Holi Special: Strawberry से बनाएं टेस्टी पुडिंग

लाल रंग की दिल के आकार वाली स्ट्रॉबेरी दिखने में जितनी अच्छी लगती है खाने में भी उतनी ही स्वादिष्ट होती है. स्ट्रॉबेरी एक लो केलोरी फल है जिसमें पानी, एंटीओक्सीट्स कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, केल्शियम, मैग्नीशियम, फायबर और विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. यह वजन घटाने, प्रतिरक्षा तन्त्र को मजबूत करने के साथ साथ बालों, त्वचा और दिल को स्वस्थ रखने में भी सहायक है. इसे सलाद, जैम, आइसक्रीम और पुडिंग आदि के रूप में बड़ी आसानी से भोजन में शामिल किया जा सकता है. आज हम आपको स्ट्राबेरी से पुडिंग बनाना बता रहे हैं-

कितने लोगों के लिए                        4

बनने में लगने वाला समय                    30 मिनट

मील टाइप                                  वेज

सामग्री

ताज़ी स्ट्रॉबेरी                               6  ग्राम

ब्रेड स्लाइस                                  4

फुल क्रीम दूध                               1/2 लीटर

बारीक कटी मेवा                              3 टेबलस्पून

सादा बटर                                   1 टीस्पून

शकर                                       5 टेबलस्पून

कॉर्नफ्लोर                                   1 टेबलस्पून

स्ट्रॉबेरी रेड कलर                              2 बूंद

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विधि

स्ट्रॉबेरी सौस तैयार करने के लिए स्ट्रॉबेरी को धोकर पोंछ लें. 2 स्ट्रॉबेरी को छोडकर शेष को बारीक टुकड़ों में काट लें. एक पैन में 1 कप पानी डालकर शकर डाल दें. जब उबाल आ जाये तो कटी स्ट्रॉबेरी और 1 बूंद स्ट्रॉबेरी कलर डाल दें और लगभग 5 मिनट तक धीमी आंच पर पकाकर गैस बंद कर दें.

स्ट्रॉबेरी कस्टर्ड बनाने के लिए कॉर्नफ्लोर को आधे कप पानी में घोल लें. दूसरे पैन में दूध उबालें, जब उबाल आ जाये तो कॉर्नफ्लोर को लगातार चलाते हुए डालें. अच्छी तरह उबल जाये तो बचा फ़ूड कलर और 1 टेबलस्पून शकर मिलाकर गैस बंद कर दें.

ब्रेड के किनारे काटकर अलग कर दें. एक नानस्टिक पैन में बटर लगाकर ब्रेड स्लाइस को दोनों तरफ से सुनहरा सेंक लें.

एक चौकोर डिश में पहले एक बड़ा चम्मच स्ट्रॉबेरी कस्टर्ड डालकर 2 ब्रेड स्लाइस को इस तरह रखें कि कस्टर्ड पूरी तरह कवर हो जाये. उपर से तैयार स्ट्रॉबेरी सौस डालकर थोड़ी सी मेवा डाल दें. पुन; क्रमशः कॉर्नफ्लोर, ब्रेड स्लाइस, स्ट्रॉबेरी सौस, मेवा डालकर उपर से बचा कोर्नफ्लोर और मेवा डालकर ब्रेड को पूरी तरह कवर कर दें. बची 2 स्ट्रॉबेरी को पतले स्लाइस में काट कर उपर से सजा दें. ठंडा होने पर काटकर सर्व करें.

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अपना-अपना सच: क्या था अभय का सत्य

दिल्ली से तबादला हो कर जालंधर आना हुआ तो सहज सुखद एहसास से मनभर आया. अभय ने पुराने साथियों के बारे में बताया.

‘‘वे जो मेहरा साहब अहमदाबाद में थे न, अरे, वही जो अपनी बेटी को ‘मिस इंडिया’ बनाना चाहते थे…’’

‘‘गुप्ता साहब याद है, जिन के बच्चे बहुत गाली बकते थे. अंबाला में हमारे साथ थे…’’

‘‘जयपुर में थे. हमारे साथ, वह शर्माजी…’’

इस तरह के जाने कितने ही नाम अभय ने गिना दिए. 10 साल का समय और बीत चुका है, कौन क्या से क्या हो गया होगा. और होगा क्यों न जब मैं ही 10 साल में इतनी बदल गई हूं तो प्रकृति के नियम से वे सब कहां बच पाए होंगे.

10 साल पहले जब हम अहमदाबाद में थे तब एक मेहराजी हमारे साथ थे. उन की बेटी बहुत सुंदर थी. कदकाठी भी अच्छी थी. वह अपनी बेटी को बिलकुल मौड कपड़े पहनाते थे. इस बारे में आज से 10 साल पहले भी मेरी सोच वही थी जो आज है कि कदकाठी और रूपलावण्य तो प्रकृति की देन है. जिस रूप के होने न होने पर अपना कोई बस ही न हो उसी को ले कर इतनी स्पर्धा किसलिए? इनसान स्पर्धा भी करे तो उस गुण को ले कर जिस को विकसित करने में हमारा अपना भी कोई योगदान हो.

मैं किसी की विचारधारा को नकारती नहीं पर यह भी तो एक सत्य है न कि हम मध्यवर्गीय लोगों में एक ही तो एहसास जिंदा बच पाया है कि केवल हम ही हैं जो शायद लज्जा और शरम का लबादा ओढ़े बैठे हैं.

10 साल पहले जब मैं उन की बेटी को निकर और टीशर्ट में देखती थी तब अच्छा नहीं लगता था. 17-18 साल की सुंदर, सजीली, प्यारी सी बच्ची जब खुली टांगें, खुली बांहें लिए डोलती फिरेगी तो किसकिस की नजर को आप रोक पाओगे. अकसर जब हमारे संस्कार उस बच्ची को सलवारसूट पहनाना चाह रहे होते थे तब उस के मातापिता नजरों में गौरव लिए सिर उठा कर सब के चेहरे पर पता नहीं क्या पढ़ना चाहते थे.

‘‘शुभा, तुम तो पुराने जमाने की बातें करती हो. ग्लैमर और चकाचौंध की दुनिया में शोहरत और पैसा दोनों हैं. अगर हम ऐसा सोचते हैं तो इस में बुरा क्या है?’’ अकसर श्रीमती मेहरा कह देतीं.

मेरी सोच मेरी है और उस का दायरा केवल मेरा घर, मेरी गृहस्थी और मेरा परिवार है. भला समय से पहले किसी को गलत या सही कहने का मुझे क्या अधिकार था जो मैं किसी पर कोई मोहर लगाती.

कुछ दिन घर को और खुद को व्यवस्थित करने में लग गए.

मेरे दोनों बच्चे पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनेअपने लिए अच्छी नौकरी की तलाश में थे सो अकसर कभी कहीं और कभी कहीं साक्षात्कार के लिए जाते रहते थे. एक शाम सोचा, क्यों न नजदीक के बाजार में जा कर थोड़ीबहुत घूम लूं. इस से पता तो चल ही जाएगा कि कहां क्या सामान मिलता है.

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तबादले की नौकरी वालों का कोई संबंध स्थायी नहीं रह पाता. किसी के प्रति संजोया स्नेह और अपनत्व मात्र यादों में सिमट जाता है या हमारे मन के किसी कोने में दुबक कर हमें कभी पुलकित करता है तो कभी रुलाता है.

दोस्ती द्वारा रोपित रिश्ते आधे भारत में बिखरे पड़े हैं. कहने को हर शहर अपना है, यादों में है लेकिन अब इस उम्र में जब बच्चों के अपनीअपनी दिशा में चले जाने के बाद हमें सुखदुख का साथी चाहिए तो हम खाली हाथ हैं. कभी चाहें भी किसी से बात करना तो किस से करें.

नजदीक में छोटी सी मार्केट की 20-25 दुकानों में जरूरत का सब सामान उपलब्ध था. सोचा अगर मार्केट मिल गई है तो कोई अच्छी सी सखी भी मिल ही जाएगी.मैं ने कुछ जरूरी सामान खरीदा और वापसी पर दुकानों के पीछे से निकली तो सामने दर्जी और ब्यूटी पार्लर की दुकान देख कर सोचा, चलो, अच्छा है यह भी यहीं हैं. तभी एकाएक टांगों में कुछ लिपट सा गया. किसी तरह खुद को संभाल कर देखा तो 3-4 साल का प्यारा सा बच्चा मेरी टांगों में लिपटा नानीनानी की गुहार लगाने लगा.

मैं ने आगेपीछे देखा, किस का होगा यह नन्हा सा रूई का गोले सा बच्चा. दुकानों के पीछे कोई घर भी नहीं था जहां से इस के आने की संभावना हो. सामने दर्जी की 2-3 दुकानें थीं और ब्यूटी पार्लर, कहीं वहीं से तो नहीं आया.

हाथ में खरीदे हुए सामान को किसी तरह संभाल कर मैं ने बच्चे का हाथ पकड़ा. शायद ब्यूटी पार्लर में आई किसी महिला का हो यह प्यारा सा बच्चा. यही सोच कर मैं ने किसी तरह उसे धीरेधीरे पैरों से चलाते हुए अपने साथ ब्यूटी पार्लर तक ले गई और दरवाजा खोल कर पूछा, ‘‘सुनिए, यह बच्चा आप का है क्या? बाहर भटक रहा था.’’

‘‘ओहो, यह फिर बाहर निकल गया. मोनू के बच्चे, मैं तेरी पिटाई कर दूंगी. काम करना मुश्किल हो गया है. मुंह से धागा खींचखींच कर किसी महिला की भवें संवारती युवती की आवाज आई, ‘‘कृपया इसे यहीं छोड़ दीजिएगा.’’

बच्चे को भीतर धकेल कर मैं ने दरवाजा बंद कर दिया लेकिन जो थोड़ी सी झलक मैं ने उस लड़की की देखी थी उस ने विचित्र सी जिज्ञासा मन में भर दी. इसे कहीं देखा सा लगता है.

एक दिन अभय बोले, ‘‘सुनो, तुम बता रही थीं न कि यहां मार्केट में एक ब्यूटी पार्लर भी है जहां वह प्यारा सा बच्चा देखा था. जरा जा कर बालों को रंगवा लो न, सफेदी बहुत ज्यादा झलकने लगी है.’’

‘‘क्यों, इस की क्या जरूरत है. चेहरे का ढलका मांस और काले बाल दोनों साथसाथ कितने बेतुके लगते हैं. क्या आप नहीं जानते… मुझे बाल काले नहीं कराने.’’

‘‘अरे बाबा, आजकल, कोई सफेद बालों वाला नजर नहीं आता. समझा करो न…’’

‘‘न आए, हम तो आएंगे न. जवान बच्चे अगलबगल खड़े हों तो क्या पता नहीं चलता कि हम 50 पार कर चुके हैं. फिर इस सत्य को छिपाने की क्या जरूरत है.’’

जब हम दिल्ली में थे तो मेहंदी लगे काले सुंदर बालों का एक किस्सा मैं आज भी भूली नहीं हूं. मेरी एक हमउम्र सखी जो पलपल खुद को जवान होना मानती थी, इसी बात पर कितने दिन सदमे में रही थी कि बेटे की उम्र का लड़का उसे लगातार छेड़ता रहा था. वह तो उसे बच्चा समझ कर नजरअंदाज करती रही थी, लेकिन एक शाम जब उस युवक ने हद पार कर दी तब सखी से रहा नहीं गया और बोली थी, ‘मेरे बेटे, तुम्हारी उम्र के हैं. शरम नहीं आई तुम्हें ऐसा कहते हुए. तुम्हारी मां की उम्र की हूं मैं.’

‘तो नजर भी तो आइए न मुझे मां की उम्र की. आप तो मेरी उम्र की लगती हैं. मुझ से गलती हो गई तो मेरा क्या कुसूर है.’

वह बेचारी तो झंझावात में थी और हम सुनने वाले न रो पा रहे थे और न ही हंसी आ रही थी. बच्चे तो सफेद बालों से ही उम्र का अंदाजा लगाएंगे न.

एक शाम मेहरा साहब के घर गए तब वास्तव में मिसेज मेहरा को देख कर यही लगा कि उन की उम्र तो वहीं की वहीं खड़ी है जहां आज से 10 साल पहले खड़ी थी.

‘‘अरे शुभा, कितनी बूढ़ी लगने लगी हो,’’ श्रीमती मेहरा ने कहा था.

‘‘बूढ़ी नहीं, बड़ी कहिए श्रीमती मेहरा,’’ और खिलखिला कर हंस पड़ी मैं. कंधों तक कटे बाल और उन पर सफेदी की जगह चमकता भूरा रंग, खुली बांहें और चुस्तदुरुस्त कपड़े. अभय की नजरें मुझ से टकराईं तो मुसकराने लगे, मानो कह रहे हों कि देखा न.

‘‘भई, मेरी बात छोडि़ए न कि मैं कैसी लगती हूं. आप बच्चों के बारे में बताइए कि बेटी क्या करती है और बेटा…’’

अभय और मेहराजी तो बातों में व्यस्त हो गए लेकिन श्रीमती मेहरा की बातों की सूई मेरी बड़ी उम्र पर आ कर रुक गई.

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‘‘नहीं शुभा, इस तरह हार मान लेना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि मैं ने हार मान ली है. हार तो वह मान रहे हैं जो उम्र का बढ़ना स्वीकार ही करना नहीं चाहते. अरे, यह शरीर जिसे हम सब 50 सालों से इस्तेमाल कर रहे हैं, धीरेधीरे कमजोर हो रहा है, इस सत्य को हम लोग मानना ही नहीं चाहते. भई, हम सब बड़़े हो गए हैं. इस सत्य को पूरी इज्जत और सम्मान के साथ हमें मानना चाहिए. बालों का सफेद होना शरम की नहीं गरिमा की बात है, ऐसा मेरा विचार है.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है कि मैं सत्य को झुठला रही हूं?’’ सदा की तरह अपनी ही बात को दबाना चाह रही थीं श्रीमती मेहरा. जिस पर सदा की तरह मैं ने भी झुंझलाना चाहा लेकिन किसी तरह खुद को रोक लिया.

‘‘अरे, छोड़ो भी श्रीमती मेहरा, हमारी बीत गई अब बच्चों की सोचो. बताओ न बच्चे क्या कर रहे हैं? आप की वह प्यारी सी बिटिया क्या कर रही है? अब तक उस की तो शादी भी हो गई होगी? बेटा क्या करता है?’’

मेरे सवालों का कोई ठोस उत्तर नहीं दिया श्रीमती मेहरा ने. बस, गोलमोल सा बता कर बहला दिया मुझे भी.

‘‘हां, ठीक हैं बच्चे. मिनी की शादी कर दी है. आशु भी अपना काम करता है.’’

घर चले आए हम. मुझे तो लगा वास्तव में श्रीमती मेहरा की उम्र रुकी ही नहीं, काफी पीछे लौट गई है. इस उम्र में भी वह स्वयं को 25-30 से ज्यादा का मानना नहीं चाहती रही थीं. बातों की धुरी को बस, अपने ही हावभाव और रूपसज्जा के इर्दगिर्द घुमाती रही थीं. जबकि इस उम्र में हमारी सोच पर बच्चों की चर्चा प्रभावी होनी चाहिए और वह अपना ही साजशृंगार कर रही थीं.

‘‘देखा न, श्रीमती मेहरा आज भी वैसी ही लगती हैं,’’ अभय बोले.

‘‘अरे भई, वैसी ही कहां, वह तो और भी छोटी हो गई हैं. लगता है बहुत मेहनत करती हैं अपनेआप पर.’’

‘‘हां, तभी तो आशु एक वर्कशाप में नौकरी करता है और मिनी भी यहीं कहीं किसी ब्यूटी पार्लर में काम करती है,’’ दुखी मन से अभय ने उत्तर दिया.

सहसा मुझे याद आया कि वह नन्हा सा बच्चा और वह काम करती लड़की… कहीं मिनी तो नहीं थी. मेहरा साहब ने बातोंबातों में अभय को सब बताया होगा जिस से वे काफी उदास थे.

‘‘शुभा, अपना बनावशृंगार बुरी बात नहीं है लेकिन जीवन में एक उचित तालमेल, एक उचित सामंजस्य होना बहुत जरूरी है. मिसेज मेहरा को ही देख लो. 50 की होने को आईं पर अभी भी एक किशोरी सी दिखने की उन की चाह कितनी छिछोरी सी लगती है. मिनी को शुरू से बस, सुंदर ही दिखना सिखाया उन्होंने, कोई भी और गुण विकसित नहीं होने दिया. न पढ़ाईलिखाई न कामकाज. नतीजा क्या निकला? यही न कि वह मिस इंडिया तो बन नहीं पाई और जो होना चाहिए था वह भी न हुई.

यही हाल आशु का है. वह भी ज्यादा पढ़लिख नहीं पाया. तो अब किसी मोटर वर्कशाप में काम करता है. ऐसा ही तो होता है. जिन मांबाप को आज तक अपने ही शौक पूरे करने से फुरसत नहीं वे बच्चों का कब और कैसे सोचेंगे.’’

कहतेकहते अभय चुप हो गए और मैं उन की बातें सुन कर असमंजस में रह गई. एकाएक फिर बोले, ‘‘बच्चों को कुछ बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है, शुभा. एक मध्यवर्गीय परिवार को तो बहुत ही ज्यादा. सच है, तुम ने अपने बच्चों को बड़ी मेहनत से पाला है.’’

2 दिन के बाद फुरसत में मैं उसी ब्यूटी पार्लर में जा पहुंची. गौर से उस युवती को देखा तो लगा वही तो थी वह प्यारी सी बच्ची, मिनी.

‘‘आइए मैडम, क्या कराएंगी?’’ यह पूछते हुए उस युवती ने भी गौर से मेरा चेहरा देखा. सामने सोफे के एक किनारे पर उस का बच्चा सो रहा था.

‘‘मुझे पहचाना नहीं, बेटा, मैं शुभा आंटी हूं… याद है, हम अहमदाबाद में साथसाथ रहते थे. तुम मेहरा साहब की बेटी हो न… मिनी?’’

अवाक् सिर से ले कर पैर तक वह बारबार मुझे ही देख रही थी. तभी उस का बच्चा जाग गया. लपक कर उसे थपकने लगी ताकि वह एकाग्र मन से काम कर सके. शायद वह मुझे पहचान नहीं पा रही थी. उस का रूई सा गोरागोरा बच्चा जाग उठा था.

‘‘आजा बेटा, मेरे पास आ. अरे, मैं नानी हूं तुम्हारी,’’ ढेर सारा प्यार उमड़ आया था उस पर. मेरी अपनी बेटी होती तो शायद मैं भी अब तक नानी बन  चुकी होती.

पहले ही दिन इस बच्चे ने मुझे नानी मान लिया था न. बच्चा मेरी गोद में चला आया लेकिन मिनी जड़वतसी खड़ी रही.

‘‘बेटा, क्या मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं जो पहचान में ही नहीं आती?’’

उस का सकपकाया सा चेहरा बता रहा था कि मेरे सामने वह खुद को सामान्य नहीं कर पा रही थी. क्याक्या सपने थे मिनी के? भारत सुंदरी, विश्व सुंदरी के बाद सारे संसार पर छा जाने जैसा कुछ. तब मिनी के जमीन पर पैर कहां थे. उस का भी क्या दोष था? जिस आकार में उस की मां उसे ढाल रही थी उसी में तो मिनी की गीली मिट्टी ढल रही थी. बेचारी, न पढ़ती थी और न ही कोई अन्य काम सीखने की उस में ललक थी तब.

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उस का सत्य यही था कि भला एक सुपर माडल को हाथपैर गंदे करने की क्या जरूरत थी. हम सब के जीवन में न जाने कितने पड़ाव आते हैं जिन में हर पड़ाव का अपना ही सत्य होता है. उस  पल का सत्य वह था और आज का सत्य यह कि वही मिनी कुछ नहीं बन पाई और मुझ से यों नजरें चुरा रही थी जैसे मैं उस पर अभी यह प्रश्न दाग दूंगी कि क्या हुआ मिनी, तुम भारत सुंदरी बनना चाहती थीं तो बनी क्यों नहीं?

‘‘मैं शुभा आंटी हूं न, सौरभगौरव की मम्मी.’’

मिनी का स्वर तो नहीं फूटा पर मेरा हाथ उस ने कस कर पकड़ लिया. उस की आंखों में कितना कुछ तैरने लगा था. तभी उस की 2-3 महिला ग्राहक चली आईं और मैं अपने घर का पता उसे दे कर चली आई.

अगले दिन सुबह ही मिनी अपने बेटे को कंधे से लगाए मेरे सामने खड़ी थी.

लपक कर उस का सोया बच्चा मैं ने बिस्तर में सुला दिया और मिनी की बांह पकड़ कर सस्नेह सहला दिया तो मेरे कंधे से लग कर रो पड़ी मिनी.

मैं जानती थी कि मिनी के भीतर बहुत कुछ होगा जिसे वह मुझ से बांटना चाहती होगी क्योंकि 10 साल पुरानी हमारी मुलाकातों में विषय अकसर यही होता था. मैं कहा करती थी कि तुम्हें पढ़ाईलिखाई और दूसरे कामों में भी रुचि लेनी चाहिए. खूबसूरती कोई स्थायी विशेषता नहीं है जिसे कोई सारी उम्र भुना सके.

‘‘आप सच कहती थीं, आंटी,’’ मिनी मेरे कंधे से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने जीवन में कुछ भी नहीं बन पाई. मेरी खूबसूरती ने मुझे कहीं का नहीं रखा. अगर सुंदर न होती तो ही अच्छा होता.’’

‘‘जो बीत गया सो बीत गया. अब आगे का सोचो. तुम्हारे पति क्या काम करते हैं?’’

‘‘वह भी मेरी तरह ज्यादा  पढ़ेलिखे नहीं हैं. किसी जगह छोटी सी नौकरी करते हैं. हम दोनों काम न करें तो हमारा गुजारा नहीं चलता.’’

क्या कहती मैं. किसी के हालात बदल पाना भला मेरे हाथ में था क्या? मिनी का रोना ही सारी कथा का सार था.

‘‘आंटी, मैं ज्यादा पढ़ीलिखी होती तो किसी स्कूल में नौकरी कर लेती. ट्यूशन का काम भी मिल जाता. सिलाईकढ़ाई आती तो किसी बुटीक में काम मिल जाता. मुझे तो कुछ भी नहीं आता.’’

‘‘खूबसूरती संवारना तो आता है न पगली, जो काम कर रही हो उसी में तरक्की कर लो, क्या बुरा है? कुछ न आने से कुछ तो आना ज्यादा अच्छा है.’’

‘‘मम्मी से कहा था कि थोड़ी देर मोनू को संभाल लिया करें, मम्मी के पास समय ही नहीं है… मेरी मां ने मुझे यह कैसा जीवन दिया है, आंटी, कैसी शिक्षा दी है जिस से मैं अपनी गृहस्थी भी नहीं चला सकती.’’

‘‘मोनू के लिए अगर मैं ठीक लगती हूं तो बेशक इसे कुछ घंटे मेरे पास छोड़ जाया करो. तुम्हारे अंकल से बात करती हूं, बैंक से कर्ज ले कर तुम पतिपत्नी अगर छोटा सा काम खोल सको तो…’’

मैं नहीं जानती कि मिनी का भविष्य संवार पाऊंगी या नहीं क्योंकि भविष्य संवारना तो बचपन से ही शुरू किया जाता है न. अब पीछे लौटा नहीं जा सकता. आज तो मिनी की जरूरत

सिर्फ इतनी सी है कि कुछ समय के लिए उस का बच्चा कोई अपने पास रख लिया करे. अफसोस हो रहा है मुझे श्रीमती मेहरा की बुद्धि पर, कम से कम बच्ची का इतना सा साथ तो दे दें कि वह अपना गुजारा चलाने लायक कुछ कर सके.

इस उम्र में मुझे उन के चेहरे पर न बुढ़ापा नजर आया था और न ही संतान के अस्तव्यस्त जीवन के प्रति पैदा हुआ कोई दर्द या पश्चात्ताप. समझ नहीं पा रही हूं कि मेहरा जैसे दंपती किस सोच में जीते हैं, किस सत्य को अपना सत्य मानते हैं और सत्य उन का अपना सत्य होता भी है या नहीं. श्रीमती मेहरा जैसी औरतें न जवानी में बच्चों के लिए बड़प्पन का एहसास करती हैं और न ही बुढ़ापे में खुद को बड़ा मानने को तैयार होती हैं, न ही अच्छी मां बनना चाहती हैं और न ही नानी कहलाना उन्हें पसंद है.

‘‘मोनू को आप रख लेंगी तो बड़ा उपकार होगा, आंटी. सिर्फ 3-4 महीने के लिए. उस के बाद नर्सरी में डाल दूंगी. मोनू नानी कह सकता है न आप को?’’

आंखें भर आईं मेरी. उम्र के साथ कानों के परदे भी यह शब्द सुनना चाहते हैं, दादी, नानी.

‘‘हांहां क्यों नहीं, बेटी, मुझे तो इस से खुशी ही होगी. तुम चिंता न करो, समय एक समान नहीं रहता. सब ठीक हो जाएगा.’’

कुछ घंटे हर रोज के लिए एक प्यारा सा खिलौना मिल गया मुझे. इतवार को अभय के लिए मेहंदी घोलने लगी तो टोक दिया अभय ने, ‘‘रहने दो, शुभा, सफेद बाल अब अच्छे लगने लगे हैं. हर उम्र का अपना ही रंगरूप, अपना ही सत्य होता है और होना भी चाहिए.’’

अवाक् मैं अभय का चेहरा देखती रही. अभय अखबार के पन्ने पलटते रहे और मेरे होंठों पर मुसकान चली आई. अभय भी समझने लगे थे अपना सत्य.

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ऐसा ही होता है: लक्ष्मी का क्या था फैसला

जब से यह पता चला कि गंगूबाई धंधा करते हुए पकड़ी गई है,  तब से लक्ष्मी की बस्ती में हड़कंप मच गया. क्यों?  ‘‘सुनती हो लक्ष्मी…’’ मांगीलाल ने आ कर जब यह बात कही, तब लक्ष्मी बोली, ‘‘क्या है… क्यों इतना गला फाड़ कर चिल्ला रहे हो?’’

‘‘गंगूबाई के बारे में कुछ सुना है तुम ने?’’

‘‘हां, उसे पुलिस पकड़ कर ले गई…’’ लक्ष्मी ने सीधा सपाट जवाब दिया, ‘‘अब क्यों ले गई, यह मत पूछना.’’

‘‘मु झे सब मालूम है…’’ मांगीलाल ने जवाब दिया, ‘‘कैसा घिनौना काम किया. अपने मरद के साथ ही धोखा किया.’’

‘‘धोखा तो दिया, मगर बेशर्म भी थी. उस का मरद कमा रहा था, तब धंधा करने की क्या जरूरत थी?’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘उस की कोई मजबूरी रही होगी,’’ मांगीलाल ने कहा.

‘‘अरे, कोई मजबूरी नहीं थी. उसे तो पैसा चाहिए था, इसलिए यह धंधा अपनाया. उस का मरद इतना कमाता नहीं था, फिर भी वह बनसंवर के क्यों रहती थी? अरे, धंधे वाली बन कर ही पैसा कमाना था, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ जाती. महल्ले की सारी औरतों को बदनाम कर दिया,’’ लक्ष्मी ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी.

‘‘उस का पति ट्रक ड्राइवर है. बहुत लंबा सफर करता है. 8-8 दिन तक घर नहीं आता है. ऐसे में…’’

‘‘अरे, आग लगे ऐसी जवानी को…’’ बीच में ही बात काट कर लक्ष्मी  झल्ला पड़ी, ‘‘मैं उस को अच्छी तरह जानती हूं. वह पैसों के लिए धंधा करती थी. अच्छा हुआ जो पकड़ी गई, नहीं तो बस्ती की दूसरी औरतों को भी बिगाड़ती. न जाने कितनी लड़कियों को अपने साथ इस धंधे में डालने की कोशिश करती वह बदचलन औरत.’’

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‘‘उस के साथ तो और भी औरतें होंगी?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘हांहां, होंगी क्यों नहीं, बेचारा मरद तो ट्रक ड्राइवर है. देश के न जाने किसकिस कोने में जाता रहता है. कभीकभार तो 15-15 दिन तक घर नहीं आता है. तब गंगूबाई की जवानी में आग लगती होगी… बु झाने के बहाने यह धंधा अपना लिया.’’

‘‘क्या करें लक्ष्मी, जवानी होती ऐसी है…’’ मांगीलाल ने जब यह बात कही, तब लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘तू क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहा है?’’

‘‘पूरी बस्ती में गंगूबाई की थूथू जो हो रही है,’’ मांगीलाल ने बात पलटते हुए कहा.

लक्ष्मी बोली, ‘‘दिन में कैसी सती सावित्री बन कर रहती थी.’’

‘‘मगर, तू उसे बारबार कोस क्यों रही है?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘कोसूं नहीं तो क्या पूजा करूं उस बदचलन की,’’ उसी गुस्से से फिर लक्ष्मी बोली, ‘‘करतूतें तो पहले से दिख रही थीं. उसे मेहनत कर के कमाने में जोर आता था, इसलिए नासपीटी ने यह धंधा अपनाया.’’

‘‘अब तू लाख गाली दे उसे, उस ने तो कमाई का साधन बना रखा था. अरे, कई औरतें कमाई के लिए यह धंधा करती हैं…’’ मांगीलाल ने जब यह कहा, तब लक्ष्मी आगबबूला हो कर बोली,

‘‘तू क्यों बारबार दिलचस्पी ले रहा है? तेरा क्या मतलब? तु झे काम पर नहीं जाना है क्या?’’

‘‘जा रहा हूं बाबा, क्यों नाराज हो रही हो?’’ कह कर मांगीलाल तो चला गया, मगर लक्ष्मी न जाने कितनी देर तक गंगूबाई की करतूतों को ले कर बड़बड़ाती रही, फिर वह भी बरतन मांजने के लिए कालोनी की ओर बढ़ गई.

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इस कालोनी में लक्ष्मी 4-5 घरों में बरतन मांजने का काम करती है. मांगीलाल किराने की दुकान पर मुनीमगीरी करता है. उस के एक बेटा और एक बेटी है. छोटा परिवार होने के बावजूद घर का खर्च मांगीलाल की तनख्वाह से जब पूरा नहीं पड़ा, तब लक्ष्मी भी घरघर जा कर बरतनबुहारी करने लगी. वह कालोनी वालों के लिए एक अच्छी मेहरी साबित हुई. वह रोजाना जाती थी. कभी जरूरी काम से छुट्टी भी लेनी होती थी, तब वह पहले से सूचना दे देती थी.

गंगूबाई लक्ष्मी की बस्ती में ही उस के घर से 5वें घर दूर रहती है. उस का मरद ट्रक ड्राइवर है, इसलिए आएदिन बाहर रहता है. उस के 2 बेटे अभी छोटे हैं, इसलिए उन्हें घर छोड़ कर गंगूबाई रात में कमाई करने जाती है.

पूरी बस्ती में यही चर्चा चल रही थी. गंगूबाई पर सभी थूथू कर रहे थे.

छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. उसे कई बार आधीआधी रात को घर आते हुए देखा था. वह कई बार किसी अनजाने मरद को भी अपने घर में बुला लेती थी, फिर बस्ती वालों को भनक लग गई. उन्होंने एतराज किया कि अनजान मर्दों को घर में बुला कर दरवाजा बंद करना अच्छी बात नहीं है.

तब गंगूबाई ने गैरमर्दों को घर बुलाना बंद कर दिया. तब से उस ने कमाने के लिए किसी होटल को अड्डा बना लिया था. पुलिस ने जब उस होटल पर छापा मारा, तब उस के साथ 3 औरतें और पकड़ी गई थीं. मतलब, होटल वाला पूरा गिरोह चला रहा था.

बस्ती वालों को शक तो बहुत पहले से था, मगर जब तक रंगे हाथ न पकड़ें तब तक किसी पर कैसे इलजाम लगा सकें. छोटे बच्चे जब पूछते थे, तब गंगूबाई कहती थी, ‘‘मैं ने नौकरी कर ली है. तुम्हारा बाप तो 10-15 दिन तक ट्रक पर रहता है, तब पैसे भी तो चाहिए.’’

ऐसी ही बात गंगूबाई बस्ती वालों से कहती थी कि वह नौकरी करती है.

बस्ती वाले सवाल उठाते थे कि नौकरी तो दिन में होती है, भला रात में ऐसी कौन सी नौकरी है, जो वह करती है?

मगर, गंगूबाई ऐसी बातों को हंसी में टाल देती थी. मगर जब भी उस का मरद घर पर होता था, तब वह शहर नहीं जाती थी. तब बस्ती वाले सवाल उठाते, ‘जब तेरा मरद घर पर रहता है, तब तू क्यों नहीं नौकरी पर जाती है?’

तब वह हंस कर कहती, ‘‘मरद 10-15 दिन बाद सफर कर के थकाहारा आता है. तब उस की सेवा में लगना पड़ता है.’’

तब बस्ती वाले कहते, ‘तू जोकुछ कह रही है, उस में जरा भी सचाई नहीं है. कभीकभी आधी रात को आना शक पैदा करता है. लगता है कि नौकरी के बहाने…’

‘‘बसबस, आगे मत बोलो. बिना देखे किसी पर इलजाम लगाना अपराध है. आप मेरी निजी जिंदगी में  झांक रहे हैं. क्या पेट भरने के लिए नौकरी करना भी गुनाह है?’’

तब बस्ती वालों ने गंगूबाई को अपने हाल पर छोड़ दिया. मगर वे सम झ गए थे कि गंगूबाई धंधा करती है.

‘‘लक्ष्मी, कहां जा रही है?’’ लक्ष्मी की सारी यादें टूट गईं. यह उस की सहेली कंचन थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बरतन मांजने जा रही हूं साहब लोगों के बंगले पर.’’

‘‘धत तेरे की, कुछ गंगूबाई से सबक सीख,’’ कंचन मुसकराते हुए बोली.

‘‘किस नासपीटी का नाम ले लिया तू ने,’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘बिस्तर पर सो कर कमा रही थी और तू उसे नासपीटी कह रही है?’’

‘‘उस ने औरत जात को बदनाम कर दिया है. मरद तो बेचारा परदेश में पड़ा रहता है और वह छोटे बच्चों को घर छोड़ कर गुलछर्रे उड़ा रही थी. उस के बच्चों का क्या हुआ?’’

‘‘अरे, पुलिस उस के बच्चों को भी अपने साथ ले गई है…’’ कंचन ने जवाब दिया, ‘‘गंगूबाई पर शक तो बहुत पहले से था.’’

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‘‘मगर, किसी ने उसे आज तक रंगे हाथ नहीं पकड़ा है,’’ लक्ष्मी ने जरा तेज आवाज में कहा.

‘‘हां, पकड़ा तो नहीं…’’ कंचन ने कहा, फिर वह आगे बोली, ‘‘अरे, तु झे काम पर जाना है न, जा बरतन मांज कर अपनी हड्डियां गला.’’

लक्ष्मी साहब के बंगले की तरफ बढ़ चली. आज उसे देर हो गई, इसलिए वह जल्दीजल्दी जाने लगी. सब से पहले उसे त्रिवेदीजी के बंगले पर जाना था.

जब लक्ष्मी त्रिवेदीजी के बंगले पर पहुंची, तब मेमसाहब उसी का इंतजार कर रही थीं. वे नाराजगी से बोलीं, ‘‘आज देर कैसे हो गई लक्ष्मी?’’

‘‘क्या करूं मेमसाहब, आज बस्ती में एक लफड़ा हो गया.’’

‘‘अरे, बस्ती में लफड़ा कब नहीं होता. वहां तो आएदिन लफड़ा होता रहता है.’’

‘‘बात यह नहीं है मेमसाहब. गंगूबाई नाम की औरत धंधा करती हुई पकड़ी गई है.’’

‘‘इस में भी कौन सी नई बात है. बस्ती की गरीब औरतें यह धंधा करती हैं. गंगूबाई ने ऐसा कर लिया, तब तो उस की कोई मजबूरी रही होगी.’’

‘‘अरे मेमसाहब, यह बात नहीं है. वह शादीशुदा है और 2 बच्चों की मां भी है.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां होना गुनाह है क्या? पैसा कमाने के लिए ज्यादातर औरतें यह धंधा करती हैं…’’ मेम साहब बोलीं, ‘‘औरतें इस धंधे में क्यों आती हैं? इस की जड़ पैसा है. इन गरीब घरों में ऐसा ही होता है.’’

‘‘मेमसाहब, आप पढ़ीलिखी हैं, इसलिए ऐसा सोचती हैं. मगर, मैं इतना जरूर जानती हूं कि छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. अब आप से कौन बहस करे… यहां से मु झे गुप्ताजी के घर जाना है. अगर देर हो गई तो वहां भी डांट पड़ेगी,’’ कह कर लक्ष्मी रसोईघर में चली गई.

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किराए के घर में सुरक्षा का इस तरह रखें ध्यान

सुरक्षा और सावधानी हमेशा बाद के इलाज से अच्छी होती है. अपने घर और परिवार की सुरक्षा हर किसी के लिए सब से जरूरी होती है. अनेक प्रकार की सुरक्षाओं में से चोरों से सुरक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है. वैसे तो चोरी में चोरों को कीमती सामान और पैसे से ही मतलब होता है, लेकिन कई बार चोरी के समय परिवार के किसी सदस्य को चोट आदि भी लग सकती है. इसलिए अपने घरपरिवार को ऐसी किसी अनहोनी से सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है. आज प्रौपर्टी के आसमान छूते दामों के कारण हर कोई अपना घर नहीं खरीद सकता. इसलिए शहरों से ले कर गांवों तक में लोग किराए के घर को ही अपना बसेरा बनाते हैं. लेकिन किराए के घरों में अमूमन सिक्योरिटी की व्यवस्था नहीं होती है, जिस के कई कारण हैं. इन में सब से पहला कारण तो यही है कि किराए के घरों में कोई भी हमेशा के लिए नहीं रहता है. कभी कोई रहता है, तो कभी कोई. ऐसे में हर किसी के पास उस घर की चाबी होती है.

कुछ किराएदार तो घर खाली करते समय पहले से दी गई डुप्लीकेट चाबी वापस भी नहीं करते हैं. दूसरा कारण है स्टूडैंट किराएदार. वे जब किसी घर को किराए पर लेते हैं, तो अपने दोस्तों को साथ रखते हैं, जिस से उन के पास घर की अनेक चाबियां चली जाती हैं. ये दोनों कारण ही आगे चल कर बहुत बड़ी समस्या बन सकते हैं, क्योंकि इस में मकानमालिक और किराए पर आने वाले नए किराएदार दोनों को ही पता नहीं होता कि कितनी और चाबियां उन के घर का ताला खोल सकती हैं. ऐसे में कैसे कोई किराए के घर में सुरक्षित रह सकता है. हर किराएदार को निम्न जरूरी बातें हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए, ताकि वह किसी भी अनहोनी से खुद को बचा सके-

किराए का घर लेते समय अपने मकानमालिक को कह कर घर के मेन गेट का लौक जरूर बदलवा लें ताकि पहले से यदि किसी और के पास उस गेट की चाबी हो तो वह गेट न खोल सके.

घर के दरवाजे हमेशा मजबूत और अच्छी क्वालिटी के होने चाहिए, क्योंकि ज्यादातर किराए के घरों में दरवाजे उतने मजबूत नहीं  होते हैं जितने कि होने चाहिए. साथ ही दरवाजे में एक पीपहोल होना चाहिए ताकि दरवाजा खोलने से पहले देखा जा सके कि दरवाजे के बाहर कौन है. बेहतर यही होता है कि लकड़ी के दरवाजे के बाहर लोहे या लकड़ी का जालीदार गेट भी हो ताकि जानपहचान कर के ही किसी को घर में आने की अनुमति दी जाए.

घर किराए का हो या अपना कभी भी ज्यादा नकदी और जेवर घर पर नहीं रखने चाहिए. इस कीमती सामान को हमेशा बैंक के लौकर में ही रखना ज्यादा सेफ होता है.

घर के साथ अगर कोई पेड़ है और उस की शाखाएं आप के घर की बालकनी तक आती हों, तो उन्हें समयसमय पर कटवाना भी जरूरी है ताकि चोर उन के सहारे घर में न घुस सकें.

घर बंद कर के जाते समय आप के घर में एक लाइट जलती रहे, जो घर में किसी के होने का एहसास करवाती रहे.

किराए के घर में आप अपनी तरफ से ज्यादा बदलाव तो नहीं कर सकते, लेकिन एक कुत्ता तो पाल ही सकते हैं, जो आप की और आप के घर की सुरक्षा करने में बहुत सहायक होगा.

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घर में पैपर स्प्रे (कालीमिर्च), डंडा या बेसबौल बैट जरूर रखें ताकि मुसीबत में आप अपनी सुरक्षा कर सकें.

अगर 2-4 या ज्यादा दिनों के लिए आप बाहर जा रहे हैं, तो ध्यान रखें कि आप के घर के दरवाजे और खिड़कियां अच्छी तरह लौक हों. कोई भी रास्ता खुला न रहे, जिस से चोरों को घर में घुसने में आसानी हो.

ज्यादा दिनों के लिए घर से बाहर जाते समय अपने पासपड़ोस के लोगों तथा अपने मकानमालिक को जरूर बताएं.

सिक्योरिटी डिवाइज

इन सावधानियों के अलावा बाजार में बहुत से सिक्योरिटी से संबंधित उत्पाद भी उपलब्ध हैं, जिन्हें प्रयोग कर के ऐसी चोरी या डकैती से अपने घरपरिवार को सुरक्षित किया जा सकता है. कुछ उत्पाद बहुत महंगे भी हैं. लेकिन किराए के घर में, जहां कुछ समय के लिए ही कोई रहता है, कम कीमत वाले सिक्योरिटी डिवाइज लगवाए जा सकते हैं – अलार्म सिस्टम : चौबीसों घंटे आप के घर को आप की मौजूदगी और गैरमौजूदगी में चोरों से बचाने वाले अलार्म सिस्टम वाजिब कीमत में बाजार में उपलब्ध हैं. ये मौनीटर और बिना मौनीटर दोनों तरह के होते हैं. अलार्म सिस्टम लगवाते समय ध्यान रखना चाहिए कि वह आप के घर में प्रवेश करने के मेन दरवाजे पर लगा हो. अलार्म सिस्टम में कंट्रोल पैनल, कीपैड, सायरन सिस्टम आदि होते हैं और इन में खिड़कियों, शीशों के लिए ब्रेक सैंसर लगा होता है. मौनीटर में जैसे ही अलार्म बजता है वैसे ही मौनीटर करने वाली कंपनी को अलर्ट मैसेज पहुंच जाता है और वह तुरंत पुलिस या अन्य सहायता के लिए फोन कर देती है. बिना मौनीटर वाले अलार्म में जैसे ही अलार्म बजता है, आप के आसपास वाले उस का शोर सुन कर सहायता के लिए आ सकते हैं.

सीसी टीवी कैमरा : घर की सुरक्षा में सीसी टीवी कैमरा बेहतर सहायक सिद्ध होता है. सीसी टीवी कैमरे की सब से बड़ी खासीयत यह है कि यह घर में घुसने वाले हर व्यक्ति की छवि रिकौर्ड करता है, उन की हर हरकत पर इस की नजर होती है. सीसी टीवी कैमरे आमतौर पर शौपिंग मौल्स, कौरपोरेट बिल्ंिडग्स, मल्टीप्लैक्स से ले कर दुकानों और घरों तक में लगे होते हैं.

डिजिटल सेफ लौकर : ज्यादातर किराए के मकानों में मकानमालिक अपना बजट देखते हुए ही पैसा खर्च करते हैं और दरवाजे या लौक जैसी चीजों पर अधिक खर्च नहीं करते. वे सस्तीहलकी क्वालिटी के दरवाजे और लौक लगवाते हैं, जो चोरों के लिए सहायक सिद्ध होते हैं.

मार्केट में आज बहुत तरह के लौक उपलब्ध हैं. इन में डैडबोल्ट सब से बेहतर और सुरक्षित माने जाते हैं. ये मुख्यरूप से 2 तरह के होते हैं- सिंगल सिलैंडर वाले और डबल सिलैंडर वाले.

आईपी कैमरा : इन्हें नैटवर्क आईपी सिक्योरिटी सिस्टम के नाम से भी जाना जाता है. ये छोटे घरों में नहीं, बल्कि बड़े घरों में और शौपिंग कांप्लैक्स में लगाए जाते हैं और कंप्यूटर से जुड़े होते हैं. इन कैमरों का अपना आईपी ऐड्रैस भी होता है, जिस से कंप्यूटर के सामने बैठ कर पूरी बिल्ंिडग पर नजर रखी जा सकती है.

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मोशन सैंसर डिटैक्टर : ज्यादातर लोग इसे अलार्म सिस्टम की जगह दूसरे औप्शन के रूप में प्रयोग करते हैं. यह 2 तरह के काम करता है- एक तो रोशनी देता है और दूसरा अलार्म सिस्टम की तरह कार्य करता है. लोगों को इस की विशेषताओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. बिजली की बचत करने में भी मोशन सैंसर लाभदायक सिद्ध होते हैं. ये अपनी अलगअलग टैक्नौलोजी के कारण बाजार में अलगअलग रेट पर उपलब्ध हैं.

वीडियो डोरफोन : वीडियो डोरफोन पहले ज्यादातर पौश कालोनियों में ही देखने को मिलते थे, लेकिन अब मध्यवर्गीय घरों में भी इन का प्रयोग हो रहा है. यह मुख्यरूप से औडियोवीडियो डोर ऐंट्री सिस्टम है. इसे अलार्म के साथ भी जोड़ा जा सकता है. इस में एक कैमरा और बैल लगी होती है. ये मेन गेट के बाहर होते हैं, जिस से घर में आनेजाने वाले हर व्यक्ति की तसवीर दिखती है व उस से बात भी ह?ो सकती है.

वायरलैस सिस्टम : ये किराए के घरों में आसानी से लगाए जा सकते हैं, क्योंकि इन्हें इंस्टौल करना सब से आसान है. इस में कोई भी तार न होने से चोर द्वारा इसे काटना संभव नहीं होता है. इस में गुणों के साथसाथ एक अवगुण भी है.

ड्राय आईज सिंड्रोम से बचे कुछ ऐसे

सभी प्राणियों की आँखे होती है, लेकिन मनुष्य में इसका महत्व सबसे अधिक है, क्योंकि आखें देखे हुए सन्देश को मस्तिष्क तक पहुंचाती है. ये शरीर की सबसे कोमल अंग होती है, इसलिए इसकी सुरक्षा का ध्यान भी हमेशा रखने की जरुरत होती है.एक शोध के अनुसार लगभग 2 लाख बच्चे भारत में दृष्टिहीन है, जिनमे कुछ को ही दृष्टि मिल पाती है, बाकी को दृष्टि के बिना ही जीवन गुजारना पड़ता है.

कोविड पेंड़ेमिक ने भी आखों पर सबसे अधिक दबाव डाला है, क्योंकि बच्चे से लेकर व्यष्क सभी को आजकल घंटो कंप्यूटर के आगे बैठनापड़ता है, इससे आखों का लाल होना, चिपचिपे म्यूक्स का जमा होना, आँखों में किरकिरी या भारीपन महसूस करना आदि है, जिससे आसुंओं का बनना कम हो जाता है और आखों में सूखेपन का खतरा हो जाता है, जिसे सम्हालना जरुरी है.

श्री रामकृष्ण अस्पताल के डॉ नितिन देशपांडे कहते है किकोविड महामारी की वजह से जीवन शैली में बदलाव आया है, इस दौरान सूखी आंख की समस्या सबसे अधिक है, क्योंकि आँखों का सूखापन एक गंभीर स्थिति है, जिसके परिणामस्वरूप आंखों में परेशानी के अलावा दृष्टि संबंधी समस्याएं हो सकती है.आँखों की समस्याएं आज बहुत बढ़ गई है. स्क्रीन टाइम में वृद्धि, पौष्टिक खाने की आदतों में व्यवधान और अनियमित नींद आदि से सूखी आंखों के मामलों में वृद्धि हो रही है. इससे बचने के लिए कुछ उपाय निम्न है,

कमरे के अंदर की हवा के दबाव पर रखें नजर

डॉ.नितिन कहते है कि घर के अंदर या घर पर रहने से ड्राई आईज के मामलों में वृद्धि के साथ-साथ लक्षणों में वृद्धि हुई है. इनडोर एयर क्वालिटी की वजह से भी ड्राई आईज की समस्या बढती है, जो स्क्रीन के सामने काम के साथ शामिल होता है, जिससे आँखों के अंदर का पानी, वाष्पीकरण में परिवर्तित हो जाती है, जिससे आँखें सूख जाती है.

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नेत्र विशेषज्ञों के अनुसार, खाना पकाने और खाने की दिनचर्या में बदलाव और  अनुचित आहार के कारण शरीर में आवश्यक फैटी एसिड, विटामिन ए, विटामिन डी की कमी हो जाती है, जो आंखों के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है. इसके अलावा सही मात्रा में नींद न लेने पर आंखों के तरल पदार्थ की मात्रा कम हो जाती है, जिससे आखें ड्राई हो जाती है. इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का बढ़ने से व्यक्ति केस्क्रीन का समय काफी बढ़ चुका है.

पलकों का कम झपकना

इसके आगे डॉक्टर नितिन कहते है कि स्क्रीन टाइम का बढ़ना, ड्राई आईज का प्रमुख कारण है. सामान्यतः15 ब्लिंक प्रति मिनट है, स्क्रीन टाइम ने ब्लिंक रेट को घटाकर 5 से 7 ब्लिंक प्रति मिनट कर दिया है. कम पलकें और अधूरी पलकें आंखों की सतह पर नमी को कम करती है.रिसर्च के अनुसार स्क्रीन से नीली रोशनी आंखों को नुकसान नहीं पहुंचाती है, लेकिन यह नींद के पैटर्न को प्रभावित कर सकती है.कम नींद से आंखों में सूखापन हो सकता है. साथ हीकोविड19 प्रोटोकॉल मास्क की सही फिटिंग का न होना भी आंखों के सूखेपन को बढ़ा सकती है क्योंकि मास्क के साथ सांस लेने से हवा ऊपर की ओर प्रवाहित होती है और इसके परिणामस्वरूप आँसू का वाष्पीकरण होता है. नाक पर सही तरह से मास्क लगाने पर ऊपर की ओर हवा के प्रवाह को रोका जा सकता है और सूखी आंखों की समस्या को कुछ हद तक दूर करने में मदद मिलती है.

20:20:20 पैटर्न

कंसल्टिंग ऑप्थल्मोलॉजिस्ट और विटेरियोरेटिनल सर्जन डॉ प्रेरणा शाह कहती है कि आज हर काम कम्प्यूटर, लैपटॉप या मोबाइल पर होने लगा है और इससे निकला नहीं जा सकता, इसलिए कुछ उपाय निम्न है जिसका पालन करने से इसे कम किया जा सकता है

  • नेत्र रोग विशेषज्ञों ने लोगों को 20:20:20 पैटर्न का पालन करने की सलाह दी है. इसमेंहर व्यक्ति को हर 20 मिनट में स्क्रीन से ब्रेक लेने, 20 फीट दूर किसी वस्तु को 20 सेकंड के लिए देखने की सलाह दी जाती है.
  • इसके साथ बार-बार पलकें झपकाने की जरूरत है,
  • हवा के प्रवाह को ऊपर जाने से रोकने के लिए ठीक से मास्क पहने. सोने से 2-3 घंटे पहले स्मार्टफोन या लैपटॉप की स्क्रीन बंद कर दें,
  • लुब्रिकेटिंग आई ड्रॉप्स का इस्तेमाल करें और कोई परेशानी होने पर डॉक्टर से तुरंत मिले,
  • नियमित नेत्र परीक्षण से इसे कुछ हद तक कम किया जा सकता है,
  • नियमित समय पर आज आंखों की देखभाल करें, जो हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है.

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REVIEW: जानें कैसी है Ajay Devgn की Web Series ‘रूद्राः द एज आफ डार्कनेस’

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः समीर नायर

निर्देशकः राजेश मापुस्कर

कलाकारः अजय देवगन, ईशा देओल तख्तानी, राशी खन्ना, अश्विनी कलसेकर, अतुल कुलकर्णी, अशीश विद्यार्थी, मिलिंद गुणाजी

अवधिः साढ़े चार घंटेः 45 मिनट के छह एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः हॉटस्टार डिज्नी

इदरीस एल्बा की रोमांचक  व सायकोलॉजिकल ब्रिटिश वेब सीरीज ‘‘लूथर’’ का हिंदी रीमेक वेब सीरीज ‘‘ रूद्राः द डार्क एज’’ लेकर फिल्मकार राजेश मापुस्कर आए हैं, जो कि डिज्नी हॉट स्टार पर 4 मार्च से स्ट्रीम हो रही है.  मगर अफसोस की बात है कि राजेश मपुस्कर नकल करने में भी सफल नही हो पाए. जबकि मुंबई की पृष्ठभूमि की आपराधिक कहानियों को रोमांचक तरीके से पेश करते हुए पूरा माहौल न्यूयार्क जैसा रचने के अलावा दिग्गज व प्रतिभाशाली कलाकारों को इसमें भर रखा है. इतना ही नही ‘रूद्राः द डार्क एज’  जैसी वेब सीरीज को जिस तरह से फिल्माया गया है, उसे देखते हुए यह टीवी, मोबाइल या लैपटॉप पर देखना सुखद अनुभव नही दे सकता. इसे तो सिनेमाघर में ही देखना उचित होगा. हमने इस सीरीज के तीन एपीसोड सिनेमाघर मे ही देखे हैं.

कहानीः

पहले एपीसोड की कहानी शुरू होती है मुंबई के क्राइम स्पेशल स्क्वॉड के डीसीपी रुद्रवीर सिंह उर्फ रूद्रा (अजय देवगन ) द्वारा एक संदिग्ध का पीछा करने से. पर उस अपराधी से सच कबुलवाने के बाद वह उसे बचाता नही है, बल्कि उसे उंची इमारत से नीचे गिरने देता है, जो कि बाद में अस्पताल में कोमा में चला जाता है. पर डीसीपी रूद्रा की बॉस दीपाली हांडा (अश्विनी कलसेकर) उन्हें सस्पेंड होने से बचा लेती है. इसके बाद वह सायकोलॉजिस्ट और ख्ुाद को सबसे बड़ी जीनियस समझने वाली आलिया चैकसी (राशी खन्ना ) के माता पिता की हत्या की जांच शुरू करते हंै, जहां वह मनोविज्ञान का सहारा लेकर बता देते हंै कि आलिया ने ही अपने माता पिता की हत्या की है, पर सबूत नहीं मिलते. लेकिन यहां से रूद्रा की जिंदगी में आलिया का समावेश हो जाता है. उधर रूद्रा का वैवाहिक जीवन संकट के दौर से गुजर रहा है. रूद्रा की पत्नी शैला(ईशा देओल तख्तानी ) अब अपने प्रेमी राजीव के साथ रह रही है. वहीं रूद्रा की बॉस बार बार उन्हे चेतावनी देती रहती है. जबकि उनका साथी गौतम(अतुल कुलकर्णी) भी मदद करता रहता है. इस तरह मुंबई शहर में होने वाले अपराधों और रुद्र की व्यक्तिगत लड़ाइयों के आसपास की आशंकाओं के साथ हर एपीसोड की कहानी चलती रहती है.

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लेखन व निर्देशनः

इस वेब सीरीज की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसके निर्देशक राजेश मपुसकर हैं. वह इसे पूरी संजीदगी व गहराई के साथ नहीं बना पाए. निर्देशक राजेश मापुसकर ने इसे फिल्माते समय अपना सारा ध्यान आस पास के माहौल को बनाने पर ज्यादा दिया. मंुबई में ही फिल्मायी गयी इस वेब सीरीज को देखकर अहसास होता है, जैसे कि हम अमरीका के न्यूयार्क शहर में पहुच गए हों. पुलिस के खास जांच कार्यालय, अपराधी से पूछताछ के कक्ष आदि की बनावट, साफ सफाई व तकनीक आदि को देखकर यह अहसास नही होता कि यह भारत में होगा. इसके अलावा हर एपीसोड काफी धीमी गति से चलता है. कहानी को बेवजह खींचा गया है. हर एपीसोड 45 से 48 मिनट का है, जिसे महज तीस मिनट के अंदर खत्म किया जा सकता था. दूसरी बात यह सीरीज पूरी तरह से मानव सायकोलॉजी पर आधारित है. जिसमें इंसान के हाव भाव,  बौडी लैंगवेज आदि से सच का पता लगाया जाता है. मसलन- पहले एपीसोड में आलिया चैकसी से पूछ ताछ करते समय तेज तर्रार व अतिबुद्धिमान आलिया से रूद्रा सच कबूल नही करवा पाता. तब वह उबासी लेता है. मतलब ऐसी हरकत करता है कि उसे नींद आ रही है. मनोविज्ञान के अनुसार जब एक इंसान उबासी लेता है, तो सामने वाले इंसान को भी उबासी आनी चाहिए. पर आलिया को उबासी नही आती, जिससे रूद्रा आश्वस्त हो जाता है कि उसी ने अपने माता पिता की हत्या की है. अब इस बात को वही इंसान समझ सकता है, जिसे मानवीय मनोविज्ञान की समझ हो. इस वजह से भी यह वेब सीरीज आम लोगों के सिर के ेउपर से जाने वाली है. इतना ही नही इसकी मेकिंग जिस तरह की है, उसे देखते हुए इसे मोबाइल या लैपटॉप पर देखकर लुत्फ नही उठाया जा सकता. यह तो सिर्फ बड़े स्क्रीन पर देखे जाने योग्य है. जी हॉ!इसमें भव्यता है. कैमरा वर्क अच्छा है. मगर कमजोर लेखन, निर्देशकीय कमजोरी और एडिटिंग में कसावट का अभाव इसे बिगाड़ने का काम करता है.  सीरीज में काफी खून-खराबा दिखाया गया है.  एक कहानी तो ऐसे पेंटर की है,  जो महिलाओं का अपहरण करके उनका खून पीता है,  उनके खून से कैनवास पर तस्वीर बनाता है. यानीकि विभत्सता का भी चित्रण है. इस वेब सीरीज में मनोरंजन का ग्राफ एक समान नहीं है.  वह तेजी से ऊपर-नीचे होता है.

यॅूं तो किसी भी पुलिस अफसर की निजी जिंदगी और उसके द्वारा अपराध की छानबीन का मिश्रण लोगों को काफी पसंद आता है. मगर यहां निर्देशक इसे सही अंदाज में नही पेश कर पाए. दूसरी बात पिछले कुछ समय से हर वेब सीरीज या फिल्म में पुलिस अफसर के तबाह वैवाहिक जीवन की कहानी को ठूंसा जाता जा रहा है. इसे देखने पर कई बार  अहसास होता है कि रुद्रा के किरदार को ठीक से विकसित नहीं किया गया. पूरी वेब सीरीज जुमलों वाले संवाद व फार्मूलों पर ही चलती है. पूरी वेब सीरीज में रोमांच का अभाव है.

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अभिनयः

रूद्रा जैसे समर्पित पुलिस अफसर, जो अपराधी को पकड़ने व न्याय के लिए कानून को अपने हाथ में लेने में यकीन विश्वास करता है,  के किरदार में अजय देवगन ने काफी सध हुआ अभिनय किया है. कई दृश्यों में उनकी बौडी लैंगवेज मनेाविज्ञान के अनुरूप है. मगर उनकी ईमेज एक एक्शन स्टार की है, जबकि इस वेब सीरीज में एक्शन न के बराबर है. फिर भी लड़खड़ाती वेब सीरीज को कई जगह अजय देवगन का अभिनय  संभालता है. मगर ओटीटी पर अजय देवगन कुछ भी नया करते हुए नजर नही आते. आलिया चैकसी के किरदार में राशी खन्ना अपने अभिनय से जरुर कुछ उम्मीदें जगाती हैं. शैला के किरदार में ईशा देओल तख्तानी  निराश करती हैं. इस वेब सीरीज से उनके जुड़ने की बात समझ से परे हैं. अश्विनी कलसेकर, अतुल कुलकर्णी,  अशीश विद्यार्थी, मिलिंद गुणाजी ठीक ठाक हैं.

अंधेरे के हमसफर: भाग 3- क्या था पिंकी के बदले व्यवहार की वजह

लेखक- निर्मल कुमार

‘‘अच्छा मां, माफ कर दो,’’ कहते हुए पिंकी की आंखें भर आईं और वह अपने कमरे में चली गई. पिंकी के आंसू देख सोमांश के मन में परिवर्तन आ गया. अब पिंकी का पलड़ा भारी हो गया. अब पूरी घटना उन्हें एक मामूली सी बात लगने लगी जिसे कजली अकारण तूल दे बैठी थी. अब उन का गुस्सा धीरेधीरे कजली की तरफ मुड़ रहा था कि कजली कुछ नहीं समझती. ग्रेजुएट होते हुए भी अपने जमाने से आगे नहीं बढ़ना चाहती. समझती है कि जो भी अच्छाई है, सारी उस की पीढ़ी की लड़कियों में थी. जरा भी लचीलापन नहीं. समझने को तैयार नहीं कि अब पिंकी नए जमाने की युवती है, जो उस की परछाईं नहीं हो सकती. रात को बिस्तर पर काफी देर तक उन्हें नींद नहीं आई. वे यही बातें सोचते रहे. उधर कजली उन का इंतजार करती रही. कोई एक स्पर्श या कोई प्रेम की एक बात. यह इंतजार करतेकरते उस की कितनी रातें वीराने में लुटी थीं. मगर यह हसरत जैसे पूरी न होने के लिए ही उस की जिंदगी में अब दफन होती जा रही थी. शायद औरतों का मिजाज इसीलिए कड़वा हो जाता है कि वह कभी भी अपने भीतर की युवती को भुला नहीं पाती. वह उस का अभिमान है. देह ढल जाती है मगर वह अभिमान नहीं ढलता. यदि उस का पति उसे थोड़ा सा एहसास भर कराता रहे कि उस की नजरों में वह सब से पहले प्रेमिका है, फिर पत्नी और फिर बाद में किसी की मां, तो उस का संतुलन शायद कभी न बिगड़े मगर पति तो उसे मातृत्व का बोझ दे कर प्रेमिका से अलग कर देता है.

कजली सिसकने लगी. सोमांश झुंझला उठे. वे पहले से ही गुस्से में थे. उन की समझ में नहीं आया कि वह चाहती क्या है. पिंकी पर पूरी विजय पा लेने के बाद भी अभी कुछ कसर रह गई, शायद तभी वह रो रही है. पिंकी को यह अपनी नासमझी से कुचल देगी. वह भी एक भयभीत, दबी, कुचली भारतीय नारी बन कर रह जाएगी. वे कजली की ओर मुड़े मगर उन्हें बोलने से पहले अपने गुस्से पर काबू पाना पड़ा क्योंकि वे जानते थे कि यदि गुस्से में बोला तो कजली सारी रात रोरो कर गुजार देगी. न सोएगी न सोने देगी. कठोर शब्द उस से बरदाश्त नहीं होते और असुंदर परिस्थितियां सोमांश से बरदाश्त नहीं होतीं.

‘‘देखो कजली,’’ सोमांश अपनी आवाज को संयत करते हुए बोले, मगर कजली की नारी सुलभ प्रज्ञा फौरन समझ गई कि वे वास्तव में कु्रद्ध हैं, ‘‘हमें समझना होगा कि यह एक नई पीढ़ी है, कुछ पुराने मूल्य हमारे पास हैं, कुछ नए मूल्य इन के पास हैं. अगर मूल्य इसी तरह आपस में टकराते रहे तो वे विध्वंसक हो जाएंगे. हमें नए और पुराने मूल्यों के बीच समझ पैदा करनी होगी.’’

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‘‘कैसे?’’ कजली ने पूछा.

‘‘मान लो, पिंकी कहती है कि यह क्या फूहड़पन है मां. अब पुराने मूल्यों से देखो तो यह एक गाली है और यदि नए मूल्यों से देखो तो स्पष्ट अभिव्यक्ति. स्पष्ट अभिव्यक्ति की खूबी यह होती है कि वह मन में कोई जहर पलने नहीं देती. स्पष्ट अभिव्यक्ति के कारण ही अमेरिका में लोग स्पष्ट सुनने और कहने के आदी हैं. वहां कोई ऐसी बातों का बुरा नहीं मानता. सब जानते हैं कि स्पष्टता की तलाश में अभिव्यक्ति इतनी कड़वी हो ही गई है. इस में दिल की कड़वाहट नहीं है. ‘‘इस के विपरीत मेरा और अपना जमाना लो. बहुत सी कड़वी बातें जबान पर आ कर रह जाती थीं. वे कहां जाती थीं, सब की सब दिल में. जब कड़वी बात जबान से दिल में लौट आती है तो वह दिल में लौट कर गाली बन जाती है.’’

‘‘मैं समझती हूं,’’ कजली बोली, ‘‘मगर क्या करूं, मेरे दिमाग को यह सूझता ही नहीं. जब तुम कहते हो तो दूसरा पहलू दिखता है वरना मुझे लगता है, बच्चे बड़े हो गए हैं, किसी को मेरी जरूरत नहीं अब. बस, कोको है. यह भी बड़ा हो जाएगा. फिर मैं क्या करूंगी? इतनी अकेली होती जाऊंगी मैं…’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो?’’ सोमांश का हृदय करुणा से भर आया. कजली को उस ने बांहों में भर लिया. तब तक चांद पेड़ों पर चढ़ताचढ़ता खिड़की के सामने आ गया था. चांदनी पेड़ों से छनती कुछ शय्या पर आ रही थी. उस उजाले में कजली का आधा मुंह दमक रहा था और आधे पर स्वप्निल साए थे. उस की विशाल आंखों में न आंसू थे न थकान और न ही निराशा. उन की जगह थी एक स्निग्ध चमक, वासना का वह पवित्र आलोक जो कामकलुषित मन से नहीं, शरीर के अंग गहन स्रोतों से निकलता है. यह वह साफ पाशविकता थी जो प्रकृति को दोनों हाथों से पकड़ कर बरसता नभ उमड़उमड़ कर उस के असंख्य गर्भकोषों में उतार देता है. सोमांश को लगा, यौन की पूर्णता के सर्वथा दैहिक होने में है. मन इस का साक्षी न बने, लजा कर छिप जाए अन्यथा मन इसे देख कर कामकलुषित हो जाता है. विप्लव नहीं, एक संयमित, यौन सुरभ्य क्रिया थी, उम्र ने कामविप्लव को झेल कर सुंदर बनाना सिखा दिया था. जो यौवन में उन्मुक्त मद था, प्रौढ़ावस्था में एक कोमल अनुराग विनिमय बन गया था. तृप्ति दोनों में है मगर यह तृप्ति प्रवृत्त होने वालों पर आश्रित है जो प्रौढ़ता को यौवन का अभाव नहीं, एक परिपक्वता की प्राप्ति समझाते हैं, वे इस की देन से जीवन संवारते हैं. सौंदर्य के तार चांद की किरणों के साथ यौनकर्म भी शय्या पर बुन रहा था. आकाश पर दूर छितरे बादलों को देख अब कजली के मन में उठते विचार बदल गए थे. इतनी पीड़ा थी बादलों के मन में, उस ने सोचा गरजगरज कर जी खोल कर आंसू बहाए थे उन्होंने, मगर अब वे दूरदूर थके बच्चों की तरह सो रहे थे. सफेद बादलों से दुख के श्यामल स्पर्श दूर नहीं हुए थे किंतु उन के पाश से अब बादल बेखबर थे. चांदनी में चमकती उन की रुई जैसी सफेदी को श्यामलता का अब जैसे कोई एहसास ही नहीं था.

दुखों से निकलने की राह क्या यही ह? दुखों से लड़ी तो दुख अनंत लगे और दुखों पर साहसपूर्वक आत्मबलि दी तो वे निष्प्रभ हो गए. उधर सोमांश मूल्यों के इस संघर्ष में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने में असमर्थ थे. न तो पत्नी को दबा सकते थे न बेटी को. एक के साथ शताब्दियां थीं, संस्कृति थी तो दूसरी के साथ वह ताजगी, वह चिरनूतन जीवन था जिस से मूल्य और संस्कृति जन्म लेते हैं. दोनों में संघर्ष अनिवार्य है क्योंकि यह दौर अनिश्चितता के नाम है. जब काल के ही तेवर ऐसे हैं तो मैं संभावनाओं के कालरचित खेल को एक निश्चित हल दे कर रोकने वाला कौन हूं. ये छोटेछोटे पारिवारिक संघर्ष ही नए मूल्यों को जन्म देंगे शायद. अपने छोटे से परिवार का हर सदस्य उन की आंखों के आगे अपनी सारी शरारत के साथ आया. हम सब अंधेरे के हमसफर हैं. रोशनी कहां है? कभीकभी इतिहास में ऐसा दौर भी आता है जब पूरी श्रद्धा से अपनेअपने अंधेरे के सहारे चलना पड़ता है.

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अगली सुबह चारों एकसाथ मानो किसी अज्ञात प्रेरणा के अधीन नाश्ता करने बैठे, ‘‘पिताजी, आज आप ने ब्रिल क्रीम लगाई है या तेल?’’ कोको ने पूछा.

‘‘ब्रिल क्रीम.’’

‘‘बहुत सारी लगाई होगी,’’ कोको बोला, ‘‘तभी तो चेहरा इतना चमक रहा है.’’

पिंकी हंसने लगी. कजली भी हंसने लगी और बोली, ‘‘या तो लगाते नहीं और जब लगाते हो तो थोक के भाव.’’ सोमांश की ऐसी बचकानी हरकतों पर अकसर घर में हंसी बिखर जाती थी. पुराने मूल्यों और नए मूल्यों के बीच अमूल्य कोको भी था जिस के मूल्य अभी प्रकृति ने समन्वित कर रखे थे, जो सनातन थे कालजन्य नहीं. उस के बचपन का भोलापन अकसर दोनों मूल्यों के बीच ऐसे संगम अकसर रच दिया करता था. कुछ देर में ही कोको और पिंकी की लड़ाई होने लगी, ‘‘देखो मां,’’ पिंकी बोली, ‘‘अब की बार जो रस्कीज (शकरपारे) लाई हो, सब कोको ने छिपा लिए हैं. हमें भी दिलवाओ.’’

‘‘मांमां…’’ कोको बोला, ‘‘पहले दीदी से मेरे 30 रुपए दिलवाओ.’’

‘‘वाह, इसे मैं कहीं ले जाऊं तो ठंडा पिलवाऊं और आइसक्रीम खिलवाऊं…’’

‘‘जो खिलाते हैं, उस के दाम क्या छोटे भाई से वसूल किए जाते हैं?’’ कजली बोली.

‘‘मां, मेरे रुपए दिलवाओ,’’ कोको फिर बोला.

‘‘मैं नहीं दूंगी,’’ कहती हुई पिंकी कमरे में भागी और उस के पीछेपीछे कोको.

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अंधेरे के हमसफर: भाग 2- क्या था पिंकी के बदले व्यवहार की वजह

लेखक- निर्मल कुमार

अब भी उस का मन करता कि उस के पति दफ्तर से लौटते ही उसे उसी तरह बांहों में लें जैसे शुरू में लेते थे. उस का शरीर चाहता अठखेलियां हों, कुछ रातों को जागा जाए, कुछ फुजूल की बातें हों और सुबह की रोशनी में धुंधला चांद हो जब वे दोनों सोएं. मगर ये इच्छाएं अब एकतरफा थीं. उसे ग्लानि होने लगी थी अपनी दैहिकता पर. वह अगर खुल कर अपने व्यक्तित्व को जीए तो दुनिया हंसेगी और अगर व्यक्तित्व को न जीए तो शरीर का पोरपोर घुटता है और वह स्थूल होता जाता है. अजब मूल्य है आधुनिक समाज का भी, जो युवावर्ग को तो पूरी आजादी देता है मगर वही युवा वर्ग अपने मातापिता की जरा सी शारीरिक अल्हड़ता बरदाश्त नहीं करता. वह चाहता है कि मातापिता आदर्श मातापिता बने रहें, यह भूल जाएं कि वे स्त्रीपुरुष हैं. 3 बजे पिंकी कालेज से लौटी. वह खाना खा रही थी कि तभी फोन आया. कजली ने फोन उठाया. पिंकी का मित्र संजय था. कजली उस से बातें करने लगी, ‘‘कैसे हो बेटे? मां कैसी हैं? पढ़ाई कैसी चल रही है? तुम कोको की पार्टी में नहीं आए, मुझे बहुत दुख हुआ.’’

‘‘उफ, मां,’’ खीज कर पिंकी उठी और मां से फोन छीन लिया. रिसीवर हाथ से ढकते हुए बरसी, ‘‘यह क्या मां, क्या जरूरत है आप को इतनी बातें करने की?’’

तब तक फोन कट गया. ‘‘यह लो, फोन भी कट गया. सारा वक्त तो फोन पर आप ले लेती हैं. फोन पर चाहे मेरा ही मित्र हो, उसे भी आप अपना ही मित्र समझती हैं. ऐसे ही जब अनीता आती है तो ऐसे प्यार करने लगती हो जैसे वह आप की दोस्त है.’’ ‘‘तो इस में क्या हुआ? मुझे अच्छी लगती है, सीधी और नाजुक सी लड़की है.’’

‘‘बस भी कर मां, मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ कि तुम संजय को कह रही थीं, तुम कोको की पार्टी में नहीं आए. अब कोको खुद यह बात कहे तो और बात है. आप कौन होती हैं यह बात कहने वाली?’’

‘आप कौन होती हैं’ यह वाक्य तीर की तरह चुभा कजली को, ‘‘मैं कौन होती हूं?’’ वह बोली, ‘‘मैं कोको की मां हूं.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था, मां.’’

‘‘तुम क्या अपनी जबान को थोड़ा भी नियंत्रण नहीं कर सकतीं? बाहर वालों के सामने तो ऐसी बन जाती हो जैसे मुंह से फूल झड़ रहे हों और घर वालों से कितनी बदतमीजी से बोलती हो?’’

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‘‘आप को कुछ समझाना बेकार है, मां,’’ कह कर पिंकी अपने कमरे में चली गई. बाद में कजली भी अपने कमरे में चली गई. अब दोनों को शाम तक, गृहस्वामी के लौटने तक, अपनाअपना अवसाद जीना था, अपनीअपनी खिन्नता को अकेले झेलना था. दोनों दुखी थीं मगर अपने दुखों को बांट नहीं सकती थीं. कोई दीवार थी जो दुखों ने ही चुन दी थी या फिर अभिमान था, एक मां का सहज अभिमान और एक युवा लड़की के तन में बसे उभरते यौवन का अभिमान जो उसे एक अलग पहचान बनाने को मजबूर कर रहा था, जो मां को आहत सिर्फ इसलिए कर रहा था ताकि वह उस के साए से निकल सके और अपना नीला आसमान खुद बना सके. स्कूल से आते ही कोको ने अपना बस्ता फेंका और बिना जूते खोले मां के पास लेट गया. मां से चिपट गया जैसे इतनी देर दूर रहने मात्र से उस के शरीर के कण प्यासे हो गए थे. उस रस के लिए जो सिर्फ मां के शरीर से झरता था. रात को खाने के बाद कजली ने पति से शिकायत की, ‘‘पिंकी बहुत बदतमीज हो गई है. आज इस ने मुझे फूहड़ आदि न जाने क्याक्या कहा.’’

पति सोमांश, जो पेशे से जज हैं, कुछ देर चुप रहे और पत्नी के दुख को कलेजे में उतर जाने दिया और जब उन के भी कलेजे को इस का लावा झुलसाने लगा तो बोले, ‘‘पिंकी, अब तुम बच्ची तो नहीं रहीं. अगर तुम अपनी मां का आदर नहीं कर सकतीं तो किस का करोगी? जो व्यक्ति अपनी भाषा को नहीं निखारता, उस का व्यक्तिव नहीं निखरता. क्या तुम गंवार लड़की बनी रहना चाहती हो? संस्कार कौन बताएगा? कोई और तो आएगा नहीं. वाणी और करनी पर सौंदर्य का संयम रखोगी तो संस्कार बनेंगे वरना वाणी और कर्म दोनों जानवर बना देंगे. तुम मनोवेगों में जीती हो. मनोवेगों में जीना प्राकृतिक जीवन नहीं है. बुद्धि और संयम भी तो प्राकृतिक हैं, केवल मनोवेग ही प्राकृतिक हो ऐसा तो नहीं.’’ पिंकी रोंआसी हो गई, ‘‘पिताजी, मैं किसी की शिकायत नहीं करती और मां रोरो कर रोज मेरी शिकायत करती हैं. रो पड़ती हैं तो लगता है ये सच बोल रही हैं. यदि मैं भी रोऊं तो आप समझोगे कि सच बोल रही हूं वरना आप मुझे झूठी समझोगे.’’

‘‘तो क्या मैं झूठ बोल रही हूं?’’ कजली बोली.

‘‘आप जिस तरह बात को पेश कर रही हैं, मैं ने उस तरह नहीं कहा था. आप के मुंह से सुन कर तो लगता है, जैसे मुझे जरा भी तमीज नहीं है, मैं पागल हूं.’’ ‘‘तुम पिताजी के सामने निर्दोष बनने की कोशिश मत करो. तुम जिस तरह का बरताव करती हो वह किसी भी लड़की को शोभा नहीं देता. हम तो बरदाश्त कर लेंगे मगर तुम्हें पराए घर जाना है. सब यही कहेंगे कि मां ने कुछ नहीं सिखाया होगा.’’

पिता बोले, ‘‘यह तो मैं भी देखता हूं पिंकी कि तुम ‘मम्मी’ को कुछ नहीं समझती हो.’’

‘‘पिताजी, आप भी ‘मम्मी’ कह रहे हैं,’’ पिंकी हंसने लगी.

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‘‘यह हंसी में टालने की बात नहीं है, पिंकी,’’ पिता ने गंभीर आवाज में कहा, ‘‘तुम ने अमेरिकन संस्कृति अपना ली है. वह भारत में नहीं चलेगी. हमारी संस्कृति की जड़ें बहुत मजबूत हैं अमेरिका के मुकाबले. जिस घर में जाओगी वहां की भारतीय जड़ें तुम्हारी अमेरिका की वाहियात बातों को बरदाश्त नहीं करेंगी.’’ पिंकी बोली, ‘‘अमेरिकन संस्कृति कोई संस्कृति नहीं, प्रेग्मेटिज्म है, उपयोगितावाद है यानी जो वक्त का तकाजा है वही करो. इस आदर्श को अपना लेने में हर्ज ही क्या है? जिन भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की दुहाई आप देते हैं उन्होंने हमें दिया ही क्या? सदियों की गुलामी, औरतों की दुर्दशा, दहेज व जातिवाद के अलावा और क्या? इस संस्कृति को भी तो खुल कर नहीं जी पाते हम लोग. जीएं तो विदेशों से हुकूमत करने आए लोग सांप्रदायिकता का आरोप लगाते हैं. कितना अस्तव्यस्त कर डाला है आप की पीढ़ी के मूल्यों ने. इस से तो हम ही अच्छे हैं. जो भीतर हैं वही बाहर हैं. अगर हम बहुत मीठी बातें नहीं करते तो हमारे दिल भी तो काले नहीं हैं. वे मूल्य क्या हुए कि दिल में जहर भरा है और ऊपर से सांप्रदायिक एकता का ढोंग रच रहे हैं?’’

‘‘बात तुम्हारी हो रही है,’’ पिता बोले, ‘‘अपनी बात करो, पूरे समाज की नहीं. सारांश यह है कि तुम्हें अपनी मां से माफी मांगनी चाहिए और आइंदा बदतमीजी न करने का वादा करना चाहिए.’’

‘‘मां को भी तो हमारी बात समझनी चाहिए. हम उन की पीढ़ी तो हो नहीं सकते. हमारी सब बातों को वे अपनी पीढ़ी से क्यों तोलती हैं? हमें परखें नहीं. हम से प्यार करें तो समझें हमें.’’

‘‘तुम सचमुच जबानदराज हो गई हो, पिंकी,’’ सोमांश को गुस्सा आ गया, ‘‘अब तुम मां से प्रेम का सुबूत मांगती हो. अरे, कौन मां है जो अपने बच्चों से प्यार नहीं करती?’’

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अंधेरे के हमसफर: भाग 1- क्या था पिंकी के बदले व्यवहार की वजह

लेखक- निर्मल कुमार

पिंकी के कालेज जाने के बाद बादल घिर आए. आज फिर वह कजली से लड़ी थी. इसी बात को ले कर कजली दुखी थी. कपड़े धोते हुए कई बार उसे रुलाई आई. उस से खाना भी नहीं खाया गया और वह बैडरूम में चली गई. कुछ देर बादलों के घुमड़ते शोर और कजराए नभ ने उस के मन को बहलाए रखा. मगर जैसे ही बूंदें गिरने लगीं उसे फिर पिंकी की बदतमीजी याद आई कि मैं उस की मां हूं और वह मुझे ऐसे झिड़कती है जैसे मैं उस की नौकरानी हूं. पिंकी का व्यवहार अपनी मां के प्रति अच्छा नहीं था. कई बार कजली ने अपने पति से रोते हुए शिकायत की थी. जवाब में वे एक उदास, बेबस सी गहरी सांस लेते और पूरी समस्या का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए उसे धीरज न खोने की राय देते, ‘पुराने मूल्य टूट रहे हैं, नए बन नहीं पाए. नई पीढ़ी इसी दोहरे अंधेरे से घिरी है. अगर हम उन्हें डांटेंगे तो वे भयाक्रांत हो, नए मूल्य ढूंढ़ना छोड़ देंगे. उन का व्यक्तित्व पहले ही मूल्यहीनता की कमी के एहसास से हीनताग्रस्त है. डांटफटकार से वे टूट जाएंगे. उन का विकास रुक जाएगा. बेहतर यही है कि उन के साथ समान स्तर पर कथोपकथन चलता रहे. इस से उन्हें अपने लिए नए मूल्य ढूंढ़ने में मदद मिलेगी.’

पति की इस कमजोर करती, असहाय बनाती प्रतिक्रिया को याद कर कजली की आंखों से विवशता के आंसू बहने लगे. उसे अपना छोटा बेटा कोको याद आया, जो स्कूल गया हुआ था. बड़ा बेटा आईआईटी में इंजीनियरिंग कर रहा था. वह पिंकी की तरह दुर्व्यवहार तो नहीं करता था मगर उस में भी आधुनिक युवावर्ग की असहनशीलता और वह पुरानेपन के प्रति निरादर था. केवल नन्हा कोको ही ऐसा था जो नए और पुराने मूल्यों के भेद से अनभिज्ञ था, जो सिर्फ यह देखता था कि मां की प्यारी आंखें ढुलक रही हैं और यह वह देख नहीं सकता था क्योंकि मां के आंसू देख उस का उदर रोता था. वह अपने मायूस हाथों से उस के आंसू पोंछते हुए उस के गले से लग जाता था  बात कुछ नहीं थी. बात कभी भी कोई खास नहीं होती थी. बस, छोटीछोटी बातें थीं जिन्हें ले कर अकसर पिंकी दुर्व्यवहार करती. आज वह देर तक सोती रही थी. कजली ने उसे जगाया तो वह झुंझला कर बोली, ‘‘उफ, मां, तुम इतनी अशिष्ट क्यों हो गई हो?’’

‘‘क्यों, इस में क्या अशिष्टता हो गई?’’

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‘‘अच्छा, इतनी जोर से मुझे हिलाया और ऊपर से कह रही हो कि इस में क्या अशिष्टता हो गई? क्या प्यार से नहीं जगा सकती थीं?’’

‘‘मुझ से ये चोंचले नहीं होते.’’

‘‘ये चोंचले नहीं, मां, आधुनिक संस्कृति है. मेरा सारा मूड आप ने खराब कर दिया. मैं ने कई बार कहा है कि जब मैं सो रही होऊं तो ऐसी कठोर आवाज में मत बोला करो. सुबह उठने पर पहला बोल प्यार का होना चाहिए.’’

‘‘तो अब तुम मुझे सिखाओगी कि कैसे उठाया करूं, कैसे तुम से बात किया करूं? एक तो 9 बजे तक सोई रहती हो ऊपर से मुझे उठाने की तमीज सिखा रही हो. हमारे जमाने में सुबह 6 बजे उठा दिया जाता था. हमारी हिम्मत नहीं होती थी कि कुछ कह सकें.’’

‘‘वह पुराना जमाना था, तब लड़कियों को घर की नौकरानी समझा जाता था. मेरे साथ यह सब नहीं चलेगा.’’

‘‘क्या नहीं चलेगा? तू बहुत जबान चलाने लगी है. जरा सी भी तमीज है तुझ में? मैं तेरी मां हूं.’’

‘‘मां, आप हद से आगे बढ़ रही हो. मैं ने आप को ऐसा कुछ नहीं कहा है. आप मुझे गालियां दे कर निरुत्साहित कर रही हो. आप क्या समझती हो कि मैं आप के इस मूर्खतापूर्ण व्यवहार को बरदाश्त कर जाऊंगी.’’

‘मूर्खतापूर्ण’ शब्द सुनते ही कजली आश्चर्यचकित रह गई. उस की समझ में नहीं आया कि वह क्या कहे. अपना सारा उफान उसे पीना पड़ा. नाश्ते की मेज पर फिर पिंकी ने अपने नखरे शुरू कर दिए, ‘‘यह क्या नाश्ता है, मां? परांठे और दूध, क्या यह क्रौकरी लगाने का ढंग है? प्लेटें हरे रंग की हैं तो डोंगे भूरे रंग के. मां, मैं तो ऐसे नहीं खा सकती. खाने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है खाना परोसने का तरीका. फूहड़ तरीके से परोसने से वैसे ही भूख मर जाती है.’’ अब यह दूसरा कठोर शब्द था, ‘फूहड़’. यानी मां फूहड़ है. ‘‘तू अब मां को फूहड़ कहना सीख गई. मैं भी ग्रेजुएट हूं. इस घर में बस यही मेरी इज्जत है?’’

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कजली की आंखों में आंसू भर आए. ये ऐसे आघात थे, जो उस ने कभी बचपन में जाने नहीं थे. जिस संस्कृति में वह पली थी उस में मां की शान में गुस्ताखी अक्षम्य थी. कोई भी मां अपनी बेटी से ‘फूहड़’ शब्द सुन कर शांत नहीं रह सकती थी. मां को रोते देख पिंकी सहम गई, ‘‘मैं ने आप को नहीं कहा, मां. मैं तो कुंदन को कह रही थी. इस को कुछ सिखाओ, मां. यह कुछ भी नहीं सीखना चाहता. जैसा गंवार आया था वैसा ही है.’’

‘‘मैं सब समझती हूं. बेवकूफ नहीं हूं. क्या यहां कुंदन था जब तू यह सब बोल रही थी?’’ पिंकी अवाक् हो गई और अपना उतरता चेहरा छिपाने के लिए कालेज के लिए देरी होने का बहाना करते हुए बाहर हो गई. एक पीड़ा थी, एक गहन पीड़ा, एक अनंत सी लगती पीड़ा, जिस का उद्गम पेट के गड्ढे में था, जहां से वह लावे की तरह उबल रही थी. जो आंसू कजली की आंखों से बरस रहे थे वे देखने में तो पानी थे लेकिन वे पिघले लावे की तरह आंखों को लग रहे थे. इस दुख में और सारे दुख आ मिले थे. सब से बड़ा यह था कि गृहस्थ जीवन ने उसे क्या दिया? 3 बच्चे, दुनियाभर की चिंताएं. दुनियादारी के दबाव, भय व दिन पर दिन आकर्षण खोता शरीर और सैक्स से विरक्त होते पति. पूरीपूरी रात वह थक कर, दफ्तर

की चिंताओं और जिंदगी की उलझनों को हफ्ते में 2-3 बार 3 पैगों में गर्त कर के ऐसे सोते रहते जैसे स्त्री शरीर के प्रति उन में केवल मातृभाव था. वासना जैसे थी ही नहीं, किंतु चोट तब लगती जब पार्टियों में या कार में साथ जाते हुए वे जी खोल कर सुंदर युवतियों की रूपसुधा से मोटे चश्मे के पीछे आंखों की वीरानी दूर करते. अब उम्र की ढलान पर उतरते हुए कजली को लगता जैसे इतनी धूप में वह अकेली रह गई है.

आगे पढ़ें- 3 बजे पिंकी कालेज से लौटी. वह…

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71 की उम्र में ‘ड्रीम गर्ल’ संग इश्क लड़ाते दिखे Mithun

कलर्स का रियलिटी शो ‘हुनरबाज’ (Hunarbaaz) में जल्द ही ‘ड्रीम गर्ल’ (Dream Girl) हेमा मालिनी (Hema Malini) दिखाई देने वाली हैं, जिसके चलते शो के मेकर्स ने नया प्रोमो शेयर किया है. वहीं प्रोमो की बात करें तो मिथुन चक्रवर्ती (Mithun Chakraborty) हेमा मालिनी संग इश्क लड़ाते नजर आ रहे हैं. आइए आपको दिखाते हैं प्रोमो की झलक…

हेमा मालिनी संग किया डांस

 

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दरअसल, प्रोमो की बात करें तो इस बार एक्ट्रेस हेमा मालिनी मदर्स डे के मौके पर शो में मस्ती करती हुई नजर आने वाली हैं. वहीं वह 90 के दशक के सॉन्ग पर शो के जज मिथुन चक्रवर्ती संग इश्क लड़ाते दिखाई देंगी. हालांकि होस्ट भारती सिंह (Bharti Singh) और हर्ष लिम्बाचिया (Haarsh Limbachiyaa) इस मौके पर दोनों के साथ मजाक करते हुए नजर आएंगे.

 

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भारती खींचती हैं मिथुन दा की टांग

 

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शो के बात करें तो भारती सिंह प्रैग्नेंसी में भी शो को होस्ट करती हुई नजर आ रही हैं. हालांकि इस दौरान भी वह कौमेडी करती नजर आती हैं और दर्शकों को एंटरटेन करती हैं. इसी के साथ वह शो के जज मिथुन दा के साथ मस्ती करती हैं और उनकी टांग खींचती हुई नजर आथी हैं.

 

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बता दें, एक्टर मिथुन चक्रवर्ती और हेमा मालिनी की आइकॉनिक जोड़ी कई पुरानी फिल्मों में देखने को मिली हैं. ‘आंधी-तूफान’, ‘तकदीर’, ‘गलियों का बादशाह’, ‘हिरासत’, ‘साधु संत’ और ‘सहारा’ जैसी फिल्मों में दोनों स्क्रीन शेयर करते हुए नजर आ चुके हैं. वहीं फैंस को दोनों की कैमेस्ट्री भी काफी पसंद आती हैं. अब देखना होगा कि शो में दोनों के इस डांस पर फैंस कैसा रिएक्शन देते हैं.

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