिवार वाले उस के पास आने के लिए उसे अपना एक अकेले का मकान लेने को उतावला करें, सो अलग निबटो. खैर, विहाग की परेशानी किसी तरह बड़े साहब तक पहुंचाई गई और काफी लिखापढ़ी के बाद उस के नाम पर क्वार्टर आवंटित हुआ. विहाग झट से क्वार्टर देखने निकल पड़ा.

मध्यम आकार का चिरपरिचित रेलवे क्वार्टर.

क्वार्टर के सामने बगीचा बनाने लायक अच्छीखासी जमीन थी, लेकिन यह बिन फेंसिंग बाउंड्री वाल के पास उगे झाड़झंखाड़ तथा चूहों के बिल से पटी पड़ी थी.

आगे बढ़ते, आसपास झांकते हुए विहाग 4 ऊंची सीढि़यों से चढ़ते हुए बरामदे में पहुंचते ही बड़ीबड़ी म??????यह क्वार्टर सही मायनों में रहने लायक बनाने के लिए उस की भी हालत इन चूसे हुए कीड़ों सी हो जाएगी. व्यवस्था का मकड़जाल तो बल्कि उस से भी ज्यादा निर्मम है. खैर विहाग टोह लेता आगे बढ़ा और लकड़ी के खड़खड़ाते घुन लगे दरवाजे खोल अंदर गया. यह क्वार्टर करीबकरीब 2 साल से इस्तेमाल में नहीं था. विहाग से पहले इस स्टेशन में एक बुजुर्ग स्टेशन मास्टर बहाल थे, जो अपने घर से आ कर ड्यूटी बजाते. उन के रिटायरमैंट के बाद विहाग की नई पोस्टिंग थी. सो अब तक इस क्वार्टर को कोई पूछने वाला नहीं था.

कमरे में चारों ओर प्लास्टर उखड़ा पड़ा था, खिड़कीदरवाजे, टूटेफूटे नल, बदहाल

साफसफाई के सैकड़ों काम अलग मुंह चिढ़ा

रहे थे. विहाग ने उज्जैन वाले घर में खुद

अपनी पसंद का बाथरूम बनवाया था, एकएक सैटिंग आधुनिक.

उस ने बाथरूम का दरवाजा धकेला. दरकी हुई जमीन पर सूखी हुई काई का डेरा. पानी रखने का सीमेंटेड टैंक भी क्रैक. आंगन में दरारें आ चकी थीं और टैंक में भी कई क्रैक थे. घर में मुंह धोने को एक बेसिन तक नहीं. उज्जैन के अपने चुस्तदुरुस्त घर में रहने के आदी विहाग के लिए यहां रहना नामुमकिन था. उस ने ठान लिया कि शिफ्ट करने से पहले वह इस क्वार्टर को अपने मनमुताबिक ढालेगा. इसे आधुनिक सुविधासंपन्न करेगा, मगर कैसे? एक सुविधा संपन्न क्वार्टर के लिए इस समय खर्च तो 40 से 50 हजार का बैठता ही है. आए कहां से?

सरकार को अर्जी लगाने से ले कर उस के बनने में कम से कम 6 महीने तो आराम से लगेंगे तब भी इस से यह क्वार्टर नियमानुसार इतना ही सुधरेगा जैसे कि कोई नाकभौं सिकोड़ कर किसी नामुराद सी जगह में प्रवेश करता है और काम निबटा कर निकलते ही एक भरपूर सांस लेता है. यह विहाग का घर होगा या यह वह घर हो पाएगा जहां विहाग के छोटेछोटे सपने अंगड़ाइयां ले कर आएंगे?

अपनी नई सी गृहस्थी के फूलों वाले झूले पर अनुराग के मोती जड़ेंगे? सोच कर ही विहाग का मन उचट गया.

वह सपनों की दुनिया में खो नहीं जाता, हां, सपनों को हकीकत में बदलने के लिए वास्तव के धरातल पर कुछ ठोस कदम रखना जरूर जानता है.

तो वे कदम क्या हों जो उस की जायज मुरादों में जान फूंक दें? इस के पिताजी कुछ अलग किस्म के हैं, शायद एहसान जताने वाले कहना भी बहुत गलत नहीं होगा, विहाग उन की मदद किसी भी हाल में नहीं लेगा. रह गई बात उस की तो 25 हजार सैलरी में अभी उस के पास इतने तो हैं नहीं कि वह इस क्वार्टर को इस लायक बना ले कि शादी के बाद बीबी और उस के घरवालों के सामने वह सर उठा कर यह साबित कर दे कि स्टेशन मास्टर की नौकरी कोई ऐरेगैरे की नौकरी नहीं.

घूमफिर कर बात वही इंजीनियरिंग विभाग में अर्जी देने की आती है.

विहाग अगले दिन सुबह 6 से दोपहर 2 बजे की ड्यूटी पूरी कर सिविल इंजीनियरिंग सैक्शन में अर्जी ले कर पहुंचा. उम्मीद थी अपना परिचय देने पर यहां के कर्मचारी द्वारा तवज्जो से बात की जाएगी. लेकिन विहाग द्वारा अपना परिचय दिए जाने के बाद भी वे जिस तल्लीनता से फाइल में मुंह घुसाए मिले उस से विहाग को अंदाजा हो गया कि इन बाबुओं की जेबों की गुरुत्वाकर्षण शक्ति बड़ी तेज है और इस आकर्षण से जरूरत के मारे आगंतुकों की जेबों का बच पाना टेढ़ी

खीर है.

विहाग को यहां कई टेबल पर प्रवचन मिले तो कुछ टेबल पर प्रौपर चैनल से गुजर कर काम निकालने में लगने वाले समय की भयावहता का अंदाजा. इस तरह इस विभाग में 2 घंटे भटक कर भी नतीजा नहीं निकला. अब विहाग के पास नया काम था ‘‘मिशन क्वार्टर नंबर 5/2 बी’’.

चुपचाप रहने वाले लड़के की अब दिनचर्या बदल गई. ड्यूटी के बाद लोगों से वह मेलजोल बढ़ाता, संपर्क सूत्र ढूंढ़ता, जानकारी जुटाता, अपील करता और उदास होता रहता.

सर्दीजुकाम तो जबतब होता रहता है उसे, लेकिन अब उस का हमारे यहां आना नहीं के बराबर था.

घर से उसे उस के पिताजी का फोन आया था. उन्होंने एक लड़की देखी थी जो विहाग के

लिए माकूल यानी योग्य थी. विहाग को जल्द हां कहना था. हां कहने का कोई दूसरा विकल्प नहीं था, यह हां तो विवाह में वर के उपस्थित रहने की रजामंदी भर ही थी वरना विवाह तय ही था.

सरकारी नौकरी, पद नाम स्टेशन मास्टर. उस के पापा के अनुसार ग्रैजुएट लड़की से विवाह के लिए यह रुतबा सही था. बाकी विहाग जाने.

विहाग के लिए अपने पापा से बात करना जरूरी था. उस ने किया भी, ‘‘मुझे शादी करने में कोई आपत्ति नहीं, बल्कि मैं तो करना ही चाहता हूं, रोजरोज खाना बना कर ड्यूटी जाना अब दूभर हो चुका है. लेकिन ब्याह कर लाऊंगा तो रखूंगा कहां उसे? क्वार्टर मेरे खुद के पैर रखने की हालत में नहीं है.’’

‘‘मुझे यह सब मत सुनाओ, मकान किराए पर ले लो, तुम्हारे दायित्व से निबट कर हम दोनों तुम्हारी दीदी का घर संभालने कनाडा जाएंगे. रिटायरमैंट के बाद अब तक कहीं गया नहीं, सालभर वहां रुक कर छोटी के पास कैलिफोर्निया, उज्जैन का घर किराए पर चढ़ा कर आ रहे हैं, तुम्हारे लिए कुछ हिस्सा रखा रहेगा. 2 साल बाद जब लौटना होगा तब किराया खाली कराएंगे. शादी तय करने का इतना बड़ा काम हम ने कर दिया अब खुद संभालो.’’

‘‘शादी तो मैं भी कर लेता, ठौरठिकाने की सोचते तो बात ज्यादा भली न होती.’’ मन में सोच कर ही रह गया कोफ्त से भराभरा विहाग.

पिता ने सांत्वना के दो शब्द जोड़ते हुए कहा, ‘‘ज्यादा दिक्कत है तो लड़की के घर वालों से बात करो, मैं एक फोन नंबर दे दूंगा तुम्हें. हम ने बात पक्की कर ली है, इतना खयाल रखना.’’

फोन कट गया, विहाग भी समझ गया. बहस बेकार है, उस की मां भी जिंदगीभर

ऐसे दबंग पति के आगे गरदन झुकाने के सिवा कुछ कर नहीं पाई. वह भी तो उसी खेत की मूली है.

आगे पढ़ें- विहाग ने एक बार फिर अपनी तरफ से …

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-5

पहली बार विहाग को दो कदम आगे सोचने वाला मिला था. अमूमन आम भारतीय पुरुषवादी सोच इस ओर घूम जाती है कि लड़की शादी से पहले इतनी तेज है तो शादी के बाद जरूर पति को गुलाम बना कर छोड़ेगी, विपरीत इस के विहाग काफी प्रसन्न था कि यह लड़की जिम्मेदारी उठाने में निसंकोच है. यह मिशन सिर्फ क्वार्टर का ही तो नहीं था, मिशन जीवन को एक सशक्त आधार देने के लिए ठोस संबल के चुनाव का भी था.

यद्यपि विहाग का मुझ पर इस काम को पूरा कर लेने के संबंध में विश्वास कम ही था, लेकिन अभी उस के पास सिवा इस के कोई चारा भी नहीं था कि वह इस मामले में मुझे अपना प्रयास कर लेने दे.

घर जा कर मैं ने अपने कालेज के दोस्त का नंबर ढूंढ़ा, जो रेलवे पुलिस बल में अधिकारी था. अच्छी बात थी कि इसी शहर में उस की पोस्टिंग थी. मैं ने अपनी परेशानी बताई तो वह गुंडों को क्वार्टर से हटवाने में मेरी मदद करने को राजी तो हो गया लेकिन बात यह थी कि इस समय वह स्वयं कुछ व्यस्त और परेशान चल रहा था.

दरअसल उस की दूसरे राज्य में शादी तय हो गई थी, और उसे बारातियों के लिए ट्रेन में कोच बुक करना था, जिस में कुछ कानूनी बातें आड़े आ रही थी. मैं इन दोनों कामों के बीच सेतु बन गई और विहाग की मदद से उस दोस्त का काम और दोस्त की मदद से विहाग का काम करवा दिया. दोनों बेहद खुश हुए और विहाग के दिल में मेरे लिए एक अलग जगह बन गई.

सरकारी महकमे में बात पहुंचते ही सिविल विभाग से कुछ कर्मचारी मुयाएने को पहुंचे, फाइल निकाली गई और हफ्ते 10 दिन में रिपेयरिंग के लिए सैंक्शन भी आ पहुंचा. मोटे तौर पर रेलवे

की ओर से जो मरम्मत का काम हुआ उस से

कुछ हद तक घर रहने लायक बना ही, मैं भी अपने औफिस से छुट्टी ले कर और अपने पैसे की चिंता न कर घर के सौंदर्यीकरण पर जो दिल से लगी रही, इस से सरकारी क्वार्टर अब वाकई सपनों से सींचा स्वप्न महल बन गया था. बीचबीच में जब भी विहाग क्वार्टर आता मैं उस से उस की पसंद पूछना न भूलती, इस से विहाग को बड़ी तसल्ली होती.

मरम्मत के लिए साजोसामान से ले कर घर की फिटिंग और मिस्त्रियों से काम निकालने की कला तक में मैं ने जो छाप छोड़ी विहाग कायल हुए बिना नहीं रह सका.

बीती रात विहाग के पिताजी ने फोन किया था. कहा, ‘‘क्या बात है शादी से पहले तुम्हारे साथ कौन सी लड़की थी? रेवती को तुम ने फोन किया था, बाद में उस ने जब फोन किया तो किसी लड़की ने फोन उठाया?’’‘‘यह खबर इतनी बड़ी थी कि आप तक पहुंच गई.’’

‘‘तुम असली बात बताओ न. शादी से पहले किसी होने वाली पत्नी को यह अच्छा लगेगा क्या?’’

‘‘बुरा लगने से पहले उसे पता तो होना चाहिए कि बुरा लगने वाली बात थी भी या नहीं. ठीक है, जैसे उसे बिना जाने ही बुरा लगा और आप के पास मेरी स्थिति समझे बिना ही शिकायत चली गई, वैसे ही मैं भी बिना कुछ बताए इस रिश्ते में आगे न बढ़ पाने की अपनी असमर्थता जता रहा हूं, बता दीजिएगा.’’

विहाग के पापा तो चीख ही पड़े, अंदाजा ही नहीं था कि विहाग की इतनी हिम्मत हो जाएगी.

‘‘क्या बोल रहे हो, कुछ होश है.’’

विहाग को थोड़ी देर के लिए खुद पर आश्चर्य हुआ, कहीं इस हौंसले के पीछे मेरे प्यार की महीन सी अनुभूति तो नहीं थी. उसी रौ में कहा उस ने, ‘‘शादी में कोई समझौता नहीं पापा,यह आपसी समझ और पसंद की बात है, मुझे तब तो कोई लड़की नहीं मिली थी, जब उस ने फोन किया था, लेकिन अब बहुत ही हुनरमंद, जिम्मेदार, समझदार और खयाल रखने वाली लड़की मिल गई है और नि:संदेह मैं उसी से शादी करने वाला हूं.’’

‘‘इतनी हिम्मत मत दिखाओ, मैं बात कर चुका हूं.’’

‘‘आप मना कर दीजिए पापा, शादी सिर्फ आप की बात रखने के लिए नहीं करूंगा. बिना जाने ही जो शक कर ले उस के साथ आगे नहीं बढ़ूंगा. मेरे हिसाब से बीबी देविका जैसी होनी चाहिए, पति के हर काम में मददगार, जिम्मेदारी उठाने में समर्थ. शांत और सहज.’’

‘‘लड़की कहां की है?’’

‘‘इसी शहर की.’’

‘‘कहता था आसपास ससुराल पसंद नहीं.’’

‘‘जब लड़की भा गई तो ससुराल कहीं भी हो. फिर गैरजिम्मेदार लड़कियों का मायका नजदीक हो तो रिश्ते दरकने लगते हैं, देविका ऐसी नहीं है, उसे रिश्तों की समझ और परख दोनों हैं.’’

पापा ने फोन रख दिया था, यानी विहाग स्वतंत्र था.

और अंतत: मेरी संवाद कला ने वह समां बांध दिया कि विहाग के घरवालों का आशीष भी शहनाई के सुर में सरगम सा शामिल हो गया.

विवाह बाद नातेरिश्तेदारों के चले जाने से पसरी रिक्तता में चांदनी रात की स्वप्निल दूधिया रोशनी में आंगन वाले झूले पर बैठे हम दोनों एकदूसरे को अपलक देख रहे थे.

विहाग की आवाज शहद थी, कहा, ‘‘देविका.’’

चितवन की चपलता ने मेरा भी मधुकलश खोल दिया था, ‘‘हूं, कहो.’’

‘‘सर्दी लग जाएगी, बाहर ठंड बढ़ रही है और कल बिस्तर की चादर वगैरह धो लेना, नएपन की खुशबू से मुझे एलर्जी हो जाती है.’’

मुझे हंसी आ गई, मैं ने क्या उम्मीद की थी और यह विहाग. मैं ने उस का माथा

चूमते हुए कहा, ‘‘जरूर, मगर आज की रात कितनी खास है. क्या तुम मुझे और कुछ नहीं कहोगे.’’

विहाग को अपनी रूखी सी बात पर अफसोस हुआ, तृष्णा जड़ी दो स्वप्निल आंखों ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘चलोचलो, अंदर, यहां सर्दी लग जाएगी. अंदर जा कर सिर्फ कहूंगा ही नहीं…’’

ये बंदा बड़ा प्रैक्टिकल सा रोमांटिक है. थोड़ा बच्चा भी. सम्मोहित सी मैं मुसकरा कर उस के साथ चल पड़ी.

फीनिक्स: भाग-3

पिछला भाग- फीनिक्स: भाग-2

कहानी- मेहा गुप्ता

‘‘जिस समाज में और जिन लोगों के बीच उठनाबैठना है हमारा. हमें यह

स्टेटस मैंटेन करना पड़ता है. अब तुझ से क्या छिपाना है. मानसम्मान, दौलत भी एक नशा ही तो है डियर. एक बार लत लग जाए तो आसानी से छूटती नहीं है. सुनील की यह लत तो बहुत पुरानी है. इस जन्म में तो छूटेगी नहीं’’

‘‘जब से शादी हुई है यह आर्थिक उतारचढ़ाव मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है. शादी में चढ़े मेरे जेवर भी 1-1 कर के सारे बिक गए. कभी तो ऐसा होता है हम लोग बिलकुल रोड पर आ जाते हैं और कभी अरबों में खेलने लगते हैं. यह घर, गाड़ी, मेरा बुटीक सभी कुछ लोन पर है. बच्चे भी अपने पापा की भाषा में बात करते हैं. घूमनाफिरना, लेटैस्ट गैजेट्स, शौपिंग बस यही उन की जिंदगी का ध्येय बन गया है.’’

‘‘बच्चे भी? पर उन्हें सही मार्ग दिखाना तो तेरे हाथ में है न? तू बदलेगी तभी तो तुझे देख कर तेरे बच्चे तेरा अनुसरण करेंगे.’’

‘‘छोड़ न मैं बच्चों का दिल नहीं दुखाना चाहती और सुनील को भी पसंद नहीं है कि

मैं बातबात पर रोकटोक करूं,’’ उस ने बड़ी सहजता से कहा जैसे उस के लिए ये सब बहुत सामान्य है.

‘‘12 बज गए हैं. चल अब हमें सोना चाहिए. गुड नाइट,’’ कहते हुए वह सो गई पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.

दूसरे दिन सुबह जल्दी की फ्लाइट थी. मैं समय से काफी पहले ही उठ गई ताकि सलोनी को कुछ सांत्वना और आर्थिक सलाहकार के रूप में कुछ नेक सलाह दे पाऊं. पर मुझे एहसास हुआ कि उसे मेरी राय की विशेष आवश्यकता नहीं है. चलते हुए उस ने मुझे आकर्षक या यों कहूं महंगी पैकिंग में ढेरों उपहार दिए. उस की कल रात की बातों में और लेनदेन के व्यवहार में कोई सामंजस्य नहीं था. मुझे अपने द्वारा दिए उपहार इन सब के सामने बहुत तुच्छ लग रहे थे. एकदूसरे के संपर्क में रहने का वादा कर मैं मुंबई आ गई. अपने काम की व्यस्तताओं में से भी समय निकाल मैं उस से चैट कर लिया करती थी.

सोशल मीडिया भी एक लत है. एक बार लग जाए तो इंसान उस से दूर नहीं रह सकता. फेसबुक अकाउंट खोलते ही मुझे पता होता था उस में सलोनी का कोई न कोई नई और रोमांचक पोस्ट अवश्य होगी. इस बार उस ने स्विट्जरलैंड के बहुत ही खूबसूरत फोटो अपडेट किए थे पर इस बार मुझे रोमांच नहीं हैरानी हुई थी. हर बार की तरह मैं ने उस की पोस्ट पर लाइक्स या कमैंट्स नहीं किए. मेरी इच्छा हुई कि उसे फोन कर झंझोड़ कर पूछूं कि अचानक तेरे हाथ में क्या कुबेर का खजाना लग गया जो तू फिर घूमनेफिरने पर इतना उड़ाने लगी? मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था. गलत बात को मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाती हूं.

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मेरे पति का जयपुर में तबादला हो गया. पर मैं ने यह बात सलोनी से छिपा कर रखी. बच्चों का स्कूल में ऐडमिशन, घर ढूंढ़ने जैसी जरूरतों के चलते मेरा कई बार जयपुर जाना हुआ पर मैं ने उस से संपर्क नहीं किया. कुछ समय का भी अभाव था. महीनेभर बाद हम जयपुर रहने आ गए. धीरेधीरे मेरी जिंदगी फिर से पटरी पर आने लगी. मैं ने अपना तबादला भी अपने बैंक की जयपुर शाखा में करवा लिया.

एक दिन मेरे पास सलोनी का फोन आया, ‘‘तू जयपुर आ गई है और तूने मुझे

बताना भी जरूरी नहीं समझा?’’

एक बार तो मैं हक्कीबक्की रह गई कि कहीं उस ने मुझे किसी मौल या रास्ते में देख तो नहीं लिया… मैं उस से झूठ नहीं बोल सकती थी, इसलिए मैं ने धीरे से कहा, ‘‘हम लोग जयपुर ही शिफ्ट हो गए हैं,’’ मेरे स्वर में अपराधभाव था.

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‘‘क्या? तूने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा?’’

मैं कोई जवाब न दे पाई.

‘‘तू मुझे अपना पता सैंड कर. मैं घंटेभर में तेरे पास पहुंचती हूं… मिल कर बात करते हैं.’’

करीब घंटेभर बाद सलोनी घर पर थी. हम जब भी मिलते वह हर बार एक नई डिजाइनर ड्रैस में होती थी और वह भी लेटैस्ट और मैचिंग फुटवियर, पर्स और ऐक्सैसरीज के साथ.

‘‘अच्छा यह तो बता तुझे यह कैसे पता चला कि मैं जयपुर आ गई हूं?’’

‘‘पिछले हफ्ते मैं मुंबई आई थी. मेरी स्विट्जरलैंड की फ्लाइट वहीं से थी. मैं अचानक तेरे घर आ कर तुझे सरप्राइज देना चाहती थी पर वाचमैन ने बताया तुम जयपुर शिफ्ट हो गई हो. तू सच बता कि शिफ्ट हो जाने की बात मुझे क्यों नहीं बताई?’’

‘‘अरे तू भी न… जरा भी नहीं बदली है. सच कहूं सलोनी जब से हम दोनों मिले हैं मुझे कुछ सही नहीं लग रहा है,’’ मैं बोलने में थोड़ा हिचक रही थी, ‘‘तुझे नहीं लगता तूने जिंदगी को मजाक बना कर रख दिया है… जिंदगी को जिंदादिली से जीना अच्छी बात है पर इतनी जिंदादिली कि सारे आदर्श, सारी नीतियां ताक पर रख दो… तू थोड़ा दूरदर्शी बन कर देख. इस से तेरे बच्चों पर कितना खराब असर पड़ेगा. तू मां है उन की, उन्हें अच्छेबुरे का फर्क समझाना फर्ज है तेरा. अगर तू उन का पोषण ही सड़ी खाद से करेगी तो उन में स्वस्थ फलों का पल्लवन कैसे होगा?’’

‘‘तू गलत समझ रही है सलोनी. सुनील ने ऐक्सपोर्टइंपोर्ट का नया व्यवसाय शुरू किया है और वह अच्छा चल पड़ा है. क्या पैसा कमाना गुनाह है? सुनील रिस्क लेना जानता है. फिर कौन सा ऐसा बिजनैस है जो शतप्रतिशत ईमानदारी से होता है?’’

मैं उस की नादानी पर मुसकरा भर दी. मैं समझ गई थी सलोनी को कुछ भी समझाना बेकार है. वह पूरी तरह से सुनीलमय हो गई थी. पैसों की चकाचौंध ने उस की नैतिकअनैतिक के बीच के फर्क को समझने की शक्ति खत्म कर दी थी. ऐसा कौन सा बिजनैस है, जिस में आदमी रातोंरात अमीर हो जाता है?

दूसरे दिन अमन औफिस के लिए थोड़ा जल्दी निकल गए. पर घर से निकलते ही लगातार बजते हौर्न की आवाज से मैं समझ गई जनाब आज फिर कुछ भूल रहे हैं. मैं घर से बाहर निकलती उस से पहले मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी.

‘‘हैलो सोना, मेरी स्टडीटेबल पर नीले रंग की फाइल रह गई है. जल्दी दे जाओ.’’

मैं भुनभुनाते हुए फाइल लेने ही जा रही थी कि मेरी नजर फाइल पर लिखे नाम सुनील पर पड़ी. मेरे दिमाग में बिजली का झटका सा लगा.

‘‘मैं इस केस के बारे में आप से कुछ पूछना चाहती थी.’’

‘‘क्यों इस ने तुम्हारे बैंक को भी बेवकूफ बनाया है क्या?’’

‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है…’’

मेरी बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने गाड़ी बढ़ा दी. पर मेरे दिल को कहां चैन था. मैं ने तुरंत इन्हें फोन लगाया, ‘‘हैलो अमन, मैं तुम्हें बताना चाहती हूं कि सुनील मेरी सब से प्यारी सहेली सलोनी का पति है. क्या आप इन के केस के बारे में कुछ बता सकते हो? ’’

‘‘सोना मैं तुम्हें ज्यादा नहीं बता सकता. यू नो, ये सब बहुत कौन्फिडैंशियल होता है. बस इतना जान लो कि हम सीधे उस के घर रेड डालने जा रहे हैं.’’

फिर थोड़ा रुक कर अमन ने पूछा, ‘‘पर तुम क्यों इतनी चिंता कर रही हो? वह आदमी इन सब बातों का आदी है.’’

मुझे कैसे भी चैन नहीं पड़ रहा था. मुझे सलोनी के लिए बहुत बुरा लग रहा था. यदि उसे पता चल गया अमन मेरे पति हैं तो उसे कितना बुरा लगेगा. मेरी प्यारी सलोनी, उस का एक नंबर भी मुझ से कम आ जाता तो उस से ज्यादा मैं दुखी हो जाती थी. आज इतने बड़े दर्द से कैसे उबर पाएगी. मेरा पूरा दिन पहाड़ सा निकला. रात को अमन के घर आते ही मैं ने प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘अमन क्या हुआ आज वहां पर?’’

‘‘तुम्हारी सहेली के पति के नाम करोड़ों की बेनाम संपत्ति है. मेरे पहुंचते ही उस ने मुझे क्व1 करोड़ की रिश्वत औफर की. किसी भी तरह से कौपरेट करने को तैयार नहीं था. वह तो मेरे साथ पुलिस थी… हमें उस के साथ सख्ती बरतनी पड़ी. मुझे शर्म आ रही है मेरी बीवी कैसे लोगों से संबंध रखती है.’’

मुझे रोना आ रहा था. इच्छा हुई कि सलोनी को फोन कर उस का हालचाल पूछूं. उस पर क्या बीत रही होगी… उन लोगों ने कुछ खायापीया होगा या नहीं. सलोनी ने तो रोरो कर अपना बुरा हाल बना लिया होगा.

मैं ने खुद को सामान्य करने की कोशिश की. मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं. कुछ दिनों बाद मैं इस बारे में भूल गई. एक दिन ऐसे ही फुरसत के क्षणों में फेसबुक अकाउंट खोलने पर सब से ऊपर सलोनी का फोटो था. किसी पांचसितारा होटल में पार्टी की थी, साथ में कैप्शन लिखी थी. ‘नेवर ऐंडिंग फन.’

मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. सलोनी का वही खिलता चेहरा, बेफिक्र आंखें और उन में झलकते नित नए ख्वाब. उसे तो जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ा था. मैं ही पागल थी जो उस के लिए अपना खून जला रही थी.

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पहले की बात और थी. अगर किसी के यहां रेड पड़ती थी तो यह उस व्यक्ति की इज्जत पर बहुत बड़ा दाग माना जाता था. वह व्यक्ति महीनों तक किसी को मुंह नहीं दिखाता था. इंसान की गांठ में क्व100 होते थे तो वह 75 खर्च करता था पर अब तो लोग आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपया की तर्ज पर चलते हैं. आज की पीढ़ी अपने भविष्य की चिंता किए बिना सिर्फ वर्तमान में जीती है और 1-1 पल जीती है. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उस की बेवकूफियों पर उसे एक तमाचा रसीद करूं या जिंदादिली पर उस की पीठ थपथपाऊं .

मुझे आज एक ग्रीक लोककथा में पढ़े फिनिक्स पक्षी की याद आ गई जो मरने के बाद भी अपनी राख से फिर जी उठता था. सलोनी भी तो ऐसी ही है. हालात के थपेड़ों से चोट खाने के बावजूद हर बार जी उठती है. एक नई सैल्फी और स्टेटस के साथ. ‘यह नहीं सुधरेगी. लैट हर लिव लाइफ.’ सोच इस बार मुझे उस की पोस्ट देख कर गुस्सा नहीं आया. मन ही मन मुसकरा उसे किस वाली स्माइली के साथ लाइक दे दिया.

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