पापा जल्दी आ जाना- भाग 3: क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

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पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

घड़ी ने रात के 2 बजाए. मुझे लगा अब मुझे सो जाना चाहिए. मगर आंखों में नींद कहां. मैं ने अलमारी से पापा की तसवीर निकाली जिस में मैं मम्मीपापा के बीच शिमला के एक पार्क में बैठी थी. मेरे पास पापा की यही एक तसवीर थी. मैं ने उन के चेहरे पर अपनी कांपती उंगलियों को फेरा और फफक कर रो पड़ी, ‘पापा तुम कहां हो…जहां भी हो मेरे पास आ जाओ…देखो, तुम्हारी निकी तुम्हें कितना याद करती है.’

एक दिन सुबह संदीप अखबार पढ़तेपढ़ते कहने लगे, ‘जानती हो आज क्या है?’

‘मैं क्या जानूं…अखबार तो आप पढ़ते हैं,’ मैं ने कहा.

‘आज फादर्स डे है. पापा के लिए कोई अच्छा सा कार्ड खरीद लाना. कल भेज दूंगा.’

‘आप खुशनसीब हैं, जिस के सिर पर मांबाप दोनों का साया है,’ कहतेकहते मैं अपने पापा की यादों में खो गई और मायूस हो गई, ‘पता नहीं मेरे पापा जिंदा हैं भी या नहीं.’

‘हे, ऐसे उदास नहीं होते,’ कहतेकहते संदीप मेरे पास आ गए और मुझे अंक में भर कर बोले, ‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने उन्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. अखबारों में भी उन का विवरण छपवा दिया पर अब तक कुछ पता नहीं चला.’

मैं रोने लगी तो मेरे आंसू पोंछते हुए संदीप बोले थे, ‘‘अरे, एक बात तो मैं तुम को बताना भूल ही गया. जानती हो आज शाम को टेलीविजन पर एक नया प्रोग्राम शुरू हो रहा है ‘अपनों की तलाश में,’ जिसे एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेता होस्ट करेगा. मैं ने पापा का सारा विवरण और कुछ फोटो वहां भेज दिए हैं. देखो, शायद कुछ पता चल सके.’?

‘अब उन्हें ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है…इतने सालों में हमारी फोटो और उन के चेहरे में बहुत अंतर आ गया होगा. मैं जानती हूं. मुझ पर जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती,’ कह कर मैं वहां से चली गई.

मेरी आशाओं के विपरीत 2 दिन बाद ही मेरे मोबाइल पर फोन आया. फोन धर्मशाला के नजदीक तपोवन के एक आश्रम से था. कहने लगे कि हमारे बताए हुए विवरण से मिलताजुलता एक व्यक्ति उन के आश्रम में रहता है. यदि आप मिलना चाहते हैं तो जल्दी आ जाइए. अगर उन्हें पता चल गया कि कोई उन से मिलने आ रहा है तो फौरन ही वहां से चले जाएंगे. न जाने क्यों असुरक्षा की भावना उन के मन में घर कर गई है. मैं यहां का मैनेजर हूं. सोचा तुम्हें सूचित कर दूं, बेटी.

‘अंकल, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. बहुत एहसान किया मुझ पर आप ने फोन कर के.’

मैं ने उसी समय संदीप को फोन किया और सारी बात बताई. वह कहने लगे कि शाम को आ कर उन से बात करूंगा फिर वहां जाने का कार्यक्रम बनाएंगे.

‘नहीं संदीप, प्लीज मेरा दिल बैठा जा रहा है. क्या हम अभी नहीं चल सकते? मैं शाम तक इंतजार नहीं कर पाऊंगी.’

संदीप फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘ठीक है, आता हूं. तब तक तुम तैयार रहना.’

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कुछ ही देर में हम लोग धर्मशाला के लिए प्रस्थान कर गए. पूरे 6 घंटे का सफर था. गाड़ी मेरे मन की गति के हिसाब से बहुत धीरे चल रही थी. मैं रोती रही और मन ही मन प्रार्थना करती रही कि वही मेरे पापा हों. देर तो बहुत हो गई थी.

हम जब वहां पहुंचे तो एक हालनुमा कमरे में प्रार्थना और भजन चल रहे थे. मैं पीछे जा कर बैठ गई. मैं ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं और उस व्यक्ति को तलाश करने लगी जो मेरे वजूद का निर्माता था, जिस का मैं अंश थी. जिस के कोमल स्पर्श और उदास आंखों की सदा मुझे तलाश रहती थी और जिस को हमेशा मैं ने घुटन भरी जिंदगी जीते देखा था. मैं एकएक? चेहरा देखती रही पर वह चेहरा कहीं नहीं मिला, जो अपना सा हो.

तभी लाठी के सहारे चलता एक व्यक्ति मेरे पास आ कर बैठ गया. मैं ने ध्यान से देखा. वही चेहरा, निस्तेज आंखें, बिखरे हुए बाल, न आकृति बदली न प्रकृति. वजन भी घट गया था. मुझे किसी से पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. यही थे मेरे पापा. गुजरे कई बरसों की छाप उन के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. मैं ने संदीप को इशारा किया. आज पहली बार मेरी आंखों में चमक देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए.

भजन समाप्त होते ही हम दोनों ने उन्हें सहारा दे कर उठाया और सामने कुरसी पर बिठा दिया. मैं कैसे बताऊं उस समय मेरे होंठों के शब्द मूक हो गए. मैं ने उन के चेहरे और सूनी आंखों में इस उम्मीद से झांका कि शायद वह मुझे पहचान लें. मैं ने धीरेधीरे उन के हाथ अपने कांपते हाथों में लिए और फफक कर रो पड़ी.

‘पापा, मैं हूं आप की निकी…मुझे पहचानो पापा,’ कहतेकहते मैं ने उन की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं, जैसे बचपन में किया करती थी. प्रार्थना कक्ष के सभी व्यक्ति एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. वे सब हमारे पास जमा हो गए.

पापा ने धीरे से सिर उठाया और मुझे देखने लगे. उन की सूनी आंखों में जल भरने लगा और गालों पर बहने लगा. मैं ने अपनी साड़ी के कोने से उन के आंसू पोंछे, ‘पापा, मुझे पहचानो, कुछ तो बोलो. तरस गई हूं आप की जबान से अपना नाम सुनने के लिए…कितनी मुश्किलों से मैं ने आप को ढूंढ़ा है.’

‘यह बोल नहीं सकते बेटी, आंखों से भी अब धुंधला नजर आता है. पता नहीं तुम्हें पहचान भी पा रहे हैं या नहीं,’ वहीं पास खड़े एक व्यक्ति ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘क्या?’ मैं एकदम घबरा गई, ‘अपनी बेटी को नहीं पहचान रहे हैं,’ मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी.

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पापा ने अपना हाथ अचानक धीरेधीरे मेरे सिर पर रखा जैसे कह रहे हों, ‘मैं पहचानता हूं तुम को बेटी…मेरी निकी… बस, पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया हूं. मुझे माफ कर दो बेटी.’

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा था. अपार स्नेह देखा मैं ने उन की आंखों में. मैं कस कर उन से लिपट गई और बोली, ‘अब घर चलो पापा. अपने से अलग नहीं होने दूंगी. 15 साल आप के बिना बिताए हैं और अब आप को 15 साल मेरे लिए जीना होगा. मुझ से जैसा बन पड़ेगा मैं करूंगी. चलेंगे न पापा…मेरी खुशी के लिए…अपनी निकी की खुशी के लिए.’

पापा अपनी सूनी आंखों से मुझे एकटक देखते रहे. पापा ने धीरे से सिर हिलाया. संदीप को अपने पास खींच कर बड़ी कातर निगाहों से देखते रहे जैसे धन्यवाद दे रहे हों.

उन्होंने फिर मेरे चेहरे को छुआ. मुझे लगा जैसे मेरा सारा वजूद सिमट कर उन की हथेली में सिमट गया हो. उन की समस्त वेदना आंखों से बह निकली. उन की अतिभावुकता ने मुझे और भी कमजोर बना दिया.

‘आप लाचार नहीं हैं पापा. मैं हूं आप के साथ…आप की माला का ही तो मनका हूं,’ मुझे एकाएक न जाने क्या हुआ कि मैं उन से चिपक गई. आंखें बंद करते ही मुझे एक पुराना भूला बिसरा गीत याद आने लगा :

‘सात समंदर पार से, गुडि़यों के बाजार से, गुडि़या चाहे ना? लाना…पापा जल्दी आ जाना.’

पापा जल्दी आ जाना- भाग 2: क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

मम्मी अंकल की प्लेट में जबरदस्ती खाना डाल कर खाने का आग्रह करतीं और मुसकरा कर बातें भी कर रही थीं. मैं उन दोनों को भेद भरी नजरों से देखती रही तो मम्मी ने मेरी तरफ कठोर निगाहों से देखा. मैं समझ चुकी थी कि मुझे अपना खाना खुद ही परोसना पड़ेगा. मैं ने अपनी प्लेट में खाना डाला और अपने कमरे में जाने लगी. हमारे घर पर जब भी कोई आता था मुझे अपने कमरे में भेज दिया जाता था. मैं टीवी देखतेदेखते खाना खाती रहती थी.

‘वहां नहीं बेटा, अंकल वहां आराम करेंगे.’

‘मम्मी, प्लीज. बस एक कार्टून…’ मैं ने याचना भरी नजर से उन्हें देखा.

‘कहा न, नहीं,’ मम्मी ने डांटते हुए कहा, जो मुझे अच्छा नहीं लगा.

खाने के बाद अंकल उस कमरे में चले गए तथा मैं और मम्मी दूसरे कमरे में. जब मैं सो कर उठी, मम्मी अंकल के पास चाय ले जा रही थीं. अंकल का इस तरह पापा के कमरे में सोना मुझे अच्छा नहीं लगा. जाने से पहले अंकल ने मुझे ढेर सारी मेरी मनपसंद चाकलेट दीं. मेरी पसंद की चाकलेट का अंकल को कैसे पता चला, यह एक भेद था.

वक्त बीतता गया. अंकल का हमारे घर आनाजाना अनवरत जारी रहा. जिस दिन भी अंकल हमारे घर आते मम्मी उन के ज्यादा करीब हो जातीं और मुझ से दूर. मैं अब तक इस बात को जान चुकी थी कि मम्मी और अंकल को मेरा उन के आसपास रहना अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन पापा आफिस से जल्दी आ गए. मैं टीवी पर कार्टून देख रही थी. पापा को आफिस के काम से टूर पर जाना था. वह दवा बनाने वाली कंपनी में सेल्स मैनेजर थे. आते ही उन्होंने पूछा, ‘मम्मी कहां हैं.’

‘बाहर गई हैं, अंकल के साथ… थोड़ी देर में आ जाएंगी.’

‘कौन अंकल, तुम्हारे मामाजी?’ उत्सुकतावश उन्होंने पूछा.

‘मामाजी नहीं, चाचाजी…’

‘चाचाजी? राहुल आया है क्या?’ पापा ने बाथरूम में फे्रश होते हुए पूछा.

‘नहीं. राहुल चाचाजी नहीं कोई और अंकल हैं…मैं नाम नहीं जानती पर कभी- कभी आते रहते हैं,’ मैं ने भोलेपन से कहा.

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‘अच्छा,’ कह कर पापा चुप हो गए और अपने कमरे में जा कर तैयारी करने लगे. मैं पापा के पास पानी ले कर आ गई. जिस दिन पापा मेरे सामने जाते मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं उन के आसपास घूमती रहती थी.

‘पापा, कहां जा रहे हो,’ मैं उदास हो गई, ‘कब तक आओगे?’

‘कोलकाता जा रहा हूं मेरी गुडि़या. लगभग 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘मेरे लिए क्या लाओगे?’ मैं ने पापा के गले में पीछे से बांहें डालते हुए पूछा.

‘क्या चाहिए मेरी निकी को?’ पापा ने पैकिंग छोड़ कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा. मैं क्या कहती. फिर उदास हो कर कहा, ‘आप जल्दी आ जाना पापा… रोज फोन करना.’

‘हां, बेटा. मैं रोज फोन करूंगा, तुम उदास नहीं होना,’ कहतेकहते मुझे गोदी में उठा कर वह ड्राइंगरूम में आ गए.

तब तक मम्मी भी आ चुकी थीं. आते ही उन्होंने पूछा, ‘कब आए?’

‘तुम कहां गई थीं?’ पापा ने सीधे सवाल पूछा.

‘क्यों, तुम से पूछे बिना कहीं नहीं जा सकती क्या?’ मम्मी ने तल्ख लहजे में कहा.

‘तुम्हारे साथ और कौन था? निकिता बता रही थी कि कोई चाचाजी आए हैं?’

‘हां, मनोज आया था,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई बोलीं, ‘तुम जाओ यहां से,’ कह कर मेरी बांह पकड़ कर कमरे से निकाल दिया जैसे चाचाजी के बारे में बता कर मैं ने उन का कोई भेद खोल दिया हो.

‘कौन मनोज, मैं तो इस को नहीं जानता.’

‘तुम जानोगे भी तो कैसे. घर पर रहो तो तुम्हें पता चले.’

‘कमाल है,’ पापा तुनक कर बोले, ‘मैं ही अपने भाई को नहीं पहचानूंगा…यह मनोज पहले भी यहां आता था क्या? तुम ने तो कभी बताया नहीं.’

‘तुम मेरे सभी दोस्तों और घर वालों को जानते हो क्या?’

‘तुम्हारे घर वाले गुडि़या के चाचाजी कैसे हो गए. शायद चाचाजी कहने से तुम्हारे संबंधों पर आंच नहीं आएगी. निकिता अब बड़ी हो रही है, लोग पूछेंगे तो बात दबी रहेगी…क्यों?’

और तब तक उन के बेडरूम का दरवाजा बंद हो गया. उस दिन अंदर क्याक्या बातें होती रहीं, यह तो पता नहीं पर पापा कोलकाता नहीं गए.

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

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एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

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और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

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बंदिनी- भाग 4 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

छठी लाश को देख कर प्रशासन और गांव वाले सभी चकित थे. वह लाश बड़े मंदिर के पुजारी और मोहनलाल के सलाहकार गोपाल चतुर्वेदी की थी. वे नीची जाति से बात करना तो दूर, उन की छाया से भी परहेज करते थे. वे ही अनुबंध के बाद मोहनलाल के घर जाने से पहले सभी लड़कियों का शुद्धि हवन करवाते थे. उन्होंने ही पूजा को चुना था. ऐसा धार्मिक पुरुष इन लोगों के घर क्या करने आया था, इस बात ने सब को अचंभे में डाल दिया था. परंतु क्या वो लोग नहीं जानते थे कि दलाल भी रातों में ही काम करते हैं.

कल्पना और उस की बेटी पूजा घर से लापता थीं. पुलिस वाले एक स्वर में कल्पना को ही अपराधी मान रहे थे. प्रथम दृष्टया में हत्या विष दे कर की गई लगती थी.

काफी देर से कोने में खामोश बैठी रेखा अचानक ही बोल पड़ी थी, ‘‘कल्पना पिछली रात ही अपने प्रेमी के साथ भाग गई है. इन सब को मैं ने मारा है.’’

रेखा की आवाज में लेश मात्र भी कंपन नहीं था. ‘‘ऐ लड़की, तुझे पता भी है क्या कह रही है, फांसी भी हो सकती है,’’ एक पुलिस वाली चिल्ला कर बोली.

रेखा ने एक गहरी सांस ले कर उत्तर दिया, ‘‘वैसे भी, बस सांस ले रही हूं. मैं एक मुर्दा ही हूं.’’

अपराध स्वीकार कर लेने के कारण रेखा को उसी पल गिरफ्तार कर लिया गया. कोर्ट में भी वह अपने बयान से नहीं पलटी थी. पूरे आत्मविश्वास के साथ जज की आंखों में आंखें डाल कर अपनी हर बात स्पष्ट रूप से सामने रखी थी. चाहे वह प्रथा की बात हो, चाहे वह कल्पना और पूजा को घर से भागने में सहयोग की बात हो या खुद उन सभी के खाने में विष मिलाने की बात हो.

उस का कहना था कि यदि रेखा भी कल्पना के साथ भाग जाती, तो परिवार वाले कुछ न कुछ कर के उन्हें ढूंढ़ ही लाते. इसी कारण से रेखा ने यहां रहने का निश्चय किया था. परंतु कल्पना भी यह नहीं जानती थी कि रेखा के मन में कब इस योजना ने जन्म ले लिया था.

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इस स्वीकारोक्ति के बाद रेखा को जेल हो गई थी. पिछले 4 सालों से रेखा इस जेल में बंद थी. अपने मधुर व्यवहार की बदौलत रेखा ने सभी का दिल जीत लिया था. आरती की पहल पर ही एक समाजसेवी संगठन के तत्त्वावधान में रेखा की पढ़ाई भी शुरू हो गई थी. जेल की सुपरिटैंडैंट एम के गुप्ता रेखा की स्थिति से अवगत थीं, उन्हें उस से लगाव भी हो गया था. उन्हीं की पहल पर रेखा को खाना बनाने वालों की सहायता में लगा दिया गया था.

इधर, रेखा अविचलित अपने जीवन में आगे बढ़ रही थी, उधर आरती निरंतर उस की रिहाई के प्रयत्न में लगी हुई थी. काफी दिनों के अथक परिश्रम के बाद आज रेखा के केस का फैसला आने वाला था. पिछली बार की सुनवाई में आरोप तय हो गए थे, परंतु आरती न जाने किनकिन से मिल कर रेखा की सजा कम कराने को प्रयत्नशील थीं. फैसले वाले दिन रेखा का जाना आवश्यक नहीं था, वह जाना भी नहीं चाहती थी.

रेखा मनयोग से रोटी बेलने में लगी हुई थी कि तभी लेडी कांस्टेबल ने उसे आरती के आने की सूचना दी थी, ‘‘रेखा, चल तुझ से मिलने तेरी आरती दीदी आई हैं.’’

प्रसन्न मुख के साथ रेखा उस लेडी कांस्टेबल के पीछे चल दी थी.

आरती के मुख पर स्याह बादलों को देख लिया था रेखा ने, परंतु जाहिर में कुछ बोली नहीं थी.

‘‘कैसी हो रेखा?’’

आरती की आवाज की पीड़ा को भी रेखा ने भांप लिया था.

‘‘दीदी, आप परेशान न हों. मैं खुश हूं.’’

‘‘हम्म.’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद आरती ने दोबारा बोलना शुरू किया, ‘‘कल्पना का पता चल गया है. वो और पूजा रमन के साथ भागी थीं.’’

‘‘दीदी, इतने दिनों में पहली अच्छी खबर सुनी है. वह रमन ही पूजा का बाप है, कल्पना का दूसरा ग्राहक.’’

रेखा के चेहरे पर मुसकान खिल गई थी. परंतु अपने केस के फैसले के बारे में उस की कोई जिज्ञासा न देख कर आरती ने खुद ही पूछ लिया था.‘‘रेखा, अपने केस के फैसले के बारे में नहीं पूछोगी?’’

‘‘वह क्या पूछना है?’’

‘‘तुम कल्पना को बुलाने क्यों नहीं देतीं. वह तो आने…’’

‘‘नहीं दीदी, आप ने मुझ से वादा किया था,’’ रेखा ने आरती का हाथ थाम लिया था.

‘‘हां, तभी तो जब आज कोर्ट में जज फैसला सुना रहा था, मैं चाह कर भी नहीं कह पाई कि उन सभी लोगों को जहर तुम ने नहीं, कल्पना ने दिया था.’’ इस बार आरती की आवाज में रोष स्पष्ट था. पिछले कुछ सालों में रेखा के साथ उस का एक खूबसूरत रिश्ता बन गया था, जो खून से नहीं दिल से जुड़ा हुआ था.

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‘‘नाराज न हों दीदी, अच्छा बताइए क्या फैसला आया है?’’ रेखा ने आरती के हाथों को सहलाते हुए कहा.

‘‘आजीवन कारावास,’’ इतना कह कर आरती ने रेखा के चेहरे की तरफ देखा. किंतु रेखा के चेहरे पर शांति और संतोष के भाव एकसाथ थे. आरती ने आगे कहा, ‘‘पर तू चिंता मत कर. हमारे पास बड़ी अदालत का विकल्प शेष है.’’

आरती जैसे रेखा को नहीं स्वयं को समझाने लगी थी. रेखा के चमकते मुख को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे अकस्मात ही सूर्य के ऊपर से बादलों का जमावड़ा हट गया हो और उस की समस्त किरणों का प्रकाश रेखा के चेहरे पर सिमट आया हो.

उस ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ आरती की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘दीदी, आप अब कहीं अपील नहीं करेंगी. मुझे यह फैसला स्वीकार है.’’

‘‘तू यह क्या…’’

‘‘दीदी, मेरे केस ने शायद देश के सामने इस कुप्रथा को उजागर कर दिया है. परंतु यह प्रथा तब तक नहीं थमेगी जब तक सरकार तक हमारी बात नहीं पहुंचेगी. धर्म और संस्कृति के ठेकेदार इस मार्ग में चुनौती बन कर खड़े हैं. आप से बस इतनी प्रार्थना है, यह लौ, जो जलाई है, बुझने मत देना.’

आरती उसे आश्चर्य से देख रही थी. ‘‘तुम शायद समझीं नहीं. अब तुम आजीवन बंदिनी ही रहोगी,’’ आरती की आवाज में कंपन था.

आरती की आवाज सुन कर दो पल को थम गई थी रेखा, फिर उस के होंठों पर एक मनमोहक मुसकान फैल गई थी. ‘‘मुझे भी ऐसा ही लगा था कि मैं आजीवन बंदिनी ही रह जाऊंगी. परंतु…’’

‘‘परंतु क्या?’’ आरती उस साहसी स्त्री को श्रद्धा के साथ देखते हुए बोली, ‘‘आज का दिन पावन है, आज बंदिनी की रिहाई की खबर आई है.’’

जीवन की मुसकान

मैं बच्चों के साथ उदयपुर (राजस्थान) गया था. वहां हमारा 3-4 दिनों का कार्यक्रम था. मगर पहले ही दिन जब हम घूमफिर कर वापस होटल पहुंचे ही थे कि मेरे भांजे संजय का फोन आया, ‘‘डैडी (मेरे जीजाजी) के हृदय की शल्य चिकित्सा होने वाली है, सो आप को कल ही दिल्ली पहुंचना है.’’

वापसी में हमें रात 12 बजे की बस की पिछली सीट मिली. सुबह घर पहुंच कर रिकशे वाले को पैसे देने के लिए ज्यों ही पौकेट में हाथ डाला, मेरे होश उड़ गए. पर्स गायब था. उलटेपांव उसी रिकशे से मैं वापस बसस्टैंड गया. देखा, बस अड्डे से बाहर निकल रही है. मैं झट बस पर चढ़ गया और पीछे की सीट पर नजर दौड़ाने लगा. इतने में कंडकटर ने पूछा, ‘‘साहब, क्या देख रहे हैं?’’

मैं ने बताया कि रात को इसी बस से हम उदयपुर से आए थे. अंतिम सीट थी. वहां मेरा पर्र्स गिर गया. इतना जान कर कंडक्टर ने अपनी जेब से निकाल कर पर्स मुझे पकड़ा दिया. पर्स पा कर मैं खुशी से झूम उठा. मैं ने कंडक्टर को बख्शिश देनी चाही, मगर उस ने लेने से मना कर दिया, कहा कि आप को अपना सामान मिल गया, इसी में उसे खुशी है.

उस ने कुछ भी लेने से मना कर दिया. मैं ने सोचा कि आज की इस लालची व स्वार्थभरी दुनिया में इतने ईमानदार लोग भी हैं.    राजकुमार जैन

मेरे दोस्त के बेटे की जन्मदिन की पार्र्टी थी. मैं पूरे परिवार के साथ बर्थडे पार्टी में गया था.

हम सब खाना खा रहे थे. मेरे दोस्त ने शराब की भी व्यवस्था कर रखी थी. कुछ लोग शराब पी रहे थे और मुझे

भी पीने के लिए बारबार बोल रहे

थे. मेरे पास ही मेरा बेटा भी खाना खा रहा था.

बेटे ने कहा, ‘‘मेरे पापा शराब नहीं पीते है. पापा कहते हैं, शराब पीने से कैंसर और कई भयानक बीमारियां होती हैं, जो जानलेवा होती हैं. शराब पी कर लोग घर में बीवीबच्चों से गालीगलौज और मारपीट करते हैं, जो बुरी बात है. आप लोग भी शराब मत पीजिए, सेहत के लिए खराब है.’’

वहां बैठे सभी लोगों का सिर शर्म से झुक गया. जहां बेटे की बात दिल को छू गई वहीं इस बात की भी खुशी हुई कि आज का युवावर्ग शराब जैसी गंभीर समस्याओं के प्रति जागरूक है.

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बंदिनी- भाग 3 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

औरतों के लिए कू्ररता करने में स्वयं औरतें पुरुषों से कहीं आगे हैं. वे शायद यह नहीं जानतीं कि इसी वजह से पुरुषों के लिए उन की नाकदरी और उन का शोषण करना इतना आसान हो जाता है. औरतों का शोषण करने के लिए पुरुषों को साथ भी औरतों का ही मिलता है.

रेखा का शारीरिक शोषण घर के पुरुष करते थे, परंतु घर की स्त्रियां भी उस का जीवन नारकीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं. वे सभी घर के पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ तो कभी एकजुट नहीं हो पाईं, परंतु एक निरपराधी को सजा देने में एकजुट हो गई थीं. पुरुषों की शारीरिक भूख रात में शांत कर, दिन में उसे घर के बाकी काम भी निबटाने पड़ते थे.

10 वर्षों के अमानुषिक शोषण के बाद एक दिन एकाएक अनुबंध समाप्त होने का हवाला देते हुए रेखा को वापस उस के परिवार के पास छोड़ दिया गया था. इन 10 सालों में उस के 8 गर्भपात भी हुए थे. कारण जो भी बताया गया हो परंतु रेखा शायद अनुबंध समाप्त करने की सही वजह समझ रही थी.

जब रेखा मोहनलाल के घर पर थी, उस समय एक एनजीओ की मैडम ने एकदो बार उस से संपर्क करने का प्रयास किया था. परंतु उन्हें बुरी तरह प्रताडि़त कर निकाल दिया गया था. बड़ी मुश्किलों से अपने प्राण बचा कर निकल पाई थी बेचारी, परंतु जातेजाते भी न जाने कैसे अपना फोन नंबर कागज पर लिख कर फेंक गई थी. 5वीं तक की गई पढ़ाई काम आई थी उस के, रेखा ने नंबर कंठस्थ करने के बाद कागज को जला दिया था.

ग्वालियर एक शहर था और वहां इस के बाद बात का छिपना आसान नहीं था. सो, रेखा को वापस भेज दिया गया था, वैसे भी, अब तक रेखा का पूर्ण इस्तेमाल हो चुका था.

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10 सालों में रेखा का परिवार भी बदल चुका था. उन की आर्थिक स्थिति अच्छी हो गई थी. कल्पना भी अपने 5वें अनुबंध के खत्म होने के बाद घर आ गई थी. उस की अब एक बेटी भी थी, पूजा.

दोनों ही बहनें जानती थीं कि कुछ ही दिनों में उन्हें उन के नए सहचरों के साथ चले जाना होगा. इसलिए अब अपना पूरा समय दोनों पूजा पर मातृत्व लुटाने में व्यतीत करने लगीं थीं. किंतु अति शीघ्र ही रेखा ने आने वाली विपत्तियों को भांप लिया था, जब उस ने अशोक को अपने द्वार पर खड़ा पाया था, ‘‘तुम हो मेरे नए ग्राहक?’’

अशोक ने रेखा की विदाई के कुछ दिनों बाद ही विवाह कर लिया था. सो, आज वह फिर यहां क्यों आया था, यह समझने में रेखा को थोड़ी देर लगी थी.

‘‘मैं यहां तेरे लिए नहीं आया हूं. वैसे भी तेरे पास बचा क्या है,’’ उस ने बड़ी ही हिकारत से उत्तर दिया था.

‘‘फिर किस लिए आए हो?’’

‘‘मैं पूजा के लिए आया हूं.’’

रेखा सब समझ गई थी. प्रतिदिन की वे गोष्ठियां कल्पना और रेखा के लिए नहीं, बल्कि पूजा के लिए हो रही थीं. अशोक से लड़ना मूर्खता थी. वह सीधा अपने भाइयों के पास गई और बड़े भाई की गरदन दबोच ली.

‘‘9 साल की बच्ची है पूजा, मामा है तू उस का. लज्जा न आई तुझे?’’

एक झटके में उस के भाई ने अपनी गरदन से रेखा का हाथ हटा लिया था. लड़खड़ा गई थी रेखा, कल्पना ने संभाला नहीं होता तो गिर ही जाती.

‘‘दोबारा हिम्मत मत करना, वरना हाथ उठाने के लायक नहीं रहेगी.’’

भाई से इंसानियत की अपेक्षा उस की भूल थी. उस ने कल्पना से बात करनी चाही, ‘‘दीदी, तुम ने सुना, ये लोग पूजा के साथ क्या करने वाले हैं?’’

उत्तर में कल्पना ने मात्र सिर झुका दिया था.

हमारे समाज की ज्यादातर स्त्रियां अपनी कमजोरी को मजबूरी का नाम दे देती हैं. बिना कोशिश किए अपनी हार स्वीकार करने की सीख तो उन्हें जैसे घुट्टी में मिला कर पिलाई जाती है. परजीवी की तरह जीवन गुजारती हैं और फिर एक दिन वैसे ही मृत्यु का वरण कर लेती हैं. हमेशा एक चमत्कार की उम्मीद करती रहती हैं, जैसे कोई आएगा और उन के कष्टों का समाधान हो जाएगा. आत्मनिर्भरता तो वे खुद भीतर कभी जागृत नहीं कर पातीं. कल्पना भी अपवाद नहीं थी.

रेखा और कल्पना के विरोध के बावजूद पूजा का विवाह मोहनलाल के छोटे बेटे से तय कर दिया गया था. वह मंदबुद्धि था. किसी महान पंडित ने उन्हें बताया था कि यदि उस का विवाह एक नाबालिग कुंआरी कन्या से हो जाए तो वह बिलकुल स्वस्थ हो जाएगा. शादी जैसे संजीवनी बूटी हो, खाया और एकदम फिट. रेखा यह भी जानती थी कि उस घर के बंद दरवाजों के पीछे कितना भयावह सत्य छिपा था.

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शादी का मुहूर्त 3 महीने बाद का निकला था. इसी बीच रेखा और कल्पना को भी बेचने की तैयारियां चल रही थीं. रेखा जानती थी कि उस के पास समय कम है, जो करना है जल्द ही करना होगा.

परंतु इस बार रेखा किसी भी तरह का विरोध झेलने के लिए मजबूती के साथ तैयार थी. पिछली बार खुद के लिए लड़ी गई जंग वह हार गई थी, परंतु इस बार उस ने अंतिम सांस तक प्रयत्न करने का निश्चय कर लिया था. पुलिस और पंचायत से तो रेखा ने उसी समय उम्मीद छोड़ दी थी जब उसे जबरदस्ती प्रथा के नाम पर बलि चढ़ा दिया गया था. सभी प्रथाओं की लाश स्त्रियों के कंधों पर ही तो ढोई जाती है.

अपने भाइयों की नजर बचा कर उस ने अपने भाई के मोबाइल से आरतीजी को फोन किया. उस की आपबीती सुन कर आरती ने भी मदद ले कर शीघ्र आने का आश्वासन दिया था. परंतु नियति उस की चौखट पर खड़ी अलग ही कहानी रच रही थी.

वह रात पूनम की थी जो उस घर में अमावस ले कर आई थी. जिस प्रथा को छिपा कर रखने के लिए पूरा गांव कुछ भी करने को तैयार था, उस एक घटना ने इस प्रथा की कलई पूरे देश के सामने खोल कर रख दी थी. इस एक घटना से यह प्रथा समाप्त तो नहीं हुई थी, परंतु वह भारत जो ऐसी किसी प्रथा के अस्तित्व के बारे में अनभिज्ञ था, इस के बारे में बात करने लगा था.

उस रात जब रेखा सोने के लिए अपने कमरे में गई थी, सबकुछ स्वाभाविक ही था. परंतु खुद सुप्त ज्वालामुखी को नहीं पता होता कि उस के किसी हिस्से में आग अभी भी बाकी है. असहनीय पीड़ा की परिणति कभीकभी भयावह होती है. ऐसी बात तो सभी करते हैं, परंतु अगली सुबह जब लोगों ने उस घर में 6 लाशें देखीं, तो मान भी गए थे.

रेखा के अलावा घर के सभी लोग मौत की स्याह चादर ओढ़ कर सो गए थे. उन के वजूद की मृत्यु तो बहुत पहले हो चुकी थी, आज शरीर खत्म हुआ था. एकएक कर पुलिस शिनाख्त कर रही थी.

पहली चादर उस मां के चेहरे पर डाली गई जिस ने अपनी बेटियों को जन्म देने की कीमत उन के शरीर की बोली लगा कर वसूल की थी. कल्पना को मारे गए कई थप्पड़ आज जीवंत हो कर उसी के चेहरे को स्याह कर रहे थे.

अगली चादर उस पिता के ऊपर डाली गई जिस ने पिता होने का कर्तव्य तो कभी नहीं निभाया, परंतु पुत्री के शरीर को भेडि़यों के बीच फेंक कर उस की कीमत वसूलने को अपना अधिकार अवश्य माना था.

फिर चादर उन 2 भाइयों के चेहरों पर डाली गई जो खुद अपनी बहनों के दलाल बने घूमते थे.

चादर उस भाभी के चेहरे पर भी डाली गई जो एक स्त्री थी और मां बनने के लिए न जाने कितने तांत्रिकों व पंडितों के चक्कर लगा रही थी. परंतु जब एक छोटी बच्ची की बोली उस का पति लगा रहा था, वह न केवल मौन थी बल्कि आने वाले धन के मधुर स्वप्नों में खोई हुई थी.

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लड़की- भाग 2 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

लेखक- रमणी मोटाना

सुधाकर पहले ही ज्योतिषी से मिल चुके थे और उस की मुट्ठी गरम कर दी थी. ‘महाराज, कन्या एक गलत सोहबत में पड़ गई है और उस से शादी करने का हठ कर रही है. कुछ ऐसा कीजिए कि उस का मन उस लड़के की ओर से फिर जाए.

‘आप चिंता न करें यजमान,’ ज्योतिषाचार्य ने कहा.

ज्योतिषी ने वीणा की जन्मपत्री देख कर बताया कि उस का विदेश जाना अवश्यंभावी है. ‘तुम्हारी कुंडली अति उत्तम है. तुम पढ़लिख कर अच्छा नाम कमाओगी. रही तुम्हारी शादी की बात, सो, कुंडली के अनुसार तुम मांगलिक हो और यह तुम्हारे भावी पति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. तुम्हारी शादी एक मांगलिक लड़के से ही होनी चाहिए वरना जोड़ी फलेगीफूलेगी नहीं. एक  बात और, तुम्हारे ग्रह बताते हैं कि तुम्हारी एक शादी ऐनवक्त पर टूट गई थी?’

‘जी, हां.’

‘भविष्य में इस तरह की बाधा को टालने के लिए एक अनुष्ठान कराना होगा, ग्रहशांति करानी होगी, तभी कुछ बात बनेगी.’ ज्योतिषी ने अपनी गोलमोल बातों से वीणा के मन में ऐसी दुविधा पैदा कर दी कि वह भारी असमंजस में पड़ गई. वह अपनी शादी के बारे में कोई निर्णय न ले सकी.

शीघ्र ही उसे अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी से वजीफे के साथ वहां दाखिला मिल गया. उसे अमेरिका के लिए रवाना कर के उस के मातापिता ने सुकून की सांस ली.

‘अब सब ठीक हो जाएगा,’ सुधाकर ने कहा, ‘लड़की का पढ़ाई में मन लगेगा और उस की प्रवीण से भी दूरी बन जाएगी. बाद की बाद में देखी जाएगी.’

इत्तफाक से वीणा के दोनों भाई भी अपनेअपने परिवार समेत अमेरिका जा बसे थे और वहीं के हो कर रह गए थे. उन का अपने मातापिता के साथ नाममात्र का संपर्क रह गया था. शुरूशुरू में वे हर हफ्ते फोन कर के मांबाप की खोजखबर लेते रहते थे, लेकिन धीरेधीरे उन का फोन आना कम होता गया. वे दोनों अपने कामकाज और घरसंसार में इतने व्यस्त हो गए कि महीनों बीत जाते, उन का फोन न आता. मांबाप ने उन से जो आस लगाई थी वह धूलधूसरित होती जा रही थी.

समय बीतता रहा. वीणा ने पढ़ाई पूरी कर अमेरिका में ही नौकरी कर ली थी. पूरे 8 वर्षों बाद वह भारत लौट कर आई. उस में भारी परिवर्तन हो गया था. उस का बदन भर गया था. आंखों पर चश्मा लग गया था. बालों में दोचार रुपहले तार झांकने लगे थे. उसे देख कर सुधाकर व अहल्या धक से रह गए. पर कुछ बोल न सके.

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‘अब तुम्हारा क्या करने का इरादा है, बेटी?’ उन्होंने पूछा.

‘मेरा नौकरी कर के जी भर गया है. मैं अब शादी करना चाहती हूं. यदि मेरे लायक कोई लड़का है तो आप लोग बात चलाइए,’ उस ने कहा.

अहल्या और सुधाकर फिर से वर खोजने के काम में लग गए. पर अब स्थिति बदल चुकी थी. वीणा अब उतनी आकर्षक नहीं थी. समय ने उस पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी थी. उस ने समय से पहले ही प्रौढ़ता का जामा ओढ़ लिया था. वह अब नटखट, चुलबुली नहीं, धीरगंभीर हो गई थी.

उस के मातापिता जहां भी बात चलाते, उन्हें मायूसी ही हासिल होती थी. तभी एक दिन एक मित्र ने उन्हें भास्कर के बारे में बताया, ‘है तो वह विधुर. उस की पहली पत्नी की अचानक असमय मृत्यु हो गई. भास्कर नाम है उस का. वह इंजीनियर है. अच्छा कमाता है. खातेपीते घर का है.’

मांबाप ने वीणा पर दबाव डाल कर उसे शादी के लिए मना लिया. नवविवाहिता वीणा की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. उस के दिल में हिलोरें उठने लगीं. वह दिवास्वप्नों में खो गई. वह अपने हिस्से की खुशियां बटोरने के लिए लालायित हो गई.

लेकिन भास्कर से उस का जरा भी तालमेल नहीं बैठा. उन में शुरू से ही पटती नहीं थी. दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर था. भास्कर बहुत ही मितभाषी लेकिन हमेशा गुमसुम रहता. अपने में सीमित रहता.

वीणा ने बहुत कोशिश की कि उन में नजदीकियां बढ़ें पर यह इकतरफा प्रयास था. भास्कर का हृदय मानो एक दुर्भेध्य किला था. वह उस के मन की थाह न पा सकी थी. उसे समझ पाना मुश्किल था. पति और पत्नी में जो अंतरंगता व आत्मीयता होनी चाहिए, वह उन दोनों में नहीं थी. दोनों में दैहिक संबंध भी नाममात्र का था. दोनों एक ही घर में रहते पर अजनबियों की तरह. दोनों अपनीअपनी दुनिया में मस्त रहते, अपनीअपनी राह चलते.

दिनोंदिन वीणा और उस के बीच खाई बढ़ती गई. कभीकभी वीणा भविष्य के बारे में सोच कर चिंतित हो उठती. इस शुष्क स्वभाव वाले मनुष्य के साथ सारी जिंदगी कैसे कटेगी. इस ऊबभरे जीवन से वह कैसे नजात पाएगी, यह सोच निरंतर उस के मन को मथते रहती.

एक दिन वह अपने मातापिता के पास जा पहुंची. ‘मांपिताजी, मुझे इस आदमी से छुटकारा चाहिए,’ उस ने दोटूक कहा. अहल्या और सुधाकर स्तंभित रह गए, ‘यह क्या कह रही है तू? अचानक यह कैसा फैसला ले लिया तू ने? आखिर भास्कर में क्या बुराई है. अच्छे चालचलन का है. अच्छा कमाताधमाता है. तुझ से अच्छी तरह पेश आता है. कोई दहेजवहेज का लफड़ा तो नहीं है न?’

‘नहीं. सौ बात की एक बात है, मेरी उन से नहीं पटती. हमारे विचार नहीं मिलते. मैं अब एक दिन भी उन के साथ नहीं बिताना चाहती. हमारा अलग हो जाना ही बेहतर है.’

‘पागल न बन, बेटी. जराजरा सी बातों के लिए क्या शादी के बंधन को तोड़ना उचित है? बेटी शादी में समझौता करना पड़ता है. तालमेल बिठाना पड़ता है. अपने अहं को त्यागना पड़ता है.’

‘वह सब मैं जानती हूं. मैं ने अपनी तरफ से पूरा प्रयत्न कर के देख लिया पर हमेशा नाकाम रही. बस, मैं ने फैसला कर लिया है. आप लोगों को बताना जरूरी समझा, सो बता दिया.’

‘जल्दबाजी में कोई निर्णय न ले, वीणा. मैं तो सोचती हूं कि एक बच्चा हो जाएगा तो तेरी मुश्किलें दूर हो जाएंगी,’ मां अहल्या ने कहा.

वीणा विद्रूपता से हंसी. ‘जहां परस्पर चाहत और आकर्षण न हो, जहां मन न मिले वहां एक बच्चा कैसे पतिपत्नी के बीच की कड़ी बन सकता है? वह कैसे उन दोनों को एकदूसरे के करीब ला सकता है?’

अहल्या और सुधाकर गहरी सोच में पड़ गए. ‘इस लड़की ने तो एक भारी समस्या खड़ी कर दी,’ अहल्या बोली, ‘जरा सोचो, इतनी कोशिश से तो लड़की को पार लगाया. अब यह पति को छोड़छाड़ कर वापस घर आ बैठी, तो हम इसे सारा जीवन कैसे संभाल पाएंगे? हमारी भी तो उम्र हो रही है. इस लड़की ने तो बैठेबिठाए एक मुसीबत खड़ी कर दी.’

‘उसे किसी तरह समझाबुझा कर ऐसा पागलपन करने से रोको. हमारे परिवार में कभी किसी का तलाक नहीं हुआ. यह हमारे लिए डूब मरने की बात होगी. शादीब्याह कोई हंसीखेल है क्या. और फिर इसे यह भी तो सोचना चाहिए कि इस उम्र में एक तलाकशुदा लड़की की दोबारा शादी कैसे हो पाएगी. लड़के क्या सड़कों पर पड़े मिलते हैं? और इस में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं जो इसे कोई मांग कर ले जाएगा,’ सुधाकर बोले.

‘देखो, मैं कोशिश कर के देखती हूं. पर मुझे नहीं लगता कि वीणा मानेगी. वह बड़ी जिद्दी होती जा रही है,’ अहल्या ने कहा.

‘‘तभी तो भुगत रही है. हमारा बस चलता तो इस की शादी कभी की हो गई होती. हमारे बेटों ने हमारी पसंद की लड़कियों से शादी की और अपनेअपने घर में खुश हैं, पर इस लड़की के ढंग ही निराले हैं. पहले प्रेमविवाह का खुमार सिर पर सवार हुआ, फिर विदेश जा कर पढ़ने का शौक चर्राया. खैर छोड़ो, जो होना है सो हो कर रहेगा.’’ बूढ़े दंपती ने बेटी को समझाबुझा कर वापस उस के घर भेज दिया.

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एक दिन अचानक हृदयगति रुक जाने से सुधाकर की मौत हो गई. दोनों बेटे विदेश से आए और औपचारिक दुख प्रकट कर वापस चले गए. वे मां को साथ ले जाना चाहते थे पर अहल्या इस के लिए तैयार नहीं हुई.

अहल्या किसी तरह अकेली अपने दिन काट रही थी कि सहसा बेटी के हादसे के बारे में सुन कर उस के हाथों के तोते उड़ गए. वह अपना सिर धुनने लगी. इस लड़की को यह क्या सूझी? अरे, शादी से खुश नहीं थी तो पति को तलाक दे देती और अकेले चैन से रहती. भला अपनी जान देने की क्या जरूरत थी? अब देखो, जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है. अपनी मां को इस बुढ़ापे में ऐसा गम दे दिया.

बंदिनी- भाग 2 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

लाखों में एक न होने पर भी रेखा के चेहरे का अपना आकर्षण था. लंबी, छरहरी देह, गेहुआं रंग, सुतवां नाक, और ऊंचे उठे कपोल. बड़ी आंखें जिन में चौबीसों घंटे एक उज्ज्वल हंसी चमकती रहती, काले रेशम जैसे बाल और दोनों गालों पर पड़ने वाले गड्ढे जिस में पलभर का पाहुना भी सदा के लिए गिरने स्वयं ही चला आए. अशोक तो पहली नजर में ही दिल हार बैठा था.

अशोक एक व्यापारी मोहनलाल के घर में काम करता था. मोहनलाल ग्वालियर का एक बहुत बड़ा व्यापारी था. गांव में उस की बहुत जमीनें थीं जिन की देखभाल के लिए उस ने अशोक और उस के बड़े भाई को लगा रखा था. वह साल में कई बार गांव आता था. मंडी में आई अकसर हर कुंआरी लड़की का खरीदार वही होता था. शादीशुदा, अधेड़ उम्र का आदमी और 4 बच्चों का पिता, परंतु पुरुष की उम्र और वैवाहिक स्थिति उस की इच्छाओं के आड़े नहीं आती.

समाज के नियम बनाने वालों के ऊपर कोई नियम लागू नहीं होता. जाति से ब्राह्मण और व्यवसाय से बनिया मोहनलाल बहुत ही कामी और धूर्त पुरुष था. वह अपना व्यवसाय तो बदल चुका था परंतु जातीय वर्चस्व का झूठा अहंकार आज भी कायम था. बहुत जल्द ही वह राजनीतिक मंच पर पदार्पण करने वाला था. इसी व्यस्तता के कारण पिछले कुछ वर्षों में उस का गांव आना थोड़ा कम हो गया था.

अशोक इसी बात से निश्ंिचत था. उस ने रेखा को खरीद कर कहीं दूर भाग जाने की साहसी योजना भी बना रखी थी. शुरू में रेखा केवल अशोक के प्रेम से अवगत थी, वह न तो उस के अस्तित्व के बारे में जानती थी और न ही उस की योजना के बारे में. परंतु कल्पना की  विदाई ने उसे वास्तविकता से अवगत करा दिया था. रेखा को यह भी मालूम हो गया था कि उस के धनलोलुप परिवार के मुंह में खून लग चुका है.

शीघ्र ही रेखा को अपने परिवार की नई योजना की भनक भी लग गई थी. अशोक सदा रेखा से किसी बड़े काम के लिए पैसे बचाने की बात करता था. उस समय रेखा को लगा करता था, वह शायद किसी व्यवसाय हेतु बचत कर रहा है. परंतु अब वह इस बचत के पीछे का मतलब समझ गई थी. किंतु अब रेखा के परिवार वालों के पास एक नया और प्रभावशाली ग्राहक आ गया था. इस में कोई शक नहीं था कि वे रेखा का सौदा उस के साथ तय करने वाले थे.

इस प्रथा की बात छिपाने की वजह से रेखा अशोक से नाराज थी, परंतु अशोक ने उसे समझाबुझा कर शांत कर दिया था. रेखा इस गांव से पहले ही भाग जाना चाहती थी, अशोक के तर्कों से हार गई थी. बदली हुई परिस्थितियों ने उसे भयभीत कर दिया था और उस ने अपना गुस्सा अशोक पर जाहिर किया था कि, ‘‘जिस बहुमूल्य को खरीदने के लिए तू इतने महीनों से धन जोड़ रहा था, उस के कई और खरीदार आ गए हैं.’’

एकाएक हुए इस आघात के लिए अशोक तैयार नहीं था, वह लड़खड़ा गया. न जाने कितने महीनों से पाईपाई जोड़ कर उस ने 2 लाख रुपए जमा किए थे. रेखा की यही बोली उस के भाई ने लगाई थी. अशोक जानता था कि रेखा को अपना बनाने के लिए उस का प्रेम थोड़ा कम पड़ेगा, इसलिए वह धन जोड़ रहा था. परंतु आज रेखा के इस खुलासे ने जाहिर कर दिया था कि विक्रेता अपनी वस्तु के दाम में परिस्थिति के अनुसार बदलाव कर सकता है.

थोड़ी देर पहले रेखा को उस पर गुस्सा आ रहा था, परंतु अब अशोक की दशा देख कर उसे दुख हो रहा था. उस ने करीब जा कर अशोक को अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘तूने कैसे भरोसा कर लिया उस भेडि़ए पर. अरे पगले, जो अपनी बहन का व्यापार कर सकता है, वह क्या कभी सौदे में लाभ से परे कुछ सोच सकता है?’’

‘‘जान से मार दूंगा मैं, उन सब को भी और तेरे भाई को भी,’’ रेखा के बाजुओं को जोर से पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचते हुए चिल्ला पड़ा था अशोक.

‘‘अच्छा, मोहनलाल को भी?’’ रेखा ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा था.

वह एक ही पल में छिटक कर दूर हो गया,

‘‘क्य्याआआ?’’

एक दर्दभरी मुसकान खिल गई थी रेखा के चेहरे पर, ‘‘बस, प्यार का ज्वार उतर गया लगता है.’’

काफी समय तक दोनों निशब्द बैठे रहे थे. फिर अशोक ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘रेखा, तू अपने भाई की बात मान ले. हां, परंतु मोहनलाल से पहले तू मेरी बन जा.’’

‘‘पागल हो गया है क्या? मैं…’’ रेखा को अपनी बात पूरी भी नहीं करने दी उस ने और दोबारा बोल पड़ा था, ‘‘रेखा, सारा चक्कर तेरे कौमार्य का है. एक बार तेरा कौमार्य भंग हो गया तो तेरा दाम भी कम हो जाएगा. मोहनलाल ज्यादा से ज्यादा तुझे एक साल रखेगा. चल, हो सकता है तेरी सुंदरता के कारण अवधि को एकदो साल के लिए बढ़ा दे परंतु उस के बाद तो तुझे छोड़ ही देगा. फिर तुझे मैं खरीद लूंगा. लेकिन…’’

‘‘लेकिन?’’

‘‘मैं मोहनलाल को जीतने नहीं दूंगा. कुंआरी लड़कियों का कौमार्य उसे आकर्षित करता है न, तू उसे मिलेगी तो जरूर, पर मैली…’’

रेखा अशोक के ऐसे आचरण के लिए तैयार नहीं थी. पुरुष चाहे कितनी ही लड़कियों के साथ संबंध रखे, वह हमेशा पाक, परंतु स्त्री मैली. वह यह भूल जाता है मैला करने वाला स्वयं पाक कैसे हो सकता है. परंतु कोई भी निर्णय लेने से पहले वह कुछ और प्रश्नों का उत्तर चाहती थी, ‘‘यदि मेरा कोई बच्चा हो गया तो?’’

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‘‘न, न. तुझे गर्भवती नहीं होना है. किसी और का पाप मैं नहीं पालूंगा.’’

एक आह निकल गई थी रेखा के मुख से. इस पुरुष की कायरता से ज्यादा उसे स्वयं की मूर्खता पर क्रोध आ रहा था. उस की वासना को प्रेम समझने की भूल उस ने स्वयं की थी. रेखा ने एक थप्पड़ के साथ अशोक के साथ अपने संबंधों पर विराम लगा दिया था. परंतु अब अपने परिवार द्वारा रचित व्यूह में वह अकेली रह गई थी.

चक्रव्यूह की रचना तो हो गई थी, उसे भेदने के लिए महाभारत काल में अभिमन्यु भी अकेला था और आज रेखा भी अकेली ही थी. तब भी केशव नहीं आए थे और आज भी कोई दैवी चमत्कार नहीं हुआ था. पराजित दोनों ही हुए थे.

पराजित रेखा मोहनलाल की रक्षिता बन ग्वालियर चली गई थी. दूर से ही जिस के जिस्म की सुगंध राह चलते को भी मोह कर पलभर को ठिठका देती थी, वही रेखा अब सूखी झाडि़यों के झंकार के समान मोहनलाल के घर में धूल खा रही थी.

केवल शरीर ही नहीं, वजूद भी छलनी हो गया था उस का. मोहनलाल के घर में बीते वो 10 साल अमानुषिक यातनाओं से भरे हुए थे. उस का शरीर जैसे एक लीज पर ली हुई जमीन थी, जिसे लौटाने से पहले मालिक उस का पूरी तरह से दोहन कर लेना चाहता था. कभी मालिक खुद रौंदता था, कभी उस के रिश्तेदार, तो कभी उस के मेहमान. घर की स्त्रियों से भी सहानुभूति की उम्मीद बेकार थी.

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जीवनज्योति

लड़की- भाग 3 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

लेखक- रमणी मोटाना

आज उसे लग रहा था कि उस ने व उस के पति ने बेटी के प्रति न्याय नहीं किया. क्या हमारी सोच गलत थी? उस ने अपनेआप से सवाल किया. शायद हां, उस के मन ने कहा. हम जमाने के साथ नहीं चले. हम अपनी परिपाटी से चिपके रहे.

पहली गलती हम से यह हुई कि बेटी के परिपक्व होने के पहले ही उस की शादी कर देनी चाही. अल्हड़ अवस्था में उस के कंधों पर गृहस्थी का बोझ डालना चाहा. हम जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. और दूसरी भूल हम से तब हुई जब वीणा ने अपनी पसंद का लड़का चुना और हम ने उस की मरजी को नकार कर उस की शादी में हजार रोडे़ अटकाए. अब जब वह अपनी शादी से खुश नहीं थी और पति से तलाक लेना चाह रही थी तो हम दोनों पतिपत्नी ने इस बात का जम कर विरोध किया.

बेटी की खुशी से ज्यादा उन्हें समाज की चिंता थी. लोग क्या कहेंगे, यही बात उन्हें दिनरात खाए जाती थी. उन्हें अपनी मानमर्यादा का खयाल ज्यादा था. वे समाज में अपनी साख बनाए रखना चाहते थे, पर बेटी पर क्या बीत रही है, इस बात की उन्हें फिक्र नहीं थी. बेटी के प्रति वे तनिक भी संवेदनशील न थे. उस के दर्द का उन्हें जरा भी एहसास न था. उन्होंने कभी अपनी बेटी के मन में पैठने की कोशिश नहीं की. कभी उस की अंतरंग भावनाओें को नहीं जानना चाहा. उस के जन्मदाता हो कर भी वे उस के प्रति निष्ठुर रहे, उदासीन रहे.

अहल्या को पिछली बीसियों घटनाएं याद आ गईं जब उस ने वीणा को परे कर बेटों को कलेजे से लगाया था. उस ने हमेशा बेटों को अहमियत दी जबकि बेटी की अवहेलना की. बेटों को परवान चढ़ाया पर बेटी जैसेतैसे पल गई. बेटों को अपनी मनमानी करने की छूट दी पर बेटी पर हजार अंकुश लगाए. बेटों की उपलब्धियों पर हर्षित हुई पर बेटी की खूबियों को नजरअंदाज किया. बेटों की हर इच्छा पूरी की पर बेटी की हर अभिलाषा पर तुषारापात किया. बेटे उस की गोद में चढ़े रहते या उस की बांहों में झूलते पर वीणा के लिए न उस की गोद में जगह थी न उस के हृदय में. बेटे और बेटी में उस ने पक्षपात क्यों किया था? एक औरत हो कर उस ने औरत का मर्म क्यों नहीं जाना? वह क्यों इतनी हृदयहीन हो गई थी?

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बेटी के विवर्ण मुख को याद कर उस के आंसू बह चले. वह मन ही मन रो कर बोली, ‘बेटी, तू जल्दी होश में आ जा. मुझे तुझ से बहुतकुछ कहनासुनना है. तुझ से क्षमा मांगनी है. मैं ने तेरे साथ घोर अन्याय किया. तेरी सारी खुशियां तुझ से छीन लीं. मुझे अपनी गलतियों का पश्चात्ताप करने दे.’

आज उसे इस बात का शिद्दत से एहसास हो रहा था कि जानेअनजाने उस ने और उस के पति ने बेटी के प्रति पक्षपात किया. उस के हिस्से के प्यार में कटौती की. उस की खुशियों के आड़े आए. उस से जरूरत से ज्यादा सख्ती की. उस पर बचपन से बंदिशें लगाईं. उस पर अपनी मरजी लादी.

वीणा ने भी कठपुतली के समान अपने पिता के सामंती फरमानों का पालन किया. अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं का दमन कर उन के इशारों पर चली. ढकोसलों, कुरीतियों और कुसंस्कारों से जकड़े समाज के नियमों के प्रति सिर झुकाया. फिर एक पुरुष के अधीन हो कर उस के आगे घुटने टेक दिए. अपने अस्तित्व को मिटा कर अपना तनमन उसे सौंप दिया. फिर भी उस की पूछ नहीं थी. उस की कद्र नहीं थी. उस की कोई मान्यता न थी.

प्रतीक्षाकक्ष में बैठेबैठे अहल्या की आंख लग गई थी. तभी भास्कर आया. वह उस के लिए घर से चायनाश्ता ले कर आया था. ‘‘मांजी, आप जरा रैस्टरूम में जा कर फ्रैश हो लो, तब तक मैं यहां बैठता हूं.’’

अहल्या नीचे की मंजिल पर गई. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर निकली थी कि एक अनजान औरत उस के पास आई और बोली, ‘‘बहनजी, अंदर जो आईसीयू में मरीज भरती है, क्या वह आप की बेटी है और क्या वह भास्करजी की पत्नी है?’’

‘‘हां, लेकिन आप यह बात क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘एक जमाना था जब मेरी बेटी शोभा भी इसी भास्कर से ब्याही थी.’’

‘‘अरे?’’ अहल्या मुंहबाए उसे एकटक ताकने लगी.

‘‘हां, बहनजी, मेरी बेटी इसी शख्स की पत्नी थी. वह इस के साथ कालेज में पढ़ती थी. दोनों ने भाग कर प्रेमविवाह किया, पर शादी के 2 वर्षों बाद ही उस की मौत हो गई.’’

‘‘ओह, यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ.’’

‘‘हां, अगर उस की मौत किसी बीमारी की वजह से होती तो हम अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उस का वियोग सह लेते. उस की मौत किसी हादसे में भी नहीं हुई कि हम इसे आकस्मिक दुर्घटना समझ कर मन को समझा लेते. उस ने आत्महत्या की थी.

‘अब आप से क्या बताऊं. यह एक अबूझ पहेली है. मेरी हंसतीखेलती बेटी जो जिजीविषा से भरी थी, जो अपनी जिंदगी भरपूर जीना चाहती थी, जिस के जीवन में कोई गम नहीं था उस ने अचानक अपनी जान क्यों देनी चाही, यह हम मांबाप कभी जान नहीं पाएंगे. मरने के पहले दिन वह हम से फोन पर बातें कर रही थी, खूब हंसबोल रही थी और दूसरे दिन हमें खबर मिली कि वह इस दुनिया से जा चुकी है. उस के बिस्तर पर नींद की गोलियों की खाली शीशी मिली. न कोई चिट्ठी न पत्री, न सुसाइड नोट.’’

‘‘और भास्कर का इस बारे में क्या कहना था?’’

‘‘यही तो रोना है कि भास्कर इस बारे में कुछ भी बता न सका. ‘हम में कोई झगड़ा नहीं हुआ,’ उस ने कहा, ‘छोटीमोटी खिटपिट तो मियांबीवी में होती रहती है पर हमारे बीच ऐसी कोई भीषण समस्या नहीं थी कि जिस की वजह से शोभा को जान देने की नौबत आ पड़े.’ लेकिन हमारे मन में हमेशा यह शक बना रहा कि शोभा को आत्महत्या करने को उकसाया गया.

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‘‘बहनजी, हम ने तो पुलिस में भी शिकायत की कि हमें भास्कर पर या उस के घर वालों पर शक है पर कोई नतीजा नहीं निकला. हम ने बहुत भागदौड़ की कि मामले की तह तक पहुंचें पर फिर हार कर, रोधो कर चुप बैठ गए. पतिपत्नी के बीच क्या गुजरती थी, यह कौन जाने. उन के बीच क्या घटा, यह किसी को नहीं पता.

‘‘हमारी बेटी को कौन सा गम खाए जा रहा था, यह भी हम जान न पाए. हम जवान बेटी की असमय मौत के दुख को सहते हुए जीने को बाध्य हैं. पता नहीं वह कौन सी कुघड़ी थी जब भास्कर से मेरी बेटी की मित्रता हुई.’’

अहल्या के मन में खलबली मच गई. कितना अजीब संयोग था कि भास्कर की पहली पत्नी ने आत्महत्या की. और अब उस की दूसरी पत्नी ने भी अपने प्राण देने चाहे. क्या यह महज इत्तफाक था या भास्कर वास्तव में एक खलनायक था? अहल्या ने मन ही मन तय किया कि अगर वीणा की जान बच गई तो पहला काम वह यह करेगी कि अपनी बेटी को फौरन तलाक दिला कर उसे इस दरिंदे के चंगुल से छुड़ाएगी.

वह अपनी साख बचाने के लिए अपनी बेटी की आहुति नहीं देगी. वीणा अपनी शादी को ले कर जो भी कदम उठाए, उसे मान्य होगा. इस कठिन घड़ी में उस की बेटी को उस का साथ चाहिए. उस का संबल चाहिए. देरसवेर ही सही, वह अपनी बेटी का सहारा बनेगी. उस की ढाल बनेगी. हर तरह की आपदा से उस की रक्षा करेगी.

एक मां होने के नाते वह अपना फर्ज निभाएगी. और वह इस अनजान महिला के साथ मिल कर उस की बेटी की मौत की गुत्थी भी सुलझाने का प्रयास करेगी.

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भास्कर जैसे कई भेडि़ये सज्जनता का मुखौटा ओढ़े अपनी पत्नी को प्रताडि़त करते रहते हैं, उसे तिलतिल कर जलाते हैं और उसे अपने प्राण त्यागने को मजबूर करते हैं. लेकिन वे खुद बेदाग बच जाते हैं क्योंकि बाहर से वे भले बने रहते हैं. घर की चारदीवारी के भीतर उन की करतूतें छिपीढकी रहती हैं.

सपनों की उड़ान: भाग 3- क्या हुआ था शांभवी के साथ

शादी होते ही 15 दिन तो शांभवी ने संयुक्त परिवार में घूंघट के भीतर यह सोच कर बिता दिए कि दिल्ली जाते ही वे इन सब बंधनों से आजाद हो जाएगी. मगर दिल्ली पहुंच कर उस के सारे सपने भरभरा टूट गए.

विजय बेहद लापरवाह और आलसी इंसान निकला. पूरे घर में सामान फैला कर रखता. घरेलू कार्य में मदद करने को अपनी तोहीन समझता. उस की वैस्टर्न ड्रैस को ले कर भी टीकाटिप्पणी करता.

हनीमून के लिए हिल स्टेशन का प्रताव रखने पर बोला, ‘‘हनीमून तो वे जाते हैं जो

अपने परिवार की बंदिशों में रहते हैं. हम तो यहां आजाद पंछी हैं. हमें कहीं जाने की क्या जरूरत? तुम ने तो कभी दिल्ली भी नहीं देखी है. वीकैंड में तुम्हें अलगअलग जगह जैसे इंडिया गेट, कुतुबमीनार, कनाट प्लेस, अक्षरधाम सब आराम से घुमा दूंगा.’’

शांभवी मन मसोस कर रह जाती. इशिता अभी भी उत्सुकता से उस के फोन का इंतजार करती. मगर शांभवी हां हूं, ठीक हैं कह कर बात टाल जाती.

शांभवी की शादी अच्छे से संपन्न होते ही भानुप्रताप ने इशिता की कुंडली रिस्तेदारों के माध्यम से अनेक जगह भिजवा दी. 2-4 जगह से अच्छे प्रस्ताव भी मिल गए. फिर क्या था भानुप्रताप अपनी पत्नी रितिका के पीछे पड़ गए, ‘‘सुनो, तुम इशिता को एक दिन बैठा कर अच्छे से समझओ. इतने अच्छे रिश्ते आसानी से नहीं मिलते. अभी उस की उम्र कम है जैसेजैसे उम्र बढ़ेगी रिश्ते मिलने भी कम हो जाएंगे.’’

‘‘जब इशिता पहले जौब करना चाहती हैं तो उसे कर लेने दो, फिर रिश्ते भी देख लेंगे,’’ रितिका ने समझया.

‘‘तुम ने भी तो शादी के 4 महीने बाद जौइन की थी वैसे ही वह भी कर लेगी,’’ भानुप्रताप लापरवाही से बोले.

‘‘आप ने कभी ध्यान भी दिया कि ससुराल और नौकरी के बीच तालमेल बैठाने में मुझे कितनी मुश्किल होती थी? आप तो हाथ झड़ कर निकल जाते थे सारी बातें मुझे ही सुननी पड़ती थीं,’’ रितिका का मन कड़वाहट से भर गया.

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‘‘एक लड़का रेलवे में इंजीनियर है दूसरा एमबीए है, सालाना 24 लाख का पैकेज है. कुंडली और फोटो देख कर दोनों परिवार सहमत हैं. तुम बस इसे राजी कर लो तो मैं उन लोगों को अपने घर आमंत्रित करूं,’’ भानुप्रताप ने रितिका को समझया.

‘‘मैं उसे कुछ नहीं कहूंगी जब आप को पता है वह अभी शादी करने को राजी नहीं है तो आप ने बिना बताए उस के फोटो और कुंडली क्यों भेजी?’’

‘‘बेकार बहस न करो. इतना अच्छा रिश्ता घर बैठे नहीं मिलता,’’ भानुप्रताप ऊंची आवाज

में बोले.

रितिका बहस में न पड़ कर वहां से उठ कर रसोई में चली गई. थोड़ी देर

में इशिता भी रसोईघर में आ गई.

‘‘मम्मी मैं क्या सुन रही हूं पापा ने मेरे लिए रिश्ता ढूंढ़ा है? आप ने मुझ से पूछे बिना इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया?’’

‘‘मुझे भी नहीं पता… तुम्हारे पापा हमेशा अपनी मरजी ही तो चलाते आए हैं इस घर में.

‘‘सब आप की वजह से हुआ है आप कभी दमदार आवाज में विरोध नहीं करती हैं न, इसी बात का फायदा पापा को मिल जाता है.’’

इशिता की बात सुन कर रितिका को एक झटका लगा. इशिता सही कह रही है वो कभी भी किसी बात का विरोध ही नहीं करती बस समझता ही करती आई है.

1 हफ्ता तो यही तमाशा चलता रहा. भानुप्रताप और इशिता दोनों ही रितिका से एकदूसरे की शिकायत करते रहते. एक दिन परेशान हो रितिका ने दोनों को आमनेसामने बैठा दिया और बोलीं, ‘‘जो तुम दोनों मुझ से कहते रहते हो कि इसे यह बता दो, उसे यह बता दो. आज फुरसत में हो आमनेसामने बैठ कर बात कर लो कि लड़के वालों को क्या जवाब भिजवाना है.’’

भानुप्रताप ने इशिता से कहा, ‘‘पहले मेरी बात ध्यान से सुनना बीच में बिलकुल नहीं बोलना, फिर मैं तुम्हारी बात सुनूंगा.’’

इशिता सहमत हो गई. भानुप्रताप ने उसे दोनों रिश्तों के विषय में समझया. उन दोनों युवकों का बायोडेटा, फोटोग्राफ, पारिवारिक रहनसहन के विषय में बताया.

इशिता अनमनी सी सुनती रही. पापा की बात समाप्त होते ही बोली, ‘‘आप भाई को अभी कितने साल और तैयारी के लिए देने जा रहे हैं?’’

‘‘कम से कम 3 साल तो देने ही पड़ेंगे. इतना आसान नहीं है आईएएस बनना.’’

‘‘तो ठीक है मुझे बस सालभर का समय दे दीजिए, फिर मैं आप की बात मान जाऊंगी.’’

‘‘सालभर कोई रिश्ता इंतजार नहीं करेगा. नौकरी के लिए आवेदन करती रहना शादी के बाद.’’

‘‘कहा न कि पहले नौकरी करूंगी फिर शादी की सोचूंगी. मन करेगा तो करूंगी नहीं तो खुद कमाऊंगी, खुद पर उड़ाऊंगी,’’ इशिता ने लापरवाही से कहा.

‘‘यह क्या बकवास है… रितिका तुम इसे कुछ समझती क्यों नहीं?’’

पितापुत्री जब भी आमनेसामने आते बहस शुरू हो जाती. रितिका ने भी उन की बहस के बीच बोलना बंद कर दिया.

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इशिता ने अपना लक्ष्य केद्रिंत कर लिया. वह हर दिन कम से कम 5-6 कंपनियों में आवेदन करती. उस दिन वह सुबह से साक्षात्कार में व्यस्त थी. शाम को चाय का कप पकड़ कर वह सोच में बैठी थी कि पिछले 15 दिनों में दिए साक्षात्कार के परिणाम भी अब जल्द ही आने शुरू हो जाएंगे. उसे पूरी उम्मीद है कि इस बार उसे नौकरी मिल ही जाएगी.

तभी सामने से पापा को बिस्कुट का डब्बा लाते देख वह समझ गई कि फिर से उसे शादी के लिए फुसलाने को पापा बिस्कुट का सहारा ले कर आ रहे हैं और उसी विषय पर चर्चा करेंगे. उस का सिर अब भारी हो चला था सुबह से लैपटौप पर आंखें गड़ाए वह थक चुकी थी. पापा से बहस कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहती थी. अत: वहां से उठ कर बरामदे में रखी कुरसी पर बैठ गई.

भानुप्रताप भी सब समझ गए. अपनी बेटी की जिद देख कर उन्हें बहुत क्रोध आया तो वहीं से जोरजोर से बोलने लगे, ‘‘एक शांभवी है अपनी ससुराल वालों का दिल उस ने जाते ही जीत लिया. अपनी गृहस्थी में रचबस गई है. किसी से उसे कोई शिकायत नहीं. उस के मांपापा भी निश्चिंत हो गए हैं. एक हम हैं इतने अच्छे रिश्ते पकड़ कर बैठे हैं. रोज लड़के वालों से संपर्क कर उन्हें रोके हुए हैं. मगर हमारी बेटी सब से ज्यादा जिद्दी हैं. शांभवी को देखो उसे तो बीएड कर कैरियर बनाने की नहीं पड़ी है. एमबीए कर दिमाग खराब हो गया है इस का…’’

बरामदे तक आ रही बड़बड़ की आवाज से ध्यान हटाने के लिए वह फोन पर मेल चैक करने लगी. एक मेल को पढ़ कर वह उछल पड़ी. उसे एमएलसी में जौब मिल गई थी. उस ने मम्मीपापा को यह खुशखबरी देने के लिए बरामदे से अंदर झंका तो उसे मम्मी सिर पकड़ कर बैठी दिखीं और पापा फोन पर अच्छा, हां, फिर लगातार बोलते हुए दिखे.

‘‘क्या हुआ?’’ उस ने रोआंसा मुंह ले कर बैठी रितिका से पूछा.

‘‘शशश…’’ भानुप्रताप ने उसे चुप रहने को कहा.

वह सोफे पर बैठ गई.

फोन के बंद होते ही भानुप्रताप चुपचाप दूसरे सोफे पर बैठ गए.

‘‘कोई कुछ बोलेगा?’’ उस ने अपने मम्मीपापा से पूछा.

‘‘शांभवी के घर पुलिस आई थी उस के पति की पिटाई कर के गई,’’ मम्मी ने कहा.

‘‘क्या? मगर क्यों? पड़ोसियों से झगड़ा हुआ क्या?’’ इशिता ने पूछा.

‘‘ विजय और शांभवी की बहस हो गई थी तो विजय ने हाथ उठा दिया. शांभवी सामने दीवार से टकरा गई. उस के माथे से खून निकलने लगा. उसी समय दोनों भाई शांभवी से मिलने उस के घर पहुंच गए. शांभवी की यह हालत देख कर दोनों ने पुलिस बुला ली. पुलिस ने आ कर विजय की ठुकाई की. फिर शांभवी के कहने से छोड़ दिया वरना वे विजय को घरेलू हिंसा एक्ट में थाने ले जाने को तैयार थे,’’ भानुप्रताप एक सांस में बोल गए.

‘‘अब शांभवी बता रही है कि वह तो पहले भी 1-2 बार हाथ उठा चुका है मगर इस ने किसी को कानोंकान खबर न होने दी. कह रही थी कि वह ये सब बता कर आप लोगों को परेशान नहीं करना चाह रही थी,’’ रितिका ने कहा.

‘‘बेवकूफ है. वह कहती थी कि शादी के बाद घूमनेफिरने और मनमरजी करने की आजादी मिल जाएगी. मिल गई उसे आजादी? पिता के पहरे से निकली तो पति की बंदिशों में कैद हो गई. मैं ने कहा था बीएड कर लो, जौब पकड़ लो, आर्थिक आजादी तभी मिलेगी. मगर मैडम को तो शादी करनी थी,’’ इशिता ने बौखला कर कहा.

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रितिका ने उसे चुप रहने का इशारा किया.

‘‘मुझे ग्रेटर नोएडा में जौब मिल गई है. सालाना 7 लाख का पैकेज है. अब आप को मेरी बात सुननी पड़ेगी पापा. जब मेरा मन होगा मैं तभी शादी करूंगी. चाहे 1 साल बाद हो या फिर 4 साल बाद,’’ यह कह कर उस ने पापा की प्रतिक्रिया जाननी चाही.

भानुप्रताप ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘तुम ठीक कहती हो बेटा, खूब तरक्की करो, सदा सुखी रहो.’’

सपनों की उड़ान: भाग 2- क्या हुआ था शांभवी के साथ

सुबह से ही पूरे घर में जैसे भूचाल सा आ गया था. लड़के वाले फर्रुखाबाद से

हरदोई लंच टाइम तक आने वाले थे. दोनों गृहिणीयां भोजन के इंतजाम में व्यस्त हो गईं. शांभवी और इशिता कमरे में कपड़ों के ढेर के सामने खड़े हो एकदूसरे के ऊपर टीकाटिप्पणी में व्यस्त हो गईं.

‘‘यह ड्रैस कैसी है दी?’’ इशिता ने लौंग स्कर्ट और सफेद टौप पहन इठलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ भी पहन ले… वैसे भी तुझे सब के सामने आने की मनाही है,’’ शांभवी ने मुंह बिचका कर चिढ़ाया.

‘‘अरे, तुम्हारे विजय के लिए तैयार नहीं हो रही हूं. अपने लिए तैयार हो रही हूं,’’ कह कर उस ने कपड़ों के ढेर से कपड़े निकाल कर सहेजने शुरू कर दिए.

‘‘ मेरा विजय… अभी हमारा रिश्ता तय नहीं हुआ है,’’ शांभवी ने कहा.

‘‘तेरे बौयफ्रैंड को पता है यह?’’ रिश्ता इशिता ने पूछा.

‘‘कालेज फ्रैंड हैं बौयफ्रैंड नहीं… वह जौब करने चंडीगढ़ चला गया है अब ज्यादा बात नहीं होती,’’ शांभवी ने लापरवाही से कहा.

‘‘तब ठीक है मुझे लगा कि तू उसे धोखा दे रही है,’’ इशिता ठंडी सांस भर कर बोली.

‘‘तू सुना, अभी तक कोई बौयफ्रैंड नहीं बना?’’

‘‘नहीं, मुझे बौयफ्रैंड, शादी इन सब में फिलहाल कोई इंटरैस्ट नहीं है. मेरा सारा ध्यान अच्छी नौकरी ढूंढ़ने में लगा है. सच कहूं तो पापा का तानाशाही रवैया देख मेरा तो शादी करने का मन ही नहीं करता है. मम्मी इतनी मेहनत कर कमाती हैं पर पापा 1-1 रुपए का हिसाब रखते हैं. सारी शौपिंग, इनवैस्टमैंट सबकुछ पापा की मरजी से ही होता है.’’

तभी उन के कमरे का दरवाजा खटखटा कर रितिका ने कहा, ‘‘यह साड़ी शांभवी को पहना दो… विजय की दादी भी साथ आ रही हैं.’’

इशिता ने दरवाजा खोल कर पूछा, ‘‘साड़ी?’’

‘‘हां. बिचौलिए से पता चला है कि उस की दादी भी गाड़ी में सवार हो गई हैं… लगता है रिश्ता पक्का करने ही आ रहे हैं.’’

शांभवी सिर पकड़ कर बैठ गई.

‘‘क्या हुआ दी?’’

‘‘मैं ने सोचा था दिखनेदिखाने और रिश्ता पक्का होने के बीच कुछ समय मिल जाएगा, जिस से विजय से खुल कर बातचीत भी हो जाएगी, मगर सब इतनी जल्दी हो रहा है कि मुझे तो कुछ सम?ा में ही नहीं आ रहा?’’

‘‘शादी तो करना चाहती हो न?’’

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‘‘हां, विजय दिल्ली में जौब करता है. अच्छा कमाता है. अब पहली बार इस शहर से बाहर निकलने को मिलेगा. बेटों को तो बाहर पढ़ने भेज दिया, मगर हमें जाने को नहीं मिला. सोचती हूं शादी के बाद इस रोकटोक से आजाद हो जाऊंगी. अपनी मरजी का पहनंगी और घूमूंगी.’’

‘‘तो फटाफट तैयार हो जा. साड़ी का पल्लू सिर पर रख ले और सब पर इंप्रैशन जमा देना. मुझे तो सामने आने को मना किया है, शायद रिश्ता पक्का हो जाने के बाद मिलवा दें,’’ इशिता अपनी आंखें मटका कर बोली.

विजय के मम्मीपापा, चाचाचाची, दादी

और बिचौलिए समेत 7 लोग बैठक में मौजूद थे. चायपानी के बाद शांभवी को उस की मम्मी ले कर चली गईं.

इशिता बेचैनी से कमरे के चक्कर काटने लगी. जब न रहा गया तो धीरे से बैठक की ओर बढ़ चली. परदे की ओट से सोफे में बैठे विजय और शांभवी दिखाई दे रहे थे. शांभवी की नजर परदे की ओट से झांकती इशिता के ऊपर पड़ गई. उस ने बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोकी और उसे आंखों से वहां से जाने का इशारा किया, जिसे रितिका ने भी देख लिया. वे तुरंत उठ कर खड़ी हो गईं और परदे के पीछे आ कर इशिता का हाथ थाम कर उसे कमरे की ओर खींच ले गईं और बोलीं, ‘‘क्या कर रही हो? उस का रिश्ता पक्का हो जाने दो, फिर मिलना सब से… इतनी बड़ी हो गई हो, मगर बचपना नहीं गया तुम्हारा.’’

उस के पापा भी पूरा माजरा सम?ा कर कमरे में आ गए.

‘‘जब मुझे एमबीए के लिए पूना में एडमिशन मिला तो आप ने नहीं भेजा तब मैं छोटी थी और आज कह रहे हैं कि बड़ी हो गई हो.’’

‘‘देखो यहां मुझे कोई तमाशा नहीं चाहिए. अब तो रिश्ता तय हो जाने के बाद भी तुम्हें बाहर आने की जरूरत नहीं, यहीं बैठी रहना,’’ पापा गुस्से से बोले.

‘‘मैं आऊंगी भी नहीं… मुझे अब बुलाना भी नहीं,’’ कह कर वह अपमानित हो तकिए में सिर रख कर सिसकने लगी. उस के मम्मीपापा उसे वैसे ही छोड़ कर कमरे से बाहर चले गए. कुछ ही देर में वह नींद के आगोश में समा गई.

सारे मेहमानों को विदा कर पूरा परिवार तनावमुक्त हो बैठक में हासपरिहास में व्यस्त हो गया. शांभवी जब कमरे में आई तो इशिता बेसुध सोई हुई थी.

‘‘ कितना सोएगी इशिता, यह मेरे ब्लाउज में फंसी पिन निकाल दे, मेरा हाथ पीठ नहीं पहुंच रहा है… यह पिन कहां लगा दी तूने?’’ उस ने अपनी साड़ी को निकालते हुए कहा.

इशिता आंख मलते हुए उठी सामने शांभवी को साड़ी से उल?ा हुआ देख हंस पड़ी और बोली, ‘‘फाइनल हो गया?’’

‘‘हां, 2 महीने बाद सगाई और शादी साथ ही हैं,’’ कह कर अपने गले में पड़ी सोने की चेन दिखाते हुए कहा, ‘‘यह विजय की दादी ने पहनाई है.’’

‘‘तुझे भी विजय पसंद आया?’’

‘‘पता नहीं… कुछ सम?ा नहीं आ रहा है. घर वालों को तो बहुत पसंद आया. मुझे विजय नहीं अपनी आजादी चाहिए. शादी के बाद घर में मेरी मरजी चलेगी. अपने मन का खाना, पहनना बस इस से ज्यादा मुझे जिंदगी से कुछ नहीं चाहिए.’’

‘‘पता नहीं आप क्या सोचती हैं दी, मगर मेरी नजर में आर्थिक आजादी ज्यादा महत्त्व रखती है. मुझे तो बस एक अच्छी सी नौकरी मिल जाए. फिर मैं आत्मनिर्भर बन जाऊंगी. ध्यान रहे यह सोने की चेन कही खूंटे से बांधने वाली रस्सी में न बदल जाए.’’

‘‘चल हट, पूरा समय बकवास… देखना विजय को मैं कैसे अपने आगेपीछे नचाती हूं,’’ शांभवी ने अपनी ऊंगली में चेन को लपेटते हुए कहा.

शादी की खरीदारी व अन्य तैयारी के लिए शांभवी का परिवार लखनऊ आ गया. उन 15 दिनों में इशिता को शांभवी और विजय की रसभरी बातें, व्हाट्सऐप्प पर पढ़नेसुनने को मिलीं.

‘‘सोच रहा हूं जब तुम मेरे साथ दिल्ली में रहोगी तो मैं रोज तुम्हारे लिए अलगअलग रंग के बुके लाऊंगा.’’

‘‘और मैं हर शाम अलग अंदाज में सज कर तुम्हें चौंका दूंगी कभी मराठी, कभी पंजाबी और कभी…’’

‘‘तुम्हें पता है तुम्हारी आंखें कितनी नशीली हैं… तुम्हें देखते ही मुझे पहली नजर का प्यार हो गया है.’’

‘‘मैं तो बस यही कहूंगी, ‘आए हो मेरी जिंदगी में तुम बहार बन के, मेरे संग यों ही रहना तुम प्यारप्यार बन के.’’’

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‘‘गलत बात इशिता तुझे मैं ने अपना फोन लहंगे की डिजाइन पसंद करने के लिए दिया था न कि मेरी और विजय की चैट पढ़ने के लिए,’’ कह शांभवी ने फोन छीन लिया.

‘‘सौरी दी, पर चैट पढ़ कर बड़ा मजा आ रहा है. क्या आप को वाकई प्यार हो गया है?’’ इशिता ने पूछा.

‘‘अरे वह तो यों ही लिख दिया, अब उस ने इतना कुछ लिखा तो…’’

‘‘यह क्या बात हुई? मैं इसीलिए शादी नहीं करना चाहती. इतना ?ाठ मु?ा से न बोला जाएगा.’’

‘‘मुझे भी बस शादी कर अपने मायके की कैद से बाहर निकलना हैं. विजय कहता है कि उसे नईनई जगह घूमना बहुत पसंद हैं हम हर साल एक नई लोकेशन में फोटोशूट करते मिलेंगे.’’

‘‘और बीएड का क्या?’’

‘‘देखा जाएगा, मन करेगा तो पूरा कर लूंगी.’’

‘‘देखती हूं, अगर आप को अपनी शादी में इतना रोमांस, सैरसपाटा और उन्मुक्तता मिल गई तो शायद शादी के प्रति मेरी धारणा भी बदल जाए.’’

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