कपिल शर्मा ने पहली बार शेयर की बेटे की फोटो, अनायरा संग आए नजर

टीवी के पौपुलर कौमीडियन कपिल शर्मा (Kapil Sharma) आए दिन सुर्खियों में रहते हैं. प्रोफेशनल तो कभी पर्सनल लाइफ के चलते कपिल शर्मा के फैंस उनसे सवाल पूछते हैं. दरअसल, सोशलमीडिया पर फैंस कपिल शर्मा से बेटी अनायरा की वीडियो या फोटोज शेयर करने के लिए कहते हैं वहीं बेटा होने के बाद अब फैंस कपिल शर्मा से बेटे की फोटो शेयर करने की बात कहते हुए नजर आए. इसी बीच कपिल ने फादर्स डे (Father’s Day) के मौके पर पर अपने दोनों बच्चों की फोटोज शेयर की है, जिसे फैंस काफी पसंद कर रहे हैं. आइए आपको दिखाते हैं कपिल शर्मा के बेटे की पहली फोटो…

बच्चों संग शेयर की फोटो

 

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फैंस के कहने पर कपिल शर्मा ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर एक फोटो शेयर की है, जिसमें कपिल की गोद में उनके दोनों बच्चे अनायरा और त्रिशान बैठे हुए नजर आ रहे हैं. वहीं कपिल शर्मा ने इस फोटो के साथ मजेदार कैप्शन भी शेयर करते हुए लिखा, ‘पब्लिक की पुरजोर मांग पर अनायरा और त्रिशान पहली बार एक साथ.

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फैंस कर रहे हैं तारीफें

 

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अनायरा और त्रिशान की फोटो देखकर फैंस काफी तारीफें कर रहे हैं. वहीं सोशल मीडिया पर दोनों की फोटो तेजी से वायरल भी हो रही है. हालांकि इससे पहले कपिल शर्मा अपनी बेटी अनायरा की फोटोज और वीडियो सोशलमीडिया पर शेयर करते रहे हैं, जिसे फैंस का प्यारा रिएक्शन मिला है. वहीं बेटे त्रिशान की पहली फोटो शेयर करने के बाद फैंस बेहद खुश हैं.

बता दें, कपिल शर्मा और उनकी पत्नी गिन्नी चतरथ की शादी दिसंबर, 2018 में हुई थी. जिसके बाद दिसंबर, 2019 में दोनों की बेटी अनायरा ने जन्म लिया था. वहीं 1 फरवरी 2021 को कपिल शर्मा दूसरे बच्चे यानी त्रिशान शर्मा के पैरेंट्स बने हैं.

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सरहद पार से- भाग 3 : अपने सपनों की रानी क्या कौस्तुभ को मिल पाई

लेखिका- उषा रानी

‘‘यह सच है, अहमद मुझे पाना चाहता था पर उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मुझे भगाता. एक औरत हो कर कुलसुम आपा ने मेरा जीवन नरक बना दिया. क्या बिगाड़ा था मैं ने उन का. हमेशा मैं ने सम्मान दिया उन्हें लेकिन…’’ और सुमेधा ऊपर देखने लगीं.

‘‘जज अंकल गए थे तेरे पास तो अहमद को क्या कहा उन्होंने?’’ बात की तह में जाने के लिए सुनयना ने पूछा.

‘‘उन्होंने पहले मुझ से पूछा कि अहमद ने मेरे साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की. मेरे ‘न’ कहने पर वे बोले, ‘देखो बेटा, यह जीवन अल्लाह की दी हुई नेमत है. इसे गंवाने की कभी मत सोचना. इस के लिए सजा इस बूढ़े बाप को मत देना. तुम कहो तो मैं तुम्हें अपने साथ ले चलता हूं.’ लेकिन मैं ने मना कर दिया, सुनयना. मेरा तो जीवन इन भाईबहन ने बरबाद कर ही दिया था, अब मैं नवनीत, गरिमा और मम्मीपापा की जिंदगी क्यों नरक करती. ठीक किया न?’’ सुमेधा की आंखें एकदम सूखी थीं.

‘‘तो तू ने अहमद से समझौता कर लिया?’’

‘‘जज अंकल ने कहा कि बेटा, मैं तो इसे कभी माफ नहीं कर पाऊंगा, हो सके तो तू कर दे. उन्होंने अहमद से कहा, ‘देख, यह मेरी बेटी है. इसे अगर जरा भी तकलीफ हुई तो मैं तुम्हें दोनों मुल्कों में कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’ दूसरी बार वह केतकी के जन्म पर आए थे, बहुत प्यार किया इसे. यह तो कई बार दादादादी के पास हो भी आई. दो बार तो अंसारी अंकल इसे मम्मी से भी मिलवा लाए.

‘‘जानती है सुनयना, अंसारी अंकल ने कुलसुम आपा को कभी माफ नहीं किया. आंटी उन से मिलने को तरसती मर गईं. आंटी को कभी वह लाहौर नहीं लाए. अंकल ने अपने ही बेटे को जायदाद से बेदखल कर दिया और जायदाद मेरे और केतकी के नाम कर दी. शायद आंटी भी अपने बेटेबेटी को कभी माफ नहीं कर सकीं. तभी तो मरते समय अपने सारे गहने मेरे पास भिजवा दिए.’’

सुमेधा की दुखभरी कहानी सुन कर सुनयना सोचती रहीं कि एक ही परिवार में अलगअलग लोग.

अंकल इतने शरीफ और बेटाबेटी ऐसे. कौन कहता है कि धर्म इनसान को अच्छा या बुरा बनाता है. इनसानियत का नाता किसी धर्म से नहीं, उस की अंतरात्मा की शक्ति से होता है.

‘‘लेकिन यह बता, तू ने अहमद को माफ कैसे कर दिया?’’

‘‘हां, मैं ने उसे माफ किया, उस के साथ निभाया. मुझे उस की शराफत ने, उस की दरियादिली ने, उस के सच्चे प्रेम ने, उस के पश्चात्ताप ने इस के लिए मजबूर किया था.’’

‘‘अहमद और शराफती?’’ सुनयना चौंक कर पूछ बैठीं.

‘‘हां सुनयना, उस ने 2 साल तक मुझे हाथ नहीं लगाया. मैं ने उसे समझने में बहुत देर लगाई. लेकिन फिर ठीक समझा. मैं समझ गई कि कुलसुम आपा इसे न उकसातीं, शह न देतीं तो वह कभी भी ऐसा घिनौना कदम नहीं उठाता. मैं ने उसे बिलखबिलख कर रोते देखा है.

‘‘अहमद ने एक नेक काम किया कि उस ने मेरा धर्म नहीं बदला. मैं आज भी हिंदू हूं. मेरी बेटी भी हिंदू है. हमारे घर में मांसाहारी भोजन नहीं बनता है. बस, केतकी के जन्म पर उस ने एक बात कही, वह भी मिन्नत कर के, कि मैं उस का नाम बिलकुल ऐसा न रखू जो वहां चल ही न पाए.’’

‘‘तू सच कह रही है? अहमद ऐसा है?’’ सुनयना को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था.

‘‘हां, अहमद ऐसा ही है, सुनयना. वह तो उस पर जुनून सवार हो गया था. मैं ने उसे सचमुच माफ कर दिया है.’’

‘‘तो तू पटना क्यों नहीं गई? एक बार तो आंटी से मिल आ.’’

‘‘मुझ में साहस नहीं है. तू ले चले तो चलूं. मायके की देहली के दरस को तरस गई हूं. सुनयना, एक बार मम्मी से मिलवा दे. तेरे पैर पड़ती हूं,’’ कह कर सुमेधा सुनयना के पैरों पर गिर पड़ी.

‘‘क्या कर रही है…पागल हो गई है क्या…मैं तुझे ले चलूं. क्या मतलब?’’

‘‘देख, मम्मी ने कहा है कि अगर तू केतकी को अपनाने को तैयार हो गई तो वह अपने हाथों से कन्यादान करेंगी. बेटी न सही, बेटी की बेटी तो इज्जत से बिरादरी में चली जाए.’’

‘‘तू लाहौर से अकेली आई है?’’

‘‘नहीं, अहमद और केतकी भी हैं. मेरी हिम्मत नहीं हुई उन्हें यहां लाने की.’’

‘‘अच्छा, उदयेश को आने दे?’’ सुनयना बोलीं, ‘‘देखते हैं क्या होता है. तू कुछ खापी तो ले.’’

सुनयना ने उदयेश को फोन किया और सोचती रही कि क्या धर्म इतना कमजोर है कि दूसरे धर्म के साथ संयोग होते ही समाप्त हो जाए और फिर  क्या धार्मिक कट्टरता इनसानियत से बड़ी है? क्या धर्म आत्मा के स्नेह के बंधन से ज्यादा बड़ा है?

उदयेश आए, सारी बात सुनी. सब ने साथ में लंच किया. सुमेधा को उन्होंने कई बार देखा पर नमस्ते के अलावा बोले कुछ नहीं.

उदयेशजी ने गाड़ी निकाली और दोनों को साथ ले कर होटल पहुंचे. सब लोग बैठ गए. सभी चुप थे. अहमद ने कौफी मंगवाई और पांचों चुपचाप कौफी पीते रहे. आखिर कमरे के इस सन्नाटे को उदयेशजी ने तोड़ा :

‘‘एक बात बताइए डा. अंसारी, आप की सरकार, आप की बिरादरी कोई हंगामा तो खड़ा नहीं करेगी?’’

अहमद ने उदयेश का हाथ पकड़ा, ‘‘उदयेशजी, सरकार कुछ नहीं करेगी. बिरादरी हमारी कोई है नहीं. बस, इनसानियत है. आप मेरी बेटी को कुबूल कर लीजिए. मुझे उस पाप से नजात दिलाइए, जो मैं ने 25 साल पहले किया था.

‘‘सरहद पार से अपनी बेटी एक हिंदू को सौंपने आया हूं. प्लीज, सुनयनाजी, आप की सहेली 25 साल से जिस आग में जल रही है, उस से उसे बचा लीजिए,’’ कहते हुए वह वहीं फर्श पर उन के पैरों के आगे अपना माथा रगड़ने लगा.

उदयेश ने डा. अंसारी को उठाया और गले से लगा कर बोले, ‘‘आप सरहद पार से हमें इतना अच्छा तोहफा देने आए हैं और हम बारात ले कर पटना तक नहीं जा सकते? इतने भी हैवान नहीं हैं हम. जाइए, विवाह की तैयारियां कीजिए.’’

सुनयनाजी ने अपने हाथ का कंगन उतार कर केतकी की कलाई में डाल दिया.

जब ऐसा मिलन हो, दो सहेलियों का, दो प्रेमियों का, दो संस्कृतियों का, दो धर्मों का तो फिर सरहद पर कांटे क्यों? गोलियों की बौछारें क्यों?

बच्चों को कोरोना से बचाने के लिए सिखाएं ये 8 आदतें

गत वर्ष से कोरोना का कहर जारी है, पहली लहर की अपेक्षा दूसरी लहर बहुत घातक सिद्ध हुई है. वैज्ञानिकों और डॉक्टरों के अनुसार तीसरी लहर का आना भी तय है भले ही यह कब आएगी यह सुनिश्चित अभी नहीं किया जा सका है. पहली लहर के अनुपात में दूसरी लहर ने युवाओं और बच्चों को भी अपनी चपेट में ले लिया.

डॉक्टरों के अनुसार तीसरी लहर में सर्वाधिक प्रभावित बच्चे होंगे, इसलिए बच्चों को अभी से सतर्क करना, कोरोना से बचाव के तरीकों और आदतों को उनके व्यवहार में लाना अत्यंत आवश्यक है. यूं भी शोध बताते हैं हम सभी को कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी होगी क्योंकि यह समय समय पर अपना प्रकोप दिखाता रहेगा. जून माह से धीरे धीरे अनलॉक की प्रक्रिया भी प्रारम्भ होने वाली है. लगभग दो माह से बच्चे भी घर में कैद हैं. कोरोना का प्रकोप भी कुछ कम हुआ है. अनलॉक होने के साथ धीरे धीरे जिंदगी भी पटरी पर लौटने लगेगी. बच्चों का भी अपने दोस्तों के साथ खेलना और मिलना जुलना प्रारम्भ हो ही जायेगा. इस समय जब कि बच्चे पूरे समय घर पर है उन्हें कोरोना से बचने के तरीकों को अपनी आदत में शुमार करने की समझाइश देने की आवश्यकता है.

1. – घर से बाहर निकलते समय मास्क पहनना, बार बार हाथ धोना और आसपास के लोंगों से 2 फ़ीट की दूरी बनाए रखना.

2. -घर से बाहर दोस्तों आदि के साथ खेलते समय भी चेहरे से मास्क न हटाना और बीच बीच में हाथों को सेनेटाइज करते रहना.

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3. -खेलते समय दूसरे की बोतल का पानी या खाद्य वस्तुओं का प्रयोग न करना.

4. -एक दूसरे की साइकिल या खिलौनों को एक्सचेंज करने से बचना.

5. -दोस्तों से बातचीत करते समय हर हाल में सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन रखना.

6. -बाहर से आकर सबसे पहले साबुन से हाथ धोना.

7. -दुकान के सामान को छूकर देखना या लिफ्ट के सभी बटनों को छूना अथवा सोसाइटी के कैम्प्स की विभिन्न वस्तुओं को चलते फिरते छूने की बच्चों की आदत होती है. उन्हें यह सब न करने की सख्त हिदायत देनी अत्यंत आवश्यक है.

8. -घर से बाहर जाते समय अपने बैग या जेब में सेनेटाइजर ले जाना न भूलना.

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Father’s day Special: रियल लाइफ में सिंगल फादर हैं ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ एक्टर

 (मॉडल और अभिनेता)

धारावाहिक ‘कोई अपना सा’ से अभिनय कैरियर की शुरुआत करने वाले अभिनेता ऋषिकेश पांडे आर्मी बैकग्राउंड से है. उन्हें सफलता CID धारावाहिक में इंस्पेक्टर सचिन की भूमिका से मिली. अभिनय से पहले वे एक एजेंसी में मार्केटिंग का काम किया करते थे. वहां आने वाले लोगों से ऋषिकेश की जान पहचान बढ़ी और उन्होंने मॉडलिंग शुरू की. थोड़े दिनों बाद उन्होंने धारावाहिक ‘कोई अपना सा’के लिए ऑडिशन दिया और काम मिल गया. इसके बाद उन्हें पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा. उनके कुछ प्रमुख सीरियल इस प्रकार है, कहानी घर-घर की, विक्रम और गबराल, कामिनी दामिनी, हमारी बेटियों का विवाह, तारक मेहता का उल्टा चश्मा आदि कई है. अभी वे ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में मुकेश की भूमिका निभा रहे है. काम के दौरान उनका परिचय तृषा दबास से हुआ. प्यार हुआ, शादी की और एक बेटे दक्षय पांडे के पिता बने, लेकिन कुछ पर्सनल अनबन की वजह से 10 साल पहले ऋषिकेश औरतृषा एक दूसरे से अलग हो गए. इस साल उनकाकानूनी तौर पर डिवोर्स कुछ महीने पहले हो चुका है.

मुश्किल था बेटे को संभालना

 

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ऋषिकेश अपने बेटे दक्षय का पालन-पोषण खुद कर रहे है. काम के साथ बेटे की देखभाल कैसे करते है, पूछे जाने पर वे कहते है कि एक छोटे बच्चे के साथ काम बहुत कठिन और तनावपूर्ण था. शादी के बाद सब ठीक था, लेकिन कुछ सालो बाद हम दोनों में अनबन शुरू हो गयी. तृषा मुझे छोड़ अलग रहने लगी. मेरा जीवन हमेशा से बहुत सिंपल रहा है, मुझे पार्टी, नशा ये सब पसंद नहीं. काम के बाद घर पर आना ही मेरा उद्देश्य रहा. डिवोर्स के बाद अच्छी बात ये रही कि तृषा के पेरेंट्स, बहन और कजिन्स ने मेरा साथ दिया, इसलिए कई बार जरुरत पड़ने पर मैं बेटे को उसके नाना-नानी के घर छोड़ता था. वे लोग मेरातृषा से अलग होने की वजह जानते है. इस प्रकार मेरे लिए काम के साथ बच्चे को सम्हालना मुश्किल हो रहा था. कई बार पूरी रात शूटिंग करने के बाद 300 किमी गाड़ी चलाकर उसके स्कूल के फंक्शन में जाता था और टीचर से मिलकर उसे स्कूल पहुंचाकर मैं शूटिंग पर सुबह 11 बजे चला जाता था. बेटे के बीमार होने पर पूरी रात शूट कर उसके पास दिन में रहता था. तब मैंने सोचा कि मैं या तो बच्चा सम्हालूँ या काम करूँ. दोनों काम एक साथ करने में बहुत मुश्किल हो रहा था. जब हमारी अनबन चल रही थी, उस दौरान मेरे पिता की भी मृत्यु हो गयी थी. उस समय मेरा बेटा बहुत छोटा था और तीसरी कक्षा में पढता था. एक बार उसकी छुट्टियां शुरू होने पर उसे कहाँ रखूं उसकी समस्या हो रही थी. उसे मैं अपनी माँ के पास भी छोड़ नहीं सकता था, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद माँ बीमार रहने लगी थी. मैं सोचता था कि बेटे को हमारी बातें न बताई जाय, ताकि उसके मन पर गहरा चोट न लगे. इसलिए पहले की तरह ही बच्चे की देखभाल करता रहा. अभी मैंने उसे होस्टल में डाल दिया  है, क्योंकि अब वह 12 साल का हो चुका है. लॉकडाउन की वजह से अभी वह मेरे साथ मुंबई में है.

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रिश्ता दोस्ती का

ऋषिकेश का बेटे दक्षय के साथ दोस्ती का रिश्ता है. उसे वे ऐसा माहौल देना चाहते है, जिससे उनका बेटा उनसे कुछ न छुपा सकें. ऋषिकेश खुद भी कोई बात बेटे से छुपाते नहीं. कई बार अनुशासन में रखने के लिए थोड़ी कड़क व्यवहार करते है. वैसे दक्षय शांत बच्चा है, वह अपनी पढाई और खेल पर ही समय बिताता है.

होते है बच्चे परेशान

ऋषिकेश का आगे कहना है कि भारत में ऐसे कई घर है, जो आपसी मनमुटाव के बाद भी रिश्ते को सम्हालने की कोशिश करते है, क्योंकि वे परंपरा में बंधकर कर उस रिश्ते को निभाने के लिए मजबूर होते है. मेरा परिवार भी पारंपरिक विचारों वाला है, लेकिन कभी-कभी ऐसे रिश्ते को निभाना संभव नहीं होता. इसके अलावा हर इंसान को ख़ुशी से जीने का अधिकार है, फिर चाहे वह पुरुष हो या महिला. मैं किसी के साथ बदतमीजी करना, गाली-गलौज देना पसंद नहीं करता. मैंने कई सेलेब्रिटी को आपस में अनबन होने पर बदतमीजी करते हुए सुना है. मेरी कोशिश ये रही है कि बच्चा माता-पिता के व्यवहार से परेशान न हो और सारी चीजें पहले की तरह रहे, क्योंकि माता-पिता के अनबन में बच्चों को सबसे अधिक भुगतना पड़ता है, जबकि उनकी कोई गलती नहीं होती.

तलाश कुछ अलग काम की

आर्मी बैकग्राउंड से सम्बन्ध रखने वाले ऋषिकेश के माता-पिता चाहते थे कि वे मेडिकल फील्ड में जाए, लेकिन उन्हें कुछ अलग करने की इच्छा रही. अभिनय के बारें में सोचा नहीं था, क्योंकि मुंबई में रहना और खाना-पीना महंगा है और कोई रिश्तेदार भी वहां नहीं था. वे कहते है कि मुंबई आकर रहना मेरे लिए बहुत संघर्षपूर्ण था. मैंने शुरू में मुंबई आकर एक मार्केटिंग एजेंसी के लिए काम किया. वही परलोगों से मिलना शुरू हुआ. पहले मॉडलिंग शुरू की और एकता कपूर की धारावाहिक ‘कोई अपना सा’ के लिए ऑडिशन दिया और हीरो की भूमिका मिली. इसके बाद कहानी घर-घर की, कामिनी दामिनी, सी आईडी, पोरस आदि कई धारावाहिकों में मुख्य और सपोर्टिंग किरदार निभाया है. एकता कपूर की सीरियल करने के बाद मुझे पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा. अभी मैं ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में काम कर रहा हूँ. इसके अलावा अजय देवगन की एक फिल्म भी कर रहा हूँ. जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव रहे है, लेकिन जब मैं अर्ली ट्वेंटी में था, तो मैंने शादी कर ली.

अच्छी थी दोस्ती

ऋषिकेश की तृषा से मुलाकात एक दोस्त की वजह से हुई थी.तृषा ने भी एक म्यूजिक वीडियो में काम किया था और अपने पिता का व्यवसाय कफपरेड में सम्हालती थी. ऋषिकेश शुरू से ही कोलाबा में रहता है और उनके सामने वाला घर तृषा का था. कई सालों की परिचय के बाद दोनों ने शादी की और बेटा दक्षय हुआ.

लिया कस्टडी बेटे का

बच्चे की कस्टडी ऋषिकेश ने ली है, इसकी वजह पूछने पर वे कहते है कि बचपन से मैं उसकी देखभाल कर रहा हूँ. कहीं भी घूमने जाना हो या व्यायाम करने, मैं बेटे को अपने साथ लेकर जाता था. बचपन से ही मैंने उसका दायित्व लिया है. इसलिए उसकी कस्टडी मैंने लिया है, लेकिन मैं यह भी देखता हूँ कि जब उसका मन करें अपनी माँ से मिले. इसमें मुझे किसी प्रकार की समस्या नहीं है.अभी लॉकडाउन में मैंने खाना बनाने के अलावा घर की साफ़-सफाई सब किया है, उसे नॉन-वेज बहुत पसंद है, खासकर चिकन बहुत पसंद है.

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समझदार है बच्चे

दक्षय अभी 12 साल का है और ऋषिकेश ने उन्हें अपनी रिश्ते के बारें में कभी नहीं बताया, लेकिन बेटे की समझ को देखकर चकित हुए. उनका कहना है कि दक्षय छोटा होने की वजह से मैंने उसे कुछ नहीं कहा, जब भी जरुरत होती, मैं उसकी माँ से मिलवा देता था, ताकि उसे हम दोनों के अलग होने के बारें में पता न चले, लेकिन आज के बच्चे बहुत समझदार होते है. एक बार ट्रेवल करते वक्त वह मुझे तनाव न लेने की बात समझा रहा था. इसके बाद मैंने उसे सारी बातें खुलकर बता दिया, ताकि वह किसी दूसरे से जानने से पहले, मेरा बता देना जरुरी है.

 

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फुटबॉल खेलने का है शौक़ीन

अक्षय को फुटबॉल खेलना पसंद है, इसलिए वह फुटबॉलखिलाड़ी रोनाल्डो का फैन है. फुटबॉल खेलकर उसने गोवा में गोल्ड मैडल भी जीता है. ऋषिकेश कहते है कि उसे टीवी देखना पसंद नहीं और न ही मेरे किसी शो को देखता है. कई बार मैंने जानबूझकर टीवी लगाया पर वह देखता नहीं. शूटिंग पर भी साथ जाना पसंद नहीं करता. वह केवल रोनाल्डो से मिलना चाहता है. मैं अपने बेटे को एक अच्छा इंसान बनाना चाहता हूँ, क्योंकि आज के लोग चकाचौध की जिंदगी और मटेरियलिस्टिक अधिक हो चुके है. मैंने सालों से ये महसूस किया है कि जाति-पाति, धर्म-अधर्म, ऊँच-नीच सिर्फ लोगों को बाँटने का काम करती है और सबको उससे निकलकर जरुरतमंदों की सहायता करना चाहिए. अभिनय मेरा काम से अधिक कुछ भी नहीं और न ही मैं कुछ स्पेशल हूँ. नए जेनरेशन को सबको रेस्पेक्ट करने की बात समझ में आनी चाहिए, जिसे हम खो रहे है.

फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह का हुआ निधन, एक हफ्ते पहले छूटा था पत्नी का साथ

काफी दिनों तक कोरोना से जंग लड़ने के बाद भारत के महान धावक मिल्खा सिंह जिंदगी की जंग हार गए. 91 साल की उम्र में कोरोना के चलते फ्लाइंग सिख ने चंडीगढ़ पीजीआई में अंतिम सांस ली. मिल्खा सिंह वो धावक हैं जिन्होंने ने चार बार एशियन गेम्स में गोल्ड मेडल जीता है. साथ ही वह 1958 कॉमनवेल्थ गेम्स के चैंपियन भी हैं. 1960 रोम ओलिंपिक खेलों में कुछ मामूली अंतर से पदक से चूक गए थे. दरअसल मेडलिस्ट मिल्खा सिंह को मई माह में कोरोना पॉजिटिव हो जाने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया था और पिछले एक महीने से कोरोना से जंग लड़ रहे थें.

खबरों के मुताबिक मिल्खा सिंह को 3 जून को पीजीआई में भर्ती कराया गया था.क्योंकि उनका ऑक्सीजन लेवल कम हो गया था. इससे पहले उनका घर पर ही इलाज चल रहा था….जबकि वो इससे पहले उनकी कोरोना रिपोर्ट नेगेटिव आए थें. इसके बाद उन्हें कोविड आईसीयू से सामान्य आईसीयू में भेज दिया गया था. फिर खबरों से पता चला की उनकी हालत गंभीर हो गई थी और अब नतीजा आपके सामने है.

सबसे दु:खद बात ये है कि उनके परिवार ने बताया था कि इससे पहले उनकी पत्नी निर्मल कौर का कोविड-19 संक्रमण से जूझते हुए 13 जून को मोहाली में एक निजी अस्पताल में निधन हो गया था. निर्मल कौर खुद एक एथलीट रही थीं. खास बात ये है कि वह भारतीय महिला वॉलीबॉल टीम की कप्तान रह चुकी थीं. मिल्खा जी के लिये दिन थोड़ा मुश्किल रहा…लेकिन वह इससे संघर्ष कर रहे थें. मिल्खा सिंह के साथ निर्मल कौर की शादी साल 1962 में हुई थी. लेकिन दोनों ने ही बारी- बारी से इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

आइए जानते हैं उनकी जिंदगी की कुछ दिलचस्प बातें…

भले ही अब भारत के सबसे महान एथलीट मिल्खा सिंह हमारे बीच नहीं रहे लेकिन उनका कभी नहीं भूल पाएगा ये देश….

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मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवंबर 1929 को पाकिस्तान में हुआ था….मिल्खा सिंह का जन्म अविभाजित भारत (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था, लेकिन आजादी के बाद वो हिंदुस्तान आ गए थें. चार बार एशियन गेम्स के गोल्ड ट्रेक एंड फील्ड में कई रिकॉर्ड बनाने वाले इस दिग्गज को फ्लाइंग सिख नाम किसने दिया तो….दरअसल उन्हें ये नाम पाकिस्तान के तानाशाह जनरल अयूब खान ने दिया था. ये नाम उन्हें सन 1960 के धाकड़ एथलीट अब्दुल खालिक को रेस में हराने पर दिया था. इतना ही नहीं उस वक्त शायद वो ओलंपिक भी जीत जाते लेकिन बहुत ही मामूली अंतर से वो चौथे स्थान पर आए थें लेकिन कड़ी टक्कर दी थी. मिल्खा सिंह को सन 1959 में पद्मश्री सम्मान भी मिला था.

मिल्खा सिंह ने एक बार एक इंटरव्यू में कहा था…कि मेरी आदत थी कि मैं हर दौड़ में एक दफा पीछे मुड़कर देखता था… रोम ओलिंपिक में दौड़ बहुत नजदीकी थी और मैंने शुरुआत तो बहुत जबरदस्त ढंग से की थी. लेकिन आदत से मजबूर मैंने एक बार पीछे मुड़ कर देखा और वहीं मेरी गलती थी…मैं वहीं चूंक गया क्योंकि उस दौड़ में कांस्य पदक विजेता का समय 45.5 सेकंड था और मेरा ने 45.6 सेकंड…मैं मात्र एक सेकंड से चूक गया. हालांकि एशियाई खेलों में 4 और कॉमवेल्थ गेम्स में एक गोल्ड हैं मिल्खा सिंह के नाम…एक जानने वाली बात ये भी है कि रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह नंगे पांव बिना जूतों के दौड़े थें.

मिल्खा सिंह के संघर्ष पर फिल्म भी बन चुकी है जिसमें मिल्खा सिंह का रोल निभाया था एक्टर फरहान अख्तर.
दिग्गज धावक मिल्खा सिंह के जीवन पर ‘भाग मिल्खा भाग’ नाम से फिल्म बनी है. खबरों के मुताबिक उड़न सिख के नाम से फेमस मिल्खा सिंह ने कभी भी हार नहीं मानी उनका पूरा जीवन संघर्षों से भरा रहा. हालांकि मिल्खा सिंह ने कहा था कि भले ही उन पर फिल्म बनी है लेकिन फिल्म में उनकी संघर्ष की कहानी उतनी नहीं दिखाई गई है जितनी कि उन्होंने अपने जीवन में झेली है.

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महान ऐथलीट के निधन पर पीएम मोदी ने भी दु:ख जताया है. तस्वीर शेयर करते हुए शोक व्यक्त किया है. उन्होंने ट्वीट किया- “मिल्खा सिंह जी के निधन से हमने एक महान खिलाड़ी खो दिया, जिसने देश की कल्पना पर कब्जा कर लिया और अनगिनत भारतीयों के दिलों में एक विशेष स्थान बना लिया. उनके प्रेरक व्यक्तित्व ने उन्हें लाखों लोगों का प्रिय बना दिया. उनके निधन से आहत हूं.”इसके साथ ही मिल्खा सिंह के निधन पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने दुख व्यक्त किया है…उन्होंने कहा..स्पोर्टिंग आइकन मिल्खा सिंह के निधन से मैं दुखी हूं…उनके संघर्षों की कहानी और चरित्र की ताकत भारतीय पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी…गृहमंत्री अमित शाह ने भी उनके निधन पर दुःख जताया और कहा कि उन्हें देश हमेशा याद रखेगा…पूरे देश सें उन्हें श्रद्धांचलि दे रहे हैं…।

सच में आज देश ने अपना एक महान एथलीट खो दिया…..

Neena Gupta को बिन शादी के मां बनने पर Satish Kaushik से मिला था शादी का प्रपोजल, पढ़ें खबर

बौलीवुड एक्ट्रेस नीना गुप्ता अपनी एक्टिंग से लेकर स्टाइलिश लुक को लेकर सुर्खियों में रहती हैं. वहीं उनकी पर्सनल लाइफ से भी कोई अनजान नही हैं. लेकिन हाल ही में रिलीज हुई नीना गुप्ता (Neena Gupta) की बायोग्रॉफी ‘सच कहूं तो’ में कई सारे खुलासे हुए हैं, जिन्हें पढ़कर हर कोई हैरान है. शादी से लेकर मां बनने की कहानी बयां करती नीना गुप्ता की किताब में कई अनकही बातों का जिक्र है. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

मां बनने के समय मिला शादी का प्रस्ताव

दरअसल, अपनी जिंदगी पर आधारित इस किताब में नीना गुप्ता ने बताया है कि जब वह बिन ब्याही मां बनने वाली थी तो उनके दोस्त और को-स्टार सतीश कौशिक ने आगे बढ़कर शादी का प्रस्ताव दिया था. हालांकि नीना गुप्ता ने अपनी बेटी मसाबा गुप्ता को बिना शादी के ही जन्म दिया था. वहीं इस बारे में एक्टर सतिश कौशिक (Satish Kaushik) ने भी एक इंटरव्यू में पुरानी यादों ताजा की हैं.

 

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सतीश कौशिक ने कही ये बात

 

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सतीश कौशिक ने कहा, ‘आप उनकी किताब में जो कुछ भी पढ़ रहे हैं वो मेरा उनके लिए एक सच्चे दोस्त के तौर पर लिया गया प्यार भरा फैसला था. मैं चाहता था कि वह अकेला न महसूस करें. आखिरकार अंत में दोस्त होते ही इसलिए हैं. जैसा किताब में लिखा है, जब मैंने उन्हें शादी का प्रस्ताव दिया तो वो एक हल्के मजाक, देखभाल, सम्मान और मेरे बेस्ट फ्रेंड को सहारा देने के लिए था. जिसे इसकी बहुत जरूरत थी. मैंने उन्हें कहा, मैं हूं न, तू चिंता क्यों करती है, वो इस प्रस्ताव से बेहद भर गई थी और उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े थे. उसके बाद हमारी दोस्ती और भी गहरी होती चली गई.’

प्रैग्नेंसी में शादी ना करने पर कही ये बात

 

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बुक रिलीज होने के बाद नीना गुप्ता ने एक इंटरव्यू में प्रैग्नेंसी में शादी ना करने की वजह बताते हुए कहा कि उनके प्रेगनेंट होने के बावजूद उन्हें शादी के ऑफर्स मिल रहे थे. हालांकि उन्होंने फैसला किया. नीना ने कहा, ‘मुझे अपने ऊपर बहुत गर्व था. मैंने खुद से कहा कि मैं केवल इसलिए शादी नहीं करूंगी क्योंकि मुझे किसी के नाम की जरूरत हैं या पैसे की जरूरत है जैसेकि मुझे एक समलैंगिक आदमी से शादी का ऑफर आया था.’

बता दें, नीना गुप्ता की बेटी मसाबा गुप्ता के पिता वेस्ट इंडिज क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स हैं. हालांकि दोनों की शादी नही हुई है. इसके बावजूद सिंगल मदर होने के बाद भी नीना गुप्ता ने मसाबा गुप्ता को जन्म दिया और पाला है. वहीं आज मसाबा मशहूर फैशन डिजाइनर्स की लिस्ट में शामिल हैं.

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Father’s day Special: सोशलमीडिया छोड़ दें तो हर जगह संकट में पिता और पितृत्व

यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में यक्ष, युधिष्ठिर से पूछता है, ‘आसमान से भी ऊंचा क्या है ?’ युधिष्ठिर कहते हैं, ‘पिता’ और यक्ष खुश हो जाता है. आगामी फादर्स डे पर सोशल मीडिया में भी हम पिता नामक प्राणी को कुछ ऐसे ही अलंकरणों से सुशोभित होते देख, सुन और पढ़ सकते हैं. इस दिन पिता का गुणगान करने वाले कुछ प्रकार के शेर भी पढ़ने को मिलेंगे-

लिखके वालिद की शान कागज पर रख दिया आसमान कागज पर लेकिन इन रस्मी बुलंदियों से पिता और पितृत्व को लेकर कोई भ्रम भले हम पाल लें हकीकत यह है कि पिता और पितृत्व दोनो ही संकट में हैं. यह कोई अपने देश की बात नहीं है पूरी दुनिया में इन पर ये संकट मंडरा रहा है.  अब अगर हम इस भूमंडलीय युग में भी यह कहें कि दुनिया से हमें क्या लेना देना तब तो अलग बात है नहीं तो हकीकत हमारी नींद उड़ा देगी. भारत सहित ज्यादातर एशियाई देशों में तो फिर भी अभी गनीमत है, लेकिन अमरीका और यूरोपीय देश तेजी से अनुपस्थित पिता वाले समाज बनते जा रहे हैं. अनुपस्थित पिता यानी जिनकी पिता के तौरपर भौतिक मौजूदगी संतान को हासिल नहीं है.

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अमरीका और यूरोप में बहुत तेजी से अनाथ बच्चों का समाज बन रहा है. इसकी वजह यही है अदृश्य या अनुपस्थित पिता. हालांकि समाजशास्त्री पिता के अस्तित्व पर इस संकट को कोई बहुत ताजा संकट नहीं मान रहे. उनके मुताबिक पिता नाम की संस्था पर संकट का यह सिलसिला तो औद्योगिक क्रांति के बाद से ही शुरू हो गया था.

लेकिन अभी तक यह बात दबी छुपी थी तो इसलिए कि जिंदगी को आमूलचूल ढंग से बदल देने वाली इतनी सारी और इतनी संवेदनशील तकनीकें नहीं थीं लेकिन हाल के दशकों में रोजमर्रा के जीवन में उन्नत तकनीकों की जो  बमबारी हुई है उससे पिता नाम की अथॉरिटी पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गयी है. पितृत्व पर अपनी मशहूर किताब, ‘सोसायटी विदाउट द फादररू ए कंट्रीब्यूशन टू सोशियल साईकोलोजी’ में अलेक्जेंडर मित्सर्लिच ने पिछली सदी के नब्बे के दशक में ही कह दिया था कि परिवार में पिता की शक्ति का लगातार ह्रास हो रहा है. हालांकि यह सब कुछ  किसी साजिश के तहत नहीं हो रहा. यह होना एक किस्म से स्वाभाविक है. क्योंकि पिता नाम की संस्था ने सदियों तक अपने पास बहुत सारी सत्ताओं को समेट रखा था, उन्हें कभी न कभी तो हाथ से निकलना ही था. अब वे तमाम सत्ताएं धीरे-धीरे उसके हाथ से निकल रही हैं. मसलन पितृत्व की ताकत धीरे-धीरे पुरुषत्व की मुट्ठी से बाहर निकलती जा रही है.

रटगर्स यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के एक प्रोफेसर डेविड पॉपिनो का कहना है कि अगर वर्तमान रुझान जारी रहता है तो इस सदी के अंत तक अमरीका में पैदा होने वाले 50 प्रतिशत बच्चे जैविक पिता की संतान होंगे कहने का मतलब यह कि ये अनुपस्थित पिता या स्पर्म बैंक से खरीदे गए स्पर्म की संतानें होंगी. पिता की अथॉरिटी को यह बहुत बड़ा झटका होगा. आज भी अमरीका में पैदा होने वाले करीबन 30 प्रतिशत बच्चों के या तो पिता ज्ञात नहीं होते या जैविक होते हैं. लेकिन रुकिए पिता नाम के जीव की शान पर यह कोई अकेला संकट नहीं है और भी तमाम संकट टूट पड़े हैं, मसलन-पूरी दुनिया में यहां तक कि पारंपरिक एशिया और अफ्रीका के समाजों तक में गार्जियनशिप पर अब अकेले पिता का दबदबा नहीं रहा. बड़े पैमाने पर बच्चों के प्रथम अभिभावक के रूप में अब मांओं का नाम दर्ज हो रहा है. वह जमाना गया जब स्कूल में एडमिशन के लिए पिता का नाम जरूरी था.

परिवारों में पिता की केन्द्रीय भूमिका तेजी से छीज रही है. बहुत तेजी से परिवार का केन्द्रीय ढांचा मांओं और बच्चों पर केंद्रित हो रहा है जैसे मान लिया गया हो परिवार का स्थाई ढांचा तो उन्हीं से बनता है, पुरुष तो इस ढांचे में आता जाता रहता है. कहने का मतलब वह महत्वपूर्ण है भी और नहीं भी है. पश्चिमी देशों में स्वास्थ्य देखभाल एजेंसियों को स्पष्ट निर्देश हैं कि वे परिवार के नाम पर वो मां और बच्चों की चिंता करें. धीरे-धीरे तमाम संगठनों द्वारा पिता की चिंता करना छोड़ा जा रहा है सिवाय उन कुछ देशों के जहां जनसंख्या की वृद्धि लगातार नकारात्मक होती जा रही है. आज पश्चिमी देशों में गर्भावस्था, श्रम और प्रसव के संदर्भ में तमाम नियुक्तियां मां को ध्यान में रखकर, उनकी सहूलियत के हिसाब से होती हैं. स्कूल रिकॉर्ड और परिवार सेवा संगठनों में फाइलें अक्सर बच्चे और मां के नाम पर होती हैं, पिता के नहीं. अस्पतालों में दीवारों के रंग हल्के होते हैं क्योंकि उन्हें महिलाओं और बच्चों की पसंद को  ध्यान में रखकर रंगा जाता है. अधिकांश परिवार कल्याणकारी दफ्तरों में, जब बैठकें  होती है तो उनमें पिता को आमंत्रित करना जरूरी नहीं समझा जाता है. ये सब बातें हैं जो बताती हैं कि पिता का अस्तित्व संकट में है.

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वैसे व्यवहारिक दुनिया में पिता इसलिए भी हाल के सालों में बैकफुट हुए हैंय क्योंकि दैनिक इस्तेमाल में आने वाले तमाम उपकरणों ने अचानक उन्हें अपने बच्चों से काफी पीछे कर दिया है. मानव इतिहास के किसी भी मोड़ में पिता और उनकी संतानों के बीच तकनीकी समझ और इस्तेमाल में इतना फासला पहले कभी नहीं रहा जितना हाल के सालों में देखा गया है. रहीस से रहीस घरों में भी पिताजी स्मार्ट फोन के इस्तेमाल में अपने बच्चों से पीछे हैं. अगर उन्हें इसकी समझ है भी तो भी वे अपने बच्चों से रफ्तार के मामले में बहुत धीमें हैं.

पिता अपने बच्चों के मुकाबले  तमाम उपकरणों के बहुत कम फीचरों का इस्तेमाल करना जानते हैं. आज की दैनिक जिंदगी में जीवनशैली के रूप में जितनी भी तकनीकों का इस्तेमाल हो रहा है, उन सबमें पिता अपनी संतानों से समझ और उनके संचालन में पिछड़ गया है. इसलिए आज के पिता के पास कई दशकों पहले वाले पिता की तरह अपनी संतान के हर सवाल का जवाब नहीं है. यह बात पिता को भी मालूम है और उसकी संतानों को भी. यही कारण है कि आज के बच्चे छूटते ही कह देते हैं अरे छोड़ो आपको क्या मालूम ? पहले ऐसा नहीं था. पहले कौशल के मामले में पिता और संतान के बीच इतना बड़ा जनरेशन गैप नहीं था. इसलिए अब पिता बच्चों के लिए आसमान से भी ऊंचे नहीं रहे.

हालांकि नई पीढी की यह अग्रता बहुत दिनों तक नहीं चलने वाली. अगले 15-20 सालों में पिता और उनकी संतानों के व्यवहारिक तकनीकी ज्ञान एक स्तर के हो जायेंगे. लेकिन सवाल है कि क्या तब तक पिता नाम के शख्स की अथॉरिटी बचेगी ?

Khatron Ke Khiladi 11: पार्टी के लिए ट्राय करें ‘इशिता’ के ये वेस्टर्न लुक्स

टेलीविजन के पौपुलर सीरियल ‘ये है मोहब्बतें’ से फैंस के बीच अपनी एक खास जगह बना चुकी टीवी एक्ट्रेस दिव्यंका त्रिपाठी अक्सर अपनी प्रोफेशनल और पर्सनल लाइफ के लिए सुर्खियों में रहती हैं, लेकिन आज हम उनके पर्सनल लाइफ की बजाय उनके फैशन की बात करेंगें. आप सभी जानते हैं कि दिव्यांका अपने ट्रैडिशनल लुक के लिए जानी जाती हैं. पर आज हम उनके वेस्टर्न लुक के बारे में आपको बताएंगे, जिसे आप सिंपल तरीके से फैमिली गैदरिंग, किसी पार्टी या कहीं घूमने के लिए ट्राय कर सकते हैं.

1. मौनसून के लिए परफेक्ट है दिव्यंका की ये ड्रेस

समर हो या मौनसून आजकल फ्लावर प्रिंट ट्रेंड में है. तो इस ट्रेंड में टीवी सेलेब्स कैसे पीछे रहें. दिव्यंका हाल ही में मौनसून का मजा लेती हुई दिखीं, जहां वह ब्लू कलर की फ्लावर प्रिंट ड्रेस के साथ वाइट शूज के कौम्बिनेशन में खूबसूरत नजर आईं. आप भी इस ड्रेस को बाहर घूमने के लिए ट्राय कर सकती हैं.

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2. पार्टी के ब्लैक है परफेक्ट

अगर आप भी किसी मौनसून पार्टी या गैदरिंग में जा रहें हैं तो दिव्यंका की ब्लैक नेट ड्रेस जरूर ट्राय करें. इसके साथ अगर आप हिल्स में कम्फरटेबल हों तो पहनें. वरना आजकल ड्रेस के साथ शूज भी ट्रेंड में हैं तो आप इस ड्रेस के साथ सूट भी ट्राय कर सकते हैं.

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3. फैशन में है चैक प्रिंटेड ड्रेसेस

 

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Merry Christmas! #PowerPacked #WishesToYou

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अाजकल मार्केट में कईं तरह की चेक प्रिंटेड ड्रेसेस आ गईं है. वहीं दिव्यंका भी हाल ही में चेक पैटर्न ड्रेस में नजर आईं. आप भी चाहें तो शूज के साथ कौम्बिनेशन में ये डार्क ब्लू ड्रेस के चैक पैटर्न की ड्रेस ट्राय कर सकते हैं. ये आपके लुक को स्टाइलिश के साथ-साथ कूल बनाएगा.

4. फुलस्लीव फ्रौक ड्रेस है परफेक्ट

 

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A posey pic of me or playful pups? I choose the latter!?? Loved the dress @Anusoru❤️ #AnimalLove

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आजकल औफिस में भी ड्रेसेस पहनकर जाना ट्रेंड बन गया है. आ भी दिव्यंका की तरह फुल स्लीव के साथ चेक पैटर्न में ये ड्रेस पहन सकती हैं. ये ड्रेस आपके लुक को औफिस में सबसे अलग बनाएगा.

बता दें, बीते कई दिनों से ऐसी खबरें हैं कि कम टीआरपी के चलते इशिता यानी दिव्यंका त्रिपाठी का ‘ये हैं मोहब्बतें’ शो बंद होने वाला है.

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न आप कैदी, न ससुराल जेल

लव मैरिज हो या अरेंज्ड, हर लड़की के मन में ससुराल को ले कर थोड़ाबहुत भय जरूर होता है. कई बार तो यह भय चिंता का रूप धारण कर लेता है. मगर समस्या तब आती है जब लड़की के मन में ससुराल वालों की नकारात्मक छवि बनने लगती है. इस स्थिति में बिना किसी आधार के लड़की भावी ससुराल वालों में खामियां ढूंढ़ने लगती है. मैरिज काउंसलर डा. वीरजी शर्मा कहते हैं, ‘‘लड़कियों में ससुराल को ले कर भय एक स्वाभाविक प्रकिया है. मगर कई बार डर इतना अधिक बढ़ जाता है कि लड़की खुद को मनगढंत स्थिति में सोच कर यह तय करने लगती है कि ससुराल वाले इस स्थिति में उस के साथ क्या सुलूक कर सकते हैं. अधिकतर लड़कियां नकारात्मक ही सोचती हैं. इस की 2 वजहें हो सकती हैं. पहली यह कि लड़की ससुराल के सभी सदस्यों के स्वभाव से भलीभांति परिचित हो और दूसरी यह कि वह अपने भावी ससुराल वालों के बारे में कुछ भी न जानती हो.’’

दोनों ही स्थितियों में विभिन्न प्रकार की चिंताएं उसे घेर लेती हैं. ऐसी ही कुछ चिंताओं से निबटने के तरीके पेश हैं:

1. खुद को व्यक्त न कर पाने का डर

जाहिर है, ससुराल में जगह और लोग दोनों ही लड़की के लिए अनजान होते हैं. ऐसे में हर लड़की को ससुराल के किसी भी सदस्य से अपनी ख्वाहिश, तकलीफ और भावना को व्यक्त करने में संकोच होता है. उदाहरण के तौर पर, एक नईनवेली दुलहन की मुंहदिखाई की रस्म की बात की जा सकती है. इस रस्म की कुछ खामियां भी हैं और कुछ लाभ भी. लाभ यह है कि घर की नई सदस्या बन चुकी दुलहन को सभी नए रिश्तेदारों से मिलने का मौका मिलता है, वहीं खामी यह है कि थकीथकाई दुलहन लोगों की भीड़ में खुद को असहज महसूस करती है. अब इस स्थिति में लड़की किस से अपनी तकलीफ बयां करे?

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2. इस रस्म के अलावा भी कई ऐसे मौके

आते हैं जब लड़की अपनी मन की बात को ससुराल वालों के आगे व्यक्त नहीं कर पाती और मायूसी के साथ उन की हां में हां मिला देती है. डा. वीरजी इस बाबत कहते हैं, ‘‘शादी के शुरुआती दिनों में यह दिक्कत हर लड़की को आती है, मगर यह स्थाई नहीं होती. पहली बात की अपनी बात को व्यक्त करना अपराध नहीं है. यदि स्वस्थ तरीके से अपनी बात रखी जाए तो लोग उसे तवज्जो देते हैं. ससुराल वालों के आगे धीरेधीरे खुलने का प्रयास लड़की को खुद करना पड़ता है. इस में उस की कोई सहायता नहीं कर सकता. अब अपनी बात कहे बगैर ही यह मान लिया जाए कि कोई भी इसे नहीं मानेगा, यह बेवकूफी है.’’

3. आजादी छिन जाने का भय

शादी से पूर्व हर लड़की के मन में यह खयाल जरूर आता है कि क्या शादी के बाद भी मायके जैसी आजादी मिल सकेगी? डा. वीरजी कहते हैं, ‘‘शादी नए रिश्तों का बंधन है, बंदिशों का नहीं. नए रिश्तों की नई डिमांड्स होती हैं और उन्हें पूरा करना जरूरी भी है, क्योंकि नए रिश्तों की डोर एकदूसरे को समझने और एकदूसरे की ख्वाहिशों को पूरा करने पर मजबूत होती है. यह जिम्मेदारी केवल लड़कियों पर ही नहीं होती वरन ससुराल वाले भी नई दुलहन की पसंदनापसंद का खयाल रखते हैं. इसलिए खुद को ससुराल में कैदी न समझें.’’

कई बार लड़कियों को इस बात का डर सताता है कि ससुराल में पसंद के कपड़े, खाना, घूमनाफिरना सब पर पाबंदी लगा दी जाएगी. यहां तक कि कुछ करने से पहले सासससुर की अनुमति लेने पड़ेगी. तो बड़ों की अनुमति लेने में हरज क्या है? मायके में भी तो लड़कियां अपने मातापिता से कुछ करने से पूर्व उन का परामर्श लेती हैं और फिर बात सिर्फ लड़कियों की नहीं, बल्कि ज्यादा तजरबे और कम तजरबे की है. जाहिर है सासससुर को बहू से अधिक तजरबा होता है. अपने तजरबे के तहत यदि वे किसी काम को करने से या न करने की बात कहते भी हैं, तो इस में भलाई खुद की है. फिर इस बात का भी ध्यान रखें कि अपने फैसलों में जब बहू ससुराल वालों को शामिल करेगी, तो वे भी हर काम में उस की राय को अहमियत देंगे.

हर घर के कुछ नियम होते हैं उन्हें बंदिशें कहना गलत होगा. नियमों का पालन करने से जीवनशैली अनुशासित होती है. यह नियम घर के हर सदस्य के लिए एक से होते हैं. इसलिए इन्हें व्यक्तिगत तौर पर न लें. इसी तरह ससुराल को जेल समझ कर हर वक्त कैद से छूटने की बात न सोचें, क्योंकि यह सोच कभी भी ससुराल में अपनी जगह बना पाने में बहू को कामयाब नहीं होने देगी.

4. परिवार वालों के दखल की चिंता

‘4 बरतनों का आपस में टकराना’ कहावत गृहस्थ जीवन पर एकदम सटीक बैठती है. परिवार 1 व्यक्ति से नहीं बनता, बल्कि बहुत सारे सदस्य मिल कर एक परिवार बनाते हैं. जिस घर में 4-5 लोग होते हैं, वहां आपसी सलाह से ही हर काम किया जाता है. इसे दखल समझने की भूल न करें. हो सकता है कि कभी आप की सलाह के विपरीत कुछ फैसले लिए जाएं, मगर उस में घर के बाकी सदस्यों की सहमति होगी. इसे परिवार के सदस्यों की दखलंदाजी नहीं कहा जाएगा. जब लड़कियां मायके में होती हैं, तो मातापिता की रोकटोक उन्हें दखल नहीं लगती, क्योंकि उन से भावनात्मक रिश्ता होता. ससुराल वालों से भावनात्मक जुड़ाव में समय लगता है. इसलिए उन की हर बात दखल ही लगती है.

मगर कई बार सच में ससुराल में कुछ लोग नई बहू पर अपनी धाक जमाने के लिए उस के हर काम में अपना दखल देने से पीछे नहीं हटते. ऐसे लोगों से शुरू से ही थोड़ी दूरी बना कर चलना चाहिए. यदि बात सासससुर की है, तो अपने और उन के बीच एक सीमा रेखा खींच लें. उन की जो बातें आसानी से मानी जा सकती हैं उन्हें जरूर मान लें, मगर जो स्वीकार करने योग्य न हों उन्हें सम्मान के साथ स्वीकारने से इनकार कर दें.

5. अनचाही जिम्मेदारियों को निभाने का बोझ

नए रिश्तों के साथ नई जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ती हैं, इस बात को स्वीकार कर लें. मगर कुछ रिश्तों को दिल से स्वीकार कर पाने में थोड़ी मुश्किलें भी आती हैं. ऐसे में उन रिश्तों से जुड़ी जिम्मेदारियों को निभाना बोझ लगता है खासतौर पर ननद और जेठानी के साथ खट्टेमीठे रिश्ते की कई कहानियों से लड़कियां पहले ही अवगत होती हैं. रहीसही कसर टीवी धारावाहिकों में सासबहू के झगड़े और घरेलू लड़ाई दिखा पूरी हो जाती है खासतौर पर लड़कियों के दिमाग में ननद, जेठानी और सास की छवि वैंप जैसी बन जाती है.

मगर वास्तव में इन रिश्तों को निभाना उतना जटिल भी नहीं होता. जाहिर है, अपने पति से जुड़ी जिम्मेदारियों को पूरा करने का जो उत्साह लड़कियों में होता है वह ससुराल के अन्य सदस्यों के लिए नहीं होता. मगर नकारात्मक सोच अच्छे को भी बुरा बना सकती है. ननद, जेठानी और सास ससुराल में नई बहू के लिए सब से अधिक मददगार साबित हो सकती हैं. ये रिश्ते नोकझोंक वाले जरूर हैं, मगर इन की गैरमौजूदगी में गृहस्थ जीवन फीका है.

6. जीवनशैली बदल जाने का खौफ

जीवन के हर पड़ाव पर एक नए बदलाव का सामना करना पड़ता है. शादी के बाद महिला और पुरुष दोनों के ही जीवन में बहुत सारे बदलाव आते हैं. मगर लड़कियों को शादी से पूर्व इस का अधिक खौफ होता है. इस की सब से बड़ी वजह पिता का घर छोड़ पति के घर जाना होती है. सभी घर के नियमकायदे अलग होते हैं, रहनसहन का तरीका भी अलग होता है. इन सब के बीच खुद को समयोजित कर पाना हर लड़की के लिए थोड़ा मुश्किल होता है, मगर नामुमकिन नहीं.

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घर में एक दूसरे माहौल से आई नई बहू से तालमेल बैठा पाना ससुराल वालों के लिए भी आसान नहीं होता. अपने घर के वातावरण में बहू को ढालना ससुराल वालों के लिए भी एक चुनौती होती है. मगर दोनों ही पक्ष आपसी समझ से कदम आगे बढ़ाएं तो ये बदलाव अच्छे लगने लगते हैं.

इसी तरह ससुराल और ससुराल वालों से जुड़ी बहुत सी बातें होती हैं, जो विवाह से पूर्व लड़कियों को मन ही मन नकारात्मक सोचने पर मजबूर कर देती हैं. मगर इस सोच के साथ नए रिश्तों की शुरुआत हमेशा बुरे परिणाम ही दिखाती है. इसलिए सकारात्मक सोचें. इस से विपरीत हालात में मसलों को सुलझाने का रास्ता मिलेगा और ससुराल के हर सदस्य के साथ सही तालमेल बैठाना आसान हो जाएगा.

Father’s day Special: जानें हुमा कुरैशी को अपने पिता से क्या सीख मिली

मॉडलिंग से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री हुमा कुरैशी दिल्ली की है. हुमा को अभिनय पसंद होने की वजह से उन्होंने दिल्ली में पढाई पूरी कर थिएटर ज्वाइन किया और कई डॉक्युमेंट्री में काम किया. वर्ष 2008 मेंएक फ्रेंड के कहने पर हुमा फिल्म ‘जंक्शन’ की ऑडिशन के लिएमुंबई आई,लेकिन फिल्म नहीं बनी. इसके बाद उन्हें कई विज्ञापनों का कॉन्ट्रैक्ट मिला. एक मोबाइल कंपनी की शूटिंग के दौराननिर्देशक अनुराग कश्यप ने उनके अभिनय की बारीकियों को देखकर फिल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के लिए साइन किया. उन्होंने इस फिल्म की पार्ट 1 और 2 दोनों में अभिनय किया. फिल्म हिट हुई और हुमा को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा. हुमा की कुछ प्रसिद्ध फिल्में ‘एक थी डायन, डी-डे, बदलापुर, डेढ़ इश्कियां, हाई वे, जॉली एल एल बी आदि है. हुमा ने आजतक जितनी भी फिल्मे की है, उनके अभिनय को दर्शकों और आलोचकों ने सराहा है, जिसके फलस्वरूप उन्हें कई पुरस्कार भी मिले है. हिंदी फिल्म के अलावा हुमा ने हॉलीवुड फिल्म ‘आर्मी ऑफ़ द डेड’ भी किया है.

हुमा जितनी साहसी और स्पष्टभाषी दिखती है, रियल लाइफ में बहुत इमोशनल और सादगी भरी है. हुमा की दोस्ती सभी बड़े स्टार और निर्देशक से रहती है. हुमा को केवल एक फिल्म करने की इच्छा थी, लेकिन अब कई फिल्मों और वेब सीरीज उनकी जर्नी में शामिल हो चुकी है. हुमा की वेब सीरीज ‘महारानी’ ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनी लाइव पर रिलीज हो चुकी है, जिसमें हुमा ने ‘रानी भारती’ की भूमिका निभाई है, जो बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी से प्रेरित है. इस वेब सीरीज की सफलता पर हुमा ने बात की, पेश है कुछ खास अंश.

सवाल-सफलता को हमेशा ही सेलिब्रेट किया जाता है, लेकिन इस कोविड महामारी में हर व्यक्ति अपने भविष्य को लेकर चिंतित है, आप इस माहौल में सफलता को कैसे सेलिब्रेट करना चाहती है?

सफलता और असफलता को मैं अपने जीवन में अधिक महत्व नहीं देती, क्योंकि सफलता के मूल में मैं वही लड़की हूँ, जो दिल्ली से अभिनय के लिए आई और सफल नहीं थी. मैं कोशिश करती हूँ कि मैं कभी न बदलूँ, जैसा पहली थी, अभी भी वैसी ही रहना चाहती हूँ. वेब सीरीज के सफल होने के पीछे अच्छी टीम, सही कहानी,सही निर्देशक,सही कैमरामैन,सही स्क्रिप्ट राइटर आदि सबकी समय और मेहनत का नतीजा है, जिसके फलस्वरूप कहानी में रियलिटी दिखी, जिसे दर्शक पसंद कर रहे है.

सवाल-इस भूमिका को निभाने में कितनी तैयारियां करनी पड़ी?

इसकी स्क्रिप्ट बहुत अच्छी तरह से लिखी गयी थी, इसलिए इसे पढ़ा, समझा और इसे छोटे-छोटे पार्ट में तैयारी की, क्योंकि ये महिला गांव की है और वहां से वह कभी पटना भी नहीं गयी है. गांव में वह कभी स्कूल नहीं गयी, साइन नहीं की है, काम में हमेशा फंसी रहती है. देखा जाय तो मेरी निजी जिंदगी इस भूमिका से बहुत दूर है. मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती जिसे आप जानते हो,उसे अभिनय में अनभिज्ञ रहने से था. मसलन मुझे हस्ताक्षर करना आता है, लेकिन अभिनय में कोशिश करने पर भी हस्ताक्षर नहीं कर पा रही हूँ. इस दृश्य को करना मेरे लिए बहुत चुनौती थी.

सवाल-क्या राजनीति में आपको आने की इच्छा है?

नहीं, मुझे कभी भी राजनीति पसंद नहीं. मैं दिल्ली की गार्गी कॉलेज में पढ़ती थी, जो लड़कियों की है. उस कॉलेज ने मुझे महिला सशक्तिकरण का सही अर्थ में सिखाया, क्योंकि लड़कियों से दोस्ती करना, उनके व्यवहार को समझना, फिमेल बोन्डिंग को देखना आदि सब महिला कॉलेज में अलग होता है. मुझे बेसिक ह्यूमैनिटी समझ में आती है, पर पॉलिटिक्स नहीं समझ में आती. कॉलेज में मैं ड्रामा सोसाइटी की प्रेसिडेंट थी, लेकिन उसमें कोई चुनाव नहीं होता था. (हंसती हुई) मैं कॉलेज की थोड़ी गुंडी अवश्य थी.

सवाल-कोविड महामारी में फिल्म इंडस्ट्री को बहुत अधिक लॉस हुआ है,थिएटर बंद है,ऐसे में ओटीटी प्लेटफॉर्म अच्छा साबित हो रही है, क्योंकि इस पर वेब सीरीज के साथ-साथ फिल्में भी रिलीज हो रही है, पर ओटीटी पर एक या डेढ़ घंटे की फिल्म को भी दर्शक देखना नहीं चाहते, जबकि वेब सीरीज, लंबी होने पर भी दर्शक उसे देखना पसंद करते है, इस बारें में आपकी सोच क्या है?

ये सही है कि कोरोना ख़त्म होने पर और सारे लोगों को वैक्सीन लगने के बाद ही हॉल खुल सकते है. थिएटर हॉल खुलने में अभी देर है, ऐसे में ओटीटी ही मनोरंजन का एकमात्र माध्यम रह गया है. ये सही है कि दर्शकों को आगे चलकर थिएटर हॉल में लाना मुश्किल होगा, लेकिन जिस तरह से माँ के हाथ का खाना सबको पसंद होता है, लेकिन कभी- कभी परिवार, दोस्तों और बॉय फ्रेंड के साथ, तैयार होकर बाहर जाने में भी अच्छा लगता है. असल में ये सब अलग-अलग अनुभव है, जो लाइफ में होना जरुरी है और लोग इसे एन्जॉय भी करते है. वैसे ही कभी घर पर बैठकर फिल्में देखना या कभी बाहर जाकर फिल्में देखने का अनुभव अलग होता है. दोनों ही अनुभव हमारे जीवन में अहमियत रखते है. मैं भी थिएटर हॉल खुलने का रास्ता देख रही हूँ, बड़े स्क्रीन पर एक बड़ा सा पॉपकॉर्न हाथ में लेकर खाते हुए बहुत सारे लोगों के साथ फिल्म देखने का मज़ा ही कुछ और है.

दो घंटे की फिल्म में कहानी के मुख्य पात्र को ऊपर-ऊपर से दिखाया जाता है. हीरो, हिरोइन दोनों मिले, गाना गाया, प्यार हो गया, मारपीट कुछ ऐसा ही चलता रहता है, लेकिन फिल्म के बाकी चरित्र, रीजन, कल्चर आदि को समझने का समय नहीं होता. सीरीज मजेदार लगने की वजह कहानी की भाषा, सहयोगी पात्र, संस्कृति, कलाकारों के भाव आदि सब दिखाने के लिए समय होता है. मसलन मैंने महारानी वेब सीरीज में वहां की रीतिरिवाज, संस्कृति, दही चिवडा आदि को मैंने नजदीक से देखा और अभिनय किया. असल में ऐसे किसी भी दृश्य से जब दर्शक खुद को जोड़ लेते है, तो उसे वह कहानी अच्छी लगने लगती है.

सवाल-आपने इंडस्ट्री में करीब 10 साल बिता चुकी है और बॉलीवुड, हॉलीवुड और साउथ की  फिल्मों में काम किया है, आप इस जर्नी को कैसे देखती है?

ये सही है कि मैंने एक सपना देखा है और अब वह धीरे-धीरे पूरा हो रहा है. मैंने हमेशा से अभिनेत्री बनना चाहती थी, लेकिन कैसे होगा पता नहीं था. समय के साथ-साथ मैं आगे बढ़ती गयी. मैं चंचल दिल की लड़की हूँ और अपने काम से अधिक संतुष्ट नहीं हूँ. मैं कलाकार के रूप में हर नयी किरदार को एक्स्प्लोर करना चाहती हूँ.

सवाल-क्या ओटीटी की वजह से आपको अधिक मौके मिल रहे है?

अभी तो थिएटर बंद है, ऐसे में ओटीटी ही एकमात्र माध्यम है. आगे मेरी फिल्में भी डिजिटल मिडिया पर रिलीज होंगी, क्योंकि अभी फिल्म बनाया जा सकता है, लेकिन थिएटर न खुलने से वह बेकार हो जाती है. मैंने दो सीरीज ही की है. लैला और महारानी, दोनों को करने में मुझे मज़ा बहुत आया. मुझे ही नहीं सभी कलाकारों को काम मिल रहा है.

सवाल-किसी भी महिला राजनेत्री अगर कम पढ़ीलिखी या अनपढ़ हो, तो उसे पुरुषों के मजाक कापात्र बनना पड़ता है, उनके काम को अधिक तवज्जों नहीं दी जाती,ऐसा आये दिन हर जगह महिलाओं के साथहोता रहता है, इसकी वजह क्या समझती है?

मेरे हिसाब से महिलाएं,चाहे किसी भी क्षेत्र में काम करती हो, पर्दे के सामने या पर्दे के पीछे हो, भेदभाव है, एक ग्लास सीलिंग है, सभी उसे तोड़ने की लगातार कोशिश कर रही है. कई बार ऐसा करने से समाज और दोस्त रोक देते है, तो कई बार महिला खुद अपनी सफलता से डर जाती है. ये एक प्रकार की कंडीशनिंग ही तो है. महिलाओं को ग्रो करने के लिए कहा जाता है, लेकिन एक दायरे के बाद उन्हें रोक दिया जाता है. वजह कुछ भी नहीं होती, लेकिन चल रहा है. वुमन एम्पावरमेंट में पुरुष और महिला में भेदभाव न करना,लड़के और लड़की को समान समझना आदि के बारें में बात की जाती है, लेकिन रिजल्ट कुछ खास नहीं दिखता. हालाँकि पहले से अभी कुछ सुधार हुआ है, लेकिन अभी और अधिक सुधार की जरुरत है. सभी महिलाएं यहाँ अपनी दादीयां, माँ, बहन, पड़ोसन आदि की वजह से ही आगे बढ़े है. मेरी जिंदगी में बहुत सारी औरतों ने मेरा साथ दिया है. महारानी शब्द को भी लोग. चिड में लड़की या महिला कहते है और ये नार्मल बात होती है.

 

सवाल-फादर डे के मौके पर पिता के साथ बिताये कुछ पल को शेयर करे, उनका आपके साथ बोन्डिंग कैसी रही?

मेरे पिता सलीम कुरैशी बहुत ही अच्छे सज्जन है, उन्होंने हमेशा मेहनत कर आगे बढ़ने की सलाह दी है. उन्होंने 4 साल पहले 10 रेस्तरां की श्रृंखला (Saleem’s) दिल्ली में खोला है. उन्होंने अपना व्यवसाय एक छोटे से ढाबे से शुरू किया था,लेकिन उनकी मेहनत और लगन से वह बड़ी हो चुकी है. उनके उस छोटे ढाबे की विश्वसनीय मुगलई पाकशैली सबको हमेशा पसंद आती थी. इन रेस्तरां की मुगलई भोजन आज भी प्रसिद्ध है.मेरी माँअमीना कुरैशी हाउसवाइफ है, लेकिन उन्होंने हमारे हर काम में सहयोग दिया है. मैंने अपनी पिता से कठिन श्रम, पैशन और अपने काम पर फोकस्ड रहने की सीख ली है.

सवाल-आपने दिल्ली में एक टेम्पररी हॉस्पिटल कोविड पेशेंट के लिए खोला है,ताकि कोरोना पेशेंट को सुविधा हो, उसके बारें में बतायें और एक नागरिक होने के नाते देश को क्या सीख मिली?

एक महीने पहले बहुत सारे लोग बीमार पड़ रहे थे और मुझे कईयों के फ़ोन बेड और ऑक्सीजन के लिए आ रहे थे, मैंने फंड इकठ्ठा किया और दिल्ली के तिलक नगर में 100 बेड कोरोना रोगियों के लिए और 70 ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर की व्यवस्था की है. अभी 50 प्रतिशत ही पैसा इकठ्ठा हुआ और कोशिश की जा रही है. इसके अलावा मैं वहां 40 बेड की एक सेटअप बच्चों के लिए करना चाहती हूँ, ताकि तीसरी लहर में बच्चों को सुरक्षित रखा जाय. मेरी समझ से मेडिकल के क्षेत्र में अब इन्वेस्ट करना चाहिए, ताकि जो लोग अस्पताल के बाहर एक बेड और ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे थे, वो दृश्य वापस हमें देखने को न मिले.

महामारी जब आती है, तब वह पैसा, अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच आदि कुछ नहीं देखती, ऐसे में देश को अपने लोगों को सुरक्षित रखने के लिए हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर और वैज्ञानिक शिक्षा पर इन्वेस्ट करने की जरुरत है. इसके लिए एक प्लानिंग के द्वारा इन्वेस्ट करना चाहिए. इसके अलावा इस महामारी में अनाथ हुए बच्चों को सही तरह से एस्टाब्लिश करना है, ताकि उनकी शिक्षा और हेल्थ का ध्यान रखा जा सकें.

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