Sunrise Pure स्वाद और सेहत उत्सव में आज बनाते हैं पाव भाजी

पाव भाजी को घर पर आसानी से बहुत जल्दी बनाया जा सकता हैं. नाश्ते में पाव भाजी बनाकर परोसें, आपको और आपके परिवार को यह बहुत पसन्द आयेगा.

सामग्री

– 250 ग्राम लौकी छिली व कटी

– 2 गाजरें

– 150 ग्राम फूलगोभी

– 6 फ्रैंचबींस

– 1/4 कप मटर के हरे दाने

– 1 शिमला मिर्च

– 250 ग्राम टमाटर कद्दूकस किया

– 1 छोटा चम्मच अदरकलहसुन पेस्ट

– 1/2 कप प्याज बारीक कटा

– 2 बड़े चम्मच Sunrise Pure पावभाजी मसाला

– 2 बड़े चम्मच टोमैटो कैचअप

– लालमिर्च स्वादानुसार

– 2 छोटे चम्मच मक्खन यानी बटर

– थोड़ी सी धनियापत्ती कटी सजावट के लिए

– थोड़ा सा पनीर कटा सजावट के लिए

– 6 पाव

– 1 छोटा चम्मच नमक स्वादानुसार

विधि

एक नौनस्टिक कड़ाही में बटर गरम कर प्याज को सुनहर होने तक भूनें और उसके बाद शिमला मिर्च को काटकर प्याज के साथ डालकर भूनें. दूसरी तरफ गाजरों को छील कर मोटे टुकड़ों में व फूलगोभी, को भी मोटे टुकड़ों में काट लें. फ्रैंचबींस को भी 1/2 इंच टुकड़ों में काट लें. अब सभी सब्जियों को 1/2 कप पानी और 1/2 चम्मच नमक के साथ प्रैशरकुकर में पकाएं. 1 सीटी आने के बाद लगभग 7 मिनट धीमी आंच पर और पकाएं.

फिर अदरकलहसुन पेस्ट डालें. 2 मिनट बाद टमाटर और Sunrise Pure पावभाजी मसाला डाल कर भूनें. जब मसाला भुन जाए तब इस में उबली सब्जियां डालें व मैशर से मैश करें. अच्छी तरह पकाएं. इस में टोमैटो कैचअप भी मिला दें. भाजी तैयार हो जाए तो सर्विंग बाउल में निकालें. पनीर के टुकड़ों और धनियापत्ती से सजाएं. एक नौनस्टिक तवे को मक्खन से चिकना कर उस पर पावभाजी मसाला बुरक तुरंत पाव को बीच से काट कर तवे पर डालें. अच्छी तरह सेंक लें. भाजी के साथ सर्व करें.

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प्रकाश स्तंभ: भाग 1- क्या पारिवारिक झगड़ों को सुलझा पाया वह

‘‘दीदी, जरा गिलास में पानी डाल दो,’’ रम्या ने खाने की मेज के दूसरी ओर बैठी अपनी बड़ी बहन नंदिनी से कहा था.

‘‘आलस की भी कोई सीमा होती है या नहीं? तुम एक गिलास पानी भी अपनेआप डाल कर नहीं पी सकतीं,’’ नंदिनी ने टका सा जवाब दिया था.

‘‘पानी का जग तुम्हारे सामने रखा था इसीलिए कह दिया. भूल के लिए क्षमा चाहती हूं. मैं खुद ही डाल लूंगी,’’ रम्या उतने ही तीखे स्वर में बोली थी.

‘‘वही अच्छा है. तुम जितनी जल्दी अपना काम खुद करने की आदत डाल लो तुम्हारे लिए उतना ही अच्छा रहेगा,’’ नंदिनी सीधेसपाट स्वर में बोली थी.

‘‘मैं सब समझती हूं, इतनी मूर्ख नहीं हूं. ईर्ष्या करती हो तुम मुझ से.’’

‘‘लो और सुनो. मैं क्यों ईर्ष्या करने लगी तुम से?’’

‘‘बड़ी बहन कुंआरी बैठी रहे और छोटी का विवाह हो जाए, क्या यह कारण कम है?’’ रम्या तीखे स्वर में बोली थी पर इस से पहले कि नंदिनी कुछ बोल पाती, उन की मां रचना ने दोनों का ध्यान आकर्षित किया था.

‘‘तुम दोनों अपने झगड़े से थोड़ा सा समय निकाल सको तो मैं भी कुछ बोलूं?’’

‘‘क्या मां? आप भी मुझे ही दोष दे रही हैं?’’ नंदिनी ने शिकायत की थी.

‘‘मैं किसी को दोष नहीं दे रही बेटी. मैं तो भली प्रकार जानती हूं कि मेरी 30-30 साल की दोनों बेटियां 5 मिनट के लिए भी आपस में लड़े बिना नहीं रह सकतीं.’’

‘‘30 साल की होने का ताना आप मुझे ही दे रही हैं न? रम्या तो मुझ से 2 साल छोटी है और मैं बड़ी हूं तो सारा दोष भी मेरा ही होगा,’’ नंदिनी ने आहत होने का अभिनय किया था.

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‘‘मेरा ऐसा कोई तात्पर्य नहीं था. मैं जो कहने जा रही हूं उस का तुम दोनों से कुछ भी लेनादेना नहीं है. मैं तो केवल यह कहना चाहती हूं कि मैं ने यह शहर या यों कहूं कि यह देश ही छोड़ कर जाने का निर्णय कर लिया है,’’ रचना ने मानो शांत जल में पत्थर दे मारा था.

‘‘क्या? कहां जा रही हैं आप?’’ खाने की मेज पर बैठे पति नीरज के विस्फारित होते नेत्रों को उस ने देखा था. रम्या के पति प्रतीक का मुंह खुला का खुला रह गया था और दोनों बेटियों की नजर मां पर ही गड़ी हुई थी.

‘‘हमारे बैंक की एक नई शाखा ‘सीशेल्स’ में खुलने जा रही है. मैं ने वहीं जा कर नई शाखा का कार्यभार संभालने की स्वीकृ ति दे दी है. हमारे बैंक से और 2-3 कर्मचारी भी साथ जा रहे हैं,’’ रचना ने अपनी बात पूरी की थी.

‘‘क्यों उपहास कर रही हैं मां? अब इस आयु में आप देश छोड़ कर जाएंगी?’’ रम्या हंस पड़ी थी पर नंदिनी केवल उन का मुंह ताकती रह गई थी.

‘‘यह उपहास नहीं वास्तविकता है बेटी. दिनरात की इस कलह में मेरा मन घुटने लगा है. मैं शायद मां की भूमिका सफलतापूर्वक नहीं निभा पाई. तुम दोनों का व्यवहार इस का प्रमाण है. फिर भी मैं कहूंगी कि मैं ने अपनी ओर से पूरा प्रयत्न किया था. नंदिनी की पढ़ाई में कभी कोई रुचि नहीं रही. फिर भी पीछे पड़ कर उसे स्नातक तक की पढ़ाई करवाई. कंप्यूटर कोर्स करवाया. एकदो जगह नौकरी भी लगवाई पर यह मेरा और उस का…या कहें हम दोनों की बदनसीबी है कि वह अब तक जीवन में व्यवस्थित नहीं हो सकी.

‘‘तुम्हारे लिए भी मैं ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार सबकुछ किया पर तुम ने अच्छीभली नौकरी छोड़ कर विवाह कर लिया और अब तुम और तुम्हारे पति प्रतीक दोनों बेकार बैठे हैं,’’ रचना का स्वर बेहद निरीह प्रतीत हो रहा था.

‘‘और ऐसे में आप ने हम सब को छोड़ कर जाने का फैसला ले लिया?’’ रम्या और नंदिनी ने समवेत स्वर में प्रश्न किया था.

‘‘यहां रह कर भी मैं तुम दोनों के लिए कहां कुछ कर पाई. वहां थोड़ा अधिक पैसा मिलेगा तो शायद मैं तुम लोगों की कुछ अधिक सहायता कर पाऊंगी. वैसे भी ऐसे अवसर कभीकभी ही मिलते हैं. वह तो सीशेल्स जैसे छोटे से द्वीप पर कोई जाना नहीं चाहता वरना तो मुझे यह भी मौका नहीं मिलता.’’

‘‘आप कब तक  जाएंगी, मम्मीजी?’’ प्रतीक ने प्रश्न किया था.

‘‘1 माह तो जाने में लग ही जाएगा, थोड़ा अधिक समय भी लग सकता है,’’ परिवार के अन्य सदस्यों को गहरी सोच में डूबे छोड़ कर रचना अपने कमरे में चली गई थीं.

आरामकुरसी पर पसर कर रचना देर तक शून्य में ताकती रही थीं. कमरे के अंधेरे में वह काल्पनिक आकृतियों को बनतेबिगड़ते देखती रही थीं. साथ ही अतीत की अनेक बातें उन के मानसपटल से टकराने लगी थीं.

‘क्या हुआ रचना? इस तरह सिर थामे क्यों बैठी हो?’ उस दिन उन की सहेली निमिषा ने रचना को आंखें मूंदे स्वयं में ही डूबे देख कर पूछा था.

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उत्तर में रचना ने अपनी आंखें खोल दी थीं. उन की डबडबाई आंखें लगातार बरसने लगी थीं.

‘क्या हुआ? कुशलमंगल तो है? मैं ने तुम्हें इस तरह स्वयं पर नियंत्रण खोते कभी नहीं देखा,’ निमिषा हैरान हो गई थी.

‘तुम स्वयं पर नियंत्रण की बात कर रही हो, मैं ने तो अपने सारे जीवन को अनियंत्रित होते देखा है.’

‘क्यों, क्या हुआ? कोई विशेष बात?’

‘सप्ताह भर से रम्या के फोन पर फोन आ रहे हैं. अपने पति के साथ यहीं हमारे पास रहना चाहती है,’ रचना धीमे स्वर में बोली थीं.

‘क्यों? प्रतीक का स्थानांतरण यहीं हो गया है क्या?’

‘किस का स्थानांतरण, निमिषा. वही हुआ जिस का डर था. फोन पर रम्या बता रही थी कि प्रतीक की नौकरी छूट गई है. मुझे तो पहले ही संदेह था कि वह नौकरी करता भी था या नहीं. अब वह नौकरी नहीं करना चाहता. व्यापार करेगा और व्यापार उसे मेरे अलावा करवाएगा कौन? एक और राज की बात बताऊं तुम्हें?’

‘क्या?’

‘प्रतीक खुद कोई बात नहीं करता. हर बात में रम्या को आगे करता है. पहले उसी की चिकनीचुपड़ी बातों में आ कर रम्या यहां अच्छीभली नौकरी छोड़ कर गुंइर चली गई. अब दिन में 2-3 बार फोन आता है. मैं सप्ताह भर से समझा रही हूं कि मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि उस की सहायता कर सकूं तो रोने लगी. बोली कि आप तो बैंक में अफसर हैं, क्या कर्ज नहीं ले सकतीं?’

‘नीरज भाई साहब क्या कहते हैं?’

‘वह क्या कहेंगे? आज तक कुछ कहा है जो अब कहेंगे? उन पर तो जीवन भर व्यापार का भूत सवार रहा. पर व्यापार में कमाया कम और गंवाया अधिक. अब तो उन का शरीर ही साथ नहीं देता. अस्थमा तो पुराना रोग है ही पर हर दिन कुछ न कुछ लगा ही रहता है. बेटीदामाद के आने के समाचार से भी उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता. वह तो, बस अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं.’

‘फिर तुम क्यों चिंता में घुली जा रही हो? आ रही है तो आने दो. उन दोनों के आने से भला कितना अंतर पड़ जाएगा,’ निमिषा ने समझाना चाहा था.

‘प्रश्न केवल भोजनकपड़े का नहीं है. व्यापार के लिए पूंजी कहां से जुटाऊं. ऊपर से मेरी दोनों बेटियों में बिलकुल नहीं पटती. नंदिनी को कोई वर अपने उपयुक्त लगता ही नहीं. संसार के सब से अधिक धनवान, सुदर्शन और प्रसिद्ध वर से ही विवाह करेगी वह. हम तो उस के विवाह की उधेड़बुन में खोए थे कि रम्या ने अपनी इच्छा से विवाह कर लिया. जगहंसाई न हो इसलिए हम ने परंपरागत रूप से विवाह करवा दिया. वर पक्ष से तो कोई औपचारिकता निभाने भी नहीं आया.’

‘विवाह के पहले तो प्रतीक बड़ी डींगें हांकता था. विवाह को 6 माह भी नहीं हुए कि नौकरी छूट गई. घर वालों ने घर से निकाल दिया. अब वह हमारी शरण में आना चाहते हैं. अब स्थिति यह है कि मेरी नौकरी न हो तो हमारा परिवार भूखों मर जाए,’ रचना अपनी रामकहानी सुनाती रही थी.

‘तुम्हारी समस्या तो वास्तव में विकट है. मैं तो केवल सलाह दे सकती हूं पर उस पर अमल तो तुम को ही करना है. मैं तुम्हारे स्थान पर होती तो कब की भाग खड़ी होती. तनिक सोचो, यदि तुम उन्हें छोड़ कर चली जाओ तो क्या वे भूखे मरेंगे? अपना पेट भरने के लिए तो हाथपैर हिलाएंगे ही न,’ निमिषा ने बात सच कही थी पर रचना को लगा कि उस की सलाह मानने की शक्ति उस में नहीं थी.

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‘तुम ठीक कहती हो. मेरी नियति ही ऐसी है. कालिज में प्रवेश लेते ही मातापिता चल बसे. अपने छोटे भाई और स्वयं को व्यवस्थित करने में मैं ने कठिन परिश्रम किया. संतोष इसी बात का है कि उस का जीवन पूरी तरह से व्यवस्थित है, व्यावसायिक रूप से भी और पारिवारिक तौर पर भी. उसे देख कर बड़ी संतुष्टि मिलती है. पर मुझे तो विवाह के बाद भी चैन नहीं मिला. मुझे तो लगता है कि मेरी दोनों बेटियां अभिशाप बन कर मेरे जीवन में आई हैं. थकीहारी घर पहुंचती हूं तो नंदिनी एक प्याली चाय को भी नहीं पूछती. सर्वगुण संपन्न वर न जुटा पाने के लिए शायद वह मुझे ही दोषी समझती है. सदा मुंह फूला ही रहता है उस का.’

‘भूल जाओ यह सब, रचना. अपनी ओर से तुम ने दोनों बेटियों के लिए कर्तव्य पूरा कर दिया. हो सके तो उन पर जिम्मेदारी डाल कर उन में परिवर्तन लाने का प्रयत्न करो. कभीकभी परिस्थितियां स्वयं बदलने लगती हैं अत: प्रतीक्षा करो.’

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सौतेली: भाग 4- क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

शेफाली को लग रहा था वंदना ठीक कह रही है. वह अपना घर क्यों छोडे़. उस को हालात का सामना करना चाहिए था. फिर उस औरत से नफरत कैसी जिसे अभी उस ने देखा भी नहीं था.

अगले दिन सुबह वंदना चली गई.

कुछ भी नहीं होते हुए वंदना कुछ दिनों में ही अपनेपन का जो कोमल स्पर्श शेफाली को करवा गई थी उस को भूलना मुश्किल था. यही नहीं वह शेफाली की दिशाहीन जिंदगी को एक दिशा भी दे गई थी.

परीक्षाओं के शुरू होते ही शेफाली ने जानकी बूआ से घर जाने की बात कह दी और थोड़ाथोड़ा कर के अपना सामान पैक करना शुरू कर दिया.

परीक्षाएं खत्म होते ही शेफाली अपने घर को रवाना हुई तो जानकी बूआ खुद उस को अमृतसर जाने वाली बस में बैठाने के लिए बस अड्डे पर आई थीं.

बस जब चल पड़ी तो शेफाली के मन में कई सवाल बुलबुले बन कर उभरने लगे कि पापा उस का सामना कैसे करेंगे, उस का सौतेली मां से सामना कैसे होगा? वह कैसा व्यवहार करेंगी?

शेफाली जानती थी कि उस को बस में बैठाने के बाद बूआ ने फोन पर इस की सूचना पापा को दे दी होगी. शायद घर में उस के आने के इंतजार में होंगे सभी…

सामान का बैग हाथ में लिए घर के दरवाजे के अंदर दाखिल होते एक बार तो शेफाली को ऐसा लगा था कि किसी बेगानी जगह पर आ गई है.

पापा उस के इंतजार में ड्राइंगरूम में ही बैठे थे. उन के साथ मानसी और अंकुर भी थे जोकि दौड़ कर उस से लिपट गए.

उन को प्यार करते हुए शेफाली की नजरें पापा से मिलीं. चाह कर भी शेफाली मुसकरा नहीं सकी. उस ने केवल इतना ही कहा, ‘‘हैलो पापा, कैसे हैं आप?’’

‘‘अच्छा हूं. अपनी सुनाओ. सफर में कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’’

‘‘नहीं…और होती भी तो अब कोई फर्क नहीं पड़ता. मुझ को कुछ समय से तकलीफें बरदाश्त करने की आदत पड़ चुकी है,’’ कोशिश करने पर भी अपने गुस्से और आक्रोश को छिपा नहीं सकी शेफाली.

इस पर पापा ने मानसी और अंकुर से कहा, ‘‘तुम दोनों जा कर जरा अपनी दीदी का कमरा ठीक करो, मैं तब तक इस से बातें करता हूं.’’

पापा का इशारा समझ कर दोनों तुरंत वहां से चले गए.

‘‘मैं जानता हूं तुम मुझ से नाराज हो,’’ उन के जाने के बाद पापा ने कहा.

‘‘मुझ को बहाने के साथ घर से बाहर भेज कर मेरी ममी की जगह एक दूसरी ‘औरत’ को दे दी पापा और इस के बाद भी आप उम्मीद करते हैं कि मुझ को नाराज होने का भी हक नहीं?’’

‘‘यह मत भूलो कि वह ‘औरत’ अब तुम्हारी नई मां है,’’ पापा ने शेफाली को चेताया.

इस से शेफाली जैसे बिफर गई और बोली, ‘‘मैं इस रिश्ते को कभी स्वीकार नहीं करूंगी, पापा,’’

‘‘मैं इस के लिए तुम पर जोर भी नहीं डालूंगा, मगर तुम उस से एक बार मिल लो…शिष्टाचार के नाते. वह ऊपर कमरे में है,’’ पापा ने कहा.

‘‘मैं सफर की वजह से बहुत थकी हुई हूं, पापा. इस वक्त आराम करना चाहती हूं. इस बारे में बाद में बात करेंगे,’’ शेफाली ने अपने कमरे की तरफ बढ़ते हुए रूखी आवाज में कहा.

शेफाली कमरे में आई तो सबकुछ वैसे का वैसा ही था. किसी भी चीज को उस की जगह से हटाया नहीं गया था.

मानसी और अंकुर वहां उस के इंतजार में थे.

कोशिश करने पर भी शेफाली उन के चेहरों या आंखों में कोई मायूसी नहीं ढूंढ़ सकी. इस का अर्थ था कि उन्होंने मम्मी की जगह लेने वाली औरत को स्वीकार कर लिया था.

‘‘तुम दोनों की पढ़ाई कैसी चल रही है?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘एकदम फर्स्ट क्लास, दीदी,’’ मानसी ने जवाब दिया.

‘‘और तुम्हारी नई मम्मी कैसी हैं?’’ शेफाली ने टटोलने वाली नजरों से दोनों की ओर देख कर पूछा.

‘‘बहुत अच्छी. दीदी, तुम ने मां को नहीं देखा?’’ मानसी ने पूछा.

‘‘नहीं, क्योंकि मैं देखना ही नहीं चाहती,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘ऐसी भी क्या बेरुखी, दीदी. नई मम्मी तो रोज ही तुम्हारी बातें करती हैं. उन का कहना है कि तुम बेहद मासूम और अच्छी हो.’’

‘‘जब मैं ने कभी उन को देखा नहीं, कभी उन से मिली नहीं, तब उन्होंने मेरे अच्छे और मासूम होने की बात कैसे कह दी? ऐसी मीठी और चिकनीचुपड़ी बातों से कोई पापा को और तुम को खुश कर सकता है, मुझे नहीं,’’ शेफाली ने कहा.

शेफाली की बातें सुन कर मानसी और अंकुर एकदूसरे का चेहरा देखने लगे.

उन के चेहरे के भावों को देख कर शेफाली को ऐसा लगा था कि उन को उस की बातें ज्यादा अच्छी नहीं लगी थीं.

मानसी  से चाय और साथ में कुछ खाने के लिए लाने को कह कर शेफाली हाथमुंह धोने और कपडे़ बदलने के लिए बाथरूम में चली गई.

सौतेली मां को ले कर शेफाली के अंदर कशमकश जारी थी. आखिर तो उस का सामना सौतेली मां से होना ही था. एक ही घर में रहते हुए ऐसा संभव नहीं था कि उस का सामना न हो.

मानसी चाय के साथ नमकीन और डबलरोटी के पीस पर मक्खन लगा कर ले आई थी.

भूख के साथ सफर की थकान थी सो थोड़ा खाने और चाय पीने के बाद शेफाली थकान मिटाने के लिए बिस्तर पर लेट गई.

मस्तिष्क में विचारों के चक्रवात के चलते शेफाली कब सो गई उस को इस का पता भी नहीं चला.

शेफाली ने सपने में देखा कि मम्मी अपना हाथ उस के माथे पर फेर रही हैं. नींद टूट गई पर बंद आंखों में इस बात का एहसास होते हुए भी कि? मम्मी अब इस दुनिया में नहीं हैं, शेफाली ने उस स्पर्श का सुख लिया.

फिर अचानक ही शेफाली को लगा कि हाथ का वह कोमल स्पर्श सपना नहीं यथार्थ है. कोई वास्तव में ही उस के माथे पर धीरेधीरे अपना कोमल हाथ फेर रहा था.

चौंकते हुए शेफाली ने अपनी बंद आंखें खोल दीं.

आंखें खोलते ही उस को जो चेहरा नजर आया वह विश्वास करने वाला नहीं था. वह अपनी आंखों को बारबार मलने को विवश हो गई.

थोड़ी देर में शेफाली को जब लगा कि उस की आंखें जो देख रही हैं वह सच है तो वह बोली, ‘‘आप?’’

दरअसल, शेफाली की आंखों के सामने वंदना का सौम्य और शांत चेहरा था. गंभीर, गहरी नजरें और अधरों पर मुसकराहट.

‘‘हां, मैं. बहुत हैरानी हो रही है न मुझ को देख कर. होनी भी चाहिए. किस रिश्ते से तुम्हारे सामने हूं यह जानने के बाद शायद इस हैरानी की जगह नफरत ले ले, वंदना ने कहा.

‘‘मैं आप से कैसे नफरत कर सकती हूं?’’ शेफाली ने कहा.

‘‘मुझ से नहीं, लेकिन अपनी मां की जगह लेने वाली एक बुरी औरत से तो नफरत कर सकती हो. वह बुरी औरत मैं ही हूं. मैं ही हूं तुम्हारी सौतेली मां जिस की शक्ल देखना भी तुम को गवारा नहीं. बिना देखे और जाने ही जिस से तुम नफरत करती रही हो. मैं आज वह नफरत तुम्हारी इन आंखों में देखना चाहती हूं.

‘‘हम जब पहले मिले थे उस समय तुम को मेरे साथ अपने रिश्ते की जानकारी नहीं थी. पर मैं सब जानती थी. तुम ने सौतेली मां के कारण घर आने से इनकार कर दिया था. किंतु सौतेली मां होने के बाद भी मैं अपनी इस रूठी हुई बेटी को देखे बिना नहीं रह सकती थी. इसलिए अपनी असली पहचान को छिपा कर मैं तुम को देखने चल पड़ी थी. तुम्हारे पापा, तुम्हारी बूआ ने भी मेरा पूरा साथ दिया. भाभी को सहेली के बेटी बता कर अपने घर में रखा. मैं अपनी बेटी के साथ रही, उस को यह बतलाए बगैर कि मैं ही उस की सौतेली मां हूं. वह मां जिस से वह नफरत करती है.

‘‘याद है तुम ने मुझ से कहा था कि मैं बहुत अच्छी हूं. तब तुम्हारी नजर में हमारा कोई रिश्ता नहीं था. रिश्ते तो प्यार के होते हैं. वह सगे और सौतेले कैसे हो सकते हैं? फिर भी इस हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता कि मैं मां जरूर हूं, लेकिन सौतेली हूं. तुम को मुझ से नफरत करने का हक है. सौतेली मांएं होती ही हैं नफरत और बदनामी झेलने के लिए,’’ वंदना की आवाज में उस के दिल का दर्द था.

‘‘नहीं, सौतेली आप नहीं. सौतेली तो मैं हूं जिस ने आप को जाने बिना ही आप को बुरा समझा, आप से नफरत की. मुझ को अपनेआप पर शर्म आ रही है. क्या आप अपनी इस नादान बेटी को माफ नहीं करेंगी?’’ आंखों में आंसू लिए वंदना की तरफ देखती हुई शेफाली ने कहा.

‘‘धत, पगली कहीं की,’’ वंदना ने झिड़कने वाले अंदाज से कहा और शेफाली का सिर अपनी छाती से लगा लिया.

प्रेम के स्पर्श में सौतेलापन नहीं होता. यह शेफाली को अब महसूस हो रहा था. कोई भी रिश्ता हमेशा बुरा नहीं होता. बुरी होती है किसी रिश्ते को ले कर बनी परंपरागत भ्रांतियां.

सौतेली: भाग 3- क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

एक दिन शेफाली को चौंकाते हुए वंदना रात को अचानक उस के कमरे में आ गई.

शेफाली को रात देर तक पढ़ने की आदत थी.

वंदना को अपने कमरे में देख चौंकी थी शेफाली, ‘‘आप,’’ उस के मुख से निकला था.

‘‘बाथरूम जाने के लिए उठी थी. तुम्हारे कमरे की बत्ती को जलते देखा तो इधर आ गई. मेरे इस तरह आने से तुम डिस्टर्ब तो नहीं हुईं?’’

‘‘जी नहीं, ऐसी कोई बात नहीं,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘रात की शांति में पढ़ना काफी अच्छा होता है. मैं भी अपने कालिज के दिनों में अकसर रात को ही पढ़ती थी. मगर बहुत देर रात जागना भी सेहत के लिए अच्छा नहीं होता. अब 1 बजने को है. मेरे खयाल में तुम को सो जाना चाहिए.’’

वंदना ने अपनी बात इतने अधिकार और अपनत्व से कही थी कि शेफाली ने हाथ में पकड़ी हुई किताब बंद कर दी.

‘‘मेरा यह सब कहना तुम को बुरा तो नहीं लग रहा?’’ उस को किताब बंद करते हुए देख वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं, बल्कि अच्छा लग रहा है. बहुत दिनों बाद किसी ने इस अधिकार के साथ मुझ से कुछ कहा है. आज मम्मी की याद आ रही है. वह भी मुझ को बहुत देर रात तक जागने से मना किया करती थीं,’’ शेफाली ने कहा. उस की आंखें अनायास आंसुओं से झिलमिला उठी थीं.

शेफाली की आंखों में झिलमिलाते आंसू वंदना की नजरों से छिपे न रह सके थे. इस से वह थोड़ी व्याकुल सी दिखने लगी. उस ने प्यार से शेफाली के गाल को सहलाया और बोली, ‘‘जो बीत गया हो उस को याद कर के बारबार खुद को दुखी नहीं करते. अब सो जाओ, सुबह बहुत सारी बातें करेंगे,’’ इतना कहने के बाद वंदना मुड़ कर कमरे से बाहर निकल गई.

इस के बाद तो शेफाली और वंदना के बीच की दूरी जैसे सिमट गई और दोनों के बीच की झिझक भी खत्म हो गई.

एकाएक ही शेफाली को वंदना बहुत अपनी सी लगने लगी थी. जाहिर है अपने व्यवहार से शेफाली के विश्वास को जीतने में वंदना सफल हुई थी. अब दोनों में काफी खुल कर बातें होने लगी थीं.

शेफाली के शब्दों में सौतेली मां के प्रति आक्रोश को महसूस करते हुए एक दिन वंदना ने कहा, ‘‘आखिर तुम दूसरों के साथसाथ अपने से भी इतनी नाराज क्यों हो?’’

‘‘क्या जानकी बूआ ने मेरे बारे में आप को कुछ नहीं बतलाया?’’

‘‘बतलाया है,’’ गंभीर और शांत नजरों से शेफाली को देखती हुई वंदना बोली.

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि तुम्हारे पापा ने किसी और औरत से दूसरी शादी कर ली है. वह भी तुम्हारी गैरमौजूदगी में…और तुम को बतलाए बगैर,’’ शेफाली की आंखों में झांकती हुई वंदना ने शांत स्वर में कहा.

‘‘इतना सब जानने के बाद भी आप मुझ से पूछ रही हैं कि मैं नाराज क्यों हूं,’’ शेफाली के स्वर में कड़वाहट थी.

‘‘अधिक नाराजगी किस से है? अपने पापा से या सौतेली मां से?’’

‘‘नाराजगी सिर्फ पापा से है.’’

‘‘सौतेली मां से नहीं?’’ वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं, उन से मैं नफरत करती हूं.’’

‘‘नफरत? क्या तुम ने अपनी सौतेली मां को देखा है या उन से कभी मिली हो?’’ वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर सौतेली मां से नफरत क्यों? नफरत तो हमेशा बुरे इनसानों से की जाती है न,’’ वंदना ने कहा.

‘‘सौतेली मांएं बुरी ही होती हैं, अच्छी नहीं.’’

‘‘ओह हां, मैं तो इस बात को जानती ही नहीं थी. तुम कह रही हो तो यह ठीक ही होगा. बुरी ही नहीं, हो सकता है सौतेली मां देखने में डरावनी भी हो,’’ हलका सा मुसकराते हुए वंदना ने कहा.

शेफाली को इस बात से भी हैरानी थी कि जानकी बूआ ने अपने घर की बातें अपनी सहेली की बेटी से कैसे कर दीं?

वंदना अपने मधुर और आत्मीय व्यवहार से शेफाली के बहुत करीब तो आ गई मगर वह उस के बारे में ज्यादा जानती न थी, सिवा इस के कि वह जानकी बूआ की किसी सहेली की लड़की थी.

फिर एक दिन शेफाली ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘आप की शादी हो चुकी है?’’

‘‘हां,’’ वंदना ने कहा.

‘‘फिर आप अकेली यहां क्यों आई हैं? अपने पति को भी साथ में लाना चाहिए था.’’

‘‘वह साथ नहीं आ सकते थे.’’

‘‘क्यों?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘क्योंकि कोई ऐसा काम था जो उन के साथ रहने से मैं नहीं कर सकती थी,’’ बड़ी गहरी और भेदपूर्ण मुसकान के साथ वंदना ने कहा.

‘‘ऐसा कौन सा काम है?’’ शेफाली ने पूछा भी लेकिन वंदना जवाब में केवल मुसकराती रही. बोली कुछ नहीं.

अब पढ़ाई के लिए शेफाली जब भी ज्यादा रात तक जागती तो वंदना उस के कमरे में आ जाती और अधिकारपूर्वक उस के हाथ से किताब पकड़ कर एक तरफ रख देती व उस को सोने के लिए कहती.

शेफाली भी छोटे बच्चे की तरह चुपचाप बिस्तर पर लेट जाती.

‘‘गुड गर्ल,’’ कहते हुए वंदना अपना कोमल हाथ उस के ललाट पर फेरती और बत्ती बुझा कर कमरे से बाहर निकल जाती.

वंदना शेफाली की कुछ नहीं लगती थी फिर भी कुछ दिनों में वह शेफाली को इतनी अपनी लगने लगी कि उस को बारबार ‘मम्मी’ की याद आने लगी थी. ऐसा क्यों हो रहा था वह स्वयं नहीं जानती थी.

एक दिन रंजना ने शेफाली को यह बतलाया कि वंदना अगले दिन सुबह की ट्रेन से वापस अपने घर जा रही हैं तो उस को एक धक्का सा लगा था.

‘‘आप ने मुझ को बतलाया नहीं कि आप कल जा रही हैं?’’ मिलने पर शेफाली ने वंदना से पूछा.

‘‘मेहमान कहीं हमेशा नहीं रह सकते, उन को एक न एक दिन अपने घर जाना ही पड़ता है.’’

शेफाली का मुखड़ा उदासी की बदलियों में घिर गया.

‘‘आप जिस काम से आई थीं क्या वह पूरा हो गया?’’ शेफाली ने पूछा तो उस की आवाज में उदासी थी.

‘‘ठीक से बता नहीं सकती. वैसे मैं ने कोशिश की है. नतीजा क्या निकलेगा मुझ को मालूम नहीं,’’ वंदना ने कहा.

‘‘आप कितनी अच्छी हैं. मैं आप को भूल नहीं सकूंगी,’’ वंदना के हाथों को अपने हाथ में लेते शेफाली ने उदास स्वर में कहा.

‘‘शायद मैं भी नहीं,’’ वंदना ने जवाब में कहा.

‘‘क्या हम दोबारा कभी मिलेंगे?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘भविष्य के बारे में कुछ बतलाना मुश्किल है और दुनिया में संयोगों की कमी भी नहीं है,’’ शेफाली के हाथों को दबाते हुए वंदना ने कहा.

रवानगी से पहली रात को शेफाली के कमरे में वंदना आई तो वह बहुत गंभीर थी. उस की तरफ देख कर वंदना बोली, ‘‘जाने से पहले मैं तुम को कुछ समझाना चाहती हूं. मेरी बात पर अमल करना, न करना तुम्हारी मर्जी होगी. जीवन के सच से मुंह मोड़ना और हालात का सामना करने के बजाय उस से दूर भागना समझदारी नहीं. जिस को तुम ने देखा नहीं, जाना नहीं, उस के लिए नफरत क्यों? नफरत इसलिए क्योंकि उस के साथ ‘सौतेली’ शब्द जुड़ा है. प्यार और नफरत करने का तुम को हक है. किंतु तब तक नहीं जब तक तुम किसी को देख या जान न लो. अगर तुम्हारे पापा ने किसी दूसरी औरत से शादी कर के तुम्हारा दिल दुखाया है तो इस का मतलब यह नहीं कि तुम अपने घर पर अपना हक छोड़ दो. तुम को परीक्षाएं देने के बाद अपने घर वापस जाना ही है. यह पक्का इरादा कर लो. अपनों पर नाराज हुआ जाता है, उन को छोड़ा नहीं जाता. रही बात तुम्हारे पापा के साथ शादी करने वाली दूसरी औरत, मेरा मतलब तुम्हारी सौतेली मां से है. एक बार उस को भी देख लेना. अगर वह सचमुच तुम्हारी सोच के मुताबिक बुरी हो तो उस को घर से बाहर का रास्ता दिखलाने का इंतजाम कर देना. इस के लिए तुम को अपने पापा से भी झगड़ना पडे़ तो कोई हर्ज नहीं.’’

जब वंदना अपनी बात कह रही थी तो शेफाली हैरानी से उस के चेहरे को देख रही थी. वंदना की बातों से उस को एक बल मिल रहा था.

आगे पढ़ें- जानकी बूआ ने शेफाली पर घर जाने और पापा से फोन पर बात करने का दबाव बनाने की कोशिश की तो उस ने बूआ को सीधी धमकी दे डाली, ‘‘बूआ, अगर आप किसी बात के लिए मुझे ज्यादा परेशान करोगी तो सच कहती हूं, मैं इस घर को भी छोड़ कर कहीं चली जाऊंगी और फिर कभी किसी को नजर नहीं आऊंगी.’’

शेफाली की इस धमकी से बूआ थोड़ा डर गई थीं. इस के बाद उन्होंने शेफाली पर किसी बात के लिए जोर देना ही बंद कर दिया था.

शेफाली को यह भी पता था कि वह हमेशा के लिए बूआ के घर में नहीं रह सकती थी. 5-6 महीने के बाद जब उस की बी.एड. की पढ़ाई खत्म हो जाएगी तो उस के पास बूआ के यहां रहने का कोई बहाना नहीं रहेगा.

तब क्या होगा?

आने वाले कल के बारे में जितना सोचती उतना ही अनिश्चितता के धुंधलके में घिर जाती. बगावत पर आमादा शेफाली का मन उस के काबू में नहीं रहा था.

फूफा से शेफाली कम ही बात करती थी. बूआ से तो उस का छत्तीस का आंकड़ा था लेकिन उस घर में शेफाली जिस से अपने दुखसुख की बात करती थी वह थी रंजना, जानकी बूआ की बेटी.

रंजना लगभग उसी की हमउम्र थी और एम.ए. कर रही थी.

रंजना उस के दिल के हाल को समझती थी और मानती थी कि उस के पापा ने उस की गैरमौजूदगी में शादी कर के गलत किया था. इस के साथ वह शेफाली को हालात के साथ समझौता करने की सलाह भी देती थी.

सौतेली मां के लिए शेफाली की नफरत को भी रंजना ठीक नहीं समझती थी.

वह कहती थी, ‘‘बहन, तुम ने अभी उस को देखा नहीं, जाना नहीं. फिर उस से इतनी नफरत क्यों? अगर किसी औरत ने तुम्हारी मां की जगह ले ली है तो इस में उस का क्या कुसूर है. कुसूर तो उस को उस जगह पर बिठाने वाले का है,’’ ऐसा कह कर रंजना एक तरह से सीधे शेफाली के पापा को कुसूरवार ठहराती थी.

कुसूर किसी का भी हो पर शेफाली किसी भी तरह न तो किसी अनजान औरत को मां के रूप में स्वीकार करने को तैयार थी और न ही पापा को माफ करने के लिए. वह तो यहां तक सोचने लगी थी कि पढ़ाई पूरी होने पर उस को जानकी बूआ का घर भले ही छोड़ना पडे़ लेकिन वह अपने घर नहीं जाएगी. नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ी होगी और अकेली किसी दूसरी जगह रह लेगी.

2 बार मना करने के बाद पापा ने फिर शेफाली से फोन पर बात करने की कोशिश नहीं की थी. हालांकि जानकी बूआ से पापा की बात होती रहती थी.

मानसी और अंकुर से शेफाली ने फोन पर जरूर 2-3 बार बात की थी, लेकिन जब भी मानसी ने उस से नई मम्मी के बारे में चर्चा करने की कोशिश की तो शेफाली ने उस को टोक दिया था, ‘‘मुझ से इस बारे में बात मत करो. बस, तुम अपना और अंकुर का खयाल रखना,’’ इतना कहतेकहते शेफाली की आवाज भीग जाती थी. अपना घर, अपने लोग एक दिन ऐसे बेगाने बन जाएंगे शेफाली ने कभी सोचा नहीं था.

पहले तो शेफाली सोचती थी कि शायद पापा खुद उस को मनाने जानकी बूआ के यहां आएंगे पर एकएक कर कई दिन बीत जाने के बाद शेफाली के अंदर की यह आशा धूमिल पड़ गई.

इस से शेफाली ने यह अनुमान लगाया कि उस की मम्मी की जगह लेने वाली औरत (सौतेली मां) ने पापा को पूरी तरह से अपने वश में कर लिया है. इस सोच में उस के अंदर की नफरत को और गहरा कर दिया.

अचानक एक दिन बूआ ने नौकरानी से कह कर ड्राइंगरूम के पिछले वाले हिस्से में खाली पड़े कमरे की सफाई करवा कर उस पर कीमती और नई चादर बिछवा दी थी तो शेफाली को लगा कि बूआ के घर कोई मेहमान आने वाला है.

शेफाली ने इस बारे में रंजना से पूछा तो वह बोली, ‘‘मम्मी की एक पुरानी सहेली की लड़की कुछ दिनों के लिए इस शहर में घूमने आ रही है. वह हमारे घर में ही ठहरेगी.’’

‘‘क्या तुम ने उस को पहले देखा है?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ रंजना का जवाब था.

शेफाली को घर में आने वाले मेहमान में कोई दिलचस्पी नहीं थी और न ही उस से कुछ लेनादेना ही था. फिर भी वह जिन हालात में बूआ के यहां रह रही थी उस के मद्देनजर किसी अजनबी के आने के खयाल से उस को बेचैनी महसूस हो रही थी.

वह न तो किसी सवाल का सामना करना चाहती थी और न ही सवालिया नजरों का.

जानकी बूआ की मेहमान जब आई तो शेफाली उसे देख कर ठगी सी रह गई.

चेहरा दमदमाता हुआ सौम्य, शांत और ऐसा मोहक कि नजर हटाने को दिल न करे. होंठों पर ऐसी मुसकान जो बरबस अपनी तरफ सामने वाले को खींचे. आंखें झील की मानिंद गहरी और खामोश. उम्र का ठीक से अनुमान लगाना मुश्किल था फिर भी 30 और 35 के बीच की रही होगी. देखने से शादीशुदा लगती थी मगर अकेली आई थी.

जानकी बूआ ने अपनी सहेली की बेटी को वंदना कह कर बुलाया था इसलिए उस के नाम को जानने के लिए किसी को कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी थी.

मेहमान को घर के लोगों से मिलवाने की औपचारिकता पूरी करते हुए जानकी बूआ ने अपनी भतीजी के रूप में शेफाली का परिचय वंदना से करवाया था तो उस ने एक मधुर मुसकान लिए बड़ी गहरी नजरों से उस को देखा था. वह नजरें बडे़ गहरे तक शेफाली के अंदर उतर गई थीं.

शेफाली समझ नहीं सकी थी कि उस के अंदर गहरे में उतर जाने वाली नजरों में कुछ अलग क्या था.

‘‘तुम सचमुच एक बहुत ही प्यारी लड़की हो,’’ हाथ से शेफाली के गाल को हलके से थपथपाते हुए वंदना ने कहा था.

उस के व्यवहार के अपनत्व और स्पर्श की कोमलता ने शेफाली को रोमांच से भर दिया था.

शेफाली तब कुछ बोल नहीं सकी थी.

जानकी बूआ वंदना की जिस प्रकार से आवभगत कर रही थीं वह भी कोई कम हैरानी की बात नहीं थी.

एक ही घर में रहते हुए कोई कितना भी अलगअलग और अकेला रहने की कोशिश करे मगर ऐसा मुमकिन नहीं क्योंकि कहीं न कहीं एकदूसरे का सामना हो ही जाता है.

शेफाली और वंदना के मामले में भी ऐसा ही हुआ. दोनों अकेले में कई बार आमनेसामने पड़ जाती थीं. वंदना शायद उस से बात करना चाहती थी लेकिन शेफाली ही उस को इस का मौका नहीं देती थी और केवल एक हलकी सी मुसकान अधरों पर बिखेरती हुई वह तेजी से कतरा कर निकल जाती थी.

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अपनी-अपनी जिम्मेदारियां: भाग 4- आशिकमिजाज पति को क्या संभाल पाई आभा

रास्तेभर वह सोचविचार करता रहा कि वह कितना गलत था और आभा कितनी सही. मैं ने कभी उसे नहीं समझा. बच्चे घर में मौज करते रहे और मैं बाहर और वह बेचारी हम सब की तीमारदारी में लगी रही. कभी अपने लिए नहीं सोचा उस ने और मैं ने भी क्या सोचा उस के लिए? एक डाक्टर को तो दिखा नहीं पाया. अगर आज उसे कुछ हो जाता, तो क्या करता मैं? क्या पूरी जिंदगी जी पाता मैं उस के बिना? बेटाबेटी, जिन्हें मैं जान से बढ़ कर प्यार करता हूं, उन के सामने आभा को कभी अहमियत नहीं दी वही बच्चे 1 गिलास पानी मांगने पर चिढ़ उठते. देख लिया मैं ने सब और समझ भी लिया. वह रंभा, जो मेरी जेबें खाली करवाती रहती थी, उसे भी देख लिया. कैसे मुंह फेर लिया उस ने मुझ से? चलो अच्छा ही है. वह कहते हैं न, जो होता है अच्छे के लिए ही होता है यही सब सोचते हुए वह कब घर पहुंच गया, पता ही नहीं चला.

देखा तो रिनी बड़े मजे से झूला झूलते हुए किसी से फोन

पर बातें करने में मशगूल थी. सोनू कमरे में बैठा हमेशा की तरह लैपटौप चला रहा था और निर्मला, बाबाजी की आवभगत में लगी हुई थीं. नवल को देखते ही सब की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. बाबाजी तो तुरंत वहां से रफूचक्कर हो गया, क्योंकि पहले ही नवल ने चेता दिया था कि बाबा को घर में न बुलाया करें. उस दिन तो वह चुप रह गया था, लेकिन आज लगता है आभा एकदम सही कहती थी, ये ढोंगी बाबा लोगों को बहला कर सिर्फ उन से पैसे ऐंठते हैं और कुछ नहीं. बाबाओं के कारनामे सुनसुन कर तो अब उन पर से विश्वास ही उठ गया है. लेकिन अभी भी निर्मला जैसे कुछ लोग हैं, जो उन के चरणों में लोट जाने के लिए तत्पर रहते हैं.

‘‘चाय पिलाओ रिनी, 1 कप,’’ झूले पर बैठते हुए एकबारगी नवल ने सब को देखा. निर्मला पूछने लगीं, ‘‘अब आभा कैसी है?’’

‘‘ठीक है. डाक्टर कह रहे थे 2-4 दिन में छुट्टी कर देंगे, लेकिन आप लोगों से कुछ बात करनी है मुझे,’’ कह नवल ने सोनू और रिनी को भी आवाज दे कर बुलाया.

‘‘रिनी, आभा घर आ तो रही है, पर डाक्टर ने अभी उसे आराम करने को कहा है, इसलिए जब तक तुम्हारी मां पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाती खाना तुम बनाओगी.’’

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खाना बनाने का नाम सुनते ही रिनी के हाथपांव फूलने लगे. घबरा कर बोली, ‘‘पर पापा, मैं कैसे… मुझे कहां कुछ बनाना आता है? नहींनहीं, मुझ से ये सब नहीं होगा. वैसे भी मां तो अब आ ही रही हैं न?’’

रिनी की बात पर नवल ऐसे गुर्राया कि वह सहम उठी. बोला, ‘‘क्या वह हम सब की नौकरानी है? मैं ने कहा कि जब तक तुम्हारी मां पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाती, खाना तुम ही बनाओगी यह बात तय है और रही बात बनाना न आने की, तो दादी से पूछो, यूट्यूब में देखो और बनाओ. कोई बहाना नहीं चलेगा, अब तुम बच्ची नहीं रही. कालेज में चली गई हो. कल को शादी भी होगी, तो क्या वहां भी तुम्हारी मां तुम्हारे नखरे उठाने जाएगी?’’

समझ गई रिनी कि अब वह नहीं बचने वाली. काम तो करना ही पड़ेगा. इसलिए सिर झुका कर उसे नवल के फैसले को स्वीकार करना पड़ा.

रिनी के बाद नवल ने सोनू को घूर कर देखा, तो बेचारा डर के मारे अपनेआप में ही सिकुड़ने लगा. कहा भी गया है सामने वाले को पहले अपने हावभाव से डराओ ताकि उस की आधी हिम्मत वैसे ही पस्त हो जाए. जैसेकि सोनू की हो गई.

‘‘क्यों, अगले महीने से तुम्हारी परीक्षा शुरू होने वाली है न? तो क्या पढ़ाई तुम्हारा बाप करेगा? पढ़ाई छोड़ कर दोस्तों के साथ चैटिंग करने में लगे रहते हो. क्या इसलिए मैं ने तुम्हें लैपटौप खरीद कर दिया था? जिंदगीभर का ठेका नहीं ले रखा है मैं ने तुम सब का समझे?’’

नवल ने कड़कती आवाज में कहा, तो सोनू जी पापा, जी पापा करने लगा. समझ में आ गया नवल को कि प्यार के साथसाथ बच्चों के साथ सख्ती भी जरूरी होती है. बोला, ‘‘पढ़ाई के अलावा आज से बाहर के सारे काम, जैसे दूध, फलसब्जी लाना आदि जो भी घर से जुड़े काम हैं वे सब तुम करोगे और हां, अपने कपड़े भी तुम खुद ही धोओगे आज से, समझ गए?’’

नवल की सख्त आवाज से दोनों बच्चों की घिग्गी बंध गई.

‘‘और मां आप, बाबाओं को घर में बुलाना बंद कीजिए. कितनी बार आभा ने आप को समझाया, लेकिन आप हैं कि सुनती ही नहीं हैं. आप बड़ी हैं घर की. कम से कम इतना तो ध्यान रख ही सकती हैं कि बच्चे क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं, घर पर हैं की नहीं, घर में कौन आया, कौन गया, क्या ये सब ध्यान रखने की जिम्मेदारी आप की नहीं बनती? आप ही बताइए न, एक अकेला इंसान आखिर कितना काम करेगा. मैं तो सुबह से रात के 8 बजे तक औफिस में ही रहता हूं, तो मैं क्या कर सकता हूं?’’ प्यार से ही, पर निर्मला को भी नवल ने उन की जिम्मेदारी अच्छी तरह समझा दी.

हफ्तेभर बाद जब आभा घर पहुंची, तो उसे सबकुछ बदलाबदला सा

लगा. क्या सोचा था उस ने कि उस के बिना घर की क्या स्थिति हो गई होगी और यहां तो सब अलग ही था. सब बिस्तरों पर सलीके से चादरें बिछी थीं. हाल भी एकदम करीने से सजा चमका था. किचन भी एकदम साफसुथरी व व्यवस्थित थी. खाने की बड़ी अच्छी खुशबू भी आ रही थी. पूरा घर चमक रहा था. विश्वास नहीं हुआ आभा को कि यह उस का ही घर है.

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‘‘क्या देख रही हो आभा? यह तुम्हारा ही घर है और ये सब मां और बच्चों ने मिल कर किया है,’’ नवल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मां को देखते ही दोनों बच्चे आ कर उस से लिपट गए. निर्मला ने भी बहू को अपने सीने से लगा लिया. यह सब अप्रत्याशित था आभा के लिए, क्योंकि  उस ने सपने में भी नहीं सोचा था ये सब होगा.’’

रात में बड़ी सुकून की नींद आई आभा को. वह जैसे ही उठने लगी नवल ने उस का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘आज से हर सुबह की चाय यह बंदा बनाएगा आप के लिए,’’ कह कर वह उठने लगा तो लड़खड़ा गया.

‘‘नहींनहीं, घबराओ नहीं मैं ठीक हूं और अगर कभी ठोकर खा कर गिर भी जाऊं, तो

तुम संभाल लेना,’’ नवल ने कहा, तो आभा

को हंसी आ गई. वर्षों बाद आभा के चेहरे पर हंसी देख नवल भी मुसकरा उठा, ‘‘अब मैं तुम्हें कभी मुरझाने नहीं दूंगा आभा… बस आप का साथ रहे.’’

औरत का सरोवर तो आदमी होता है. पुरुषरूपी पानी के साथ वह बढ़ती जाती है, ऊपर से ऊपर, पर जैसे ही पानी घटा, पीछे हटा, वैसे ही औरत बेसहारा हो कर सूखने लगती है. आभा के साथ भी वही हुआ. जब तक नवल का सहयोग था, वह खिलती रही, जब से नवल का प्यार घटा, वह मुरझाने लगी. लेकिन आज फिर उसी पुराने नवल को देख वह खिल उठी. मन लहराने को करने लगा. मन के साथ उस के पूरे शरीर में भी ताकत समा गई.

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विदाई: भाग 4- पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

सुधा एक नेक इनसान की बात न टाल सकी. घर आ कर उन्होंने पूछा, ‘‘माजरा क्या है नीता?’’

‘‘ये क्या बताएंगी मैं आप को बताती हूं,’’ सुधा बोली.

‘‘शादी के दिन से ही आप की बेटी ससुराल में नहीं रहना चाहती थी. वह अपनी हर इच्छा नरेश पर लादती रहती और उस के मना करने पर आत्महत्या की धमकी देती. बेचारा नरेश क्या करता, चुपचाप सबकुछ सहन करता. यह हर बात अपनी मम्मी को बताती और आप की पत्नी अपनी बेटी टीना को उल्टी शिक्षा देतीं. ताकि बेटी को ससुराल में रह कर कुछ न करना पड़े.’’

‘‘यह सच नहीं है,’’ नीता बोली.

‘‘तो आप ही बात दीजिए सच क्या है?’’ नरेश तीखे स्वर में बोला.

‘‘मेरे बेटे को वश में करने के लिए ये मांबेटी किसी बाबा से अनुष्ठान करवा रही हैं. विश्वास न हो तो खुद चल कर देख लीजिए. हम स्वयं उस बाबा से मिल कर आ रहे हैं, सुधा बोली.’’

‘‘क्या यह सच है?’’ पापा ने पूछा.

‘‘यह क्या जवाब देंगी. इस ने तो एक पल को भी अपनी ससुराल को अपना घर नहीं समझा. इस में इस का भी क्या दोष? इसे अपनी मां से शिक्षा ही ऐसी मिली थी. अब अपनी बेटी को आप अपने ही पास रखिए. इस से न इसे तकलीफ होगी न इस की मम्मी को. मेरे बेटे को भी इन की ज्यादतियों से मुक्ति मिल जाएगी. इस एक साल में हमारे बेटे ने क्या कुछ न सहा… क्या सुख मिला इसे शादी का. ससुराल के नाम से ही चिढ़ है टीना को, बेचारा छिपा कर सब बातें अपनी मां को बताता रहा. मेरे समझाने पर उस ने टीना की, हर नाजायज बात स्वीकार कर ली. मुझे उम्मीद थी कि टीना को एक दिन अपनी गलती का एहसास जरूर होगा पर वह दिन देखना शायद हम लोगों की किस्मत में नहीं था.हम जा रहे हैं. आप अपनी बेटी को अपने पास रखिए. अगर हम इस की हरकतों से तंग आ कर इसे वापस मायके भेजते तो किसी को हमारी बात का यकीन न होता. सब हमें ही दोषी ठहराते. आज सबकुछ आप अपनी आंखों से देख सकते हैं,’’ नरेश के पापा बोले.ॉ

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सुधा, पति व बेटे के साथ जाने लगी तो टीना के पापा ने उन के पैर पकड़ लिए.

‘‘भाई साहब, इस में आप का कोई दोष नहीं है. नीता ने आप को घर का मुखिया समझा ही कब? पहले ये खुद मनमानी करती रहीं अब वही सब बेटी के साथ दोहरा रही हैं.’’

‘‘मेरी बेटी की गलती को माफ कर दीजिए,’’ टीना के पापा बोले.

नरेश उन से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘पापाजी, ससुराल में टीना को रहना है. इस में आप और हम क्या कर सकते हैं. मम्मी की शह पर टीना ने कभी आप को पिता होने का ओहदा न दिया. जो लड़की पिता को कुछ न समझे वह ससुर को क्या समझेगी? अभी हम जा रहे हैं. बाकी निर्णय तो टीना को लेना है.’’

नरेश अपने मम्मीपापा के साथ वापस लखनऊ चला आया.

ससुराल वालों से जलील हो कर टीना बड़ी आहत थी. नीता की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? नरेश अपने मम्मीपापा के साथ मिल कर ऐसा खेल खेलेगा इस की टीना व नीता को रत्ती भर भी उम्मीद न थी.

अपने घर में अपने ही कर्मों से नीता बुरी तरह लज्जित हो गई. पति के सामने उस की हरकतों का कच्चा चिट्ठा दामाद ने खोल दिया. उन के जाते ही प्रकाश बोले, ‘‘तुम मांबेटी की हरकतों ने आज मेरी इज्जत सरेआम उछाल दी. जो कोई भी सुनेगा, थूकेगा तुम दोनों पर. कितनी ओछी हरकत की है तुम दोनों ने.’’

आज पहली बार प्रकाश की बातों का नीता ने पलट कर जवाब नहीं दिया. दामाद को अपनी ओर करने के चक्कर में वह खुद एकदम अकेली पड़ गई.

नीता को गुमसुम देख कर टीना बोली, ‘‘मम्मी, जो होना था सो हो गया. शायद मेरे भाग्य में यही लिखा था. अब मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हारे ससुराल के रास्ते मैं ने ही अपने हाथों बंद किए हैं बेटी, उन्हें खोलना मेरा ही फर्ज है,’’ कह कर नीता ने अपनी ननद को फोन मिलाया और सारी बातें ज्यों की त्यों उन्हें बात दीं.

रमा ने भाभी की कही बातें सुनीं तो उन के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने ही टीना का रिश्ता अपनी ससुराल के दूर के रिश्ते में तय करवाया था.

‘‘भाभी, तुम चिंता मत करो. मैं सुधा व नरेश से बात करूंगी,’’ रमा बोली.

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‘‘रमा, मुझे माफ कर दो. यह बात लोग सुनेंगे तो कहेंगे कि दामाद ने मेरी नासमझी को मेरे ही घर में सुबूत सहित सब को दिखा दिया. मेरे लिए तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.’’

‘‘भाभी, हिम्मत रखो. जिंदगी के रास्ते एकदम सीधे नहीं, टेढे़मेढ़े होते हैं. एक रुकावट आने से मंजिल नहीं छूटती, रास्ते का फेर बढ़ जाता है. टीना को तुम ने लापरवाह बनाया है तो सुधारना भी तुम्हें ही होगा.’’

‘‘मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. बस, टीना को इस बदनामी से बचा लो.’’

‘‘एक अच्छी पत्नी का अच्छी बहू होना जरूरी है. पति के दिल में उतरने का सब से सरल रास्ता उस के मातापिता की सेवा से बनता है. तुम उसे इस बार नरेश के पास नहीं सुधा के पास लखनऊ ले कर चलो. मैं भी वहीं पहुंच रही हूं.’’

नीता के पहुंचने से पहले रमा सुधा के पास पहुंच चुकी थी.

‘‘सुधा, टीना मक्कार नहीं भटकी हुई है. उसे रास्ता दिखाना तुम्हारा फर्ज बनता है. नीता के लाड़प्यार ने आज उसे इस स्थिति पर ला दिया है. यह दो जिंदगियों का सवाल है.’’

रमा के समझाने का सुधा पर अच्छा प्रभाव पड़ा. वह रमा का आग्रह न टाल सकी.

‘‘बहनजी, मैं वादा करती हूं कि आप के परिवार के बीच कभी कोई अड़चन नहीं डालूंगी,’’ नीता सिर झुका कर बोली, ‘‘यहां तक कि टीना से बात तक नहीं करूंगी. इसे जो कहना होगा अपने पापा से कहेगी, मुझ से नहीं. मैं टीना को आप की छत्रछाया में छोड़ कर जा रही हूं. हो सके तो इसे भी कुछ अच्छे संस्कार सिखा दीजिएगा.’’

‘‘यह टीना के जीवन का प्रश्न है और उसे पति व उस के परिवार के साथ खुद को एडजस्ट करना है. हम उस पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते,’’ सुधा बोली.

‘‘मम्मीजी, मुझे आप की हर शर्त मंजूर है. प्लीज, मुझे यहीं रहने दीजिए,’’ टीना बोली.

‘‘यह घर तुम्हारा ही था बेटी पर तुम ने इसे कभी अपना नहीं समझा. केवल पति तक सीमित हो कर रह गई थीं तुम्हारी भावनाएं. और भावनाएं शर्तों पर नहीं जगाई जा सकतीं.’’

‘‘भूल मुझ से हुई तो प्रायश्चित्त भी मैं ही करूंगी. 6 महीने आप के साथ रह कर अपने को एक अच्छी बहू साबित कर के दिखा दूंगी, मुझे एक मौका दीजिए.’’

सुधा ने नीता और टीना को माफ कर दिया. भारी मन से नीता ने टीना से विदा ली. चलते समय वह बेटी को नसीहत दे रही थी, ‘‘टीना, अपने व्यवहार से सब को खुश रखना. सासससुर की सेवा करना,’’ आगे वह कुछ न कह सकी. सही माने में सच्ची विदाई तो टीना की आज ही हुई थी, मां के आशीर्वाद के साथ.

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विदाई: भाग 3- पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

एक दिन नरेश ने टीना को बताया कि उस के आफिस का माहौल कुछ ठीक नहीं चल रहा है. यही हाल रहा तो एक दिन वापस घर जाना पडे़गा. यह सुन कर टीना अंदर ही अंदर कांप गई कि कैसे रहेगी वह सासससुर, ननददेवर के बीच. सुबह- शाम खाना बनाना और घर की देखभाल करना उस के बूते की बात न थी. अब भी वह कई बार 9 बजे सो कर उठती. नरेश कभी विरोध न करता. चुपचाप चाय पी कर आफिस चला जाता है. नरेश की कही बात टीना ने तुरंत अपनी मम्मी को बताई. ‘‘यह तो बड़ी बुरी खबर है टीना.’’

‘‘मम्मी, मैं तो नरेश के साथ दिल्ली आ जाऊंगी.’’

‘‘नरेश न माना तो…’’

‘‘इस के लिए आप कोई उपाय करो न मम्मी.’’

‘‘अच्छा, सोच कर बताती हूं,’’ कह कर नीता ने फोन रख दिया.

शाम को नरेश के आने से पहले  नीता ने टीना को फोन किया, ‘‘टीना, तुम्हारी बातों ने मुझे बड़ा विचलित किया है. ससुराल में कैसे रहोगी जीवन भर. मैं एक तांत्रिक को जानती हूं. उस के पास हर समस्या का उपाय है. वह हमारी समस्या चुटकियों में हल कर देंगे.’’

‘‘यह ठीक है मम्मी, कल सुबह बात करूंगी,’’ कह कर टीना आश्वस्त हो गई.

अगले दिन दोपहर को टीना के पास उस की मां का फोन आया,  ‘‘बेटी, घबराने की बात नहीं है. बाबा ने यकीन दिलाया है कि सब ठीक हो जाएगा. उन्होंने नरेश को पहनने के लिए एक अंगूठी दी है. मैं ने कूरियर से उसे तुम्हारे पास भेज दिया है. तुम उसे नरेश को जरूर पहना देना.’’

2 दिन में अंगूठी टीना के पास पहुंच गई. अगूंठी सोने की थी. टीना ने वह बड़े प्यार से नरेश की उंगली में पहना दी. नरेश ने प्रश्नवाचक दृष्टि से टीना को देखा.

‘‘मम्मी ने भेजी है तुम्हारे लिए.’’

‘‘मेरे पास तो अंगूठियां हैं.’’

‘‘यह स्पेशल है. बडे़ सिद्ध बाबा ने दी है. इस से तुम्हारे दफ्तर के सारे कष्ट दूर हो जाएंगे.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर नरेश ने बड़ी श्रद्धा से अंगूठी को आंखों से छुआ लिया. टीना आश्वस्त हो गई.

नरेश के साथ हुई पूरी बात टीना ने मम्मी को बताई. नीता बहुत खुश थी कि बाबा की अंगूठी वास्तव में चमत्कारी थी. वह बोली, ‘‘बेटी, तांत्रिक बाबा ने एक छोटा सा अनुष्ठान करवाने के लिए कहा है. तुम्हें 15 दिन के लिए मायके आना होगा. मैं ने सारा प्रबंध कर लिया है. तुम इस बारे में नरेश से बात करना. इस से उस का काम फिर से चल पड़ेगा.’’

शाम को टीना ने नरेश को मम्मी से हुई पूरी बात बता दी और उस से मायके जाने की अनुमति ले ली. नरेश स्वयं उसे दिल्ली छोड़ कर मुंबई आ गया.

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नीता का हर पत्ता सही पड़ रहा था. मांबेटी नियम से बाबा के पास जातीं और घंटों अनुष्ठान में लगी रहतीं. इन 12-13 दिनों में बाबा ने अनुष्ठान के नाम पर हजारों रुपए ठग लिए. आखिर वह दिन आ पहुंचा जिस का मांबेटी को इंतजार था.

तांत्रिक बोला, ‘‘बेटी को अनुष्ठान का पूरा लाभ चाहिए तो अंतिम आहुति उसी व्यक्ति से डलवानी होगी जिस के लिए यह अनुष्ठान किया जा रहा है. आप अपने दामाद को तुरंत बुला लीजिए. ध्यान रहे, इस अनुष्ठान की खबर किसी को नहीं होनी चाहिए.’’

नीता और टीना ने एकदूसरे को देखा और घर की ओर चल पड़ीं. टीना ने खामोशी तोड़ी, ‘‘मम्मी, अब क्या होगा?’’

‘‘होना क्या है, अनुष्ठान के कारण नरेश का मन पहले ही काफी बदल गया है. तुम ने देखा है, वह तुम्हारी किसी बात का विरोध नहीं करता. मुझे यकीन है, वह तुम्हारी यह बात तुरंत मान लेगा. तुम फोन करो तो सही.’’

बाबा का ध्यान कर के टीना ने नरेश को फोन मिलाया.

‘‘कैसी हो टीना, कब आ रही हो?’’

‘‘जब तुम लेने आ जाओ.’’

‘‘तब ठीक है, आज ही चल देता हूं तुम से मिलने.’’

‘‘आज नहीं 2 दिन बाद.’’

‘‘कोई खास बात है क्या?’’

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‘‘यही समझ लो. मैं जिस काम के लिए मायके आई थी वह 2 दिन बाद खत्म हो जाएगा और उस में तुम्हारा आना जरूरी है. आओेगे न?’’

‘‘जैसी तुम्हारी आज्ञा, हम तो हुजूर के गुलाम हैं.’’

‘‘पर एक शर्त है कि यह बात तुम्हारे और मेरे सिवा किसी को मालूम नहीं चलनी चाहिए वरना अनुष्ठान का प्रभाव खत्म हो जाएगा.’’

‘‘मेरे तुम्हारे अलावा मम्मीजी भी तो यह बात जानती हैं.’’

‘‘मम्मी हम दोनोें से अलग थोड़े ही हैं. सच पूछो तो हमारी भलाई उन के अलावा कोई सोच ही नहीं सकता.’’

‘‘इस अनुष्ठान से तुम्हें यकीन है कि हम सुखी हो जाएंगे?’’

‘‘100 प्रतिशत. मम्मी ने हमारी खुशी के लिए क्या कुछ नहीं किया? दिनरात एक कर के ऐसे सिद्ध बाबा से अनुष्ठान करवाया है. तुम आ रहे हो न.’’

‘‘टीना, मैं ठीक समय पर घर पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘अरे, बाबा घर नहीं, तुम्हारे लिए मम्मी होटल में कमरा बुक करा देंगी.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘बहुत भोले हो तुम. घर पर पापा भी तो हैं. उन्हें तुम्हारे आने से सबकुछ पता चला जाएगा जबकि यह बात सब से छिपा कर रखनी है.’’

‘‘ओह, आई एम सौरी,’’ कह कर नरेश ने फोन रख दिया.

टीना ने जैसे समझाया था उसी तरह अंतिम आहुति देने के लिए नरेश दिल्ली पहुंच गया. टीना उस के स्वागत में एअरपोर्ट पर खड़ी थी. वह नरेश को ले कर सीधा होटल आ गई और नरेश से लिपट कर बोली, ‘‘ये 15 दिन मुझे कितने लंबे महसूस हुए जानते हो?’’

‘‘तुम्हें ही क्यों मुझे भी तो ऐसा ही एहसास हुआ पर मजबूरी थी. तुम्हारी खुशी जो इसी में थी.’’

‘‘मेरी नहीं हमारी. आज के बाद हमारी सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी.’’

‘‘चलो, कहां चलना है?’’

‘‘बाबा के शिविर में.’’

‘‘यह बाबा का शिविर कहां पर है?’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चल रही हूं. तुम्हें खुद ब खुद पता चल जाएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर नरेश चलने को तैयार हुआ. दरवाजे पर आ कर वह टीना से बोला, ‘‘डार्लिंग, मैं अपना पर्स तो अंदर ही भूल गया. तुम नीचे चलो मैं उसे लेकर आता हूं.’’

टीना होटल के मुख्य गेट पर आ गई. पापा की गाड़ी उस के पास थी. नरेश आ कर गाड़ी में बैठ गया. उधर नीता बाबा की विदाई की तैयारी में व्यस्त थी. अंतिम आहुति के साथ उसे बाबा को वस्त्र, धन और फलफूल देने थे. नीता ने कपड़े तो पहले ही खरीद लिए थे. ताजे फल खरीदने के लिए वह फल की दुकान पर खड़ी थी. टीना ने गाड़ी एक किनारे पार्क की और मम्मी की ओर बढ़ गई. फल खरीद कर टीना व नीता ज्यों ही दुकान से बाहर निकले सामने पापा के साथ नरेश के मम्मीपापा को देख कर वे दंग रह गईं.

नीता को काटो तो खून नहीं. वह अचकचा कर बोली, ‘‘आप यहां?’’

‘‘हम लोगों का यहां आना आप को अच्छा नहीं लगा?’’

‘‘नहींनहीं ऐसी बात नहीं है. असल में एक जरूरी काम से हमें जाना है. आप घर चलिए.’’

‘‘टीना, मेरी मम्मी को जरूरी काम नहीं बताओगी?’’

टीना चुप रही तो नरेश ही बोला, ‘‘मैं बताता हूं पूरी बात. मम्मीजी, बेटी के मोह में अंधी हो कर क्या कर रही हैं यह इन को खुद नहीं पता.’’

‘‘नरेश…’’ टीना चीखी.

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‘‘मर गया तुम्हारा नरेश. तुम लोगों की पोल यहीं खोल दूं या तुम्हारे घर जा कर सबकुछ बताऊं?’’

‘‘यह क्या कह रहे हो नरेश तुम. क्या हुआ बेटा?’’ टीना के पापा ने पूछा.

‘‘यह आप अपनी पत्नी और बेटी से पूछिए भाई साहब, जो रातदिन मेरे घर को बरबाद करने की साजिश रचते रहे,’’ सुधा बोली.

‘‘बहनजी, मेरी इज्जत का कुछ तो लिहाज कीजिए. घर चल कर बात करते हैं,’’ टीना के पापा हाथ जोड़ कर बोले.

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विदाई: भाग 2- पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

शादी के बाद पहली होली पर नरेश ने टीना से घर चलने का आग्रह किया तो वह तुनक गई.

‘‘होली का त्योहार मुझे अच्छा नहीं लगता. रंगों से मुझे एलर्जी होती है.’’

‘‘बड़ों की भावनाओं का सम्मान करना जरूरी होता है टीना, मेरी खातिर तुम लखनऊ चलो न, वहां सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’ नरेश दुविधा में था कि क्या करे, क्योंकि टीना ससुराल जाने के लिए तैयार न थी. तभी नरेश के दिमाग में एक आइडिया आया और वह बोला, ‘‘टीना, चलो दिल्ली चलते हैं.’’ दिल्ली का नाम सुनते ही टीना तैयार हो गई.

होली से 2 दिन पहले वे दिल्ली पहुंच गए. नीता बेटीदामाद को देख कर फू ली न समाई. बेटी को होली पर मायके देख कर टीना के पापा पहली बार बोले, ‘‘टीना, इस समय तुम्हें मायके के बजाय अपनी ससुराल में होना चाहिए था. यह तुम्हारी ससुराल की पहली होली है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है? टीना यहां रहे या ससुराल में.’’

‘‘फर्क हमें नहीं हमारे समधीजी को पड़ेगा, जिन का बेटा होली के दिन अपनी ससुराल में पत्नी के साथ…’’

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हें कुछ पता है रिश्तेनातों के बारे में. मैं न होती तो…’’

‘‘आप दोनों हमें ले कर आपस में क्यों उलझ रहे हैं. टीना यहां रह लेगी और चूंकि मेरा यहां रुकना ठीक नहीं है इसलिए मैं लखनऊ चला जाता हूं.’’

टीना के सामने अब कोई रास्ता न था. मजबूर हो कर उसे भी नरेश के साथ लखनऊ आना पड़ा. होली पर गुलाल के रंग टीना के सुंदर चेहरे पर बहुत फब रहे थे पर खुशी का असली रंग उस के चेहरे से नदारद था.

सुधा से बहू की उदासी और उकताहट छिपी न थी. वह सबकुछ देख कर भी चुप थी. इस अवसर पर उसे कोई नसीहत देना उस के दुख को क्रोध में बदलना था. बस, एक बार सुधा ने कहा, ‘‘टीना, कितना अच्छा लगता है जब तुम और नरेश यहां होते हो.’’

सुधा की बात सुन कर टीना चुप रही. रात को नरेश ने पूछा, ‘‘टीना, तुम्हारा मन कुछ दिन ससुराल में रहने को हो तो मैं अपनी छुट्टी आगे बढ़ा लेता हूं.’’

सुधा के शब्दों की खीज वह नरेश पर उतारते हुए बोली, ‘‘3 दिन में आप का मन नहीं भरा अपने लोगों के साथ रह कर.’’

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‘‘अपनापन तो मन में होता है, टीना. मुझे तो तुम से जुड़े सभी लोग अपने लगते हैं.’’

‘‘मुझे तुम्हारी फिलोसफी नहीं सुननी, और यहां रुकना मेरे बस की बात नहीं.’’

टीना का दो टूक जवाब सुन कर भी नरेश हंस दिया और बोला, ‘‘सौरी डार्लिंग, हम कल सुबह ही यहां से चल पड़ेंगे.’’

मुंबई वापस लौट कर टीना ने राहत की सांस ली और ससुराल में घटी सब बातोें की जानकारी अपनी मम्मी को दे दी.

अकसर टीना और नरेश शाम को घर से बाहर ही खाना खाते क्योंकि टीना को खाना पकाना नहीं आता था और वह सीखने का प्रयास भी नहीं करती. कभी वह जिद कर के टीना से कुछ बनाने को कहता तो गैस के चूल्हे जलने के साथ टीना का मोबाइल कान से लग जाता.

हां, मम्मी, बताओ कढ़ी बनाने के लिए सब से पहले क्या करना है? इस तरह मम्मी से पूरी रेसिपी सुन कर जितना फोन का बिल बढ़ता उस से कम पैसे में होटल से लजीज खाना मंगाया जा सकता था. सो नरेश ने फरमाइश करनी ही छोड़ दी.

इधर नरेश ने महसूस किया कि टीना उस से उलझने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ती रहती है. कल की ही बात है, टीना को शोरूम में एक घड़ी बहुत पसंद आई. उस ने नरेश से घड़ी लेने का आग्रह किया, ‘‘नरेश देखो, कितनी सुंदर घड़ी है.’’

‘‘टीना, तुम्हारे पास पहले ही कई घडि़या हैं. उन में से कुछ तो तुम ने आज तक पहनी भी नहीं हैं और घड़ी ले कर क्या करोगी?’’

‘‘वे घडि़यां मुझे पसंद नहीं. मुझे तो यही चाहिए,’’ टीना जिद करते हुए  बोली.

इतनी देर में नरेश काउंटर से हट कर अलग खड़ा हो गया. टीना नरेश की ओर बढ़ी तो वह दुकान से बाहर आ गया. गुस्से से भरी टीना, नरेश के साथ घर तो आ गई पर घर में घुसते ही वह फट पड़ी, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, दुकान में मेरी बेइज्जती करने की.’’

‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा न था. मैं तो बस, दुकान में उपहास का पात्र नहीं बनना चाहता था.’’

‘‘आज तक मेरी मम्मी ने कभी मेरी किसी इच्छा से इनकार नहीं किया. मैं जैसे चाहूं रहूं, खाऊंपीऊं, खरीदारी करूं या घूमू फिरूं.’’

‘‘मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता था. टीना, प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरी जेब में उस वक्त उतने रुपए नहीं थे.’’

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‘‘के्रडिट कार्ड तो था. पहली बार मैं ने तुम्हारे सामने अपनी इच्छा रखी और तुम ने मेरी बेइज्जती की.’’

‘‘मुझे माफ कर दो प्लीज.’’

‘‘तुम्हारा मेरे प्रति यही नजरिया रहा तो देख लेना मैं यहीं इसी घर में आत्महत्या कर लूंगी.’’

‘‘आत्महत्या तुम्हें नहीं मुझे करनी चाहिए जिस ने अपनी इतनी प्यारी पत्नी का दिल दुखाया. चलो, मैं अभी तुम्हारे लिए घड़ी ले आता हूं.’’

‘‘अब मुझे घड़ी नहीं चाहिए, जिस चीज के लिए एक बार ना हो जाए उसे मैं कभी हाथ नहीं लगाती,’’ कहते हुए टीना मुंह फुला कर सो गई. उस ने खाना भी नहीं खाया तो नरेश को भी भूखा सोना पड़ा.

अगले दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने मम्मी को कल की पूरी घटना सुना दी. सुन कर नीता को बड़ा गुस्सा आया और वह बोलीं, ‘‘यह तो नरेश ने अच्छा नहीं किया टीना, उस की हिम्मत तो देखो कि अपनी पत्नी की छोटी सी इच्छा पूरी न कर सका.’’

‘‘मुझे इस बात का बड़ा दुख हुआ मम्मी.’’

‘‘ऐसे मौकों पर तुम कमजोर न पड़ना. आखिर वह इतनी तनख्वाह का करता क्या है? कहीं सारे रुपए घर तो नहीं भेज देता?’’

‘‘मैं ने कभी पूछा नहीं मम्मी.’’

‘‘नरेश की हर हरकत पर नजर रखना. तुम अभी कमजोर पड़ गईं तो फिर कभी पति पर राज नहीं कर सकोगी.’’

मम्मी के कहे अनुसार टीना ने नरेश की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू कर दी पर ऐसा कुछ हाथ न लगा जिसे ले कर नरेश पर हावी हुआ जा सके.

टीना ने महसूस किया कि नरेश कुछ दिनों से खोयाखोया सा रहता है. पत्नी की इच्छा के खिलाफ उस ने कभी मांबाप से मिलने की इच्छा जाहिर नहीं की. उसे यकीन था उस का प्यार और धैर्य एक दिन टीना को बदल देगा. लेकिन एक साल गुजर गया पर टीना के व्यवहार में कोई फर्क न था. अपनी सास से वह नरेश के अनुरोध पर 10-15 दिनों में एकआध मिनट के लिए बात कर लेती. हां, अपनी मम्मी से सुबहशाम नियम से बात करना वह कभी न भूलती.

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विदाई: भाग 1- पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

विदाई की रस्म पूरी हो रही थी. नीता का रोरो कर बुरा हाल था. आंसुओं की झड़ी के बीच वह बारबार नजरें उठा कर बेटी को देखती तो उस का कलेजा मुंह को आ जाता.

सारी औपचारिकताएं खत्म हो चुकी थीं. टीना धीरेधीरे गाड़ी की ओर बढ़ रही थी. बड़ी बूआ भीगी पलकों के साथ ढेर सारी नसीहतें दे रही थीं, ‘‘टीना, अब तेरे लिए ससुराल ही तेरा अपना घर है. वहां सब का खयाल रखना. सासससुर की सेवा करना…’’ कहतेकहते उन की रुलाई फूट पड़ी.

नीता बड़ी मुश्किल से इतना भर कह पाई, ‘‘अपना खयाल रखना टीना,’’ आगे मां की जबान साथ न दे पाई और वह बड़ी जीजी के कंधे का सहारा ले कर जोरजोर से रोने लगीं.

टीना और नरेश गाड़ी में बैठ गए. दुलहन के लिबास में लिपटी टीना की हालत पर नरेश भावुक हो उठा. उस ने धीरे से टीना का हाथ पकड़ कर उसे ढांढस बंधाने का प्रयास किया. पति का स्पर्श पा कर टीना को कुछ राहत मिली, वरना उसे लग रहा था कि उस के सारे परिचित पीछे छूट गए हैं.

1 घंटे में टीना अपनी ससुराल की दहलीज पर खड़ी थी. नरेश का परिवार उस के लिए अपरिचित न था. दूर की रिश्तेदारी के कारण अकसर उन की मुलाकातें हो जाया करती थीं. ऐसे ही एक विवाह समारोह में नरेश की मां सुधा ने टीना को देखा था. उस का चुलबुलापन उन्हें बहुत अच्छा लगा. बिना समय गंवाए उन्होंने बात चलाई और 6 महीने के अंदर टीना उन की बहू बन कर उन के घर आ गई.

2 दिन तक विवाह की रम्में पूरी होती रहीं. तीसरे दिन नरेश व टीना हनीमून के लिए शिमला आ गए. दोनों बहुत खुश थे. नरेश के प्यार में खो कर टीना, मम्मी से बिछुड़ने का गम भूल  सी गई.

हनीमून के 2 दिन बहुत ही सुखद बीते. तीसरे दिन टीना को सर्दीबुखार ने घेर लिया. नरेश चिंतित था, ‘‘टीना, तुम आराम करो, लगता है यहां के मौसम में आए बदलाव के चलते तुम्हें सर्दी लग गई है.’’

‘‘मेरा बदन बहुत दुख रहा है नरेश.’’

‘‘तुम चिंता न करो, मैं डाक्टर को ले कर आता हूं.’’

‘‘डाक्टर की जरूरत नहीं है. एंटी कोल्ड दवाई से ही बुखार ठीक हो जाएगा, क्योंकि जब मुझे सर्दीबुखार होता था तो मम्मी मुझे यही दिया करती थीं.’’

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‘‘मम्मी की बहुत याद आ रही है,’’ टीना को बांहों में भर कर नरेश बोला तो उस ने सिर हिला दिया.

‘‘तो इस में कीमती आंसू बहाने की क्या जरूरत है. अभी मम्मी से बात कर लो,’’ टीना की ओर मोबाइल बढ़ाते हुए नरेश बोला.

‘‘मुझे मम्मी से ढेर सारी बातें करनी हैं, अभी घर पर बहुत सारे मेहमान होंगे.’’

‘‘पगली, बाकी बातें बाद में कर लेना, अभी तो अपना हालचाल बता दो उन्हें.’’

‘‘प्लीज, उन्हें मेरी तबीयत के बारे में कुछ न बताना, वरना वे मुझे देखने यहीं आ जाएंगी. मैं मम्मी को जानती हूं,’’ टीना चहक कर बोली.

मम्मी के बारे में बात कर वह अपना दुखदर्द भूल गई. नरेश ने महसूस किया कि टीना सब से ज्यादा खुश मम्मी की बातों से होती है. अब टीना का दिल बहलाने के लिए वह बहुत देर तक मम्मी के बारे में बात करता रहा.

हनीमून के दौरान पूरे 7 दिनों में टीना ने एक बार भी अपनी ससुराल के बारे में कुछ नहीं पूछा. वह बस, अपनी मम्मी की और सहेलियों की बातें करती रही. हनीमून से वापस लौटते हुए टीना बोली, ‘‘नरेश, मुझे लखनऊ कितने दिन रुकना होगा.’’

‘‘तुम यह सब क्यों पूछ रही हो? अभी हमारी शादी को 8-10 दिन ही हुए हैं. जिस में हम घर पर 3 दिन ही रहे हैं. कम से कम 2 हफ्ते तो रुक ही जाना.’’

‘‘2 हफ्ते तक घर में बहू बन कर रहना मेरे बस की बात नहीं है.’’

‘‘मेरी मम्मी तुम्हें बहू नहीं बेटी की तरह रखेंगी. तुम खुद देख लेना. बहुत अच्छी मां हैं वह.’’

‘‘तुम्हारी बहन को देख कर मुझे अंदाजा लग गया है कि वह बेटी को किस तरह रखती हैं,’’ मुंह बना कर टीना बोली.

‘‘हम यहां से चल कर 2 दिन लखनऊ रुकेंगे. उस के बाद दिल्ली चलेंगे तुम्हारे मम्मीपापा के पास. वहां से जब तुम चाहोगी तब ही वापस आएंगे,’’ न चाहते हुए भी मजबूरी में टीना ने नरेश की यह बात मान ली.

लखनऊ में नरेश के परिवार वालों ने टीना की खूब खातिरदारी की. नरेश को लगा वह टीना को कुछ दिन और यहां रोक लेगा पर दूसरे दिन ही टीना ने अपने मन की बात कह डाली.

‘‘नरेश, हम कल दिल्ली चल रहे हैं न. मैं ने मम्मी को फोन से बता दिया है,’’ टीना बोली तो नरेश चुप हो गया. उस ने यह बात अभी तक अपने मम्मीपापा से नहीं कही थी. वह तुरंत पानी पीने के बहाने वहां से हट कर किचन में आ गया और धीरे से मम्मी से बोला, ‘‘मम्मी, टीना कल अपने मायके जाना चाहती है. आप की इजाजत हो तो…’’

‘‘ठीक ही तो कह रही है बहू. इतने दिन हो गए हैं उसे ससुराल आए हुए. इकलौती बेटी है वह अपने मां बाप की. घर की याद आनी तो स्वाभाविक है बेटा,’’ बेटे की दुविधा दूर करते हुए सुधा बोलीं.

कमरे में नरेश पहुंचा तो टीना बोली, ‘‘आप मेरी बात अधूरी छोड़ कर कहां चले गए थे?’’

‘‘पानी पीने चला गया था. तुम पैकिंग में व्यस्त थीं सो मैं खुद ही चला गया किचन तक.’’

‘‘कल का प्रोग्राम पक्का है न?’’

‘‘बिलकुल पक्का,’’ नरेश चहक कर बोला तो टीना ने राहत की सांस ली.

मायके पहुंच कर टीना मम्मी से लिपट कर खूब रोई. नीता, टीना को बड़ी देर तक सहलाती रही.

‘‘कितनी दुबली हो गई हैं मम्मी आप,’’ टीना बोली.

नरेश, मांबेटी को छोड़ कर अपने ससुर के पास आ गया.

‘‘पापा, बेटी के बिना घर खालीखाली लग रहा होगा आप को.’’

‘‘बेटी का असली घर तो उस की ससुराल ही होता है बेटा, यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए. टीना अपनी मां के लाड़प्यार के कारण थोड़ी लापरवाह है. उस की नादानियों को नजरअंदाज कर दिया करना.’’

‘‘आप चिंता न करें पापाजी, धीरेधीरे टीना मेरे परिवार के साथ घुलमिल जाएगी.’’

एक ही दिन में नरेश समझ गया कि इस घर में टीना के पापा की उपस्थिति केवल नाम लेने भर की है. घर में सारे फैसले नीता के कहे अनुसार ही होते हैं.

एक हफ्ता बीत गया. टीना का मन लखनऊ जाने का न था, वह तो नरेश के साथ सीधे मुंबई जाना चाहती थी पर नरेश से कहने का वह साहस न जुटा सकी.

बेटी को विदा करते हुए नीता ने ढेरों हिदायतें दे डालीं. नरेश साथ खड़ा सबकुछ सुन रहा था पर बोला कुछ नहीं. उसे ताज्जुब हो रहा था कि उस की सास ने एक बार भी टीना को अपने सासससुर की सेवा से संबंधित नसीहत न दी. चलते वक्त वह नरेश से बोलीं, ‘‘बेटा, टीना का खयाल रखना, मैं ने जिंदगी की अमानत तुम्हें सौंप दी है.’’

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शादी के 3 हफ्तों में ही नरेश को सबकुछ समझ में आने लगा था कि मम्मी के लाड़प्यार के कारण टीना की परवरिश एक आम लड़की की तरह नहीं हुई थी. घूमनाफिरना, मौजमस्ती करना और गप्पबाजी उस के खास शौक थे. घर के किसी काम में उस की रुचि न थी. सामान्य शिष्टाचार में उस का विश्वास न था.

छुट्टियां खत्म हुईं तो नरेश के साथ टीना भी मुंबई आ गई.

नरेश, टीना से जितना सामंजस्य बिठाता, टीना अपनी हद आगे सरका देती.

टीना की गुडमार्निंग मम्मी को फोन से होती, और फिर तो बातों में टीना यह भी भूल जाती कि उस के पति को दफ्तर जाना है, महीने का टेलीफोन का बिल हजारों में आया तो नरेश बोला, ‘‘टीना, मेरी आमदनी इतनी नहीं है कि मैं 5 हजार रुपए महीना टेलीफोन के बिल पर खर्च कर सकूं. हमें अपनी जरूरतें सीमित करनी होंगी.’’

‘‘नरेश, आप के पास रुपए की कमी है तो मैं मम्मी से मांग लेती हूं. मेरे एक फोन पर वह तुरंत रुपए आप के खाते में ट्रांसफर करवा देंगी.’’

‘‘शादी के बाद बेटी को मां पर नहीं पति पर आश्रित रहना चाहिए.’’

‘‘मैं अपनी मम्मीपापा की इकलौती संतान हूं,’’ टीना बोली, ‘‘उन का सबकुछ मेरा ही तो है. पता नहीं किस जमाने की बात कर रहे हो तुम.’’

‘‘छोटीछोटी चीजों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना ठीक नहीं होता.’’

‘‘मम्मी, दूसरी नहीं मेरी अपनी हैं.’’

‘‘यही बातें तुम्हें मेरे लिए भी सोचनी चाहिए. मेरे मांबाप का मुझ पर कुछ हक है और हमारा उन के प्रति कुछ फर्ज भी है,’’ पहली बार अपने परिवार की पैरवी की नरेश ने.

दूसरे दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने सारी बातें अपनी मम्मी को बताईं तो वह बोलीं, ‘‘ठीक किया तू ने टीना. तुम्हारी ससुराल में जरा सी भी दिलचस्पी नरेश को उन की ओर मोड़ देगी. तुम्हें अपना भला देखना है कि ससुराल का.’’

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उसका अंदाज: भाग 1- क्या थी नेहल की कहानी

फोन की घंटी सुनते ही नेहल ने फोन कान से लगाया था, ‘‘हैलो.’’

‘‘कहिए, ‘थ्री इडियट्स’ फिल्म कैसी लगी? फिल्म पुरानी हो गई है, पर आप का उस के प्रति आकर्षण खत्म नहीं हुआ. कितनी बार देख चुकी हैं?’’ हलकी हंसी के साथ दूसरी ओर से आवाज आई थी.

‘‘हैलो, आप कौन?’’ नेहल को आवाज अपरिचित लगी थी.

‘‘समझ लीजिए एक इडियट ही पूछ रहा है,’’ फिर वही हंसी.

‘‘देखिए, या तो अपना नाम बताइए वरना इस दुनिया में इडियट्स की कमी नहीं है, उन में से आप को पहचान पाना कैसे संभव होगा. मैं फोन रखती हूं.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा गजब मत कीजिएगा. वैसे मेरे सवाल का जवाब नहीं मिला.’’

‘‘तुम्हारे सवाल का जवाब देने को मेरे पास फालतू टाइम नहीं है, इडियट कहीं का.’’

नेहल फोन पटकने ही वाली थी कि उधर से आवाज आई, ‘‘सौरी, गलती कर रही हैं, जीनियस इडियट कहिए. देखिए, किस आसानी से आप का मोबाइल नंबर मालूम कर लिया.’’

‘‘इस में कौन सी खास बात है, तुम जैसे बेकार लड़कों का काम ही क्या होता है. दोस्तों पर रोब जमाने के लिए लड़कियों के नामपते जान कर उन्हें फोन कर के परेशान करते हो. पर एक बात जान लो, अगर फिर फोन किया तो पुलिस ऐक्शन लेगी, सारी मस्ती धरी रह जाएगी,’’ गुस्से से नेहल ने फोन लगभग पटक सा दिया.

एमए फाइनल की छात्रा, नेहल सौंदर्य और मेधा दोनों की धनी थी. ऐसा नहीं कि उसे देख लड़कों ने फब्तियां न कसी हों या उस के घर तक उस का पीछा न किया हो, पर नेहल की गंभीरता का कवच उन्हें आगे बढ़ने से रोक देता. उसे पाने और उस के साथ समय बिताने की आकांक्षा लिए न जाने कितने युवक आहें भरते थे. लेकिन आज तक किसी ने उसे इस तरह का फोन नहीं किया था.

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मांबाप की इकलौती लाड़ली बेटी नेहल, अपने मन की बातें बस अपनी प्रिय सहेली पूजा के साथ ही शेयर करती थी. आज भी तमतमाए चेहरे के साथ जब वह यूनिवर्सिटी पहुंची तो पूजा देखते ही समझ गई कि नेहल का पारा हाई है. उस ने हंसते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है नेहल, आज तेरा गुलाबी चेहरा तमतमा क्यों रहा है?’’

‘‘मैं उसे ठीक कर दूंगी. अपने को हीरो समझता है. कहता है वह ‘जीनियस इडियट’ है. सामने आ जाए तो दिमाग ठिकाने न लगा दूं तो मेरा नाम नेहल नहीं.’’

‘‘किस की बात कर रही है, किसे ठीक करेगी?’’ पूजा कुछ समझी नहीं थी.

‘‘था कोई, नाम बताने के लिए हिम्मत चाहिए. न जाने उसे कैसे पता लग गया, हम ‘थ्री इडियट्स’ देखने गए थे. पूछ रहा था, फिल्म हमें कैसी लगी.’’

‘‘बस, इतनी सी बात पर इतना गुस्सा? अरे, बता देती तुझे फिल्म अच्छी लगी. रही बात उसे कैसे पता लगा, तो भई होगा कोई तेरा चाहने वाला. तुझे पिक्चर हौल में देखा होगा. इतना गुस्सा तेरी सेहत के लिए अच्छा नहीं, मेरी सखी. काश, कोई मुझे भी फोन करता, पर क्या करें कुदरत ने सारी सुंदरता तुझे ही दे डाली,’’ पूजा के चेहरे पर शरारतभरी मुसकराहट थी.

‘‘अच्छी बात है, अगली बार कोई फोन आया तो तेरा नंबर दे दूंगी. अब क्लास में चलना है या आज भी कौफी के लिए क्लास बंक करेगी?’’

‘‘मेरा ऐसा समय कहां, तू भला उस नेक काम में साथ देगी, नेहल? फिर उसी बोरिंग लैक्चर को सहन करना होगा. यार, यह हिस्ट्री सब्जैक्ट क्यों लिया हम ने. रोज गड़े मुर्दे उखाड़ते रहो.’’

पूजा के चेहरे के भाव देख नेहल हंस पड़ी.

‘‘तेरी सोच ही गलत है, पूजा. अगर रुचि ले तो इस विषय में न जाने कितना रोमांच और थ्रिल है. चल, वरना हम लेट हो जाएंगे.’’

बेमन से पूजा नेहल के साथ चल दी.

रात में मोबाइल की घंटी ने नेहल की नींद तोड़ दी. दिल में घबराहट सी हुई, कहीं  घर से तो फोन नहीं आया है. जब से नेहल पढ़ने के लिए इस शहर में आई थी, उस का मन घर के लिए चिंतित रहता था. शुरूशुरू में होस्टल में रहना उसे अच्छा नहीं लगा था. पूजा से मित्रता के बाद उसे घर की उतनी याद नहीं आती थी.

‘‘हैलो.’’

‘‘जरा अपनी खिड़की का परदा उठा कर देखिए, मान जाएंगी क्या नजारा है. प्लीज इसे मिस मत कीजिए, मेरी रिक्वैस्ट है,’’ फिर वही परिचित आवाज.

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‘‘दिमाग खराब है क्या मेरा जो रात के 2 बजे बाहर का नजारा देखूं? रात में जागना तुम जैसे उल्लू के लिए ही संभव है. लगता है तुम अपनी हरकतों से बाज नहीं आओगे, अब कोई ऐक्शन लेना ही होगा.’’

फोन तो नेहल ने बंद कर दिया, पर सोच में पड़ गई, आखिर वह उसे ऐसा क्या दिखाना चाहता है जिस के लिए आधी रात को उसे जगाया है. बिस्तर से सिर उठा कर जाली वाले झीने परदे से बाहर के नजारे को देखने का लोभ, वह संवरण नहीं कर सकी. बाहर पूर्णिमा का चांद अपने पूरे वैभव में साकार था. सारे पेड़पौधे चांदनी में नहाए खड़े थे. नेहल मुग्ध हो उठी. बिस्तर से उठ खिड़की के पास आ खड़ी हुई. उस के अंतर की कवयित्री जाग उठी. कविता की कुछ पंक्तियां मन में आई ही थीं कि मोबाइल फिर बजा.

‘‘मान गईं, क्या तिलिस्मी नजारा है. जरूर कोई कविता लिख डालेंगी, पर उस का क्रैडिट तो मुझे मिलेगा न?’’ फिर वही हंसी.

‘‘अब तक कितनों की नींद खराब कर चुके हो? तुम्हारा नंबर मेरे मोबाइल पर आ गया है, अब अपनी खैर मनाओ.’’

‘‘कमाल करती हैं, मैं ने बताया है न मैं जीनियस हूं. अगर मुझे पकड़ सकीं तो जो सजा देंगी, मंजूर है. वैसे कल आसमानी सलवारसूट में आप का चेहरा देख कर ऐसा लगा, नीले आकाश में चांद चमक रहा है. बाई द वे, आप का पसंदीदा रंग कौन सा है? नहीं बताएंगी तो भी मैं पता कर लूंगा. इतनी देर बरदाश्त करने के लिए थैंक्स ऐंड गुडनाइट.’’

फोन काट दिया गया.

बिस्तर पर लेटी नेहल की आंखों से नींद उड़ गई. उस से ऐसी गलती कैसे हो गई, किसी अजनबी के फोन को तुरंत काट क्यों नहीं दिया, क्यों उस की बातें सुनती रही, जवाब देती रही. वह उस के कपड़ों को भी नोटिस करता है. जरूर उस के होस्टल के आसपास रहने वाला कोई आवारा है. कल उस के नंबर से पता करना होगा. काफी देर बाद ही वह सो सकी. सुबहसुबह मां के फोन से नींद टूटी थी.

‘‘क्या हुआ, मां, घर में सब ठीक तो हैं?’’ नेहल डर गई थी.

‘‘सब ठीक हैं, तुझ से एक जरूरी बात करनी थी. देख, कुछ दिनों में एक इंद्रनील नाम का लड़का तुझ से मिलने आएगा. तू उस से अच्छी तरह से बात करेगी. उस के बारे में जो जानना चाहे, पूछ लेना. अपना रोब जमाने की कोशिश मत करना.’’

‘‘क्यों मां, क्या मैं किसी से ठीक से बात नहीं करती? वैसे वह मुझ से मिलने क्यों आ रहा है, कहीं तुम ने फिर मेरी शादी का सपना देखना तो शुरू नहीं कर दिया? मुझे अभी शादी नहीं करनी है.’’

‘‘बस नेहल, बहुत हो गया. तू ने कहा था, पढ़ाई पूरी करने के बाद शादी करेगी. तेरा एमए फाइनल 2 महीने बाद पूरा हो जाएगा. अब अगर तू ने मेरी बात नहीं मानी तो मैं तुझ से कभी बात नहीं करूंगी.’’

‘‘ठीक है मां, पर इंद्रनील हैं क्या चीज?’’

‘‘अरे, वह तो हीरा है. ऐसा प्यारा लड़का कि क्या बताऊं. हम से ऐसे मिला मानो बरसों से परिचित है. सब को हंसाना ही जानता है. आस्ट्रेलिया की एक बड़ी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी पर जा रहा है. जाने से पहले उस की मां उस की शादी कर देना चाहती हैं. जब तू उस से मिलेगी तब मेरी बातों की सचाई जान सकेगी, बेटी.’’

‘‘इस का मतलब है कि उस की मां को डर है कहीं वह आस्ट्रेलियन बहू न ले आए.’’

‘‘फिर तू ने अपनी बकवास शुरू कर दी. बस, इतना जान ले अगर तू ने मेरा कहा नहीं माना तो मैं भी तेरी कोई बात नहीं सुनूंगी,’’ इस बार मां का स्वर तीखा था.

‘‘ओके मां, मैं तुम्हारे इंद्रनीलजी से जरूर मिल लूंगी और कोई गलती भी नहीं करूंगी. अब तो खुश? हां, इतने लंबे नाम की जगह उसे कोई छोटा नाम नहीं मिला?’’

‘‘शादी के बाद तू उसे चाहे जिस नाम से पुकार, मुझे कोई लेनादेना नहीं है. अब तेरे कालेज का टाइम हो रहा है, बस, मेरी बातें याद रखना.’’

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‘‘भला तुम्हारी बातें कभी भूली हूं मां, बाबा को प्रणाम कहना,’’ फोन रख, नेहल तैयार होने बाथरूम में घुस गई. कौन है यह इंद्रनील जिस ने मां को इस तरह मोह लिया है. वैसे उस को शादी की कोई जल्दी नहीं है, पर मां की बातों ने उस के मन में उत्सुकता जगा दी, जरा देखें तो कौन हैं यह इंद्रनील. पूजा से बातें करने का निर्णय ले नेहल चल दी. मां के फोन की वजह से वह पूजा से कैंटीन में भी नहीं मिल सकी थी. पूजा नेहल का इंतजार कर रही थी.

आगे पढ़ें- नेहल ने पूजा को छेड़ा….

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