Serial Story: का से कहूं (भाग-1)

रानीऔर किशोरजी के इकलौते बेटे की शादी थी. पूरे घर में रौनक ही रौनक थी. कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी थी. दुलहनिया भी इसी शहर के एक नामी घर से लाए थे. जैसे इन का अपना सुनार का व्यवसाय था जो पूरे शहर में प्रसिद्ध था वैसे ही दुलहन के घरवालों का भी गोटेकारी का बड़ा काम था और उन की दुकानें शहर में कई जगहों पर थीं. उन का पूरा परिवार एक संयुक्त परिवार के रूप में एक ही कोठी में रहता था. चाचाताऊ में इतना एका था कि विलास के रिश्ते के लिए हां करने से पहले भी मोहना ने अपने ताऊजी को बताया था. तभी तो रानी को मेहना भा गई थी. उन का मानना था कि एकल परिवार की लड़कियां सासससुर से निभा नहीं सकतीं. संयुक्त परिवार की लड़की आएगी तो हिलमिल कर रहेगी.

डोली तो अलसुबह ही आंगन में उतर चुकी थी, दूल्हादुलहन को अलग कमरों में बिठा कर थोड़ी देर सुस्ताने का मौका भी दिया गया था. गीतों से वातावरण गुंजायमान था. फिर खेल होने थे सो सब औरतें उसी तैयारी में व्यस्त थीं. खूब हंसीखुशी के बीच खेल हुए. मोहना और विलास ने बहुत संयम से भाग लिया. न कोई छीनाझपटी और न कोई खींचतानी. मोहना खुश थी कि उस की पसंद सही निकल रही है वरना उस के बड़े भैया की शादी में भाभी के हाथों में उन के अपने नाखून गड़ कर लहूलुहान हो गए थे पर उन्होंने भैया को बंद मुट्ठी नहीं खोलने दी थी. ऐसे खेलों का क्या फायदा जो शादी के माहौल में नएनवेले जोड़े के मन में प्रतियोगियों जैसी भावना भर दें.

शाम ढलने को थी. सभी भाइयोंदोस्तों ने विलास का कमरा सुसज्जित कर दिया था. रात्री भोजन के पश्चात मोहना को सुहाग कक्ष में ले जा कर बैठा दिया गया. हंसतीखिलखिलाती बहनें कुछ ही देर में विलास को भी वहां छोड़ गईं.

‘‘अरे आप इतने भारी कपड़ों में सांस कैसे ले पा रही हो? वाई डोंट यू चेंज,’’ विलास ने कमरे में आते ही कहा, ‘‘मैं भी बहुत थक गया हूं. मैं भी चेंज कर लेता हूं.’’

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मोहना एक बार फिर खुशी से लाल हो गई. कितना समझने वाला साथी मिला है उसे. वो उठ कर बाथरूम में चेंज कर के आई तब तक विलास भी चेंज कर के बिस्तर पर लेट चुका था. ‘गुड नाईट’, मुसकरा कर कह विलास ने कमरे की लाइट बुझा दी. थोड़ी ही देर में पिछले कई दिनों से चल रही रस्मों की थकान और सुबह से उकड़ू बैठी मोहना को नींद ने घेर लिया.

सुबह दोनों फ्रैश उठे. एकदूसरे को देख कर मुसकराए. विलास बोला, ‘‘कुछ दिनों की बात है, मोहना, यहां तो रीतिरिवाज खत्म नहीं होंगे पर हम दोनों जब मुंबई चले जाएंगे तब लाइफ सैटल होने लगेगी.’’ विलास अपने पिता का कारोबार न संभाल कर मुंबई में नौकरी करता था. शादी के कुछ दिनों बाद दोनों का मुंबई चले जाने का कार्यक्रम तय था. पर उस से पहले विलास और मोहना को हनीमून पर जाना था. शादी का दूसरा दिन हनीमून की पैकिंग में गया और तीसरे दिन दोनों ऊटी के लिए रवाना हो गए. ऊटी का नैसर्गिक सौंदर्य देख दोनों प्रसन्नचित्त थे. रिजौर्ट भी चुनिंदा था. विलास के मातापिता की तरफ से ये उन की शादी का गिफ्ट था.

‘‘यहां का सूर्योदय बहुत फेमस है तो कल सुबह जल्दी उठ कर चलेंगे सन पौइंट. चलो अब सो जाते हैं,’’ कह विलास ने कमरे की लाइट बंद कर दी. आज मोहना को थोड़ा अजीब लगा. नई विवाहिता पत्नी बगल में लेटी है और विलास जल्दी सोने की बात कर रहा है, वह भी हनीमून पर. घर पर उसे लगा था कि समय की कमी, थकान, आसपास परिवार वालों की मौजूदगी आदि के कारण वो उस के निकट नहीं आया पर यहां अकेले में? यहां क्यों विलास को सोने की जल्दी है? पर फिर अगले ही पल उस ने अपने विचारों को झटका, कह तो रहा है कि सुबह जल्दी निकलना है और फिर कितना तो खयाल रखता है वह मोहना का. सारे रास्ते उस के आराम और खानेपीने के बारे में पूछता रहा. कुछ ज्यादा ही सोच रही है वह शायद.

अगला दिन अच्छा व्यतीत हुआ. दोनों ने काफी कुछ घूमा. देर शाम थक कर

दोनों कमरे में लौटे, ‘‘मोहना, प्लीज क्या तुम मेरी पीठ पर ये बाम लगा दोगी? मेरी पीठ में काफी दर्द है कुछ दिनों से,’’ विलास ने मोहना को बाम की एक शीशी देते हुए कहा.

‘‘हां, क्यों नहीं. इस में प्लीज कहने की क्या बात है. लाओ, मैं बाम लगा देती हूं,’’ वो बाम लगाते हुए सोचने लगी, ‘‘अगर तुम्हारी पीठ में दर्द है तो कल कमरे में ही रेस्ट करते हैं, कहीं घूमने नहीं निकलते.’’

‘‘नहीं, नहीं, सुबह तक आराम आ जाना चाहिए और फिर इतनी दूर तक आए हैं तो कमरे में रहने तो नहीं,’’ विलास ने कहा.

अगले 2 दिनों में दोनों ने ऊटी शहर के पर्यटक आकर्षणों को देखा. बोटैनिकल गार्डन, रोज गार्डन, सैंट स्टीफन चर्च आदि घूम कर दोनों ने शहर का पूरा लुत्फ उठाया. होम मेड चौकलेट भी खरीदीं और यहां की सुप्रसिद्ध चाय भी. सभी घरवालों के लिए कुछ न कुछ तोहफे भी लिए. आज वापसी की बारी थी. मोहना जरा सी उदास भी थी और नहीं भी. जब उस का कुंवारा दिल पति प्रेम के सानिध्य में डूबने की इच्छा जताता, वह उसे समझा लेती कि पतिपत्नी का रिश्ता एक हफ्ते का नहीं अपितु पूरे जीवन भर का होता है. जिस सामीप्य के लिए वह तरस रही है, वह उसे मिल ही जाएगा. तो फिर आज के खुशहाल क्षण क्यों गंवाए?

घर लौटने पर रानी और किशोरजी बेहद खुश हुए. अब तक सारे रिश्तेदार लौट चुके थे. घर अपने वास्तविक रूप में लौट चुका था. आज मोहना ने अपनी पहली रसोई बनाई जिस में रानी ने उस की पूरी सहायता की. शगुन के रूप में किशोर जी ने उसे सोने के कंगन दिए. इतना प्यार, इतना दुलार पा कर मोहना अपने भाग्य पर इठलाने लगी थी.

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कुछ दिन वहां रह कर मोहना और विलास मुंबई के लिए रवाना हो गए. सब कुछ बहुत अच्छा था, एकदम आदर्श स्थिति… बस कमी थी तो केवल शारीरिक सामीप्य की. विलास अब तक मोहना के निकट नहीं आया था. पर वह बेचारा भी क्या करे, पीठ में दर्द जो कायम था, सोच मोहना अपना मन संभाल रही थी.

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Serial Story: का से कहूं (भाग-2)

मुंबई पहुंच कर नए घर को व्यवस्थित करने का जिम्मा विलास ने मोहना को दिया, ‘‘अब से इस घर की सारी जिम्मेदारी तुम्हारी. चाहे जैसे सजाओ, चाहे जैसे रखो. हम तो आप के हुक्म के गुलाम हैं,’’ विलास का यह रूप, लच्छेदार बातें मोहना पहली बार सुन रही थी. अच्छा लगा उसे कि अकेले में विलास उस से बिलकुल खुल चुका था. विलास ने अपना औफिस वापस जौइन कर लिया और मोहना घर की साजसज्जा में व्यस्त रहने लगी. दिन में जितने फोन मोहना के मायके से आते, उतनी ही बार रानी भी उस से बात करती रहतीं. उसे अकेलापन बिलकुल नहीं महसूस हो रहा था. लेकिन विलास अकसर रातों को बहुत ही देर से घर लौटता, ‘‘आजकल काफी काम है. शादी के लिए छुट्टियां लीं तो बहुत काम पेंडिंग हो गया है,’’ वह कहता. घर की एक चाबी उसी के पास रहती तो देर रात लौट कर वह मोहना की नींद खराब नहीं करता, बल्कि अपनी चाबी से घर में घुस कर चुपचाप बिस्तर के एक कोने में सो जाता. मोहना सुबह पूछती तो पता चलता कि रात कितनी देर से लौटा था.

जब जिंदगी पटरी पर दौड़ने लगी तो मोहना सारा दिन घर में अकेले बोर होने लगी. विलास के कहने पर उस ने लोकल ट्रेन में चलना सीखा और अवसरों की नगरी मुंबई में 2 शिफ्टों में सुबहशाम की 2 नौकरियां ले लीं. अब मोहना खुद भी व्यस्त रहने लगी. शुरू में उसे यह व्यस्तता बहुत अच्छी लगी. लोकल ट्रेन में चलने का अपना ही नशा होता है. आप सारी भीड़ का एक हिस्सा हैं, आप उन के साथ उन की रफ्तार से कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं और एकएक मिनट की कीमत समझ रहे हैं. मोहना भी इस जिंदगी का मजा लेने लगी. उस के कुछ नए दोस्त भी बने. प्रियंवदा उस की अच्छी सहेली बन गई जो उसे अकसर लोकल ट्रेन में मिला करती. उस का औफिस भी उसी रास्ते पर था. प्रियंवदा की शादी को एक साल हुआ था और मोहना की शादी को अभी केवल 2 महीने बीते थे.

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‘‘दूसरी शिफ्ट की क्या जरूरत है, मोहना, रात को घर लौटते समय देर नहीं हो जाती?’’ एक दिन प्रियंवदा ने पूछा.

‘‘हां, करीब 10 बज जाते हैं पर विलास काफी देर से घर लौटते हैं तो मुझे कोई प्रौब्लम नहीं होती.’’

‘‘तभी मैं कहूं्… मेरे पति तो मुझे जरा सी देर भी अकेला नहीं छोड़ते. यहां तक कि किचन का काम निबटाने में भी अगर टाइम लग जाए तो शोर मचाने लगते हैं,’’ कह प्रियंवदा शरमा कर हंसने लगी, ‘‘तुम्हारी शादी तो और भी नई है. रात को ऐनर्जी कहां से लाती हो.’’

मोहना के मन में आया कि अपनी सहेली को असली बात बता दे पर फिर नई दोस्ती होने के कारण चुप रह गई. किंतु अब उस के मन की टीस बढ़ने लगी. हर किसी के बैडरूम के किस्से और मजाक सुन कर उस के मन में अपनी जिंदगी की रिक्तता और भी गहराने लगी थी. खैर, जिंदगी तो अपनी रफ्तार से भागती रहती है. यों ही 6 महीने गुजर गए. आज फिर मोहना ने शुरुआत करने के बारे में सोचा… उसे याद आया कि जब पिछले महीने उस ने विलास के करीब सरक कर अपना हाथ उस की छाती पर रखा था तो कैसे विलास ने बेरुखी से कहा था, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ सकुचा कर रह गई थी वह. पर फिर भी उस ने हाथ नहीं हटाया था. धीरे से विलास की बांहों में जब वह आ गई तो उस ने विलास के गाल को चूमा था. विलास असहज हो गया और बोला, ‘‘मोहना, आजकल औफिस में बहुत स्ट्रैस चल रहा है. इस कारण मुझे सिरदर्द भी है. तुम्हें बुरा न लगे तो मैं करवट लेना चाहता हूं,’’ और विलास मोहना की तरफ पीठ फेर कर सो गया था. न जाने कितनी और देर तक मोहना जागी रही थी. सोती भी कैसे, नींद जो पलकों में आने से इंकार कर रही थी. इन बीते दिनों में जब कभी उस ने हिम्मत कर के शुरुआत की तब विलास की तरफ से केवल बेरुखी हाथ लगी. कभी कहता आज बहुत थका हुआ हूं, तो कभी खराब तबीयत का बहाना.

आज फिर मोहना ने कोशिश करने की सोची. उस ने एक बहाना बनाया, ‘‘मेरी पीठ में

आजकल बहुत ड्राईनैस हो रही है, मौसम बदल रहा है न, शायद इसलिए. पर मेरा हाथ पूरी पीठ तक नहीं पहुंच पा रहा. क्या तुम मेरी पीठ पर क्रीम लगा दोगे?’’ कहते हुए मोहना ने अपनी पीठ पर क्रीम लगाने की फरमाइश की और उस की ओर अपनी नंगी पीठ ले कर बैठ गई. स्पर्श में बड़ी ताकत होती है. उसे उम्मीद थी कि क्रीम लगाते हुए शायद विलास का मन उसे बांहों में लेने को हो जाए. विलास ने क्रीम तो लगा दी लेकिन काम पूरा करते ही नजर फेर ली.

वैसे मोहना को विलास से और कोई शिकायत न थी. वह उस का पूरा खयाल रखता. जब कभी वह लेट हो जाता तो डिनर भी बना कर रखता. नाश्ता बनाने में, घर को व्यवस्थित रखने में उस की पूरी सहायता करता. मोहना को लगता जैसे विलास उस से प्यार तो करता है पर कुछ है जो उसे रोक रहा है.

अगले महीने से त्योहार शुरू होने वाले थे. चूंकि ये उन का पहला त्योहार था इसलिए दोनों ने घरवालों के साथ ही त्योहार मनाने का कार्यक्रम बनाया. विलास व मोहना कुछ दिनों के लिए अपने शहर लौटे.

उस शाम मोहना के घरवाले विलास के घर डिनर पर आमंत्रित थे. बातचीत का सिलसिला चल रहा था.

‘‘और बच्चों हमें गुड न्यूज कब सुना रहे हो?’’ विलास की बुआ जो इसी शहर में रहती हैं, भी आई हुई थीं.

‘‘उस के लिए तो इन दोनों को समय से घर आना पड़ेगा, बहनजी,’’ मोहना की मां ने जवाब दिया, ‘‘ये दोनों तो 10 बजे के बाद ही घर में घुसते हैं. मैं ने तो टोका भी मोहना को कि 2-2 शिफ्टों में नौकरी करने की क्या जरूरत?’’

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वह आगे कुछ कहतीं इस से पहले ही किशोरजी बोल पड़े, ‘‘अच्छा ही है न, देर से आएगी, थकी होगी तो बैडरूम में कोई डिमांड भी नहीं करेगी.’’ उन की यह बात जहां सभी को अटपटी लगी वहीं मोना को समझते देर न लगी कि किशोरजी स्थिति से अवगत हैं और उन्होंने फिर भी जानबूझ कर ये रिश्ता करवाया. उस का मन किशोर जी के प्रति घृणा से भर गया. तभी रानी भी बोल पड़ी, ‘‘बच्चे समझदार हैं, जो करना होगा खुद कर लेंगे, हमें कुछ भी बोलने की क्या जरूरत है भला,’’ ओह, तो इस का मतलब रानी भी सब जानती हैं.

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Serial Story: का से कहूं (भाग-4)

उस दिन भी रोज की तरह सब काम यथावत हो रहे थे. विलास की स्कूल बस नहीं आई तो मौसाजी ने उसे स्कूल छोड़ने का प्रस्ताव रखा, ‘‘यह अच्छा हो जाएगा, तुम तो जाते भी उसी तरफ हो,’’ कह किशारेजी आश्वस्त हो गए. लेकिन मौसाजी की नीयत में भारी खोट था. उन्होंने रास्ते में एक फ्लाईओवर के नीचे कोने में गाड़ी रोक ली. फिर उन्होंने विलास के साथ जबरदस्ती की. बेचारे विलास ने बहुत छूटने की कोशिश की पर विफल रहा.

एक बलिष्ठ आदमी के आगे छोटे बच्चे का क्या जोर. इस दुर्घटना ने उस के आत्मविश्वास को बुरी तरह छलनी कर दिया. ऊपर से उसे धमकी भी दी गई कि अगर मुंह खोला तो घर में कोई भी उस की बात का विश्वास नहीं करेगा. मां, अपनी बहन का साथ निभाएगी और पिता से ऐसी गंदी बात वह कह कैसे सकता है. विलास का बालमन घायल हो गया. लेकिन बेदर्दी मौसा को शर्म न आई. उस आदमी ने इस घटना को एक सिलसिला ही बना लिया. अब वह अकसर विलास को स्कूल छोड़ने की पेशकश करने लगा.

मातापिता सोचते कि बच्चा आराम से कार में चला जाएगा और मान लेते. विलास कितना भी मना करता, कभीकभी स्कूल न जाने के लिए बीमार होने का नाटक भी करता पर रानी और किशोरजी उस की एक न सुनते. सोचते अन्य बच्चों की तरह स्कूल न जाने के बहाने बना रहा है. मौसा ने उस के साथ दुष्कर्म करना जारी रखा. विलास अंदर से टूटता जा रहा था. कहे तो किस से कहे? इस कारण पढ़ाई में उस का मन न लगता जिस से स्कूल में उस के नंबर भी गिरने लगे.

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‘‘मम्मीपापा को काउंसलर ने स्कूल बुलाया तो उन्होंने बताया कि मैं अकसर स्कूल न जाने का बहाने बनाता हूं. बातोंबातों में यह बात सामने आई कि मौसाजी मुझे आराम से कार में छोड़ते हैं और मैं फिर भी नानुकुर करता हूं. शायद काउंसलर टीचर को कुछ संदेह हुआ. अगले दिन से उन्होंने अकेले में मेरी काउंसलिंग शुरू कर दी. अब तक इन हादसों को करीब 2 महीने गुजर चुके थे. टीचर के बारबार कुरेदने से मेरे अंदर की घबराहट बाहर आने लगी और एक दिन मैं ने उन्हें सब कुछ बता दिया. उस दिन मैं इतना रोया, इतना रोया कि टीचर भी मेरे साथ रो पड़ी थीं. फिर उन्होंने ही मेरे घर में बताया,’’ कह विलास चुप हो गया.

मोहना सुन्न बैठी थी. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि विलास के मुंह से वह ऐसी कोई बात सुनेगी. आज उसे समझ आ गया कि विलास का उस के पास न आना और न ही उसे पास आने देने के पीछे क्या कारण है. विलास मनोरूप से घायल है, खास कर संबंध बनाने को ले कर. मोहना, विलास का दर्द समझ सकती थी. आखिर वह उस की जीवनसंगिनी है, विलास ने उसे अपना समझ कर उस से अपना वह दर्द बांटा है जिसे वह कई सालों से अपने मन के किसी कोने में दबाए हुए था.

ऊपर से सब कुछ सही लगता है पर कितनी बार मन के अंदर की परतें रिस रही होती हैं. हम कितनी बार ऐसी खबरें पढ़तेसुनते हैं लेकिन इन का कितना गहरा असर होता होगा बाल मन पर, यह कितनी बार सोचते हैं हम? शायद कभी नहीं. कारण है कि हमारा अपना कोई इन खबरों का हिस्सा नहीं होता न. मोहना को भी आज पहली बार इस वेदना का अंदाजा हुआ था. एक पीडि़त के कथन के बाद वह समझी थी कि यौन शोषण जीवन पर एक काला धब्बा है. तो क्या इस की छाप अमिट है? क्या विलास या इस के जैसे बचपन में हुए हादसों के शिकार अन्य लोग उबर नहीं सकते? मोहना गहरी सोच में पड़ गई.

उस रात मोहना ने विलास का हाथ नहीं छोड़ा. शायद वह बिना बोले ही कहना चाहती थी कि वह उस की तकलीफ में उस के साथ है. आज विलास ने भी अपना हाथ छुड़ाने की चेष्टा नहीं की. अगली सुबह दोनों मुंबई के लिए रवाना हो गए. इस छोटी सी ट्रिप का काफी बड़ा फायदा हुआ था. कम से कम बात की असलियत तो सामने आई. अब मोहना ने ठान लिया कि वह विलास को मानसिक रूप से भी स्वस्थ कर के रहेगी. उस ने इस विषय पर काफी पढ़ना आरंभ कर दिया. जो ज्ञान, जो बात जहां से पता चल सकती थी, उस ने जानना शुरू कर दिया.

काफी कुछ पढ़ने से उसे यह पता चला कि यह एक जटिल मनोदशा होती है जो बड़े होने पर आहत मन में ट्रौमा के रूप में रहती है और यही हो रहा था विलास के साथ. कुछ महीनों के शोषण ने उस की पूरी जिंदगी पर गलत छाप छोड़ दी. मोहना ने पढ़ा कि ऐसी स्थिति से बाहर निकलने में काउंसलिंग काफी सहायक होती है. पहले उस ने एक अच्छी काउंसलर के बारे में पता लगाया. उन से मिली. उन की बातों से उसे आश्वासन मिला कि वह विलास की मदद अवश्य कर सकेंगी. हां, इस में कुछ महीनों का समय लग सकता है. मोहना को अब विलास को काउंसलिंग के लिए तैयार करना था.

‘‘तुम ने कहा था कि यह बात केवल हम दोनों के बीच रहेगी… फिर यह काउंसलिंग? यह गलत है मोहना, तुम ने मेरा विश्वास तोड़ा है,’’ मोहना की बात सुन कर विलास तैश में आ गया.

‘‘नहीं विलास, मैं तुम्हारा विश्वास जीतना चाहती हूं. मुझे ऐसा क्यों लगता है कि तुम किसी पापी के पाप की सजा खुद को देते आ रहे हो. तुम क्यों घुट कर जी रहे हो. आज जमाना खुल कर जीने का है. क्या तुम अपने आसपास नहीं देखते कि लोग स्वयं अपना जीवनसाथी चुन रहे हैं, यहां तक कि समलैंगिक साथी चुनने की आजादी भी मिल गई है. लोग शोषण के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, रेप विक्टिम्स खुल कर सामने आ रहे हैं, मातापिता बच्चों के साथ हुए दुर्व्यवहार पर गुहार लगा रहे हैं,’’ मोहना पूरी कोशिश कर रही थी. ‘‘ऐसे में तुम बरसों पुरानी दुर्घटना की चादर अपने ऊपर से उतार फेंकने को तैयार नहीं हो. क्यों? क्या डर है तुम्हें? एक बार अपने भय का सामना तो करो. एक बार कोशिश तो करो. मैं वादा करती हूं कि अगर तुम्हें काउंसलिंग पसंद नहीं आई या तुम्हारी तकलीफ बढ़ी तो मैं तुम्हारा साथ दूंगी और एक बार फिर कहती हूं कि यह बात हम दोनों के बीच ही रहेगी.’’

मोहना के मनाने पर विलास काउंसलिंग के कुद सैशंस लेने को तैयार हो गया और पहले कुछ सैशंस में ही विलास ने अनुभव किया कि अपने अंदर जो पीड़ा, जो दर्द, घृणा व छटपटाहट उस ने दबा रखी थी, उस का पहाड़ रेत की तरह ढहने लगा है. धीरेधीरे विलास अपनी मनोचिकित्सक से खुलता गया. जितना उस ने अपनी भावनाएं बांटी, उस की वेदना उतनी ही घटती गई. कुछ महीनों में विलास अपने अंदर एक नयापन, स्फूर्ति और उल्लास अनुभव करने लगा.

कुछ महीनों में काउंसलिंग की अवधि समाप्त हो गई. विलास ने अब अपने भूत को पूरी तरह त्याग दिया. वह खुशी से वर्तमान में जीने लगा. मोहना तो खुश थी ही, क्योंकि उसे सही अर्थों में अपना पति मिल गया. एक और कारण था दोनों की खुशी का उन्हें एकदूसरे में सच्चा हमसफर जो मिल गया था.

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Serial Story: हमारे यहां ऐसा नहीं होता (भाग-1)

‘‘क्या हाल हैं? क्या लग रहा है? एक होस्टल की वार्डन जैसी मेरी मां से निभा पाओगी?‘‘ रात 11 बजे अजय ने बांहों में लिपटी अपनी नईनवेली पत्नी धारा से जब पूछा, तो वह खिलखिला उठी. यों ही लेटेलेटे अपने फर्जी कालर ऊपर किए और कहा ,‘‘तुम जानते नहीं धारा शर्मा को? कितना भरोसा है मुझे खुद पर. क्यों नहीं निभेगी…? हर तरह के लोगों से निबटना आता है मुझे.‘‘

‘‘देखते हैं, अभी तो तुम्हें घर में आए एक महीना ही हुआ है, आरती भाभी तो रोती ही रहती थीं, बेचारी भाभी. कभी अपने मन का कुछ कर ही नहीं पाई थीं, मुझे दुख होता था, पर क्या करूं, मां हैं मेरी. प्यार भी सब को बहुत करती हैं, बस थोड़ी जिद्दी हैं, जो घर में करती आई हैं, वही होता रहे तभी खुश रहती हैं.‘‘

‘‘क्या उन के लिए अपनी खुशी ही माने रखती है?‘‘

‘‘नहीं, वे यह भी चाहती हैं कि सब खुश रहें, बस अपनी सोच में ज्यादा बदलाव कर नहीं पातीं.‘’

धारा कुछ देर सोचती रही, तो अजय ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? डर लग रहा है? डोंट वरी, मैं तुम्हारे साथ हूं.‘‘

धारा को हंसी आ गई. वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘अब तुम मुझे सचमुच डराने की कोशिश मत करो. जब से हमारी शादी की बात शुरू हुई थी, तब से यही सुन रही हूं कि तुम्हारी मम्मी के साथ रहने में मुझे नानी याद आ जाएगी. मैं तो सच बताऊं, एक्ससाइटेड हूं. देखते हैं, इस प्रोजैक्ट को कैसे हैंडल करना है.‘‘

यह सुन कर अजय को जोरों की हंसी आई, फिर उस ने धारा को किस करते हुए कहा, ‘‘अच्छा…? मेरी मां एक प्रोजैक्ट है तुम्हारा?‘‘

‘‘हां, वैसा ही फील हो रहा है सुनसुन कर. ओह, अच्छा, अब सोने दो. कल सुबह मेरा एक प्रेजेंटेशन है, बौस को इतने हिंट दिए कि अभी शादी हुई है, थोड़ा चैन से जीने दे, पर नहीं, कहता है, इस कोरोना टाइम में तुम्हें हनीमून पर तो जाना नहीं है, काम ही टाइम से कर लो. मैं कौन सा तुम्हें औफिस बुला रहा हूं.‘‘

‘‘तुम इतनी लायक हो. तुम्हारे बिना तुम्हारे बौस को कहां चैन आ सकता है. मां को बता दिया है, कल तुम्हें काम है?‘‘

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‘‘नहीं, इस में क्या बताना, एक हफ्ते से औफिस का काम शुरू कर दिया है, रोजरोज क्या बताना.‘‘

‘‘अब ठीक से बताओ, मैनेज हो रहा है न, कोई दिक्कत तो नहीं है?‘‘

‘‘कोशिश कर रही हूं, गुडनाइट, चलो, सोते हैं अब,‘‘ कहते हुए धारा ने अजय के हाथ पर सिर रखते हुए अपनी आंखें बंद कर लीं.

कांदीवली, मुंबई की इस सोसाइटी की एक बिल्डिंग के इस थ्री बैडरूम में सुधा और विनय अपने बेटे अजय और बहू धारा के साथ रहते थे. कुछ साल पहले तक उन का बड़ा बेटाबहू विजय और आरती भी साथ रहते थे, पर सुधा के साथ रहना आसान बात नहीं थी. जैसे ही विजय को दिल्ली में नई जौब मिली, वह फौरन चला गया था.

अजय और धारा की लवमैरिज थी, दोनों मुंबई में ही एक कौमन फ्रैंड के घर मिले थे और दोस्ती हो गई थी.

सुधा को इस शादी पर कोई आपत्ति नहीं हुई थी, क्योंकि धारा भी ब्राह्मण परिवार से ही थी.

सुधा इस विवाह के लिए कोरोना के खत्म होने का इंतजार करने के मूड में थीं, क्योंकि उन्हें सब रस्मोरिवाज और सारे रिश्तेदारों की भीड़ के साथ यह विवाह करना था, पर अजय और धारा इंतजार नहीं करना चाहते थे. वे जानते थे कि सबकुछ नौर्मल होने में अभी समय लगने वाला है, युवा मन किसी भी तरह सब दूरियां मिटा कर साथ रहना चाहते थे, कोविड 19 के चलते बारबार बाहर मिलने जाना भी सेफ नहीं था, विनय और अजय भी वर्क फ्रौम होम ही कर रहे थे.

विजय और आरती ने भी फोन पर यही कहा, ‘‘मां, हम आ जाएंगे, बस बहुत ही जरूरी रस्म के साथ यह शादी हो जानी चाहिए, किसी को भी बुलाने की जरूरत ही क्या है इस टाइम, और कोई बुरा भी नहीं मानेगा. आप बस धारा की मम्मी से बात कर लो.‘‘

धारा की मम्मी माया अंधेरी इलाके में अकेली ही रहतीं, उस के पिता थे नहीं. माया टीचर थीं. आजकल वे औनलाइन क्लासेस में व्यस्त थीं. वे इस विचार से खुश थीं कि शादी कम से कम शोरशराबे में हो. वे एक आधुनिक सोचविचार वाली महिला थीं, जो किसी भी तरह सामाजिक दबाव को सहन न करतीं और धारा ने भी इसी खुली सोच से जीना सीखा था.

कोरोना वायरस ने दुनिया पलट कर रख दी थी. कितनों के प्रोग्राम, योजनाएं रखी रह गई थीं, ऐसे ही सब की सहमति से एक छोटे से पैमाने पर जरूरी रस्में संपन्न हुईं और धारा अजय के घर आ गई.

थोड़े दिन के लिए अजय और धारा ने छुट्टी ली, पर आजकल वर्क फ्रौम होम के दिन थे, जाना कहीं था ही नहीं, औफिस का काम पहले से ज्यादा हो रहा था, दोनों ने अपनाअपना काम जल्दी ही शुरू कर दिया.

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सुधा एक परंपरावादी सास थी. महानगर में रहते हुए भी सोच सदियों पुरानी. जो घर में अब तक करती आई थीं, उस में उन्हें किसी और का कहा बदलाव जरा भी मंजूर नहीं था. वे यह भी जान गई थीं कि उन की रोकटोक के कारण ही बड़े बेटे और बहू ने यहां से जाने में ही अपनी भलाई समझी. अब उन्हें धारा पसंद तो बहुत आई थी, बहुत सुंदर, हंसमुख सी धारा सारा दिन वैसे तो अपने काम में बिजी रहती, पर जिस तरह औफिस के काम के साथ उन के साथ मिल कर घर के भी काम संभाल लेती, वे हैरान हो कर रह जातीं. पर जैसे ही धारा अपने मन से कुछ भी करने लगती, सुधा कह उठती, ‘‘धारा, हमारे यहां ऐसा नहीं होता.‘‘

विनय काम से काम रखने वाले पुरुष थे. सुधा के कार्यक्षेत्र में उन्होंने कभी दखल नहीं दिया था, पर जिद्दी पत्नी को भी अच्छी तरह जानते थे, देख रहे थे कि धारा कुछ भी अपनी पसंद का करने पर सुधा को नाराज कर देती है. वे ढकेछुपे शब्दों में धारा को सपोर्ट भी करते, पर ज्यादा बात करने की उन की आदत थी ही नहीं.

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Serial Story: हमारे यहां ऐसा नहीं होता (भाग-2)

एक अच्छे पद पर काम करने वाली धारा के सरल स्वभाव की वे मन ही मन प्रशंसा करते. धारा ने पिता का स्नेह देखा ही नहीं था, वह पापापापा करती विनय के आगेपीछे घूमती.

सुधा समझ जाती कि धारा के मन में अपने पिता के साथ समय न बिता पाने की कसक रह गई है. उन के मन में इस समय धारा के लिए कोमल भाव जागते, फिर थोड़ी देर बाद वे एक संगदिल सास के रूप में जल्दी ही आ जातीं.

अगली सुबह धारा 6 बजे उठी. सुधा भी जागी हुई थी और किचन में चाय चढ़ा रही थीं, गुड मौर्निंग बोलते हुए धारा ने कहा, ‘‘मां, मैं फ्रेश हो कर आई, मेरी भी चाय छान लेना आप. आज बहुत काम है, साढ़े 8 बजे से एक मीटिंग है, आती हूं.‘‘

सुधा ने 2 कप चाय छानी और लिविंग रूम में बैठ कर पीनी शुरू की. धारा ने आते ही कहा, ‘‘मां बताओ, क्याक्या काम कर दूं? क्या सब्जी काट दूं?‘‘

सुधा ने कहा, ‘‘पहले आराम से चाय पी लो.‘‘

‘‘मां, खाली क्या बैठूं? साथ ही साथ कुछ काम भी निबटा देती हूं, नाश्ता क्या बनाना है? पोहा बना लूं?‘‘

‘‘ठीक है.‘‘

धारा तेजी से गई और आलूप्याज ले आई. चाय पीतेपीते सब काट कर रखा, फिर पूछा, ‘‘मां, सब उठने वाले होंगे, बना दूं क्या?‘‘

‘‘पहले नहा लो.‘‘

‘‘मां, आज वीडियो काल्स हैं. किचन के काम निबटा कर नहाधो कर तैयार हो जाऊंगी.‘‘

‘‘मैं कई दिन से तुम्हें बताना चाह रही थी, हमारे यहां बहू नहाधो कर ही किचन में घुसती हैं,‘‘ सुधा ने कहा.

‘‘पर क्यों मां?‘‘ धारा पूछ बैठी.

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यह सुन कर सुधा अचकचा गईं. कैसे कहें कि वे यह मानती हैं कि रात को पति के साथ सोने से तन अशुद्ध होता है, किचन में साफ हो कर जाना चाहिए, उन की सास ने भी हमेशा उन्हें दिल्ली की ठंड में भी किचन में नहाने के बाद ही जाने दिया था.

धारा की बात पर वे चुप रहीं. धारा ने किचन में नहा कर जाने का यह तर्क सुन रखा था. उस ने अपनी मुसकराहट को कंट्रोल करते हुए कहा, ‘‘कहीं आप भी तो इस पुरानी सोच को नहीं मानतीं न मां कि पतिपत्नी रात को सोएं और अशुद्ध सिर्फ बहू हुई, अभी आप अजय को भी नहाने के लिए कहेंगी?‘‘

धारा के चेहरे पर सुबहसुबह बड़ी खिली हुई सी मुसकान थी. सुधा सोच में पड़ गईं कि अगर यह कहें कि हां, वे यह बात मानती हैं तो उन की सोच इस पढ़ीलिखी बहू के आगे छोटी लगेगी और अगर धारा को आज भी ऐसे किचन में जाने दिया तो यह अजीब लगेगा, क्योंकि उन के यहां तो ऐसा ही होता है, आरती भी हमेशा नहा कर ही किचन में गई है. जब से धारा घर में आई थी, घर में एक रौनक थी, उन्हें धारा का साथ अच्छा लगता, पर अपने बनाए नियम और ज्यादा अच्छे लगते.

धारा ने फटाफट घर के काम निबटाए और फिर अपना लैपटौप खोल कर बैठ गई. विनय और अजय भी अपनेअपने काम में बिजी हो गए थे. सुधा छुटपुट काम निबटाती रही.

धारा को जैसे ही फुरसत मिली, वह फिर सुधा के साथ मिल कर काम करने लगी. लंच टाइम में टीवी पर न्यूज लगा ली गई. भाषण चल रहा था कि अगर किसी मुसलिम लड़के ने हिंदू लड़की से प्यार किया, तो उसे मार दिया जाएगा. सुधा के भी यही विचार थे कि ऐसा ही होना चाहिए. वे बोलीं, ‘‘सही है, अपने धर्म को बचाने के लिए ऐसी धमकी तो देनी ही पड़ेगी.‘‘

धारा ने दमदार तरीके से अपनी बात रखी, ‘‘नहीं मां, यह बहुत ही गलत बात है. अब सरकार बताएगी कि किस से प्यार करना है, किस से नहीं?‘‘

‘‘बताना ही पड़ेगा, जब अपना धर्म संकट में होगा तो…‘‘

‘‘अगर धर्म यह सिखा रहा हो कि धर्म के नाम पर प्यार करने वालों को मार दिया जाए तो ऐसा धर्म किस काम का? ये लोग दलितों की बेटियों के साथ रेप कर सकते हैं, उन का छुआ खा नहीं सकते. जितना नुकसान धर्म ने दुनिया में किया है, उतना किसी और चीज ने नहीं किया.‘‘

‘‘क्या नास्तिकों जैसी बातें कर रही हो?‘‘ सुधा को गुस्सा आने लगा, तो विनय ने फौरन बात बदलने के लिए दूसरा टौपिक शुरू कर दिया.

धारा ने भी फिर हलकेफुलके मूड में हंसनाबोलना शुरू कर दिया. बातोंबातों में धारा को अचानक याद आया, ‘‘दूसरी मीटिंग शुरू होने का समय हो गया है. मैं तो बातों में भूल ही गई थी, अभी जल्दी है, अजय. तुम ये सब टेबल संभाल लेना. मैं बैठती हूं,‘‘ जल्दी से अपनी प्लेट किचन में रख कर धारा लैपटौप पर झुक गई.

अजय भी टेबल संभालने लगा. विनय की तरफ देख कर सुधा कुछ नाराजगी से बोली, ‘‘ऐसा कभी देखा है घर में? हमारे यहां ऐसा कभी हुआ है?‘‘

विनय मुसकुराए, ‘‘ऐसा कुछ बुरा भी नहीं हो रहा है घर में, टेंशन मत लिया करो.‘‘

धारा का पहला करवाचौथ आया तो सुधा तैयारियों की बातें करने लगी, तो धारा ने कहा, ‘‘मां, मैं कोई फास्ट नहीं रखती. मुझे तो एसिडिटी की प्रोब्लम है.‘‘

सुधा को जैसे करंट सा लगा, ‘‘कैसी बातें कर रही हो, धारा. हमारे यहां ऐसे सोच भी नहीं सकते कि करवाचौथ का व्रत नहीं रखा जाएगा.‘‘

‘‘पर मां, मैं भूखी नहीं रह सकती.‘‘

‘‘कुछ फ्रूट्स खा लेना.‘‘

‘‘मां, मुझे फ्रूट्स खा कर भी भूख लगती है.‘‘

‘‘आरती ने तो प्रेगनेंसी में भी इतनी अच्छी तरह फास्ट रखा था.‘‘

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‘‘पर मां, फास्ट रख कर क्या हो जाता है? मैं ऐसे ही अजय को इतना प्यार करती हूं.‘‘

‘‘ये पति की लंबी उम्र के लिए है, इतना तो पता ही होगा.‘‘

‘‘पर मां, मेरी मम्मी भी रखती थीं यह फास्ट, फिर भी मेरे पापा को बचा नहीं पाईं.‘‘

सुधा के पास इस तर्क का कोई जवाब नहीं था. अजय ने मजाक में विनय से कहा, ‘‘चलो, पापा, आप खुश हो जाओ. मैं तो धारा को खातेपीते देख ही खुश हो लूंगा, मेरा क्या है.’’

धारा को सुधा की नाराजगी देखते हुए बेमन से फास्ट रखना ही पड़ गया. यह अलग बात है कि उस ने मौका देख कर जो खाना था, खा लिया, किसी को कानोंकान खबर न हुई.

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Serial Story: हमारे यहां ऐसा नहीं होता (भाग-3)

2 दिन बाद ही अचानक सुबह उठते ही धारा तैयार होने लगी. सुधा चौंकी, ‘‘कहां जा रही हो?‘‘

‘‘मम्मी की तबीयत खराब है. कार ले कर जा रही हूं, जरूरत होगी तो उन्हें डाक्टर को दिखा दूंगी, 1-2 कपडे़ भी ले जा रही हूं. मैं शायद वहां रुक जाऊं 2-4 दिन.’’

‘‘अरे, तुम ने पूछा भी नहीं. सीधे बता रही हो. हमारे यहां ऐसा नहीं होता कि बहू सीधे तैयार हो कर चल दे, और किसी से पूछे भी न.‘‘

‘‘आप आज देर से उठीं, तब तक मैं ने नाश्ता भी बना दिया और फिर तैयार हो गई. और अपने ही घर जाने की परमिशन क्या लेना, मां, मैं ने नई जिम्मेदारियां ली हैं और निभाना भी जानती हूं, मैं जब यहां आऊंगी तब भी मुझे अपनी मम्मी से परमिशन नहीं लेनी होगी. मेरे लिए दोनों घर बराबर हैं, यह आप स्वीकार करें, प्लीज.‘‘

धारा अपनी मम्मी की हेल्थ की चिंता करते हुए कार ले कर चली गई. सुधा ने कहा, ‘‘आजकल की बहुओं के ढंग… वाह, जबान तो ऐसे चलती है कि पूछो मत. एक हम थे कि ससुराल में मुंह नहीं खोला.‘‘

विनय ने जोर से हंसते हुए कहा, ‘‘देखो, झूठ मत बोलो, अम्मां और जीजी को तुम पानी पीपी कर मेरे सामने कोसती थी कि कहां फंस गई, हमारे तो करम ही फूट गए. मुझे याद मत दिलाओ कि तुम कैसे टपरटपर शिकायत करती थी सब की.‘‘

अजय ने जोर का ठहाका लगाते हुए कहा,‘‘पापा, कम से कम मेरी पत्नी पीछे से तो मेरे कान नहीं खाती, जो भी कहना होता है, सीधे मां से ही कह लेती है.‘‘

‘‘देख रही हूं, जोरू के गुलाम बन कर रहोगे तुम, पर हमारे यहां जो होता आया है, उस का पालन क्या उसे नहीं करना चाहिए?‘‘

‘‘देखो सुधा, वह आज की समझदार, मेहनती लड़की है, उसे तुम इतना दबा कर रखने के बजाय उस की बातों को, उस के तर्कों को ध्यान से सुनोगी तो समझ जाओगी कि वह कितनी समझदार है. तुम ने देखा था न, कितनी बिजी थी वह कल अपनी मीटिंग में, तो भी फोन पर बात करते हुए तुम्हें एक किलो भिंडी काट कर दे दी कि तुम इतनी देर किचन में न खड़ी रहो, जरा सा उठती है, कितने कामों को यों ही निबटा देती है, उस के गुण देखो, मन खुश होगा. जरूरी नहीं कि आज तक जो घर में होता आया है, कोई बोला नहीं, चुप रहा तो वह ठीक ही था.‘‘

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धारा ने फोन कर बताया कि उस ने अपनी मां को डाक्टर को दिखा दिया है. दवाओं से आराम होते ही वह हाउस हेल्प को सब समझा कर आ जाएगी.

2 दिन बाद धारा लौट भी आई. सब अपनेअपने रूटीन में व्यस्त हो गए.

घर में एक दिन सब डिनर करते हुए टीवी देख रहे थे. सुधा सरकार की अंधभक्त थी, यह बिहार में चुनाव की रैलियों का समय था, विपक्ष की रैलियों में जबरदस्त भीड़ की तसवीरें देखते हुए सुधा बोली, ‘‘ये देखो, ये मरवाएंगे सब को, कोरोना काल में बिना मास्क के इतनी भीड़…‘‘

धारा जोर से हंसी, ‘‘मां, आप को बस ये भीड़ दिख रही है, और कहीं भीड़ नहीं दिख रही? क्या मां… आप तो बहुत ही एक तरफ हो कर सोचती हैं. न हमें सरकार घर आ कर कुछ दे रही है, न विपक्ष, पर सही प्वाइंट तो होना चाहिए.

‘‘मां, आंखों पर पट्टी बांध कर सरकार की सब बातों को सही और विपक्ष की हर बात को गलत नहीं ठहराना चाहिए, वैसे भी इस सरकार ने तो दिलों में जो मजहबी दीवारें खड़ी कर दीं, मैं चाह कर भी आप की किसी बात में हां में हां नहीं मिला पाऊंगी.‘‘

‘‘धारा, तुम बहस बहुत करती हो. हमारे यहां कोई बहू कभी ऐसे बड़ों की बात नहीं काटा करती, कभी तो चुपचाप सुन लिया करो.‘‘

‘‘मां, मैं तो अपने मन की बात कहती हूं, जैसे आप ने अपने विचार रखे, मैं ने भी रख दिए.‘‘

कुछ दिन और बीते, सुधा किसी भी तरह अपनी सोचों से, अपने बनाए नियमों से बाहर जा कर जीने के लिए तैयार नहीं थी, उन का साफसाफ कहना था कि बहू जब घर में आती है तो उसे ससुराल के ही तौरतरीके मानने चाहिए, उस की अपनी लाइफ शादी से पहले तक ही होती है, कोई भी सब्जी बनानी होती, सुधा जैसे कहती, वह वैसी ही बननी होती, कोई त्योहार जैसे मनता आया था, वैसा ही मनना चाहिए, उन की नजरों में बहू का अपना अस्तित्व होता ही नहीं. वे कहतीं, ‘‘लड़कियों को पानी की तरह होना चाहिए, जिस में मिला दो, वैसी ही हो जाएं.‘‘

धारा बड़ों का सम्मान करती, औफिस और घर के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझने वाली आज की मौडर्न लड़की थी. उस की हर बात में लौजिक होता. वह हर बात बड़ी सोचसमझ कर बोलती और अपना पक्ष पूरी ईमानदारी से रखती.
विनय और अजय उस के व्यक्तित्व से प्रभावित थे. विजय और आरती फोन पर संपर्क में रहते.

शाम को धारा सैर करने जाती, जहां उस की कुछ अच्छी फ्रैंड्स बन गई थीं, सब मिल कर थोड़ी देर बैठ कर बातें करतीं, फिर अपनेअपने घर लौट आतीं.

एक दिन पड़ोस की नेहा ने कहा, ‘‘इतने दिन कोरोना के चक्कर में सब घर में बंद रह गए, मन बुरी तरह ऊब गया, अगर हम पांचों तैयार हों, तो एक छोटी सी आउटिंग कर लें क्या?‘’

धारा ने कहा, ‘‘गुड आइडिया, मैं तैयार हूं.‘‘

कविता ने कहा, ‘‘मेरी सास जरूर अड़ंगा लगाएंगी, कोरोना के चक्कर में न खुद निकल रही हैं, न कहीं जाने दे रही हैं. बस, किसी तरह सैर पर आ जाती हूं.‘‘

धारा हंसी, ‘‘तो एक काम करते हैं, अपनीअपनी सासू मां को भी ले चलते हैं.‘‘

‘‘दिमाग खराब हो गया है क्या तुम्हारा? पिकनिक में भी सासू मां? ओह नो…‘‘

धारा ने कहा, ‘‘देखो, पतियों के साथ तो जाना नहीं है न?‘‘

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सब ने एकसाथ कहा, ‘‘नहीं, उन से ही तो ब्रेक लेना है, रातदिन झेल गए यार, थोड़ा हमें भी टाइम चाहिए.‘‘

‘‘यहां ताज होटल में एक पैकेज चल रहा है. मैं ने इंटरनेट पर यों ही चैक किया था. घर से लंच कर के निकलो, वहां डिनर और ब्रेकफास्ट कौम्प्लीमेंट्री हैं. जबरदस्त सेफ्टी मेजर्स, एक रात के रेट बहुत अच्छे हैं आजकल, स्टेकेशन का कौंसेप्ट हैं ये, कहीं और तो जा नहीं पाएंगे, थोड़ा चेंज हो जाएगा, रात में सब एक रूम में बैठ कर ताश खेलेंगे या कोई और गेम. बोलो दोस्तो, हो जाए…? सासू मांएं तैयार हुईं तो ठीक है, वरना हम चलते हैं.‘‘

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Serial Story: हमारे यहां ऐसा नहीं होता (भाग-4)

तय हुआ, सब अपने घर जल्दी ही इस पर बात कर लेंगी. धारा ने जब यह प्रोग्राम अकेले में अजय को बताया, तो वह खिलखिला कर हंसा, बोला, ‘‘अच्छा, तुम्हें मुझ से ब्रेक चाहिए?’’

‘‘नहीं, बस यों ही रूटीन से ब्रेक चाहिए, दोस्तों के साथ, एक बार दोस्तों के साथ हो आऊं, फिर हम चारों चलेंगे, सोच रही हूं, मां को ले जाऊं.‘‘

‘‘डार्लिंग, फिर तो तुम जा चुकीं,‘‘ अजय हंसा. सुनते ही सुधा ने कहा, ‘‘हमारे यहां ऐसा नहीं होता, धारा, कि घर के पुरुष घर में बैठे हों और औरतें होटलों में घूमती फिरें.‘‘

पर विनय को लग रहा था कि अगर सुधा थोड़ा बाहर निकलेगी और धारा के साथ अकेले में समय बिताएगी, तो दोनों की बौंडिंग बहुत अच्छी हो सकती है. किसी भी तरह से उन्होंने सुधा से हां करवा ही ली.

कविता और नेहा की सासें भी थोड़ा नखरा दिखाने के बाद तैयार हो ही गईं. सीमा और नीता को घर से परमिशन नहीं मिली.

धारा ने अपनी मम्मी से चलने के लिए पूछा, तो उन्होंने खुशीखुशी हां कर दी और वे भी अपनी बैस्ट फ्रैंड रेखा के साथ चलने को तैयार हो गईं. रात को अकेले में अजय ने पूछा, ‘‘डार्लिंग, मेरे बिना जाओगी?‘‘

‘‘तुम्हें अपने मन की बात बताती हूं, अजय, मुझे मां से कोई शिकायत नहीं, जबकि वे हर समय यही कहती हैं कि हमारे यहां ऐसा नहीं होता, वे मुझे मेरे मन की एक बात भी नहीं करने देती, मैं उन्हें गलत नहीं ठहराती. उन्होंने इस घर के सिवा, परंपराओं और अपने संस्कारों से आगे दुनिया देखी ही नहीं. जो चलता आ रहा है, उन्होंने उसी को सही मान लिया है.

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“मैं चाहती हूं कि वे कुछ अलग तरह से दुनिया को देखें और समझें, बातबात में उन्हें उलटा जवाब मैं देना नहीं चाहती. मैं उन की सोच किसी और तरह से बदलने की कोशिश करूंगी. उन्हें बाहर की दुनिया से अपने साथ घुमा कर मिलवाऊंगी, एक औरत अपनी लाइफ को भी कुछ आजादी से जी सकती है. उन्होंने देखा ही नहीं, इस घर की चारदीवारी में रहरह कर उन की सोच कैसे बदलेगी?”

धारा की बात सुन कर अजय ने बांहों में भर कर उस पर चुंबनों की बौछार कर दी. कहा, ‘‘प्राउड औफ यू, डिअर.‘‘ धारा भी उस की बांहों में सिमटती चली गई.

कविता और नेहा के साथ धारा ने प्रोग्राम फाइनल कर लिया और ताज होटल में चार डबल रूम बुक करवा ही लिए.

सुधा थोड़ी टेंशन में थीं. ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि वे पति के बिना कभी इस तरह गई हों, उन्हें रहरह कर धारा पर गुस्सा आ रहा था. साथ ही, पति और बेटे पर भी कि घर में कब इस तरह हुआ है कि औरतें अकेली बाहर घूम रही हों. वे तो मुंबई में रहने के बाद भी कभी अकेली घर से निकली नहीं थीं. शनिवार को लंच कर के धारा और सुधा ने अपने छोटेछोटे बैग पैक किए. धारा ने कहा, ‘‘जो खाना बचा है, आप लोगों के लिए डिनर हो जाएगा. अजय, तुम कल कुछ बना लेना. हम दोपहर तक तो आ ही जाएंगे.‘‘

सुधा ने पति और बेटे के मुसकराते चेहरों पर नजर डाली, तो उन्हें और गुस्सा आया. धारा ने कार निकाली. वह रास्ते से अपनी मम्मी और रेखा आंटी को लेने वाली थी. कविता और नेहा की सासें मंजू और गीता लाइफ को खुल कर जीने वाली जिंदादिल औरतें थीं, जिन की सुधा से अच्छी जानपहचान भी थी.

कविता अपनी कार ले जा रही थी. नेहा को ड्राइविंग नहीं आती थी. आठों लोग आगेपीछे ताज होटल पहुंचे. सुधा माया और रेखा से अच्छी तरह ही मिलीं. माया का नेचर बहुत दोस्ताना था, सब सामान अच्छी तरह सैनेटाइज करने के बाद सब की एंट्री हुई. कदमकदम पर सेफ्टी का ध्यान रखा गया था. लिफ्ट में भी तीनतीन जनों के ही खड़े होने की जगह गोल घेरा था.

सुधा को लग रहा था, जैसे वे किसी जादुई दुनिया में हैं. किसी फाइवस्टार होटल में उन्होंने पहली बार कदम रखा था और अब तो मुंबई में आठ महीने बाद घर से निकलना हुआ था, जैसे उन्होंने खुली हवा में पहली बार सांस ली हो, फाइवस्टार के वैभव पर उन की आंखें चकाचौंध से भरी थीं. एकएक चीज देखने में मगन सुधा को देख कर धारा को अच्छा लगा. वह उन के लगातार टोकते रहने पर भी कभी उन से नाराज नहीं हुई थी. वह जानती थी कि सुधा को कभी कोई एक्सपोजर मिला ही नहीं, हमेशा घर की चारदीवारी में रहने वाली सास की संकुचित सोच को समझती थी. उन्होंने यही सीखा था कि शादी के बाद अपनी लाइफ होनी ही नहीं चाहिए, इसलिए उसे टोकती थीं.

फ्रेश होने के बाद सब धारा के रूम में ही आ गए. वहां रखी इलैक्ट्रिकल केतली में धारा ने चाय बनाई. किसी को उस में मजा तो नहीं आया, पर सब ने गप्पों में पी ही ली. उस के बाद शुरू हुआ, हंसीठहाकों, एक से बढ़ कर एक जोक्स का दौर.

सुधा हैरान थी कि कैसे सब की सब पति और बच्चों के बिना इतनी खुश हो रही हैं, पति पर इतने जोक्स मारे गए, लौकडाउन में पति की आदतों का इतना मजाक उड़ाया गया कि एक बार तो सुधा भी खिलखिला कर हंस पड़ी और एक बार क्या हंसी, फिर तो उन की हंसी थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.

धारा ने चुपके से उन के हंसने का एक प्यारा सा वीडियो बना कर अजय को व्हाट्सएप पर भेज दिया. उस का मैसेज आया, “क्या अब हमारे यहां ऐसा होगा, मेरी मां को बिगाड़ मत देना तुम.‘‘

धारा ने हार्ट की इमोजी भेज दी थी, फिर अंत्याक्षरी खेली गई. डिनर के लिए खूब अच्छी तरह से तैयार हो कर सब ताज के रेस्तरां शामियाना गए, जहां सब का टैम्प्रेचर चेक करने के बाद एंट्री की गई. चांदी की थाली में बढ़िया डिनर कर के सब ताज का एकएक कोना देखने लगीं, फिर थोड़ी देर के लिए होटल से बाहर टहलने निकल गईं. सामने गेट वे औफ इंडिया पर घूमते हुए कई फोटो लिए गए.

सुधा के लिए यह सब एक सपने जैसा था. उन्हें अपने जीवन का यह नियम याद ही नहीं आया कि उन के यहां की औरतें कभी अकेले बाहर नहीं जातीं. उन्होंने सब अपनी हमउम्रों को देखा तो यही सोचा कि इन सब को ऐसे जीना आता है. उस ने यह सब कभी सोचा भी क्यों नहीं, आज उन्हें अपने ऊपर पहली बार गुस्सा आया.

रात को सब ने ताश खेले. सुधा को ताश खेलना नहीं आता था, पर वे सब को देखती रहीं. धारा ने जब कहा, ‘‘मां, मेरे पास आ कर बैठो, मैं आप को सिखाती भी जाऊंगी,‘‘ सुधा कहने को हुई, ‘‘हमारे यहां औरतें ताश…’’

पर, उन्होंने मन ही मन खुद को तुरंत लताड़ा और धारा के पास बैठ कर सीखने लगीं. अगली सुबह सब ने साथ में ब्रेकफास्ट किया, लजीज व्यंजन, बेहतरीन माहौल, एक पुलक से भरता रहा सब का मन. सब ने चेकआउट 11 बजे किया और इस ट्रिप को 10 में से 10 नंबर देते हुए घर आ गए.

माया और रेखा को धारा घर छोड़ने गई, तो माया दोनों को एक कप कौफी के लिए रोकने लगी, तो धारा ने कहा, ‘‘नहीं मम्मी, फिर आ जाएंगे. अभी पापा और अजय के लिए जा कर अच्छा सा लंच बनाऊंगी,‘‘ कहते हुए धारा के चेहरे पर जो मुसकान थी, सुधा को पहली बार उस पर इतना प्यार आया. धारा ने रास्ते में पूछा, ‘‘मां, मजा आया? सच बताना.‘‘

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‘‘हां बेटा, बहुत अच्छा लगा.‘‘

‘‘फिर आओगी कभी ऐसे फ्रैंड्स के साथ?‘‘

‘‘हां, जरूर.‘‘

धारा ने छेड़ा, ‘‘पर मां, हमारे यहां तो ऐसा…’’

यह सुुनते ही सुधा जोर से हंसी, ‘‘चुप रहो.‘‘

कार में अच्छे म्यूजिक के साथ सासबहू का जोर का ठहाका भी गूंज उठा.

देहमुक्ति: जब मेरे भाई ने दी मौसी को वेश्या की संज्ञा  

सुबह टीवी औन कर न्यूज चैनल लगाया तो रिपोर्टर को यह कहते सुन कर कि अपने शोषण के लिए औरतें स्वयं दोषी हैं, मन गुस्से से भर गया. फिर खिन्न मन से टीवी बंद कर दिया. सोचने लगी कि हर समय दोषी औरत की क्यों? आजकल जो भी घटित हो रहा है वह क्या कुछ नया है? न तो बाबा नए हैं न ही आश्रम रातोंरात बन गए. फिर अशांत मन से उठ कर चाय बनाने रसोईघर में घुस गई. पर मन था कि गति पकड़ बैठा और न जाने कब की भूलीबिसरी यादें ताजा हो गईं, फिर सारा दिन मन उन यादों के इर्दगिर्द घूमता रहा. बहुत कोशिश की इन यादों से बाहर आने की पर मन न जाने किस धातु का बना है? लाख साधो, सधता ही नहीं.

कभी लगता है कि नहीं हमारा मन हमारे कहने में है. लेकिन फिर छिटक कर दूर जा बैठता है. जीवन के घेरे में न जाने कितनी बार मन को परे धकेल देते हैं. पर आज तो जैसे इस मन का ही साम्राज्य था.

आज न जाने क्यों मौसी बहुत याद आ रही थीं. हम बच्चे इतना कुछ समझते नहीं थे. कमला मौसी आतीं तो बहुत खुश हो जाते. वे मां की बड़ी बहन थीं. लेकिन मां और मौसी बातें करतीं तो हमें वहां से हटा देती थीं. कहती थीं, ‘‘जाओ बच्चो अपना खेल खेलो.’’

उन की आधीअधूरी बातें कानों में जाती, तो भी पल्ले नहीं पड़ती थीं. बस जो भी समझ में आता था वह यह था कि मौसी बालविधवा है. शायद उस समय हमें विधवा का अर्थ भी ठीक से नहीं पता था. थोड़ा बड़ा होने पर जब मां से पूछा कि मौसी बालविधवा क्यों हैं, तो मां ने बस इतना ही कहा कि मौसाजी, मौसी को बहुत छोटी उम्र में छोड़ कर, परलोक सिंधार गए थे और फिर कभी कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि वक्त के साथसाथ हम भी बड़े होते चले गए.

मौसी की शादी एक अच्छे घराने में हुई थी. काफी धनदौलत थी. पर मौसाजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. वे अपने मांबाप के अकेले बेटे और मौसी से उम्र में काफी बड़े थे. उन के स्वास्थ्य की सलामती के लिए घर में पूजापाठ चलते रहते. वृंदावन से एक गुरुजी का भी आनाजाना था. वे कुछ दिन वहीं रुकते और सब सदस्य उन के आदेशों का पालन करते. गुरुजी को भगवान जैसा पूजा जाता था. उन के आदेश को सब पत्थर की लकीर मानते थे.

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मौसी से जो भी कार्य मौसाजी के स्वास्थ्य के लिए करने को कहा जाता, मौसी पूरे यत्न से करतीं. मुझे याद है एक बार गुरुजी ने कड़ाके की सर्दी में उन्हें रात में मिट्टी की 1001 गौरी की पिंडलियां बनाने के लिए कहा तो इतनी छोटी उम्र में भी मौसी ने नानुकुर किए बिना बना दीं. लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. उन के रत्न भी मौसाजी को नहीं बचा पाए.

किसी ने कहा कि बहुत छोटी है, दूसरा विवाह करा दो, तो किसी ने सती होने की सलाह दी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.

गुरुजी ने कहा कि इसे भगवान की सेवा में लगा दो. सब को वही सही लगा.

एक यक्ष प्रश्न यह भी था कि संतान न होने की वजह से इतनी बड़ी जायदाद को कौन संभालेगा? परिवार वालों ने रिश्तेदारी में से ही एक लड़का गोद ले लिया और अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ससुराल वाले मौसी की तरफ से उदासीन हो गए. घर को वारिस की जरूरत थी. यह जरूरत पूरी होते ही मौसी की हैसियत नौकरानी से कुछ ही ज्यादा रही. फिर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा. वे सिर्फ शांतिपूर्वक रहना चाहती थीं.

दिन बीतते चले गए और लोगों का व्यवहार मौसी से बदलता चला गया. एक दिन वृंदावन से गुरुजी ने संदेश भिजवाया कि बहू को गुरुसेवा के लिए वृंदावन भेज दो, पुण्य मिलेगा.

घर के सभी सदस्यों ने बिना सोचविचार किए उन्हें वृंदावन भेज दिया. हमेशा की तरह मौसी ने भी बिना कुछ कहे बड़ों की आज्ञा का पालन किया. वैसे भी एक हकीकत यह भी है कि आज भी बहुत सी विधवाओं को वृंदावन में भीख मांगते देखा जा सकता है. पर मौसी को एक आश्रम में आश्रय मिल गया. अब मौसी कुछ दिन वृंदावन और कुछ दिन अपने घर रहतीं.

रुपएपैसों की कोई कमी नहीं थी. इसलिए गुरुजी के कहने पर वृंदावन में एक बड़ा सा आश्रम बनवा दिया गया. धीरेधीरे मौसी का वृंदावन से आना बंद हो गया और वे उसी आश्रम में एक कमरा बनवा कर रहने लगीं. कहीं न कहीं लोगों का बदलता व्यवहार और नजरिया इस का एक बड़ा कारण रहा.

कभीकभी मम्मी की और मौसी की फोन पर बात हो जाती. पर बात करने के बाद मां बहुत दुखी रहती थीं. एक दिन में पस्थितियां कुछ ऐसी बन गई कि मां ने गुस्से में वृंदावन जाने का निश्चय कर लिया और फिर घर से चल दीं. पर भाई ने उन्हें अकेले नहीं जाने दिया और वह भी उन के साथ कुछ दिनों के लिए वृंदावन चला गया. मां को मौसी से मिल कर बहुत खुशी हुई. पर मौसी ने उन्हें यहां 2 दिन से ज्यादा रुकने नहीं दिया.

मौसी ने कहा, ‘‘इस तरह से नाराजगी में घर छोड़ कर तूने सही नहीं किया, सुधा. मेरी बात कड़वी लगेगी पर स्त्री को हमेशा एक संरक्षण की जरूरत पड़ती है. शादी से पहले पिता और भाई, शादी के बाद पति और बुढ़ापे में बेटा. समाज में इस से इतर स्त्री को सम्मानपूर्वक जीने का हक नहीं मिलता. आगे से यह गलती दोबारा मत दोहराना. अकेली औरत का दर्द मुझ से ज्यादा कौन समझ सकता है?’’

वापसी में मां ने भाई से कहा, ‘‘बेटा, मौसी के चरणस्पर्श करो.’’

मगर भाई ने पैर छूने से इनकार कर दिया. मां को बहुत बुरा लगा. मौसी ने यह कह कर कि बच्चा है भाई के सिर पर हाथ रखा. लेकिन भाई ने उन का हाथ झटक दिया. शायद मौसी भाई की आंखों में अपने लिए नफरत साफ देख पा रही थीं. इसलिए उन्होंने मां को गुस्सा करने नहीं दिया. शांत रहने का आदेश दे कर बिदा करा.

घर आ कर मां और भाई में बहुत कहासुनी हुई. मां मौसी के खिलाफ कुछ सुनना नहीं चाहती थीं, पर भाई था कि एक ही बात की रट लगाए हुए था, ‘‘वह मौसी नहीं वेश्या है, वेश्या?’’

यह सुनते ही मां ने तड़ाक से एक थप्पड़ जड़ दिया.

इस पर भाई ने गुस्से में कहा, ‘‘आप चाहे कुछ भी कहो, मारो, लेकिन यह एक कड़वी हकीकत है, जिसे आप झुठला नहीं सकतीं. वह वेश्याओं का अड्डा है. वहां सब तरह का धंधा होता है.’’

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मां ने चीख कर कहा, ‘‘बस…बहन है वह मेरी. मां समान है. मैं उस के खिलाफ एक शब्द नहीं सुनना चाहूंगी.’’

इस पर भाई ने कहा, ‘‘इन 2 दिनों में मैं ने वहां जो देखा या मुझे बताया गया, तो क्या वह सब झूठ है?’’

‘‘हां, सब झूठ है. होगा सच औरों के लिए पर मेरी मां समान बहन के लिए नहीं. अगर आज के बाद उन के लिए एक भी शब्द बोला, तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’

उन दोनों के बीच की कहासुनी सुन कर हम लोगों को बहुत डर लग रहा था. पर जैसे भाईर् भी जिद पर उतर आया था. उस ने कहा, ‘‘आप के लिए होगी मां. मेरे लिए तो…’’

मां बीच में ही बोल पड़ीं, ‘‘बस चुप रहो. मैं एक भी शब्द नहीं सुनना चाहती.’’

भाई गुस्से से वहां से चला गया. झगड़ा खत्म नहीं हो रहा था. मां ने कई बार उसे समझाना चाहा, लेकिन वह भी जिद पर अड़ा रहा. शायद उस के मानसपटल पर सबकुछ चिह्नित हो गया था. मां ने एक बार फिर उसे समझाने की नाकाम कोशिश की.

इस पर उस ने कहा, ‘‘चलो अब बात छोड़ो. अभी मेरे साथ वृंदावन चलो. मैं आप को उन सब लोगों से मिलवाता हूं, जिन्होंने मुझे ये सब बताया.’’

तभी अचानक मौसी का फोन आ गया. मां के सवाल करने पर मौसी रो पड़ीं और फिर बोलीं, ‘‘जब मुझे भेजने का निर्णय लिया गया था तब किसी ने भी नहीं रोका. तब कहां थे सब? यह निर्णय तो समाज का ही था. जितने मुंह उतनी बातें. एक अकेली औरत को क्या नहीं सहना पड़ता? सब का सामना करना आसान नहीं है?’’

‘‘इस जीवन से तो अच्छा मरना है, जीजी,’’ मां ने कहा.

‘‘क्या मरना इतना आसान है सुधा?’’ मौसी ने पूछा.

कुछ देर चुप्पी छाई रही, फिर मौसी ने ही चुप्पी को तोड़ा और कहा, ‘‘सुधा, इस बात की वजह से अपने घर में क्लेश मत रखना. हां, यहां दोबारा मत आना और न ही कोई पत्र व्यवहार करना.’’

‘‘पर… जीजी…’’ अभी मां कुछ पूछतीं उस से पहले ही मौसी ने कहा, ‘‘तुझे मेरा वास्ता.’’

शायद मां में इतनी हिम्मत नहीं थी कि मां समान बहन की बात न मानें. खैर, बात आईगई हो गई. महीनों या कहो सालों तक न तो मां ने ही फोन करना ठीक समझा और न ही मौसी का फोन आया.

कुछ सालों बाद एक पत्र से पता चला कि मौसी बहुत बीमार हैं और इलाज के लिए दिल्ली गई हैं. तब मां से रहा नहीं गया और उन्होंने भाई के सामने मौसी से मिलने की इच्छा जताई. भाई खुद मां को मौसी से मिलवाने के लिए दिल्ली ले गया. मौसी और मां मिल कर बहुत रोईं. मौसी को कैंसर बताया गया था और वह भी लास्ट स्टेज का.

मौसी की हालत देख मां रोए जा रही थीं. तब कमला मौसी ने नर्स को कमरे में बाहर जाने को कहा और मां से बोलीं, ‘‘सुधा, पूछ क्या पूछना चाहती थी?’’

मां की रूलाई फूट गई. शब्द नहीं निकल रहे थे. मौसी ने अपने जर्जर शरीर से बैठना चाहा पर नाकामयाब रहीं. भाई दूर खड़ा सब देख रहा था. उस ने आगे बढ़, मौसी को सहारा दे कर बैठाया. कमला मौसी ने हाथ से इशारा करते हुए कहा, ‘‘आशू बैठ. नाराज है न मौसी से? सुधा तेरे सभी सवालों के आज जवाब मिल जाएंगे. तू जानना चाहता है न कि कितनी सचाई है इस आशू की बातों में?’’ उन की सांस उखड़ने लगी थी.

मां ने कहा भी, ‘‘मुझे कुछ नहीं जानना. आप शांत रहो.’’

मौसी ने कहा, ‘‘अकेली स्त्री का दर्द बहुत बड़ा होता है. हां मैं अछूती नहीं… सुधा कड़वी सचाई यह है कि यह जो इज्जत, शीलशुचिता, शब्द हैं न, जिन की वजह से बारबार स्त्रियों को कमजोर किया जाता है असल में औरतों के शोषण की सब से बड़ी वजह शायद यही हैं.

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‘‘आज भी वह इस तथाकथित चारित्रिक बंधन से मुक्त नहीं हो पाई है. जब मैं जा रही थी, तो किसी ने मुझे हक से रोका भी तो नहीं था. कोई कहता तो सही कि हम मर गए हैं क्या? तुम कैसे जा सकती हो, अपना घर छोड़ कर? लेकिन ऐसा नहीं हुआ. किसी ने भी तो मेरे लिए दरवाजे नहीं खोले. मैं एकदम इतनी पराई हो गई सब के लिए. यह शायद मेरे औरत होने की सजा थी.’’

कुछ देर सुबकने के बाद वे फिर बोलीं, ‘‘आज सब मुझ पर ऊंगलियां उठा रहे हैं. जिन लोगों ने, जिस समाज ने भेजा, वही पीठ पीछे हंसता था, बातें बनाता था. पता है एक महिला अपने चरित्र पर उठती ऊंगली आज भी बरदाश्त नहीं कर पाती और शायद यहीं वह चूक जाती है. यही वजह उस के मानसिक और शारीरिक शोषण का कारण होती है.

‘‘हां, आश्रम में सबकुछ होता है. लेकिन मेरे लिए यह वेश्यालय नहीं. वह आश्रम तो मुझ जैसी और भी कई औरतों के लिए एक आश्रय है. मैं ने उन्हें गुरु माना है. वही मेरे सबकुछ हैं. बहुत सी बार स्थितियोंवश जब 2 लोग जुड़ते हैं तब उस समय एक भावनात्मक संबंध जुड़ता है जो शारीरिक संबंध का रूप ले लेता है. वैसे भी अपनों ने तो मुंह मोड़ लिया था. कहां जाती? ससुराल वालों ने पीछा छुड़ाना चाहा तो मायके वालों का भी तो साथ नहीं मिला… किस ने ढोना चाहा इस बोझ को? बोलो? ऐसे में गुरुजी ने ही सहारा दिया, आश्रय दिया.

‘‘सहारा देने वाला ही मेरे लिए सबकुछ होता होगा. आश्रम में मेरे जैसी न जाने कितनी बेसहारा औरतों को संरक्षण तो मिल जाता है. पति की मृत्यु के बाद तो कुछ लोगों ने कहा कि इस लड़की को मर जाना चाहिए. अब यह जी कर क्या करेगी? पर… मेरे अंदर इतनी शक्ति नहीं थी, जो मैं अपने प्राण त्याग देती. कहना बहुत आसान होता है पर करना बहुत मुश्किल. अपनेअपने गरीबान में झांक कर देखो सब,’’ कहतेकहते फफक कर रो पड़ीं.

फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद आगे बोलीं, ‘‘सत्य की भूख तो सब को होती है, लेकिन जब यह परोसा जाता है, तो बहुत कम लोग इसे पचा पाते हैं, सुधा. अकेली औरत को हजारों बुनियादी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और इसी कारण उसे कई अत्याचारों, शोषण और प्रतिरोध करने पर दमन का शिकार होना पड़ता है.

‘‘मुझे मालूम है पति के साए से दूर औरत को वेश्या ही समझा जाता है. आखिरकार इस पुरुषप्रधान समाज में स्त्री को एक देह से अलग एक स्त्री के रूप में देखता ही कौन है? यहां तो, स्त्री के कपड़ों के भीतर से नग्नता को खींचखींच कर बाहर लाने की परंपरा है. नग्नता और शालीनता के मध्य की बारीक रेखा समाज स्वयं बनाता और स्वयं बिगाड़ता है. हर औरत इस दलदल में हमेशा फंसा महसूस करती है. स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है? मेरी जिंदगी क्या है? मैं तो एक टूटा हुआ पत्ता हूं. न मेरा कोई आगे, न पीछे. क्या पता एक हवा का झोंका कहां फेंक दे?’’

उस दिन मां और मौसी घंटों रोती रही थीं. भाई को भी अपने कहे शब्दों पर बहुत अफसोस हुआ था. मां से इस मुलाकात के बाद मौसी का मन हलका हो गया था शायद इतना हलका कि उस के बाद उन की सांसें हमेशा के लिए चली गईं.

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