खुदगर्ज मां: भाग 2- क्या सही था शादी का फैसला

अचानक एक छोटे से बच्चे के रोने की आवाज मेरे कानों में पड़ी. मुझे अचरज हुआ. उठ कर नानी के पास आई. ‘नानी, किस का बच्चा रो रहा है?’ नानी कुछ नहीं बोलीं. मानो वे मुझ से कुछ छिपाना चाहती हों. कोई जवाब न पा कर मैं मां के कमरे में आई. देखा, मां एक बच्चे को गोद में ले कर दूध पिला रही थीं. मेरे चेहरे पर शिकन पड़ गई.

मां के करीब आई. ‘मां, यह किस का बच्चा है?’ मां ने भी वही किया जो नानी ने. उन्होंने निगाहें चुराने की कोशिश की मगर जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो नानी ने परदाफाश किया, ‘यह तुम्हारा छोटा भाई है. तुम्हें हमेशा शिकायत रहती थी कि तुम्हारे कोई छोटा भाई नहीं है. लो, अब अपनी ख्वाहिश पूरी कर लो,’ नानी ने बच्चे को मां से ले कर मेरे हाथों में दे दिया.

एकबारगी मैं असमंजस की स्थिति में आ गई. बच्चे को गोद में लेती हुई यह पूछने से अपनेआप को न रोक पाई कि मां, यह भाई कहां से आया? मां दुविधा में पड़ गईं. वे भरसक जवाब देने से बचती रहीं. बच्चे को भाई के रूप में पा कर कुछ क्षण के लिए मैं सबकुछ भूल गई. मगर इस का मतलब यह नहीं था कि मेरे मन में सवालों की कड़ी खत्म हो गई. रात में ठीक से नींद नहीं आई. करवटें बदलते कभी मां तो कभी बच्चे पर ध्यान चला जाता. तभी नानी और मां की खुसुरफुसुर मेरे कानों में पड़ी.

‘कैसा चल रहा है? पहले से दुबली हो गई हो,’ नानी पूछ रही थीं.

‘बच्चे के आने के बाद थोड़ी परेशान हूं. ठीक हो जाएगा.’

मां बोलीं, ‘दामादजी खुश हैं?’

‘बहुत खुश हैं. खासतौर से लड़के के आने के बाद.’

‘मैं तो डर रही थी कि 2-2 बेटियों का कलंक कहीं वहां भी तेरा पीछा न करे,’ नानी बोलीं.

‘मां, भयभीत तो मैं भी थी. शुक्र है कि मैं वहां बेटियों के कलंक से बच गई. यहां दोनों कैसी हैं?’

‘ठीक हैं. शुरुआत में थोड़ा परेशान जरूर करती थीं मगर अब नहीं. दोनों को घर के छोटेमोटे कामों में उलझाए रहती हूं ताकि भूली रहें.’

‘मां, अब दोनों की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है. मैं अब शायद ही अपनी नई गृहस्थी से उबर पाऊं. वैसे भी लड़के के आ जाने के बाद दोनों के प्रति मोह भी कम हो गया है.’

‘ऐसा नहीं कहते,’ नानी ने टोका.

‘क्यों न कहूं? बाप नालायक. इन दोनों के बोझ से मुक्त होना क्या आसान होगा?’

‘सब अपनीअपनी नियति का पाते हैं, कुछ सोच कर नानी फिर बोलीं, ‘तुम ने दामादजी से बात की थी.’

‘किस सिलसिले में?’ मां के माथे पर बल पड़ गए.

‘दोनों को अपनी बेटियां बना कर रख लेते तो भरापूरा परिवार हो जाता.’

‘पागल हो गई हो मां. जिस की बेटियां हैं उसे ही फिक्र नहीं तो भला वे क्यों जहमत उठाएं?’ नानी क्षणांश गंभीर हो गईं. वे उबरीं, ‘तुम्हें बेटियों के बारे में भी सोचना चाहिए. तुम्हारा भाई अधिक से अधिक इन को पढ़ालिखा देगा. रही बात शादीब्याह की, उस का क्या होगा?’

‘तब की तब देखी जाएगी.’

दोनों का वार्त्तालाप मेरे कानों में पड़ा. सुन कर मेरी आंखें भर आईं. एक मां के लिए बेटी इतनी बोझ हो गई कि उसे अपनी दूसरी शादी की तो फिक्र है मगर अपनी बेटियों के भविष्य की नहीं. तब मैं ने मन बना लिया था कि आइंदा कभी भी मां को फोन नहीं करूंगी. उन्हें अपने बेटे से मोह है तो मुझे अपनेआप से. मैं अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखला दूंगी कि मैं किसी पर बोझ बनने वाली नहीं. एक हफ्ते रही होंगी मां हमारे साथ. उन का रहना न रहना, हमारे लिए बराबर था. उन का ज्यादातर समय अपने नवजात शिशु के लिए ही था. हम तो जैसे उन के लिए गैर हो गए थे. बहरहाल, एक दिन एक आदमी आया. जिसे मां ने पिता कह कर हम दोनों बहनों से परिचय करवाया. मुझे वह आदमी कुछ जानापहचाना लग रहा था. वह हमारा किस रिश्ते से पिता हो गया. यह मैं ने बाद में जाना. उस के साथ मां चली गईं. एक अनसुलझे सवाल का जवाब दिए बगैर मां एक रहस्यमयी व्यक्तित्व के साथ हमारी नजरों से दूर चली गईं.

इस बार मैं ने अपने आंसुओं को बहा कर जाया नहीं किया क्योंकि कुछकुछ हालात मेरी समझ में आ चुके थे. फिर भी वे हमारी मां थीं, हमें उन की जरूरत थी. जबकि मैं अच्छी तरह समझ चुकी थी कि हमारी मां अब हमारी नहीं रहीं, बल्कि  उस बच्चे की मां बन चुकी थीं जो उन की गोद में था. वह जानापहचाना व्यक्ति निश्चय ही मां का पति था. जिस के साथ उन्होंने एक अलग दुनिया बसा ली थी और हमें छोड़ दिया लावारिसों की तरह नानी के घर में पलने के लिए. सोच कर मेरी आंखें आंसुओं से लबरेज हो गईं. छोटी तो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं ने समझाया, ‘देख, हमें मां के बगैर जीने की आदत डालनी होगी, मन को कड़ा कर ‘छोटी,’ कह कर मैं ने उसे सीने से लगा लिया.

‘दीदी, मां अब कभी नहीं आएंगी?’ छोटी के कथन पर रुलाई तो मुझे भी फूट रही थी मगर किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखा था. मां का जब तक इंतजार रहा तब तक तसल्ली रही. अब तो स्पष्ट हो गया कि वे हमारी नहीं रहीं. शायद ही कभी वे इधर का रुख करें. करेंगी भी तो 2-4 साल में एकाध बार. उन का होना न होना, बराबर था हमारे लिए. पर पता नहीं क्यों, मन मानने के लिए तैयार न था. मेरी सगी मां जिन्होंने हमें 9 महीने गर्भ में रखा, पालापोसा, अचानक इतनी निर्मोही कैसे हो सकती हैं? क्यों उन्होंने हम से विमुख हो दूसरे व्यक्ति का दामन थामा? क्या वह व्यक्ति हम से ज्यादा अहमियत रखता था मां के लिए. खून के रिश्ते क्या इतने कमजोर होते हैं कि कोई भी ऐरागैरा तोड़ दे? कोई मां कैसे अपने अबोध बच्चों को छोड़ कर दूसरी शादी कर लेती है? छोटी रोतेरोते सो गई, वहीं मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. घूमफिर कर सोच कभी मां तो कभी उस व्यक्ति पर चली जाती जिसे मैं ने कहीं देखा था.

आखिरकार मुझे याद आ ही गया. जब मां एक कौस्मैटिक की दुकान पर काम करती थीं तब मुझे वहां ले गई थीं. तब 13 साल की थी मैं. अंकल ने मुझे बड़े प्यार से मुझ से मेरी ख्वाहिशों के बारे में पूछा. मुझे पिज्जा खिलाया. आइसक्रीम दी. थोड़ी देर बाद मामा आए तब मैं उन के साथ मां को वहीं छोड़ कर घर लौट आई.

आज उम्र के 30वें पायदान पर आ कर सबकुछ ऐसे जेहन में तैरने लगा जैसे कल की बात हो. मां ने उसी व्यक्ति से शादी कर ली. मैं ने उसांस ली. जो भी हो, एक बात आज भी शूल की भांति चुभती है कि क्यों मां ने हम से ज्यादा उस व्यक्ति से शादी को अहमियत दी? क्या हमें पालपोस कर बड़ा करना उन के जीवन का मकसद नहीं हो सकता था? जब शादी कर के बच्चे ही पालने थे तो हम क्या बुरे थे? अगर इतना ही बेगानापन था हम से तो छोड़ देतीं हमें अपने पिता के पास. कामधाम नहीं करते तो क्या हुआ, कम से कम उन्हें अपने खून के रिश्ते का खयाल तो होता? हो सकता था हमें देख कर ही वे कुछ कामधाम करने लगते. अनायास पापा की याद आने लगी. 5 साल की थी, जब मां ने पापा का घर छोड़ा.

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मीठी अब लौट आओ: भाग 1- क्या किया था शर्मिला ने

कहानी- अशोक कुमार

चुनाव आयोग द्वारा मुझे मणिपुर में विधानसभा चुनाव कराने के लिए बतौर पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया था. मणिपुर में आतंकवादी गतिविधियां होने के कारण ज्यादातर अधिकारियों ने वहां पर चुनाव ड्यूटी करने से मना कर दिया था पर चूंकि मैं ने पहले कभी मणिपुर देखा नहीं था इसलिए इस स्थान को देखने की उत्सुकता के कारण चुनाव ड्यूटी करने के लिए हां कर दी थी.

चुनाव आयोग द्वारा मुझे बताया गया कि वहां पर सेना के साथ ही केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल भी तैनात है, जो ड्यूटी के समय हमेशा मेरे साथ रहेगा. यह जानने के बाद मेरे मन से डर बिलकुल ही निकल गया था और मैं चुनाव ड्यूटी करने के लिए मणिपुर चला आया था.

चुनाव के समय मेरी ड्यूटी चंदेल जिले के तेंगनौपाल इलाके में थी, जो इंफाल से लगभग 70 किलोमीटर दूर है. यहां आने के लिए सारा रास्ता पहाड़ी था और बेहद दुरूह भी था. इस इलाके में आतंकवादी गतिविधियां भी अधिक थीं, रास्ते में जगहजगह आतंकवादी लोगों को रोक लेते थे या अगवा कर लेते थे.

मैं केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की टुकड़ी के साथ पूरी सुरक्षा में नामांकन समाप्ति वाले दिन जिला मुख्यालय पहुंच गया था. जिला मुख्यालय पर जरूरी सुविधाओं का अभाव था. रास्ते टूटेफूटे थे, भवनों की मरम्मत नहीं हुई थी और बिजली बहुत कम आती थी. ऐसे में काम करना मुश्किल था पर डाक बंगले से अकेले बाहर जाना संभव ही नहीं था क्योंकि इलाके में आतंकवादी  गति- विधियां चरम पर थीं. ऐसे में 20 दिन वहां पर बिताना मुश्किल था और समय बीतता ही नहीं था.

दूसरे दिन मैं ने उस विधानसभा क्षेत्र के ए.डी.एम. से विस्तार के साथ इलाके के बारे में विचारविमर्श किया और पूरे विधानसभा क्षेत्र के सभी 36 पोलिंग स्टेशनों को देखने की इच्छा जाहिर की. ए.डी.एम. ने मुझे जरूरी नक्शों के साथ एक जनसंपर्क अधिकारी, जो उस क्षेत्र के नायब तहसीलदार थे, को मेरे साथ दौरे पर जाने के लिए अधिकृत कर दिया था. इस क्षेत्र में यह मेरा पहला दौरा था इसलिए अनजान होने के कारण बिना किसी सहयोगी के इस क्षेत्र का दौरा किया भी नहीं जा सकता था. एक सप्ताह में ही मुझे इस क्षेत्र के सभी मतदान केंद्रों को देखना था और मतदाताओं से उन की मतदान संबंधी समस्याएं पूछनी थीं.

अगले दिन मैं क्षेत्र के दौरे पर जाने के लिए तैयार बैठा था कि मुझे वहां के स्टाफ से सूचना मिली कि जो जनसंपर्क अधिकारी मेरे साथ जाने वाले थे वह अचानक अस्वस्थ होने के कारण आ नहीं पाएंगे और वर्तमान में उन के अलावा कोई दूसरा अधिकारी उपलब्ध नहीं है. ऐसी स्थिति में मुझे क्षेत्र का भ्रमण करना अत्यंत मुश्किल लग रहा था. मैं इस समस्या का हल सोच ही रहा था कि तभी चपरासी ने मुझे किसी आगंतुक का विजिटिंग कार्ड ला कर दिया.

कार्ड पर किसी महिला का नाम ‘शर्मिला’ लिखा था और उस के नीचे सामाजिक कार्यकर्ता लिखा हुआ था. चपरासी ने बताया कि यह महिला एक बेहद जरूरी काम से मुझ से मिलना चाहती है. मैं ने उस महिला को मिलने के लिए अंदर बुलाया और उसे देखा तो देखता ही रह गया. वह लगभग 35 वर्ष की एक बेहद खूबसूरत महिला थी और बेहद वाक्पटु भी थी. उस ने मुझ से कुछ औपचारिक परिचय संबंधी बातें कीं और बताया कि इस क्षेत्र में लोगों को, खासकर महिलाओं को जागरूक करने का कार्य करती है.

बातचीत का सिल- सिला आगे बढ़ाते हुए वह महिला बोली, ‘‘तो आप इलेक्शन कमीशन के प्रतिनिधि हैं और यहां पर निष्पक्ष चुनाव कराने आए हैं?’’

‘‘जी हां,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप ने यहां के कुछ इलाके तो देखे ही होंगे?’’

‘‘नहीं, आज तो जाने के लिए तैयार था पर मेरे जनसंपर्क अधिकारी अस्वस्थ होने के कारण आ नहीं पाए इसलिए समझ में नहीं आ रहा है कि इलाके का दौरा किस प्रकार किया जाए.’’

‘‘आप चाहें तो मैं आप को पूरा इलाका दिखा सकती हूं.’’

‘‘यह तो ठीक है पर क्या आप के पास इतना समय होगा?’’

‘‘हां, मेरे पास पूरा एक सप्ताह है. मैं आप को दिखाऊंगी.’’

शर्मिला का उत्तर सुन कर मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या बोलूं. अलग कमरे में जा कर वहां के ए.डी.एम. से फोन पर बात की और शर्मिला के साथ क्षेत्र का दौरा करने की अपनी इच्छा जाहिर की.

पहले तो ए.डी.एम. ने मना किया क्योंकि यह एक आतंकवादी इलाका था और किसी अधिकारी को किसी अजनबी के साथ जाने की इजाजत नहीं थी. क्योंकि पहले कई अधिकारियों का सुंदर लड़कियों द्वारा अपहरण किया जा चुका था और बाद में उन की हत्या भी कर दी गई थी. यह सब जानते हुए भी पता नहीं क्यों मैं शर्मिला के साथ जाने का मोह छोड़ नहीं पा रहा था और मैं ने ए.डी.एम. से अपने जोखिम पर उस के साथ इलाके के भ्रमण की दृढ़ इच्छा जाहिर कर दी थी.

ए.डी.एम. ने मेरी जिद को देखते हुए आखिर में केंद्रीय रिजर्व बल के साथ जाने की इजाजत दे दी थी और साथ में यह शर्त भी थी कि शर्मिला अपनी गाड़ी में आगेआगे चलेगी और मेरे साथ नहीं बैठेगी.

शर्मिला ने मुझ से कहा था कि वह सब से पहले मुझे क्षेत्र का सब से दूर वाला हिस्सा दिखाना चाहेगी, जहां मतदान केंद्र संख्या 36 है. मैं ने उसे सहमति दी और हम उस केंद्र की ओर चल दिए. यह केंद्र तहसील मुख्यालय से 36 किलोमीटर दूर था.

हम दलबल के साथ इस मतदान केंद्र की ओर चले तो रास्ते में अनेक पहाड़ आए और 3 जगहों पर फौज के चेकपोस्ट आए जहां रुक कर हमें अपनी पूरी पहचान देनी पड़ी थी. साथ ही केंद्रीय बल के सभी जवानों से पूछताछ की गई और उस के बाद ही हमें आगे जाने की अनुमति मिली. आखिर में लगभग ढाई घंटे की कठिन यात्रा के बाद हम अंतिम पोलिंग स्टेशन पहुंच पाए, जो एक प्राइमरी स्कूल में स्थित था. यह स्कूल 1949 में बना था.

इस पड़ाव पर पहुंच कर हम ने राहत की सांस ली. शर्मिला ने थोड़ी देर में गांव वालों को बुला लिया. वह मेरे और उन के बीच संवाद के लिए दुभाषिए का काम करने लगी. थोड़ी देर बाद गांव वाले चले गए और केंद्रीय रिजर्व बल के जवान व ड्राइवर खाना खाने में व्यस्त हो गए. मुझे अकेला पा कर शर्मिला ने बातें करनी शुरू की.

‘‘आप को यहां आना कैसा लगा?’’

‘‘ठीक लगा, पर थोड़ा थकान देने वाला है.’’

‘‘आप ने यहां आने वाले रास्तों को देखा?’’

‘‘हां.’’

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मीठी अब लौट आओ: भाग 2- क्या किया था शर्मिला ने

कहानी- अशोक कुमार

‘‘क्या आप ने देखा कि यहां आना कितना मुश्किल है. तमाम सड़कें टूटी हैं. पुल टूटे हैं. वर्षों से लगता है कि इन की मरम्मत नहीं हुई है.’’

‘‘यह बारिश के कारण भी तो हो सकता है. इस क्षेत्र में तो भारत में सब से अधिक बारिश होती है.’’

‘‘नहीं, यह मरम्मत न किए जाने के कारण है. उत्तराखण्ड व हिमाचल में भी तो खूब बारिश होती है पर वहां तो सड़कों और पुलों की स्थिति ऐसी नहीं है. यह स्थिति क्या क्षेत्र के लिए सरकार की उपेक्षा नहीं दिखाती है?’’

‘‘हो सकता है, पर इस बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है.’’

‘‘आप एक आम आदमी की नजर से यहां के रहने वालों की नजर से सोचिए कि यदि किसी गर्भवती महिला को या एक बीमार व्यक्ति को इन सड़कों से हो कर 3 घंटे की यात्रा कर के तहसील स्थित अस्पताल पहुंचना हो तो क्या उस महिला का या उस व्यक्ति का जीवन बच सकेगा? महिला का तो रास्ते में ही गर्भपात हो सकता है और व्यक्ति अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देगा. सोचिए कि कितनी पीड़ा, कितना दर्द यहां के लोग सहते हैं.’’

शर्मिला के इस कथन पर मैं निरुत्तर हो गया था. समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूं, क्योंकि इस सवाल का कोई उत्तर मेरे पास था ही नहीं.

अगले दिन शर्मिला ने मुझे मतदान केंद्र संख्या 26 और 27 दिखाने को कहा. यहां जाने के लिए हमें 10 किलोमीटर जीप से जाने के बाद 5 घंटे नदी में नाव से जाना था. हम 3 नावों में बैठ कर उन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर पहुंचे. रास्ते कितने परेशानी भरे होते हैं और आदमी का जीवन कितना कष्टों से भरा होता है, यह मैं ने पहली बार 5 घंटे नाव की सवारी करने पर जाना.

इन दोनों पोलिंग स्टेशनों पर शर्मिला ने सभी गांव वालों को बुला कर उन की समस्याएं उन की जबानी मुझे सुनाई थीं. उस ने बताया था कि इन गांवों तक पहुंचना कितना मुश्किल है, बीमार का इलाज होना, शिक्षा व रोजगार पाना लगभग असंभव है. सारा जीवन अंधेरे में उजाले की उम्मीद लिए काटने जैसा है. ये लोग रोज सोचते हैं कि कल नई जिंदगी मिलेगी पर आज तक सिर्फ अंधेरा ही साथ रहा है. इन गांवों में 1949 का बना हुआ प्राइमरी स्कूल है जो आजादी के लगभग 60 वर्ष बाद भी प्राइमरी ही है. यहां पर शिक्षक भी नहीं आते हैं और बच्चे कक्षा 5 से आगे पढ़ ही नहीं पाते.

तीसरे दिन शर्मिला मुझे पोलिंग स्टेशन संख्या 13, 14 की ओर ले गई. इस तरफ भी वही स्थिति थी, खराब सड़कें, टूटे पुल, टूटे स्कूल, बेरोजगार लोग और बंद पड़े चाय के कारखाने…मैं समझ नहीं पा रहा था कि शर्मिला मुझे क्या दिखाना चाह रही थी. एक ऐसा सच, जिस के बारे में दिल्ली में किसी को पता नहीं और हम लोग ‘इंडिया शाइनिंग’ कहते रहते हैं पर सच तो यह है कि आधी से ज्यादा आबादी के लिए जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. इन स्थितियों को देख कर लगता है कि हम आम आदमी के लिए संवेदनशील नहीं हैं और उसे अच्छी जिंदगी देना ही नहीं चाहते.

चौथे दिन शर्मिला मुझे पास के भारत-म्यांमार की सीमा पर स्थित 2 शहरों, मोरे और तामू में ले गई. दोनों सटे शहर हैं. मोरे भारत की सीमा में है तो तामू म्यांमार की सीमा में. इसलिए यहां आने के लिए सरकार से अनुमति की आवश्यकता नहीं थी. वहां उस ने मुझे तामू का छोटा सा बाजार दिखाया था. बाजार चीनी सामानों से पटा हुआ था और सारी वस्तुएं बहुत खूबसूरत और कम दाम में उपलब्ध थीं. शर्मिला ने बातचीत प्रारंभ की :

‘‘आप को इन सामानों को देख कर क्या लगता है?’’

‘‘लगता है कि चीन ने बहुत तरक्की कर ली है, तभी तो इतनी तरह की वस्तुएं, इतनी अच्छी और कम दाम में यहां पर उपलब्ध हैं. दिल्ली और मुंबई के बाजारों में भी चीनी सामान की भरमार है.’’

‘‘क्या आप को नहीं लगता कि चीन की सरकार ने लोगों के लिए ऐसा जीवन दिया है जिस में आदमी अपनी समस्त सृजन क्षमताओं का पूरा उपयोग कर सके?’’

‘‘हां, लगता तो है.’’

‘‘क्या हम लोग अपने लोगों को ऐसी जिंदगी नहीं दे सकते कि हमारे लोग भी अपनी क्षमताओं का उपयोग कर दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकें, विश्व की एक महाशक्ति बन सकें?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. यह तो संभव है पर लगता है कि हम लोगों में स्थितियों को बदलने की इच्छाशक्ति नहीं है.’’

‘‘वह तो है ही नहीं क्योंकि हम प्रगति की वह गति पकड़ ही नहीं पाए जो चीन ने पकड़ ली और अब आगे ही बढ़ता जा रहा है. हम से 2 साल बाद आजाद हुआ चीन आज कहां है और हम कहां हैं.’’

इसी तरह बाकी के 3 दिन भी शर्मिला के साथ अलगअलग क्षेत्रों का दौरा करते हुए बीत गए. इन 7 दिनों में मैं ने  सभी पोलिंग स्टेशनों को देखने का काम शर्मिला के साथ ही किया था और सच तो यह है कि मैं उस के मोहक व्यक्तित्व में खोया रहता था और बिना उस के कहीं जाने की कल्पना नहीं कर पाता था. वह उम्र में मुझ से लगभग 15 साल छोटी थी इसलिए उस के लिए मेरे मन में सदैव स्नेह रहता था, पर मैं उस के गुणों से बेहद प्रभावित था.

अंतिम दिन शर्मिला मुझ से विदा लेने आई. वह अकेली थी तथा उस ने मुझ से अपने पास से सभी को हटाने का अनुरोध किया था. उस की इस बात को मान कर मैं ने सभी को वहां से हटाया था. लोगों के हटने के बाद हम ने कुछ औपचारिक बातें शुरू की थीं.

‘‘शर्मिला, तो तुम आज के बाद नहीं आओगी?’’

‘‘हां, मैं जा रही हूं. मुझे म्यांमार जाना है, कुछ जरूरी काम है. वहां मेरे कुछ सहयोगी रहते हैं.’’

‘‘तुम्हारे ऐसे कौन से सहयोगी हैं जिन के लिए तुम देश के बाहर जा रही हो?’’

‘‘हम लोग वहां से लोकतंत्र की बहाली के लिए युद्ध लड़ रहे हैं. छोडि़ए, आप नहीं समझेंगे इसे. आप लोग दिल्ली में बैठ कर नहीं महसूस कर पाते कि यहां के अंधेरों में आदमी का जीवन कैसा है? किस प्रकार पुलिस निर्दोष लड़केलड़कियों को मात्र शक के आधार पर पकड़ ले जाती है और तरहतरह की यातनाएं देती है. कैसे बच्चे पढ़लिख नहीं पाते और उन्हें आजादी के इतने साल बाद भी अच्छी जिंदगी नहीं मिलती…कैसे कारखाने बंद रहते हैं और मजदूर भूखों जीवन गुजारते हैं…आप को क्याक्या बताऊं? आप को इसलिए मैं सब कुछ दिखाना चाहती थी ताकि आप महसूस कर सकें कि असली जिंदगी होती क्या है.’’

शर्मिला की बातें सुन कर मुझे अजीब सा लगने लगा था. उस के सवालों का क्या उत्तर था मेरे पास? मैं चुपचाप उस की ओर देखता रह गया था.

थोड़ी देर बाद उस से पूछा था, ‘‘शर्मिला, तो तुम दिल्ली वालों को अपना, अपने समाज का दुश्मन समझती हो?’’

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मीठी अब लौट आओ: भाग 3- क्या किया था शर्मिला ने

कहानी- अशोक कुमार

इस पर उस ने कहा था, ‘‘सर, आप का मुझ पर बहुत अधिकार है. अगर आप मेरे सिर पर सौगंध खा कर मुझे वचन दें कि मैं जो कुछ आप को बताने वाली हूं वह आप किसी और को नहीं बताएंगे तो मैं आप को सबकुछ बता सकती हूं.’’

उस के इस कथन पर मैं ने उस के सिर पर हाथ रख कर उसे आश्वासन दिया था. उस ने मेरे पैर छू कर कहा था, ‘‘आप जानना चाहते हैं कि मैं कौन हूं?’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं एक आतंकवादी हूं और मेरा काम अपने समाज के लोगों का अहित चाहने वालों को जान से मार देना है. मुझे आप को मारने के काम पर मेरे संगठन ने लगाया था.’’

शर्मिला की बात सुन कर मैं अवाक्रह गया पर पता नहीं क्यों उस से मुझे डर नहीं लगा.

मैं ने कहा, ‘‘शर्मिला, मैं भी दूसरों की तरह यहां दिल्ली के प्रतिनिधि के रूप में ही हूं और तुम लोगों की दृष्टि में मैं भी तुम्हारा दुश्मन हूं. आर्म्ड फोर्सेस, स्पेशल पावर एक्ट का सहारा ले कर तुम लोगों पर एक तरह से शासन ही करने आया हूं. यह सब जानते हुए भी और अनेक मौकों के होते हुए भी तुम ने मुझे नहीं मारा, आखिर क्यों?’’

‘‘क्योंकि आप मेरे अंशू जीजाजी हैं. जीजाजी, मैं तनुश्री दीदी की छोटी बहन हूं. आप को याद होगा, आप तनु दीदी, जो आप के साथ दिल्ली में पढ़ती थी, की शादी में शिलांग आए थे . उन की मौसी की 2 छोटी लड़कियां थीं. एक 12 साल की और दूसरी 10 साल की. आप उन्हें बहुत प्यार करते थे और उन्हें खट्टीमीठी कहते थे. आप खट्टीमीठी को भूल गए होंगे पर हम लोग आप को कभी नहीं भूले.’’

‘‘मैं आप की मीठी हूं जीजाजी. मैं अपने जीजाजी को कैसे मार सकती थी, जिन का दिया हुआ नाम आज 25 वर्ष बाद भी मेरा परिवार और मैं प्रयोग करते हैं? मैं अपने उस आदर्श जीजाजी को कैसे मार देती जिन के जैसा मैं खुद बनना चाहती थी?’’

इतना कहतेकहते मीठी की आंखों में आंसुओं की अविरल धार बहने लगी थी. वह बहुत देर बाद चुप हुई थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं मीठी से क्या बोलूं. बहुत संयत हो कर बोला था, ‘‘मीठी, मेरी बच्ची, तुम कहां जा रही हो. लौट आओ न.’’

वह संयत हो कर बोली थी, ‘‘जीजाजी, आप की तैनाती 5 वर्ष के लिए योजना आयोग में है. यदि आप इन 5 वर्षों में मेरे प्रदेश के लोगों को नई जिंदगी दे देंगे तो मैं जरूर लौट आऊंगी पर यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं नहीं जानती कि मैं क्या कर बैठूंगी.’’

इतना कह कर मीठी चली गई थी और मैं अवाक् सा उसे जाते देखता रह गया था.

दिल्ली वापस आ कर मैं ने मणिपुर के विकास की योजनाओं की समीक्षा की तो पाया कि इस प्रदेश के लिए धनराशि देने में हर स्तर पर आनाकानी की जाती है. धनराशि देने के लिए तो सब से बड़ी प्राथमिकता सांसदों के क्षेत्र विकास की योजना होती है जिस में हर सांसद को हर साल उन के क्षेत्र के विकास के लिए 2 करोड़ रुपए की धनराशि दी जाती है और इस प्रकार एक पंचवर्षीय योजना में 8,500 करोड़ रुपए सांसदों को दे दिए जाते हैं पर इस से क्षेत्र का कितना विकास होता है यह तो वहां की जनता और सांसद ही बता सकते हैं.

मैं ने प्रयास कर मणिपुर की जरूरी सुविधाओं के विकास के लिए लगभग 5 हजार करोड़ रुपए की योजनाएं शर्मिला के सहयोग से बनवाईं और उन के लिए धनराशि की मांग की तो हर स्तर से मुझे न सुनने को मिला. सोचता रहा कि यदि सांसद निधि जैसी धनराशि का एकचौथाई हिस्सा भी किसी छोटे प्रदेश में अवस्थापना सुविधाएं बनाने में व्यय कर दिया जाए तो यह प्रदेश स्वर्ग बन सकता है पर वह प्राथमिकता में नहीं है न.

अंत में मजबूर हो कर मैं ने यह योजना विश्व बैंक से सहयोग के लिए भेजी तो वहां यह योजना स्वीकार कर ली गई. इन सभी योजनाओं को पूरा कराने में शर्मिला का अथक प्रयास था. उस ने खुद सभी योजनाओं का सर्वे किया था और हर स्तर पर दिनरात लग कर उस ने यह योजनाएं बनवाई थीं. अंतत: हम सफल हुए थे और योजनाएं चालू हो गई थीं.

6 साल बाद मुझे फिर मणिपुर में भारत म्यांमार सीमा से संबंधित एक बैठक में भाग लेने के लिए इंफाल आना पड़ा. उत्सुकतावश मैं ने इस प्रदेश के कई मुख्य मार्गों पर लगभग 1 हजार कि.मी. यात्रा की और अनेक स्कूल, अस्पताल, सड़कें, कागज और चाय के कारखाने देखे.

मैं यह देख कर आश्चर्यचकित था कि सभी मुख्य सड़कें अब डबल लेन हो गई थीं, नए पुल बन गए थे, स्कूल भवन नए थे, जहां शिक्षा दी जा रही थी, नए अस्पताल, नए बिजलीघर बन गए थे और चालू थे तथा पहले के बंद कारखाने चल रहे थे. जगहजगह सड़क पर वाहनों की गति जीवन की गति की तरह तेज हो गई थी और प्रदेश से आतंकवाद खत्म हो गया था. छात्रछात्राएं पढ़ाई में व्यस्त थे. नए इंजीनियरिंग कालिज, मेडिकल कालिज, महिला पालिटेक्निक और कंप्यूटर केंद्र खुल गए थे और चल रहे थे. मुझे वहां की हर अवस्थापना में शर्मिला की छाया दिखाई पड़ रही थी. मेरे इंफाल प्रवास के दौरान वह मुझ से मिलने आई थी और बोली थी.

‘जीजाजी, हम जीत गए न.’

मैं ने कहा था, ‘हां बेटी, हम जीत गए पर अभी रास्ता लंबा है. बहुत कुछ पाना है.’

वह बोली थी, ‘जीजाजी, आप ने मुझ से कहा था कि मैं लौट आऊं और मैं लौट आई न जीजाजी… आप ने जो रास्ता दिखाया, एक आज्ञाकारी बेटी की तरह उसी रास्ते पर चल रही हूं.’

मैं ने कहा था, ‘बेटी, मैं यह तो नहीं कहूंगा कि जिस रास्ते पर तुम चल रही थीं वह रास्ता गलत था पर इतना अवश्य कहूंगा कि समस्याओं के समाधान के अलगअलग रास्ते होते हैं पर हिंसा से समाधान ढूंढ़ने के रास्ते कभी सफल नहीं होते. मेरा कहा याद रखोगी न?’

‘आप मेरे पिता हैं न जीजाजी और क्या कोई बेटी पिता का अनादर कर या उस की बात टाल कर कभी खुश रह सकती है?’

इतना कह कर वह हंसती ही गई. मुझे ऐसा लगा जैसे कि उस की हंसी ब्रह्मपुत्र नदी की तरह विशाल और अपरिमेय है, जो सभी को जीवन और खुशियां बांटती है. मीठी जैसी बेटियां समाज को नया जीवन देती हैं.

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पीछा करता डर: भाग 2- नंदन का कौनसा राज था

लेखक- संजीव कपूर लब्बी

नंदन माथुर जड़वत् बैठे थे. चेहरे पर तनाव. आंखों में विचित्र सा भय. भानु खड़े हो कर उन का कंधा थपथपाते हुए बोला, ‘‘दोस्त, कोई गलत इरादा नहीं है मेरा. जिंदगी जीने का सबका अलगअलग ढंग होता है. यकीन करो, तुम्हारा ये राज इस कमरे से बाहर नहीं जाएगा. चलो उठो, बुला लो उसे.’’

मन मार कर नंदन माथुर उठे और बाथरूम की ओर बढ़ गए. भानु दोनों हाथ पीछे बांधे वहीं खड़ा रहा. नंदन ने बाथरूम का दरवाजा नौक करते हुए धीरे से आवाज दी, ‘‘बाहर आ जाओ.’’

पहले बाथरूम की कुंडी खुलने की आवाज आई, फिर दरवाजा खोल कर एक युवती ने बाहर झांका. नंदन बाथरूम के बाहर ही खड़े थे. वह उसे देखते ही बोले, ‘‘डरो मत, एक दोस्त है. अचानक चला आया.’’

25-25 साल की वह गौरांगी गुलाबी नाइटी में बड़ी खूबसूरत लग रही थी. ठंड के मारे उस का बुरा हाल था. उस के भीगे बालों से अभी तक पानी टपक रहा था, जिस से नाइटी का ऊपरी भाग भीग गया था.

बाथरूम से बाहर निकल कर उस युवती ने पहले एक नजर पास खड़े नंदन पर डाली, फिर भानु की ओर देखा. ठीक उसी समय भानु के पीछे सिमटे हाथ तेजी से आगे आए और क्लिक की आवाज के साथ युवती और नंदन के चेहरे फ्लैश की रोशनी में चमक उठे.

पलभर के लिए नंदन और युवती दोनों ही स्तब्ध रह गए. भानु की चालाकी भांप कर नंदन ने जैसेतैसे अपने आप को संभाला और भानु को देख कर आंखें तरेरते हुए पूछा, ‘‘यह क्या बद्तमीजी है?’’

‘‘इस में बद्तमीजी की क्या बात है?’’ भानु मोबाइल संभाले कुर्सी पर बैठते हुए बोला, ‘‘तुम दोनों इस पोज में प्रेमीप्रेमिका लग रहे थे. मुझे नेचुरल पोज लगा, सो खींच लिया. ऐसे पोज रोजरोज थोड़े ही बनते हैं.’

नंदन और वह युवती अभी तक सहमे खड़े थे, तभी भानु ने उन की ओर देख कर मोबाइल वाला हाथ ऊपर उठाते हुए कहा, ‘‘वंस मोर’’

नंदन और युवती ने अपनेअपने हाथ उठा कर मुंह छिपाने की कोशिश की, लेकिन तब तक भानु कैमरे का शटर दबा चुका था.

भानु मोबाइल जेब में डालते हुए बोला, ‘‘नंदन, तुम तो ऐसे डर रहे हो, जैसे मैं कोई ब्लैकमेलर हूं. डरो मत दोस्त, मेरा कोई भी गलत इरादा नहीं है.’’

‘‘इरादा तो मैं तुम्हारा समझ गया हूं.’’ नंदन ने गुस्से में कहा. भानु संभल कर बैठते हुए बोला, ‘‘समझ गए हो तो और भी अच्छा है. मुझे अपनी बात कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

नंदन तो डरे हुए थे ही, युवती उन से भी ज्यादा डर गई थी. उस ने मुंह फेर कर तौलिया उठाया और ड्रेसिंग टेबल की ओर बढ गई. नंदन भानु के पास आ खड़े हुए और उस से पूछा, ‘‘तुम चाहते क्या हो, भानु?’’

‘‘सिर्फ दो पैग ह्विस्की,’’ भानु लड़की की ओर इशारा कर के बोला, ‘‘तुम्हारे और उस के साथ. क्या नाम है उस का?’’

‘‘भाड़ में गया नाम. मुझे यह बताओ, मैं ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा है क्या?’’

‘‘मैं भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ूंगा. मेरे खयाल से 2 पैग ह्विस्की पिलाने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगडेगा.’’

‘‘बात ह्विस्की की नहीं है. तुम चाहो तो पूरी बोतल ले जाओ.’’

‘‘तो क्या बात है? तुम्हारे चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही है?’’

‘‘ये फोटो… क्या है ये सब?’’

‘‘मुझे पोज अच्छा लगा, खींच लिया. तुम्हें अच्छा नहीं लगा, बनवा कर तुम्हें दे दूंगा. इस में डरने की क्या बात है?’’

‘‘फोन से डिलीट कर दो, प्लीज.’’

‘‘मुझ से फोटो डिलीट करने को कह रहे हो और खुद 2 पैग ह्विस्की नहीं पिला सकते.’’

‘‘2 क्या 4 पैग पिलाऊंगा. पहले फोटो डिलीट कर दो.’’

‘‘ठीक है, डिलीट कर दूंगा, लेकिन 2 पैग पीने के बाद. रूम सर्विस को फोन कर के गिलास, सोडा और रोस्ट चिकन का आर्डर दो.’’

मजबूरी थी, नंदन ने रूम सर्विस को फोन कर के भानु के मनमुताबिक आर्डर दे दिया.

कमरा वातानुकूलित था. अंदर ज्यादा ठंड नहीं थी. बाथरूम के बाहर आ कर युवती को काफी राहत मिली थी.

जब तक वेटर सामान ले कर आया, तब तक नंदन और भानु के बीच कोई बात नहीं हुई. इस बीच भानु बैठा हुआ फिल्मी गीत गुनगुनाता रहा. ‘आज की रात… वेटर सामान दे गया, तो भानु ने पहले अपना पैग बनाया, फिर मेज के नीचे से दोनों गिलास निकाल कर उन में ह्विस्की डाली. उसे तीसरे गिलास में ह्विस्की डालते देख नंदन ने पूछा, ‘‘तीसरा पैग क्यों बना रहे हो?’’

‘‘उस के लिए.’’ भानु ने लड़की की ओर इशारा कर के कहा.

‘‘वो नहीं पिएगी.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता? यह तो उस की इच्छा पर निर्भर है. सामने आ कर बैठेगी तो खुद ब खुद इच्छा हो जाएगी.’’

‘‘मैं ने कहा न, नहीं पिएगी.’’ नंदन तीखी आवाज में बोले, तो भानु ने उन की आंखों में झांकते हुए व्यंग्य से कहा, ‘‘वो तुम्हारी बीवी है, जो तुम्हारे इशारों पर नाचेगी.’’

नंदन का मन कर रहा था अपने बाल नोच लेने का. उन का वश चलता तो वह एक पल में भानु को कमरे के बाहर कर देते. लेकिन मजबूरी थी. अत: गिड़गिड़ा कर दयनीय स्वर में बोले, ‘‘भानु प्लीज, तुम दो पैग पियो और जाओ.’’

‘‘जाने को तो मैं बिना पिए भी चला जाऊंगा. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘सो नहीं पाओगे रातभर. जिस मकसद से आए हो, वह भी अधूरा रह जाएगा.’’

‘‘तो तुम ही बताओ, मैं क्या करूं?’’

‘‘कुछ नहीं, उसे बुला लो और प्यार से 2 पैग पिला दो. यकीन मानो, उस के बाद कतई डिस्टर्ब नहीं करूंगा.’’

नंदन सिर पकड़ कर बैठ गए. सोचने लगे, क्या करें?

भानु बोला, ‘‘क्या नाम है मोहतरमा का? मैं खुद ही बुला लेता हूं.’’

‘‘जी का जंजाल.’’ नंदन ने माथा पीटते हुए चिढ़ कर कहा, तो भानु खड़े होते हुए हंस कर बोला, ‘‘नाम अच्छा है. एकदम मौर्डन. चलो, इसी नाम से बुला लेते हैं.’’

युवती ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी बाल सुखा रही थी. भानु कुछ देर तक स्लीवलैस नाइटी से बाहर झांकती उस की गोरीगोरी बाहों को देखता रहा, फिर उस की नंगी बाहों को पकड़ कर उसे उठाने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘उठो जी के जंजाल. दो पैग ह्विस्की हमारे साथ भी पी लो.’’

युवती ने खड़े हो कर तीखी नजरों से भानु की ओर देखा, फिर बांह छुड़ाने की कोशिश करते हुए बोली, ‘‘ये क्या बद्तमीजी है?’’

‘‘बद्तमीजी तब होती है डियर जान के जंजाल, जब सड़क चलती किसी अनजान लड़की का हाथ इस तरह पकड़ा जाए. होटल के बंद कमरे में किसी गैर मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ा रही औरत का उसी कमरे में हाथ पकड़ लेना बद्तमीजी नहीं है. वैसे भी मैं ने हाथ ही तो पकड़ा है, और कुछ नहीं.’’

क्षणमात्र में युवती का ठंडा बदन गरम हो गया. चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. आंखों में बेबसी के भाव साफ झलक रहे थे. पलभर रूक कर भानु उस के कान के पास मुंह ले जा कर धीरे से बोला, ‘‘तुम्हारे बारे में बहुत ज्यादा तो नहीं, पर थोड़ा बहुत जानता हूं. कुंवारी नहीं, शादीशुदा हो तुम.

‘‘बात पति और ससुराल तक पहुंच गई, तो घर की रहोगी, न घाट की. चल कर चुपचाप ह्विस्की पियो. उतने ही प्यार से जितने प्यार से नंदन के साथ पी रही थीं.’’

युवती का चेहरा पीला पड़ गया. वह बिना कुछ बोले मेज की ओर बढ़ गई. भानु की इस हरकत को देख कर नंदन खून का घूंट पी कर रह गए. भानु युवती को नंदन के पास वाली कुर्सी पर बैठाते हुए बोला, ‘‘देखो, बुरा आदमी नहीं हूं मैं. तुम लोगों का बुरा कतई नहीं चाहूंगा. जानता हूं. कपड़ों के नीचे सब नंगे होते हैं. जैसे तुम. वैसा मैं. अकेला था, सो चला आया. चलो उठाओ अपनेअपने पैग. मैं 2 पैग पी कर चला जाऊंगा.’’

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एलोपेसिया ग्रसित महिला का मजाक पड़ा महंगा

हॉलीवुड के सुपर स्टार विल स्मिथ की इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी चर्चा हो रही है. इसकी वजह विल स्मिथ है, जिन्होंने OSCAR AWARD FUNCTION 2022 के दौरान कॉमेडियन और होस्ट क्रिस रॉक को जोरदार थप्पर मार देना, क्योंकि उन्होंने उनकी पत्नी जाडा पिंकेट स्मिथ, जो एलोपेसियाएरिएटा की शिकार है, उन्हें लेकर कुछ अभद्र मजाक किया, जिसे सुनते ही विल स्मिथ को गुस्सा आया और उन्होंने स्टेज पर क्रिस रॉक को थप्पड़ जड़ दिया. अपनी पत्नी के लिए इस तरह की एक्सेप्टेंस शायद विश्व में उन पुरुषों के लिए सीख है, जो एलोपेसिया के शिकार अपनी पत्नी या गर्लफ्रेंड को नहीं अपनाते, उन्हें आसानी से तलाक दे देते है या फिर उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते. हमारे देश में एलोपेसिया के शिकार महिला या लड़की को चुड़ैल, डायन, अपशगुनी, आदि न जाने कितने शब्दों के प्रयोग किया जाता है, जिससे व्यक्ति मानसिक रूप से पीड़ित होकर आत्महत्या तक कर लेते है.

महसूस करती हूं गर्व

इस बारें में एलोपेसिया के शिकार केतकी जानी कहती है कि मैं विल स्मिथ की पत्नी के प्रति उनके पति की इस एक्सेप्टेंस को देखकर बहुत खुश हूं और ऑस्कर अवार्ड में एलोपेसिया या गंजेपन को लेकर मजाक करने की जो गलती क्रिस क्रॉस ने किया है, उसका उन्हें सही जवाब मिल गया है और इसकी गूंज पूरे विश्व में रहनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति एलोपेसिया के शिकार को पब्लिक प्लेटफार्म पर भला-बुरा कहने की जुर्रत न करें. मुझे जब से एलोपेसिया हुआ है, मेरे पति मुझसे दूर रहने लगे है.मैंने कई बार आत्महत्या की कोशिश की थी, पर मेरे बच्चों की वजह से मैंने ऐसा नहीं किया, गर्व के साथ आगे आई और कई ब्यूटी अवार्ड जीती. मेरी दशा ऐसी हुई थी कि लोग मुझे किसी शादी ब्याह में जाने नहीं देते थे, मेरा चेहरा अगर सुबह उठकर कोई देख लें तो उसका पूरा दिन ख़राब हो जायेगा, इसलिए मुझे ऑफिस टाइम में घर पर रहना या फिर सुबह जल्दी उठकर ऑफिस जाना पड़ता था. कुछ लोगों ने मुझे इतना तक कहा है कि तुम कितनी बदनसीब हो, पति के होते हुए भी बाल चले गए. अभी मैं अपने बच्चों के साथ रहती हूं. पति ने पहले मुझे विग पहनने की सलाह दी थी, पर मुझे वह ठीक नहीं लगा, क्योंकि उससे गर्मी अधिक लगती है और मैं बिना हेयर के अपनी जिंदगी से खुश हूं. शुरुआत में खुद को आईने में देखना बहुत मुश्किल था, क्योंकि मेरे बाल पहले लम्बे थे, लेकिन अब पूरी तरह से झड चुके है.

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तिरस्कृत हुई परिवार,समाज और धर्म द्वारा

वह आगे कहती है कि हमारे देश में किसी महिला के सिर पर केश न होने से पूरे घर- परिवार के लिए शर्म की बात होती है, सब उसका मजाक और तिरस्कार करते है. स्त्री की बल्डनेस डिवोर्स का कारण,उससे सेक्स न करना आदि पूरी उम्र तिरस्कार और लांछन का सामना करना पड़ता है. हमारे समाज में लोग सोचते है कि इस रोग से पीड़ित को शर्म से डूब मरना चाहिए या फिर घर के किसी कोने में चुपचाप विग, स्कार्फ और कैप लगाकर जिन्दा रहना चाहिए, जो बहुत गलत है. इसलिए मैं पूरे एलोपेसियाग्रुप के रोगी को सपोर्ट देती हूं, क्योंकि ऐसे बहुत बच्चे और महिलाएं है, जिन्हें हमेशा तिरस्कृत होना पड़ता है. मेरे ग्रुप में करोब सौ एलोपेसिया के मरीज है. स्कूल में पढने वाले एक 13 साल के बच्चे को टीचर अलग बैठाती है, वह बच्चा हमेशा सहमा-सहमा रहता है, उससे कोई बात और खेलता तक नहीं है. कई बार वह घर पर आकर रोता है, मैं उसे काउंसलिंग करती हूं.

क्या है एलोपेसिया

इस बारें में मुंबई की डर्मेटोलोजिस्ट डॉ. अप्रतिम गोयल कहती है कि एलोपेसिया के मरीज के साथ हमेशा ऐसा होता आया है, समाज और परिवार उन्हें एक्सेप्ट नहीं करना चाहते है. असल में ये एक ऑटोइम्यून डिसीज है, जो कभी भी किसी को हो सकता है,जिसमें शरीर का इम्यून सिस्टम और सफेद रक्त कोशिकाएं (WBC) जिनका काम बीमारियों से लड़ना है, वे हेयर फॉलिक्स (Hair Follicles) पर ही हमला करने लगते है, जिसकी वजह से बाल तेजी से गिरने लगते है. कई मरीजों में सिर के कुछ हिस्सों से भी धब्बों की तरह बाल गायब होने लगते है. मेरे हिसाब से विल्स स्मिथ की पत्नी को ओफियासिस एलोपेसिया हुआ है, जिसका इलाज संभव नहीं होता.

इसके होने की वजह कुछ खास पता नहीं चला है, लेकिन ये छूने से नहीं फैलता. ये महिलाओं से अधिक पुरुषों को होता है. एलोपेसिया को समझना आसान नहीं होता, क्योंकि इनके कुछ खास लक्षण नहीं होते, क्योंकि अधिकतर लोगों को स्ट्रेस या किसी बीमारी की वजह से बाल झड़ते है और वे इसे नार्मल समझते है, इससे इसे रोकना नामुमकिन होता है, क्योंकि ये बहुत जल्दी सक्रीय होता है और ये जेनेटिक भी हो सकता है.ये बीमारी अधिकतर थाइरोयड, अस्थमा,मायस्थीनिया ग्रेविस आदि को होने की संभावना अधिक होती है. 50 प्रतिशत केसेज में ये परिवार को होती है. एक हफ्ते में ही ये पैच आने लगते है, इससे मनोवैज्ञानिक तौर पर उस व्यक्ति को प्रभावित करती है. इसका इलाज आसान नहीं, लेकिन 30 प्रतिशत केसेज में बाल फिर से बिना इलाज के आ जाते है, लेकिन ये अनप्रेडिक्टेबल है.

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एलोपेसिया कई प्रकार के होते है ,जो निम्न है,

  • एलोपेशिया एरीएटा में सिर के सारे बाल गुच्छों में पैचेस बनाते हुए झड़ते है,जो एक पैच भी हो सकते है या फिर छोटे-छोटे पैचेस मिलकर पूरा गंजा भी कर सकते है.
  • एलोपेसिया एरिएटा से कई बार अलोपेसिया टोटालिस भी हो सकता है.
  • एलोपेसिया यूनिवर्सलिस में सिर के ही नहीं, बल्कि पूरे शरीर से बाल झड़ जाते है.

इलाज

इसका कोई सही इलाज न होने की वजह से स्टेरॉयड या कैंसर की दवाई देनी पड़ती है, जिसके साइड इफ़ेक्ट बहुत अधिक और इफ़ेक्ट कम होते है.

छोटी जात की लड़की: क्यों हिचक रही थी उषा

‘पजामा पार्टी के नाम पर घर को होस्टल बना कर रख दिया इन लड़कियों ने. रिया भी पता नहीं कब समझदार बनेगी. जब देखो तब ले आती है इन लड़कियों को. जरा भी नहीं सोचती कि मेरा सारा शेड्यूल गड़बड़ा जाता है. अपने कमरे को कूड़ाघर बना दिया. खुद तो सब चली गईं मूवी देखने और मां यहां इन के फैलाए कचरे को साफ करती रहे.’ बेटी रिया के बेतरतीब कमरे को देखते ही उषा की त्योरियां चढ़ आईं. एक बारगी तो मन किया कि कमरे को जैसा है वैसा ही छोड़ दें, रिया से ही साफ करवाएं. तभी उसे एहसास होगा कि सफाई करना कितना मुश्किल काम है. मगर फिर बेटी पर स्वाभाविक ममता उमड़ आई, ‘पता नहीं और कितने दिन की मेहमान है. क्या पता कब ससुराल चली जाए. फिर वहां यह मौजमस्ती करने को मिले न मिले. काम तो जिंदगीभर करने ही हैं.’ यह सोचते हुए उषा ने दुपट्टा उतार कर कमरे के दरवाजे पर टांग दिया और फैले कमरे को व्यवस्थित करने में जुट गई.

2 दिन पहले ही रिया के फाइनल एग्जाम खत्म हुए हैं. कल रात से ही बेला, मान्यता और शालू ने रिया के कमरे में डेरा डाल रखा है. रातभर पता नहीं क्या करती रहीं ये लड़कियां कि सुबह 10 बजे तक बेसुध सो रही थीं. अब उठते ही तैयार हो कर सलमान खान की नई लगी मूवी देखने चल दीं. खानापीना सब बाहर ही होगा. पता नहीं क्या सैलिब्रेट करने में लगी हैं.

अरे, एग्जाम ही तो खत्म हुए हैं, कोई लौटरी तो नहीं लगी. उषा बड़बड़ाती हुई एकएक सामान को सही तरीके से सैट कर के रखती जा रही थी कि अचानक शालू के बैग में से एक फोल्ड किया हुआ कागज का टुकड़ा नीचे गिरा. उषा उसे वापस शालू के बैग में रखने ही जा रही थी कि जिज्ञासावश खोल कर देख लिया. कागज के खुलते ही जैसे उसे बिच्छू ने काट लिया. उस फोल्ड किए हुए कागज के टुकड़े में इस्तेमाल किया हुआ कंडोम था. देख कर उषा के तो होश ही उड़ गए. उस में अब वहां खड़े रहने का भी साहस नहीं बचा था.

‘क्या हो गया आज की पीढ़ी को. शादी से पहले ही यह सब. इन के लिए संस्कारों का कोई मोल ही नहीं. कहीं मेरी रिया भी इस रास्ते पर तो नहीं चल रही. नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मुझे अपनी बेटी पर पूरा भरोसा है. वह शालू की तरह चरित्रहीन नहीं हो सकती.’ हक्कीबक्की सी उषा किसी तरह अपनेआप को घसीट कर अपने कमरे तक लाई और धम्म से बिस्तर पर ढेर हो गई.

शाम को चारों लड़कियां चहकती हुई घर में घुसीं तो उन की हंसी से घर एक बार फिर गुलजार हो उठा. मगर थोड़ी ही देर में चुप्पी सी छा गई. उषा ने सोचा शायद लड़कियां चली गईं. उस ने अपनेआप पर काबू रखते हुए रिया को आवाज लगाई.

‘‘गईं क्या सब?’’ उषा ने पूछा.

‘‘बाकी दोनों तो चली गईं, शालू अभी यहीं है. वह आज रात और यहां रुकेगी,’’ रिया ने मां के पास बैठते हुए कहा.

‘‘रिया, तू शालू का साथ छोड़ दे, वह लड़की चरित्रहीन है. मैं नहीं चाहती कि उस के साथ रहने से लोग तेरे बारे में भी गलत धारणा बनाएं,’’ उषा ने रिया को समझाते हुए कहा.

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‘‘यह आप कैसी बातें कर रही हो मां. आप उसे जानती ही कितना हो? और बिना किसी पुख्ता सुबूत के यों किसी पर आरोप लगाना आप को शोभा नहीं देता.’’

मां के मुंह से अचानक यह बातें सुन कर रिया कुछ समझी नहीं. मगर अपनी जिगरी दोस्त पर यह बेहूदा इलजाम सुन कर उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘यह रहा सुबूत. आज तुम्हारे रूम की सफाई करते समय मुझे शालू के बैग से मिला था,’’ कहते हुए उषा ने वह कागज का टुकड़ा रिया के सामने खोल कर रख दिया. एकबारगी तो रिया से कुछ भी बोलते नहीं बना, बस, इतना भर कहा, ‘‘मां, किसी के व्यक्तित्व का सिर्फ एक पहलू उस के चरित्र को नापने का पैमाना नहीं हो सकता. शालू के बैग से इस का मिलना यह कहां साबित करता है कि इस का इस्तेमाल भी शालू ने ही किया है. यह भी तो हो सकता है कि किसी ने उस के साथ जानबूझ कर यह शरारत की हो.’’

‘‘शरारत, सिर्फ उसी के साथ क्यों? तुम्हारे या किसी और के साथ क्यों नहीं? तुम तो अपनी सहेली का पक्ष लोगी ही. मगर सुनो रिया, यह लड़की मेरी नजरों से उतर चुकी है. यह तुम्हारे आसपास रहे, यह मुझे पसंद नहीं,’’ उषा ने अपना दोटूक फैसला रिया को सुना दिया.

‘‘मां, शालू एक सुलझी हुई और समझदार लड़की है. वह अच्छी तरह जानती है कि उसे जिंदगी से क्या चाहिए. देखना, आप को एक दिन उस के बारे में अपनी राय बदलनी पड़ेगी.’’

‘‘हां, वह तो उस के लक्षणों से पता चल ही रहा है कि वह क्या चाहती है. पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं. अरे, ये छोटी जात की लड़कियां होती ही ऐसी हैं. ऊंचा उठने के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर सकती हैं,’’ कहते हुए उषा ने मुंह बिचका दिया. रिया भी उठ कर चल दी.

कालेज तो खत्म हो चुके थे. अब कैरियर बनाने का वक्त था. रिया के पापा चाहते थे कि वह सरकारी नौकरी को चुने. मगर रिया किसी अच्छी मल्टीनैशनल कंपनी में जाना चाहती थी. जब तक कोई ढंग का औफर नहीं मिलता तब तक रिया ने अपने पापा का मन रखने के लिए एक कोचिंग में ऐडमिशन ले लिया ताकि पढ़ाई से जुड़ाव बना रहे.

उषा को बहुत बुरा लगा जब उसे पता चला कि शालू भी उसी कोचिंग में जा रही है. रिया को समझाने का कोई मतलब नहीं था, वह अपनी सहेली के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी. उषा की नाराजगी से बेखबर शालू का उस के घर आनाजाना बदस्तूर जारी था. हां, उषा के व्यवहार का रूखापन वह साफसाफ महसूस कर रही थी. वह देख रही थी कि पहले की तरह अब आंटी उस से हंसहंस कर बात नहीं करतीं बल्कि उसे देखते ही अपने कमरे में घुस जाती हैं. कभी आमनासामना हो भी जाए तो बातबेबात उसे टारगेट कर के ताने सुनाने लगती हैं. उस के लिए तो चायपानी भी रिया खुद ही बनाती है. शालू ने कई बार पूछना भी चाहा मगर रिया ने हमेशा यह कह कर टाल दिया, ‘छोड़ न, मां थक जाती होंगी. वैसे भी हमें अब अपने काम खुद करने की आदत डाल लेनी चाहिए.’ और दोनों मुसकरा कर चाय बनाने में जुट जाती थीं.

इधर उषा ने रिया पर कुछ ज्यादा ही कड़ाई से नजर रखनी शुरू कर दी. वह जबतब रिया का मोबाइल ले कर उस के मैसेज, व्हाट्सऐप, फेसबुक अकांउट, आदि चैक करने लगी. कभीकभी छिप कर उस की बातें भी सुनने की कोशिश करती. यह सब रिया को बहुत बुरा लगता था, मगर वह मां के मन की उथलपुथल को समझ रही थी. ऐसे में उस का कुछ भी बोलना उन्हें आहत कर सकता था. उन्हें डिप्रैशन में ले जा सकता था या फिर हो सकता था कि गुस्से में आ कर मां उस के बाहर आनेजाने पर ही रोक लगा दें. यही सोच कर रिया चुपचाप मां की हर बात सहन कर रही थी.

सर्दी के दिन थे. रात के 8 बज रहे थे. रिया अभी तक कोचिंग से नहीं लौटी थी. रोज तो 7 बजे तक आ जाती है. क्या हुआ होगा. घड़ी की सुइयों के साथसाथ उषा की बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. तभी बदहवास सी रिया ने घर में प्रवेश किया. उस की हालत देखते ही उषा का कलेजा कांप उठा. बिखरे हुए बाल, मिट्टी से सने हाथपांव, कंधे से फटा हुआ कुरता. ‘‘क्या हुआ? ऐक्सिडैंट हो गया था क्या? फोन तो कर देतीं,’’ उषा ने एक ही सांस में कई प्रश्न पूछ डाले.

‘‘हां, ऐक्सिडैंट ही कह सकती हो. कोचिंग के बाहर औटो का इंतजार कर रही थी कि अचानक कुछ लड़कों ने मुझे घेर लिया.’’ रिया सुबकते हुए अपने साथ हुए हादसे के बारे में बता ही रही थी कि उषा बीच में ही बोल पड़ी. ‘‘आखिर वही हुआ न जिस का मुझे डर था. अरे शालू जैसी छोटी जात की लड़की के साथ रहोगी तो यह दिन तो आना ही था. कितना समझाया था मैं ने कि उस से दूर रहो, मगर मेरी सुनता कौन है.’’

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‘‘बस करो मां. आज शालू के कारण ही मैं सहीसलामत आप के सामने खड़ी हूं. उस ने वक्त पर आ कर मेरी मदद नहीं की होती तो आज मैं कहीं की न रहती. उसी छोटी जात की लड़की ने आज आप की लाडली के चरित्र पर दाग लगने से बचाया है,’’ रिया ने रोते हुए कहा और उषा को विचारों के जाल में उलझा छोड़ कर सुबकती हुई अपने कमरे में चली गई.

लगभग 6 महीने की कोचिंग में शालू और रिया ने कई प्रतियोगी परीक्षाएं दीं और आखिरकार छोटी जात के विशेष कोटे में शालू का चयन वन विभाग में सुपरवाइजर के पद पर हो गया. रिया का चयन न होने से उस के पापा काफी निराश हुए. मगर उषा बहुत खुश थी. वह सोच रही थी, ‘चलो, कैसे भी कर के आखिर उस शालू से पीछा तो छूटा.’

कुछ ही महीनों में रिया ने भी अच्छे औफर पर एक मल्टीनैशनल कंपनी जौइन कर ली. हालांकि अब दोनों सहेलियों का प्रत्यक्ष मिलना कम ही होता था मगर फिर भी फोन और सोशल मीडिया पर दोनों का साथ बराबर बना हुआ था. रोज रात को दोनों एकदूसरे से दिनभर की बातें शेयर किया करती थीं. कभीकभार शालू लंचटाइम में आ कर? उस से मिल जाया करती थी.

रिया की कंपनी अपनी शाखाओं का विस्तार गांवों और कसबों तक करना चाह रही थी. इसी सिलसिले में कंपनी के सीईओ ने उसे प्रोजैक्ट हेड बना कर एक छोटे कसबे में भेजने के आदेश दे दिए. हमेशा महानगर में रही रिया के लिए यह काम आसान नहीं था. उसे तो अपना कोई काम हाथ से करने की आदत ही नहीं थी.

‘‘एक दिन की बात तो है नहीं, प्रोजैक्ट तो लंबा चलेगा. कसबों में रहनेखाने की कहां और कैसे व्यवस्था होगी. सोचसोच कर रिया परेशान थी. उषा ने तो सुनते ही उसे यह प्रोजैक्ट लेने से मना कर दिया और नौकरी छोड़ने तक की सलाह दे डाली, मगर रिया समझती थी कि उस का यह प्रोजैक्ट करना कितना जरूरी है क्योंकि इनकार करने का मतलब नईनई नौकरी से हाथ धोना तो है ही, साथ ही, यह उस की इमेज का भी सवाल था.

यों परेशानियों से घबरा कर अपने पांव पीछे हटाना उस के आगे के कैरियर पर भी सवाल खड़े कर सकता है. उस ने शालू से अपनी परेशानी का जिक्र किया तो शालू ने उसे हिम्मत से काम लेने को कहा. उसे समझाया कि जिंदगी में आने वाली परेशानियों से ही आगे बढ़ने के रास्ते खुलते हैं. फिर शालू ने उस कसबे में अपने विभागीय रैस्ट हाउस में रिया के रहने की व्यवस्था करवाई और साथ ही, वहां के अटेंडैंट को हिदायत दी कि रिया को किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.

रिया का नया प्रोजैक्ट मुंबई से लगभग 500 किलोमीटर की दूरी पर था. छोटा कसबा होने के कारण यातायात के साधन सीमित थे और इंटरनैट की उपलब्धता न के बराबर ही थी. हां, फोन की कनैक्टिविटी ठीकठाक होने से उस की परेशानी कुछ कम जरूर हुई थी.

अभी रिया को वहां गए महीनाभर भी नहीं हुआ था कि उषा की तबीयत अचानक खराब हो गई. उसे हौस्पिटल में भरती करवाया गया तो जांच में पता चला कि उस के गर्भाशय में बड़ी गांठ है. गांठ को निकालने की कोशिश से उषा की जान को खतरा हो सकता है, इसलिए औपरेशन कर के गर्भाशय ही निकालना पड़ेगा. खबर मिलते ही रिया तुरंत छुट्टी ले कर मुंबई आ गई. उषा का औपरेशन सफल रहा और 10 दिनों तक औब्जर्वेशन में रखने के बाद उसे हौस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया.

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उषा को एक महीना बैड रैस्ट की सलाह दी गई थी. चूंकि रिया का प्रोजैक्ट और नौकरी दोनों ही नए थे, इसलिए उसे ज्यादा छुट्टी नहीं मिली और अब उस के सामने 2 ही विकल्प थे- या तो वह नौकरी छोड़े या फिर मां को अकेले छोड़ कर जाए. रिया कोई ठोस निर्णय नहीं ले पा रही थी. शालू को जब यह बात पता चली तो उस ने तुरंत एक महीने की छुट्टी ली और अपना सामान ले कर रिया के घर पहुंच गई. पूरा एक महीना वह साए की तरह उषा के साथ बनी रही. उषा के खानेपीने से ले कर वक्त पर दवाएं देने और उस के नहानेधोने तक का शालू ने पूरा खयाल रखा.

उषा उस के इस दूसरे रूप को देख कर हैरान थी. एक छोटी जात की लड़की के बड़प्पन का यह दूसरा पहलू सचमुच उसे चौंकाने वाला था. कभी शालू को चरित्रहीन समझने वाली उषा को आज अपनी सोच पर बहुत पछतावा हो रहा था. मगर न जाने क्या था जो अब भी उसे शालू को गले लगाने और उसे अपनी देखभाल करने के लिए थैंक्यू कहने से रोक रहा था.

कल शालू की छुट्टी का आखिरी दिन था. उषा भी अब लगभग स्वस्थ हो चुकी थी. रात को खाना ले कर शालू उषा के कमरे में गई तो उस की आंखों में आंसू देख कर चौंक गई. ‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ परेशानी है क्या?’’ शालू ने पूछा. उषा ने कोई जवाब नहीं दिया मगर दो बूंदों ने ढुलक कर उस के दिल का सारा हाल बयान कर दिया. शालू उस के पास गई. धीरे से उस का सिर अपने सीने से सटा लिया. उषा से अब अपनेआप को रोका नहीं गया और वह शालू से लिपट कर रो पड़ी.

‘‘मुझे माफ कर देना शालू, मैं ने तुम्हारे बारे में बहुत ही गलत राय बना रखी थी. अपने बचकाना व्यवहार के लिए मैं तुम से बहुत शर्मिंदा हूं.’’

‘‘आप कैसी बातें करती हो आंटी? आप ने मेरे बारे में जैसी भी राय बनाई है, मैं ने तो हमेशा ही आप पर अपना अधिकार समझा है और इसी अधिकार के चलते मैं बेहिचक यहां आतीजाती रही हूं. सच कहूं, मुझे आप के तानों का जरा भी बुरा नहीं लगता था. कहीं न कहीं आप के दिल में मेरे लिए फिक्र ही तो थी जो आप को ऐसा करने के लिए मजबूर करती थी. इसलिए अब पिछली सारी कड़वी बातों को भूल जाइए. कल रिया आने वाली है न, हमसब मिल कर फिर से पहले की तरह मस्ती करेंगे,’’ शालू ने चहकते हुए कहा और उषा से लिपट गई.

उषा आज अपनी भूल पर बहुत पछता रही थी. वह शिद्दत से महसूस कर रही थी कि किसी व्यक्ति का सिर्फ एक ही पहलू देख कर उस के बारे में अपनी पुख्ता धारणा बना लेना कितना गलत हो सकता है. और यह भी कि यह फोर्थ जेनरेशन कितनी प्रैक्टिकल सोच रखने वाली पीढ़ी है. सचमुच वह कागज का टुकड़ा, जो उसे शालू के बैग से मिला था, उस के चरित्र का प्रमाणपत्र नहीं था.

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संक्रमण: क्या हुआ लीलाधर के परिवार के साथ

लेखक- पुखराज सोलंकी

अपने गांव से मीलों दूर दिल्ली शहर के इंडस्ट्रियल एरिया की एक फैक्टरी में काम कर रहा लीलाधर इस बार शहर आते समय अपनी गर्भवती पत्नी रुक्मिणी और 4 साल की मुनिया से वादा कर के आया था कि अगली बार हमेशा की तुलना में जल्दी ही गांव लौटेगा.

समयसमय पर रुक्मिणी की खैरखबर लेने के लिए आने वाली  ‘आशा दीदी’ ने भी अप्रैल की ही तारीख बताते हुए लीलाधर से कहा था, ‘ऐसे समय में तुम्हारा यहां होना बेहद जरूरी है.’

जवाब में लीलाधर बोला था, ‘मैं तो उस से पहले ही पहुंच जाऊंगा, बस मार्च के महीने में काम का कुछ ज्यादा ही दबाव रहता है, जिस के चलते साहब लोग छुट्टी नहीं देते हैं. लेकिन उस के बाद लंबी छुट्टी पर ही आऊंगा और आते समय मुनिया, उस की मम्मी और नए आने वाले बच्चे के लिए कुछ कपड़ेलत्ते भी तो लाने हैं न.’

लौकडाउन के दौरान उस काट खाने वाले कमरे में छत को घूरते हुए लीलाधर अपनी यादों में खोया हुआ यह सब सोच ही रहा था कि कुंडी के खड़कने से उस की तंद्रा टूटी.

लुंगी लपेटते हुए दरवाजा खोला, तो सामने फैक्टरी का सुपरवाइजर खड़ा था. वह बाहर खड़ेखड़े ही बोला, ‘‘कुछ जुगाड़ बिठाया कि नहीं गांव जाने का? फैक्टरी अभी बंद है और मालिक भी किसकिस को घर से खिलाएगा…

‘‘यह पकड़ 500 रुपए, मालिक ने भेजे हैं… और आज शाम तक कमरा खाली कर देना. बाकी का हिसाब वापसी पर ही होगा.’’

यह सुन कर लीलाधर को एक बार तो ऐसा लगा, जैसे इस कोरोना वायरस ने उस के भविष्य के सपनों को अभी से ही संक्रमित करना शुरू कर दिया हो. अब कोई और चारा भी नहीं था, लिहाजा कमरा खाली करना पड़ा. अब जाएं तो जाएं कहां… न बस, न ट्रेन. जेब में 500 रुपए का नोट और कुछ 5-10 के सिक्के. अब अगर यहां रुका, तो जो पैसे हैं, वे भी खर्च हो जाएंगे.

यही सब सोचतेविचारते लीलाधर ने आखिरकार फैसला कर ही लिया और घर पर रुक्मिणी को फोन किया, ‘‘1-2 दिन में कुछ जुगाड़ बिठा कर गांव के लिए निकल जाऊंगा. तुम अपना और मुनिया का खयाल रखना, हाथ धोते रहना और उसे बाहर मत निकलने देना.’’

अपने घर आने की खबर रुक्मिणी को दे कर लीलाधर निकल पड़ा नैशनल हाईवे पर. मन ही मन उस ने हिसाब भी लगा लिया कि 24 घंटों में अगर 16 घंटे भी लगातार चला, तो 7-8 दिनों में तो गांव पहुंच ही जाएगा. उस ने ठान लिया था कि अब वह पैदल ही इस सफर को पूरा करेगा.

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लीलाधर के घर की तरफ बढ़ते कदमों में एक अलग ही जोश था. उसे बस इस बात का मलाल था कि वह मुनिया और नए बच्चे के लिए कुछ कपड़ेलत्ते और खिलौने नहीं खरीद सका.

सफर तय करतेकरते लीलाधर रुक्मिणी से फोन पर बात करते हुए बोला, ‘‘मेरे फोन की बैटरी डाउन होने लगी है. बाद में अगर फोन न कर पाऊं, तो परेशान मत होना. बस, कुछ ही दिनों की बात है, जल्दी ही सफर तय करूंगा.’’

सफर के दौरान लीलाधर ने रुक्मिणी को लौकडाउन की वजह से शहर में हो रही परेशानियों और पाबंदियों के बारे में तो बताया था, लेकिन यह नहीं बताया कि वह पैदल ही गांव पहुंच रहा है. बताता भी कैसे, उसे डर था कि रुक्मिणी कहीं मना न कर दे.

लीलाधर लगातार चलता रहा. उस के आगेपीछे जो लोग चल रहे थे, धीरेधीरे उन की तादाद कम होती गई. दिल्ली के आसपास के इलाकों वाले लोग अपनी मंजिल तक पहुंच चुके थे, लेकिन उस का चलना जारी था.

उधर, 4-5 दिन बीतने पर रुक्मिणी को घर से बाहर होने वाली हर आहट पर यही लगता कि शायद अब लीलाधर आया हो. फोन लगना तो कब का बंद हो चुका था. एक तो लौकडाउन और ऊपर से यह इंतजार, वह दोहरी मार  झेल रही थी. दिन में तो चलो जैसेतैसे मुनिया और मांबाबा के साथ समय निकल जाता, लेकिन रात होतेहोते उसे बेचैनी सी

होने लगती. बात करने के लिए फोन उठाती, लेकिन लीलाधर का फोन स्विच औफ मिलता.

अगले दिन सुबहसुबह जब घर की कुंडी खड़की, तो मुनिया खुशी से चहकी, ‘‘पापा आ गए… पापा आ गए…’’

घर में मांबाबा समेत सब के चेहरे पर खुशी के भाव साफ दिखने लगे थे. हाथों का काम छोड़ कर रुक्मिणी दरवाजे की तरफ दौड़ी. चुन्नी का पल्लू अपने सिर पर रख के उस ने दरवाजा खोला, तो सामने दारोगा साहब थे.

‘‘लीलाधर का घर यही है?’’

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‘‘जी, यही है.’’

‘‘क्या लगती हैं आप उन की?’’

रुक्मिणी पास खड़ी मुनिया की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘जी, इस के पापा हैं.’’

‘‘घर में कोई और है बड़ा?’’ दारोगा ने पूछा.

बातचीत सुन कर मुनिया के बाबा बाहर की तरफ आए और बोले, ‘‘क्या बात है दारोगा साहब? रुक्मिणी बेटी, तुम अंदर जाओ.’’

रुक्मिणी मुनिया को ले कर अंदर तो चली गई, लेकिन उस के कानों ने अभी भी दरवाजे पर हो रही गुफ्तगू का पीछा नहीं छोड़ा था.

‘‘जी, आप कौन?’’ दारोगा ने पूछा.

‘‘मैं लीलाधर का पिता हूं.’’

दारोगा ने हाथ में थाम रखा डंडा बगल में दबा कर अपनी टोपी उतारते हुए कहा, ‘‘बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि लीलाधर अब इस दुनिया में नहीं रहा. नैशनल हाईवे पर रात के समय गश्त पर गए पुलिस दस्ते को सड़क पर एक लहूलुहान हालत में लाश पड़ी मिली. शायद किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी थी. शिनाख्त के दौरान जेब व बैग में मिले कुछ कागजों की वजह से ही हम यहां तक पहुंच पाए हैं. लाश फिलहाल मुरदाघर में रखी हुई है.’’

यह सुनते ही बूढ़े पिता की टांगों ने जवाब दे दिया. दरवाजा पकड़ कर खड़े रहने की हिम्मत जुटाई, क्योंकि बहू के आगे वे ऐसा करेंगे तो फिर उस को कौन संभालेगा.

उधर दारोगा के आते ही रुक्मिणी को भी कुछ अनहोनी का अंदेशा होने लगा था. वह अंदर थी, लेकिन उस के कान आसानी से बातचीत सुन पा रहे थे.

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‘‘हिम्मत रखिए और बताएं कि इतनी रात को आप का बेटा कैसे इतनी दूर निकल गया था? क्या घर में कोई बात हुई थी?’’ दारोगा ने सवाल किया.

‘‘हमारी किस्मत फूटी थी, जो उसे रोजगार के लिए दिल्ली भेजा. वह तो नहीं आया, लेकिन आप…’’

तभी लीलाधर की मां चिल्लाईं, ‘‘अरे.. कोई बचाओ, मुनिया की मां उसे ले कर कुएं में कूद गई है.’

दारोगा साहब अंदर की तरफ दौड़े, पीछेपीछे लीलाधर के पिता भी आए. दारोगा ने बाहर जीप के पास खड़े अपने सिपाही को आवाज दी. हड़बड़ाहट में किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था. जब तक रस्सी का इंतजाम हुआ, तब तक दोनों लाशें पानी के ऊपर तैरने लगी थीं.

लीलाधर और उस का परिवार बिना किसी संक्रमण के हमेशा के लिए लौकडाउन की भेंट चढ़ चुका था.

टिट फौर टैट: क्या था हंसिका का प्लान

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

साल की बैस्ट कहानी का अवार्ड लेते ही पूरा हौल तालियों से गूंज उठा था. विजयी लेखिका अरुंधती ने डायस पर आ कर धन्यवाद प्रेषित किया और अपनी कहानी के बारे में बताना शुरू किया-

“आप सब का बहुत शुक्रिया जो आप ने मेरी कहानी को वोट कर के इसे नंबर वन कहानी होने का खिताब दिलवाया. यह इस बात की तस्दीक भी करता है कि मेरी कहानी सिर्फ कहानीभर नहीं, बल्कि बहुत सी औरतों के जीवन की सचाई भी है.

“इस कहानी में एक ऐसी खूबसूरत व हसीन लड़की है जो अपने पति को एक महिला के साथ जिस्मानी संबंध बनाते देख लेती है और पति से इस बात की शिकायत करने पर उस के पति के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती, बल्कि वह और भी बेशर्म व निडर हो जाता है. और अब तो वह खुलेआम दूसरी औरत को घर में भी लाने लगता है. मेरी नायिका दूसरी भारतीय नारियों की तरह इस घटना से रोती नहीं, टूटती नहीं, बल्कि अपने पति को सबक सिखाती है. अगर उस का शादीशुदा पति किसी औरत से शारीरिक संबंध बनाता है तो उसे भी पूरा हक है कि वह अपने पति से तलाक ले और अपनी शर्तों पर जीवन जिए.”

अरुंधती ने कहना जारी रखा-

“मेरी कहानी की नायिका अपने पति की बेवफाई से आहत है. प्रतिशोध लेने के लिए वह एक के बाद एक 4 युवकों से दोस्ती कर लेती है. उन में से 2 युवक शादीशुदा हैं जो अपनी विवाहित जिंदगी से परेशान हैं, जबकि 2 लड़के कुंआरे हैं. और देखिए कि मेरी नायिका पुरुषों की कामुक प्रवत्ति को पहचान कर उन सब को एकसाथ कैसे हैंडल करती है.

“‘हंसिका, मैं कब से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूं, तुम अभी तक पहुची क्यों नहीं?’ शेखर ने फोन पर परेशान आवाज़ में हंसिका से कहा.

“‘ओह, आई एम सो सौरी. मैं तुम्हें बता नहीं पाई, आज कंपनी के काम से औफिस में ही देर हो जाएगी मुझे.’

“‘पर मैं ने तो आज शाम का पूरा मूड बना लिया था,’ शेखर परेशान हो उठा था.

“‘कोई बात नहीं, तुम अपना मूड बनाए रखो, मैं तुम्हारी कल की शाम हसीन बना दूंगी,’ हंसिका ने फोन पर शेखर को दिलासा देते हुए कहा.

“‘किस से बात कर रही हो जानेमन,’ होटल के कमरे में घुसते हुए आर्यन ने पूछा.

“‘कोई नहीं, बस, ऐसे ही एक सहेली थी.’

“‘साफ क्यों नहीं कहती कि वह बेचारा भी मेरी तरह ही तुम्हारे हुस्न की गरमी का सताया हुआ आशिक है. न जाने तुम में कौन सी कशिश है जो हम आशिकों को तुम्हारे पास बारबार आने को मजबूर करती है.

“‘हम परवानों की बस इतनी सी इबादत है,

बस, तेरे हुस्न में झुलसने की आदत है.’

“यह कह कर आर्यन ने अपनी हंसिका को बांहों में भरा. हंसिका उस की आगोश में सिमटती चली गई. कुछ देर बाद कमरे में कामोत्तेजक सिसकारियां गूंजने लगी थीं. हंसिका और आर्यन एकदूसरे के जिस्म में समा गए थे. जब दोनों का जोश ठंडा हुआ तब हंसिका ने आर्यन के सीने पर सिर रखा और उस से पूछने लगी-

“‘तुम्हारी बीवी तो मुझ से भी खूबसूरत है. फिर भी तुम मेरे आगेपीछे क्यों डोलते रहते हो?’

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“आर्यन ने अपनी बीवी का जिक्र आते ही बुरा सा मुंह बनाया और कहने लगा- ‘कहावत है कि मर्द के दिल का रास्ता उस के पेट से हो कर जाता है. पर, मेरे लिए मेरे दिल तक आने का रास्ता इस बैड से हो कर जाता है. मुझे सैक्स में थोड़ा पावर और हीट गेम चाहिए पर वह बैड पर किसी ज़िंदा लाश की तरह पड़ी रहती है.’

“‘तो क्या, तुम्हें बिस्तर पर एक ऐथलीट की ज़रूरत है?’ हंसिका ने उस को बीच में रोकते हुए कहा.

“‘नहीं, पर मर्द और औरत के रिश्तों के लिए एक अच्छी सैक्सलाइफ बहुत ज़रूरी होती है. यह बात तो तुम भी मानोगी न,’ यह कह कर आर्यन ने हंसिका को चूम लिया.

“वैसे, हंसिका इन मर्दों का अश्लील वीडियो बनाना नहीं भूलती थी, क्या पता किस मोड़ पर काम आ जाएं.

“हंसिका पूरी रात आर्यन के साथ गुज़ारने के बाद सुबह अपने औफिस गई और फिर पूरा दिन काम करने के बाद अपने फ्लैट पर जाने से पहले उसने ब्यूटीपार्लर जाना जरूरी समझा. उस के साथ में उस की औफिसमेट माया थी.

“‘अरे हंसिका, अभी तूने 2 दिनों पहले ही तो अपने बालों को स्ट्रेट कराया था. और आज फिर से इन्हें कर्ली क्यों करा रही है,’ माया ने पूछा.

“‘क्योंकि आज मेरी आकाश के साथ डेट है,’ मुसकराते हुए हंसिका ने कहा.

“‘आकाश के साथ? पर तेरे बौयफ्रैंड का नाम तो युवराज है.’ चौंक पड़ी थी माया.

“‘तुम नहीं समझोगी, माया. अच्छा बताओ, इंद्रधनुष में कितने रंग होते हैं?’ हंसिका ने पूछा.

“‘सात.’

“‘और एक हफ्ते में कितने दिन?’

“‘सात,’

“‘तो फिर, बौयफ्रैंड एक क्यों, सात क्यों नहीं?’ अपने होंठों पर हलकी सी मुसकराहट लाते हुए हंसिका ने कहा.

“‘अरे, तू क्या सच में सात मान बैठी. सात नहीं, बल्कि सिर्फ 4 बौयफ्रैंड हैं मेरे.’

“‘ओफ्फो, तुझे समझना बहुत मुश्किल है.’

“यह कह कर माया बाहर की ओर जाने लगी, तो हंसिका ने उसे पास बुलाया और बोली, ‘सुन तो, देख, अजीब ज़रूर लग रहा होगा पर आर्थिकरूप से स्वतंत्र रहने का यही तो मज़ा है. चाहे जैसे रहो, कोई टोकने वाला नहीं. और ज़िन्दगी में ऐश करो. पति के सहारे रहने व उस की बेवफाई सहने में भला रखा ही क्या है.’ हंसिका का दर्द छलक आया था. उस ने सिगरेट सुलगाई. माया ने सहमति में सिर हिला दिया.

“करीब 5 फुट 9 इंच की हाइट वाली हंसिका का व्यक्तित्व देखते ही बनता था. गोरा रंग, पतला चेहरा और सुतवां नाक. इस के साथ उस के बाल कमर तक लहराते हुए. अपने बौडीमास को भी बहुत अच्छी तरह से मेन्टेन किया हुआ था हंसिका ने और इस के लिए वह सप्ताह में कम से कम 3 दिन जिम जाती थी.

“हंसिका एक मौडलिंग एजेंसी में काम करती थी जो बेंगलुरु जैसे शहर में अच्छी आय का स्रोत था और इसी पैसे के चलते हंसिका मनचाहे अंदाज़ से अपना जीवन जी रही थी.

“जो दिखता है वाही बिकता है के सिद्धांत को मानने वाली हंसिका अपने यौवन का भरपूर दिखावा करना अच्छी तरह से जानती थी. अपने अलगअलग बौयफ्रैंड्स के साथ वह सैक्स करने में पीछे कभी नहीं हटती. अलगअलग दिनों में हंसिका के शारीरिक संबंध अलगअलग बौयफ्रैंड से बनते.

“हंसिका के बौयफ्रैंड यह बात अच्छी तरह जानते थे कि हंसिका के संबंध उन लोगों के अलावा और लोगों से भी हैं पर उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि हंसिका जैसी खूबसूरत लड़की पर एकाधिकार दिखा कर वे उसे खोना नहीं चाहते थे. उन के लिए तो हंसिका जैसी दिलकश हसीना के शरीर को भोग लेना ही बहुत बड़ी बात थी.

“आज हंसिका की डेट आकाश नाम के व्यक्ति के साथ थी. आकाश एक समय में हंसिका का फेसबुक फ्रैंड था. आकाश शादीशुदा था. वह अपनी पत्नी की बेवफाई से दुखी था. उस की पत्नी का स्कूल के एक टीचर के साथ अफेयर था जिस के बारे में उसे भनक लग गई थी और दुखी हो कर आत्महत्या के बारे तक में सोचने लगा था. अपनी निराशा से जुड़ी बातें आकाश ने फेसबुक मैसेंजर पर हंसिका से शेयर कीं तो हंसिका को मामले की गंभीरता के बारे में पता चला.

“उस ने अपनी बातों से टूटे हुए आकाश को दिलासा दी और उसे मिलने के लिए बुलाया. दोनों में मुलाकातें होने लगीं. वहीं से आकाश पूरी तरह से हंसिका के रूप का दीवाना हो गया. और हंसिका ने उसे भी अपनी देह का स्वाद चखाने में देर नहीं की. हंसिका अपने इन बौयफ्रैंड्स को अच्छी तरह यूज़ करना जानती थी. कब किस से कितने पैसे की डिमांड करनी है, इस का अच्छी तरह ज्ञान था उस को.

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“हंसिका अनचाहे गर्भ से बचने के लिए कंडोम का प्रयोग एक अनिवार्य शर्त बना देती थी. पर इस बार पता नहीं किस से और कैसे चूक हुई कि हंसिका गर्भवती हो गई थी. अपने गर्भवती हो जाने की बात हंसिका ने किसी भी बौयफ्रैंड को नहीं बताई. दिन बीतते रहे. अपनी व्यस्त जीवनशैली के कारण जब हंसिका अपना गर्भपात कराने के लिए डाक्टर के पास पहुंची तो डाक्टर ने यह कह कर गर्भपात करने से मना कर दिया कि समय अधिक हो गया है, अब यह संभव नहीं है, इसलिए आप को बच्चे को जन्म देना ही होगा.

“हंसिका ने सब से पहले यह बात अपने एक पुराने बौयफ्रैंड आर्यन से बताई, ‘सुनो आर्यन, यार, बड़ीड़ा प्रौब्लम हो गई है.’

“‘ऐसा भी क्या हो गया मेरी जान जो तुम इतना घबरा कर बोल रही हो,’ आर्यन ने कहा.

“‘यू नो, आई एम प्रैग्नैंट,’ हंसिका ने फुसफुसा कर कहा.

“‘बधाई हो, मिठाई खिलाओ भाई,’ आर्यन ने चुटकी ली.

“‘मज़ाक मत करो, मैं बहुत परेशान हूं,’ हंसिका चिड़चिड़ा रही थी.

“‘अब तुम कोई दूध पीती बच्ची तो नहीं जो तुम्हें बताना पड़ेगा कि अगर तुम शादी से पहले प्रैग्नैंट हो गई हो तो बच्चे को अबौर्ट करवा दो.’

“‘तुम्हें क्या लगता है कि मैं डाक्टर के पास नहीं गई थी? गई थी पर डाक्टर ने गर्भपात करने से मना कर दिया. अब मुझे बच्चे को जन्म देना ही होगा.’

“ओह्ह, तो यह बात है,’ आर्यन ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा और चुप हो गया. कुछ देर बाद आर्यन ने ही कहना शुरू किया, ‘कोई बात नहीं, तुम फिक्र मत करो. अस्पताल का सारा खर्चा मैं देने के लिए तैयार हूं. पर क्या यह बच्चा वास्तव में मेरा ही है?’

“‘ये कैसी बातें कर रहे हो आर्यन, क्या मतलब है तुम्हारा?’

“‘मेरा मतलब है कि मेरे अलावा तुम्हारे पति का भी तो हो सकता है?’ आर्यन ने कहा. जबकि, उसे अच्छी तरह पता था कि हंसिका अपने पति से अलग रह रही है और उस ने पति से तलाक लेने का मुकदमा दायर कर रखा है.

“‘अगर भरोसा नहीं है तो बच्चे का डीएनए टैस्ट करवा लो.’

“डीएनए टैस्ट करवाने की बात तो आर्यन के मन में भी आई थी पर अगर डीएनए टैस्ट में बच्चा किसी और का निकलता तो बहुत मुमकिन था कि आर्यन को हंसिका से विरक्ति हो जाती और वह उसे खो देता.

“‘अरे, ऐसी कोई बात नहीं है. तुम तो ज़रा सी बात में नाराज़ हो गई. मैं तो मज़ाक कर रहा था,’ आर्यन ने बात बनाते हुए कहा.

“हंसिका के संबंध कई मर्दों से थे. सभी मर्द इस बात को अच्छी तरह से जानते भी थे. हंसिका जैसी चिड़िया किसी एक पिंजरे में बंद हो कर नहीं रह सकती पर वे सब हंसिका जैसी सैक्सी व दिलकश लड़की को छोड़ना नहीं चाहते थे. इसलिए, वे सब उस की लगभग हर बात मानते थे.

हंसिका ने इसी तरह बारीबारी अपने सभी बौयफ्रैंड्स को अपने गर्भवती होने की बात बताई. और उन सब ने कमोबेश यही कहा कि हंसिका, बच्चे को अस्पताल में जन्म दे और वे लोग उसे हर तरह का खर्चा देने के लिए तैयार हैं.

“जब अपने चारों बौयफ्रैंड्स से हंसिका ने बात कर के उन से पैसे मिलने की बात कन्फर्म कर ली, तब जा कर उस को सुकून मिला और वह अपने होने वाले बच्चे के भविष्य को ले कर आश्वस्त हो गई.

“मेरी नायिका हंसिका ने अपने औफिस से मैटरनिटी लीव ली और समय आने पर बच्चे को जन्म दिया.

“हंसिका अपने हर बौयफ्रैंड को अलगअलग यही एहसास कराती रहती कि जैसे यह बच्चा उस का ही है और उन लोगों से अलगअलग बच्चे के पालनपोषण के लिए पैसे भी लेती रही.

“कालांतर में हंसिका के अविवाहित बौयफ्रैंड्स की शादी भी हो गई और कुछ समय बाद बच्चे भी. पर उन प्रेमियों ने हंसिका व उस के बच्चे का ध्यान रखना नहीं छोड़ा.

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“हंसिका के कई पुरुषों से संबंध को दुश्चरित्रता इसलिए भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि मर्दों के इस समाज में हंसिका ने ‘टिट फौर टैट’ अर्थात ‘जैसे को तैसा’ वाला आचरण दिखा कर एक नई मिसाल पेश की है. और फिर, अगर एक औरत अपने पति की किसी भी तरह की बेवफ़ाई के खिलाफ किसी भी तरह का सार्थक कदम उठाती है तो उस का स्वागत किया जाना चाहिए. और मुझे पता है कि इस समाज में हंसिका जैसी बहुत औरते हैं जो पति की बेवफाई सह रही हैं. भले ही वे सब अपने मर्द के खिलाफ कुछ न कर पा रही हों पर मेरी इस कहानी को पसंद कर उन्होंने इस साल की बैस्ट कहानी बना कर हंसिका का साथ देने की मूक स्वीकृति तो दे ही दी है.”

हौल में लगातार तालियां बजे जा रही थीं हंसिका जैसी नायिका के लिए. पर यह बात केवल अरुंधती ही जानती थी कि हंसिका की यह कहानी किसी और की नहीं, बल्कि उस की अपनी है.

खुदगर्ज मां: भाग 1- क्या सही था शादी का फैसला

शादी जीवन को एक लय देती है. जैसे बिना साज के आवाज अधूरी है वैसे ही बिन शादी के जीवन अधूरा. जीवनसाथी का साथ अकेलेपन को दूर करता है.

‘‘मां, अब दोनों की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है. वैसे भी लड़के के आ जाने के बाद दोनों बेटियों के प्रति मेरा मोह भी कम हो गया है,’’ मां को नानी से यह कहते जब सुना तो मेरी आंखें भर आईं. मां का खत मिला. फोन पर तो लगभग मैं ने उन से बात ही करना बंद कर दिया था. सो, मेरी सहेली अनुराधा के हाथों उन्होंने खत भिजवाया. खत में वही पुरानी गुजारिश थी, ‘‘गीता, शादी कर लो वरना मैं चैन से मर नहीं पाऊंगी.’’ मैं मन ही मन सोचती कि मां तो हम बहनों के लिए उसी दिन मर चुकी थीं जिस दिन उन्होंने हम दोनों को अकेले छोड़ कर शादी रचा ली थी. अब अचानक उन के दिल में मेरी शादी को ले कर ममता कैसे जाग गई. मेहमान भी आ कर एक बार खबर ले लेता है मगर मां तो जैसे हमें भूल ही गई थीं. साल में एकदो बार ही उन का फोन आता. मैं करती तो भी यही कहती बिलावजह फोन कर के मुझे परेशान मत करो, गीता. अब तुम बड़ी हो गई हो. तुम्हें वहां कोई कमी नहीं है. अब उन्हें कैसे समझाती कि सब से बड़ी कमी तो उन की थी हम बहनों को. क्या कोई मां की जगह ले सकता है?

खत पढ़ कर मैं तिलमिला गई. अचानक मन अतीत के पन्नों में उलझ गया. वैसे शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब अतीत को याद कर के मेरे आंसू न बहे हों. मगर मां जब कभी शादी का जिक्र करतीं तो अतीत का जख्म नासूर बन कर रिसने लगता. तब मैं 14 साल की थी. वहीं, मुझ से 2 साल छोटी थी मेरी बहन. उसे सभी छोटी कह कर बुलाते थे. मां ने तभी हमारा साथ छोड़ कर दूसरी शादी कर ली थी. पहले जब मैं मां के लिए रोती तो नानी यही कहतीं कि तेरी मां नौकरी के लिए दिल्ली गई है, आ जाएगी. पर मुझे क्या मालूम था कि कैसे मां और नानी ने मुझ से छल किया.

‘क्यों गई हैं?’ मेरा बालमन पूछता, ‘क्या कमी थी यहां? मामा हम सभी लोगों का खयाल रखते हैं.’ तब नानी बड़े प्यार से मुझे समझातीं, ‘बेटा, तेरे पिता कुछ करतेधरते नहीं. तभी तो तेरी मां यहां रहती है. जरा सोच, तेरे मामा भले ही कुछ नहीं कहते हों मगर तेरी मां को यह बात सालती रहती है कि वह हम पर बोझ है, इसीलिए नौकरी कर के इस बोझ को हलका करना चाहती है.’

‘वे कब आएंगी?’

‘बीचबीच में आती रहेगी. रही बात बातचीत करते रहने की, तो उस के लिए फोन है ही. तुम जब चाहो उस से बात कर सकती हो.’ सुन कर मुझे तसल्ली हुई. मैं ने आंसू पोंछे. तभी मां का फोन आया. मैं ने रोते हुए मां से शिकायत की, ‘क्यों हमें छोड़ कर चली गईं. क्या हम साथ नहीं रह सकते?’

मां ने ढांढ़स बंधाया, नानी का वास्ता दिया, ‘तुम लोगों को कोई तकलीफ नहीं होगी.’

मैं ने कहा, ‘छोटी हमेशा तुम्हारे बारे में पूछती रहती है.’

‘उसे किसी तरह संभालो. देखो, सब ठीक हो जाएगा,’ कह कर मां ने फोन काट दिया. मेरे गालों पर आंसुओं की बूंदें ढुलक आईं. बिस्तर पर पड़ कर मैं सुबकने लगी.

पूरा एक महीना हुआ मां को दिल्ली गए. ऐसे में उन को देखने की तीव्र इच्छा हो रही थी. नानी की तरफ से सिवा सांत्वना के कुछ नहीं मिलता. पूछने पर वे यही कहतीं, ‘नईनई नौकरी है, छुट्टी जल्दी नहीं मिलती. जैसे ही मिलेगी, वह तुम सब से मिलने जरूर आएगी,’ मेरे पास सिवा सुबकने के कोई हथियार नहीं था. मेरी देखादेखी छोटी भी रोने लगती. मुझ से उस की रुलाई देखी नहीं जाती थी. उसे अपनी बांहों में भर कर सहलाने का प्रयास करती ताकि उसे मां की कमी न लगे.

मां के जाने के बाद छोटी मेरे ही पास सोती. एक तरह से मैं उस की मां की भूमिका में आ गई थी. अपनी हर छोटीमोटी जरूरतों के लिए वह मेरे पास आती. एक भावनात्मक शून्यता के साथ 2 साल गुजर गए. जब भी फोन करती, मां यही कहतीं बहुत जल्द मैं तुम लोगों से मिलने बनारस आ रही हूं. मगर आती नहीं थीं. हमारा इंतजार महज भ्रम साबित हुआ. आहिस्ताआहिस्ता हम दोनों बहनें बिन मां के रहने के आदी हो गईं. मैं बीए में पहुंच गई कि एक दिन शाम को जब स्कूल से घर लौटी तो देखा मां आई हुई हैं. देख कर मेरी खुशी की सीमा न रही. मां से बिछोह की पीड़ा ने मेरे सब्र का बांध तोड़ डाला और बह निकला मेरे आंखों से आंसुओं का सैलाब जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. नानी ने संभाला.

‘अब तुम कहीं नहीं जाओगी,’ सिसकियों के बीच में मैं बोली. वे चुप रहीं. उन की चुप्पी मुझे खल गई. जहां मेरे आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे वहीं मां का तटस्थ भाव अनेक सवालों को जन्म दे रहा था. क्या यहां आ कर उन्हें अच्छा नहीं लगा? 2 साल बाद एक मां को अपने बच्चों से मिलने की जो तड़प होती है उस का मैं ने मां में अभाव देखा. शायद नानी मेरे मन में उठने वाले भावों को भांप गईं. वे मुझे बड़े प्यार से दूसरे कमरे में यह कहती हुई ले गईं कि तुम्हारी मां लंबी यात्रा कर के आई है, उसे आराम करने की जरूरत है. जो बातें करनी हों, कल कर लेना. ऐसा मैं ने पहली बार सुना. अपनी औलादों को देख कर मांबाप की सारी थकान दूर हो जाती है, यहां तो उलटा हो रहा था. मां ने न हमारा हालचाल पूछा न ही मेरी पढ़ाईलिखाई के बारे में कुछ जानने की कोशिश की.

उन्होंने एक बार यह भी नहीं कहा कि बेटे, मेरी गैरमौजूदगी में तुम लोगों को जो कष्ट हुआ उस के लिए मुझे माफ कर दो. छोटी भी लगभग उपेक्षित सी मां के पास बैठी थी. मां के व्यवहार में आए इस अप्रत्याशित परिवर्तन को ले कर मैं परेशान हो गई. बहरहाल, मैं अपने कमरे में बिस्तर पर लेट गई. वैसे भी मां के बगैर रहने की आदत हो गई थी. लेटेलेटे मन मां के ही इर्दगिर्द घूमता रहा. 2 साल बाद मिले भी तो मांबेटी अलगअलग कमरों में लेटे हुए थे. सिर्फ छोटी जिद कर के मां के पास बैठी रही.

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