किसी से नहीं कहना: भाग 4- उर्वशी के साथ उसके टीचर ने क्या किया?

डिनर के बाद महेश ने उर्मी को उस के घर छोड़ दिया. बिस्तर पर लेट कर उर्वशी अपनी योजना को सफल होता देख खुश हो रही थी, किंतु आगे अब क्या और कैसे करना है, यह उस के समक्ष चुनौतीभरा कठिन प्रश्न था.

दूसरे दिन उर्वशी ने महेश को फोन कर के कहा, ‘‘हैलो महेश मैं 1 सप्ताह के लिए अपने घर जा रही हूं…’’

महेश ने बीच में ही उसे टोकते हुए कहा, ‘‘उर्मी, 1 सप्ताह, मैं कैसे रहूंगा तुम्हारे बिना?’’

‘‘महेश हमेशा साथ रहना है तो यह जुदाई तो सहन करनी ही होगी. मैं हमारी शादी की बात करने जा रही हूं, आखिर मुझे भी तो जल्दी है न.’’

उर्वशी के मुंह से यह बात सुन कर महेश खुश हो गया. उर्वशी अपने घर चली गई, महेश से यह कह कर कि उसे फोन नहीं करना.

1 सप्ताह का कह कर गई उर्वशी 15 दिनों तक भी वापस नहीं आई.

इधर महेश की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उर्वशी यही तो चाहती थी, अभी तक

सबकुछ उस की योजना के मुताबिक ही हो रहा था. 15 दिनों बाद उर्वशी वापस आई और उस ने महेश को फोन लगा कर बोला, ‘‘महेश एक बहुत ही दुखद समाचार ले कर आई हूं, शाम को डिनर पर मिलो तो तुम्हें सब विस्तार से बताऊंगी.’’

शाम को डिनर पर उर्वशी को उदास देख कर महेश ने पूछा, ‘‘क्या हुआ उर्मी? घर पर मना तो नहीं कर दिया न?’’

बहुत ही उदास मन से उर्वशी ने उसे बताया, ‘‘महेश मेरे पापा ने मेरी शादी तय कर दी है.’’

‘‘यह क्या कह रही हो उर्मी? तुम से बिना पूछे वे ऐसा कैसे कर सकते हैं?’’

‘‘मुझे नहीं पता था महेश कि मेरे महल्ले में रहने वाला राकेश बचपन से मुझे प्यार करता है. मैं ने तो कभी उस के साथ बात भी नहीं करी. एक दिन उस ने मेरे पापा से मिल कर कहा मैं आप की बेटी से बहुत प्यार करता हूं और उस से शादी करना चाहता हूं. मैं उस के लिए कुछ भी कर सकता हूं.

‘‘मेरे पापा ने यों ही उस से पूछ लिया कि क्या कर सकते हो तुम उस के लिए?

‘‘राकेश ने कुछ देर सोच कर कहा कि मैं शादी से पहले ही अपना बंगला, सारी दौलत आप की बेटी के नाम कर सकता हूं.

‘‘मेरे पापा चौंक गए और उन्होंने कहा कि यह क्या कह रहे हो? कथनी और करनी में बहुत फर्क है.

‘‘तब महेश उस ने सच में अपना बंगला मेरे नाम पर लिख दिया हालांकि मेरे पापा ने उसे मना भी किया. पापा के मुंह से यह सब सुनने के बाद मैं कुछ कह ही नहीं पाई, क्योंकि मेरे मम्मीपापा दोनों बहुत ही खुश थे.

‘‘मुझे समझते हुए उन्होंने कहा कि उर्मी जो लड़का तुम्हें इतना प्यार करता है, सोचो तुम्हें कितना खुश रखेगा. मैं कुछ नहीं कह पाई महेश.

महेश ने बौखला कर कहा, ‘‘इस में कौन सी बड़ी बात है उर्मी, मैं भी अपनी पूरी दौलत तुम्हारे नाम कर सकता हूं.

प्यार के आगे दौलत की औकात ही क्या और फिर तुम भी तो मेरी ही रहोगी न.’’

अपनी योजना को सफल होता देख उर्वशी ने खुश हो कर कहा, ‘‘मैं जानती हूं महेश, लेकिन राकेश ने तो अपनी सारी दौलत मेरे नाम कर दी है, उसे कैसे मना करें?’’

‘‘उर्वशी तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हारे पापा से मिल कर उन्हें समझऊंगा और जो कुछ भी राकेश ने दिया है उसे वापस कर देंगे.’’

इस तरह बातें करते हुए दोनों ने डिनर पूरा किया और फिर महेश ने उर्वशी को घर छोड़ दिया. महेश की पत्नी पूजा को उस के अफेयर के बारे में पता था. इसीलिए उन के घर में रोज झगड़ा होता रहता था.

महेश जैसे ही अपने घर पहुंचा पूजा ने गुस्से में पूछा, ‘‘इतनी देर कहां थे महेश? कोई फोन नहीं, कोई खबर नहीं, आखिर ऐसा क्यों कर रहे हो? तुम्हें क्या लगता है, मुझे कुछ पता नहीं, धोखा देना और गलतियां करना तो तुम्हारी आदत ही है.’’

पूजा बहुत ही स्वाभिमानी लड़की थी. उस ने महेश की इस हरकत के लिए उसे धिक्कारते हुए कहा, ‘‘महेश तुम एकसाथ 2 लड़कियों को धोखा दे रहे हो. कौन है उस से मुझे कोई मतलब नहीं, मुझे मतलब है तुम से और यह धोखा तुम मुझे दे रहे हो. मैं तुम्हारे जैसे घटिया धोखेबाज इंसान के साथ नहीं रह सकती. मैं उन लड़कियों में से नहीं हूं, जो पति को परमेश्वर मान कर इस तरह के अत्याचार घूंघट में रह कर ही सहन कर लेती हैं. यदि तुम्हें मुझ से नहीं किसी और से प्यार है तो मैं तुम्हें आजाद करती हूं. इतने सालों में शायद मेरा प्यार तुम्हें कम पड़ गया. अच्छा ही हुआ हमें अभी तक कोई संतान नहीं हुई वरना शायद मेरे पैरों में बेडि़यां पड़ जातीं.’’

महेश पूजा की बातों का कोई जवाब नहीं दे पाया. उस पर तो अभी केवल उर्मी के प्यार का नशा चढ़ा हुआ था. उर्वशी के मन में चल रहे षड्यंत्र से अनजान महेश उसी के साथ उस के मातापिता के पास गया. वहां पहुंच कर महेश ने उर्मी के पिता के समक्ष अपने प्यार का इजहार किया और शादी का प्रस्ताव रखा.

किंतु उर्वशी के पिता विवेक ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘यह संभव नहीं है, मैं ने उर्मी का रिश्ता तय कर दिया है, वह लड़का राकेश उसे बहुत प्यार करता है. मेरे मना करने के बाद भी उस ने अपनी सारी दौलत इस के नाम कर दी है, मैं उसे कैसे मना कर सकता हूं महेश? ’’

‘‘लेकिन उर्मी तो मुझ से प्यार करती है न अंकल, राकेश से नहीं. यह तो उर्मी के साथ भी अन्याय ही होगा. यदि आप अपनी बेटी को खुश देखना चाहते हैं तो आप वह रिश्ता तोड़ दीजिए, मैं उर्मी से बहुत प्यार करता हूं और उस के बिना जी नहीं पाऊंगा. मैं भी अपनी पूरी दौलत उर्मी के नाम लिखने को तैयार हूं.’’

विवेक अब कुछ नहीं कह पाए और उन्होंने हां कह दी, क्योंकि इस षड्यंत्र में वे शुरू से ही उर्वशी के साथ थे.

महेश बहुत ही जोश में था, वह तुरंत ही वहां से जाने लगा और जातेजाते उस ने उर्मी से कहा, ‘‘उर्मी आई लव यू, तुम्हारे लिए मैं कुछ

भी कर सकता हूं कुछ भी. मैं कल ही अपने वकील को साथ ले कर वापस आऊंगा और अपनी पूरी जायदाद तुम्हारे नाम कर दूंगा. फिर हमें विवाह के बंधन में बंधनेसे कोई भी रोक नहीं पाएगा.’’

1 दिन की कह कर गया महेश 3 दिन तक वापस नहीं आया और न ही उस का कोई फोन आया. इधर उर्वशी और उस के मातापिता बेचैन होने लगे, उन्हें लगने लगा कि महेश कहीं कुछ समझ तो नहीं गया.

उर्वशी बारबार उसे फोन कर रही थी, किंतु उस का फोन स्विच औफ ही आ रहा था. देखतेदेखते पूरा सप्ताह बीत गया, किंतु महेश नहीं आया तब उर्वशी घबरा कर वापस देवास आ गई और महेश से मिलने उस के शोरूम पहुंच गई.

सेल्समैन ने उसे देखते ही कहा, ‘‘उर्मी मैडम महेश सर के मातापिता  की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. यह समाचार मिलते ही वह जबलपुर चले गए और उन का मोबाइल भी बंद आ रहा है.’’

इतना सुन कर उर्वशी ने खेद व्यक्त किया और अपने घर चली गई. उस के मन में यह संतोष था कि जैसा वह सोच रही थी वैसा कुछ नहीं है. महेश को कुछ भी पता नहीं चला, उस की योजना असफल नहीं हुई.

1 सप्ताह और बीतने के बाद महेश देवास वापस आया और सब से पहले उर्मी से मिलने उस के घर पहुंच गया.

किसी से नहीं कहना: भाग 3- उर्वशी के साथ उसके टीचर ने क्या किया?

नौकरी जौइन करने का वक्त आ गया और उर्वशी घर में सभी का आशीर्वाद ले कर चली गई.

औफिस जौइन करने के बाद वह उस स्कूल में पहुंची, जहां उस के बचपन की खौफनाक यादें जुड़ी हुईर् थीं. शिक्षिका के पद के लिए आवेदन पत्र देने के बहाने से वह कुछ टीचर्स से मिली और बातों ही बातों में खेलकूद की बातें छेड़ते हुए महेश के विषय में पूछ लिया. तब उसे पता चला कि महेश अब एक बहुत बड़े स्पोर्ट्स शोरूम का मालिक है.

महेश के विषय में यह सुन कर उर्वशी का खून खौल उठा. वह सोचने लगी कि उस की जिंदगी बरबाद करने वाला मौज की जिंदगी जी रहा है, किंतु अपनी उस गलती पर अब उसे अवश्य ही पछताना होगा.

इतना बड़ा जानामाना शोरूम ढूंढ़ने में उर्वशी को समय नहीं लगा. शोरूम के अंदर जैसे ही वह पहुंची उसे सामने ही महेश शान से बैठा हुआ दिखाई दिया. उसे देखते ही वह पहचान गई, वह थोड़ा सहम गई, किंतु तुरंत ही उस ने अपनेआप को संभाल लिया.

एक साधारण सी ड्रैस में बिना मेकअप के भी वह बहुत सुंदर लग रही थी. उर्वशी को देखते ही महेश की आंखें उस पर जा टिकीं. महेश को अनदेखा कर अंदर जा कर उस ने सेल्स मैन से कहा, ‘‘जी बैडमिंटन के रैकेट दिखाइए.’’

‘‘जी मैडम अभी दिखाता हूं.’’

तब तक महेश वहां आ गया और सेल्स मैन से बोला, ‘‘तुम बैंक जा कर चैक जमा कर के आओ, कस्टमर को मैं अटैंड करता हूं.’’

‘‘कहिए मैडम क्या चाहिए आप को?’’

‘‘जी बैडमिंटन के रैकेट दिखाइए,’’ उर्वशी ने जवाब दिया.

‘‘जी जरूर, क्या मैं पूछ सकता हूं, आप किस स्कूल की तरफ से आई हैं?’’

‘‘जी नहीं, मैं किसी भी स्कूल से नहीं आई हूं, मुझे अनाथालय के बच्चों के लिए कुछ सामान चाहिए.’’

‘‘अरे वाह तो समाजसेविका हैं आप.’’

‘‘जी आप ऐसा समझ सकते हैं.’’

‘‘वाह आप बहुत अच्छा काम कर रही हैं, मैं आप को 20% का डिस्काउंट भी दूंगा.’’

‘‘आप बस जल्दी से मेरा सामान पैक करवा दीजिए.’’

अपना सामान ले कर उर्वशी बाहर निकल गई और एक गहरी सांस लेते हुए सोचने लगी कि जिस सुंदरता के पीछे उस का बचपन, हंसनाखेलना इस इंसान ने छीना था, उसी सुंदरता से वह भी उस की सारी खुशियां छीन लेगी.

अब उर्वशी हर 3-4 दिन में महेश के शोरूम पर आने लगी तथा कुछनकुछ खरीद कर वह अनाथालय के बच्चों में बांट दिया करती थी. अपने शोरूम में उर्वशी को देखते ही महेश का चेहरा खिल जाता था.

अब तक 3 महीने बीत चुके थे और उर्वशी उस से बहुत अच्छी तरह बात करने लगी थी. वह जब भी कुछ खरीदने आती महेश तुरंत उसे अटैंड करने स्वयं चला आता.

धीरेधीरे बातचीत का सिलसिला बढ़ने लगा और दोस्ती में बदल गया. उर्वशी ने महेश को अपना नाम उर्मी बताया था. अब तक वे दोनों एकदूसरे का फोन नंबर भी ले चुके थे. महेश महसूस कर रहा था कि उसे उर्मी की तरफ से बराबर लिफ्ट मिल रही है. अत: उस की हिम्मत भी बढ़ रही थी. अब उसे उर्मी का बेसब्री से इंतजार रहता था जिसे उर्वशी समझ रही थी. इसलिए अपनी योजना को आगे बढ़ाते हुए उर्वशी ने शोरूम पर आना बंद कर दिया ताकि महेश की बेचैनी बढ़ती जाए, वह उस का इंतजार करता रहे.

1 सप्ताह तक उस के नहीं आने पर महेश ने उसे फोन कर ही लिया, ‘‘हैलो उर्मी क्या हो गया है. तुम कितने दिनों से शोरूम पर नहीं आई?’’

‘‘मेरी तबीयत थोड़ी खराब है, महेश.’’

‘‘अरे मुझे क्यों नहीं बताया तुम ने? डाक्टर को दिखाया या नहीं? मैं ले कर चलता हूं, तुम अपने घर का पता भेजा, मैं तुरंत आ जाऊंगा.’’

‘‘नहींनहीं महेश उस की जरूरत नहीं है, मैं ने डाक्टर को दिखा लिया है, अब मैं ठीक हूं कल मैं खुद शोरूम पर आऊंगी.’’

‘‘अच्छा ठीक है,’’ महेश ने जवाब दिया.

दूसरे दिन जब उर्वशी शोरूम पर आई, महेश का चेहरा खिल गया और उस ने कहा, ‘‘उर्मी, मैं रोज तुम्हारा रास्ता देख रहा था, तुम ने बहुत इंतजार करवाया… तुम्हें आज मेरे साथ डिनर पर चलना होगा.’’

उर्वशी ने पहले तो मना किया, किंतु महेश के ज्यादा आग्रह करने पर मान गई.

तब महेश ने कहा, ‘‘उर्मी, मैं तुम्हें लेने आ जाऊंगा.’’

बचपन में सुना हुआ यही वाक्य उसे याद आ गया और उस ने महेश से कहा, ‘‘ठीक है मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’

शाम को ठीक 7 बजे महेश उर्वशी को लेने आया. उर्वशी नीचे खड़ी उस का इंतजार कर रही थी और तब उसे बचपन की बीती घटना याद आने लगी.

नीली जींस, हलके गुलाबी रंग के कुरते और खुले हुए बालों में उर्वशी बहुत ही खूबसूरत लग रही थी.

उसे देखते ही महेश ने कहा, ‘‘उर्मी, तुम बहुत ही सुंदर लग रही हो.’’

‘‘थैंक यू महेश, तुम भी बहुत हैंडसम लग रहे हो,’’ ऐसा बोतले हुए उर्वशी कार में बैठ गई और दोनों होटल के लिए निकल गए.

वहां महेश ने पहले से ही टेबल रिजर्व कर रखी थी. यह उन दोनों की साथ में पहली डिनर की शाम थी. डिनर के बाद महेश ने उर्वशी को उस के घर छोड़ दिया.

इस तरह डिनर पर जाना अब दोनों के लिए आम बात हो गई थी. महेश मन ही मन

सच में उर्वशी से प्यार करने लगा था. यदि वह 2 दिन भी नहीं दिखे तो महेश बेचैन हो जाता था. उस का तब किसी काम में मन नहीं लगता था. अब वह अपने प्यार का इजहार करना चाहता था.

अत: एक दिन उस ने उर्वशी से कहा, ‘‘उर्मी आज मैं ने कैंडल लाइट डिनर रखा है, तुम चलोगी न?’’

उर्वशी ने खुशीखुशी बिना संकोच के कहा, ‘‘क्यों नहीं? जरूर चलूंगी.’’

जब दोनों कैंडल लाइट डिनर पर गए, तब महेश ने पहली बार होटल में उर्वशी का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘उर्मी, मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूं’’

उर्वशी बिलकुल भी चौंकी नहीं और बोली, ‘‘मैं जानती हूं महेश, तुम्हारी आंखों में मुझे मेरे लिए प्यार दिखाई देता है, प्यार तो मैं भी तुम से करने लगी हूं, किंतु तुम्हारी पत्नी? वह भी तो है न? मैं किसी का जीवन बरबाद नहीं करना चाहती.’’

‘‘नहीं उर्मी मैं वैसे भी अपनी पत्नी से अलग होने वाला हूं, हमारे विचार बिलकुल नहीं मिलते. वह भी मेरे साथ नहीं रहना चाहती,’’ महेश ने झठ बोलते हुए सफाई दी.

उर्वशी कुछ देर सोचने के बाद बोली, ‘‘किंतु महेश मैं ने अपने भविष्य का फैसला अपने मम्मीपापा पर छोड़ा है.’’

‘‘हां तो ठीक है न, तुम कहो तो मैं तुम्हारे पापा से बात करने आ सकता हूं. इतना बड़ा शोरूम, बंगला, गाड़ी सब कुछ है मेरे पास, आखिर वे मना क्यों करेंगे?’’

‘‘ठीक है महेश, मैं कुछ ही दिनों में घर जाने वाली हूं, तब मैं पापा से बात करूंगी.’’

उर्वशी के मुंह से प्यार का इकरार सुनने के बाद वह उसे किस करने की कोशिश करने लगा, किंतु उर्वशी ने उसे मना करते हुए कहा, ‘‘नहीं महेश यह सब विवाह के बाद ही अच्छा लगता है, पता नहीं मेरे पापा तुम्हारे साथ विवाह के लिए हां बोलेंगे या नहीं और मैं किसी को भी धोखा नहीं दे सकती. यदि मेरी शादी किसी और के साथ होगी तो यह किस मुझे शर्मिंदा करेगी.’’

अपने आप को संभालते हुए महेश ने कहा, ‘‘हां तुम ठीक कह रही हो उर्मी, मैं बहक गया था पर शादी किसी और से, यह बात तुम सोच भी कैसे सकती हो. हम इतना प्यार करते हैं तो हमारा मिलन तो निश्चित ही है.’

किसी से नहीं कहना: भाग 2- उर्वशी के साथ उसके टीचर ने क्या किया?

अपनी हवस शांत कर लेने के बाद महेश ने कहा, ‘‘उर्वशी, यह बात किसी को भी नहीं बताना, यह बात तुम अगर अपने घर पर बताओगी तो तुम्हारे मम्मीपापा तुम्हें बहुत मारेंगे.’’

महेश ने बारबार प्यार से कह कर उस के दिमाग में यह भर दिया कि यह बात किसी को भी नहीं बतानी है. कमजोर पड़ चुकी उर्वशी खुद से कपड़े भी नहीं पहन पा रही थी, वह लगातार रो रही थी, तब महेश ने खुद ही उसे कपड़े पहना दिए.

उर्वशी के कोमल होंठ नीले पड़ चुके थे, उस की ऐसी हालत देख कर महेश ने उसे समझया, ‘‘उर्वशी, अपने घर जा कर कहना कि रेस के समय तुम बहुत जोर से गिर गई थीं, इसलिए चोट लग गई है.’’

उर्वशी कितनी भी छोटी हो, किंतु वह यह तो समझ ही गई थी कि उस के साथ यह बहुत ही बुरा हुआ है. वहां से निकल कर महेश ने उर्वशी को उस के घर के पास ही छोड़ दिया और खुद तेजी से कार भगा कर चला गया.

उर्वशी किसी तरह से कराहती हुई घर पहुंची और बैल बजाई. विनीता दरवाजा खोलने आई और उर्वशी की ऐसी हालत देख कर उस के मुंह से चीख निकल गई, ‘‘क्या हुआ मेरी बच्ची को?’’

विनीता की चीख सुनते ही विवेक भी वहां आ गया और अपनी बेटी को इस हालत में देख कर वह भी घबरा गया. उर्वशी को विनीता ने गले से लगा लिया, वह जोरजोर से रो रही थी.

विवेक और विनीता हैरान थे, डरे हुए थे, ‘‘क्या हो गया बेटा?’’ वे बारबार पूछ रहे थे, किंतु उर्वशी कुछ भी नहीं बोल रही थी, केवल रोती ही जा रही थी.

आखिरकार उर्वशी ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मी, मैं रेस के समय बहुत ज्यादा जोर से गिर गई थी. मुझे बहुत चोट आई है, सब दुख रहा है, मुझे नींद भी आ रही है, मुझे सोने दो मम्मा.’’

‘‘नहीं बेटा चलो पहले मैं तुम्हें नहला देती हूं, कपड़े बदल कर डाक्टर को भी दिखा देते हैं, तुम्हारे होंठों पर कितनी चोट लगी है,’’ कहते हुए उर्वशी का हाथ पकड़ कर विनीता उसे नहलाने ले गई.

उर्वशी को बाथरूम में नहलाते समय उस के कपड़ों पर खून के निशान देख कर विनीता चौंक कर चीख उठी, ‘‘उर्वशी बेटा यह ब्लड कैसे निकला तुम्हें?’’

विनीता घबरा गई और टौवेल में लपेट कर उर्वशी को बाहर ले आई. उस ने विवेक को उर्वशी के कपड़े दिखा कर रोते हुए कहा, ‘‘विवेक, हमारी बच्ची के साथ…’’

विवेक ने बीच में ही उसे रोक कर उर्वशी से पूछा, ‘‘बेटा, तुम्हारे साथ क्या हुआ? किसी ने तुम्हारे साथ गंदी बात की है क्या? किस ने किया, कौन था वह बताओ?’’

उर्वशी ने डरी हुई आवाज में कहा, ‘‘मैं रेस के समय गिर गई थी इसलिए लग गई है पापा.’’

तभी विनीता ने कहा, ‘‘उर्वशी बेटा सच बताओ, गिरने से ऐसी जगह पर चोट नहीं लगती.’’

उर्वशी ने कहा, ‘‘आप मुझे मारोगी न मम्मा.’’

‘‘मैं तुम्हें बिलकुल नहीं मारूंगी बेटा, कोई नहीं मारेगा, सब सचसच बताओ, तुम्हारे साथ क्या हुआ?’’

‘‘मम्मा महेश सर ने कहा था कि यह बात किसी को भी मत बताना वरना वे लोग तुम्हें मारेंगे.’’

विनीता ने बहुत प्यार से पटा कर उस से सारी बात पूछी. उर्वशी ने रोतेरोते सबकुछ बता दिया. मांबाप की तो मानो दुनिया ही लुट गई, अपनी बेटी की ऐसी दुर्दशा पर वे दोनों फूटफूट कर रोने लगे. वे खुद को दोषी समझने लगे कि उन्होंने उस इंसान पर भरोसा ही क्यों किया? उर्वशी के दादादादी भी अपनी पोती की ऐसी हालत देख कर रोने लगे.

तभी विवेक ने कहा, ‘‘विनीता, चलो पुलिस में शिकायत दर्ज करा देते हैं, उस पापी को इस कुकर्म की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

किंतु विनीता ने साफ इनकार कर दिया, ‘‘नहीं, विवेक हम मध्यवर्गीय लोग हैं, यदि एक बार हमारी बच्ची के विषय में यह पता चल जाएगा तो समाज में उस का जीना मुश्किल हो जाएगा. लोग उसे अलग नजरों से देखेंगे और जब वह बड़ी होगी तो कौन करेगा इस दाग के साथ उस से शादी?’’

तभी विनीता ने उर्वशी से कहा, ‘‘उर्वशी बेटा यह बात किसी को भी मत बताना, अपने होंठों पर ताला लगा लो और जितनी जल्दी हो सके इसे भूलने की कोशिश करना.’’

विवेक ने जब डाक्टर के पास चलने को कहा तो बदनामी के डर से विनीता ने मना कर दिया और कहा, ‘‘घर पर ही दवा लगा कर ठीक करेंगे.’’

उर्वशी सोचने लगी कि जो बात उसे सर ने कही थी कि किसी को भी नहीं बताना, वही बात मम्मी भी कह रही हैं

अपनी मम्मी की बात मान कर उर्वशी ने अपने होंठों को तो सिल लिया, लेकिन अपने मन का वह क्या करे, जिस से वह घटना निकलती ही नहीं? उस भयानक घटना का खौफ हर समय उस के दिल में साया बन कर मंडराने लगा.

विवेक और विनीता ने मिल कर यह निर्णय लिया कि वे देवास छोड़ कर कहीं और चले जाएंगे ताकि नए माहौल में उर्वशी यह सब भूल जाए. जल्द ही विवेक ने स्कूल जा कर उर्वशी का नाम वहां से कटवा लिया और अपना ट्रांसफर भोपाल करवा लिया. वे देवास छोड़ कर चले गए.

शारीरिक तौर पर उर्वशी धीरेधीरे स्वस्थ हो रही थी, किंतु मानसिक तौर पर वह सदमे में ही थी. भोपाल आ कर उर्वशी को स्कूल में दाखिला मिल गया. पूरा परिवार हर समय उर्वशी को खुश रखने की कोशिश में लगा रहता था. लाख कोशिश के बाद भी उर्वशी के चेहरे पर पहले की तरह मुसकान नहीं आ पा रही थी.

उधर कुछ दिनों तक महेश छुट्टी पर ही रहा. जब उसे विश्वास हो गया कि उस के खिलाफ कहीं कोई शिकायत दर्ज नहीं की गई है तभी उस ने पुन: स्कूल आना शुरू किया. तब उसे पता चला कि उर्वशी ने तो स्कूल छोड़ दिया है और वह लोग कहीं और चले गए हैं. अब महेश अपने द्वारा किए गए पाप के डर से मुक्त हो गया. ऐसे लोग शायद जानते हैं कि बदनामी के डर से पीडि़त लड़की का परिवार चुप्पी साध लेगा.

धीरेधीरे समय व्यतीत हो रहा था, उर्वशी अब बड़ी हो रही थी और बड़े होने के साथ ही वह यह भी समझ चुकी थी कि उस के साथ बलात्कार हुआ था. ‘किसी से भी कुछ नहीं कहना, अपने होंठों पर ताला लगा लो,’ ये शब्द उसे आज भी याद थे जो उसे परेशान कर देते थे, साथ ही उसे अपने पापा के शब्द भी याद थे कि उस पापी को इस कुकर्म की सजा मिलनी ही चाहिए. अभी तक वह अपने साथ हुई जबरदस्ती को भूल नहीं पाई थी.

वक्त के साथसाथ उर्वशी की नफरत भी बढ़ती ही जा रही थी. वह अपने मन में अब तक यह दृढ़ निश्चय कर चुकी थी कि किसी भी कीमत पर उस चरित्रहीन इंसान से बदला लेना ही है. उर्वशी की ऐसी मनोदशा से उस का परिवार अनजान था. वे सब इस भ्रम में थे कि उर्वशी उस घटना को भूल चुकी है, लेकिन नफरत और बदले का ज्वालामुखी जो उर्वशी के अंदर धधक रहा था, उस का शांत होना इतना आसान नहीं था.

धीरेधीरे 12 वर्ष बीत गए अब तक उर्वशी की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. अपने कालेज के कैंपस में चयनित होने के उपरांत नौकरी के लिए उर्वशी ने देवास का चयन किया जहां वह इस खौफनाक घटना का शिकार हुई थी.

उर्वशी का यह निर्णय देख कर विवेक चिंताग्रस्त हो गए और फिर उर्वशी से पूछा, ‘‘बेटा उर्वशी देवास ही क्यों?’’

उर्वशी ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘पापा वही तो सब से पास है, जब भी मन करेगा आसानी से यहां आप के पास आ सकूंगी.’’

उर्वशी से बात करने के बाद रात में विवेक ने विनीता से कहा, ‘‘उर्वशी ने वही शहर क्यों पसंद किया, उस के पास और भी चौइस थी? मुझे चिंता हो रही है.’’

‘‘नहीं विवेक ऐसी तो कोई बात नहीं है, 12 वर्ष बीत गए हैं, तब वह बहुत छोटी थी, तुम बेकार में चिंता कर रहे हो.’’

किसी से नहीं कहना: भाग 1- उर्वशी के साथ उसके टीचर ने क्या किया?

मध्यवर्ग के विवेक और विनीता अपनी इकलौती बेटी उर्वशी और वृद्ध मातापिता के साथ बहुत ही सुकून के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे. परिवार छोटा ही था, घर में जरूरत की सभी सुखसुविधाएं उपलब्ध थीं. ज्यादा की लालसा उन के मन में बिलकुल नहीं थी. यदि कोई चाहत थी तो केवल इतनी कि अपनी बेटी को खूब पढ़ालिखा कर बहुत ही अच्छा भविष्य दे पाएं.

उर्वशी भी अपने मातापिता की इस चाह पर खरा उतरने की पूरी कोशिश कर रही थी. 10 वर्ष की उर्वशी पढ़ने में होशियार होने के साथ ही खेलकूद में भी बहुत अच्छी थी और जीत भी हासिल करती थी. वह स्कूल में सभी टीचर्स की चहेती बन गई थी.

विनीता अपनी बेटी की पढ़ाई की तरफ बहुत ध्यान देती थी. उसे रोज पढ़ाना उस की दिनचर्या का सब से महत्त्वपूर्ण कार्य था. विवेक औफिस से आने के बाद उसे खेलने बगीचे में ले जाते थे. रात को अपने दादादादी के साथ कहानियां सुन कर उस के दिन का अंत होता था. इस तरह से उस की इतने अच्छे संस्कारों के बीच परवरिश हो रही थी.

उर्वशी 5वीं कक्षा में थी, वह प्रतिदिन बस से ही स्कूल आतीजाती थी. विनीता रोज उसे बस में बैठाने और लेने आती थी. यदि किसी दिन बस आने में थोड़ी भी देर हो जाए तो विनीता बस के ड्राइवर को फोन लगा देती थी.

बस से उतरते ही उर्वशी अपनी मां को समझती, ‘‘अरे मम्मी कभीकभी किसी बच्चों की मांएं आने में देर कर देती हैं, इसलिए देर हो जाती है. जब तक बच्चों की मांएं नहीं आतीं तब तक छोटे बच्चों को बस से नीचे भी नहीं उतरने देते. आप क्यों चिंता करती हो? हमारी बस में और स्कूल में सब लोग बहुत अच्छे हैं.’’

‘‘अच्छा मेरी मां मैं समझ गई.’’

उर्वशी के स्कूल में हफ्ते में 2 दिन खेलकूद का पीरियड होता था. इस पीरियड का बच्चे बहुत ही बेसब्री से इंतजार करते थे. उर्वशी को भी इंतजार रहता था. वह बहुत तेज दौड़ती थी. खेलकूद के टीचर महेश सर जिन की उम्र लगभग 26-27 वर्ष होगी, हमेशा उर्वशी की तरफ सब से ज्यादा ध्यान देते थे और उस की पीठ थपथपाना, उस की तारीफ करना सर की आदत में शामिल हो चुका था. छोटी उर्वशी भी उन के साथ बहुत घुलमिल गई थी.

महेश की नीयत इस बच्ची के लिए खराब हो चुकी थी. हवस दिनबदिन उस के ऊपर हावी होती जा रही थी. अब वह मौके की तलाश में था कि किस तरह अपनी हवस को शांत करे. चंचल और सुंदर उर्वशी को अपना शिकार बना कर स्वयं कैसे बच निकलना है, यह पूरी योजना एक षड्यंत्र के तहत महेश के मनमस्तिष्क में चल रही थी.

एक दिन उर्वशी को अपने पास बुला कर उस ने कहा, ‘‘उर्वशी बेटा अभी एक इंटर स्कूल कंपीटिशन होने वाला है और तुम तो कितना तेज दौड़ती हो. मैं ने उस के लिए तुम्हारा नाम लिखवा दिया है. अब तुम्हें और ज्यादा प्रैक्टिस करनी होगी. तुम यह बात अपने घर पर बता देना.’’

उर्वशी सर के मुंह से यह सुन कर बहुत खुश हो गई, ‘‘जी सर मैं बहुत मेहनत करूंगी और जीतूंगी भी. मैं आज ही मम्मीपापा को यह बता दूंगी. मेरे घर में सब बहुत खुश हो जाएंगे. सर हमें कब जाना है?’’

‘‘वह मैं तुम्हें बता दूंगा और यह बात अपनी क्लास में अभी किसी को भी मत बताना वरना सब ईर्ष्या करने लगेंगे.’’

‘‘ठीक है सर, मैं किसी को भी नहीं बताऊंगी… हम जीतने के बाद ही सब को बताएंगे.’’

‘‘हां बिलकुल,’’ महेश ने उत्तर दिया.

‘‘उर्वशी लो चौकलेट खाओगी?’’

‘‘नहीं सर मेरी मम्मी ने कहा है, किसी से भी खाने की कोई चीज नहीं लेना.’’

‘‘अरे लेकिन मैं तो तुम्हारा सर हूं, मुझ से लेने के लिए तुम्हारी मम्मी कभी मना नहीं करेंगी. अच्छा बोलो, तुम्हें क्या पसंद है, मैं तुम्हारे लिए वही चीज ले कर आऊंगा?’’

‘‘नहीं सर मुझे कुछ नहीं चाहिए,’’ उर्वशी इतना कह कर वहां से चली गई.

उर्वशी ने अपने घर जा कर जब इंटर स्कूल कंपीटिशन की बात बताई तो घर में सभी लोग बहुत खुश गए.

अब महेश की बेचैनी बढ़ने लगी थी, वह जल्दीसेजल्दी अपनी कामेच्छा पूरी करना चाहता था.

बुधवार को खेलकूद के पीरियड के दौरान महेश ने उर्वशी को बुला कर कहा, ‘‘उर्वशी, शनिवार को कंपीटिशन है. तुम सुबह 9 बजे स्कूल यूनिफौर्म पहन कर तैयार रहना. मेरे साथ2 बच्चे और भी होंगे, जो हमारे साथ ही चलेंगे.’’

‘‘जी सर,’’ कह कर उर्वशी जाने लगी.

तभी महेश ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘बेटा जीतना है, अपने सर की इच्छा पूरी करोगी न?’’

‘‘जी सर मैं बहुत तेज दौड़ूंगी.’’

उर्वशी ने घर पहुंच कर अपनी मम्मी से कहा, ‘‘मम्मी शनिवार को मेरी रेस है, मुझे यूनिफौर्म पहन कर जाना है, सुबह 9 बजे सर आएंगे और खेलकूद खत्म होने पर सर ही मुझे वापस भी छोड़ देंगे.’’

‘‘ठीक है उर्वशी बेटा, तुम हिम्मत से दौड़ना, डरना नहीं.’’

‘‘हां मम्मी.’’

आज शनिवार का दिन था, सुबह 9 बजे महेश कार में 2 बच्चों को बैठा कर उर्वशी को लेने उस के घर आ गया. उर्वशी के मम्मीपापा उसे नीचे ले कर खड़े महेश का इंतजार कर रहे थे. महेश ने कार में बैठेबैठे ही विवेक और विनीता को गुडमौर्निंग कहा.

वे कुछ पूछते उस से पहले ही महेश ने कहा, ‘‘उर्वशी बेटा जल्दी चलो देर हो रही है.’’

‘‘जी सर,’’ कह कर उर्वशी कार में बैठ गई.

तभी विनीता बोली, ‘‘सर ध्यान रखना उर्वशी का.’’

‘‘जी मैडम, आप चिंता न करें, मैं खुद उर्वशी को वापस छोड़ने भी आ जाऊंगा,’’ कह कर महेश ने कार चला दी.

कुछ दूर जा कर उस ने उन दोनों बच्चों को जो उस की पहचान के थे, उतार दिया.

इन बच्चों को वह यों ही घुमाने के लिए ले आया था ताकि उर्वशी के मातापिता ऐसा समझें कि दूसरे बच्चे भी साथ हैं.

अब कार में महेश और उर्वशी ही थे. उर्वशी ने पूछा, ‘‘सर वे दोनों बच्चे कहां गए?’’

‘‘उर्वशी, पहले कह रहे थे कि हमें भी चलना है खेलकूद देखने पर फिर पता नहीं क्यों कहने लगे हमें नहीं चलना, इसीलिए उन्हें छोड़ दिया.’’

महेश ने कार को काफी तेज रफ्तार से चला कर एक सुनसान रास्ते पर डाल दिया. नन्ही उर्वशी महेश के मन में चल रहे पाप से अनजान थी. इतना सोचनेसमझने की उस में बुद्धि ही नहीं थी. वह तो बाहर की तरफ देख कर खुश हो रही थी. उसे महेश सर पर विश्वास था, इसलिए डर का एहसास नहीं था. कुछ दूर जा कर महेश ने झडि़यों के बीच अपनी कार को रोक दिया.

यह देख उर्वशी ने कहा, ‘‘क्या हो गया सर? यहां तो जंगल जैसा दिख रहा है, हम यहां क्यों आए हैं?’’

‘‘उर्वशी लगता है, कार खराब हो गई है, तुम पीछे की सीट पर बैठ जाओ, मैं कार ठीक करता हूं.’’

उर्वशी बात मान कर पीछे की सीट पर जा कर बैठ गई. महेश इसी मौके की तलाश में था. वह भी जल्दी से पीछे आ कर बैठ गया.

महेश ने कहा, ‘‘उर्वशी, तुम मुझे बहुत प्यारी लगती हो, आओ मेरे पास आओ, मेरी गोदी में आ कर बैठ जाओ.’’

‘‘नहीं सर मुझे गोदी में नहीं बैठना,’’ उर्वशी ने जवाब दिया.

‘‘क्यों उर्वशी, क्या तुम अपने सर से प्यार नहीं करती? आ जाओ, मैं तुम्हें आज एक नया खेल सिखाऊंगा.’’

‘‘नहीं मैं गोदी में नहीं आऊंगी, मेरी मम्मी मना करती हैं.’’

उर्वशी के इनकार करने पर महेश उसे जबरदस्ती अपनी बांहों में भरने लगा.

उर्वशी चिल्लाई, ‘‘सर, मेरी मम्मी मना करती हैं… आप ने मुझे किस क्यों किया?’’

‘‘उर्वशी वह तो तुम्हारी मम्मा गंदे लोगों के लिए बोलती हैं, मैं तो तुम्हारा सर हूं न.’’ इतना कहतेकहते महेश आवेश में आ गया, छोटी सी उर्वशी और कुछ भी न कर सके, इसलिए अपने हाथों से उस के मुंह को बंद कर दिया. 6 फुट के ऊंचे पूरे जवान ने नन्ही सी बच्ची के कमजोर शरीर को अपने आगोश में भर लिया और जी भर कर उस के कमसिन नाजुक शरीर के साथ मनमानी कर अपनी महीनों की हवस को शांत करने लगा. उर्वशी दर्द से कराहती रही, छटपटाती रही, लेकिन कुछ कर नहीं पाई और कुछ कह भी नहीं पाई.

देह से परे: क्या कामयाब हुई मोनिका

लिफ्ट बंद है फिर भी मोनिका उत्साह से पांचवीं मंजिल तक सीढि़यां चढ़ती चली गई. वह आज ही अभी अपने निर्धारित कार्यक्रम से 1 दिन पहले न्यूयार्क से लौटी है. बहुत ज्यादा उत्साह में है, इसीलिए तो उस ने आरव को बताया भी नहीं कि वह लौट रही है. उसे चौंका देगी. वह जानती है कि आरव उसे बांहों में उठा लेगा और गोलगोल चक्कर लगाता चिल्ला उठेगा, ‘इतनी जल्दी आ गईं तुम?’ उस की नीलीभूरी आंखें मारे प्रसन्नता के चमक उठेंगी. इन्हीं आंखों की चमक में अपनेआप को डुबो देना चाहती है मोनिका और इसीलिए उस ने आरव को बताया नहीं कि वह लौट रही है. उसे मालूम है कि आरव की नाइट शिफ्ट चल रही है, इसलिए वह अभी घर पर ही होगा और इसीलिए वह एयरपोर्ट से सीधे उस के घर ही चली आई है. डुप्लीकेट चाबी उस के पास है ही. एकदम से अंदर जा कर चौंका देगी आरव को. मोनिका के होंठों पर मुसकराहट आ गई. वह धीरे से लौक खोल कर अंदर घुसी तो घर में सन्नाटा पसरा हुआ था. जरूर आरव सो रहा होगा. वह उस के बैडरूम की ओर बढ़ी. सचमुच ही आरव चादर ताने सो रहा था. मोनिका ने झुक कर उस का माथा चूम लिया.

‘‘ओ डियर अलीशा, आई लव यू,’’ कहते हुए आंखें बंद किए ही आरव ने उसे अपने ऊपर खींच लिया. लेकिन अलीशा सुनते ही मोनिका को जैसे बिजली का करैंट सा लगा. वह छिटक पड़ी.

‘‘मैं हूं, मोनिका,’’ कहते हुए उस ने लाइट जला दी. लेकिन लाइट जलते हो वह स्तब्ध हो गई. आरव की सचाई बेहद घृणित रूप में उस के सामने थी. जिस रूप में आरव और अलीशा वहां थे, उस से यह समझना तनिक भी मुश्किल नहीं था कि उस कमरे में क्या हो रहा था. मोनिका भौचक्की रह गई. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे अपने जीवन में ऐसा दृश्य देखना पड़ेगा. आरव को दिलोजान से चाहा है उस ने. उस के साथ जीवन बिताने और एक सुंदर प्यारी सी गृहस्थी का सपना देखा है, जहां सिर्फ और सिर्फ खुशियां ही होंगी, प्यार ही होगा. लेकिन आरव ऐसा कुछ भी कर सकता है यह तो वह सपने में भी नहीं सोच पाई थी. पर सचाई उस के सामने थी. इस आदमी से उस ने प्यार किया. इस गंदे आदमी से. घृणा से उस की देह कंपकंपा उठी. अपने नीचे गिरे पर्स को उठा कर और आरव के फ्लैट की चाबी वहीं पटक कर वह बाहर निकल आई. खुली हवा में आ कर उसे लगा कि बहुत देर से उस की सांस रुकी हुई थी. उस का सिर घूम रहा था, उसे मितली सी आ रही थी, लेकिन उस ने अपनेआप को संभाला. लंबीलंबी सांसें लीं. तभी आरव के फ्लैट का दरवाजा खुला और आरव की धीमी सी आवाज आई, ‘‘मोनिका, प्लीज मेरी बात सुनो. आई एम सौरी यार.’’

लेकिन जब तक वह मोनिका के पास पहुंचता वह लिफ्ट में अंदर जा चुकी थी. इत्तफाक से नीचे वही टैक्सी वाला खड़ा था जिस से वह एयरपोर्ट से यहां आई थी. टैक्सी में बैठ कर उस ने संयत होते हुए अपने घर का पता बता दिया. टैक्सी ड्राइवर बातूनी टाइप का था. पूछ बैठा, ‘‘क्या हुआ मैडम, आप इतनी जल्दी वापस आ गईं? मैं तो अभी अपनी गाड़ी साफ ही कर रहा था.’’

‘‘जिस से मिलना था वह घर पर नहीं था,’’ मोनिका ने कहा, लेकिन आवाज कहीं उस के गले में ही फंसी रह गई. ड्राइवर ने रियर व्यू मिरर से उस को देखा फिर खामोश रह गया. अच्छा हुआ कि वह खामोश रह गया वरना पता नहीं मोनिका कैसे रिऐक्ट करती. उस की आंखों में आंसू थे, लेकिन दिमाग गुस्से से फटा जा रहा था. क्या करे, क्या करे वह? आरव ने कई बार उस से कहा था कि आजकल सच्चा प्यार कहां होता है? प्यार की तो परिभाषा ही बदल चुकी है आज. सब कुछ  ‘फिजिकल’ हो चुका है. लेकिन मोनिका ने कभी स्वीकार नहीं किया इस बात को. वह कहती थी कि जो ‘फिजिकल’ होता है वह प्यार नहीं होता. कम से कम सच्चा प्यार तो नहीं ही होता. प्यार तो हर दुनियावी चीज से परे होता है. आरव उस की बातों पर ठहाका लगा कर हंस देता था और कहता था कि कम औन यार, किस जमाने की बातें कर रही हो तुम? अब शरतचंद के उपन्यास के देवदास टाइप का प्यार कहां होता है? आरव के तर्कों को वह मजाक समझती थी, सोचती थी कि वह उसे चिढ़ा रहा है, छेड़ रहा है. लेकिन वह तो अपने दिल की बात बता रहा होता था. अपनी सोच को उस के सामने रख रहा होता था और वह समझी ही नहीं. उस की सोच, उस के सिद्धांत इस रूप में उस के सामने आएंगे इस की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी उस ने. लेकिन वास्तविकता तो यही है कि सचाई उस के सामने थी और अब हर हाल में उसे इस सचाई का सामना करना था.

मोनिका का यों गुमसुम रहना और सारे वक्त घर में ही पड़े रहना उस के डैडी शशिकांत से छिपा तो नहीं था. आज उन्होंने ठान लिया था कि मोनिका से सचाई जान ही लेनी है कि आखिर उसे हुआ क्या है और कुछ भी कर के उसे जीवन की रफ्तार में लाना ही है. वे, ‘‘मोनिका, माई डार्लिंग चाइल्ड,’’ आवाज देते उस के कमरे में घुसे तो हमेशा की तरह गुडमौर्निंग डैडी कहते हुए मोनिका उन के गले से नहीं झूली. सिर्फ एक बुझी सी आवाज  में बोली, ‘‘गुडमौर्निंग डैडी.’’

‘‘गुडमौर्निंग डियर, कैसा है मेरा बच्चा?’’ शशिकांत बोले.

‘‘ओ.के डैडी,’’ मोनिका ने जवाब दिया. शशिकांत और उन की दुलारी बिटिया के बीच हमेशा ऐसी ही बातें नहीं होती थीं. जोश, उत्साह से बापबेटी खूब मस्ती करते थे, लेकिन आज वैसा कुछ भी नहीं है. शशिकांत जानबूझ कर हाथ में पकड़े सिगार से लंबा कश लगाते रहे, लेकिन मोनिका की ओर से कोई रिऐक्शन नहीं आया. हमेशा की तरह ‘डैडी, नो स्मोकिंग प्लीज,’ चिल्ला कर नहीं बोली वह. शशिकांत ने खुद ही सिगार बुझा कर साइड टेबल पर रख दिया. मोनिका अब भी चुप थी.

‘‘आर यू ओ.के. बेटा?’’ शशिकांत ने फिर पूछा.

‘‘यस डैडी,’’ कहती मोनिका उन के कंधे से लग गई. मन में कुछ तय करते शशिकांत बोले, ‘‘ठीक है, फिर तुझे एक असाइनमैंट के लिए परसों टोरैंटो जाना है. तैयारी कर ले.’’

‘‘लेकिन डैडी…,’’ मोनिका हकलाई.

‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, जाना है तो जाना है. मैं यहां बिजी हूं. तू नहीं जाएगी तो कैसे चलेगा?’’ फिर दुलार से बोले, ‘‘जाएगा न मेरा बच्चा? मुझे नहीं मालूम तुझे क्या हुआ है. मैं पूछूंगा भी नहीं. जब ठीक समझना मुझे बता देना. लेकिन बेटा, वक्त से अच्छा डाक्टर कोई नहीं होता. न उस से बेहतर कोई मरहम होता है. सब ठीक हो जाएगा. बस तू हिम्मत नहीं छोड़ना. खुद से मत हारना. फिर तू दुनिया जीत लेगी. करेगी न तू ऐसा, मेरी बहादुर बेटी?’’

कुछ निश्चय सा कर मोनिका ने हां में सिर हिलाया. शशिकांत का लंबाचौड़ा रेडीमेड गारमैंट्स का बिजनैस है जो देशविदेश में फैला हुआ है. उस के लिए आएदिन ही उन्हें या मोनिका को विदेश जाना पड़ता है. मोनिका की उम्र अभी काफी कम है फिर भी अपने डैडी के काम को बखूबी संभालती है वह. इसलिए मोनिका के हां कहते ही शशिकांत निश्चिंत हो गए. वे जानते हैं कि उन की बेटी कितना भी बिखरी हो, लेकिन उस में खुद को संभालने की क्षमता है. वह खुद को और अपने डैड के बिजनैस को बखूबी संभाल लेगी. निश्चित दिन मोनिका टोरैंटो रवाना हो गई. मन में दृढ़ निश्चय सा कर लिया उस ने कि आरव जैसे किसी के लिए भी वह अपना जीवन चौपट नहीं करेगी. अपने प्यारे डैड को निराश नहीं करेगी. सारा दिन खूब व्यस्त रही वह. आरव क्या, आरव की परछाईं भी याद नहीं आई. लेकिन शाम के गहरातेगहराते जब उस की व्यस्तता खत्म हो गई, तो आरव याद आने लगा. आदत सी पड़ी हुई है कि खाली होते ही आरव से बातें करती है वह. दिन भर का हालचाल बताना तो एक बहाना होता है. असली मकसद तो होता है आरव को अपने पास महसूस करना लेकिन आज? आज आरव की याद आते ही उस से अंतिम मुलाकात ही याद आई. थोड़ी देर बाद मोनिका जैसे अपने आपे में नहीं थी. वह कहां है, क्या कर रही है, उसे कुछ भी होश नहीं था. सिर्फ और सिर्फ आरव और अलीशा की तसवीर

उस की आंखों के सामने घूम रही थी. उसे अपनी हालत का तनिक भी भान नहीं था कि वह होटल के बार में बैठी क्या कर रही है और यह स्मार्ट सा कनाडाई लड़का उसी के बगल में बैठा उसे क्यों घूर रहा है? फिर अचानक ही उस ने मोनिका का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘मे आई हैल्प यू? ऐनी प्रौब्लम?’’ मोनिका जैसे होश में आई. अरे, उस की आंखों से तो आंसू झर रहे हैं. शायद इसीलिए उस लड़के ने मदद की पेशकश कर दी होगी. फिर उस ने अपना गिलास मोनिका की ओर बढ़ा दिया जिसे बिना कुछ सोचेसमझे मोनिका पी गई. बदला…बदला लेना है उसे आरव से. उस ने जो किया उस से सौ गुना बेवफाई कर के दिखा देगी वह. कनाडाई लड़का एक के बाद एक भरे गिलास उस की ओर बढ़ाता रहा और वह गटागट पीती रही और फिर उसे कोई होश नहीं रहा. थोड़ी देर बाद वह संभली तो अपने रूम में लौटी. फिर दिन गुजरते गए और  मोनिका जैसे विक्षिप्त सी होती गई. अपने डैडी के काम को वह जनून की तरह करती रही. आएदिन विदेश जाना फिर लौटना. इसी भागदौड़ भरी जिंदगी में 6-7 महीने पहले यहीं इंडिया में वह अदीप से मिली और न जाने क्यों धीरेधीरे अदीप बहुत अपना सा लगने लगा. आरव के बाद वह किसी और से नहीं जुड़ना चाहती थी, लेकिन अदीप उस के दिल से जुड़ता ही जा रहा था. किसी के साथ न जुड़ने की अपनी जिद के ही कारण वह हर बार विदेश से लौट कर सीधेसपाट शब्दों में अपनी वहां बिताई दिनचर्या के बारे में अदीप को बताती रहती थी. कभी न्यूयार्क कभी टोरैंटो, कभी पेरिस तो कभी न्यूजर्सी. नई जगह, नया पुरुष या वही जगह लेकिन नया पुरुष. ‘मैं किसी को रिपीट नहीं करती’ कहती मोनिका किस को बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रही थी, खुद को ही न? और ऐसे में अदीप के चेहरे पर आई दुख और पीड़ा की भावना को क्या सचमुच ही नहीं समझ पाती थी वह या समझना नहीं चाहती थी? लेकिन यह भी सच था कि दिन पर दिन अदीप के साथ उस का जुड़ाव बढ़ता ही जा रहा था.

उस की इस तरह की बातों पर अदीप कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करता था, लेकिन एक दिन उस ने मोनिका से पूछा, ‘‘आरव से बदला लेने की बात करतेकरते कहीं तुम खुद भी आरव तो नहीं बन गईं मोनिका?’’

‘‘नहीं…’’ कह कर, चीख उठी मोनिका, ‘‘आरव का नाम भी न लेना मेरे सामने.’’

‘‘नाम न भी लूं, लेकिन तुम खुद से पूछो क्या तुम वही नहीं बनती जा रहीं, बल्कि शायद बन चुकी हो?’’ अदीप फिर बोला.

‘‘नहीं, मैं आरव से बदला लेना चाहती हूं. उसे बताना चाहती हूं कि फिजिकल रिलेशन सिर्फ वही नहीं बना सकता मैं भी बना सकती हूं और उस से कहीं ज्यादा. मैं उसे दिखा दूंगी.’’ मुट्ठियां भींचती वह बोली. लेकिन न जाने क्यों उस की आंखें भीग गईं. अदीप की गोद में सिर रख कर वह यह कहते रो दी, ‘‘मैं सच्चा प्यार पाना चाहती थी. ऐसा प्यार जो देह से परे होता है और जिसे मन से महसूस किया जाता है. पर मुझे मिला क्या? मेरे साथ तो कुछ हुआ वह तुम काफी हद तक जानते हो. अगर ऐसा न होता तो मैं उस से कभी बेवफाई न करती.’’ मोनिका की हिचकियां बंध गई थीं. अदीप कुछ नहीं बोला सिर्फ उस के बालों में उंगलियां फिराता उसे सांत्वना देता रहा. कुछ देर रो लेने के बाद मोनिका सामान्य हो गई. सीधी बैठ कर वह अदीप से बोली, ‘‘मुझे कल न्यूयार्क जाना है. 3 दिन वहां रुकंगी. फिर वहां से पेरिस चली जाऊंगी और 4 हफ्ते बाद लौटूंगी.’’ अदीप कुछ नहीं बोला. दोनों के बीच एक सन्नाटा सा पसरा रहा. कुछ देर बाद मोनिका उठी और बोली, ‘‘मैं चलूं.? मुझे तैयारी भी करनी है.’’

‘‘मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ हर बार की तरह इस बार भी अदीप का छोटा सा जवाब था.

एकाएक तड़प उठी मोनिका, ‘‘क्यों मेरा इंतजार करते हो तुम अदीप? और सब कुछ जानने के बाद भी. हर बार विदेश से लौट कर मैं सब कुछ सचसच बता देती हूं. फिर भी तुम क्यों मेरा इंतजार करते हो?’’

अदीप सीधे उस की आंखों में झांकता हुआ बोला, ‘‘क्या तुम सचमुच नहीं जानतीं मोनिका कि मैं तुम्हारा इंतजार क्यों करता हूं? मेरे इस प्रेम को जब तक तुम नहीं पहचान लेतीं, जब तक स्वीकार नहीं कर लेतीं, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

मोनिका की हिचकियां सी बंध गईं. अदीप के कंधे से लगी वह सुबक रही थी और अदीप उस की पीठ थपक रहा था. देह परे, मोनिका और अदीप का निश्छल प्रेम दोनों के मन को भिगो रहा था.

शिणगारी: आखिर क्यों आज भी इस जगह से दूर रहते हैं बंजारे?

बंजारों के एक मुखिया की बेटी थी शिणगारी. मुखिया के कोई बेटा नहीं था. शिणगारी ही उस का एकमात्र सहारा थी. बेहद खूबसूरत शिणगारी नाचने में माहिर थी.

शिणगारी का बाप गांवगांव घूम कर अपने करतब दिखाता था और इनाम हासिल कर अपना व अपनी टोली का पेट पालता था.

शिणगारी में जन्म से ही अनोखे गुण थे. 17 साल की होतेहोते उस का नाच देख कर लोग दांतों तले उंगली दबाने लगे थे.

ऐसे ही एक दिन बंजारों की यह टोली उदयपुर पहुंची. तब उदयपुर नगर मेवाड़ राज्य की राजधानी था. महाराज स्वरूप सिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे थे. उन के दरबार में वीर, विद्वान, कलाकार, कवि सभी मौजूद थे. एक दिन महाराज का दरबार लगा हुआ था. वीर, राव, उमराव सभी बैठे थे. महफिल जमी थी. शिणगारी ने जा कर महाराज को प्रणाम किया.

अचानक एक खूबसूरत लड़की को सामने देख मेवाड़ नरेश पूछ बैठे, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘शिणगारी… महाराज. बंजारों के मुखिया की बेटी हूं…’’ शिणगारी अदब से बोली, ‘‘मुजरा करने आई हूं.’’

‘‘ऐसी क्या बात है तुम्हारे नाच में, जो मैं देखूं?’’ मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘मेरे दरबार में तो एक से बढ़ कर एक नाचने वालियां हैं.’’

‘‘पर मेरा नाच तो सब से अलग होता है महाराज. जब आप देखेंगे, तभी जान पाएंगे,’’ शिणगारी बोली.

‘‘अच्छा, अगर ऐसी बात है, तो मैं तुम्हारा नाच जरूर देखूंगा. अगर मुझे तुम्हारा नाच पसंद आ गया, तो मैं तुम्हें राज्य का सब से बढि़या गांव इनाम में दूंगा. अब बताओ कि कब दिखाओगी अपना नाच?’’ मेवाड़ नरेश ने पूछा. ‘‘मैं सिर्फ पूर्णमासी की रात को मुजरा करती हूं. मेरा नाच खुले आसमान के नीचे चांद की रोशनी में होता है…’’ शिणगारी बोली, ‘‘आप अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार वाले टीले तक एक मजबूत रस्सी बंधवा दीजिए. मैं उसी रस्सी पर तालाब के पानी के ऊपर अपना नाच दिखाऊंगी.’’

शिणगारी के कहे मुताबिक मेवाड़ नरेश ने अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार बनेरावला दुर्ग के खंडहर के एक बुर्ज तक एक रस्सी बंधवा दी.

पूर्णमासी की रात को सारा उदयपुर शिणगारी का नाच देखने के लिए पिछोला सरोवर के तट पर इकट्ठा हुआ. महाराजा व रानियां भी आ कर बैठ गए.

चांद आसमान में चमक रहा था. तभी शिणगारी खूब सजधज कर पायलें छमकाती हुई आई. उस ने महाराज व रानियों को झुक कर प्रणाम किया और दर्शकों से हाथ जोड़ कर आशीर्वाद मांगा. फिर छमछमाती हुई वह रस्सी पर चढ़ गई. नीचे ढोलताशे वगैरह बजने लगे.

शिणगारी लयताल पर उस रस्सी पर नाचने लगी. एक रस्सी पर ऐसा नाच आज तक उदयपुर के लोगों ने नहीं देखा था. हजारों की भीड़ दम साधे यह नाच देख रही थी. खुद मेवाड़ नरेश दांतों तले उंगली दबाए बैठे थे. रानियां अपलक शिणगारी को निहार रही थीं.

नाचतेनाचते शिणगारी पिछोला सरोवर के उस पार रावला दुर्ग के बुर्ज पर पहुंची, तो जनता वाहवाह कर उठी. खुद महाराज बोल पड़े, ‘‘बेजोड़…’’

कुछ पल ठहर कर शिणगारी रस्सी पर फिर वापस मुड़ी. बलखातीलहराती रस्सी पर वह ऐसे नाच रही थी, जैसे जमीन पर हो. इस तरह वह आधी रस्सी तक वापस चली आई.

अभी वह पिछोला सरोवर के बीच में कुछ ठहर कर अपनी कला दिखा ही रही थी कि किसी दुष्ट के दिल पर सांप लोट गया. उस ने सोचा, ‘एक बंजारिन मेवाड़ के सब से बड़े गांव को अपने नाच से जीत ले जाएगी. वीर, उमराव, सेठ इस के सामने हाथ जोड़ेंगे. क्षत्रियों को झुकना पड़ेगा और ब्राह्मणों को इस की दी गई भिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी…’ और तभी रावला दुर्ग के बुर्ज पर बंधी रस्सी कट गई.

शिणगारी की एक तेज चीख निकली और छपाक की आवाज के साथ वह पिछोला सरोवर के गहरे पानी में समा गई.

सरोवर के पानी में उठी तरंगें तटों से टकराने लगीं. महाराज उठ खड़े हुए. रानियां आंसू पोंछते हुए महलों को लौट गईं. भीड़ में हाहाकार मच गया. लोग पिछोला सरोवर के तट पर जा खड़े हुए. नावें मंगवाई गईं. तैराक बुलाए गए. तालाब में जाल डलवाया गया, पर शिणगारी को जिंदा बचा पाना तो दूर उस की लाश तक नहीं खोजी जा सकी.

अगले दिन दरबार लगा. शिणगारी का पिता दरबार में एक तरफ बैठा आंसू बहा रहा था.

मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘बंजारे, हम तुम्हारे दुख से दुखी हैं, पर होनी को कौन टाल सकता है. मैं तुम्हें इजाजत देता हूं कि तुम्हें मेरे राज्य का जो भी गांव अच्छा लगे, ले लो.’’

‘‘महाराज, हम ठहरे बंजारे. नाच और करतब दिखा कर अपना पेट पालते हैं. हमें गांव ले कर क्या करना है. गांव तो अमीर उमरावों को मुबारक हो…’’ शिणगारी का बाप रोतेरोते कह रहा था, ‘‘शिणगारी मेरी एकलौती औलाद थी. उस की मां के मरने के बाद मैं ने बड़ी मुसीबतें उठा कर उसे पाला था. वही मेरे बुढ़ापे का सहारा थी. पर मेरी बेटी को छलकपट से तो नहीं मरवाना चाहिए था अन्नदाता.’’

मेवाड़ नरेश कुछ देर सिर झुकाए आरोप सुनते रहे, फिर तड़प कर बोले, ‘‘तेरा आरोप अब बरदाश्त नहीं हो रहा है. अगर तुझे यकीन है कि रस्सी किसी ने काट दी है, तो तू उस का नाम बता. मैं उसे फांसी पर चढ़वा कर उस की सारी जागीर तुझे दे दूंगा.’’

‘‘ऐसी जागीर हमें नहीं चाहिए महाराज. हम तो स्वांग रच कर पेट पालने वाले कलाकार हैं,’’ शिणगारी के पिता ने कहा. ‘‘तो तुम जो चाहो मांग लो,’’ मेवाड़ नरेश गरजे.

‘‘नहीं महाराज…’’ आंसुओं से नहाया बंजारों का मुखिया बोला, ‘‘जिस राज्य में कपटी व हत्यारे लोग रहते हैं, वहां का इनाम, जागीर, गांव लेना तो दूर की बात है, वहां का तो मैं पानी भी नहीं पीऊंगा. मैं क्या, आज से उदयपुर की धरती पर बंजारों का कोई भी बच्चा कदम नहीं रखेगा महाराज.’’

यह सुन कर सभा में सन्नाटा छा गया. वह बंजारा धीरेधीरे चल कर दरबार से बाहर निकल गया.

इस घटना को बीते सदियां गुजर गईं, पर अभी भी बंजारे उदयपुर की जमीन पर कदम नहीं रखते हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी बंजारे अपने बच्चों को शिणगारी की कहानी सुना कर उदयपुर की जमीन से दूर रहने की हिदायत देते हैं.

लेखक- शिवचरण चौहान

रिश्ता: क्या सही था माया का फैसला

रात के ढाई बजे हैं. मैं जानती हूं आज नींद नहीं आएगी. बैड से उठ कर चेयर पर बैठ गई और बैड पर नजर डाली. राकेश आराम से सोए हैं. कभीकभी सोचती हूं यह व्यक्ति कैसे जीवन भर इतना निश्चिंत रहा? सब कुछ सुचारु रूप से चलते जाना ही जीवन नहीं है. खिड़की से बाहर दूर चमकती स्ट्रीट लाइट पर उड़ते कुछ कीड़े, शांत पड़ी सड़क और हलकी सी धुंध नजर आती है जो फरवरी माह के इस समय कम ही देखने को मिलती है. अचानक जिस्म में हलचल होने लगी. ड्रैसिंग रूम में आईने के सामने गाउन उतार कर खड़ा होना अब भी अच्छा लगता है. अपने शरीर को किसी भी युवती की ईर्ष्या के लायक महसूस करते ही अंतर्मन में छिपे गर्व का एहसास चेहरे छा गया. कसी हुई त्वचा, सुडौल उन्नत वक्ष, गहरी कटावदार कमर, सपाट उभार लिए कसा हुआ पेट, चिकनी चमकदार मांसल जांघें, सुडौल नितंब, दमकता गुलाबी रंग और चेहरे पर गहराई में डुबोने वाली हलकी भूरी आंखें, यही तो खूबियां हैं मेरी. अचानक अर्जुन के कहे शब्द याद आने से चेहरे पर मुसकान कौंधी फिर लाचारी का एहसास होने लगा. सच मैं उस के साथ कितना रह सकती  हूं.

अर्जुन ने कहा था, ‘‘रिश्ते आप के जीवन में पेड़पौधों से आते हैं. जिन में से कुछ पहले से होते हैं, कुछ अंत तक आप के साथ चलते हैं, तो कुछ मौसमी फूलों की तरह बहुत खूबसूरत तो होते हैं, लेकिन सिर्फ एक मौसम के लिए.’’

‘‘और तुम कौन सा पेड़ हो मेरे जीवन में,’’ मैं ने मुसकरा कर उसे छेड़ा था.

‘‘मुझे गन्ना समझिए. एक बार लगा है तो 3 साल काम आएगा.’’

‘‘फिर जोर से हंसे थे हम. अर्जुन बड़ा हाजिरजवाब था. उस का ऐसा होना उस की बातों में अकसर झलक जाता था. 3 साल से उस का मतलब हमारे 3 साल बाद वापस लुधियाना जाने से था.

अर्जुन कैसे धीरेधीरे दिमाग पर छाता चला गया पता ही न चला. मिला भी अचानक ही था, पाखी की बर्थडे पार्टी में. वहां की भीड़ और म्यूजिक का शोर थका देने वाला था. मैं साइड में लगे सोफे पर बैठ गई थी. कुछ संयत होने पर बगल में नजर गई तो देखा पार्टी से बिलकुल अलग लगभग 24-25 वर्ष का आकर्षक युवक आंखें बंद किए और पीछे सिर टिकाए आराम से सो रहा था. तभी दीपिका आ कर बोली, ‘‘थक गईं दीदी?’’ फिर उस की नजर सोए उस युवक पर गई, तो वह बोली, ‘‘तुम यहां सोने आए हो…’’ फिर उस ने उस का चेहरा अपने एक हाथ में पकड़ जोर से हिला दिया.

‘‘ओ भाभी, मैं तो बस आंखें बंद किए बैठा था,’’ कह कर वह मुसकराया फिर हंस पड़ा.

‘‘मीट माया दीदी, अभी इन के हसबैंड ट्रांसफर हो कर यहां आए हैं और दीदी ये है अर्जुन रोहित का फ्रैंड,’’ दीपिका ने परिचय कराया था.

‘‘लेकिन रोहित के हमउम्र तो ये लगते नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘रोहित से 8 साल छोटा है, लेकिन उस का बेहतरीन फ्रैंड और सब का फैं्रड है,’’ फिर बोली, ‘‘अर्जुन दीदी का खयाल रखना.’’

‘‘अरे मुझे यहां से कोई उठा कर ले जाने वाला है, पर क्या?’’ मैं ने दीपिका से कहा.

मैं इसे आप को कंपनी देने के लिए कह रही हूं,’’ कह कर दीपिका मुसकराई फिर बाकी गैस्ट्स को इंटरटैन करने के लिए चली गई. मैं ने अर्जुन की ओर देखा, वह दोबारा सो गया था.

रकेश का ट्रांसफर लुधियाना से हम यहां होने पर मेरठ आए थे. दीपिका के इसी शहर में होने से यहां आनाजाना तो बना ही रहा था, लेकिन व्यवस्थित होने के बाद अकेलापन सालने लगा था. पल्लवी कितनी जल्दी बड़ी हो गई थी. वह इसी साल रोहतक मैडिकल कालेज में ऐडमिशन होने से वहीं चली गई थी. गाउन पहन मैं वापस कमरे में आ कर चेयर पर आ बैठ गई. बैड पर सिमटे हुए राकेश को देख कर लगता है कितना सरल है जीवन. यदि राकेश की जगह अर्जुन बैड पर होता तो लगता जीवन कितना स्वच्छंद और गतिशील है  अर्जुन दूसरी बार भी दीपिका के घर पर ही मिला था. वह डिनर के वक्त एक बहुत ही क्यूट छोटा व्हाइट डौगी गोद में लिए अचानक चला आया था. आ कर उस ने डौगी पाखी की गोद में रख दिया. इतना प्यारा डौगी देख पाखी और राघव तो बहुत खुश हो गए थे.

‘‘इसे कहां से उठा लाए तुम?’’ दीपिका ने पूछा.

‘‘पाखी, राघव बहुत दिनों से कह रहे थे, अब मिला तो ले आया.’’

‘‘मुझे से भी तो पूछना चाहिए था,’’ दीपिका ने प्रतिवाद किया

‘‘मुझे ऐसा नहीं लगा,’’ अर्जुन ने मुसकरा कर कहा.

‘‘रोहित यह लड़का…समझाओ इसे, डौगी वापस ले कर जाए.’’

‘‘तुम भी जानती हो डौगी यहीं रहने वाला है, इसे प्यार से ऐक्सैप्ट करो,’’ रोहित ने कहा.

फिर सभी डिनर टेबल पर आ गए.

‘‘अर्जुन, तुम राकेश से मिले नहीं शायद. यह शास्त्रीनगर ब्रांच में ब्रांच मैनेजर हो कर पिछले महीने ही मेरठ आए हैं और भाईसाब यह अर्जुन है,’’ रोहित ने परिचय कराया, अर्जुन ने खामोशी से हाथ जोड़ दिए.

‘‘आप क्या करते हैं?’’ राकेश ने उत्सुकता से पूछा था.

‘‘जी कुछ नहीं.’’

‘‘मतलब, पढ़ाई कर रहे हो?’’ आवाज से सम्मान गायब हो गया था.

‘‘इसी साल पीएच.डी. अवार्ड हुई है.’’

‘‘अच्छा अब लैक्चरर बनोगे,’’

‘‘जी नहीं…’’

तभी बीच में रोहित बोल पड़ा, ‘‘भाईसाहब यह अभी भी आप के मतलब का आदमी है. इस के गांव में आम के 3 बाग, खेत, शहर में दुकानों और होस्टल कुल मिला कर ढाईतीन लाख रुपए का मंथली ट्रांजैक्शन है, जिसे इस के पापा देखते हैं इन का सीए मैं ही हूं.’’

‘‘गुड, इन का अकाउंट हमारे यहां कराओ, राकेश चहका.’’

‘‘कह दूंगा इस के पापा से,’’ रोहित ने कहा.

‘‘हमारे घर आओ कभी,’’ राकेश ने अर्जुन से कहा.

‘‘जी.’’

‘‘यह डिफैंस कालोनी में अकेला रहता है,’’ दीपिका ने कहा फिर अर्जुन से बोली, ‘‘तुम दीदी को बाहर आनेजाने में हैल्प किया करो. रक्षापुरम में घर लिया है इन्होंने.’’

‘‘जी.’’

मुझे बाद में पता चला था शब्दों का कंजूस अर्जुन शब्दों का कितना सटीक प्रयोग जानता है. रात के 3 बजे हैं. सब कुछ शांत है. ऐसा लग रहा है जैसे कभी टूटेगा ही नहीं. बांहों के रोम उभर आए हैं. उन पर हथेलियां फिराना भला लग रहा है. अगर यही हथेलियां अर्जुन की होतीं तो उष्णता होती इन में, शायद पूरे शरीर को झुलसा देने वाली.

हमेशा ही तो ऐसा लगता रहा, जब कभी अर्जुन की उंगलियां जिस्म में धंसी होती थीं तब कितना मायावी हो जाता था. सच में सभी पुरुष एक से नहीं होते. तनमन, यौवन सभी तो, फर्क होता है और उस से भी अधिक फर्क इन तीनों के संयोजन और नियत्रंण में होता है. किशोरावस्था से ही देखती आई हूं पुरुषों की कामनाओं और अभिव्यक्तियों के वैविध्य को. समय से हारते अपने प्यार सचिन की लाचारी आज तक याद है. उस रोमानियत में बहते न उस ने न कभी मैं ने ही सोचा था कि अचानक खुमार ऐसे टूट आएगा. अभी ग्रैजुएशन का सैकंड ईयर चल ही रहा था कि मां को मेरी सुरक्षा मेरे विवाह में ही नजर आई. कितना बड़ा विश्वास टूटा था हम सब का. डैड की जाफना में हुई शहादत के बाद अपने भाइयों का ही तो सहारा था मां को. उन्हीं के भरोसे वे अपनी दोनों बेटियों के साथ देहरादून छोड़ सहारनपुर आ कर अपने मायके में रहने लगी थीं. सब कुछ ठीक चला. नानानानी और तीनों मामाओं के भरोसे हमारा जीवन पटरी पर लौटा था, लेकिन फिर भयावाह हो कर खंडित हो गया.

मां दीपिका को ले कर चाचाजी के घर गई थीं जबकि गरमी के उन दिनों अपने ऐग्जाम्स के कारण मैं नहीं जा सकी थी, इसलिए नानाजी के घर पर थी. नानानानी 3 मामाओं और 3 मामियों व बच्चों वाला उन का बड़ा सा घर मुझे भीड़भाड़ वाला तो लगता था, लेकिन अच्छा भी लगता था. लेकिन वहां एक दिन अचानक मेरे साथ एक घटना घटी. उस दिन मेरे रूम से अटैच बाथरूम की सिटकनी टूटी हुई मिली. इस पर ध्यान न दे कर मैं नहाने लगी, क्योंकि उस बाथरूम में मेरे सिवा कोई जाता नहीं था. वहां अचानक जब दरवाजा खोल कर मझले मामा को नंगधडं़ग आ कर अपने से लिपटा पापा तो भय से चीख उठी थी मैं. मेरे जोर से चीखने से मामा भाग गए तो उस दिन मेरी जान बच गई, लेकिन मां के वापस लौटने पर जब मैं ने उन्हें यह बात बताई तो मां को अपनी असहाय स्थिति का भय दिनरात सालने लगा. परिणाम यह हुआ कि हम ने दोबारा देहरादून शिफ्ट किया, लेकिन मां ने उसी वर्ष मेरी शादी में मेरी सुरक्षा ढूंढ़ ली जबकि दीपिका अभी बहुत छोटी थी.

राकेश अच्छे किंतु साधारण व्यक्ति हैं, काम और सान्निध्य ही इन के लिए अहम रहा. मानसिक स्तर पर न इन में उद्वेग था न ही मैं ने कभी कोई अभिलाषा दिखाई. पल्लवी के जन्म के बाद मेरा जीवन पूरी तरह से उस पर केंद्रित हो गया था. राकेश के लिए बहुत खुशी की बात यह थी कि उन की पत्नी ग्रेसफुली घर चलाती है बच्चे को देखती है और नानुकर किए बिना शरीर सौंप देती है. कभी सोचती हूं तो लगता है यही जीवन तो सब जी रहे हैं, इस में गलती कहां है. धीरेधीरे पहचान बढ़ने पर मैं ने ही अर्जुन को घर बुलाना शुरू किया था. तब मुझे ड्राइविंग नहीं आती थी और सभी मार्केट यहां से बहुत दूर हैं. बिना कार ऐसी कालोनी में रहना दूभर होता है. कुछ भी तो नहीं मिलता आसपास. ऐसे में अर्जुन बड़ा मददगार लगा. वह अकसर मुझे मार्केट ले जाता था. मुझे दिन भर अर्जुन के साथ रहना और घूमना सब कुछ जीवन के भले पलों की तरह कटता रहा. शादी के बाद पहली बार कोई लड़का इतना निकट हुआ था, जीवन में आए एकमात्र मित्र सा. फिर सहसा ही वह पुरुष में परिवर्तित हो गया. कार चलाना सिखाते हुए अचानक ही कहा था उस ने काश आप को चलाना कभी न आए हमेशा ऐसे ही सीखती रहें. आप को छूना बहुत अच्छा लगता है.’’

दहल गई थी मैं, ‘‘पागल हो गए हो?’’ खुद को संयत रखने का प्रयास करते हुए मैं ने प्रतिवाद किया.

इन 4 महीनों में उस का व्यवहार कुछ तो समझ आने लगा था. मैं ने जान लिया कि वह वही कह रहा था, जो उस के मन में था. मैं ने कार को वापस घर की ओर मोड़ दिया. असहजता बढ़ने लगी थी. अर्जुन वैसा ही शांत बैठा था. मैं बहुत कुछ कहना चाहती थी उस से होंठ खुल ही नहीं पाए.

‘‘आउट,’’ घर पहुंचने पर कार रोक कर मैं क्रोध से बोली.

वह खामोशी से उतरा और चला गया. मैं चाहती थी वह सौरी बोले कुछ सफाई दे, लेकिन वह चुपचाप चला गया. उस के इस तरह जाने ने मुझे झकझोर दिया. बाद में घंटों उस का नंबर डायल करती रही, लेकिन फोन नहीं उठाया. अगले दिन मैं उस के घर पहुंच गई, लेकिन गेट पर ताला लगा था. फोन अब भी नहीं उठ रहा था. दीपिका से उस के बारे में पता करने का प्रयास किया तो पता चला वह कल से फोन ही नहीं उठा रहा है. धीमे कदमों से घर पहुंची. गेट के सामने अर्जुन को खड़ा पाया. दिल हुआ कि एक चांटा खींच कर मारूं इस को, लेकिन वह हमेशा की तरह शांत शब्दों में बोला, ‘‘कल मोबाइल आप की कार की सीट पर पड़ा रह गया था.’’

‘‘ओह गौड…मैं ने सिर पकड़ लिया.’’

फिर 3 साल जैसे प्रकाश गति से निकल चले. उस दिन जब घर में अर्जुन ने मुझे पहली बार बांहों में लिया था तब एहसास हुआ था कि शरीर सैक्स के लिए भी बना है. कितना बेबाक स्पर्श था उस का. अपने चेहरे पर उस के होंठ अनुभव करती मैं नवयौवना सी कांप उठी थी. उस की उंगलियों की हरकतें, मैं ने कितने सुख से अपने को सौंप दिया उसे. उस के वस्त्र उतारते हाथ प्रिय लगे. पूर्ण निर्वस्त्र उस की बांहों में सिमट कर एहसास हुआ था कि अभी तक मैं कभी राकेश के सामने भी वस्त्रहीन नहीं हुई थी. अर्जुन एक सुखद अनुभव सा जीवन में आया था. उस के साथ बने रिश्ते ने जीवन को नया उद्देश्य, नई समझ दी थी. अब जीवन को सचझूठ, सहीगलत, पापपुण्य से अलग अनुभव करना आ गया था. 3 साल बीत गए ट्रांसफर ड्यू था सो राकेश ने वापस ट्रांसफर लुधियाना करवा लिया. सामान्य हालात में यह खुशी का क्षण होता, लेकिन अब जैसे बहती नदी अचानक रोक दी गई थी. जानती हूं सदा तो अर्जुन के साथ नहीं रह सकती. परिवार और समाज का बंधन जो है. सोचती रही कि अर्जुन कैसे रिएक्ट करेगा, इसलिए एक हफ्ते यह बात दबाए रही, लेकिन कल शाम तो उसे बताना ही पड़ा. मौन, सिर झुकाए वह चला गया बिना कुछ कहे, बिना कोई एहसास छोड़े.

सुबह 8 बजे जाना है, 4 बज चुके हैं. आंखों में नींद नहीं, राकेश पहले की तरह सुख से सोए हैं. अचानक मोबाइल में बीप की आवाज. नोटिफिकेशन है अर्जुन के ब्लौग पर नई पोस्ट जो एक कविता है:

मोड़ से पहले

जहां गुलदाउदी के फूल हैं,

लहू की कुछ बूंदें

चमक रही हैं.

माली ने शायद

उंगली काट ली हो.

जब निकलोगी सुबह

रुक कर देखना,

क्या धूप में रक्त

7 रंग देता है.

नहीं तो जीवन

इंद्रधनुषी कैसे हो गया.

जब जाने लगो

देखना माली के हाथों पर,

सूखे पपड़ाए जख्म मिलेंगे

रुकना मत.

जीवन साथ लिए

जीवन सी ही निकल जाना.

मोड़ से पहले

जहां गुलदाउदी के फूल हैं ,

कुछ खत्म हुआ है

तुम्हारे सपनों सा.

पर मैं सदा ही

जीवित रहूंगा तुम्हारे सपनों में.

प्रोफाइल पिक्चर: रंजीत ने क्या किया था

उसएक रौंग कौल ने जैसे मेरी बेरंग जिंदगी को रंगीन बना दिया. वीराने में जैसे बहार आ गई. मेरा दिल एक आजाद पंछी की तरह ऊंची उड़ान भरने लगा.

ये सब उस रौंग कौल वाले रंजीत की वजह से था. उस की आवाज में न जाने कैसी कशिश थी कि न चाहते हुए भी मैं उस की कौल का इंतजार करती रहती थी. जिस दिन उस की कौल नहीं आती, मैं तो जैसे बेजान सी हो जाती थी. उस की कौल मेरे लिए नई ऊर्जा का काम करती थी.

गुड मौर्निंग से ले कर गुड नाइट तक न जाने कितनी कौल्स आ जाती थीं उस की. उस की खनकती आवाज मेरे कानों में शहनाई सी बजाती थी. मीठीमीठी बातें रस सी घोल जाती थीं. रंजीत मुझे अपनी सारी बातें बताने में जरा भी नहीं हिचकिचाता था. और एक मैं थी, जो चाहते हुए भी सारी बात नहीं बता पाती थी. मेरे अंदर की हीनभावना कुछ बोलने ही नहीं देती थी.

रंजीत ने मुझे बताया था कि वह एक आर्मी अफसर था, पैर में दुश्मन की गोली लगने की वजह से उस का पैर काट दिया गया था. यह बात बताने में भी वह बिलकुल शरमाया नहीं था, बल्कि बड़े गर्व से बताया था.

2 दिन हो गए थे रंजीत की कौल आए हुए. ये 2 दिन 2 सालों के समान थे. वह मुझ से नाराज था. उस का नाराज होना शायद जायज भी था.

उस ने सिर्फ इतना ही तो कहा था मुझ से कि लता व्हाट्सऐप पर अपनी प्रोफाइल

पिक्चर लगा दो. मैं ने उसे डांटते हुए कहा था कि मेरी मरजी मैं लगाऊं या न लगाऊं. तुम कौन होते हो मुझे और्डर देने वाले? रंजीत चुप हो गया था.

रंजीत अपने प्रोफाइल पिक्चर रोजरोज बदलता था. सुंदरसुंदर फोटो लगाता था. आर्मी ड्रैस के फोटो में तो वह बहुत ही जंचता था.

मैं ने सोचा रंजीत को खुश करने के लिए प्रोफाइल फोटो लगा ही देती हूं. लगाने से पहले मैं ने अपनेआप को फिर एक बार आईने में निहारा.

आंखों के नीचे कालापन उस पर चढ़ा मोटे लैंस का चश्मा, चेहरे पर हलकी रेखाएं, दागधब्बे, तिल, पेट पर चरबी, कमर पर सिलवटें, मोटी छोटी सी नाक, सिर के बालों में से झांकती सफेदी. ‘नहींनहीं’ मैं अपना फोटो कैसे लगा सकती हूं, सोच मैं ने फोटो लगाने का इरादा बदल दिया.

रंजीत को कैसे समझाती मेरा फोटो लगाने लायक है ही नहीं. काश, रंजीत मेरी मजबूरी समझ पाता और नाराज नहीं होता. सारा दिन मोबाइल हाथ में पकड़ेपकड़े रंजीत की कौल का इंतजार करती रही.

अचानक मेरा मोबाइल बजा. मानो कई जलतरंगें एक साथ बज उठी हों. रंजीत का नंबर फ्लैश होने लगा. मेरी आंखें खुशी से चमक उठीं.

मैं ने बिना देर किए फोन उठा लिया. उधर से वही दिलकश आवाज, जिसे सुन कर कानों को सुकून सा मिलता था, ‘‘मेरी कौल का इंतजार कर रही थीं न.’’ रंजीत ने शरारती आवाज में पूछा.

‘‘नहीं तो,’’ मैं ने झूठ कहा.

‘‘कर तो रही थीं पर मानोगी नहीं… फोन हाथ में ही पकड़ा हुआ था… तुरंत उठा लिया… और क्या सुबूत चाहिए,’’

रंजीत ने हंसते हुए कहा.

‘‘कल कौल क्यों नहीं की?’’ मैं ने गुस्सा होते हुए पूछा.

‘‘अरे, मैं अपना फुल चैकअप कराने गया था. उस में टाइम तो लगता ही है.’’

‘‘क्या हुआ तुम्हें?’’ मैं ने घबराते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं हुआ… 40 के बाद कराते रहना चाहिए… तुम भी अपना चैकअप कराती रहा करो,’’ रंजीत ने नसीहत देते हुए कहा.

‘‘अच्छा यह बताओ तुम्हारी रिपोर्ट आ गई? सब ठीक तो है न रंजीत? कुछ छिपा तो नहीं रहे हो?’’

‘‘रिपोर्ट आ गई है. सब नौर्मल है. थोड़ा ब्लड प्रैशर बढ़ा हुआ था. उस की दवा खा रहा हूं. चिंता की कोई बात नहीं है,’’ रंजीत बोला.

मैं ने रात को ही व्हाट्सऐप पर गुलाब के फूलों वाली प्रोफाइल पिक्चर लगा दी. रंजीत को गुलाब के फूल बहुत पसंद थे. व्हाट्सऐप पर तो सिर्फ गुडमौर्निंग और गुड नाइट ही होती थी. बाकी बातें तो फोन पर ही होती थीं.

समय पंख लगा कर उड़ रहा था. 1 महीना कब बीत गया, पता ही नहीं चला. मैं अपनेआप को आईने में देखती तो 16 साल की लड़की की तरह शरमा जाती. गाल सिंदूरी हो जाते. चेहरा चमकने लगता.

लताजी के गाने सुनती तो साथ में गुनगुनाने लगती. कभीकभी तो

अपनेआप ही पैर भी थिरकने लगते थे. यह मुझे क्या होता जा रहा था… शायद रंजीत की दोस्ती का खुमार था.

रंजीत ने फोन पर मिलने की अनुमति मांग कर मुझे उलझन में डाल दिया था. उस समय तो मैं ने कह दिया था, सोच कर बताऊंगी,पर मैं तय ही नहीं कर पा रही थी कि उस का फोन आएगा तो मुझे क्या कहना है.

मोबाइल बजने लगा. कांपते हाथ से उठाया. मेरे हैलो बोलने से पहले ही रंजीत ने बोलना शुरू कर दिया, ‘‘लता हम को अब मिल ही लेना चाहिए… जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है. आज है, कल न रहे.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो? कुछ हुआ है क्या? मैं ने कुछ रुंधी आवाज में पूछा.’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं हुआ,’’ रंजीत हंसते हुए बोला, ‘‘इतने दिनों से बस फोन पर ही बातें कर रहे हैं. एक बार मिलना भी तो चाहिए… अब आमनेसामने ही बातें करेंगे.’’

रंजीत ने खुद ही जगह और टाइम तय कर दिया, ‘‘और हां तुम तो मुझे पहचान ही लोगी, एक पैर वाला वहां मेरे सिवा कोई दूसरा नहीं होगा.’’

‘‘पता तुम गुलाबी साड़ी पहन कर आना, पहचानने में आसानी होगी.’’

‘‘गुलाबी साड़ी?’’ मैं ने जोर दे कर कहा.

‘‘गुलाबी नहीं तो किसी और रंग की पहन लेना,’’ रंजीत ने कहा, ‘‘लता कल 4 बजे मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा और हां, अब मैं फोन नहीं करूंगा. आमनेसामने ही बातें करेंगे.’’

मैं कुछ बोल पाती उस से पहले ही उस ने फोन काट दिया. यह रंजीत को क्या हो गया है? मिलने के लिए इतनी जिद क्यों कर रहा है? मेरी बात तो उस ने सुनी ही नहीं, अपना ही राग अलापता रहा.

‘‘गुलाबी साड़ी,’’ मुझे मेरे अतीत में खींच ले गई…

मां ने बताया, मुझे देखने लड़के वाले आ रहे हैं. लड़के का नाम मनोज था, जो इंजीनियर था. मां ने गुलाबी साड़ी देते हुए कहा, ‘‘यह साड़ी पहन लेना रूप निखर कर आएगा.’’

अब मां को कौन समझाए, रूपरंग जैसा है वैसा ही रहेगा. मां उबटन लगाने के लिए भी दे गईं. मां चाह रही थीं किसी भी तरह मैं पसंद आ जाऊं और मेरे हाथ पीले हो जाएं.

शाम को मनोज और उस के मातापिता मुझे देखने के लिए आए. वही दिखावा, चाय की ट्रे ले कर मैं लड़के वालों के सामने उपस्थित हुई. मेरे साथ मेरी छोटी बहन उमा भी थी. उन्होंने 1-2 प्रश्न भी मुझ से पूछे.

मनोज अपने पिता के कान में कुछ फुसफुसाया. देखने मुझे आया था पर नजर उमा पर गड़ाए था. उस की मंशा मैं कुछकुछ समझ

गई थी.

मनोज के पिता मां से बोले, ‘‘हमारे लड़के को आप की छोटी बेटी पसंद है. आप चाहें तो हम अभी शकुन कर देते हैं.’’

मां उठ खड़ी हुई और फिर साफ इनकार करते हुए बोलीं, ‘‘पहले हम बड़ी बेटी का रिश्ता तय करेंगे उस के बाद छोटी बेटी का,’’ और हाथ जोड़ते हुए चले जाने को कहा.

मां अपनी जिद पर अड़ी रहीं. मैं ने उन्हें बहुत समझाया कि जिस की शादी पहले हो रही है होने दो. बड़ी मुश्किल से मां को समझाबुझा कर उमा की शादी मनोज से करवा दी.

मुझे तो जैसे शादी के नाम से ही नफरत सी हो गई थी. मैं ने शादी न करने का फैसला कर लिया. मैं बारबार अपनी नुमाइश नहीं लगाना चाहती थी. मां ने मुझे बहुत समझाया पर मैं अपनी जिद पर अड़ी रही. पढ़ाई पूरी कर के मैं ने एक स्कूल में नौकरी कर ली. मां मेरी शादी की हसरत लिए हुए इस दुनिया से चली गईं.

मैं जिस अतीत से पीछा छुड़ाना चाहती थी, आज वह फिर एक बार मेरे सामने पंख फैला खड़ा हो गया था.

मोबाइल बजते ही मैं अतीत से बाहर आ गई. फोन मेरी छोटी बहन उमा

का था, ‘‘दीदी कैसी हो? आप से बात किए बहुत दिन हो गए… अब तो आप के स्कूल में छुट्टियां चल रही होंगी. कुछ दिनों के लिए यहां आ जाओ… आप का मन भी बदल जाएगा… दीदी आप बोल क्यों नहीं रहीं?’’

‘‘तुम बोलने दोगी तब तो बोलूंगी,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

उमा अपने को मेरा दोषी मानती थी, इसलिए अकसर खुद ही फोन कर लेती थी. मां के जाने के बाद उस के फोन भी आने कम हो गए थे.

घड़ी में 3 बजने का संकेत दिया. मैं बेमन से उठी… रंजीत से मिलने के लिए तैयारी करने लगी.

औटो कर के रंजीत की तय करी जगह पहुंच गई. रंजीत को मेरी आंखें ढूंढ़ने लगीं. उसे ढूंढ़ने में ज्यादा देर नहीं लगी. सामने ही एक कुरसी पर रंजीत बैठा था. पास ही बैसाखी रखी हुई थी. हाथ में गुलाब का ताजा फूल था.

मैं एक पेड़ की ओट में खड़ी हो कर रंजीत को देखने लगी. इस उम्र में भी वह बहुत ही आकर्षक लग रहा था. गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, चौड़ा सीना, लंबा कद, काले सफेद खिचड़ी वाले बाल, जो उस की मासूमियत और बढ़ा रहे थे.

रंजीत को देख कर मेरे अंदर दबी हीनभावना फिर से जाग्रत हो गई. मन में अजीबअजीब से खयाल आने लगे. रंजीत मुझे देख कर क्या सोचेगा? इस औरत से मिलने के लिए बेचैन था, जिस का न रूप न रंग. मैं ने रंजीत की तरफ से खुद ही सोच लिया.

नहींनहीं, मैं रंजीत के सामने नहीं जा सकती… दूसरी बार नापसंदी का बोझ नहीं झेल पाऊंगी और फिर रंजीत से मिले बिना मैं घर लौट आई. मुझे मालूम था रंजीत बहुत गुस्सा होगा.

घर पहुंची ही थी कि मोबाइल बज उठा. पर्स में से कांपते हाथ से मोबाइल निकाला. दिल जोरजोर से धड़क रहा था. मेरे हैलो बोलने से पहले ही रंजीत गुस्से बोला, ‘‘तुम आई क्यों नहीं?’’

झूठ बोलते हुए मैं ने दबी आवाज में कहा, ‘‘पड़ोस में एक सहेली का ऐक्सिडैंट हो गया था. वहीं थी मैं.’’

‘‘बताना तो था मुझे या वो भी जरूरी नहीं समझा,’’ गुस्से से झल्लाते हुए रंजीत ने फोन काट दिया.

मैं समझ गई रंजीत बहुत ही नाराज है मुझ से. शायद आज मैं ने अपना सब से अच्छा दोस्त खो दिया. भरी आंखों से आंसू गालों तक लुढ़क गए.

सुबह उठ कर सब से पहले व्हाट्सऐप देखा. रंजीत का गुडमौर्निंग नहीं आया था. रोज बदलने वाली प्रोफाइल पिक्चर भी नहीं बदली थी. पूरे दिन में रंजीत ने 1 बार भी व्हाट्सऐप चैक नहीं किया. पूरा दिन निकल गया रंजीत के फोन का इंतजार करते हुए. अब तो रात भी आधी बीत चुकी थी.

मैं ने सोच लिया था सुबह उठ कर सब से पहले रंजीत को फोन कर के माफी मांगूंगी… उसे मना लूंगी. वह फोन नहीं कर रहा तो क्या हुआ? मैं तो उसे कर सकती हूं.

रात जैसेतैसे कटी. सुबह उठते ही व्हाट्सऐप खोल कर देखा. जल्दी में अपना चश्मा

लगाना भी भूल गई, धुंधला सा दिखाई दिया. लगता है रंजीत ने अपनी प्रोफाइल पिक्चर भी बदली है और एक मैसेज भी भेजा है. मेरी आंखें चमक उठी. जान में जान आ गई.

मैं ने जल्दी से अपना चश्मा साइड में रखे स्टूल से उठा कर लगाया और फोटो देखने लगी. यह क्या? रंजीत के फोटो पर फूलों का हार? दिल धक्क से रह गया. जल्दी से मैसेज पढ़ना शुरू किया… आज शाम 4 बजे उठावनी की रम्म है… रंजीत को हार्टअटैक…

इस से ज्यादा पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई. आंखें पथरा सी गईं. कलेजा मुंह को आने लगा, दिल जोरजोर से धड़कने लगा… जोर की हिचकी के साथ चीख निकल गई.

‘‘रंजीत मुझे छोड़ कर ऐसे नहीं जा सकते हो… प्लीज एक बार लौट आओ… मैं गुलाबी साड़ी पहन कर ही आऊंगी… हम आमनेसामने बातें करेंगे. मैं तुम से मिलने आऊंगी,’’ विलाप करती रही, फूटफूट कर रोती रही, न कोई देखने वाला न कोई सुनने वाला.

हाय री विडंबना… मेरा अतीत फिर सामने पंख फैलाए दस्तक दे रहा था.

फिर वही बेरंग जिंदगी, उजड़ा चमन, सूनापन, बेजान सा मोबाइल, धूल खाता रेडियो, सबकुछ पहले जैसा… इस सब की जिम्मेदार सिर्फ मैं ही तो थी…

लिवइन रिलेशनशिप: क्यों अकेली पड़ गई कनिका

आस्तीन का सांप: कैसे हुई स्वाति की मौत

उस दिन गुरुवार था. तारीख थी 2018 की 13 दिसंबर. कोटा के विशेष न्यायिक मजिस्ट्रैट (एनआई एक्ट) राजेंद्र बंशीलाल की अदालत में काफी भीड़ थी. वजह यह थी कि एक नृशंस हत्यारे को उस के अपराध की सजा सुनाई जानी थी. हत्यारे का नाम लालचंद मेहता था और जिन्हें उस ने मौत के घाट उतारा था, वह थीं बीएसएनएल की उपमंडल अधिकारी स्वाति गुप्ता. लालचंद मेहता उन का ड्राइवर रह चुका था. उस के अभद्र व्यवहार को देखते हुए स्वाति गुप्ता ने घटना से 2 दिन पहले ही उसे नौकरी से निकाला था.

3 साल पहले 21 अगस्त, 2015 की रात को लालचंद ने स्वाति की हत्या उन के घर के बाहर तब कर दी थी, जब वह औफिस से लौट कर घर पहुंची थीं. लालचंद ने स्वाति गुप्ता पर चाकू से 10-15 वार किए थे. इस केस में गवाहों के बयान, पुलिस द्वारा जुटाए गए सबूत और अन्य साक्ष्य अदालत के सामने पेश किए जा चुके थे. दोनों पक्षों के वकीलों की जिरह भी हो चुकी थी. सजा के मुद्दे पर बचाव पक्ष के वकील ने कहा था, ‘‘आरोपी का परिवार है, उसे सुधरने का अवसर देने के लिए कम सजा दी जाए.’’

जबकि लोक अभियोजक नित्येंद्र शर्मा तथा परिवादी के वकील मनु शर्मा और भुवनेश शर्मा ने दलील दी थी कि आरोपी लालचंद मेहता मृतका स्वाति का ड्राइवर-कम-केयरटेकर था. परिवादी पक्ष ने उस की हर तरह से मदद की थी, लेकिन उस ने मामूली सी बात पर जघन्य हत्या कर दी थी. इसलिए अदालत को उस के प्रति जरा भी दया नहीं दिखानी चाहिए.

विशेष न्यायिक मजिस्ट्रैट राजेंद्र बंशीलाल जब न्याय के आसन पर बैठ गए तो अदालत में मौजूद सभी लोगों की नजरें उन पर जम गईं. गिलास से एक घूंट पानी पीने के बाद न्यायाधीश ने एक नजर भरी अदालत पर डाली. फिर फाइल पर नजर डाल कर पूछा, ‘‘मुलजिम कोर्ट में मौजूद है?’’

‘‘यस सर,’’ एक पुलिस वाले ने जवाब दिया जो लालचंद को कस्टडी में लिए हुए था.

न्यायाधीश राजेंद्र बंशीलाल ने अपने 49 पेजों के फैसले की फाइल पलटते हुए कहना शुरू किया, ‘‘अदालत ने इस केस के सभी गवाहों को गंभीरतापूर्वक सुना, प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों को कानून की कसौटी पर परखा, जानसमझा. बचाव पक्ष और अभियोजन पक्ष की सभी दलीलों को सुना. तकनीकी साक्ष्यों का गहन अध्ययन किया. पूरे केस पर गंभीरतापूर्वक गौर करने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि लालचंद मेहता ने स्वाति की हत्या बहुत ही नृशंस तरीके से की. यहां तक कि जब उस का चाकू हड्डियों में अटक गया, तब भी उस ने चाकू को जोरों से खींच कर निकाला और फिर वार किए. निस्संदेह यह उस का गंभीर, जघन्य और हृदयविदारक कृत्य था.’’

इस केस का निर्णय जानने से पहले आइए जान लें कि 35 वर्षीय गजेटेड औफिसर स्वाति गुप्ता को क्यों जान गंवानी पड़ी.

बुधवार 20 अगस्त, 2015 को रिमझिम बरसात हो रही थी. रात गहरा चुकी थी और तकरीबन 9 बज चुके थे. बूंदाबादी तब भी जारी थी. घटाटोप आकाश को देख कर लगता था कि देरसवेर तूफानी बारिश होगी.

कोटा शहर के आखिरी छोर पर बसे उपनगर आरके पुरम के थानाप्रभारी जयप्रकाश बेनीवाल तूफानी रात के अंदेशे में अपने सहायकों से रात्रि गश्त को टालने के बारे में विचार कर रहे थे, तभी टेलीफोन की घंटी से उन का ध्यान बंट गया. उन्होंने रिसीवर उठाया तो दूसरी तरफ से भर्राई हुई

आवाज आई, ‘‘सर, मेरा नाम दीपेंद्र गुप्ता है. मेरी पत्नी स्वाति गुप्ता का कत्ल हो गया है. हत्यारा मेरा ड्राइवर-कम-केयरटेकर रह चुका लालचंद मेहरा है.’’

हत्या की खबर सुनते ही थानाप्रभारी के चेहरे का रंग बदल गया. उन्होंने पूछा, ‘‘आप अपना पता बताइए.’’

‘‘ई-25, सेक्टर कालोनी, आर.के. पुरम.’’

‘‘ठीक है, मैं फौरन पहुंच रहा हूं.’’ कहते हुए थानाप्रभारी ने फोन डिसकनेक्ट कर दिया. बेनीवाल पुलिस फोर्स के साथ उसी वक्त घटनास्थल की तरफ रवाना हो गए. उस समय रात के करीब साढ़े 9 बज रहे थे.

थानाप्रभारी बेनीवाल अपनी टीम के साथ 15 मिनट में दीपेंद्र गुप्ता के आवास पर पहुंच गए. उन के घर के बाहर भीड़ लगी हुई थी. बेनीवाल की जिप्सी आवास के मेन गेट पर पहुंची. जिप्सी से उतर कर जैसे ही वह आगे बढ़े तो एकाएक उन के पैर खुदबखुद ठिठक गए. गेट पर खून ही खून फैला था. उन्होंने बालकनी की तरफ नजर दौड़ाई तो व्हीलचेयर पर बैठे एक व्यक्ति को लोग संभालने की कोशिश कर रहे थे, जो बुरी तरह बिलख रहा था.

स्थिति का जायजा लेने के बाद थानाप्रभारी बेनीवाल ने फोन कर के एसपी सवाई सिंह गोदारा को वारदात की सूचना दे दी. इस से पहले कि बेनीवाल तहकीकात शुरू करते, एसपी तथा अन्य उच्चाधिकारी फोटोग्राफर व फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट के साथ वहां पहुंच गए..

एसपी सवाई सिंह गोदारा और उच्चाधिकारियों के साथ थानाप्रभारी बेनीवाल बालकनी में व्हीलचेयर पर बैठे बिलखते हुए व्यक्ति के पास गए. पता चला कि दीपेंद्र गुप्ता उन्हीं का नाम था. बेनीवाल के ढांढस बंधाने के बाद उन्होंने बताया, ‘‘सर, फोन मैं ने ही किया था.’’

दीपेंद्र गुप्ता ने उन्हें बताया कि उस की पत्नी स्वाति गुप्ता बीएसएनएल कंपनी में उपमंडल अधिकारी थीं. लगभग 9 बजे वह कार से घर लौटी थीं.

जब वह मेनगेट बंद करने गई तभी अचानक वहां छिपे बैठे उन के पूर्व ड्राइवर लालचंद मेहता चाकू ले कर स्वाति पर टूट पड़ा और तब तक चाकू से ताबड़तोड़ वार करता रहा जब तक स्वाति के प्राण नहीं निकल गए. चीखतीचिल्लाती स्वाति लहूलुहान हो कर जमीन पर गिर पड़ीं.

दीपेंद्र की रुलाई फिर फूट पड़ी. उन्होंने सुबकते हुए कहा, ‘‘अपाहिज होने के कारण मैं अपनी पत्नी को हत्यारे से नहीं बचा सका. बादलों की गड़गड़ाहट में हालांकि स्वाति की चीख पुकार और मेरा शोर भले ही दब गया था, लेकिन जिन्होंने सुना वे दौड़ कर पहुंचे, लेकिन तब तक लालचंद भाग चुका था.’’

एक पल रुकने के बाद दीपेंद्र गुप्ता बोले, ‘‘संभवत: स्वाति की सांसों की डोर टूटी नहीं थी, इसलिए पड़ोसी लहूलुहान स्वाति को तुरंत ले अस्पताल गए, लेकिन…’’ कहतेकहते दीपेंद्र का गला फिर रुंध गया.

‘‘स्वाति को बचाया नहीं जा सका. मुझ से बड़ा बदनसीब कौन होगा. जिस की पत्नी को उस के सामने वहशी हत्यारा चाकुओं से गोदता रहा और मैं कुछ नहीं कर पाया?’’

वहशी हत्यारे की करतूत और लाचार पति की बेबसी पर एक बार तो पुलिस अधिकारियों के दिल में भी हूक उठी.

एसपी सवाई सिंह गोदारा ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘हत्यारे के बारे में मालूम है. वह जल्द ही पुलिस की गिरफ्त में होगा.’’ उन्होंने बेनीवाल से कहा, ‘‘बेनीवाल, मैं चाहता हूं हत्यारा जल्द से जल्द तुम्हारी गिरफ्त में हो. अभी से लग जाओ उस की तलाश में.’’

इस बीच फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट और फोटोग्राफर अपना काम कर चुके थे.

‘‘…और हां,’’ एसपी ने बेनीवाल का ध्यान वहां लगे सीसीटीवी कैमरों की तरफ दिलाते हुए कहा, ‘‘इस मामले में लालचंद को पकड़ना तो पहली जरूरत है ही. लेकिन सीसीटीवी फुटेज भी खंगालो, फुटेज में पूरी वारदात नजर आ जाएगी.’’

पुलिस की तत्परता कामयाब रही और देर रात लगभग 2 बजे आरोपी लालचंद को रावतभाटा रोड स्थित मुरगीखाने के पास से गिरफ्तार कर लिया गया. पुलिस ने उस के कब्जे से हत्या में इस्तेमाल किया गया चाकू भी बरामद कर लिया.

इस बीच दीपेंद्र गुप्ता की रिपोर्ट पर भादंवि की धारा 402 और 460 के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया था.

गुप्ता परिवार ने खुद पाला था मौत देने वाले को  मौके पर की गई पूछताछ के बाद पुलिस ने स्वाति गुप्ता की लाश मोर्चरी भिजवा दी. पोस्टमार्टम के बाद स्वाति का शव अंत्येष्टि के लिए घर वालों को सौंप दिया गया.

पुलिस के लिए अहम सवाल यह था कि आखिर इतनी हिंसक मनोवृत्ति के व्यक्ति को दीपेंद्र गुप्ता ने ड्राइवर जैसे जिम्मेदार पद पर कैसे नौकरी पर रख लिया. लालचंद पिछले 20 सालों से दीपेंद्र गुप्ता के यहां नौकरी कर रहा था. आखिर उसे किस की सिफारिश पर नौकरी दी गई थी. पुलिस ने यह सवाल दीपेंद्र गुप्ता से पूछा

‘‘उस आदमी के बारे में तो अब मुझे कुछ याद नहीं आ रहा.’’ दीपेंद्र गुप्ता ने कहा, ‘‘उस का कोई रिश्तेदार था, जिस के कहने पर मैं ने लालचंद को अपने यहां नौकरी पर रखा था. लालचंद झालावाड़ जिले के मनोहरथाना कस्बे का रहने वाला था. शायद उस का सिफरिशी रिश्तेदार भी वहीं का था.’’

बेनीवाल ने पूछा, ‘‘जब वह पिछले 20 सालों से आप को यहां काम कर रहा था तो जाहिर है काफी भरोसेमंद रहा होगा. फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि आप ने उसे नौकरी से निकाल दिया.’’

‘‘उस में 2 खामियां थीं…’’ कहतेकहते दीपेंद्र गुप्ता एक पल के लिए सोच में डूब गए. जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहे हों.

वह फिर बोले, ‘‘दरअसल, उसे एक तो शराब पीने की लत थी और दूसरे वह परिवार की जरूरतों का रोना रो कर हर आठवें दसवें दिन पैसे मांगता. शुरू में मुझे उस की दारूबाजी की खबर नहीं थी. पारिवारिक मुश्किलों का हवाला दे कर वह इस तरह पैसे मांगता था कि मैं मना नहीं कर पाता था. लेकिन स्वाति को यह सब ठीक नहीं लगता था.

दीपेंद्र गुप्ता ने आगे कहा, ‘‘स्वाति ने मुझे कई बार रोका और कहा, ‘बिना किसी की जरूरत को ठीक से समझे बगैर इतनी दरियादिली आप के लिए नुकसानदायक हो सकती है.’ लेकिन मैं ने यह कह कर टाल दिया कि कोई मजबूरी में ही पैसे मांगता है.’’

बेनीवाल दीपेंद्र की बातों को सुनने के साथसाथ समझने की भी कोशिश कर रहे थे. दीपेंद्र ने आगे कहा, ‘‘लेकिन…लालचंद ने शायद मेरी पत्नी स्वाति की आपत्तियों को भांप लिया था. कई मौकों पर मैं ने उसे स्वाति से मुंहजोरी भी करते देखा. मैं ने उसे आड़ेहाथों लेने की कोशिश की. लेकिन उस की मिन्नतों और आइंदा ऐसा  कुछ नहीं करने की बातों पर मैं ने उसे बख्श दिया.’’

दीपेंद्र गुप्ता से लालचंद के बारे में काफी जानकारियां मिलीं. लालचंद पिछले 20 सालों से गुप्ता परिवार के यहां काम कर रहा था. अपंग गुप्ता के लिए उसे निकाल कर नए आदमी की तलाश करना पेचीदा काम था.

दरअसल, दीपेंद्र गुप्ता भी एक सफल बिजनैसमैन थे, लेकिन जीवन में घटी एक घटना ने सब कुछ बदल कर रख दिया. दीपेंद्र गुप्ता को उन के दोस्त विनय गुप्ता के नाम से जानते थे. कभी शैक्षिक व्यवसाय से जुड़े दीपेंद्र का लौर्ड बुद्धा कालेज नाम से अपना शैक्षणिक संस्थान था. लेकिन सन 2011 में चंडीगढ़ से कोटा लौटते समय हुए एक रोड ऐक्सीडेंट में उन्हें गंभीर चोटें आईं. ऊपर से इलाज के दौरान उन्हें पैरालिसिस हो गया. तब उन्हें अपना संस्थान बेचना पड़ा.

उन की पत्नी स्वाति गुप्ता उपमंडल अधिकारी थीं, जिन का अच्छाखासा वेतन घर में आता था. इस के अलावा गुप्ता ने अपने आवास के एक बड़े हिस्से को किराए पर भी दे दिया, जिस से मोटी रकम मिलती थी. लालचंद मेहता को दीपेंद्र गुप्ता ने सन 2003 में ड्राइवर की नौकरी पर रखा था. उन की शादी स्वाति से सन 2004 में हुई थी, यानी लालचंद मेहता उन की शादी के एक साल पहले से ही उन के यहां नौकरी कर रहा था.

दीपेंद्र गुप्ता के व्हीलचेयर पर आने के बाद लालचंद सिर्फ ड्राइवर ही नहीं रहा, बल्कि गुप्ता का केयरटेकर भी बन गया. एक तरह से अब दीपेंद्र गुप्ता लालचंद पर निर्भर हो गए थे. लालचंद ने उन की इस लाचारी का फायदा उठाया. वह शराब पी कर घर आने लगा था. गुप्ता के सामने ही स्वाति से बदतमीजी से पेश आने लगा था. अब वह पैसे भी दबाव के साथ मांगने लगा था. उस पर गुप्ता की इतनी रकम उधार हो गई थी कि अपनी 2 सालों की तनख्वाह से भी नहीं चुका सकता था.

उस की दाबधौंस 20 अगस्त, 2015 को दीपेंद्र गुप्ता के सामने आई. उस समय वह दारू के नशे में धुत था. उस की आंखें चढ़ी हुई थीं और स्वाति से अनापशनाप बोल कर पैसे ऐंठने पर उतारू था.

आजिज आ कर स्वाति ने डांटा था लालचंद को पानी सिर से गुजर चुका था. इस से पहले कि गुप्ता कुछ कह पाते, स्वाति ने उसे दो टूक लफ्जों में कह दिया, ‘‘तुम्हें इतना पैसा दिया जा चुका है कि तुम सात जनम तक नहीं उतार सकते. तुम परिवार की जरूरतों के बहाने पैसे मांगते हो और दारू में उड़ा देते हो. फौरन यहां से निकल जाओ. आइंदा इधर का रुख भी मत करना.’’

एसपी सवाई सिंह गोदारा ने इस मामले की सूक्ष्मता से जांच कराई. इस केस में चश्मदीद गवाह कोई नहीं था, लेकिन तकनीकी साक्ष्य इतने मजबूत थे कि उन्हीं की बदौलत केस मृत्युदंड की सजा तक पहुंच पाया.

घर में लगे सीसीटीवी कैमरों में पूरी वारदात की फुटेज मिल गई थी, जिस में लालचंद स्वाति गुप्ता पर चाकू से वार करता हुआ साफ दिखाई दे रहा था.

जांच के दौरान मौके से मिले खून के धब्बे, चाकू में लगा खून और पोस्टमार्टम के दौरान मृतका के शरीर से लिए गए खून के सैंपल का मिलान कराया गया. मौके से मिले फुटप्रिंट का भी आरोपी के फुटप्रिंट से मिलान कराया गया. इन सारे सबूतों को अदालत ने सही माना.

न्यायाधीश राजेंद्र बंशीलाल ने सारे सबूतों, गवाहों और दोनों पक्षों के वकीलों की जिरह सुनने के बाद 49 पेज का फैसला तैयार किया था. अभियुक्त लालचंद को दोषी पहले ही करार दे दिया गया था. 13 दिसंबर, 2018 को उसे सजा सुनाई जानी थी.

न्यायाधीश ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘इस में कोई दो राय नहीं कि लालचंद मेहता ने जिस तरह स्वाति की जघन्य हत्या की, वह रेयरेस्ट औफ रेयर की श्रेणी में आता है. लेकिन इस के साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि उस ने केवल स्वाति की हत्या ही नहीं की बल्कि अपाहिज दीपेंद्र गुप्ता का सहारा भी छीन लिया. साथ ही उन की मासूम बेटी के सिर से मां का साया भी उठ गया.’’

न्यायाधीश राजेंद्र बंशीलाल ने आगे कहा, ‘‘सारी बातों के मद्देनजर दोषी लालचंद को मृत्युदंड और 30 हजार रुपए जुरमाने की सजा देती है.’’

फैसला सुनाने के बाद न्यायाधीश अपने चैंबर में चले गए.

जज द्वारा सजा सुनाए जाने के बाद पुलिस ने मुलजिम लालचंद मेहता को हिरासत में ले लिया. अदालत द्वारा मुलजिम को मौत की सजा सुनाए जाने पर लोगों ने संतोष व्यक्त किया. ?

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