आजकल विभू कुछ ज्यादा ही चिड़चिड़ा हो गया है. सारा दिन रिरियाता रहता है. अकेला छोड़ो तो कुछ भी उठा कर मुंह में डाल लेता है. 2 दिन से तो लूज मोशन इतने ज्यादा हो गए कि ड्रिप चढ़वाने तक की नौबत आ गई. घबराई सी काव्या उसे पास के डाक्टर को दिखाने ले गई.
‘‘बच्चे के दांत निकल रहे हैं. ऐसे में मसूढ़ों में खुजली होने के कारण बच्चों की हर समय कुछ न कुछ चबाने की इच्छा होती है, इसलिए वे कुछ भी मुंह में डालते रहते हैं. इसी से पेट में इन्फैक्शन हो गया है. आप बच्चे को खिलौनों में उलझाए रखें. कोशिश करें कि बच्चा अकेला न रहे,’’ डाक्टर ने उसे कारण बता कर समझाया.
‘‘हर बार बस मैं ही बुरी कहलाती हूं. अब साथी कहां से लाऊं, बच्चे को अकेले रखने का फैसला भी तो मेरा अपना ही सोच था. काव्या रोआंसी ओ आई. आज उसे सास की बहुत याद आ रही थी. लेकिन मनमरजी से जीने की ऐंठ अभी भी कम नहीं हुई थी.
8 महीने का विभू अब घुटनों के बल चलने लगा था. सो कर उठने के बाद चलना शुरू होता तो फिर चीटी की तरह रुकने का नाम ही नहीं लेता था. घर का वह हर सामान जो उस की पहुंच में आ जाता, बस उठाया और धम्म से नीचे… कभी ड्रैसिंगटेबल उस की जद में होती तो कभी रसोई के बरतन… कभीकभी अभय के जरूरी कागजात भी उस के हाथों जन्नत पा जाते. काव्या उस के पीछेपीछे भागती थक जाती, लेकिन विभू सामान गिराता नहीं थकता, क्या करे काव्या… किसी से शिकायत करने की स्थिति में भी नहीं थी.
फिर एक दिन काव्या दोपहर में विभू के साथ लेटी थी. गृहस्थी के बोझ से उकताई हुई काव्या जल्द ही खर्राटे भरने लगी. विभू की नींद कब खुली उसे पता ही नहीं चला. पलंग से नीचे उतरने की कवायद में विभू औंधे मुंह गिर पड़ा. गिरने के साथ ही पलंग का कोना उस के माथे में लगा और खून निकलने लगा. बच्चे की चीख के साथ काव्या की नींद खुली. बच्चे को खून से लथपथ देख कर काव्या के हाथपांव फूल गए. तुरंत अभय को फोन लगाया और खुद विभू को ले कर डाक्टर के पास भागी.
‘‘सिर में गहरी चोट आई है… 4 टांके लगे हैं… मैं ने आप से पहले भी कहा था कि इस उम्र में बच्चे अधिक चंचल होते हैं, उन्हें हर समय निगरानी में रखना चाहिए… जरा सी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है,’’ डाक्टर के कहने के साथ ही काव्या की आंखों से आंसू बहने लगे.
‘‘तुम से नहीं पलेगा बच्चा… मां को फोन लगाओ,’’ अभय उस पर लगभग चिल्ला ही उठता पर हौस्पिटल के शिष्टाचार के नाते उसे अपनी जबान पर साइलैंसर लगाना पड़ा. बच्चे की इस हालत के लिए वह काव्या को ही कुसूरवार मान रहा था. काव्या ने मोबाइल निकाला और सास का नंबर डायल किया.
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‘‘यहां नैटवर्क नहीं आ रहा है, मैं बाहर जा कर ट्राई करती हूं,’’ काव्या को उस के ईगो ने बहाने बनाने खूब सिखा दिए थे.
‘‘सुन रिया… यार बहुत बड़ी प्रौब्लम हो गई… लगता है अब अभय अपने मांपापा को बुलाए बिना नहीं मानेगा… बता न क्या करूं? कैसे उन्हें आने से रोकूं?’’ काव्या ने रिया को फोन लगाया और आज के घटनाक्रम का ब्यौरा देने लगी.
‘‘अरे यार, मैं अपनी ससुराल आई हुई हूं… अभी बात नहीं कर सकते… तू नव्या से बात कर न…’’ रिया ने उसे बात पूरी करने से पहले ही टोक दिया.
‘‘तुम और ससुराल? तुम्हें तो सासससुर के साथ रहना कभी नहीं सुहाया… फिर अचानक तुम्हारा यह फैसला… तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न…’’ अब चौंकने की बारी काव्या की थी.
‘‘हां यार, अब मैं भी तुम्हारी ही श्रेणी में आने वाली हूं न… तुम्हारी हालत देखदेख कर मुझे समझ में आ गया कि कुछ दिन का हनीमून पीरियड तो ठीक है, लेकिन हमेशा के लिए परिवार से दूर रहने में कोई समझदारी नहीं है, खासकर तब जब निकट भविष्य में उन की जरूरत पड़ने वाली हो कहने के अंदाज से ही रिया का स्वार्थ टपक रहा था.
काव्या को लगा मानो जिस डाली का वह सहारा लिए बैठी थी उस पर किसी ने कुल्हाड़ी चला दी.
अब तक अभय अपने मांपापा को फोन कर चुका था. शाम होतेहोते दादादादी अपने पोते के पास थे. विभू को अभी तक सिर्फ अपने मांपापा के पास रहने का ही अभ्यास था. इसीलिए अजनबी चेहरों को देखते ही वह काव्या की गोद में दुबक गया. लेकिन खून आखिर अपनी तरफ खींचता ही है… थोड़ी ही देर में विभू दादादादी से घुलमिल गया. रात को भी उन्हीं के साथ सोया.
अगली सुबह काव्या के चेहरे की रौनक और अभय के चेहरे की संतुष्टि
बता रही थी कि महीनों बाद दोनों ने इतनी निश्चिंतता से नजदीकियां भोगी हैं.
पोते के आगेपीछे भागतेभागते दादादादी के घुटनों का दर्द न जाने कहां गायब हो गया. दूधब्रैड के सहारे दिन निकालने वाले घर की रसोई दोनों समय पकवानों की खुशबू से महकने लगी. दादी की कोशिशों से विभू ने फीडिंग बोतल छोड़ कर गिलास से दूध पीना सीख लिया. दादा की उंगली थाम कर डगमगडगमग पग भी भरने लगा था.
‘‘काव्या, इस तरह तो तुम हम सब को खिलाखिला कर तोंदू बना दोगी,’’ एक शाम अभय ने रीझ कर कहा तो काव्या निहाल हो गई.
‘तसवीर के इस दूसरे रुख से मैं अब तक अनजान ही रही… उफ, कितनी बड़ी नासमझ थी,’ सोच काव्या आत्मग्लानि से भर जाती.
‘‘बच्चों के साथ 10 दिन कैसे बीत गए पता पता ही नहीं चला. अब हमें लौटना चाहिए,’’ एक दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर ससुरजी ने कहा तो काव्या हैरत से अपनी सास की तरफ देखने लगी.
‘‘हां, विभू के साथ मेरा तो जैसे बचपन ही लौट आया था, लेकिन फिर भी… बच्चों को उन की जिंदगी उन के तरीके से जीने देनी चाहिए. ये उन के खेलनेखाने के दिन हैं. उम्र का यह दौर लौट कर थोड़े आता है…’’ सास ने चाय पी कर कप नीचे रखते हुए पति की हां में हां मिलाई.
‘‘लौटना तो है ही… लेकिन आप अकेले नहीं जाएंगे, हम सब साथ चलेंगे… मैं ने अपना ट्रांसफर फिर अपने होम टाउन करवाने के लिए ऐप्लिकेशन दे दी है. तब तक आप लोग यहीं रहेंगे… अपने परिवार के साथ…’’ अभय ने एक रहस्यमयी मुसकान उछाली तो काव्या ने भी उस का साथ दिया.
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‘‘बड़े, सयाने सही कहते हैं कि बिस्तर चाहे कितना भी आरामदायक क्यों न हो, पूरी रात एक करवट नहीं सोया जा सकता,’’ दादी पहले अपने मूल और फिर सूद की तरफ देख कर मुसकराईं.
‘‘हां, सुबह के उड़े हुए पंछी शाम को घर लौटते ही हैं… यह अलग बात है कि कभीकभी रात भी हो जाती है, लेकिन लौटते तो अंतत: घोंसले में ही है न.’’ दादा भी मुसकरा दिए.
विभू अपने पापा की उंगली थामे दादा की बगल में खड़ा था. सुबह, दोपहर और शाम तीनों मुसकरा रहे थे.