मुक्ति का बंधन- भाग 2: अभ्रा क्या बंधनों से मुक्त हो पाई?

अब नाना की हिदायत होने लगी कि मैं रात को फोन न पकड़ूं, दोपहर तक न सोई रहूं, भले ही रात 3 बजे तक नींद आई हो. मेरा ड्रायर से गीले बाल सुखाना उन्हें गवारा न था जबकि होटल में हमें ऐसी ही हिदायतें दी गई थीं क्योंकि हमें ड्यूटी में गीले बाल ले कर आना मना था. पोशाक मेरी मरजी की मैं पहनूं तो नाना की सभ्यता में खलल पड़ता.

मतलब इन कोलाहलों ने मेरे अंतर्मन को सन्नाटे में तबदील कर दिया था. नाना अपनी जगह सही थे. और मैं अब बच्ची नहीं रह गई थी, यह सब नाना को समझाते रहने की एक बड़ी कठिन परिस्थिति से मैं जूझने को मजबूर थी.

अब बहुत हो चुका था. अंतर्मुखी होना मेरी खासीयत से ज्यादा नियति हो गई थी. प्यारइमोशन, सुखदुख अब मैं किसी से साझा नहीं करना चाहती थी. मुझे अपने पापा के आदेशोंनिर्देशों, नाना के अफसोसों, मां की प्यारभरी फिक्रों से नफरत होने लगी थी. मैं सब से दूर जाना चाहती थी. और तब जाने कैसे इस निर्बंध के बंधन में जकड़ कर यहां आ पहुंची थी. यह था उस की अभी तक की जिंदगी का इतिहास.

खुली खिड़की से कुहरा मेरी तरफ बढ़ता सा नजर आया, जैसे अब आ कर मुझे पूरी तरह जकड़ लेगा और मैं खो जाऊंगी इस घने से शून्य में.

ठंड से जकड़न बढ़ती जा रही थी मेरी. पीछे से जैसे कुहरे ने हाथ रखा हो मेरी पीठ पर. मैं सिहर कर पीछे मुड़ी. ओह, प्रबाल वापस आ गया था और अपना ठंडा बर्फीला हाथ मेरी पीठ पर रख मुझे बुला रहा था. वह बोला, ‘‘यह लो अदरक वाली चाय. मैं पी कर तुम्हारे लिए एक ले आया. इस लौज के नीचे क्या मस्त चाय बन रही है. यहां से दूर उस सामने पहाड़ी तक घने कुहरे की चादर बिछ गई है. चलो न, अब तैयार हो कर पैदल चलें पहाड़ी तक.’’

मैं ने चाय ली और उस से थोड़ी मोहलत मांगी. वह नीचे चला गया.

6 फुट का यह लंबा, गोरा, गठीला, रोबीला नौजवान मेरी एक बात पर मेरे साथ कहीं भी चला जाता है. मेरे लिए लोगों से कितनी ही बातें सुनता है और मैं कभी इस से ढंग से बात ही नहीं कर पाती. आज इस की इच्छा का मान रखना चाहिए मुझे.

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वूलन ट्राउजर पर ग्रे कलर की हूडी चढ़ा कर मैं नीचे आ गई. वह मेरे इंतजार में इधरउधर घूमते हुए अगलबगल के छोटे होटलों में लंच के लिए जानकारी जुटा रहा था. मेरी 5 फुट 4 इंच की हाइट और उस की 6 फुट की हाइट के साथ खड़े होते ही अपने ठिगनेपन के एहसास भर से बिदक कर मैं हमेशा उस से दूर जा खड़ी होती हूं और वह एक रहस्यमयी मुसकान के साथ मेरी ओर देख कर फिर दूसरी ओर देखने लगता है.

छत्तीसगढ़ के मनोरम जशपुर में क्रिसमस का यह दिसंबरी महीना गुलाबी खुमारी से पत्तेपत्ते को मदहोश किए था. पहाड़ी तक पहुंचने की सड़क बर्फीली लेकिन चमकीली हो रही थी. पास ही दोनों ओर खाईनुमा ढलानों में मकानों और पेड़ों की कतारें एकदूसरे से दूरियों के बावजूद जैसे लिपटे खड़े दिख रहे थे.

प्रकृति और मानव जिजीविषा का अनुपम समागम. जितना यहां तालमेल है मानव और प्रकृति के बीच, हम शहर के कारिंदों में कहां? रहना होता है बित्तेभर की दूरी में और दिल की खाई पाटे नहीं पाटी जाती.

प्रबाल आगे निकल रहा था. इस कुहेलिका ने उसे कुतूहल से भर दिया था और अकसर मेरा ध्यान रखने वाला प्रबाल आज कुदरत के नजारों में डूबा हुआ आगे बढ़ गया था.

मैं ने घड़ी देखी. सुबह के 8 बज रहे थे. कल आए थे हम दोनों यहां.

होटल मैरियट में क्रिसमस की भारी व्यस्तता के बाद 28 और 29 दिसंबर को हम दोनों को छुट्टी मिली थी.

20 साल की उम्र भारतीय समाज में शिशुकाल ही मानी जाती है, अपने परिवार और रिश्तेदारों में तो अवश्य. ऐसे में पीछे जरूर ही पहाड़ टूट कर ध्वंस लीला चलने की उम्मीद कर सकती हूं. वह भी जब बिना बताए एक लड़के के साथ मैं यहां आ गई हूं.

प्रबाल को मैं 2 सालों से जानती हूं. कालेज में भी वह मेरा अच्छा दोस्त रहा. और इस ट्रेनिंग में भी बराबर मुझे समझने का और साथ देने का जैसे बीड़ा ही उठा रखा था उस ने.

प्रबाल रुक कर मेरा इंतजार कर रहा था. पास जाते ही उस ने एक ऊंची पहाड़ी के पास गोल से एक सफेद रुई से मेघ की ओर इशारा किया. मैं ने देखा तो उस ने कहा, ‘‘ठीक तुम्हारी तरह है यह मेघ.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘तुम भी तो ऐसी ही सफेद रुई सी लगती हो कोमल, लेकिन अंदर दर्द का गुबार भरा हुआ, लगता है बरस पड़ोगी अभी. लेकिन बिन बरसे ही निकल जाती हो दूर बिना किसी से कुछ कहे.’’

मैं खुद को कठोर दिखाने का प्रयास करती रहती हूं, लेकिन सच, शरमा गई थी अभी, कैसे समझ पाता है वह इतना मुझे. उस के साथ मेरी दोस्ती बड़ी सरल सी है. ‘कुछ तो है’ जैसा होते भी जैसे कुछ नहीं है. उस के साथ क्यों आई, न जानते हुए भी मुझे उस के साथ ही आने की इच्छा हुई, जाने क्यों. वह भी तो कभी किसी बात पर मुझे मना नहीं करता.

‘‘एकदम अविश्वसनीय,’’ मैं अचानक बोल पड़ी तो वह अवाक हुआ, ‘‘क्या?’’

‘‘तुम्हारा यों बोलना.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कभी कहते नहीं ऐसे.’’

झेंपते हुए वह आगे बढ़ गया. मैं नहीं बढ़ पाई. वहीं रुकी रही. सोच रही थी पीछे क्या हो रहा होगा. नाना, पापा, मां ‘क्यों और क्यों नहीं’ के सवाल लिए सब बरसने को तैयार खड़े मिलेंगे.

77 साल की उम्र में कई तरह की शारीरिक, मानसिक परेशानियों की वजह से थकेहारे नाना अब भी सहर्ष उस युवा लड़की की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर थे, जो दबंग दामाद की व्रिदोहिणी बेटी थी और कभी भी उन की नपीतुली कटोरी में नहीं उतरने वाली थी. मेरे अचानक कहीं चले जाने की बात नाना को, मेरे पापा को बतानी पड़ी, कहीं मैं कुछ करगुजर जाऊं और पूरे परिवार को पछताना पड़े.

मैं ने अपना फोन खोला तो पापा के ढेरों संदेश दिखे, ज्यादातर धमकीभरे.

‘पापा, मैं जिऊंगी, मेरी सांसों को आप मेरी मां की तरह डब्बे में बंद नहीं कर सकते. भले ही कितनी ही माइनस हो जाए औक्सीजन मेरे लिए, मैं सांसें तो पूरी लूंगी, पापा,’ मैं ने सोचा.

मैं पीछे से जा कर प्रबाल के बराबर चलने लगी थी. हम एक पहाड़ी पर आ पहुंचे थे. दूधिया कुहरा छंट गया था और अब सूरज की चंपई किरणों ने हमें अपने आलिंगन में ले लिया था.

प्रबाल ने झिझकते हुए मेरा हाथ पकड़ा. मैं धड़कनों को महसूस कर रही थी. मैं ने उस के हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर उस के पीठ पर हाथ रखा और कहा, ‘‘प्रबाल, हम दोस्त क्यों हैं, कभी यह सवाल तुम ने सोचा है?’’

‘‘तुम यह सवाल क्यों सोचती हो?’’

‘‘जरूरी है प्रबाल, मेरे लिए यह सवाल जरूरी है. मैं खुद को बहुत अच्छी तरह जानती हूं, इसलिए.’’

‘‘मैं ने तो सोचा नहीं. बस.’’

‘‘अगर सोचोगे नहीं तो आगे चल कर शायद पछताना भी पड़े.’’

‘‘तुम तो अपने घर वालों के बारे में सबकुछ बता ही चुकी हो, मेरे बारे में भी जानती ही हो कि मेरे बड़े भाई इंजीनियर हैं, शादीशुदा हैं, बेंगलुरु में जौब करते हैं, मम्मीपापा दोनों सरकारी जौब में थे और अब दोनों ही रिटायर हो चुके हैं, काफी पैंशन मिलती है, घरबार है. मेरी होटल की पढ़ाई को नाक कटाने वाला मान कर वे मुझ से सीधेमुंह बात नहीं करते थे. तो खानदान से लगभग बिछड़ा हुआ मैं अपने बलबूते ताकत जुटाने की कोशिश कर रहा हूं और तब तक पापा के पैसे से फलफूल रहा हूं. क्या तुम्हें मेरे इन विशेषणों से कोई परेशानी है?’’

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‘‘इसलिए, इसलिए ही प्रबाल, मैं तुम से बात करना चाह रही थी. तुम ने लक्ष्य निर्धारित कर के दौड़ना शुरू कर दिया है लेकिन जिसे संग लिए तुम दौड़ में जीतना चाहते हो वह तो सैर पर निकली है. उसे तो तुम्हारे लक्ष्य से कोई वास्ता नहीं, प्रबाल. उसे अभी हवाओं के कतरों को अपनी झोली में भरने की फिक्र है.’’

‘‘समझता हूं अभ्रा. लेकिन मुझे तुम्हारे साथ की आदत हो गई है. इसलिए नहीं कि तुम बहुत खूबसूरत, मासूम, गोरी और स्लिम हो या तुम अपने पापा की इकलौती हो, या तुम्हारा ब्यूटी सैंस बिंदास है, बल्कि इसलिए कि हम दोनों की सोच में बहुत अंतर नहीं, हम एकदूसरे को एकदूसरे पर थोपते नहीं. और हम समानांतर साथ चल सकते हैं बहुत दूर, इसलिए.’’

‘‘पर उम्मीद के बंधन में मैं नहीं बंध सकती प्रबाल. मैं खरा उतरने से आजिज आ गई हूं. भूल जाओ मुझे और जिन पलों में जब तक साथ हैं उतने में ही जीने दो मुझे.’’

प्रबाल मुझे अपलक देखता रहा. सूरज की भरपूर रोशनी के बावजूद सारे कुहरे उस के चेहरे पर ही आ कर जम गए थे जैसे. हम वापसी में सारे रास्ते चुप रहे और अपने कमरे में आ कर कुछ देर अपनेअपने पलंग पर लेटे रहे.

हम थक कर सो तो गए थे लेकिन हमारे अंदर भी एक कोलाहल था और बाहर भी.

कोलकाता वापस जा कर इस कोलाहल ने मेरे जीवन में भारी संघर्ष का रूप ले लिया. एक लड़के के साथ भागी हुई लड़की फिर से वापस आई है. यह तो भारतीय समाज में कलंक ही नहीं, मौत के समान दंडनीय है. भला हो कानून का जो अंधा है, इसलिए सारे पक्षों को देख पाता है, वरना आंख वालों से इस की उम्मीद नहीं.

मांपापा दोनों इस बीच नाना के पास आ गए थे और पापा अपने मोरचे पर तहकीकात में मुस्तैद रहते हुए भी अपनी कटी नाक के लिए मुझ पर जीभर लानत भेज रहे थे.

नाना ने आते ही मुझे लड़के से बात कराने पर जोर देना चाहा. बात करा दूं तो शादी के लिए ठोकाबजाया जा सके.

अब किस तरह किसकिस को समझाऊं कि इन लोगों की नापतोल से बाहर भागी थी मैं, और साथ था एक समझने वाला दोस्त.

पापा ने इस बीच फरमान सुना दिया, ‘‘सब बंद. पढ़ाई के नाम पर सारे चोंचले बंद. तुम मेरे साथ वापस चल रही हो, एक लड़का देखूंगा और तुम्हें विदा कर दूंगा. सांप नहीं पाल सकता मैं.’’

‘क्या मुझे नाना की बात से हमदर्दी थी? या मैं पापा के आगे घुटने टेक दूं? नहीं पापा, मैं जिऊंगी मां के इतिहास को पलट कर. मैं जिऊंगी खुद की सांसों के सहारे,’ यह सब सोचती मैं सभी को अनदेखा कर अपनी ट्रेनिंग पूरी करने को होटल के लिए निकल गई. होटल पहुंच कर नाना को फोन कर दिया कि ट्रेनी के लिए बने होटल के बंकर में ही मैं रह जाऊंगी, पर वापस उन के घर अब नहीं जाऊंगी.

मुझे होटल से 4 हजार रुपए भत्ते के मिलते और होटल में ही रहनाखाना फ्री था. यह ट्रेनिंग पीरियड कट जाने के लिए काफी था. लेकिन बाद की बात भी माने रखने वाली थी.

मेरे बंकर में रह जाने से प्रबाल को मेरे पीछे के हालात का अनुमान हो गया था और उस की मेरे प्रति सहानुभूति से मुझे उन्हीं गृहस्थी के पचड़े की बदबू सी महसूस हो रही थी. प्रबाल मेरे सख्त रवैए के प्रति अचंभित था. आखिर लड़की को क्या जरा भी सहारा नहीं चाहिए?

नहीं प्रबाल, मैं अपनी सांसें खुद अपने ही संघर्ष की ऊष्मा से तैयार करूंगी.

होटल में रह जाने के मेरे निर्णय की गाज नाना और मां पर गिरी. पापा मां को बिना लिए ही लौट गए इस हिदायत के साथ कि नाना और मां मिल कर जितना बिगाड़ना है मुझे बिगाड़ते रहें, वे अब जिम्मेदार नहीं.

इधर नाना से भी और गिड़गिड़ाया न गया, मां तो पापा के आगे थीं ही गूंगी.

मां की दुर्गति देख यही लगा कि मैं पापा के आगे हथियार डाल दूं और पापा के ढूंढ़े कसाई के खूंटे से बंध जाऊं. लेकिन यह मेरी दुर्गति की इंतहा हो जाती और मां के भविष्य की सुधार की कोई गारंटी भी नहीं थी.

दूसरी मुश्किल थी अगले 6 महीने की कालेज फीस का इंतजाम करना, जो

50 हजार रुपए के करीब थी और यह नाना से लेने की कोशिश पापा के साथ बवाल को अगले पड़ाव तक ले जाने के लिए काफी थी. तो क्या करती, प्रबाल के फीस भर देने के अनुरोध को मजबूरी में मान जाती या पढ़ाई और जिंदगी छोड़ सामंती अहंकार के आगे फिर टूट कर गिर जाती?

साल के बीच से एजुकेशन लोन मिलना मुश्किल था. मैं ने प्रबाल से ही कहना बेहतर समझा. उस ने सालभर की फीस भर दी और मेरी तसल्ली के लिए इस बात पर राजी हो गया कि मैं कोर्स पूरा होते ही नौकरी कर के उस का कर्ज चुका दूंगी.

एक दिन मैं ट्रेनी की हैसियत से होटल की ड्यूटी के तहत रिसैप्शन काउंटर पर खड़ी थी. पापा एक 30 वर्षीय युवक के साथ अचानक कार से उतर कर मेरे पास आए.

पापा ने मुझे मेरे एचआर मैनेजर का मेल दिखाया. मेरे यहां से रवानगी का इंतजाम करा लिया था उन्होंने.

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मैं जल्द एचआर मैनेजर मैम से मिलने गई और वस्तुस्थिति का संक्षेप में खुलासा कर उन से सकारात्मक फीडबैक ले कर पापा के साथ दुर्गापुर लौट गई. हां, जातेजाते एक शर्त लगा दी कि मां वापस आएंगी, तभी आप का कहा सुनूंगी.

अजायबघर के उस लड़की घूरने वाले शख्स, जिसे पापा साथ लाए थे, के आगे पापा को हां कहना पड़ा.

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दूरी- भाग 1 : समाज और परस्थितियों से क्यों अनजान थी वह

लेखक- भावना सक्सेना

फरीदाबाद बसअड्डे पर बस खाली हो रही थी. जब वह बस में बैठी थी तो नहीं सोचा था कहां जाना है. बाहर अंधेरा घिर चुका था. जब तक उजाला था, कोई चिंता न थी. दोपहर से सड़कें नापती, बसों में इधरउधर घूमती रही. दिल्ली छोड़ना चाहती थी. जाना कहां है, सोचा न था. चार्ल्स डिकेन्स के डेविड कौपरफील्ड की मानिंद बस चल पड़ी थी. भूल गई थी कि वह तो सिर्फ एक कहानी थी, और उस में कुछ सचाई हो भी तो उस समय का समाज और परिस्थितियां एकदम अलग थीं.

वह सुबह स्कूल के लिए सामान्यरूप से निकली थी. पूरा दिन स्कूल में उपस्थित भी रही. अनमनी थी, उदास थी पर यों निकल जाने का कोई इरादा न था. छुट्टी के समय न जाने क्या सूझा. बस्ता पेड़ पर टांग कर गई तो थी कैंटीन से एक चिप्स का पैकेट लेने, लेकिन कैंटीन के पास वाले छोटे गेट को खुला देख कर बाहर निकल आई. खाली हाथ स्कूल के पीछे के पहाड़ी रास्ते पर आ गई. कहां जा रही है, कुछ पता न था. कुछ सोचा भी नहीं था. बारबार, बस, मां के बोल मस्तिष्क में घूम रहे थे. अंधेरा घिरने पर जी घबराने लगा था. अब कदम वापस मोड़ भी नहीं सकती थी. मां का रौद्र रूप बारबार सामने आ जाता था. उस गुस्से से बचने के लिए ही वह निकली थी. निकली भी क्या, बस यों लगा था जैसे कुछ देर के लिए सबकुछ से बहुत दूर हो जाना चाहती है, कोई बोल न पड़े कान में…

पर अब कहां जाए? उसे किसी सराय का पता न था. जो पैसे थे, उन से उस ने बस की टिकट ली थी. अंधेरे में बस से उतरने की हिम्मत न हुई. चुपचाप बैठी रही. कुछ ऐसे नीचे सरक गई कि आगे, पीछे से खड़े हो कर देखने पर किसी को दिखाई न दे. सोचा था ड्राइवर बस खड़ी कर के चला जाएगा और वह रातभर बस में सुरक्षित रह सकेगी.

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बाहर हवा में खुनक थी. अंदर पेट में कुलबुलाहट थी. प्यास से होंठ सूख रहे थे. पर वह चुपचाप बैठी रही. नानीमामी बहुत याद आ रही थीं. घर से कोई भी कहीं जाता, पूड़ीसब्जी बांध कर पानी के साथ देती थीं. पर वह कहां किसी से कह कर आई थी. न घर से आई थी, न कहीं जाने को आई थी. बस, चली आई थी. किसी के बस में चढ़ने की आहट आई. उस ने अपनी आंखें कस कर भींच लीं. पदचाप बहुत करीब आ गई और फिर रुक गई. उस की सांस भी लगभग रुक गई. न आंखें खोलते बन रहा था, न बंद रखी जा रही थीं. जीवविज्ञान में जहां हृदय का स्थान बताया था वहां बहुत भारी लग रहा था. गले में कुछ आ कर फंस गया था. वह एक पल था जैसे एक सदी. अनंत सा लगा था.

‘‘कौन हो तुम? आंख खोलो,’’ कंडक्टर सामने खड़ा था, ‘‘मैं तो यों ही देखने चढ़ गया था कि किसी का सामान वगैरा तो नहीं छूट गया. तुम उतरी क्यों नहीं? जानती नहीं, यह बस आगे नहीं जाएगी.’’ उस के चेहरे का असमंजस, भय वह एक ही पल में पढ़ गया था, ‘‘कहां जाओगी?’’

उस समय, उस के मुंह से अटकते हुए निकला, ‘‘जी…जी, मैं सुबह दूसरी बस से चली जाऊंगी, मुझे रात में यहीं बैठे रहने दीजिए.’’

‘‘जाना कहां है?’’

…यह तो उसे भी नहीं पता था कि जाना कहां है.

कुछ जवाब न पा कर कंडक्टर फिर बोला, ‘‘घर कहां है?’’

यह वह बताना नहीं चाहती थी, डर था वह घर फोन करेगा और उस के आगे की तो कल्पना से ही वह घबरा गई. बस, इतना ही बोली, ‘‘मैं सुबह चली जाऊंगी.’’

‘‘तुम यहां बस में नहीं रह सकती, मुझे बस बंद कर के घर जाना है.’’

‘‘मुझे अंदर ही बंद कर दें, प्लीज.’’

‘‘अजीब लड़की हो, मैं रातभर यहां खड़ा नहीं रह सकता,’’ वह झल्ला उठा था, ‘‘मेरे साथ चलो.’’

कोई दूसरा रास्ता न था उस के पास. इसलिए न कोई प्रश्न, न डर, पीछेपीछे चल पड़ी.

बसअड्डे तक पहुंचे तो कंडक्टर ने इशारा कर एक रिकशा रुकवाया और बोला, ‘‘बैठो.’’ रिकशा तेज चलने से ठंडी हवा लगने लगी थी. कुछ हवा, कुछ अंधेरा, वह कांप गई.

उस की सिहरन को सहयात्री ने महसूस करते हुए भी अनदेखा किया और फिर एक प्रश्न उस की ओर उछाल दिया, ‘‘घर क्यों छोड़ कर आई हो?’’

‘‘मैं वहां रहना नहीं चाहती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कोई मुझे प्यार नहीं करता, मैं वहां अनचाही हूं, अवांछित हूं.’’

‘‘सुबह कहां जाओगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कहां रहोगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कोई तो होगा जो तुम्हें खोजेगा.’’

‘‘वे सब खोजेंगे.’’

‘‘फिर?’’

‘‘परेशान होंगे, और मैं यही चाहती हूं क्योंकि वे मुझे प्यार नहीं करते.’’

‘‘तुम सब से ज्यादा किसे प्यार करती हो?’’

‘‘अपनी नानी से, मैं 3 महीने की थी जब मेरी मां ने मुझे उन के पास छोड़ दिया.’’

‘‘वे कहां रहती हैं?’’

‘‘मथुरा में.’’

‘‘तो मथुरा ही चली जाओ?’’

‘‘मेरे पास टिकट के पैसे नहीं हैं.’’ अब वह लगभग रोंआसी हो उठी थी.

वह ‘हूंह’ कह कर चुप हो गया था.

हवा को चीरता मोड़ों पर घंटी टुनटुनाता रिकशा आगे बढ़ता रहा और जब एक संकरी गली में मुड़ा तो वह कसमसा गई थी. आंखें फाड़ कर देखना चाहा था घर. घुप्प अंधेरी रात में लंबी पतली गली के सिवा कुछ न दिखा था. कुछ फिल्मों के खौफनाक दृश्यों के नजारे उभर आए थे. देखी तो उस ने ‘उमराव जान’ भी थी. आवाज से उस की तंद्रा टूटी.

‘‘बस भइया, इधर ही रोकना,’’ उस ने कहा तो रिकशा रुक गया और उन के उतरते ही अपने पैसे ले कर रिकशेवाला अंधेरे को चीरता सा उसी में समा गया था. वह वहां से भाग जाना चाहती थी. कंडक्टर ने उस का हाथ पकड़ एक दरवाजे पर दस्तक दी थी. सांकल खटखटाने की आवाज सारी गली में गूंज गई थी.

भीतर से हलकी आवाज आई थी, ‘‘कौन?’’

‘‘दरवाजा खोलो, पूनम,’’ और दरवाजा खोलते ही अंदर का प्रकाश क्षीण हो सड़क पर फैल गया. उस पर नजर पड़ते ही दरवाजा खोलने वाली युवती अचकचा गई थी. एक ओर हट कर उन्हें अंदर तो आने दिया पर उस का सारा वजूद उसे बाहर धकेलरहा था. दरवाजा एक छोटे से कमरे में खुला था, ठीक सामने एक कार्निस पर 2 फूलदान सजे थे, बीच में कुछ मोहक तसवीरें. एक कोने में एक छोटा सा रैक था जिस पर कुछ डब्बे थे, कुछ कनस्तर, एक स्टोव और कुछ बरतन, सब करीने से लगे थे. एक ओर छोटा पलंग जिस पर साफ धुली चादर बिछी थी और 2 तकिए थे. चादर पर कोई सिलवट तक न थी.

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कुल मिला कर कम आय में सुचारु रूप से चल रही सुघड़ गृहस्थी का आदर्श चित्र था. वह भी ऐसा ही चित्र बनाना चाहती थी. बस, अभी तक उस चित्र में वह अकेली थी. अकेली, हां यही तो वह कह रहा था. ‘‘पूनम, यह लड़की बसअड्डे पर अकेली थी. मैं साथ ले आया. सुबह बस पर बिठा दूंगा, अपनी नानी के घर मथुरा चली जाएगी.’ युवती की आंखों में शिकायत थी, गरदन की अकड़ नाराजगी दिखा रही थी. वह भी समझ रहा था और शायद स्थिति को सहज करने की गरज से बोला, ‘‘अरे, आज दोपहर से कुछ नहीं खाया, कुछ मिलेगा क्या?’’

युवती चुपचाप 2 थालियां परोस लाई और पलंग के आगे स्टूल पर रखते हुए बोली, ‘‘हाथमुंह धो कर खा लो, ज्यादा कुछ नहीं है. बस, तुम्हारे लिए ही रखा था.’’ दोपहर से तो उस ने भी कुछ नहीं खाया था किंतु इस अवांछिता से उस की भूख बिलकुल मर गई थी. घर का खाना याद हो आया, सब तो खापी कर सो गए होंगे, शायद. क्या कोई उस के लिए परेशान भी हो रहा होगा? जैसेतैसे एक रोटी निगल कर उस ने कमरे के कोने में बनी मोरी पर हाथ धो लिए और सिमट कर कमरे में पड़ी इकलौती प्लास्टिक की कुरसी पर बैठ गई.

पूनम नाम की उस युवती ने पलंग पर पड़ी चादर को झाड़ा और चादर के साथ शायद नाराजगी को भी. फिर जरा कोमल स्वर में बोली, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा, घर क्यों छोड़ आई?’’ ‘‘जी’’ कह कर वह अचकचा गई.

‘‘नहीं बताना चाहती, कोई बात नहीं. सो जाओ, बहुत थकी होगी.’’ शायद वह उस की आंखों के भाव समझ गई थी. एक ही पलंग दुविधा उत्पन्न कर रहा था. तय हुआ महिलाएं पलंग पर सोएंगी और वह आदमी नीचे दरी बिछा कर. वे दोनों दिनभर के कामों से थके, लेटते ही सो गए थे. हलके खर्राटों की आवाजें कमरे में गूंजने लगीं. उस की आंख में तो नींद थी ही नहीं, प्रश्न ही प्रश्न थे. ऐसे प्रश्न जिन का वह उत्तर खोजती रही थी सदा.

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मुक्ति का बंधन- भाग 3: अभ्रा क्या बंधनों से मुक्त हो पाई?

घर आ कर मेरे कुछ भी कर जाने की धमकी के आगे झुक कर पापा ने मां को बुलवा लिया. अब शठे शाठ्यम समाचरेत यानी जिस ने लाठी का प्रयोग किया उस के लिए लाठी का ही तो प्रयोग करना पड़ेगा, समान आचरण से ही क्रूर इंसान को सीख मिल सकेगी.

एक तरफ मुझे ट्रेनिंग में वापस जाने की हड़बड़ी थी. दूसरी ओर शादी वाले युवक से पीछा छुड़ाना था. और तो और, प्रबाल के लिए हमारे परिवार में एक स्थान बनाना था ताकि मुझे ले कर उस की कोशिश को महत्त्व मिल सके.

सब से पहले मैं ने प्रबाल से बात की. वह सहर्ष तैयार हो गया कि नाना और पापा की कड़ी को जोड़ने में वह मुख्य भूमिका में आएगा. धीरेधीरे उस की पहल पर नाना की प्रबाल के साथ जहां अच्छी ट्यूनिंग हो गई वहीं मेरे पापा के स्वभाव के प्रति भी उन में नर्म रुख आया.

इधर, एचआर मैनेजर मैम को उन की बात की याद दिलाते हुए मैं ने उन से मुझे जल्द ट्रेनिंग में वापस बुलाने को कहा. मैम मेरी आत्मनिर्भरता की सोच का स्वागत करती थीं और उन्होंने पापा पर जोर डाला कि वे मेरी ट्रेनिंग को पूरी करने दें. अड़ी तो मैं भी थी. उन्होंने भी सोचा कि एक बार यह पारंपरिक बिजनैसमैन फैमिली में चली गई तो यों ही इस का बेड़ा गर्क होने ही वाला है. कहीं ज्यादा रोक से बिगड़ गई तो लड़के वालों के सामने हेठी हो जाएगी. पापा ने मुझे ट्रेनिंग में जाने दिया. प्रबाल मुझ पर लगातार नजर रखे था.

एक दिन बड़ी घुटी सी महसूस कर रही थी मैं. माइग्रेन से सिर फटा जा रहा था मेरा. प्रबाल पास आया और मुझे देखता रहा, फिर कहा, ‘‘व्यर्थ ही परेशान होती हो. मैं हूं तुम्हारा दोस्त, क्यों इतना सोचती हो. तुम मेरे साथ होती हो तो मुझे खुशी होती है, और मैं यह तुम से कह कर और ज्यादा खुश होना चाहता हूं. तुम भी कहो, अगर मैं तुम्हारे किसी काम आ सकूं तो. इस से मुझे बेहद खुशी होगी. विचारों को खुला छोड़ो. इतना घुटती क्यों हो?’’

मैं, बस, रो पड़ी. मेरी स्थिति भांप कर प्रबाल ने आगे कहा, ‘‘मैं तुम्हारे साथ हूं अभ्रा, तुम चाहो तब भी और न चाहो, तब भी. जरूरी नहीं कि हम सामाजिक रीति से पतिपत्नी बनें कभी, लेकिन साथ होने का एहसास, जो समझे जाने का एहसास है, वह अनमोल है. अगर मेरा तुम से जुड़े रहना तुम्हें पसंद नहीं, तो बेझिझक तुम वह भी कह दो. हां, मैं तुम्हें भूलने की गारंटी तो नहीं दे सकूंगा, लेकिन तुम जैसा चाहोगी वैसा ही होगा.’’

आंखों में आंसू थे मेरे जरूर, लेकिन दिल में सुकून के फूल खिल उठे थे. सच, प्रबाल की सोच मेरी सोच के कितने करीब थी.

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जब तुम्हें कोई पसंद आता है तो तुम अपनी मरजी से उसे पसंद करते हो. फिर बंधन के नाम पर प्रेम की जगह उम्मीदों, आदेशों, निर्देशों और खुद की मनमानी की जंजीरों से क्यों बांध देते हो उसे? यह तो सामने वाले के दायरे को संकरा करना हुआ.

परिवार में पिता कमा कर लाता है, अपना दायित्व निभाता है. यह उस का बड़प्पन है. लेकिन बदले में परिवार के अन्य सदस्यों के विचारों और इच्छाओं का मान न करना, अपनी मनमानी करना, न्यायसंगत नहीं है. पैसे के बदले उसे ऐसे अधिकार तो नहीं मिल सकते. बच्चे पैदा करने में आप ने किसी पर दया तो नहीं की थी. विचारों के उथलपुथल के बीच मैं सुन्न सी पड़ गई थी.

प्रबाल ने कहा, ‘‘जो भी परेशानी हो, मुझे बताना. मैं हल निकालूंगा.’’

शादी वाले युवक का फोन नंबर कुछ सोच कर मैं ने पापा से यह कह कर रख लिया था कि शादी से पहले परिचय कर लूंगी फोन पर. बाद में मैं ने यह नंबर प्रबाल को दिया और हम ने इस पर मंथन करना शुरू किया.

प्रबाल इस बीच नाना के साथ अपनेपन की जमीन तैयार कर चुका था. अब वह वहां जा कर मेरे उन विचारों से मेरे घर वालों को अवगत करा रहा था जिन में अब तक किसी की दिलचस्पी नहीं थी. उस ने नाना से अपनी बात पूरी करते हुए कहा, ‘‘अहंकार पर मत लो नाना. मैं समझता हूं उसे, क्योंकि मैं ने समझने की कोशिश की है. आप लोग उस के ज्यादा करीबी जरूर हो, लेकिन बात किसी को महत्त्व देने की है. आप लोग खुद को और खुद की सोचों को ज्यादा महत्त्व देते हो और मैं अभ्रा को. इसलिए, मैं ज्यादा आसानी से उसे समझ पाता हूं.’’

नाना इतने भी अडि़यल नहीं थे, वे समझ गए और मुझे मदद देने को तैयार हो गए. शादी वाले युवक को फोन कर नाना ने कहा, ‘‘बेटा, आप का बहुत ही परंपरावादी परिवार है, लेकिन यह शादी आप को कोई सुख नहीं दे पाएगी. लड़की के पिता सिर्फ बेटी को सजा देने के लिए यह शादी करवा रहे हैं. लेकिन बेटी किसी दबाव या मनमानी सह कर नहीं जिएगी. वह स्वतंत्र सोच वाली आधुनिक लड़की है. शादी के बाद आप सब की जगहंसाई न हो. बाकी, आप की इच्छा.’’

लड़के ने तुरंत फोन रखने की कोशिश में कहा, ‘‘मैं नहीं करने वाला यह शादी, मुझे शुरू से ही शक था.’’

‘‘सुनो बेटे, सुनोसुनो, यह तुम मत कहना कि हम ने आगाह किया तुम्हें, क्योंकि लड़की के पापा के डर से हमें यह कहना पड़ेगा हम ने ऐसा नहीं कहा. और तुम प्रमाण देने लगे तो हमें फिर और दूसरा रास्ता अपनाना पड़ेगा. आप लोग लड़के वाले हो, लड़की के बारे में पता करना आप का हक है. इसी लिहाज से कह देना कि आप को लड़की जमी नहीं.’’

‘‘हां, कह दूंगा.’’

बात शांति से खत्म. पापा को जब सुनने में आया कि होटल मैनेजमैंट पढ़ने वाली लड़की खानदानी बहू नहीं बन सकती और इसलिए रिश्ता खत्म, तो पापा ने खूब लानत भेजी मुझे. मैं ने भी कह दिया, ‘‘अब तो कहीं ऊंची नौकरी कर लूं तभी आप की कटी नाक फिर से निकले. फीस जारी रखिए ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो कर आप का नाम रोशन करूं.’’

‘‘और लड़कों के साथ जो भाग जाती हो?’’

‘‘एक दोस्त है मेरा प्रबाल, लड़की की शक्ल नहीं है उस की. बस, इतना ही कुसूर है. थोड़ा तो आगे बढि़ए पापा.’’

इस बीच, प्रबाल नाना की पुरानी सोचों में काफी बदलाव ले आया था. वे अब नई पीढ़ी को समझने को तैयार रहने लगे थे. मैं ट्रेनिंग में ही थी और होटल का बंकर ही फिलहाल मेरा ठिकाना था.

मेरे जन्मदिन पर नाना ने अपने घर में एक छोटा सा आयोजन रखा और कुछ परिचितों को बुलाया. पार्टी के खास आकर्षण मेरे मांपापा थे जिन्हें नाना ने अपनी वाकपटुता से आने के लिए राजी कर लिया था. निसंदेह इस में प्रबाल की दक्षता भी कम नहीं थी.

प्रबाल का मानना था कि तोड़ने में हम जितनी ऊर्जा गंवाते हैं, जोड़ने में उतनी ही ऊर्जा क्यों न गंवा कर देखा जाए. जिंदगी को खूबसूरती से जिया जाए तो दुनिया की सुंदरता को हम शिद्दत से महसूस कर सकते हैं.

प्रबाल और मेरी उपस्थिति में जब एक अच्छी पार्टी रात गए खत्म हुई तो नाना ने प्रबाल को रात हमारे साथ ही रुक जाने को कहा.

पापा का पहला सवाल, ‘‘अभी तक यहां क्यों है?’’ इशारा प्रबाल की ओर था उन का.

नाना ने कहा, ‘‘ताकि हम सब साथ हो सकें. कुछ देर रुक कर मेरी बात सुनो आकाश, किसी की कुछ न सुनना और अपना फरमान दूसरों पर थोप देना, तुम्हारी यह आदत तुम्हें दूसरों की नजर में गिरा रही है.’’

‘‘मैं आप का कोई ज्ञान नहीं सुनूंगा. आप बेटी के बाप हैं, उतना ही रहें.’’

‘‘बस पापा,’’ मैं कूद पड़ी थी बीच में, ‘‘पुराने ढकोसलों से पटी पड़ी आप की सोच और उन निरर्थक सोचों पर आप की दूसरों की जिंदगी चलाने की कोशिश हमें ले डूबेगी. आप बुरी तरह अहंकार की चपेट में हैं, पैसे और रुतबे की धौंस से आप अपने परिवार को बांधे नहीं रख सकते. जिंदगीभर आप तानाशाही नहीं चला सकते. आप मेरा खर्च उठा कर अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, बदले में लेने की कुछ फिक्र न करें. बेटी का पिता कह कर किसे नीचे दिखा रहे हैं? आप क्या हैं?’’

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मेरी मां अवाक मुझे देख रही थीं. अचानक बोल उठीं, ‘‘यह प्रबाल की संगत का असर है, वरना सोच तो कब से थी हम में, लेकिन बोलने की हिम्मत कहां थी.’’

‘‘यही तो चाहते रहे पापा कि उन के आगे किसी की हिम्मत नहीं पड़े. उन्हें कभी हिम्मत हुई कि अपने अंदर के अहंकार के शिलाखंड को तोड़ें? कोशिश ही नहीं की कभी खुद को गलत कहने की, खुद की सोचों को मथने की.’’

पापा सिर झुकाए बैठे रहे जैसे सिर से पैर तक  ज्वालामुखी पिघल कर गिरतेगिरते बर्फ सा जमता जा रहा था. धीरेधीरे उन्होंने सिर उठाया और प्रबाल की ओर देखा और देखते रह गए. 6 फुट की हाइट, गोरा, शांत, सुंदर चेहरा, समझदार ऐसा कि सब को साथ लिए चलने का हुनर हो जिस में, अच्छा परिवार, लेकिन नौकरीकैरियर? होटल? नहींनहीं.

पापा अभी कुछ नकारात्मक कह पड़ते, इस से पहले मैं ने कमान संभाल ली, ‘‘पापा, अभी मुझे काफी कुछ करना है, दुनिया को अपने सिरे से ढूंढ़ना है, इसलिए नहीं कि मैं मनमानी करना चाहती हूं, बल्कि इसलिए क्योंकि मुझे खुद को खुद के अनुसार गढ़ना है किसी अन्य के अनुसार नहीं.

‘‘मेरे खयाल से प्रबाल अगर होटल लाइन में है तो यह उस की खुद की मरजी है, किसी और की मरजी की गुलामी कर के आप के अनुसार किसी खानदानी लाइन जैसे कि डाक्टरी या इंजीनियरिंग में जाता और अपना परफौर्मैंस खराब करता तो क्या वह किसी काम का होता?’’

तुरंत मां ने कहा, ‘‘हम प्रबाल को अपना समझते हैं. यह हमेशा हमारे परिवार के साथ खड़ा रहा है. मेरे हिसाब से आकाश, आप भी समझ रहे होंगे. हम इसे अपने लिए बांध कर रख लेते हैं. अभ्रा को पढ़ने देते हैं.’’

पापा ने पहली बार खुलेदिल से प्रबाल की ओर देखा, फिर मां से कहा, ‘‘ठीक है.’’

ये दो शब्द उपस्थित सारे लोगों की सांसों में सुगंधित, मीठी बयार भर गए.

प्रबाल समझ गया था कि उसे राजगद्दी मिल चुकी है लेकिन उसे राजगद्दी से ज्यादा ‘मैं’ चाहिए थी. वह मेरी भावनाओं को अच्छी तरह समझता था.

उस ने कहा, ‘‘मां, मैं वचन देता हूं मैं आप सब का ही हूं और रहूंगा. मैं अभ्रा को छोड़ कर कहां जाऊंगा? मगर उसे खुल कर जीने दें. उसे जब जैसे मेरे साथ आना हो, आए. यह मुक्ति का बंधन है, टूटेगा नहीं.’’

मैं प्रबाल की आंखों से उतर कर जाने कहां खो कर भी प्रबाल में ही समा गई. हां, यह मुक्ति का ही बंधन था जिस ने मुझे अदृश्य डोर में बांधे रखे था, बिना बंधन का एहसास दिए.

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शरशय्या- भाग 1 : त्याग और धोखे के बीच फंसी एक अनाम रिश्ते की कहानी

लेखक- ज्योत्स्ना प्रवाह

स्त्रियां अधिक यथार्थवादी होती हैं. जमीन व आसमान के संबंध में सब के विचार भिन्नभिन्न होते हैं परंतु इस संदर्भ में पुरुषों के और स्त्रियों के विचार में बड़ा अंतर होता है. जब कुछ नहीं सूझता तो किसी सशक्त और धैर्य देने वाले विचार को पाने के लिए पुरुष नीले आकाश की ओर देखता है, परंतु ऐसे समय में स्त्रियां सिर झुका कर धरती की ओर देखती हैं, विचारों में यह मूल अंतर है. पुरुष सदैव अव्यक्त की ओर, स्त्री सदैव व्यक्त की ओर आकर्षित होती है. पुरुष का आदर्श है आकाश, स्त्री का धरती. शायद इला को भी यथार्थ का बोध हो गया था. जीवन में जब जीवन को देखने या जीवन को समझने के लिए कुछ भी न बचा हो और जीवन की सांसें चल रही हों, ऐसे व्यक्ति की वेदना कितनी असह्य होगी, महज यह अनुमान लगाया जा सकता है. शायद इसीलिए उस ने आग और इलाज कराने से साफ मना कर दिया था. कैंसर की आखिरी स्टेज थी.

‘‘नहीं, अब और नहीं, मुझे यहीं घर पर तुम सब के बीच चैन से मरने दो. इतनी तकलीफें झेल कर अब मैं इस शरीर की और छीछालेदर नहीं कराना चाहती,’’ इला ने अपना निर्णय सुना दिया. जिद्दी तो वह थी ही, मेरी तो वैसे भी उस के सामने कभी नहीं चली. अब तो शिबू की भी उस ने नहीं सुनी. ‘‘नहीं बेटा, अब मुझे इसी घर में अपने बिस्तर पर ही पड़ा रहने दो. जीवन जैसेतैसे कट गया, अब आराम से मरने दो बेटा. सब सुख देख लिया, नातीपोता, तुम सब का पारिवारिक सुख…बस, अब तो यही इच्छा है कि सब भरापूरा देखतेदेखते आंखें मूंद लूं,’’ इला ने शिबू का गाल सहलाते हुए कहा और मुसकरा दी. कहीं कोई शिकायत, कोई क्षोभ नहीं. पूर्णत्वबोध भरे आनंदित क्षण को नापा नहीं जा सकता. वह परमाणु सा हो कर भी अनंत विस्तारवान है. पूरी तरह संतुष्टि और पारदर्शिता झलक रही थी उस के कथन में. मौत सिरहाने खड़ी हो तो इंसान बहुत उदार दिलवाला हो जाता है क्या? क्या चलाचली की बेला में वह सब को माफ करता जाता है? पता नहीं. शिखा भी पिछले एक हफ्ते से मां को मनाने की बहुत कोशिश करती रही, फिर हार कर वापस पति व बच्चों के पास कानपुर लौट गई. शिबू की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. आंखों में आंसू लिए वह भी मां का माथा चूम कर वापस जाने लगा.

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‘‘बस बेटा, पापा का फोन जाए तो फौरन आ जाना. मैं तुम्हारे और पापा के कंधों पर ही श्मशान जाना चाहती हूं.’’ एअरपोर्ट के रास्ते में शिबू बेहद खामोश रहा. उस की आंखें बारबार भर आती थीं. वह मां का दुलारा था. शिखा से 5 साल छोटा. मां की जरूरत से ज्यादा देखभाल और लाड़प्यार ने उसे बेहद नाजुक और भावनात्मक रूप से कमजोर बना दिया था. शिखा जितनी मुखर और आत्मविश्वासी थी वह उतना ही दब्बू और मासूम था. जब भी इला से कोई बात मनवानी होती थी, तो मैं शिबू को ही हथियार बनाता. वह कहीं न कहीं इस बात से भी आहत था कि मां ने उस की भी बात नहीं मानी या शायद मां के दूर होने का गम उसे ज्यादा साल रहा था.

आजकल के बच्चे काफी संवेदनशील हो चुके हैं, इस सामान्य सोच से मैं भी इत्तफाक रखता था. हमारी पीढ़ी ज्यादा भावुक थी लेकिन अपने बच्चों को देख कर लगता है कि शायद मैं गलत हूं. ऐसा नहीं कि उम्र के साथ परिपक्व हो कर भी मैं पक्का घाघ हो गया हूं. जब अम्मा खत्म हुई थीं तो शायद मैं भी शिबू की ही उम्र का रहा होऊंगा. मैं तो उन की मृत्यु के 2 दिन बाद ही घर पहुंच पाया था. घर में बाबूजी व बड़े भैया ने सब संभाल लिया था. दोनों बहनें भी पहुंच गई थीं. सिर्फ मैं ही अम्मा को कंधा न दे सका. पर इतने संवेदनशील मुद्दे को भी मैं ने बहुत सहज और सामान्य रूप से लिया. बस, रात में ट्रेन की बर्थ पर लेटे हुए अम्मा के साथ बिताए तमाम पल छनछन कर दिमाग में घुमड़ते रहे. आंखें छलछला जाती थीं, इस से ज्यादा कुछ नहीं. फिर भी आज बच्चों की अपनी मां के प्रति इतनी तड़प और दर्द देख कर मैं अपनी प्रतिक्रियाओं को अपने तरीके से सही ठहरा कर लेता हूं. असल में अम्मा के 4 बच्चों में से मेरे हिस्से में उन के प्यार व परवरिश का चौथा हिस्सा ही तो आया होगा. इसी अनुपात में मेरा भी उन के प्रति प्यार व परवा का अनुपात एकचौथाई रहा होगा, और क्या. लगभग एक हफ्ते से मैं शिबू को बराबर देख रहा था. वह पूरे समय इला के आसपास ही बना रहता था. यही तो इला जीवनभर चाहती रही थी. शिबू की पत्नी सीमा जब सालभर के बच्चे से परेशान हो कर उस की गोद में उसे डालना चाहती तो वह खीझ उठता, ‘प्लीज सीमा, इसे अभी संभालो, मां को दवा देनी है, उन की कीमो की रिपोर्ट पर डाक्टर से बात करनी है.’

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वाकई इला है बहुत अच्छी. वह अकसर फूलती भी रहती, ‘मैं तो राजरानी हूं. राजयोग ले कर जन्मी हूं.’ मैं उस के बचकानेपन पर हंसता. अगर मैं उस की दबंगई और दादागीरी इतनी शराफत और शालीनता से बरदाश्त न करता तो उस का राजयोग जाता पानी भरने. जैसे वही एक प्रज्ञावती है, बाकी सारी दुनिया तो घास खाती है. ठीक है कि घरपरिवार और बच्चों की जिम्मेदारी उस ने बहुत ईमानदारी और मेहनत से निभाई है, ससुराल में भी सब से अच्छा व्यवहार रखा लेकिन इन सब के पीछे यदि मेरा मौरल सपोर्ट न होता तो क्या कुछ खाक कर पाती वह? मौरल सपोर्ट शायद उपयुक्त शब्द नहीं है. फिर भी अगर मैं हमेशा उस की तानाशाही के आगे समर्पण न करता रहता और दूसरे पतियों की तरह उस पर हुक्म गांठता, उसे सताता तो निकल गई होती उस की सारी हेकड़ी. लगभग 45 वर्ष के वैवाहिक जीवन में ऐसे कई मौके आए जब वह महीनों बिसूरती रही, ‘मेरा तो भविष्य बरबाद हो गया जो तुम्हारे पल्ले बांध दी गई, कभी विचार नहीं मिले, कोई सुख नहीं मिला, बच्चों की खातिर घर में पड़ी हूं वरना कब का जहर खा लेती.’ बीच में तो वह 3-4 बार महीनों के लिए गहरे अवसाद में जा चुकी है. हालांकि इधर जब से उस ने कीमोथैरेपी न कराने का निश्चय कर लिया था, और आराम से घर पर रह कर मृत्यु का स्वागत करना तय किया था, तब से वह मुझे बेहद फिट दिखाई दे रही थी. उस की  की धाकड़ काया जरूर सिकुड़ के बच्चों जैसी हो गई थी लेकिन उस के दिमाग और जबान में उतनी ही तेजी थी. उस की याददाश्त तो वैसे भी गजब की थी, इस समय वह कुछ ज्यादा ही अतीतजीवी हो गई थी. उम्र और समय की भारीभरकम शिलाओं को ढकेलती अपनी यादों के तहखाने में से वह न जाने कौनकौन सी तसवीरें निकाल कर अकसर बच्चों को दिखलाने लगती थी.

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अपनी ही दुश्मन- भाग 1 : कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

कविता भी एकदम गजब लड़की थी. उसे हर बात की जल्दी रहती थी. बचपन में उसे जितनी जल्दी खेल शुरू करने की रहती थी, उतनी ही जल्दी उस खेल को खत्म कर के दूसरा शुरू करने की रहती थी. लड़कों को तो बेवकूफ बना कर वह खूब खुश होती थी. युवा होने पर लड़कों की टोली उस के इर्दगिर्द घूमा करती थी. उस टोली में हर महीने एकदो सदस्य बढ़ जाते थे. कविता उन से खुल कर बातें करती थी. लेकिन उस की यही स्वच्छंदता उस के वैवाहिक जीवन में बाधक बन गई थी.

बचपन गया, किशोरावस्था आई, तब तक तो सब कुछ ठीक था. लेकिन जवानी की ड्यौढ़ी पर कदम रखते ही उसे जीवन के कठोर धरातल पर उतरना पड़ा. उस की शादी सुरेश के साथ कर दी गई. भूल या गलती किस की थी, यह तो नहीं पता, लेकिन एक दिन कविता अपने बेटे मोनू को गोद में थामे, हाथ में ट्रौली बैग खींचती आंगन में आ खड़ी हुई.

आंगन के तीनों ओर कमरे बने थे. आवाज सुनते ही तीनों ओर से दादी, बड़की अम्मा, छोटी अम्मा, भाभी, पापा और चचेरे भाईबहन बाहर निकल कर आंगन में एकत्र हो गए. कविता की शादी को अभी कुल डेढ़ साल ही हुआ था. उसे इस तरह आया देख कर सभी हैरत में थे. खुशी किसी के चेहरे पर नहीं थी. मम्मी पापा ने घबरा कर एक साथ पूछा, ‘‘क्या हुआ बिटिया, तू इस तरह…?’’

‘‘इसे संभालो.’’ कविता मोनू को मां की गोद में थमाते हुए बोली, ‘‘मैं अब सुरेश के साथ वापस नहीं जा सकती.’’ इसी के साथ वह ट्रौली बैग को आंगन में ही छोड़ कर एक कमरे की ओर बढ़ गई.

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‘‘अरी चुप कर, जो मुंह में आया बक दिया. शर्म नहीं आती अपने मर्द का नाम लेते.’’ दादी ने नाराजगी दिखाई. लेकिन कविता ने उन की बात पर ध्यान नहीं दिया. भाभी ने मोनू को मां की गोद में से ले कर सीने से लगा लिया.

अंदर जाते ही कविता ने इस तरह जूड़ा खोला मानो चैन की सांस लेना चाहती हो. लंबे घने काले बाल उस की पीठ पर इस तरह पसर गए, जैसे उस के आधे अस्तित्व को ढंक लेना चाहते हों. सब लोग बाहर से अंदर आ गए थे. कविता पर सवालों की बौछार होने लगी. लेकिन कविता ने सब को 2 शब्दों में चुप करा दिया, ‘‘मुझे थकान भी है और भूख भी लगी है. पहले मैं नहाऊंगीखाऊंगी, उस के बाद बात करना.’’

चचेरा भाई कविता का ट्रौली बैग अंदर ले आया था. उस ने उठ कर बैग खोला और अपने कपड़े ले कर इस तरह नहाने के लिए बाथरूम में चली गई, जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो. इस बीच भाभी और बच्चे मोनू को हंसाने और खेलाने में लग गए थे. जबकि कविता के मातापिता दूसरे कमरे में एकदूसरे पर कविता को बिगाड़ने का दोषारोपण कर रहे थे.

तभी उन की बातें सुन कर दादी अंदर आ गई और आते ही बोलीं, ‘‘अरे चुप करो दोनों. तुम दोनों ने ही बिगाड़ा है इसे. मैं तो इस के लच्छन पहले ही जानती थी. सुरेश शादी न हुई होती तो अब तक पता नहीं क्या गुलखिलाती. न सुनने की तो आदत ही नहीं है इसे. हर जगह मनमानी करती है. देखो 20-22 साल की हो गई और ससुराल से बच्चा लटका कर मायके लौट आई.’’

‘‘अरे अम्मा, बेकार परेशान हो रही हो, सुरेश को यहीं बुला कर दोनों का समझौता करा देंगे.’’ मोहन ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘मियांबीबी में छोटेमोटे झगड़े तो चलते ही रहते हैं. कविता को तो जानती ही हो, सुरेश ने कुछ कह दिया होगा और यह तैश में आ कर भाग आई.’’

कविता नहा कर आ गई तो भाभी उस की बांह पकड़ कर छत पर ले गईं. ऊपर जा कर भाभी ने पूछा, ‘‘लाडो, दामादजी से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘अब तुम से क्या छिपाना भाभी, अब सुरेश मुझ से पहले की तरह प्यार नहीं करते.’’ कहते हुए कविता के आंसू छलक आए.

भाभी का मुंह खुला का खुला रह गया. बोली, ‘‘कहीं और चक्कर तो नहीं चल रहा?’’

‘‘वह बौड़म क्या चक्कर चलाएगा भाभी, फैक्ट्री से आते ही बेदम हो कर पड़ जाता है. बिलकुल बेकार नौकरी है उस की.’’ कविता रोष में बोली, ‘‘2 दिन सुबह की शिफ्ट, फिर 2 दिन शाम की और 2 दिन रात की शिफ्ट.’’

‘‘तो तुझे क्या परेशानी है.’’ भाभी ने कविता को समझाया, ‘‘दामादजी की नईनई नौकरी है. मेहनत कर रहे हैं तो आगे जा कर लाभ मिलेगा.’’

‘‘भाभी, तुम नहीं समझोगी. एक तो वैसे ही फैक्ट्री के उलटेसीधे टाइमटेबल हैं, ऊपर से मोनू को संभालने के लिए इतना वक्त देना पड़ता है. इस सब से ऊब गई हूं मैं. बिलकुल नीरस जिंदगी है, किस से कहूं. क्या कहूं?’’

भाभी आश्चर्य से देखती रह गईं. वह समझ कर भी कुछ नहीं समझ पा रही थीं. 5 फुट 5 इंच लंबी, इकहरे बदन और तीखे नैननक्श वाली उस की ननद कविता में कुछ ऐसा आकर्षण था कि उस के मोहपाश में कोई भी बंध सकता था. सुरेश के साथ भी यही हुआ था.

उस ने छत पर कई बार कविता और सुरेश को नैनों के दांवपेंच लड़ाते देखा था. इस के बाद उस ने ही दादी को समझाबुझा कर सुरेश और कविता की शादी करा दी थी. सुरेश था तो उस के पति का सहपाठी, पर कविता के चक्कर में उन्हीं के घर में घुसा रहता था.

काफी भागदौड़ के बाद सुरेश को एक कंपनी में नौकरी मिली थी. कंपनी की तरफ से ही रहने का भी इंतजाम हो गया था. कविता की नाजायज मांगों के लिए वह अपनी नौकरी खतरे में कैसे डाल सकता था. भाभी कविता की मांग सुन कर हैरत में रह गईं. सुरेश भला उस की चांदतारों की मांग के लिए रोजीरोटी की फिक्र कैसे छोड़ सकता था.

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‘‘क्या सोच रही हो भाभी, बडे़ भैया तो अभी भी तुम्हारे आगेपीछे घूमते हैं.’’ भाभी को चुप देख कर कविता ने हल्के व्यंग्य में कहा, ‘‘अच्छा हुआ जो तुम ने अभी बच्चे का बवाल नहीं पाला. अभी तो खूब मौजमजे की उम्र है.’’

कविता की बात का कोई जवाब दिए बिना भाभी सोचने लगी, ‘जब तक दादी जिंदा हैं, पूरा परिवार एक डोर में बंधा है, बाद में तो सब को अलगअलग ही हो जाना है. कविता अपना घर छोड़ कर आ गई तो सब के लिए मुसीबत बन जाएगी. अपनी आधी पढ़ाई छोड़ कर शादी के मंडप में बैठ गई थी और अब बच्चे को उठा कर चली आई, वह भी यह सोच कर कि अब वापस नहीं जाएगी. जरूर इस का कुछ न कुछ इलाज करना पड़ेगा.’

‘‘कहां खो गईं भाभी,’’ कविता ने भाभी की आंखों के सामने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘बड़के भैया की रोमांटिक यादों में खो गईं क्या?’’

‘‘नहीं, तुम्हारे बारे में सोच रही थी. तुम मोनू की वजह से परेशान हो न, ऐसा करो उसे यहीं छोड़ जाओ, हम पाल लेंगे. बस आगे से सावधानी रखना कि कहीं मोनू का भैया न आ जाए. रही बात सुरेश की तो उन की ड्यूटी दिन की हो या रात की, बाकी वक्त तुम्हारे साथ ही रहेंगे, तुम्हारे पास. समय बचे तो अपना ग्रैजुएशन पूरा कर लेना. तुम भी व्यस्त हो जाओगी.’’

भाभी की राय कविता को जंच गई. बात चली तो यह सुझाव घर में भी सब को पसंद आया. बहरहाल 2 दिनों बाद कविता मोनू को मायके में छोड़ कर सुरेश के पास चली गई. उस के जाने से सभी ने राहत की सांस ली.

देखतेदेखते 5 साल गुजर गए. इस बीच कविता कानपुर छोड़ कर लखनऊ आ गई. वहां उसे एक सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई थी. मोनू को भी उस ने अपने पास बुला लिया था. सुरेश शनिवार को उस के पास आता और रविवार को उस के साथ रह कर सोमवार सुबह वापस लौट जाता.

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कभी नहीं- भाग 1 : क्या गायत्री को समझ आई मां की असलियत

‘‘पहली नजर से जीवनभर जुड़ने के नातों पर विश्वास है तुम्हें?’’ सूखे पत्तों को पैरों के नीचे कुचलते हुए रवि ने पूछा.

कड़ककड़क कर पत्तों का टूटना देर तक विचित्र सा लगता रहा गायत्री को. बड़ीबड़ी नीली आंखें उठा कर उस ने भावी पति को देखा, ‘‘क्या तुम्हें विश्वास है?’’

गायत्री ने सोचा, उस के प्रेम में आकंठ डूब चुका युवा प्रेमी कहेगा, ‘है क्यों नहीं, तभी तो संसार की इतनी लंबीचौड़ी भीड़ में बस तुम मिलते ही इतनी अच्छी लगीं कि तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना ही शून्य हो गई.’ चेहरे पर गुलाबी रंगत लिए वह कितना कुछ सोचती रही उत्तर की प्रतीक्षा में, परंतु जवाब न मिला.तनिक चौंकी गायत्री, चुप रवि असामान्य सा लगा उसे. सारी चुहलबाजी कहीं खो सी गई थी जैसे. हमेशा मस्त बना रहने वाला ऐसा चिंतित सा लगने लगा मानो पूरे संसार की पीड़ा उसी के मन में आ समाई हो.

उसे अपलक निहारने लगा. एकबारगी तो गायत्री शरमा गई. मन था, जो बारबार वही शब्द सुनना चाह रहा था. सोचने लगी, ‘इतनी मीठीमीठी बातों के लिए क्या रवि का तनाव उपयुक्त है? कहीं कुछ और बात तो नहीं?’ वह जानती थी रवि अपनी मां से बेहद प्यार करता है. उसी के शब्दों में, ‘उस की मां ही आज तक उस का आदर्श और सब से घनिष्ठ मित्र रही हैं. उस के उजले चरित्र के निर्माण की एकएक सीढ़ी में उस की मां का साथ रहा है.’एकाएक उस का हाथ पकड़ लिया गायत्री ने रोक कर वहीं बैठने का आग्रह किया. फिर बोली, ‘‘क्या मां अभी तक वापस नहीं आईं जो मुझ से ऐसा प्रश्न पूछ रहे हो? क्या बात है?’’

रवि उस का कहना मान वहीं सूखी घास पर बैठ गया. ऐसा लगा मानो अभी रो पड़ेगा. अपनी मां के वियोग में वह अकसर इसी तरह अवश हो जाया करता है, वह इस सत्य से अपरिचित नहीं थी.

‘‘क्या मां वापस नहीं आईं?’’ उस ने फिर पूछा.

रवि चुप रहा.‘‘कब तक मां की गोद से ही चिपके रहोगे? अच्छीखासी नौकरी करने लगे हो. कल को किसी और शहर में स्थानांतरण हो गया तब क्या करोगे? क्या मां को भी साथसाथ घसीटते फिरोगे? तुम्हारे छोटे भाईबहन दोनों की जिम्मेदारी है उन पर. तुम क्या चाहते हो, पूरी की पूरी मां बस तुम्हारी ही हों? तुम्हारे पिता और उन दोनों का भी तो अधिकार है उन पर. रवि, क्या हो गया है तुम्हें?’’

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‘‘ऐसा लगता है, मेरा कुछ खो गया है. जी ही नहीं लगता गायत्री.  पता नहीं, मन में क्याक्या होता रहता है.’’

‘‘तो जा कर मां को ले आओ न. उन्हें भी तो पता है, तुम उन के बिना बीमार हो जाते हो. इतने दिन फिर वे क्यों रुक गईं?’’ अनायास हंस पड़ी गायत्री. धीरे से रवि का हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाने लगी, ‘‘शादी के बाद क्या करोगे? तब मेरे हिस्से का प्यार क्या मुझे मिल पाएगा? अगर मुझे ही तुम्हारी मां से जलन होने लगी तो? हर चीज की एक सीमा होती है. अधिक मीठा भी कड़वा लगने लगता है, पता है तुम्हें?’’

रवि गायत्री की बड़ीबड़ी नीली आंखों को एकटक निहारने लगा.

‘‘मां तो वे तुम्हारी हैं ही, उन से तुम्हारा स्नेह भी स्वाभाविक ही है लेकिन वक्त के साथसाथ उस स्नेह में परिपक्वता आनी चाहिए. बच्चों की तरह मां का आंचल अभी तक पकड़े रहना अच्छा नहीं लगता. अपनेआप को बदलो.’’

‘‘मैं अब चलूं?’’ एकाएक वह उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘कल मिलोगी न?’’

‘‘आज की तरह गरदन लटकाए ही मिलना है तो रहने दो. जब सचमुच मिलना चाहो, तभी मिलना वरना इस तरह मिलने का क्या अर्थ?’’ एकाएक गायत्री खीज उठी. वह कड़वा कुछ भी कहना तो नहीं चाहती थी पर व्याकुल प्रेमी की जगह उसे व्याकुल पुत्र तो नहीं चाहिए था न. हर नाते, हर रिश्ते की अपनीअपनी सीमा, अपनीअपनी मांग होती है.

‘‘नाराज क्यों हो रही हो, गायत्री? मेरी परेशानी तुम क्या समझो, अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’

‘‘क्या समझाना है मुझे, जरा बताओ? मेरी तो समझ से भी बाहर है तुम्हारा यह बचपना. सुनो, अब तभी मिलना जब मां आ जाएं. इस तरह 2 हिस्सों में बंट कर मेरे पास मत आना.’’गायत्री ने विदा ले ली. वह सोचने लगी, ‘रवि कैसा विचित्र सा हो गया है कुछ ही दिनों में. कहां उस से मिलने को हर पल व्याकुल रहता था. उस की आंखों में खो सा जाता था.’   भविष्य के सलोने सपनों में खोए भावी पति की जगह एक नादान बालक को वह कैसे सह सकती थी भला. उस की खीज और आक्रोश स्वाभाविक ही था. 2 दिन वह जानबूझ कर रवि से बचती रही. बारबार उस का फोन आता पर किसी न किसी तरह टालती रही. चाहती थी, इतना व्याकुल हो जाए कि स्वयं उस के घर चल कर आ जाए. तीसरे दिन सुबहसुबह द्वार पर रवि की मां को देख कर गायत्री हैरान रह गई. पूरा परिवार समधिन की आवभगत में जुट गया.

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‘‘तुम से अकेले में कुछ बात करनी है,’’ उस के कमरे में आ कर धीरे से मां बोलीं तो कुछ संशय सा हुआ गायत्री को.

‘‘इतने दिन से रवि घर ही नहीं आया बेटी. मैं कल रात लौटी तो पता चला. क्या वह तुम से मिला था?’’ ‘‘जी?’’ वह अवाक् रह गई, ‘‘2 दिन पहले मिले थे. तब उदास थे आप की वजह से.’’

‘‘मेरी वजह से उसे क्या उदासी थी? अगर उसे पता चल गया कि मैं उस की सौतेली मां हूं तो इस में मेरा क्या कुसूर है. लेकिन इस से क्या फर्क पड़ता है?

‘‘वह मेरा बच्चा है. इस में संशय कैसा? मैं ने उसे अपने बच्चों से बढ़ कर समझा है. मैं उस की मां नहीं तो क्या हुआ, पाला तो मां बन कर है न?’’ ऐसा लगा, जैसे बहुत विशाल भवन भरभरा कर गिर गया हो. न जाने मां कितना कुछ कहती रहीं और रोती रहीं, सारी कथा गायत्री ने समझ ली. कांच की तरह सारी कहानी कानों में चुभने लगी. इस का मतलब है कि इसी वजह से परेशान था रवि और वह कुछ और ही समझ कर भाषणबाजी करती रही.

‘‘उसे समझा कर घर ले आ, बेटी. सूना घर उस के बिना काटने को दौड़ता है मुझे. उसे समझाना,’’ मां आंसू पोंछते हुए बोलीं.

‘‘जी,’’ रो पड़ी गायत्री स्वयं भी, सोचने लगी, कहां खोजेगी उसे अब? बेचारा बारबार बुलाता रहा. शायद इस सत्य की पीड़ा को उसे सुना कर कम करना चाहता होगा और वह अपनी ही जिद में उसे अनसुना करती रही.

मां आगे बोलीं, ‘‘मैं ने उसे जन्म नहीं दिया तो क्या मैं उस की मां नहीं हूं? 2 महीने का था तब, रातों को जागजाग कर उसे सुलाती रही हूं. कम मेहनत तो नहीं की. अब क्या वह घर ही छोड़ देगा? मैं इतनी बुरी हो गई?’’

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‘‘वे आप से बहुत प्यार करते हैं मांजी. उन्हें यह बताया ही किस ने? क्या जरूरत थी यह सच कहने की?’’

‘‘पुरानी तसवीरें सामने पड़ गईं बेटी. पिता के साथ अपनी मां की तसवीरें दिखीं तो उस ने पिता से पूछ लिया, ‘आप के साथ यह औरत कौन है?’ वे बात संभाल नहीं पाए, झट से बोल पड़े, ‘तुम्हारी मां हैं.’

‘‘बहुत रोया तब. ये बता रहे थे. बारबार यही कहता रहा, ‘आप ने बताया क्यों? यही कह देते कि आप की पहली पत्नी थी. यह क्यों कहा कि मेरी मां भी थी.’

‘‘अब जो हो गया सो हो गया बेटी, इस तरह घर क्यों छोड़ दिया उस ने? जरा सोचो, पूछो उस से?’’

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दूरी- भाग 3 : समाज और परस्थितियों से क्यों अनजान थी वह

लेखक- भावना सक्सेना

बस चल पड़ी थी, वह दूर तक हाथ हिलाती रही. मन में एक कसक लिए, क्या वह फिर कभी इन परोपकारियों से मिल पाएगी? नाम, पता, कुछ भी तो न मालूम था. और न ही उन दोनों ने उस का नामपता जोर दे कर पूछा था. शायद जोर देने पर वह बता भी देती. बस, राह के दोकदम के साथी उस की यात्रा को सुरक्षित कर ओझल हो रहे थे.

बस खड़खड़ाती मंथर गति से चलती रही. वह 2 सीट वाली तरफ बैठी थी और उस के साथ एक वृद्धा बैठी थी. वह वृद्धा बस में बैठते ही ऊंघने लगी थी, बीचबीच में उस की गरदन एक ओर लुढ़क जाती. वह अधखुली आंखों से बस का जायजा ले, फिर ऊंघने लगती. और वह यह राहत पा कर सुकून से बैठी थी कि सहयात्री उस से कोई प्रश्न नहीं कर रहा. स्कूल के कपड़ों में उस का वहां होना ही किसी की उत्सुकता का कारण हो सकता था.

वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी. किनारे के पेड़ों की कतारें, उन के परे फैले खेत और खेतों के परे के पेड़ों को लगातार देखने पर आभास होता था जैसे कि उस पार और इस पार के पेड़ों का एक बड़ा घेरा हो जो बारबार घूम कर आगे आ रहा हो. उसे सदा से यह घेरा बहुत आकर्षक लगता था. मानो वही पेड़ फिर घूम कर सड़क किनारे आ जाते हैं.

खेतों के इस पार और उस पार पेड़ों की कतारें चलती बस से यों लगतीं मानो धरती पर वृक्षों का एक घेरा हो जो गोल घूमता जा रहा हो. उसे यह घेरा देखते रहना बहुत अच्छा लगता था. वह जब भी बस में बैठती, बस, शहर निकल जाने का बेसब्री से इंतजार करती ताकि उन गोल घूमते पेड़ों में खो सके. पेड़ों और खयालों में उलझे, अपने ही झंझावातों से थके मस्तिष्क को बस की मंथर गति ने जाने कब नींद की गोद में सरका दिया.

आंख खुली तो बस मथुरा पहुंच चुकी थी. बिना किसी घबराहट के उस ने अपनेआप को समेट कर बस से नीचे उतारा. एक पुलकभर आई थी मन में कि नानीमामी उसे अचानक आया देख क्या कहेंगी, नाराज होंगी या गले से लगा लेंगी, वह सोच ही न पा रही थी. रिकशेवाले को देने के पैसे नहीं थे उस के पास, पर नाना का नाम ही काफी था.

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इस शहर में कदम रखने भर से एक यकीन था शंकर विहार, पानी की टंकी के नजदीक, नानी के पास पहुंचते ही सब ठीक हो जाएगा. नानीनाना ने बहुत लाड़ से पाला थाउसे. बचपन में इस शहर की गलियों में खूब रोब से घूमा करती थी वह. नानाजी कद्दावर, जानापहचाना व बहुत इज्जतदार नाम थे. शहरभर में नाम था उन का. तभी आज बरसों बाद भी उन का नाम लेते ही रिकशेवाले ने बड़े अदब से उसे उस के गंतव्य पर पहुंचा दिया था.

रिकशेवाले से बाद में पैसे ले जाने को कह कर वह गली के मोड़ पर ही उतर गई थी और चुपचाप चलती हमेशा की भांति खुले दरवाजे से अंदर आंगन में दाखिल हो गई थी. शाम के 4 बज रहे थे शायद, मामी आंगन में बंधी रस्सी पर से सूखे कपड़े उतार रही थीं. उसे देखते ही कपड़े वहीं पर छोड़ कर उस की ओर बढ़ीं और उसे अपनी बांहों में कस कर भींच लिया और रोतेरोते हिचकियों के बीच बोलीं, ‘‘शुक्र है, तू सहीसलामत है.’’ वे क्यों रो रही हैं, उस की समझ में न आया था.

वह बरामदे की ओर बढ़ी तो मामी उस का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले जाते हुए बोलीं, ‘‘जरा ठहर, वहां कुछ लोग बैठे हैं.’’ नानी को इशारे से बुलाया. उन्होंने भी उसे देखते ही गले लगा लिया, ‘‘तू ठीक तो है? रात कहां रही? स्कूल के कपड़ों में यों क्यों चली आई?’’ न जाने वो कितने सवाल पूछ रही थीं.

उसे बस सुनाई दे रहा था, समझ नहीं आ रहा था. शायद एकएक कर के पूछतीं तो वह कुछ कह भी पाती. आखिरकार मामा ने सब को शांत किया और उस से कपड़े बदलने को कहा. वह नहाधो कर ताजा महसूस कर रही थी. लेकिन एक अजीब सी घबराहट ने उसे घेर लिया था. घर में कुछ बदलाबदला था. कुछ था जो उसे संशय के घेरे में रखे था.

आज वह यहां एक अजनबी सा महसूस कर रही थी, मानो यह उस का घर नहीं था. ऐसा माहौल होगा, उस ने सोचा नहीं था. सब के सब कुछ घबरा भी रहे थे. वह नानी के कमरे में चली गई. पीछेपीछे मामी चाय और नाश्ता ले कर आ गईं. तीनों ने वहीं चाय पी. मामी और नानी शायद उस के कुछ कहने का इंतजार कर रहे थे और वह उन के कुछ पूछने का. कहा किसी ने कुछ भी नहीं.

मामी बरतन वापस रखने गईं तो वह नानी की गोद में सिर टिका कर लेट गई. सुकून और सुरक्षा के अनुभव से न जाने कब वह सो गई. आंख खुली तो बहुत सी आवाजें आ रही थीं. और उन के बीच से मां की आवाज, रुलाईभरी आवाज सुनाई दे रही थी. वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, लगता था उस की सारी शक्ति किसी ने खींच ली हो. काश, वह यहां न आ कर किसी कब्रिस्तान में चली गई होती.

मां और मामा उस के व्यवहार और चले आने के कारणों का विश्लेषण कर रहे थे. उसे उठा देख मां जोरजोर से रोने लगी थी और उसे उठा कर भींच लिया था. तेल के लैंप की रोशनी के रहस्यमय वातावरण में सब उसे समझाने लगे थे, वापस जाने की मनुहार करने लगे थे. वह चीख कर कहना चाहती थी कि वापस नहीं जाएगी लेकिन उस के गले से आवाज नहीं निकल रही थी.

कस कर आंखें मींचे वह मन ही मन से मना रही थी कि काश, यह सपना हो. काश, तेल का लैंप बुझ जाए और वे सब घुप अंधेरे में विलीन हो जाएं. उस की आंख खुले तो कोई न हो. लेकिन वह जड़ हो गई थी और सब उसे समझा रहे थे. हां, सब उसे ही समझा रहे थे. वह तो वैसे भी अपनी बात समझा ही नहीं पाती थी किसी को. सब ने उस से कहा, उसे समझाया कि मां उस से बहुत प्यार करती है.

सब कहते रहे तो उस ने मान ही लिया. उस के पास विकल्प भी तो न था. वह मातापिता के साथ लौट आई. अब मां शब्दों में ज्यादा कुछ न कहती. बस, एक बार ही कहा था, हम तो डर गए हैं तुम से, तुम ने हमारा नाम खराब किया, सब कोई जान गए हैं. वह घर में कैद हो गई. कम से कम स्कूल में कोई नहीं जानता. प्रिंसिपल जानती थी, उसे एक दिन अपने कमरे में बुलाया था.

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अपने को दोस्त समझने को कहा था. वह न समझ सकी. दिन गुजरते रहे. बरस बीतते रहे. जिंदगी चलती रही. पढ़ाई पूरी हुई. नौकरी लगी. विवाह हुआ. पदोन्नति हुई. और आज जब उस के दफ्तर में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने छुट्टी मांगते हुए बताया कि वह अपनी एक वर्ष की बिटिया को नानी के घर में छोड़ना चाहती है तो ये बरसों पुरानी बातें उस के मस्तिष्क को यों झिंझोड़ गईं जैसे कल की ही बातें हों.

आज एक बड़े ओहदे पर हो कर, बेहद संजीदा और संतुलित व्यवहार की छवि रखने वाली, वह अपना नियंत्रण खोती हुई उस पर बरस पड़ी थी, ‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकती, सुवर्णा. यदि तुम्हारे पास बच्चे की देखभाल का समय नहीं था तो तुम्हें एक नन्हीं सी जान को इस दुनिया में लाने का अधिकार भी नहीं था. और जब तुम ने उसे जन्म दिया है तो तुम अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती.

‘‘नानी, मामी, दादी, बूआ सब प्यार कर सकती हैं, बेइंतहा प्यार कर सकती हैं पर वे मां नहीं हो सकतीं. आज तुम उसे छोड़ कर आओगी, वह शायद न समझ पाए. वह धीरेधीरे अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठा लेगी. खुश भी रहेगी और सुखी भी. तुम भी आराम से रह सकोगी. लेकिन तुम दोनों के बीच जो दूरी होगी उस का न आज तुम अंदाजा लगा सकती हो और न कभी उसे कम कर सकोगी. ‘‘जिंदगी बहुत जटिल है, सुवर्णा, वह तुम्हें और तुम्हारी बच्ची को अपने पेंचों में बेइंतहा उलझा देगी. उसे अपने से अलग न करो.’’ वह बिना रुके बोलती जा रही थी और सुवर्णा हतप्रभ उसे देखती रह गई.

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पापा जल्दी आ जाना- भाग 1: क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

‘‘पापा, कब तक आओगे?’’ मेरी 6 साल की बेटी निकिता ने बड़े भरे मन से अपने पापा से लिपटते हुए पूछा.

‘‘जल्दी आ जाऊंगा बेटा…बहुत जल्दी. मेरी अच्छी गुडि़या, तुम मम्मी को तंग बिलकुल नहीं करना,’’ संदीप ने निकिता को बांहों में भर कर उस के चेहरे पर घिर आई लटों को पीछे धकेलते हुए कहा, ‘‘अच्छा, क्या लाऊं तुम्हारे लिए? बार्बी स्टेफी, शैली, लाफिंग क्राइंग…कौन सी गुडि़या,’’ कहतेकहते उन्होंने निकिता को गोद में उठाया.

संदीप की फ्लाइट का समय हो रहा था और नीचे टैक्सी उन का इंतजार कर रही थी. निकिता उन की गोद से उतर कर बड़े बेमन से पास खड़ी हो गई, ‘‘पापा, स्टेफी ले आना,’’ निकिता ने रुंधे स्वर में धीरे से कहा.

उस की ऐसी हालत देख कर मैं भी भावुक हो गई. मुझे रोना उस के पापा से बिछुड़ने का नहीं, बल्कि अपना बीता बचपन और अपने पापा के साथ बिताए चंद लम्हों के लिए आ रहा था. मैं भी अपने पापा से बिछुड़ते हुए ऐसा ही कहा करती थी.

संदीप ने अपना सूटकेस उठाया और चले गए. टैक्सी पर बैठते ही संदीप ने हाथ उठा कर निकिता को बाय किया. वह अचानक बिफर पड़ी और धीरे से बोली, ‘‘स्टेफी न भी मिले तो कोई बात नहीं पर पापा, आप जल्दी आ जाना,’’ न जाने अपने मन पर कितने पत्थर रख कर उस ने याचना की होगी. मैं उस पल को सोचते हुए रो पड़ी. उस का यह एकएक क्षण और बोल मेरे बचपन से कितना मेल खाते थे.

मैं भी अपने पापा को बहुत प्यार करती थी. वह जब भी मुझ से कुछ दिनों के लिए बिछुड़ते, मैं घायल हिरनी की तरह इधरउधर सारे घर में चक्कर लगाती. मम्मी मेरी भावनाओं को समझ कर भी नहीं समझना चाहती थीं. पापा के बिना सबकुछ थम सा जाता था.

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बरामदे से कमरे में आते ही निकिता जोरजोर से रोने लगी और पापा के साथ जाने की जिद करने लगी. मैं भी अपनी मां की तरह जोर का तमाचा मार कर निकिता को चुप करा सकती थी क्योंकि मैं बचपन में जब भी ऐसी जिद करती तो मम्मी जोर से तमाचा मार कर कहतीं, ‘मैं मर गई हूं क्या, जो पापा के साथ जाने की रट लगाए बैठी हो. पापा नहीं होंगे तो क्या कोई काम नहीं होगा, खाना नहीं मिलेगा.’

किंतु मैं जानती थी कि पापा के बिना जीने का क्या महत्त्व होता है. इसलिए मैं ने कस कर अपनी बेटी को अंक में भींच लिया और उस के साथ बेडरूम में आ गई. रोतेरोते वह तो सो गई पर मेरा रोना जैसे गले में ही अटक कर रह गया. मैं किस के सामने रोऊं, मुझे अब कौन बहलानेफुसलाने वाला है.

मेरे बचपन का सूर्यास्त तो सूर्योदय से पहले ही हो चुका था. उस को थपकियां देतेदेते मैं भी उस के साथ बिस्तर में लेट गई. मैं अपनी यादों से बचना चाहती थी. आज फिर पापा की धुंधली यादों के तार मेरे अतीत की स्मृतियों से जुड़ गए.

पिछले 15 वर्षों से ऐसा कोई दिन नहीं गया था जिस दिन मैं ने पापा को याद न किया हो. वह मेरे वजूद के निर्माता भी थे और मेरी यादों का सहारा भी. उन की गोद में पलीबढ़ी, प्यार में नहाई, उन की ठंडीमीठी छांव के नीचे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करती थी. मुझ से आज कोई जीवन की तमाम सुखसुविधाओं में अपनी इच्छा से कोई एक वस्तु चुनने का अवसर दे तो मैं अपने पापा को ही चुनूं. न जाने किन हालात में होंगे बेचारे, पता नहीं, हैं भी या…

7 वर्ष पहले अपनी विदाई पर पापा की कितनी कमी महसूस हो रही थी, यह मुझे ही पता है. लोग समझते थे कि मैं मम्मी से बिछुड़ने के गम में रो रही हूं पर अपने उन आंसुओं का रहस्य किस को बताती जो केवल पापा की याद में ही थे. मम्मी के सामने तो पापा के बारे में कुछ भी बोलने पर पाबंदियां थीं. मेरी उदासी का कारण किसी की समझ में नहीं आ सकता था. काश, कहीं से पापा आ जाएं और मुझे कस कर गले लगा लें. किंतु ऐसा केवल फिल्मों में होता है, वास्तविक दुनिया में नहीं.

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उन का भोला, मायूस और बेबस चेहरा आज भी मेरे दिमाग में जैसा का तैसा समाया हुआ था. जब मैं ने उन्हें आखिरी बार कोर्ट में देखा था. मैं पापापापा चिल्लाती रह गई मगर मेरी पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मुझ से किसी ने पूछा तक नहीं कि मैं क्या चाहती हूं? किस के पास रहना चाहती हूं? शायद मुझे यह अधिकार ही नहीं था कि अपनी बात कह सकूं.

मम्मी मुझे जबरदस्ती वहां से कार में बिठा कर ले गईं. मैं पिछले शीशे से पापा को देखती रही, वह एकदम अकेले पार्किंग के पास नीम के पेड़ का सहारा लिए मुझे बेबसी से देखते रहे थे. उन की आंखों में लाचारी के आंसू थे.

मेरे दिल का वह कोना आज भी खाली पड़ा है जहां कभी पापा की तसवीर टंगा करती थी. न जाने क्यों मैं पथराई आंखों से आज भी उन से मिलने की अधूरी सी उम्मीद लगाए बैठी हूं. पापा से बिछुड़ते ही निकिता के दिल पर पड़े घाव फिर से ताजा हो गए.

जब से मैं ने होश संभाला, पापा को उदास और मायूस ही पाया था. जब भी वह आफिस से आते मैं सारे काम छोड़ कर उन से लिपट जाती. वह मुझे गोदी में उठा कर घुमाने ले जाते. वह अपना दुख छिपाने के लिए मुझ से बात करते, जिसे मैं कभी समझ ही न सकी. उन के साथ मुझे एक सुखद अनुभूति का एहसास होता था तथा मेरी मुसकराहट से उन की आंखों की चमक दोगुनी हो जाती. जब तक मैं उन के दिल का दर्द समझती, बहुत देर हो चुकी थी.

मम्मी स्वभाव से ही गरम एवं तीखी थीं. दोनों की बातें होतीं तो मम्मी का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो जाता और पापा का धीमा होतेहोते शांत हो जाता. फिर दोनों अलगअलग कमरों में चले जाते. सुबह तैयार हो कर मैं पापा के साथ बस स्टाप तक जाना चाहती थी पर मम्मी मुझे घसीटते हुए ले जातीं. मैं पापा को याचना भरी नजरों से देखती तो वह धीमे से हाथ हिला पाते, जबरन ओढ़ी हुई मुसकान के साथ.

मैं जब भी स्कूल से आती मम्मी अपनी सहेलियों के साथ ताश और किटी पार्टी में व्यस्त होतीं और कभी व्यस्त न होतीं तो टेलीफोन पर बात करने में लगी रहतीं. एक बार मैं होमवर्क करते हुए कुछ पूछने के लिए मम्मी के कमरे में चली गई थी तो मुझे देखते ही वह बरस पड़ीं और दरवाजे पर दस्तक दे कर आने की हिदायत दे डाली. अपने ही घर में मैं पराई हो कर रह गई थी.

एक दिन स्कूल से आई तो देखा मम्मी किसी अंकल से ड्राइंगरूम में बैठी हंसहंस कर बातें कर रही थीं. मेरे आते ही वे दोनों खामोश हो गए. मुझे बहुत अटपटा सा लगा. मैं अपने कमरे में जाने लगी तो मम्मी ने जोर से कहा, ‘निकी, कहां जा रही हो. हैलो कहो अंकल को. चाचाजी हैं तुम्हारे.’

मैं ने धीरे से हैलो कहा और अपने कमरे में चली गई. मैं ने उन को इस से पहले कभी नहीं देखा था. थोड़ी देर में मम्मी ने मुझे बुलाया.

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‘निकी, जल्दी से फे्रश हो कर आओ. अंकल खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’

मैं टेबल पर आ गई. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘निकी, कपड़े कौन बदलेगा?’

‘ममा, आया किचन से नहीं आई फिर मुझे पता नहीं कौन से…’

‘तुम कपड़े खुद नहीं बदल सकतीं क्या. अब तुम बड़ी हो गई हो. अपना काम खुद करना सीखो,’ मेरी समझ में नहीं आया कि एक दिन में मैं बड़ी कैसे हो गई हूं.

‘चलो, अब खाना खा लो.’

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दूरी- भाग 2 : समाज और परस्थितियों से क्यों अनजान थी वह

लेखक- भावना सक्सेना

वह समझ नहीं पाती थी कि मां उस से इतनी नफरत क्यों करती है. वह जो भी करती है, मां के सामने गलत क्यों हो जाता है. उस ने तो सोचा था मां को आश्चर्यचकित करेगी. दरअसल, उस के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता हुई थी और वह प्रथम आई थी. अगले दिन एक जलसे में प्रमाणपत्र और मैडल मिलने वाले थे. बड़ी मुश्किल से यह बात अपने तक रखी थी.

सोचा था कि प्रमाणपत्र और मैडल ला कर मां के हाथों में रखेगी तो मां बहुत खुश हो जाएगी. उसे सीने से लगा लेगी. लेकिन ऐसा हो न पाया था. मां की पड़ोस की सहेली नीरा आंटी की बेटी ऋतु उसी की कक्षा में पढ़ती थी. वह भूल गई थी कि उस रोज वीरवार था. हर वीरवार को उन की कालोनी के बाहर वीर बाजार लगता था और मां नीरा आंटी के साथ वीर बाजार जाया करती थीं.

शाम को जब मां नीरा आंटी को बुलाने उन के घर गई तो ऋतु ने उन्हें सब बता दिया था. मां तमतमाई हुई वापस आई थीं और आते ही उस के चेहरे पर एक तमाचा रसीद किया था, ‘अब हमें तुम्हारी बातें बाहर से पता चलेंगी?’

‘मां, मैं कल बताने वाली थी मैडल ला कर.’

‘क्यों, आज क्यों नहीं बताया, जाने क्याक्या छिपा कर रखती है,’ बड़ी हिकारत से मां ने कहा था.

वह अपनी बात तो मां को न समझा सकी थी लेकिन 13 बरस के किशोर मन में एक प्रश्न बारबार उठ रहा था- मां मेरे प्रथम आने पर खुश क्यों नहीं हुई, क्या सरप्राइज देना कोई बुरी बात है? छोटा रवि तो सांत्वना पुरस्कार लाया था तब भी मां ने उसे बहुत प्यार किया था. फिर अगले दिन तो मैडल ला कर भी उस ने कुछ नहीं कहा था. और कल तो हद ही हो गई थी.

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स्कूल में रसायन विज्ञान की कक्षा में छात्रछात्राएं प्रैक्टिकल पूरा नहीं कर सके थे तो अध्यापिका ने कहा था, ‘अपनाअपना लवण (सौल्ट) संभाल कर रख लेना, कल यही प्रयोग दोबारा दोहराएंगे.’ सफेद पाउडर की वह पुडि़या बस्ते के आगे की जेब में संभाल कर रख ली थी उस ने. कल फिर अलगअलग द्रव्यों में मिला कर प्रतिक्रिया के अनुसार उस लवण का नाम खोजना था और विभिन्न द्रव्यों के साथ उस की प्रतिक्रिया को विस्तार से लिखना था. विज्ञान के ये प्रयोग उसे बड़े रोचक लगते थे.

स्कूल में वापस पहुंच कर, खाना खा कर, होमवर्क किया था और रोजाना की तरह, ऋतु के बुलाने पर दीदी के साथ शाम को पार्क की सैर करने चली गई थी. वापस लौटी तो मां क्रोध से तमतमाई उस के बस्ते के पास खड़ी थी. दोनों छोटे भाई उसे अजीब से देख रहे थे. मां को देख कर और मां के हाथ में लवण की पुडि़या देख कर वह जड़ हो गई थी, और उस के शब्द सुन कर पत्थर- ‘यह जहर कहां से लाई हो? खा कर हम सब को जेल भेजना चाहती हो?’ ‘मां, वह…वह कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल का सौल्ट है.’ वह नहीं समझ पाई कि मां को क्यों लगा कि वह जहर है, और है भी तो वह उसे क्यों खाएगी. उस ने कभी मरने की सोची न थी. उसे समझ न आया कि सच के अलावा और क्या कहे जिस से मां को उस पर विश्वास हो जाए. ‘मां…’ उस ने कुछ कहना चाहा था लेकिन मां चिल्लाए जा रही थी, ‘घर पर क्यों लाई हो?’ मां की फुफकार के आगे उस की बोलती फिर बंद हो गई थी.

वह फिर नहीं समझा सकी थी, वह कभी भी अपना पक्ष सामने नहीं रख पाती. मां उस की बात सुनती क्यों नहीं, फिर एक प्रश्न परेशान करने लगा था- मां उस के बस्ते की तलाशी क्यों ले रही थी, क्या रोज ऐसा करती हैं. उसे लगा छोटे भाइयों के आगे उसे निर्वस्त्र कर दिया गया हो. मां उस पर बिलकुल विश्वास नहीं करती. वह बचपन से नानी के घर रही, तो उस की क्या गलती है, अपने मन से तो नहीं गई थी.

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13 बरस की होने पर उसे यह तो समझ आता है कि घरेलू परिस्थितियों के कारण मां का नौकरी करना जरूरी रहा होगा लेकिन वह यह नहीं समझ पाती कि 4 भाईबहनों में से नानी के घर में सिर्फ उसे भेजना ही जरूरी क्यों हो गया था. जिस तरह मां ने परिवार को आर्थिक संबल प्रदान किया, वह उस पर गर्व करती है.

पुराने स्कूल में वह सब को बड़े गर्व से बताती थी कि उस की मां एक कामकाजी महिला है. लेकिन सिर्फ उस की बारी में उसे अलग करना नौकरी की कौन सी जरूरत थी, वह नहीं समझ पाती थी और यदि उस के लालनपालन का इतना बड़ा प्रश्न था तो मां इतनी जल्दी एक और बेबी क्यों लाई थी और लाई भी तो उसे भी नानी के पास क्यों नहीं छोड़ा. काश, मां उसे अपने साथ ले जाती और बेबी को नानी के पास छोड़ जाती. शायद नानी का कहना सही था, बेबी तो लड़का था, मां उसे ही अपने पास रखेगी, भोला मन नहीं जान पाता था कि लड़का होने में क्या खास बात है.

वह चाहती थी नानी कहें कि इसे ले जा, अब यह अपना सब काम कर लेती है, बेबी को यहां छोड़ दे, पर न नानी ने कहा और न मां ने सोचा. छोटा बेबी मां के पास रहा और वह नानी के पास जब तक कि नानी के गांव में आगे की पढ़ाई का साधन न रहा. पिता हमेशा से उसे अच्छे स्कूल में भेजना चाहते थे और भेजा भी था.

वह 5 बरस की थी, जब पापा ने उसे दिल्ली लाने की बात कही थी. किंतु नानानानी का कहना था कि वह उन के घर की रौनक है, उस के बिना उन का दिल न लगेगा. मामामामी भी उसे बहुत लाड़ करते थे. मामी के तब तक कोई संतान न थी. उन के विवाह को कई वर्ष हो गए थे. मामी की ममता का वास्ता दे कर नानी ने उसे वहीं रोक लिया था. पापा उसे वहां नए खुले कौन्वैंट स्कूल में दाखिल करा आए थे. उसे कोई तकलीफ न थी. लाड़प्यार की तो इफरात थी. उसे किसी चीज के लिए मुंह खोलना न पड़ता था. लेकिन फिर भी वह दिन पर दिन संजीदा होती जा रही थी. एक अजीब सा खिंचाव मां और मामी के बीच अनुभव करती थी.

ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी, मां से दूर होती जा रही थी. मां के आने या उस के दिल्ली जाने पर भी वह अपने दूसरे भाईबहनों के समान मां की गोद में सिर नहीं रख पाती थी, हठ नहीं कर पाती थी. मां तक हर राह नानी से गुजर कर जाती थी. गरमी की छुट्टियों में मांपापा उसे दिल्ली आने को कहते थे. वह नानी से साथ चलने की जिद करती. नानी कुछ दिन रह कर लौट आती और फिर सबकुछ असहज हो जाता. उस ने ‘दो कलियां’ फिल्म देखी थी. उस का गीत, ‘मैं ने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा…’ उस के जेहन में गूंजता रहता था. नानी के जाने के बाद वह बालकनी के कोने में खड़ी हो कर गुनगुनाती, ‘चाहे मेरी जान जाए चाहे मेरा दिल जाए नानी मुझे मिल जाए.’

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…न जाने कब आंख लग गई थी, भोर की किरण फूटते ही पूनम ने उसे जगा दिया था. शायद, अजनबी से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहती थी. ब्रैड को तवे पर सेंक, उस पर मक्खन लगा कर चाय के साथ परोस दिया था और 4 स्लाइस ब्रैड साथ ले जाने के लिए ब्रैड के कागज में लपेट कर, उसे पकड़ा दिए थे. ‘‘न जाने कब घर पहुंचेगी, रास्ते में खा लेना.’’ पूनम ने एक छोटा सा थैला और पानी की बोतल भी उस के लिए सहेज दी थी. उस की कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि नम हो आई थी, अजनबी कितने दयालु हो जाते हैं और अपने कितने निष्ठुर.

जागते हुए कसबे में सड़क बुहारने की आवाजों और दिन की तैयारी के छिटपुट संकेतों के बीच एक रिकशा फिर उन्हें बसअड्डे तक ले आया था. उस अजनबी, जिस का वह अभी तक नाम भी नहीं जानती थी, ने मथुरा की टिकट ले, उसे बस में बिठा दिया था. कृतज्ञ व नम आंखों से उसे देखती वह बोली थी, ‘‘शुक्रिया, क्या आप का नाम जान सकती हूं?’’ मुसकान के साथ उत्तर मिला था, ‘‘भाई ही कह लो.’’

‘‘आप के पैसे?’’

‘‘लौटाने की जरूरत नहीं है, कभी किसी की मदद कर देना.’’

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अंतिम स्तंभ- भाग 1 : बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

‘‘तू यह बात किसी को मत बताना’’, वह मेरे हाथों को अपने हाथ में ले कर चिरौरी सी कर रही थी, ‘‘मेरी इतनी बात मान लेना.’’

मेरा मुंह उतर गया. ‘‘क्या रे, तू तो मेरा दिमाग ही खराब कर रही है. मैं तो तेरी दी यह साड़ी पहन कर दुनियाभर में मटकती फिरती हूं कि देखोदेखो सब लोग, मेरी प्यारी सहेली ने कितनी सुंदर साड़ी दी है. और तू कह रही है कि किसी को मत बताना.’’

‘‘तू मेरा नाम मत बताना, बस.’’

‘‘वाह, यह तो कोईर् भी पूछेगा कि इतनी सुंदर साड़ी किस सहेली ने दी, किस खुशी में दी.’’

‘‘तू तो जानती है रे, कितनी मुसीबत हो जाएगी मेरी.’’

‘‘जिंदगीभर मुसीबत ही रही तेरी तो…’’

मेरा मन सच में खराब हो गया. असल में मुझे याद आ गया. 35 बरस पहले भी सुमेधा ने मुझे साड़ी दी थी. ऐसे ही छिपा कर. ऐसे ही कहा था,  ‘किसी को मत बताना.’ अवसर था इस की पहली संतान, ‘पुत्र’ के जन्म का. सासससुर, जेठजेठानी, देवरदेवरानी, ढेर सारे रिश्तेदारों व अतिथियों से भरा घर. पूरे घर में आनंदोत्सव की धूम. वह मुझे अपने कमरे में ले गई थी. अपनी अलमारी खोल एक साड़ी निकाल कर मुझे पकड़ाते हुए बोली, ‘जल्दी से इसे अपने पर्स के भीतर डाल ले. अपने पैसे से खरीद कर लाई हूं. गुलाबी रंग तुझ पर बहुत खिलता है. जरूर पहनना इसे.’

‘तेरे पास पैसा ही कितना बचता है. सारी तनख्वाह तो तू अपनी सासुमां को देती है. अगर साड़ी देने का इतना ही मन था तो आज तो तोहफे में तुझे ढेरों साडि़यां मिली हैं. उन्हीं में से कोई मुझे दे देती.’

‘वे सब साडि़यां, तोहफे तो सासुमां को मिले हैं.’

‘बेटा तेरा हुआ है. लोगों ने तोहफे तुझे दिए हैं?’

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और आज, आज गृहप्रवेश का शुभ अवसर है. उसी बेटे ने बनवाया है शानदार मकान. मकान क्या है, शानदार शाही बंगला है. जाने कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर लाया है एक से एक बेशकीमती साजोसामान. भीतर से बाहर, हर ओर जगमगाते टाइल्स वाले फर्श. दमकती दीवारें. सामने अहाते में रंगबिरंगे फूलों से महकता बगीचा. पोर्टिको में खड़ी नईनवेली चमचमाती कार. बाजू में 2 दमदार दुपहिया वाहन दोनों पतिपत्नी के. रोबदार अलसेशियन कुत्ता. वैभव ही वैभव.

और मुझे याद आ रहा है उस का वह छोटा सा घर. ससुराल का संयुक्त परिवार वाला घर छूटने के बाद पति की नौकरी में जब वह घर बसाने आईर् थी, तो उसे यही घर मिला था. 2 छोटेछोटे कमरे, एक किचन. छोटा सा बरामदा. उसी से लगा निहायत छोटा सा बाथरूमटौयलेट. बरतन मांजने की जगह नहीं. न ही कपड़े सुखाने की.

हम सभी सहेलियों के वे दिन बड़ी भागदौड़ वाले थे. अपनी गृहस्थी से किसी तरह समय निकाल कर दोचार बार गई थी मैं उस के घर. एकदम अकबका जाती थी. इतने बड़े घर की लड़की, कैसे रहती है इस दड़बे जैसे छोटे से फ्लैट में. मगर वह खुश नजर आती.

तड़के सुबह से रात गए फुरसत ही नहीं उसे तो. मुंहअंधरे ही अपने नित्यकर्म से निबट, नाश्ता तैयार करना, चाय बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना. पति की तैयारी में मदद करना, रूमाल, पेन, डायरी रखना, सब के बैग में टिफिन रखना. सब से अंत में अपने पर्स में टिफिन बौक्स डाल मामूली सी साड़ी लपेट चप्पल फटकारती स्कूल भागना. शाम ढेर सारी कौपियों व सब्जीभाजी के थैलों से लदीफंदी जल्दीजल्दी घर लौटना.

पति, बच्चे सब उस का ही इंतजार करते बारबार दरवाजे पर आ रहे हैं. बाहर निकल कर ताक रहे हैं. उस की छाती खुशी से भर जाती. बच्चों को छाती से लगा झट से काम में जुट जाती. चायनाश्ता खाना. बीचबीच में बरतन साफ करना, पोंछा लगाते जाना. जिस पर सब की अलगअलग फरमाइशें. किसी को पकौड़े चाहिए, किसी को गुलगुले. सब की फरमाइशें पूरी करती सुख सागर में मगन.

ऐसे में कभी कोई सहेली, कोई रिश्तेदार, अतिथि आ जाए तो क्या पूछना. पति उस के भारी मजाकिया. छका डालते अपने मजाकों से सब को. नहले पर दहले भी पड़ते उन पर. वह देखदेख कर विभोर होती.

गृहस्थी का आनंददायक सुख. सुखों से भरे दिन बीतते गए. बच्चे बड़े होते गए. स्कूल, कालेज, नौकरीचाकरी, कामधंधे, शादीब्याह निबटते गए. नातीपोते भी आते गए.

व्यस्तताओं के इस दौर में हमारा संपर्क लंबे अरसे तक नहीं हो पाया. बरसों बाद उसे अपने ही शहर में, अपने ही दरवाजे पर देख कर मेरी तो चीख निकल गई. भरपूर गले मिल कर हम रो लिए. आंसू पोंछ कर मैं पूछने लगी, ‘कैसे आ गई तू अचानक यहां?’

‘मैं तो पिछले कई महीनों से यहां हूं. तेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी.’

‘मेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी? तेरा तो बचपन ही इन्हीं गलियों में बीता है. इसी सामने वाले घर में तो रहते थे तुम लोग.’

‘वह घर तो मेरे नानाजी का था न. शुरू में हम लोग नानाजी के घर में ही रहते थे. बाद में पिताजी भी नौकरी के साथ जगह बदलते रहे. नानाजी की मृत्यु के बाद यह घर बेच दिया गया. हमारा यहां आना भी छूट गया. एकदो बार तुम्हारे ही घर के शादीब्याह के कार्यक्रम में आए थे, तो तुम्हारे ही घर ठहरे थे.

‘अब तो पूरी गली बदल गई है. बिल्ंिडग ही बिल्ंिडग नजर आती हैं. पूरा शहर ही बदल गया है. मुझे तो अपनी गली ही पकड़ में नहीं आ रही थी. एक बुजुर्ग सज्जन से तेरे पिताजी का नाम ले कर पूछा तो वे बेचारे तेरे दरवाजे तक पहुंचा गए. यह भी बता गए कि यह घर तो एक अरसे से सूना पड़ा था, अब उन की लड़की आ कर रहने लगी है. अच्छा किया जो पति का साथ छूटने के बाद यहां आ गई. पिता के उजाड़ सूने घर में दिया जला दिया तूने तो. मगर यहां पुरानी यादें तो सताती होंगी.’

‘खूब. मगर तू बता रही थी कि तू पिछले कई महीने से यहां है. कहां ठहरी है?’

‘खैरागढ़ रोड पर. एक फ्लैट किराए पर लिया है. मेरा लड़का अब उसी तरफ मकान भी बनवा रहा है.’

‘मकान बनवा रहा है? इस शहर में, क्यों?’

‘बहू यहीं शिक्षाकर्मी हो गई है.’

‘और बेटा?’

‘बेटे का काम तो भागमभाग का है. बहू यहीं रहेगी. वह आताजाता रहेगा, यह सोच कर यहीं मकान बनवा रहा है.’

‘करता क्या है लड़का?’

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‘कंप्यूटर से संबंधित कुछ काम करता है. मैं आजकल के कामधंधे ठीक से समझती नहीं. महीने में 25 दिन तो दौरे पर रहता है. कभी कोलकाता, कभी लखनऊ, कभी धनबाद. जाने कहांकहां. घर आता है तो इतना थका रहता है कि मुझ से तो दो बोल भी नहीं बतिया पाता. अब मकान बनाने में भिड़ गया है तो और दम मारने की फुरसत नहीं.’

फिर वह मेरे घर अकसर ही आने लगी. हम बातें करते रहते. बचपन की, कालेज के दिनों की, अपनीअपनी गृहस्थी की. उस के पति अवकाशप्राप्ति के बाद ही सिधार गए थे. बताने लगी, ‘कह गए थे कि उन के भविष्य निधि वगैरह का पैसा दोनों बेटियों में बांट दिया जाए. मगर लड़के ने उन पैसों से मकान के लिए प्लौट खरीद लिया. कह दिया, बहनों को बाद में कमा कर दे देगा सारा पैसा. युद्ध स्तर पर चल रहा है मकान का काम. सारा पैसा उसी में झोंक रहा है. मुझ से स्पष्ट कह दिया, घर का खर्च तो अभी तुम्हें ही चलाना है, मां. वह नहीं कहता तो भी तो मैं करती ही थी अपनी खुशी से. महीनेभर का राशन, शाकसब्जियां, बच्चों की फरमाइशें, अभी तो पूरी पैंशन इसी सब में जा रही है.’

‘और बहू का पैसा?’

‘बाप रे, मैं उन पैसों के बारे में मुंह से नहीं बोल सकती. जाने क्या सोच कर बेटे ने जमीन का प्लौट भी उसी के नाम लिया है. सोचा होगा कुछ.’

और मैं गृहप्रवेश पर उस के घर गई तो दंग रह गई. यह तो राजामहाराजाओं का शाही बंगला लगता है. आखिर इतना पैसा इस के पास आया कहां से.

मगर वह गदगद थी, बोली, ‘‘बच्चा मेरा जिंदगीभर छोटे से दड़बे में रहा है न. सो, अपने सपनों का महल बनाया है. मेरे लिए इस से बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है. आज मेरा बहुत मन हो रहा है कि तुझे तेरी पसंद की साड़ी पहनाऊं.’’

मैं ने फिर वही बात कही कि तेरा इतना ही मन है तो जो इतनी साडि़यां तोहफे में आई हैं, मैं उन्हीं में से एक पसंद कर लेती हूं.

‘‘वे सब तो बहू को तोहफे  में मिली हैं. घर बहू का है. मैं तुझे अपनी तरफ से देना चाहती हूं. अपने पैसों से.’’

अगली शाम वह मुझे जिद कर दुकान ले गई. उस का मन रखने के लिए मैं ने एक साड़ी पसंद कर ली. अब वह कहने लगी कि, ‘‘किसी को बताना मत.’’

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उस की इस बात से मेरा मन खराब हो गया. इधर जब से वह वहां आई थी, उस की स्थिति देख कर मेरा मन खराब ही हो जाता था. उस का घर मेरे घर से काफी दूर था. उस तरफ रिकशा या कोई सवारी मिलती ही न थी. घर में 2 दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती. पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती. मेरे घर में बैठेबैठे घंटों हो जाते, न कोई उसे लेने आता, न खोजखबर लेता. बेटा घर में हो, तब भी नहीं. उलटे, मां को व्यंग्य करता, ‘तुम ही दौड़दौड़ कर सहेली के घर जाती हो. तुम्हारी सहेली तो कभी दर्शन ही नहीं देती.’

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